अनंत विजय ने उजागर किया प्रेमचंद पर फैलाए जा रहे साहित्यिक झूठ का सच

इस लेख के आधार पर ये साबित करने का प्रयास किया कि प्रेमचंद ने राष्ट्रवादियों को भला बुरा कहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार प्रेमचंद ने ये लेख 1934 के आरंभ में लिखा था।

Last Modified:
Monday, 11 August, 2025
anantvijay


अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

परिचित ने यूट्यूब का वीडियो लिंक भेजा। वीडियो के आरंभ में एक पोस्टर लगा था। उसपर लिखा था क्या कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद हिंदुत्ववादी थे? कौन उनकी विरासत को हड़पना चाहता है? यूं तो यूट्यूब के वीडियोज को गंभीरता से नहीं लेता लेकिन पोस्टर के प्रश्नों को देखकर जिज्ञासा हुई। देखा तो एक स्वनामधन्य आलोचक से बातचीत थी। सुनने के बाद स्पष्ट हुआ कि एक विशेष उद्देश्य से वीडियो बनाया गया है। इस बातचीत में कई तथ्यात्मक गलतियां और झूठ पकड़ में आईं। स्वयंभू आलोचक ने कई बार प्रेमचंद के एक लेख क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं? को उद्धृत करते हुए राष्ट्रवादियों को कठघरे में खड़ा करने का यत्न किया।

इस लेख के आधार पर ये साबित करने का प्रयास किया कि प्रेमचंद ने राष्ट्रवादियों को भला बुरा कहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार प्रेमचंद ने ये लेख 1934 के आरंभ में लिखा था। उनका ये लेख स्वतंत्र रूप से नहीं लिखा गया था बल्कि भारत पत्रिका में ज्योति प्रसाद निर्मल के लिखे गए लेख की प्रतिक्रिया में था। यह ठीक है कि उस लेख में प्रेमचंद ने जाति व्यवस्था की आलोचना की है और एक जातिमुक्त समाज की बात की है। प्रेमचंद ने उस लेख में ज्योति प्रसाद निर्मल को केंद्र में रखकर उनको ब्राह्मणवादी बताया।

ये भी माना कि उनकी कहानियों को कई ब्राह्मण संपादकों ने प्रकाशित किया, जिनमें वर्तमान के संपादक रमाशंकर अवस्थी, सरस्वती के संपादक देवीदत्त शुक्ल, माधुरी के संपादक रूपनारायण पांडे , विशाल भारत के संपादक बनारसीदास चतुर्वेदी आदि प्रमुख हैं। प्रेमचंद अपने इसी लेख में हिंदू समाज को पाखंड और अंधविश्वास से मुक्त करने की बात प्रमुखता से करते हैं लेकिन कहीं भी राष्ट्रवादियों की आलोचना नहीं करते।

वो उन राष्ट्रवादियों की आलोचना करते हैं जो पाखंड और कर्मकांड को प्रश्रय देते हैं। पर इसी लेख में वो कहते हैं कि मुरौवत में भी पड़कर आदमी अपने धार्मिक विश्वास को नहीं छोड़ सकता। कुल मिलाकर जिस लेख को आलोचक माने जानेवाले व्यक्ति अपने तर्कों का आधार बना रहे हैं उसका संदर्भ ही अलग है। खैर... वामपंथी आलोचकों की यही प्रविधि रही है, संदर्भ से काटकर तथ्यों को प्रस्तुत करने की।

आलोचक होने के दंभ में इस बातचीत में एक सफेद झूठ परोसा गया। एक किस्सा सुनाया गया जो कल्याण पत्रिका और हनुमानप्रसाद पोद्दार से संबंधित है। कहा गया कि ‘प्रेमचंद धर्म को लेकर इतने सचेत थे कि जब कल्याण पत्रिका के संपादक-प्रकाशक हनुमानप्रसाद पोद्दार ने प्रेमचंद से कहा कि हमारी पत्रिका में सारे बड़े साहित्यकार लिख रहे हैं, सारे बड़े लेखक लिख रहे हैं, आपने अभी तक कोई लेख नहीं दिया। तो प्रेमचंद ने कहा कि आपकी तो धार्मिक पत्रिका है, इस धार्मिक पत्रिका में मेरा की लिखने का स्थान नहीं बनता।

समझ में नहीं आता कि मैं किस विषय पर लिखूं क्योंकि ये हिंदू धर्म पर केंद्रित पत्रिका है। अब जरा खुद को विद्वान मानने और मनवाने की जिद करनेवाले इस व्यक्ति की सुनाई कहानी की पड़ताल करते हैं। वो किस्से के मार्फत बताते हैं कि प्रेमचंद ने हनुमानप्रसाद पोद्दार को धार्मिक पत्रिका कल्याण में लिखने से मना कर दिया था। कथित आलोचक जी से अगर कोई प्रमाण मांगा जाएगा तो वो कागज मांगने की बात करके उपहास उड़ा सकते हैं। हम ही प्रमाण देते हैं। 1931 में प्रकाशित कल्याण के कृष्णांक में प्रेमचंद का एक लेख प्रकाशित है।

इस लेख का शीर्षक है श्रीकृष्ण और भावी जगत। कल्याण का ये विशेषांक कालांतर में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। अब भी बाजार में उपलब्ध है। इस लेख में प्रेमचंद ने भगवान श्रीकृष्ण को कर्मयोग के जन्मदाता के रूप में संसार का उद्धारकर्ता माना है। वो लिखते हैं कि यूरोप ने अपनी परंपरागत संस्कृति के अनुसार स्वार्थ को मिटाने का प्रयत्न किया और कर रहा है। समष्टिवाद और बोल्शेविज्म उसके वह नये अविष्कार हैं जिनसे वो संसार का युगांतर कर देना चाहता है। उनके समाज का आदर्श इसके आगे और जा भी न सकता था, किंतु अध्यात्मवादी भारत इससे संतुष्ट होनेवाला नहीं है। ये वो प्रमाण है जिससे स्वयंभू आलोचक का सफेद झूठ सामने आता है। आश्चर्य तब होता है जब सार्वजनिक रूप से झूठ का प्रचार करते हैं और प्रेमचंद को अधार्मिक भी बताते हैं।

प्रेमचंद को लेकर इस बातचीत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघियों (इस शब्द को बार-बार कहा गया) पर प्रश्नकर्ता और उत्तरदाता दोनों आरोप लगाता हैं। इन आरोपों में कोई तथ्य नहीं सिर्फ अज्ञान और प्रेमचंद का कुपाठ झलकता है। ऐसा प्रतीत होता कि बगैर किसी तैयारी के ये साक्षात्कार किया गया। ऐसे व्यक्ति को मंच दिया गया जो झूठ का प्रचारक बन सके। प्रेमचंद ने ना सिर्फ कल्याण के अपने लेख बल्कि एक अन्य लेख स्वराज्य के फायदे में भी लिखा ‘अंग्रेज जाति का प्रधान गुण पराक्रम है, फ्रांसिसियों का प्रधान गुण स्वतंत्र प्रेम है, उसी भांति भारत का प्रधान गुण धर्मपरायणता है।

हमारे जीवन का मुख्य आधार धर्म था। हमारा जीवन धर्म के सूत्र में बंधा हुआ था। लेकिन पश्चिमी विचारों के असर से हमारे धर्म का सर्वनाश हुआ जाता है, हमारा वर्तमान धर्म मिटता जाता है, हम अपनी विद्या को भूलते जाते हैं।‘ हिंदू-मुसलमान संबंध पर बात करते हुए प्रेमचंद को इस तरह से पेश किया गया जैसे कि उनको मुसलमानों से बहुत प्रेम था। इसको भी परखते हैं। अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम को 1 सितंबर 1915 को प्रेमचंद एक पत्र लिखते हैं जिसका एक अंश, ‘अब हिंदी लिखने की मश्क (अभ्यास) भी कर रहा हूं। उर्दू में अब गुजर नहीं। यह मालूम होता है कि बालमुकुंद गुप्त मरहूम की तरह मैं भी हिंदी लिखने में जिंदगी सर्फ (खर्च) कर दूंगा। उर्दू नवीसी में किस हिंदू को फैज (लाभ) हुआ है, जो मुझे हो जाएगा।‘

इससे प्रेमचंद के आहत मन का पता चलता है। प्रेमचंद के साथ बेईमानियों की एक लंबी सूची है। हद तो तब हो गई जब उनके कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ का नाम ही बदल दिया गया। पंडित जनार्दन झा ‘द्विज’ ने अपनी ‘पुस्तक प्रेमचंद की उपन्यास कला’ में स्पष्ट किया है कि प्रेमचंद ने पहले अपने उपन्यास का नाम गौ-दान रखा था। द्विज जी के कहने पर उसका नाम गो-दान किया गया। गो-दान 1936 में सरस्वती प्रेस, बनारस और हिंदी ग्रंथ-रत्नाकर कार्यालय, बंबई (अब मुंबई) से प्रकाशित हुआ था। गो-दान कब और कैसे गोदान बन गया उसपर चर्चा होनी चाहिए।।

बेईमान आलोचकों ने सोचा कि क्यों ना उनके उपन्यास का नाम ही बदल दिया जाए ताकि मनमाफिक विमर्श चलाने में सुविधा हो। ऐसा ही हुआ। अगर गौ-दान या गो-दान के आलोक में इस उपन्यास को देखेंगे तो उसकी पूरी व्याख्या ही बदल जाएगी। दरअसल प्रेमचंद पूरे तौर पर एक धार्मिक हिंदू लेखक थे जो अपने धर्म में व्याप्त कुरीतियों पर निरंतर अपनी लेखनी के माध्यम से वार करते थे।

इस धार पर उनको ना तो कम्युनिस्ट बनाया जा सकता है और ना ही नास्तिक। हां, झूठे किस्से सुनाकर भ्रम जरूर फैला सकते हैं। पीढ़ियों तक प्रेमचंद के पाठकों को बरगला सकते हैं। प्रेमचंद की धार्मिक आस्था और धर्मपरायणता को संदिग्ध कर उनको कम्युनिस्ट बताने का झूठा उपक्रम चला सकते हैं। पर सच अधिक देर तक दबता नहीं है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

