इस बार जब सरकार के सौ दिन पूरे हुए तब सरकारी प्रचार उतने जोर शोर से नहीं हुआ जैसा कि नरेंद्र मोदी के पिछली दो सरकारों के सौ दिन पूरे होने पर हुआ था।
विनोद अग्निहोत्री, वरिष्ठ सलाहकार संपादक, अमर उजाला समूह।
जम्मू कश्मीर और हरियाणा विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद देश का राजनीतिक तापमान एकाएक गरम हो गया है। हरियाणा में कांग्रेस की अप्रत्याशित हार और जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस के शानदार प्रदर्शन ने इंडिया गठबंधन में सहयोगी दलों को कांग्रेस पर मुखर होने का जो मौका दिया है उससे कांग्रेस पर फिर वैसा ही दबाव बन गया है जैसा कि नवंबर दिसंबर 2023 में तीन राज्यों मध्य प्रदेश छत्तीस गढ़ और राजस्थान की चुनावी हार के बाद बना था। नतीजा कांग्रेस ने अपने रुख को लचीला बनाया और लोकसभा चुनावों में सहयोगियों के साथ बेहतर तालमेल करके भाजपा को 240 और एनडीए को 293 पर रोक दिया।
उधर हरियाणा की चौंकाने वाली जीत और जम्मू कश्मीर में पिछली बार से ज्यादा सीटों की जीत ने भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फिर से पिछले साल के आखिर में तीन राज्यों की जबर्दस्त जीत जैसा सियासी टॉनिक फिर दे दिया है। वहीं ये नतीजे नेता विपक्ष राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए भी फिर वैसा ही सबक हैं जैसा उन्हें 2023 में तीन राज्यों की हार के बाद मिला था। अब अगले ही महीने संभावित महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा के चुनावों के लिए तैयार हो रहे दोनों दल इन नतीजों से कैसा फायदा उठा पाते हैं इन राज्यों के चुनाव नतीजे इससे तय होंगे।
मोदी सरकार-तीन जिसे अब एनडीए सरकार भी कहा जा रहा है के डेढ़ सौ दिन होने जा रहे हैं। लेकिन इस बार जब सरकार के सौ दिन पूरे हुए तब सरकारी प्रचार उतने जोर शोर से नहीं हुआ जैसा कि नरेंद्र मोदी के पिछली दो सरकारों के सौ दिन पूरे होने पर हुआ था। इसे समझा जा सकता है क्योंकि 2024 के लोकसभा चुनाव नतीजों ने सरकार तो बनवा दी लेकिन हनक कमजोर कर दी थी। लेकिन हरियाणा के नतीजे मोदी सरकार की हनक वापस लाने में मददगार हो सकते हैं बशर्ते कि भाजपा अगले महीने संभावित महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों में ऐसा ही प्रदर्शन दोहरा सके। क्योंकि हरियाणा में भाजपा के सामने जितनी कड़ी चुनौती थी उतना ही आसान यह भी था कि उसका मुकाबला उस कांग्रेस से था जो जीती हुई बाजी आसानी से हारना जानती है जबकि महाराष्ट्र में उसे कांग्रेस के साथ साथ उन दो क्षत्रीय दलों शिवसेना (उद्धव ठाकरे) और एनसीपी (शऱद पवार) की मिली जुली ताकत से भिडना है जिनके लिए यह चुनाव उनके सियासी वजूद का सवाल हैं।
साथ ही हरियाणा में भाजपा अपने दम पर अकेले लड़ रही थी और लोकसभा चुनावों में पांच सीटें गंवाने के बावजूद कांग्रेस के मुकाबले विधानसभा सीटों और मत प्रतिशत में थोड़ा आगे थी। जबकि महाराष्ट्र में उसके अपने दो सहयोगी शिवसेना (शिंदे) और एनसीपी (अजित पवार) के साथ सीटों के बंटवारे से लेकर चुनाव प्रचार तक बेहतर तालमेल बिठाना होगा और उन गड्ढों को भरना होगा जो मौजूदा शिंदे सरकार के जमाने में पैदा हो गए हैं। क्योंकि लोकसभा चुनावों में भाजपा के गठबंधन (एनडीए) को कांग्रेस गठबंधन (इंडिया) के मुकाबले सीटों और मत प्रतिशत दोनों का नुकसान हुआ और विधानसभा सीटों पर भी इंडिया गठबंधन का महाविकास अघाड़ी एनडीए गठबंधन के महायुति से आगे था। इसलिए महाराष्ट्र की चुनौती हरियाणा से ज्यादा कठिन है। जबकि झारखंड में मुकाबला बराबरी का बताया जा रहा है।