साइबर क्राइम को लेकर जागृति जरूरी: रजत शर्मा

आपको जानकर हैरानी होगी कि दुनिया के 20 परसेंट ऑनलाइन गेमर भारत में हैं, करीब 59 करोड़ भारतीय ऑनलाइन गेमिंग करते हैं, इसलिए साइबर अपराधों का सबसे ज्यादा शिकार लोग भारत में ही होते हैं।

Last Modified:
Tuesday, 07 October, 2025
cyberattack

रजत शर्मा, एडिटर-इन- चीफ, चेयरमैन, इंडिया टीवी।

सुपरस्टार अक्षय कुमार ने खुलासा किया कि उनकी बेटी भी ऑनलाइन गेम के चक्कर में साइबर अपराधियों का शिकार होते-होते बची। साइबर क्राइम के खिलाफ मुंबई पुलिस के जागरूकता अभियान का शुभारंभ करते हुए अक्षय कुमार ने अपने घर में हुई घटना का जिक्र किया। उन्होंने बताया कि उनकी 13 साल की बेटी ऑनलाइन वीडियो गेम खेल रही थी।

इसी दौरान गेम खेल रहे एक अनजान पार्टनर ने उनकी बेटी से उसकी न्यूड फोटो मांगी। अक्षय कुमार ने कहा कि उन्होंने बच्चों को इस तरह के अपराधियों के बारे में बताया था, इसीलिए जैसे ही बेटी से इस तरह की डिमांड की गई तो उसने सिस्टम बंद कर दिया और अपनी मां को सारी बात बताई।

लेकिन कुछ बच्चे इस तरह के अपराधियों के चक्कर में फंस जाते हैं, घर में किसी के साथ कोई बात शेयर नहीं करते और फिर साइबर अपराधी बच्चों को ब्लैकमेल करते हैं।मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा कि साइबर अपराधियों का टारगेट ज्यादातर किशोर ही होते हैं, इसलिए बच्चों में जागरूकता पैदा करना जरूरी है।

अक्षय कुमार की ये बात सही है कि ऑनलाइन गेम के चक्कर में ज्यादातर बच्चे ही अपराधियों के शिकार बनते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि दुनिया के 20 परसेंट ऑनलाइन गेमर भारत में हैं, करीब 59 करोड़ भारतीय ऑनलाइन गेमिंग करते हैं, इसलिए साइबर अपराधों का सबसे ज्यादा शिकार लोग भारत में ही होते हैं। ऑनलाइन गेम सिर्फ ठगी और ब्लैकमेलिंग का जरिया ही नहीं हैं। इसकी वजह से बच्चों में IGD यानी इंटरनेट गेमिंग डिसऑर्डर बड़ी बीमारी बन गई है।

करीब 9 परसेंट छात्र इससे पीड़ित हैं। इन छात्रों में नींद न आने, पढ़ाई में कमजोर होने और बात-बात पर गुस्सा होने के लक्षण दिखते हैं। भारत में ऑनलाइन गेमिंग के चक्कर में लोग हर साल 20 हजार करोड़ रुपये गंवाते हैं। कई मामलों में आत्महत्या तक की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। सिर्फ कर्नाटक में ऑनलाइन गेमिंग के कारण खुदकुशी के 32 मामले सामने आए। ऑनलाइन गेमिंग एक महामारी बन चुका है। कई देशों में इसके खिलाफ सख्त कानून बनाए गए हैं। ऑस्ट्रेलिया ने 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया को पूरी तरह बैन कर दिया है।

फ्रांस में अगर बच्चे की उम्र 15 साल से कम है तो सोशल मीडिया पर अकाउंट खोलने के लिए माता-पिता की सहमति लेना जरूरी है, जबकि जर्मनी ने इसके लिए 16 साल की उम्र तय की है। ब्रिटेन में ऑनलाइन सेफ्टी एक्ट के तहत बच्चों की सुरक्षा के लिए सख्त मानक तय किए गए हैं।

भारत में ऑनलाइन मनी गेम्स पर पाबंदी लगा दी गई है। एक अक्टूबर से ये कानून लागू हो गया है। लेकिन मनी गेम्स के अलावा दूसरे ऑनलाइन गेम्स आज भी चल रहे हैं जिनके जरिए अपराध होते हैं। मेरा मानना है कि ऑनलाइन गेम्स के खिलाफ कानून बनना चाहिए, लेकिन कानून बनने से समस्या खत्म हो जाएगी, साइबर अपराध बंद हो जाएंगे, इसकी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। इस तरह के अपराधों को रोकने का एक ही उपाय है, जागरूकता और बच्चों का मां-बाप पर भरोसा, कि वो अपनी हर बात माता-पिता के साथ शेयर कर सकें।

अक्षय कुमार की बेटी समझदार है। वो जाल में नहीं फंसी। उसने अपने मां-बाप को समय रहते बता दिया। लेकिन सारे बच्चे ऐसे नहीं होते। ऑनलाइन गेमिंग के दो पहलू हैं, एक – ऑनलाइन गेमिंग के जरिए लोगों को लूटा जा रहा था जिसके कारण लखनऊ में किशोर ने आत्महत्या की। पहले भी ऐसे कई केस हो चुके हैं। हालांकि मनी गेम्स पर अब सरकार ने रोक लगा दी है। लेकिन गेमिंग के बहाने लड़कियों को जाल में फंसाने का सिलसिला जारी है। इससे बचने के लिए बच्चों के साथ-साथ मां-बाप को भी जागरूक बनाने की जरूरत है।

जितने बड़े पैमाने पर नाबालिग बच्चों के साथ साइबर ठगी और जालसाजी के मामले सामने आ रहे हैं, उसे देखकर लगता है कि स्कूल लेवल पर शिक्षकों और छात्रों के बीच जागरूकता पैदा करने के लिए अभियान चलाने की आवश्यकता है। मीडिया की भी एक बड़ी जिम्मेदारी है कि ऐसे मामलों का पर्दाफाश करें, और बार-बार लोगों को जानकारी दे कि साइबर अपराधों से कैसे बचा जा सकता है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

बेरोजगारी कैसे मिटेगी? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

अभी रफ़्तार 6-7% के बीच है। यह भी कहा गया है कि अभी जिस रफ़्तार से चल रहे हैं उससे चलते रहे तो बेरोजगारी और बढ़ जाएगी। AI भी नौकरियाँ ले सकता है।

Last Modified:
Monday, 06 October, 2025
milindkhandekar

मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

आप कोई भी सर्वे उठाकर देख लीजिए, लोगों की सबसे बड़ी चिंता रोज़गार है। इंडिया टुडे मूड ऑफ द नेशन में साल दर साल 70% से ज़्यादा लोग रोज़गार को लेकर चिंता जताते रहते हैं, किसी भी चुनाव से पहले पार्टियाँ रोज़गार देने का वादा करती हैं लेकिन समस्या अगले चुनाव में भी बनी रहती है। आख़िर इसका तोड़ क्या है?

पहले रोज़गार को लेकर कुछ आँकड़े समझ लीजिए। काम करने योग्य आबादी (15–64 साल) लगभग 96 करोड़ है, काम करने या ढूँढने में लगे लोग (लेबर फोर्स) करीब 55% यानी लगभग 55 करोड़ हैं, इनमें काम कर रहे लोग 50–52 करोड़ हैं जिनमें आधे लोग खेती-किसानी में लगे हैं। नियमित सैलरी वाली नौकरी सिर्फ 12–13 करोड़ में उपलब्ध हैं जबकि सरकारी नौकरी वालों की संख्या मात्र 1.5 करोड़ है।

बेरोज़गार लोग (काम खोज रहे) लगभग 3–4 करोड़ यानी 3–5% हैं, और युवाओं में बेरोज़गारी करीब 17% तक पहुँच चुकी है। मॉर्गन स्टैनली की ताज़ा रिपोर्ट कहती है कि आने वाले वर्षों में भारत में 8.4 करोड़ नौकरियों की ज़रूरत होगी, अब यह नौकरियाँ आएँगी कहाँ से? इसके जवाब में रिपोर्ट कहती है कि अर्थव्यवस्था को 12% की रफ़्तार से ग्रो करना होगा जबकि अभी रफ़्तार 6-7% के बीच है।

यह भी कहा गया है कि अभी जिस रफ़्तार से चल रहे हैं उससे चलते रहे तो बेरोजगारी और बढ़ जाएगी। अभी का स्तर बनाए रखने के लिए भी 9% ग्रोथ की ज़रूरत होगी। यहाँ यह ध्यान रहे कि एआई भी नौकरियाँ ले सकता है। मॉर्गन स्टैनली ने जो उपाय सुझाए हैं उसमें एक्सपोर्ट बढ़ाना शामिल है क्योंकि दुनिया के बाज़ार में हमारा हिस्सा डेढ़ प्रतिशत है।

अमेरिका ने अड़ंगा डाला है तो हमें दूसरे देशों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है, इसके अलावा इन्फ़्रास्ट्रक्चर, मैन्यूफ़ैक्चरिंग पर ज़ोर दिया गया है। सरकार इन सब सेक्टर पर ध्यान दे रही है लेकिन ध्यान डबल देने की ज़रूरत नहीं है, बेरोज़गारी दूर करने के लिए डबल ग्रोथ की ज़रूरत है। नहीं तो विकसित भारत जुमला बनकर रह जाएगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

सबरीमाला मंदिर की आस्था से खिलवाड़ : अनंत विजय

केरल के सबरीमाला मंदिर के गर्भगृह की स्वर्णसज्जा 25 वर्षों में पीतल में बदल गई? भगवान अयप्पा के मंदिर से सोना चोरी की घटना के बाद राजनीति तेज हो गई है।

Last Modified:
Monday, 06 October, 2025
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

केरल में अगले वर्ष विधानसभा के चुनाव होनेवाले हैं। सभी राजनीतिक दल चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं। पिछले दो विधानसभा चुनाव में कम्युनिस्टों के गठबंधन ने केरल में सरकार बनाई। पी विजयन मुख्यमंत्री बने। उनके नेतृत्व में कम्युनिस्ट गठबंधन तीसरी बार राज्य में सरकार बनाने के लिए प्रयत्नशील है। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस भी वामपंथी गठबंधन को चुनावी मात देकर दस साल बाद सत्ता में वापसी के मंसूबे पाले बैठी है।

भारतीय जनता पार्टी लंबे समय से केरल की राजनीति में अपनी उपस्थिति को मजबूत करने में लगी है। चुनाव की आहट के साथ त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड ने पिछले महीने वैश्विक अयप्पा संगमम का आयोजन किया। घोषित तौर पर इस संगमम का उद्देश्य सबरीमाला मंदिर की महिमा का वैश्विक स्तर पर विस्तार करना था। केरल के राजनीतिक दलों ने कम्युनिस्ट सरकार पर आरोप लगाया कि हिंदू वोटरों को रिझाने के लिए संगमम का आयोजन किया गया।

संगमम की चर्चा के बीच सबरीमाला मंदिर प्रशासन एक अन्य कारण से विवाद में घिर गया। सबरीमाला मंदिर से करीब पांच किलो सोना चोरी होने की आशंका है। इस समाचार के बाहर आते ही कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी केरल की कम्युनिस्ट सरकार पर हमलावर है। सरकार ही त्रावणकोर देवोस्थानम बोर्ड के सदस्यों की नियुक्ति करती है। बोर्ड की स्थापना तीर्थयात्रियों की सुविधाओं के अलावा मंदिरों की संपत्ति की सुरक्षा के लिए की गई थी।

सबरीमाला मंदिर से पांच किलो सोना गायब होने का मामला केरल और दक्षिण भारत में इन दिनों खूब चर्चा में है। मंदिर प्रशासन पर आरोप लग रहे हैं मंदिर के गर्भगृह और उसके बाहर लगे द्वारपाल की मूर्ति और अन्य जगहों पर मढ़े गए सोने का वजन उसकी सफाई या बदलाव के दौरान पांच किलो कम हो गया। पूरा मामला इस तरह से है।

1998-99 में कारोबारी विजय माल्या, जो इन दिनों आर्थिक अपराध के आरोप में देश से फरार हैं, ने सबरीमाला मंदिर में 30 किलो सोने का चढ़ावा दिया था। उस समय ये बात सामने आई थी कि मंदिर प्रशासन ने उस सोना का उपयोग गर्भगृह और उसके बाहर लगे द्वारपाल की प्रतिमा को स्वर्णसज्जित करने में किया था। करीब बीस वर्षों के बाद जब त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड ने मंदिर के रखरखाव के लिए स्वर्ण परतों को हटाया तो पता चला कि वो सोने का नहीं था।

अब इस बात की जांच की जा रही है कि सोना लगाते समय ही उसकी जगह किसी अन्य धातु का उपयोग किया गया था या बाद में उसको बदला गया। इस तरह की बात भी आ रही है कि गर्भगृह की दीवारों पर लगी स्वर्ण परतों को साफ सफाई के लिए चेन्नई भेजा गया था। जब वहां से प्लेट्स वापस आईं तो उसका वजन करीब पांच किलो कम था।

त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड की विजिलेंस टीम ने कार्यालय से दस्तावेज जब्त किए हैं। अब इन दस्तावेजों और उनकी प्रामाणिकता पर भी संदेह व्यक्त किया जा रहा है। संपत्तियों की रजिस्टर में एंट्री पर भी प्रश्न उठने लगे हैं। केरल हाईकोर्ट ने पूर्व हाईकोर्ट जज की देखरेख में मंदिर की संपत्ति का ब्योरा जुटाने का आदेश दिया है। केरल हाईकोर्ट ने त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड को सही तरीके से रिकार्ड नहीं रख पाने के लिए लताड़ लगाई है। बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने केरल हाईकोर्ट की निगरानी में सीबीआई जांच की मांग की है।

जिस तरह के समाचार केरल से आ रहे हैं उससे तो ये प्रतीत होता है कि सबरीमाला मंदिर के गर्भगृह में और उसके बाहर लगी मूर्तियों की स्वर्णसज्जा के साथ छेड़छाड़ की गई है। आरोप ये भी लग रहे हैं कि सोने को निकालकर उसकी जगह पीतल से सज्जा कर दी गई। ये खबरें सिर्फ एक सामान्य चोरी की खबर नहीं है बल्कि भगवान अयप्पा के भक्तों की श्रद्धा पर डाका जैसा है।

केरल की कम्युनिस्ट सरकार की जिम्मेदारी है कि वो दोषियों को जल्द से जल्द पकड़कर मंदिर के सोने की बरामदगी करवाए। मंदिर की फिर से स्वर्णसज्जा हो। भगवान अयप्पा के भक्त सिर्फ केरल में ही नहीं बल्कि पूरे भारत और विश्व के अन्य देशों में भी हैं। सबकी आस्था और श्रद्धा इस मंदिर से जुड़ी हुई है। जैसे जैसे इस चोरी की परतें खुल रही हैं हिंदू श्रद्धालुओं के अंदर क्षोभ बढ़ता जा रहा है।

निश्चित है कि भगवान अयप्पा मंदिर से सोना चोरी चुनावी मुद्दा भी बनेगा। आपको याद होगा कि ओडीशा विधानसभा चुनाव के दौरान भगवान जगन्नाथ मंदिर के रत्न भंडार की चाबी को लेकर विवाद हुआ था। कोर्ट के आदेश के बाद भगवान जगन्नाथ मंदिर की संपत्तियों की जांच और उसकी सूची को लेकर रत्न भंडार खोला गया था। जब इस कार्य को कर रहे लोग रत्न भंडार तक पहुंचे तो वहां ताला बंद था।

उस ताले की चाबी की तलाश की गई। चाबी नहीं मिली। जब 1978 में भगवान जगन्नाथ मंदिर के रत्न भंडार का सर्वे हुआ तो वहां 149 किलो स्वर्ण आभूषण और 258 किलो के चांदी के बर्तनों की सूची बनी थी। उसके बाद 2018 में फिर से सर्वे का प्रयास हुआ तो चाबी ही नहीं मिल पाई। विधानसभा चुनाव के दौरान रत्न भंडार की चाबी गायब होने का मुद्दा बड़ा हो गया था।

नवीन पटनायक के नेतृत्व वाली राज्य सरकार कठघरे में आ गई थी। भगवान जगन्नाथ और भगवान अयप्पा में हिंदुओं की आस्था इतनी गहरी है कि उसको जब भी ठेस लगती है तो जनता अपनी प्रतिक्रिया देती है। ओडिशा में नवीन पटनायक की हार का एक बड़ा कारण रत्न भंडार की चाबी का ना मिलना भी बना।

इन दो उदाहरणों से मंदिरों की संपत्ति की सुरक्षा को लेकर गंभीर प्रश्न खड़े हो गए हैं। भक्त अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने आराध्य को भेंट अर्पित करते हैं। जिनपर भक्तों की भेंट को सुरक्षित रखने का दायित्व है वो उसका निर्वहन ठीक तरीके से नहीं कर पा रहे हैं तो उसको लेकर सरकार को गंभीरता से विचार करना होगा। विचार तो इसपर भी करना चाहिए कि मंदिरों की संपत्ति का कस्टोडियन सरकार हो या हिंदू समाज।

इससे संबंधित एक एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना होगा जिससे प्रभु की संपत्ति में सेंध ना लग सके। क्या अब समय आ गया है कि मंदिरों का प्रबंधन सरकार को हिंदू समाज को सौंप देना चाहिए। कोई ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जिसमें सरकार और हिंदू समाज साथ मिलकर मंदिरों की संपत्ति की रक्षा कर सकें। आप इस बात की कल्पना करिए कि अगर भगवान अयप्पा के गर्भगृह की स्वर्ण सज्जा को हटाकर उसको पीतल से आच्छादित कर दिया गया तो इसके पीछे कितनी गहरी साजिश रही होगी।

कितने लोगों की मिलीभगत रही होगी तब जाकर इस पाप को किया जा सका होगा। अगर ये साबित हो जाता है कि सोना चोरी करके वहां पीतल लगा दिया गया तो भक्तों की आस्था को कितनी ठेस पहुंचेगी। हिंदू समाज को अपनी आस्था के इन केंद्रों की सुरक्षा को लेकर संगठित होकर एक कार्ययोजना पेश करना होगा, ताकि सरकार उसपर विचार कर सके। दोनों की सहमति से कोई ठोस निर्णय लिया जा सके। समाज जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह मंदिर प्रबंधन को लेकर राष्ट्रव्यापी नीति बनाने की आवश्यकता है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

परदेस में बदनाम करते नेता और रोशन करते असली हिंदुस्तानी : आलोक मेहता

राहुल गांधी ने विदेश मंचों पर आरोप लगाए कि भारत में आज़ादी की आवाज़ दबाई जा रही है, विपक्षी आवाज़ों को प्रताड़ित किया जा रहा है, और संस्थागत आज़ादी खतरे में है।

Last Modified:
Monday, 06 October, 2025
rahulgandhi

आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, पद्मश्री।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इस बार भी कोलंबिया और अन्य लैटिन अमेरिकी देशों की विदेश यात्राओं के दौरान में भारत के लोकतंत्र और अर्थव्यवस्था को लेकर कई गंभीर अनर्गल बयान दिए। उन्होंने दावा किया कि भारत का लोकतंत्र ख़त्म हो गया है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दबाई जा रही है, और अर्थव्यवस्था संकट में है। लेकिन आंकड़ों और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की रिपोर्टों को देखें, तो वास्तविकता पूरी तरह उनसे भिन्न नज़र आ सकती है।

राहुल गांधी ने विदेश मंचों पर आरोप लगाए कि भारत में आज़ादी की आवाज़ दबाई जा रही है, विपक्षी आवाज़ों को प्रताड़ित किया जा रहा है, और संस्थागत आज़ादी खतरे में है। उन्होंने यह दावा किया कि आज भारत की अर्थव्यवस्था में निवेश कम हो गया है, बेरोजगारी बढ़ रही है, और महंगाई नियंत्रण से बाहर है।