उधर हरियाणा के नतीजों ने भाजपा औऱ उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ पिछले कुछ समय से रिश्तों में आई खटास को भी मिठास में बदलने का सिलसिला शुरु कर दिया है। दोनों के बीच बढ़ी दूरी की वजह से ही शायद भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा का कार्यकाल पूरे होने के बावजूद अभी तक भाजपा के नए अध्यक्ष के नाम पर कोई फैसला नहीं हो सका है। लोकसभा चुनावों के बाद जिन नामों पर मीडिया में कयास लग रहे थे उनमें ज्यादातर केंद्र सरकार में मंत्री बन चुके हैं और जो नहीं बने हैं उनके नाम भी अब चलने बंद हो गए हैं। माना जा रहा है कि यह देर इसलिए भी हो रही है कि भाजपा के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच नए अध्यक्ष के नाम पर अभी तक सहमति बन नहीं सकी है।
वैसे भी चुनाव नतीजों के बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत के सांकेतिक बयानों ने भी सरकार और संघ के बीच सब कुछ ठीक न होने का संदेश भी लगातार दिया है। अटकलें तो यहां तक चली हैं कि संघ प्रमुख इस बार घनघोर मोदी विरोधी माने जाने वाले पर संघ नेतृत्व के दुलारे पूर्व संगठन महासचिव संजय विनायक जोशी को भाजपा अध्यक्ष बनाना चाहता है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और दूसरे भाजपा नेता इसके लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। लेकिन हरियाणा में भाजपा की अप्रत्याशित जीत के पीछे एक बड़ा कारण चुनावों में संघ के पूरे तंत्र का भाजपा के पक्ष में सक्रिय हो जाना भी माना जा रहा है।
कहा तो यह भी जा रहा है कि अघोषित रूप से संघ नेतृत्व ने संजय जोशी को भी हरियाणा में भाजपा की जीत सुनिश्चित करने का निर्देश दे दिया था और पर्दे के पीछे रह कर जोशी ने भी काम किया है। नतीजे जहां एक तरफ जहां मोदी के करिश्मे की कमी के भ्रम को दूर करने में मदद करेंगे वहीं इस तथ्य को भी स्थापित कर रहे हैं कि भले ही भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने लोकसभा चुनावों में यह कहा हो कि भाजपा अब इतनी बड़ी हो गई है कि उसे चुनाव जीतने के लिए संघ की जरूरत नहीं रह गई है, लेकिन हकीकत ये है कि बिना संघ के जमीनी कार्यकर्ताओं और अन्य संगठनों के तंत्र की मदद के लिए भाजपा सिर्फ एक मोदी के चेहरे और अपनी रणनीति से चुनाव नहीं जीत सकती है।
यानी मोदी का करिश्मा और संघ की ताकत दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और यही बात अब इनके बीच की कथित दूरी को खत्म कर सकती है। ये दूरी खत्म हुई या नहीं या फिर कितनी कम हुई इसका सबसे बड़ा पैमाना होगा कि भाजपा का नया अध्यक्ष कौन बनता है। क्या संघ पूरी तरह अपनी पसंद के व्यक्ति को अध्यक्ष बनवा पाएगा या मोदी शाह की पसंद के आगे संघ कमजोर पड़ेगा या फिर दोनों पक्षों के बीच इस मुद्दे पर कोई सहमति बनेगी।
उधर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की सर्वोच्च न्यायालय से जमानत के बाद जिस तरह केजरीवाल ने नाटकीय तरीके से मुख्यमंत्री पद से अपना इस्तीफा देकर मंत्री आतिशी मारलेना को अपना उत्तराधिकारी बनाया है उसने भी भाजपा के सामने दिल्ली में नई चुनौती पेश कर दी है। हरियाणा और जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की चुनौती को तो भाजपा ने अपनी जीत से बेकार कर दिया है लेकिन अभी महाराष्ट्र झारखंड और उसके बाद दिल्ली में विपक्षी इंडिया गठबंधन की चुनौती बरकरार है। इसको कमजोर करने के लिए ही सरकार ने अपने पिटारे से एक देश एक चुनाव वाली कोविंद कमेटी की रिपोर्ट को मंत्रिमंडल की मंजूरी देकर संसद के अगले सत्र में इसे विधेयक के रूप में लाने का साफ संकेत दे दिया है। ये राजनीति में अपने मुद्दों की माहौलबंदी की एक कवायद है।
इसका संकेत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी साल स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से अपने संबोधन में भी दे दिया था कि भले ही उनकी सरकार इस बार सहयोगी दलों के समर्थन पर टिकी हो लेकिन सरकार अपने दोनों एजेंडों एक देश एक चुनाव और समान नागरिक संहिता पर कदम वापस नहीं खींचेगी और इसी कार्यकाल में इन दोनों पर आगे बढ़ेगी। कोविंद कमेटी की रिपोर्ट को मंजूर करके मोदी सरकार ने इस ओर एक कदम बढ़ा दिया है। एक देश एक चुनाव को मौजूदा संसद किस रूप में लेगी इसे देखने के बाद ही मोदी सरकार समान नागरिक संहिता (यूसीसी) जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले के अपने भाषण में सेक्युलर सिविल कोड भी कहा था, के अपने अगले एजेंडे पर काम करेगी।