उनका यह आरोप है कि सरकार आर्थिक और सामाजिक असमानता को बढ़ा रही है, नीतियाँ केवल कुछ वर्गों को लाभ पहुँचाती हैं। विदेशों में वह यह कहते हैं कि भारत एक अधिनायकवादी स्वीकार्यता की ओर बढ़ रहा है, और प्रधानमंत्री मोदी की सरकार लोकतंत्र को क्षीण कर रही है। इन आरोपों को यदि गंभीरता से लिया जाए, तो उनका निहितार्थ केवल राजनीतिक लाभ लेना और भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को कमजोर करना है।

दूसरी तरफ भारत के प्रवासी भारतीय न केवल विदेशों में अपनी मेहनत, प्रतिभा और नवाचार से विकसित देशों की प्रगति में योगदान दे रहे हैं, बल्कि भारत की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक छवि को भी मज़बूती प्रदान कर रहे हैं। विश्व के कोने-कोने में बसे भारतीय आज विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्वकारी भूमिका निभा रहे हैं। तकनीक, उद्योग, वित्त, शिक्षा, स्वास्थ्य और राजनीति हर क्षेत्र में प्रवासी भारतीयों का दबदबा बढ़ता जा रहा है।

यही कारण है कि उन्हें भारत की “सॉफ्ट पावर” का सबसे प्रभावशाली प्रतिनिधि माना जाता है। प्रवासी भारतीयों की संख्या लगभग 3.5 करोड़ मानी जाती है, जो अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, मध्य पूर्व और यूरोप जैसे देशों में फैले हुए हैं। उनकी मेहनत ने विकसित देशों को आर्थिक मजबूती दी है और भारत को गर्व व पहचान।

वास्तविकता यह है कि भारत का संविधान आज भी देश की सर्वोच्च शक्ति है, जो न्यायालय, चुनाव आयोग, निर्वाचन अधिकारियों और स्वतंत्र मीडिया जैसे स्तंभों को मान्यता देता है। देश में लगातार चुनाव हो रहे हैं। कई राज्यों में गैर भाजपा सरकारें हैं और वे केंद्र की मोदी सरकार से विभिन्न मुद्दों पर टकरा रही हैं। यदि लोकतंत्र वास्तव में कमजोर हुआ होता, तो ये संस्थाएँ खुली आलोचना और वैधानिक पुनरावलोकन से बच नहीं पातीं।

मीडिया आज भी भारत में सरकार की आलोचना कर सकती है। नकारात्मक रिपोर्ट, विरोधी स्टैंड, जन–आंदोलनों की रिपोर्टिंग आज भी समाचार पत्रों एवं डिजिटल मीडिया में होती है। यदि लोकतंत्र कमजोर हुआ होता, तो ऐसे मीडिया पर पूरी तरह अंकुश लगा दिया जाता।

सरकार या भाजपा के दावे नहीं, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने जुलाई 2025 की अपनी रिपोर्ट में भारत की वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 6.4% रहने का अनुमान लगाया। रिपोर्ट के अनुसार भारत 2025 और 2026 दोनों वर्षों में 6.4% की वृद्धि दर दर्ज कर सकता है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत 2025 में जापान को पीछे छोड़कर विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है।

रिपोर्ट में यह भी उल्लेख है कि 2022 से 2024 के बीच भारत की औसत वास्तविक जी डी पी वृद्धि 8.8% थी, जो एशिया-पैसिफिक क्षेत्र में सबसे अधिक है। भारत को वैश्विक व्यापार तनाव, अमेरिकी टैरिफ वृद्धि और निवेश अस्थिरता जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। अमेरिका ने अगस्त 2025 से भारत से आयात पर 50% तक शुल्क लगा दिया। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था ने इन बाहरी झटकों को अनुकूल परिस्थिति में समाहित किया है। अंदरूनी खपत और निवेश की मजबूती ने स्थिरता बनाए रखी।

अमेरिका की तकनीकी और आर्थिक प्रगति में भारतीय मूल के लोगों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। सिलिकॉन वैली की लगभग 30% स्टार्टअप कंपनियों की स्थापना भारतीय मूल के उद्यमियों ने की है। गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई, माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्या नडेला, एडोबी के शांतनु नारायण जैसे नेता यह प्रमाणित करते हैं कि भारतीय प्रतिभा ने अमेरिका को नई दिशा दी है।

भारतीय डॉक्टरों, इंजीनियरों और प्रोफेसरों ने अमेरिका की स्वास्थ्य और शिक्षा प्रणाली को मज़बूती प्रदान की है। अमेरिका या यूरोप में नीतियां बदलने पर कई बड़े उद्यमी और युवा लोग भारत वापस आकर अपना उद्यम शुरु कर रहे हैं। लक्ष्मी मित्तल जैसे सम्पन्नतम उद्यमी ने दिल्ली में अपने लिए महंगा बंगला तक खरीद लिया है।

भारत सरकार भी प्रवासी भारतीयों के योगदान को पहचान रही है। सरकार न केवल उनके सम्मान को बढ़ावा देती है, बल्कि भारत में निवेश और नवाचार की संभावनाओं को भी प्रोत्साहन देती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार कहा है कि प्रवासी भारतीय भारत के “राष्ट्रीय दूत” हैं। भविष्य में एनआरआई भारत की आर्थिक वृद्धि, तकनीकी विकास और वैश्विक छवि निर्माण में और बड़ी भूमिका निभाएंगे। स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया जैसी योजनाओं में प्रवासी भारतीय पूंजी और अनुभव दोनों प्रदान कर सकते हैं।

ब्रिटेन में भारतीय मूल के लोग राजनीति और व्यवसाय दोनों में शीर्ष स्थान पर हैं। ऋषि सुनक का एक बार ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना न केवल वहां की राजनीति में भारतीयों की स्वीकृति को दर्शाता है, बल्कि विश्व पटल पर भारतीय मूल की क्षमताओं की पहचान को भी मजबूत करता है। लंदन में बसे बड़े भारतीय कारोबारी समूहों ने ब्रिटिश अर्थव्यवस्था में भारी निवेश किया है।

कनाडा की संसद में बड़ी संख्या में भारतीय मूल के सांसद हैं। वहीं ऑस्ट्रेलिया में आईटी और शिक्षा क्षेत्र में भारतीय युवाओं का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। खाड़ी देशों की निर्माण और सेवाक्षेत्र की अर्थव्यवस्था में भारतीय कामगारों और उद्यमियों की मेहनत का गहरा असर है। दुबई और अबूधाबी जैसे शहरों के विकास में भारतीय इंजीनियरों, आर्किटेक्ट्स और उद्यमियों का योगदान ऐतिहासिक माना जाता है। भारतीय आद्योगिक समूह टाटा, अम्बानी, अडानी न केवल एशिया में वरन अन्य यूरोपीय, अमेरिका, अफ्रीका में पूंजी लगाकर अपनी उपस्थिति की साख बढ़ा रहे हैं।

प्रवासी भारतीय केवल विदेशों में नाम रोशन नहीं कर रहे, बल्कि भारत में भी बड़े पैमाने पर निवेश कर देश की अर्थव्यवस्था को गति दे रहे हैं। एनआरआई द्वारा भारत में हर साल अरबों डॉलर का रिमिटेंस (विदेश से भेजी गई धनराशि) आता है, जिससे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों का विकास होता है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया में सबसे अधिक रिमिटेंस पाने वाला देश है।

इसके अलावा, प्रवासी भारतीय भारत में स्टार्टअप, रियल एस्टेट, ऊर्जा, शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों में निवेश कर रहे हैं। इससे रोजगार के नए अवसर पैदा हो रहे हैं और भारत वैश्विक निवेश मानचित्र पर अग्रणी बन रहा है।

हिंदुजा समूह विश्व के सबसे बड़े और प्रभावशाली कारोबारी समूहों में से एक है। इनका कारोबार वित्त, ऑटोमोबाइल, ऊर्जा, आईटी, स्वास्थ्य और रियल एस्टेट जैसे कई क्षेत्रों में फैला हुआ है। हिंदुजा बंधुओं की कुल संपत्ति सैकड़ों अरब डॉलर में आंकी जाती है।

भारत में उन्होंने बुनियादी ढांचे, स्वास्थ्य और शिक्षा में बड़े पैमाने पर निवेश कर देश की छवि को मजबूत किया है। स्टील के बादशाह कहे जाने वाले लक्ष्मी मित्तल दुनिया के सबसे बड़े स्टील निर्माता “आर्सेलर मित्तल” के अध्यक्ष हैं। उन्होंने यूरोप और अमेरिका में स्टील उद्योग को नई ऊंचाई दी।

भारत में भी मित्तल ने ऊर्जा और बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में निवेश किया। उनकी अंतरराष्ट्रीय पहचान ने भारत की औद्योगिक छवि को वैश्विक स्तर पर नई पहचान दी। यद्यपि अंबानी और अदानी एनआरआई नहीं हैं, लेकिन उनके कारोबारी साम्राज्य में प्रवासी भारतीयों के बड़े निवेश हैं। अरब देशों और यूरोप में बसे भारतीय निवेशकों ने इन समूहों के प्रोजेक्ट्स में पूंजी लगाई है।

भारत की आईटी क्रांति में प्रवासी भारतीयों ने न केवल निवेश किया बल्कि वैश्विक स्तर पर भारत को ब्रांड बनाया। अमेरिका और यूरोप में बसे भारतीय आईटी पेशेवरों की मेहनत ने भारत को “विश्व की आईटी हब” का दर्जा दिलाया।

प्रवासी भारतीयों ने भारत की पहचान को केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और कूटनीतिक स्तर पर भी मजबूत किया है। वे भारत की संस्कृति, योग, आयुर्वेद और अध्यात्म को विश्व के कोने-कोने में पहुंचा रहे हैं। भारतीय त्योहार, दीवाली, होली, गणेशोत्सव, दुर्गा पूजा आज अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में धूमधाम से मनाए जाते हैं।

विश्व राजनीति में भारतीय मूल के नेताओं का उदय भी भारत की छवि को मजबूत कर रहा है। चाहे वह अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस हों, या कनाडा की संसद में बैठे भारतीय सांसद सभी भारत की साख बढ़ाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

राष्ट्रीय शिक्षा नीति और मीडिया शिक्षा का भविष्य : प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी

जनसंचार का सबसे प्राचीन उदाहरण तो हमारे धर्मग्रंथों में देवर्षि नारद द्वारा सूचनाओं के सम्‍प्रेषण और महाभारत में संजय द्वारा धृतराष्‍ट्र के लिए युद्ध के सीधे प्रसारण में ही देखने को मिल जाता है।

Last Modified:
Monday, 06 October, 2025
profsanjay

प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी, पूर्व महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली।

जनसंचार हमारे समाज की एक ऐसी आवश्‍यकता है, जिस पर इसका विकास, प्रगति और गतिशीलता सर्वाधिक निर्भर करती है। एक विषय के तौर पर यह भले ही नया प्रतीत होता हो, लेकिन समाज के एक अभिन्‍न अंग के रूप में यह शताब्‍दियों से हमारे साथ विद्यमान रहा है और एक समाज के तौर पर हमें हमेशा मजबूती, गति व दिशा देता रहा है। फर्क यही आया है कि पहले जनसंचार एक नैसर्गिक प्रतिभा होता था, अब एक कौशल बन गया है, जिसे प्रशिक्षण से विकसित किया जा सकता है।

पारिभाषिक रूप से जनसंचार वह प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत सूचनाओं को पाठ्य, श्रव्‍य या दृश्‍य रूप में बड़ी संख्‍या में लोगों तक पहुंचाया जाता है। आम तौर पर इस कार्य के लिए समाचार पत्र- पत्रिकाओं, टेलीविजन, रेडियो, सोशल नेटवर्किंग, न्‍यूज पोर्टल आदि विभिन्न माध्यमों का प्रयोग किया जाता है। पत्रकारिता, विज्ञापन, इवेंट मैनेजमेंट और जनसंपर्क, जनसंचार के कुछ लोकप्रिय स्‍वरूप हैं।

सदियों से अस्तित्‍व में है जनसंचार

अगर हम इतिहास की बात करें तो जनसंचार का सबसे प्राचीन उदाहरण तो हमारे धर्मग्रंथों में देवर्षि नारद द्वारा सूचनाओं के सम्‍प्रेषण और महाभारत में संजय द्वारा धृतराष्‍ट्र के लिए युद्ध के सीधे प्रसारण में ही देखने को मिल जाता है। यद्यपि आधुनिक युग के हिसाब से जनसंचार का विधिवत आगमन 15वीं सदी के अंत में माना जा सकता है, जब गुंटेनबर्ग ने प्रिंटिंग प्रेस का आविष्‍कार किया और शब्‍दों के लिखित रूप को जन-जन तक पहुंचाने में एक महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई।

इसके करीब एक शताब्‍दी बाद, वर्ष 1604 में जर्मनी में पहले मुद्रित समाचार पत्र ‘रिलेशन एलर फर्नेममेन एंड गेडेनक्वुर्डिगेन हिस्टोरियन’ से इसे एक संस्‍थागत स्‍वरूप मिला। इसके बाद वर्ष 1895 में मार्कोनी ने रेडियो की खोज कर शब्‍दों का श्रव्‍य रूप लोगों तक पहुंचाने का मार्ग प्रशस्‍त किया और वर्ष 1925 में जॉन लोगी बेयर्ड ने दुनिया को टेलीविजन के रूप में ऐसी सौगात दी, जिसने शब्‍दों और ध्‍वनियों के साथ-साथ दृश्‍यों को भी हम तक पहुंचाया।

इंटरनेट ने संचार को दी नई ताकत

संचार की दुनिया में सबसे बड़ी क्रांति का सूत्रपात 1990 में ‘वर्ल्‍ड वाइड वेब’ यानि इंटरनेट की खोज से हुआ। यह एक ऐसी सुविधा थी, जिसने एक साधारण व्‍यक्ति को भी संचारक बनने का अवसर उपलब्‍ध कराया। बीते 30 सालों में इसमें बहुत बदलाव आए हैं और संचार पहले की तुलना में काफी सुगम, सुलभ, सस्‍ता और द्रुतगति वाला हो गया है। आज लाखों लोग, बहुत कम बजट में और बहुत कम वक्‍त में अपनी बात दुनिया के करोड़ों लोगों तक पहुंचाने में सक्षम हैं। अनुमान है कि ऐसे लोगों की संख्‍या चार खरब से भी ज्‍यादा है, जो इंटरनेट या WWW तक पहुंच रखते हैं।

जनसंचार के इसी फैलते क्षेत्र और व्‍यापक प्रभाव ने इसे एक अकादमिक अध्‍ययन का विषय बनाया है और आज यह व्‍यावसायिक शिक्षा के अंतर्गत पढ़े जाने वाले सर्वाधिक पसंदीदा विषयों में से एक है। आज दुनिया के लगभग सभी प्रमुख विश्‍वविद्यालयों और विभिन्‍न शैक्षणिक संस्‍थानों में जनसंचार अथवा मास कम्‍युनिकेशन को स्‍नातक, स्‍नातकोत्तर उपाधि पाठ्यक्रम या स्‍नातकोत्तर डि‍प्‍लोमा पाठ्यक्रम के रूप में पढ़ाया जाता है और इनसे हर साल हजारों की संख्‍या में पत्रकार, जनसंपर्क एवं विज्ञापन विशेषज्ञ तथा संचारक प्रशिक्षित होते हैं और विभिन्‍न संस्‍थानों से जुड़कर अपनी कैरियर यात्रा आरंभ करते हैं।

राष्‍ट्रीय शिक्षा नीति और जनसंचार

शिक्षा के क्षेत्र में इक्विटी (भागीदारी), अफोर्डेबिलिटी (किफायत), क्वालिटी (गुणवत्ता), एक्सेस (सब तक पहुंच) और अकाउंटेबिलिटी (जवाबदेही) सुनिश्चित करने के लिए हमारे प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्‍व वाली केंद्र सरकार ने वर्ष 2020 में नई राष्‍ट्रीय शिक्षा नीति पेश की थी। शिक्षा को सुलभ, सरल और अधिक उपयोगी बनाने के उद्देश्‍य से इसमें कई नए प्रावधान सम्मिलित किये गये हैं। हालांकि इसमें स्‍पष्‍ट रूप से मीडिया व जनसंचार जैसे विषयों का उल्‍लेख नहीं किया गया है। लेकिन, सच तो यह है कि ऐसे बहुत सारे विषय हैं, जो प्रत्‍यक्ष या परोक्ष रूप से मीडिया या कम्‍युनिकेशन पर निर्भर हैं।

जनसंचार में प्रौद्योगिकी के प्रवेश ने इसके प्रभाव क्षेत्र को बहुत व्‍यापक और विस्‍तृत कर दिया है। लेकिन, जिस तरह से बीते दो दशकों में मीडिया के क्षेत्र में प्रशिक्षण संस्‍थानों की संख्‍या में जो कल्‍पनातीत वृद्धि हुई है, उसे देखते हुए यह बहुत आवश्‍यक हो गया है कि इसमें भी जवाबदेही और गुणवत्‍ता सुनिश्चित करने पर विचार किया जाए। मीडिया और जनसंचार लगभग सौ सालों से एक विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। इन सौ सालों में समाज के स्‍वरूप, स्‍वभाव, अपेक्षाओं और आवश्‍यकताओं में बहुत बदलाव आया है। इस बदलती हुई दुनिया के अनुरूप पत्रकारिता के प्रशिक्षण में भी बदलाव आवश्‍यक हैं।

नया मीडिया : संभावनाएं और चुनौतियां

21वीं सदी में जिस मीडिया उदय हुआ है, वह प्रिंट, टीवी या रेडियो तक सीमित नहीं है। इंटरनेट की पहुंच और प्रभाव ने मीडिया को बहुत सारी नई चीजें दी हैं, जिनमें समृद्धि और सफलता के लिए बहुत सारी नई संभावनाएं उत्‍पन्‍न हुई हैं। ऑनलाइन एजुकेशन, गेमिंग, एनिमेशन, ओटीटी, मल्‍टीमीडिया, ब्‍लॉकचेन, मेटावर्स जैसे ऐसे अनेक विकल्‍प हैं, जिनमें प्रशिक्षित पेशेवरों की बहुत जरूरत है।

ये वे क्षेत्र हैं, जिनके विशाल बाजार और भविष्‍य की संभावनाओं के आकलन अचंभित करते हैं। उदाहरण के लिए वीडियो गेमिंग को ही लें इसके व्यवसाय के वर्ष 2030 तक 583.69 बिलियन डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है।

इसी प्रकार, एनिमेशन इंडस्‍ट्री है। एनिमेशन मार्केट 2030 तक बढ़कर 587.1 बिलियन डॉलर हो जायेगा। ओटीटी वीडियो भी ऐसा ही तेजी से बढ़ता हुआ मार्केट है, जिसके यूजर्स की संख्‍या 2027 तक बढ़कर 4216.3 मिलियन हो जायेगी। जाहिर है कि जब बाजार इतना बड़ा है, तो इसे संभालने के लिए इतनी ही बड़ी संख्‍या में कुशल व प्रशिक्षित प्रतिभाओं की आवश्‍यकता भी पड़ेगी। इस जरूरत को पूरा करने में मीडिया और जनसंचार प्रशिक्षण संस्‍थान काफी सशक्‍त योगदान दे सकते हैं।

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल ने इस आवश्‍यकता को अनुभव करते हुए काफी पहले से ही काम आरंभ कर दिया था। वर्ष 2011 में ‘न्यू मीडिया मीडिया विभाग’ आरंभ एक बड़ा कदम था। 2022 में भारतीय जन संचार संस्थान ने भी डिजिटल मीडिया का पाठ्यक्रम प्रारंभ किया।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कौशल विकास और आत्मनिर्भर बनने पर काफी जोर दिया गया है। जनसंचार की शिक्षा में भी हमें इसी का ध्‍यान रखते हुए अपेक्षित बदलाव लाने होंगे, तभी हम परिवर्तन के साथ सामने आने वाली चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होंगे।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