सवाल है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को पता है कि इन दोनों मुद्दों के लिए संविधान में आवश्यक संशोधन करना होगा जिसके लिए भाजपा ही नहीं पूरे एनडीए के पास भी संसद में पर्याप्त संख्या बल नहीं है तब इन्हें बजाय ठंडे बस्ते में फिलहाल डालने के सरकार इनको आगे क्यों बढ़ा रही है। जबकि यही केंद्र सरकार संसद में ही वक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति को सौंप चुकी है। बजट में कैपिटल गेन और इंडक्सेशन जैसे मुद्दों पर अपने कदम पीछे खींच चुकी है। आरक्षण को लेकर दलितों में क्रीमी लेयर बनाने के सुप्रीम कोर्ट के सुझाव को भी सरकार ने बाकायदा मंत्रिमंडल से प्रस्ताव पारित करके नामंजूर कर दिया। इसका एक ही जवाब है कि भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गठबंधन सरकार चला रहे हों लेकिन वह जनता में यह संदेश बनाए रखना चाहते हैं कि जिस हनक और ठसक से मोदी सरकार एक और दो चली हैं, उसी हनक और ठसक से मोदी सरकार तीन भी चल रही है ओर चलेगी।
इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तकरीबन उन्हीं चेहरों को मंत्री बनाया जो मोदी सरकार दो में थे और कमोबेश ज्यादातर मंत्रियों के विभाग भी नहीं बदले गए। यहां तक कि लोकसभा अध्यक्ष भी वही ओम बिड़ला हैं जिन्हें लेकर पिछली लोकसभा में विपक्ष ने खासा विवाद पैदा किया था। बावजूद इसके सरकार को कुछ मुद्दों पर जरूर अपने कदम वापस खींचने पड़े हैं जिनकी भरपाई अपने मूल दोनों मुद्दों एक देश एक चुनाव और समान नागरिक संहिता को आगे बढ़ाकर प्रधानमंत्री मोदी करना चाहते हैं। हरियाणा और जम्मू के नतीजों ने उन्हें नई ताकत दी है।
उधर कांग्रेस को हरियाणा के नतीजों ने जबर्दस्त झटका दिया है। जहां राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे इन नतीजों को अप्रत्याशित बता रहे हैं वहीं पार्टी प्रवक्ता इनके लिए चुनाव आयोग और ईवीएम को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। कांग्रेस के प्रतिनिधि मंडल ने चुनाव आयोग से कुछ जिलों में ईवीएम मशीनों की बैट्री के 99 फीसदी तक चार्ज रहने पर सवाल उठाते हुए अपनी शिकायत भी दर्ज कराई है। लेकिन नतीजों पर विचार करने के लिए शीर्ष नेतृत्व ने बैठक की जिसमें राहुल गांधी ने कहा कि नेताओं ने पार्टी से ज्यादा अपने हितों को आगे रखा जिसकी वजह से यह अप्रत्याशित हार हुई।
पार्टी ने एक जांच समिति बनाकर कारणों का पता लगाने का फैसला किया है जो हर चुनावी हार के बाद कांग्रेस में होता है लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही होता है। लेकिन इन नतीजों ने इंडिया गठबंधन में कांग्रेस की हैसियत फिर कमजोर कर दी है जैसी 2023 के आखिर में तीन राज्यों में हुई हार के बाद हुई थी। सहयोगी दलों शिवसेना (उद्धव), समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी के साथ साथ जम्मू कश्मीर में साथ लड़ी नेशनल कांफ्रेंस ने भी अपने तेवर तीखे करते हुए कांग्रेस को अपने कील कांटे दुरुस्त करने की नसीहत दी है।
शिवसेना (उद्धव) की सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने तो चुनाव नतीजों के बीच में भाजपा को जीत की बधाई देते हुए उसकी रणनीति की सराहना की और कहा कि कांग्रेस जहां भाजपा से अकेले चुनाव लड़ती है वहां हार जाती है। उसे अपनी रणनीति पर विचार करना चाहिए। मतलब साफ है कि महाराष्ट्र में अगर जीतना है तो सहयोगी दलों के पीछे चलना होगा और मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में उद