'FOLK भारत' सीजन 1 का धमाकेदार समापन : विजेता वीरसेन को 5 लाख का इनाम

भारत समाचार के मुख्य संपादक श्री ब्रजेश मिश्रा ने FOLK भारत के अगले चार सीज़नों की आधिकारिक घोषणा की है। यह सफर अब और भी व्यापक व भव्य रूप लेगा।

Last Modified:
Monday, 06 October, 2025
folkbharat

भारत की समृद्ध लोक-संस्कृति और परंपराओं को पुनर्जीवित करने वाले मंच “FOLK भारत” के पहले सीजन का भव्य समापन हुआ। इस मंच ने भारत की मिट्टी से जुड़ी आत्मा को न केवल सजाया, बल्कि उसे देश के कोने-कोने तक पहुँचाने का सफल प्रयास किया। ग्रैंड फिनाले में कुल 6 प्रतिभागियों ने अपने सुरों और लोककला की अद्भुत प्रस्तुति से समां बाँधा। इनमें 4 प्रतिभागी उत्तर प्रदेश से और 2 प्रतिभागी बिहार से थे।

फाइनल राउंड में तीन प्रतिभागियों ने जगह बनाई, जिनमें विजेता वीरसेन को 5 लाख रुपये का पुरस्कार, प्रथम रनर-अप समरेश चौबे (बिहार) को 3 लाख रुपये तथा द्वितीय रनर-अप नीरज प्रजापति (कुशीनगर, यूपी) को 2 लाख रुपये मिले। कार्यक्रम का संचालन मशहूर अभिनेत्री अक्षरा सिंह ने अपने ऊर्जावान और प्रभावशाली अंदाज़ में किया, जबकि जज की भूमिका में प्रसिद्ध गायक आलोक कुमार और भजन गायिका स्वाती मिश्रा ने प्रतिभागियों का मार्गदर्शन किया।

इसके अलावा, कार्यक्रम में देश के कई नामचीन कलाकारों ने गेस्ट जज के रूप में शिरकत की, जिनमें वंदना भारद्वाज, प्रिया मलिक, त्रिप्ती शाक्य, अंशुमान सिन्हा, मालिनी अवस्थी और भोजपुरी के लोकप्रिय अभिनेता एवं गायक मनोज तिवारी शामिल रहे।

इस भव्य कार्यक्रम का निर्देशन राजीव मिश्रा ने किया, जिन्होंने पूरे शो को कलात्मक दृष्टि और शानदार प्रस्तुति के साथ एक यादगार रूप दिया। भारत समाचार द्वारा आयोजित यह मेगा इवेंट केवल एक शो नहीं, बल्कि भारतीय परंपराओं, लोक गीतों, नृत्यों और विरासत को संजोने व नई पीढ़ी तक पहुँचाने का एक सशक्त आंदोलन बन गया।

इस ऐतिहासिक पहल के सूत्रधार भारत समाचार के मुख्य संपादक श्री ब्रजेश मिश्रा और सीईओ श्री वीरेंद्र सिंह रहे, जिन्होंने न केवल इस विचार को जन्म दिया, बल्कि इसे ज़मीन पर उतारकर लोक संस्कृति को एक भव्य मंच प्रदान किया। उनकी दूरदृष्टि और नेतृत्व में FOLK भारत गांव-देहात से लेकर शहरों तक हर आवाज़ और हर संस्कृति को सम्मान दिलाने वाला एक जनआंदोलन बन गया।

इस मंच ने अनगिनत अनसुने कलाकारों को पहचान दी और लोककला को नया जीवन प्रदान किया। सीजन 1 का समापन भले ही हो गया हो, लेकिन FOLK भारत की यह यात्रा अब यहीं नहीं रुकने वाली है। भारत समाचार के मुख्य संपादक श्री ब्रजेश मिश्रा ने FOLK भारत के अगले चार सीज़नों की आधिकारिक घोषणा की है, जिससे यह स्पष्ट हो गया है कि भारतीय लोक परंपराओं को जन-जन तक पहुँचाने का यह सफर अब और भी व्यापक व भव्य रूप लेगा।

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

मोहन भागवत ने दिया एकता का संदेश: रजत शर्मा

मोहन भागवत ने पहलगाम हमले और ऑपरेशन सिंदूर से लेकर अमेरिका के साथ चल रहे टैरिफ वॉर और देश में चल रहे तमाम मुद्दों पर बात की। हिन्दुओं की एकता देश के विकास की गारंटी है।

Last Modified:
Saturday, 04 October, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा, चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ, इंडिया टीवी।

नागपुर में संघ के विजयादशमी समारोह में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने उन लोगों को नसीहत दी, जो भारत में श्रीलंका, बांग्लादेश या फिर नेपाल जैसी GEN-Z क्रांति का ख्वाब देख रहे हैं।

मोहन भागवत ने कहा कि लोकतंत्र में जनता सरकार तक अपनी भावनाएं पहुंचा सकती है, व्यवस्था को बदल सकती है लेकिन सड़क पर उतर कर हंगामा करने से सिर्फ अराजकता फैलती है, इससे किसी का भला नहीं होता।

मोहन भागवत ने पहलगाम हमले और ऑपरेशन सिंदूर से लेकर अमेरिका के साथ चल रहे टैरिफ वॉर और देश में चल रहे तमाम मुद्दों पर बात की। चूंकि आजकल कई राज्यों में “आई लव मोहम्मद” को लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं, मोहन भागवत ने इसकी तरफ इशारा किया।

उन्होंने कहा कि भारत में हर महापुरूष का सम्मान किया जाता है लेकिन पिछले कुछ दिनों से जिस तरह कानून हाथ में लेकर गुंडागर्दी की जा रही, वो ठीक नहीं। मोहन भागवत ने कहा कि भारत सनातन काल से हिन्दू राष्ट्र है, हिन्दुओं की एकता सबकी सुरक्षा और देश के विकास की गारंटी है।

मोहन भागवत ने RSS की छवि को बदला है। उन्होंने कभी हिंदू-मुसलमान को लड़वाने की बात नहीं कही। वो अपनी हिंदू विचारधारा से पीछे भी नहीं हटते। हमेशा हिंदुओं की एकता को और मजबूत करने की बात करते हैं लेकिन संघ के स्वयंसेवकों से हमेशा कहते हैं कि हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग ढूंढने की जरूरत नहीं है। इस एक वाक्य का बहुत बड़ा मतलब है कि बात-बात पर टकराने की आवश्यकता नहीं है।

RSS का विरोध करने वाले आरोप लगाते हैं कि संघ के लोग दंगा करवाते हैं, हिंसा भड़काते हैं। आज मोहन भागवत ने ये भी स्पष्ट किया कि लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है। मोहन भागवत के विजयादशमी भाषण से RSS को लेकर उठे बहुत सारे सवालों के जवाब मिलेंगे जिनसे संघ के 100वें वर्ष में RSS को समझने में मदद मिलेगी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

क्या Google व Microsoft को टक्कर दे पाएगी Zoho?, ‘आत्मनिर्भर भारत’ की दिशा में बड़ा कदम

अब तक ऑफिस सॉफ्टवेयर की दुनिया पर अमेरिकी दिग्गज कंपनियों जैसे- Google और Microsoft का दबदबा रहा है। लेकिन अब भारतीय कंपनी Zoho इस एकाधिकार को चुनौती देने के लिए पूरी तरह तैयार नजर आ रही है।

Last Modified:
Saturday, 04 October, 2025
zoho

भारत की टेक्नोलॉजी दुनिया तेजी से बदल रही है। अब तक ऑफिस सॉफ्टवेयर की दुनिया पर अमेरिकी दिग्गज कंपनियों जैसे- Google और Microsoft का दबदबा रहा है। लेकिन अब भारतीय कंपनी Zoho इस एकाधिकार को चुनौती देने के लिए पूरी तरह तैयार नजर आ रही है। हाल ही में शिक्षा मंत्रालय द्वारा अपने अधिकारियों को Zoho Office Suite इस्तेमाल करने का निर्देश देना, इस बदलाव की शुरुआत का बड़ा संकेत माना जा रहा है।

भारत की घरेलू तकनीक की ओर एक मजबूत कदम

शिक्षा मंत्रालय का यह निर्णय केवल सॉफ्टवेयर बदलने का मामला नहीं है, बल्कि यह भारत के डिजिटल आत्मनिर्भरता की दिशा में उठाया गया अहम कदम है। मंत्रालय ने साफ कहा है कि Zoho जैसे भारतीय सॉफ्टवेयर को अपनाना विदेशी निर्भरता कम करने और घरेलू टेक इकोसिस्टम को मजबूत करने का हिस्सा है। यह कदम न केवल Zoho को बढ़ावा देगा, बल्कि यह अन्य भारतीय टेक कंपनियों को भी प्रेरित करेगा कि वे वैश्विक प्रतिस्पर्धा में उतरें।

Zoho– एक भारतीय सफलता की कहानी

तमिलनाडु के ग्रामीण इलाकों से शुरू हुई Zoho Corp आज एक ग्लोबल कंपनी बन चुकी है, जिसके 100 से अधिक देशों में ग्राहक हैं। कंपनी के संस्थापक श्रीधर वेम्बू ने बिना किसी विदेशी निवेश के, पूरी तरह स्वदेशी मॉडल पर कंपनी खड़ी की है।
Zoho के Office Suite में डॉक्यूमेंट एडिटिंग, स्प्रेडशीट, प्रेजेंटेशन और टीम कम्युनिकेशन जैसे सभी फीचर मौजूद हैं- यानी यह Google Workspace और Microsoft 365 का भारतीय विकल्प है।

डेटा सुरक्षा और गोपनीयता पर जोर

जहां विदेशी टेक कंपनियों पर डेटा प्राइवेसी को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं, वहीं Zoho का पूरा डेटा भारत में ही स्टोर होता है। इससे सरकारी और निजी संस्थाओं को डेटा सुरक्षा को लेकर अधिक भरोसा मिलता है।
कई सरकारी अधिकारी मानते हैं कि Zoho का प्रयोग न केवल सुरक्षित है बल्कि इससे “डेटा संप्रभुता” (Data Sovereignty) का सिद्धांत भी मजबूत होता है।

उपयोग में आसान और लागत में कम

Zoho के टूल्स का इंटरफेस सरल और सहज है, जिससे इसे अपनाना सरकारी कर्मचारियों या शिक्षण संस्थानों के लिए आसान हो जाता है। साथ ही, इसका खर्च भी Google या Microsoft की तुलना में काफी कम है।
विशेषज्ञों का मानना है कि यदि Zoho को सरकारी स्तर पर लगातार समर्थन मिलता रहा, तो यह भारत में किफायती और स्वदेशी डिजिटल सॉल्यूशन की सबसे बड़ी मिसाल बन सकता है।

क्या वाकई Google और Microsoft को टक्कर मिल पाएगी?

यह सच है कि Google और Microsoft के पास संसाधन, अनुभव और वैश्विक उपस्थिति कहीं ज्यादा है। लेकिन Zoho का सबसे बड़ा फायदा यह है कि यह भारत की जमीन, जरूरत और भाषा के अनुरूप तकनीक विकसित कर रहा है।

यदि आने वाले वर्षों में Zoho अपने प्रोडक्ट्स में लगातार इनोवेशन करता रहा और सरकारी संस्थाओं के साथ-साथ निजी कंपनियों ने भी इसे अपनाया, तो यह विदेशी कंपनियों के वर्चस्व को चुनौती दे सकता है।

आत्मनिर्भर डिजिटल भारत की शुरुआत

Zoho का उभार केवल एक कंपनी की सफलता की कहानी नहीं है, बल्कि यह भारत के डिजिटल स्वतंत्रता आंदोलन की कहानी है। जैसे-जैसे भारत अपनी तकनीकी क्षमताओं पर भरोसा बढ़ा रहा है, Zoho जैसी कंपनियां यह साबित कर रही हैं कि विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धा के लिए अब भारतीय ब्रैंड भी पूरी तरह तैयार हैं। 

हाल ही में अमेरिका द्वारा  H-1B वीजा फीस में बढ़ोतरी ने भारतीयों के लिए अंतरराष्ट्रीय यात्रा और नौकरी के अवसरों को महंगा और चुनौतीपूर्ण बना दिया है। इस बदलाव के बाद भारतीय कंपनियों और कर्मचारियों की नजर अब स्थानीय और स्वदेशी डिजिटल प्लेटफॉर्म्स की ओर अधिक हो गई है। ऐसे में Zoho ने अचानक से मार्केट में अपनी पकड़ मजबूत कर ली है और इसे भारत में डिजिटल आत्मनिर्भरता का प्रतीक माना जाने लगा है।

Zoho क्यों जरूरी बन गया?

अमेरिका में काम करने के अवसर महंगे होने और सीमित हो जाने के कारण, कई भारतीय पेशेवर अब अपने देश में ही डिजिटल टूल्स और क्लाउड सेवाओं पर निर्भर हो रहे हैं। Zoho की सुविधा यह है कि यह Office Suite, ईमेल, CRM, प्रोजेक्ट मैनेजमेंट और टीम कम्युनिकेशन जैसी पूरी डिजिटल इकोसिस्टम उपलब्ध कराता है। इस वजह से बड़ी संख्या में भारतीय व्यवसाय और सरकारी संस्थान अब Google और Microsoft की बजाय Zoho को अपनाने लगे हैं।

मार्केट में Zoho का अचानक उभार

Zoho की लोकप्रियता में तेज बढ़ोतरी के पीछे कई कारण हैं:

  1. स्वदेशी और सुरक्षित: डेटा पूरी तरह भारत में स्टोर होता है, जिससे प्राइवेसी और डेटा सुरक्षा सुनिश्चित होती है।

  2. कम लागत, अधिक फायदे: विदेशी सॉफ़्टवेयर की तुलना में Zoho का खर्च कम है और इसमें सारे जरूरी टूल्स शामिल हैं।

  3. सरकारी समर्थन: हाल ही में शिक्षा मंत्रालय और अन्य केंद्रीय विभागों ने Zoho Office Suite को अपनाने के निर्देश दिए हैं।

अफवाहों का खंडन

कुछ समय से सोशल मीडिया और न्यूज पोर्टल्स में यह अफवाहें उड़ रही थीं कि Zoho ने अचानक मार्केट में कब्जा करने के लिए किसी बड़ी विदेशी कंपनी के साथ मिलकर प्रतिस्पर्धा घटाई है या कर्मचारियों को दबाव में रखा गया है। Zoho के संस्थापक श्रीधर वेम्बू ने इन अफवाहों का स्पष्ट खंडन करते हुए कहा, "हमारा उद्देश्य केवल भारत में स्वदेशी तकनीक को बढ़ावा देना और यूजर्स को सशक्त बनाना है। हमारी सफलता किसी विदेशी दबाव या साजिश का परिणाम नहीं है।"

भविष्य की दिशा

विशेषज्ञ मानते हैं कि Zoho का यह उभार केवल एक ट्रेंड नहीं बल्कि भारत की डिजिटल आत्मनिर्भरता का संकेत है। जैसे-जैसे भारतीय संस्थान और पेशेवर विदेशी प्लेटफॉर्म्स से दूर होते जा रहे हैं, Zoho और अन्य स्वदेशी सॉफ़्टवेयर कंपनियों को अधिक अवसर मिलेंगे।

अमेरिका की वीजा फीस बढ़ोतरी और अंतरराष्ट्रीय अवसरों में सीमितता ने भारतीयों को देशी डिजिटल टूल्स की ओर मोड़ दिया है। Zoho इस बदलाव का सबसे बड़ा लाभार्थी बनकर उभरा है। अफवाहों के बावजूद, श्रीधर वेम्बू का स्पष्ट संदेश यह है कि Zoho पूरी तरह भारत के हित और तकनीकी आत्मनिर्भरता के लिए काम कर रहा है। 

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

बेशर्म पाकिस्तान ने की नापाक हरकत : रजत शर्मा

पूरी दुनिया में पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड की नापाक हरकत का मजाक उड़ाया गया है। हजारों मीम्स बने लेकिन मोहसिन नकवी को बिलकुल शर्म नहीं आई।

Last Modified:
Wednesday, 01 October, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा, चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ, इंडिया टीवी।

एशिया कप में भारत ने पाकिस्तान को हराया, लेकिन टीम इंडिया को कप नहीं मिला। टीम इंडिया ने जीत का जश्न कप के बगैर मनाया। टीम इंडिया ने एशियाई क्रिकेट परिषद के अध्यक्ष मोहसिन नक़वी के हाथ से कप लेने से इंकार कर दिया। मोहसिन नक़वी पाकिस्तान के गृह मंत्री हैं और भारत के खिलाफ बे सिर-पैर के बयान देते रहते हैं। आयोजकों ने संयुक्त अरब अमीरात क्रिकेट बोर्ड के उपाध्यक्ष खालिद अल जरूनी के हाथों टीम इंडिया को कप देने का सुझाव दिया, टीम इंडिया तैयार हो गई, पर पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के प्रमुख इस बात पर अड़ गए कि टीम इंडिया को कप मैं दूंगा।

कप्तान सूर्य कुमार यादव और उनकी टीम मैदान पर मौजूद थी। घोषणा होती रही, लेकिन कोई कप और पदक लेने नहीं गया। थोड़ी देर बाद मोहसिन नक़वी मुंह लटका कर मैदान से बाहर निकल गए लेकिन जाते-जाते एशिया कप कप और भारतीय खिलाड़ियों को मिलने वाले पदक अपने साथ ले गए। अब बीसीसीआई ने आईसीसी को चिट्ठी लिखकर मोहसिन नक़वी की हरकत पर सख्त आपत्ति जताई है। पूरी दुनिया में पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड की इस हरकत का मजाक उड़ाया गया है। हजारों मीम बने लेकिन मोहसिन नक़वी को बिलकुल शर्म नहीं आई। वह अभी भी टीम इंडिया की जीत का कप अपने पास रखकर बैठे हैं।

पाकिस्तान में भी क्रिकेट टीम और मोहसिन नक़वी का खूब मजाक उड़ाया जा रहा है। पाकिस्तान के लोग ही अब कह रहे हैं कि जैसे आसिम मुनीर ने ऑपरेशन सिंदूर में झूठी जीत का दावा किया था, वैसे ही अब मोहसिन नक़वी यह कहेंगे कि तीनों मैच हमने जीते हैं, कप हम लेकर आए हैं। भारत में टीम इंडिया की जीत का जश्न कल पूरी रात मनाया गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने टीम को जीत की बधाई देते हुए लिखा कि खेल के मैदान में भी ऑपरेशन सिंदूर... नतीजा वही... भारत की जीत। इस अंदाज में मोदी की बधाई पर सूर्य कुमार यादव ने कहा कि जब देश का नेता आगे आकर खेलता है, तो टीम की जीत तो पक्की हो जाती है।

आखिर यह सारी बातें हद से बाहर क्यों निकल गईं? भारत का रुख पहले दिन से साफ था, वह किसी पाकिस्तानी खिलाड़ी या अधिकारी के साथ किसी तरह का कोई मेलजोल नहीं करेंगे। एशिया कप के साथ पाकिस्तानी टीम के कप्तान सलमान अली आगा ने अकेले फोटो खिंचवाई, सूर्य कुमार यादव वहां नहीं गए। इसके बाद सूर्य कुमार यादव ने टॉस के दौरान सलमान अली से हाथ मिलाने से इनकार कर दिया। जसप्रीत बुमराह ने जब हारिस रऊफ़ को आउट किया तो रऊफ़ के विमान गिराने के इशारे का मजाक उड़ाया।

मैदान में पुरस्कार समारोह की तैयारी हो रही थी। प्रस्तोता न्यूज़ीलैंड के पूर्व क्रिकेटर साइमन डूल थे। एशियाई क्रिकेट परिषद और पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष मोहसिन नक़वी कप देने के लिए मैदान पर पहुंच गए। कुछ देर बाद सूर्य कुमार यादव पूरी टीम के साथ मैदान पर आए। साइमन डूल ने घोषणा की कि भारत के खिलाड़ियों ने फ़ैसला किया है कि वह एसीसी अध्यक्ष मोहसिन नक़वी से कप नहीं लेंगे। इसलिए भारतीय टीम अपना पुरस्कार आज ग्रहण नहीं करेगी। मोहसिन नक़वी पाकिस्तान के सेना प्रमुख आसिम मुनीर के बेहद क़रीबी हैं।

आसिम मुनीर ने ही मोहसिन नक़वी को पीसीबी का अध्यक्ष और पाकिस्तान का गृह मंत्री बनवाया है। इसीलिए भारतीय टीम ने तय किया कि वह मोहसिन नक़वी से कप नहीं लेगी। हालांकि तिलक वर्मा, दिन के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का पुरस्कार लेने मंच पर गए। अभिषेक शर्मा, प्रतियोगिता के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का और कुलदीप यादव सर्वाधिक मूल्यवान खिलाड़ी का व्यक्तिगत पुरस्कार लेने मंच के पास जरूर गए लेकिन उन्होंने मोहसिन नक़वी को पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया। उन्होंने अमीराती क्रिकेट बोर्ड के उपाध्यक्ष ख़ालिद अल ज़रूनी और दूसरे अधिकारियों से अपने पुरस्कार लिए।

लेकिन मोहसिन नक़वी इस बात पर अड़े रहे कि वही टीम इंडिया को कप देंगे। हालांकि अमीराती अफसरों ने मोहसिन नक़वी को समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन मोहसिन नक़वी इसके लिए तैयार नहीं हुए। करीब एक घंटे तक मैदान पर नाटक चलता रहा। पुरस्कार समारोह में जब टीम इंडिया ने नक़वी का बहिष्कार किया तो मैदान में मौजूद दर्शकों ने 'भारत माता की जय' के नारे लगाए।

आखिर में मोहसिन नक़वी मुंह फुलाकर मैदान से बाहर चले गए। जाते-जाते मोहसिन नक़वी ने पाकिस्तानी अफसरों को हुक्म दिया कि एशिया कप का कप भी वापस होटल पहुंचा दिया जाए, अगर टीम इंडिया ने उनसे कप नहीं लिया, तो फिर उनको नहीं दिया जाएगा। मोहसिन नक़वी जब खुद चले गए तो भारतीय खिलाड़ियों को जो पदक दिए जाने थे, वह पदक भी पाकिस्तान के अफसर मोहसिन नक़वी के आदेश पर होटल ले गए यानी एशिया कप का विजेता होने के बावजूद एसीसी अध्यक्ष ने भारतीय खिलाड़ियों को उनका हक नहीं दिया, न कप दिया, न पदक दिया, अपने साथ सब वापस होटल भिजवा दिए।

जब मैच के बाद प्रेस वार्ता में भारत के कप्तान सूर्य कुमार यादव से पूछा गया कि क्या उनको कप न मिलने का अफ़सोस है, क्या इस बात का दुख है कि टीम इंडिया को बिना कप के ही उत्सव मनाना पड़ा तो, सूर्य कुमार ने बहुत शानदार जवाब दिया। सूर्य कुमार ने कहा कि प्रतियोगिता उन्होंने जीती, उत्सव पूरे देश ने मनाया और पूरे टूर्नामेंट में टीम का प्रदर्शन बहुत शानदार रहा, किसी कप्तान को और क्या चाहिए? सूर्य कुमार यादव ने एलान किया कि एशिया कप के सभी मैचों की अपनी पारिश्रमिक वह भारतीय सेना को समर्पित करते हैं और मुस्कुराते हुए कहा कि उन्हें उम्मीद है, कम से कम इस पर कोई नया विवाद नहीं होगा।

सूर्य की देखा-देखी पाकिस्तान के कप्तान सलमान अली आगा ने कहा कि उनकी पूरी टीम अपनी मैच पारिश्रमिक उन लोगों के परिवारों को देगी, जो 7 मई को ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत के हमले में मारे गए थे। सूर्य कुमार यादव का यह सवाल बिलकुल सही है कि हमने सारे मैच जीते, पाकिस्तान को तीन-तीन बार हराया, फिर भी पाकिस्तान हमारा कप लेकर भाग गया, एशिया कप जीतने वाली टीम के हाथ खाली हैं और हारने वाला मुल्क कप और पदक को सजाकर बैठा है। जीतने वाली टीम के साथ इससे घटिया मज़ाक और क्या हो सकता है? मोहसिन नक़वी ज़िद पकड़कर क्यों बैठे हैं?

अगर मेज़बान देश अमीरात के क्रिकेट बोर्ड के उपाध्यक्ष टीम इंडिया को कप दे देते तो कौन सा पहाड़ टूट जाता? असल में पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के प्रमुख उसी तरह की हरकत कर रहे हैं जैसी उनके सेना प्रमुख ने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान की थी। आसिम मुनीर ने भी अपनी तबाही में जीत का दावा किया था। पूरे एशिया कप के दौरान कभी किसी पाकिस्तानी खिलाड़ी ने बल्ले को बंदूक बनाकर दिखाया, तो किसी ने विमान गिरने का इशारा किया, लेकिन सूर्य कुमार यादव और उनकी टीम ने अपने बल्ले और गेंद से करारा जवाब दिया।

एक बार नहीं तीन-तीन बार दिया। अब अगर मोहसिन नक़वी में ज़रा सी भी शर्म बची है तो उन्हें कप और पदक टीम इंडिया को सौंपने चाहिए वरना आईसीसी को पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के प्रमुख के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। जितना मजाक पाकिस्तान की टीम का बनाया गया, उससे कहीं ज्यादा हंसी पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष की उड़ाई गई।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

AI का झूठ पकड़ा गया! पढ़िए इस सप्ताह का हिसाब किताब

अब सोचिए अमेरिकी कंपनियों ने पिछले कुछ सालों में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) पर $328 बिलियन लगा दिए हैं। नतीजा यह निकल रहा है कि याचिका में झूठे जजमेंट पकड़े गए।

Last Modified:
Monday, 29 September, 2025
milindkhandekar

मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

दिल्ली हाईकोर्ट में पिछले हफ़्ते मज़ेदार घटना हुई। गुरुग्राम के Greenopolis Welfare Association (GWA) ने याचिका दायर की थी। ख़रीदारों को बिल्डर से फ्लैट नहीं मिल रहा था। याचिका में जिन जजमेंट का हवाला दिया गया था वो कभी लिखा ही नहीं गया था, जैसे राज नारायण बनाम इंदिरा गांधी केस के जजमेंट से पैरा 73 का हवाला दिया जबकि जजमेंट सिर्फ़ 27 पैराग्राफ़ है। यह बात दूसरी पार्टी ने पकड़ ली कि यह याचिका ChatGPT ने लिखी है। AI hallucinate कर रहा है यानी झूठ बोल रहा है। याचिका वापस ली गई।

अब सोचिए अमेरिकी कंपनियों ने पिछले कुछ सालों में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) पर $328 बिलियन लगा दिए हैं। नतीजा यह निकल रहा है कि याचिका में झूठे जजमेंट पकड़े गए। इस खर्चे को ऐसे समझिए कि इतने पैसे में दिल्ली मेट्रो जैसे 40 नेटवर्क बन सकते हैं। अब सवाल उठने लगे हैं कि क्या यह इन्वेस्टमेंट रिटर्न दे सकेगा या डूब जाएगा?

Open AI को ChatGPT लांच कर तीन साल होने वाले है। इसके बाद सभी बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों में AI में आगे निकलने की होड़ लग गई। इसी होड़ में सब AI पर पैसे लगा रहे हैं लेकिन अब दो अलग-अलग रिपोर्ट ने इसके रिटर्न पर सवाल उठाए हैं।

MIT की रिपोर्ट में कहा गया है कि Generative AI के 95% पायलट प्रोजेक्ट कंपनियों में फेल हो गए हैं यानी कंपनियाँ इसे आगे नहीं बढ़ा पायीं। फ़ाइनेंशियल टाइम्स ने पाया है कि अमेरिका की 500 बड़ी कंपनियों में बातें तो खूब हो रही हैं लेकिन जब लागू करने की बात हो रही है तो कंपनियाँ अटक जा रही हैं।

AI के आने से नौकरी जाने का डर लगातार बना हुआ है। दो क्षेत्रों में इसका इस्तेमाल कंपनियाँ कर रही हैं। कस्टमर केयर और कोडिंग। AI से ग्राहकों के सवालों के जवाब chatbot या कॉल से दिए जा रहे हैं। सॉफ़्टवेयर कोडिंग में भी AI मदद कर रहे हैं। इससे भारतीय IT कंपनियों ने नई हायरिंग लगभग बंद कर रखी है। Open AI के संस्थापक सैम अल्टमैन कहते है कि सॉफ़्टवेयर इंजीनियरों की ज़रूरत बनी रहेगी। AI के चलते सॉफ़्टवेयर की माँग बढ़ रही है। बाक़ी सेक्टर में इसकी भूमिका सहयोगी की रह सकती है यानी लोग जो काम करेंगे उसमें AI मदद करेगा।

AI के आने के बाद से यह अटकलें लगने लगी थीं कि यह आदमी को बेकार कर देगा। वकील, डॉक्टर, पत्रकार, टीचर सबकी जगह ले सकता है। जो भी काम के लिए कंटेंट जनरेट करते हैं। नॉलेज का इस्तेमाल सर्विस देने में करते हैं उन पर गाज गिरेगी। अब भी यह कहना मुश्किल है कि AI क्या बदलाव लाएगा? दिल्ली हाईकोर्ट की घटना का सबक है कि आँख मूँद कर AI का इस्तेमाल नहीं करें, जो कह रहा है वो जाँच लें वरना आप मुश्किल में पड़ सकते हैं।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए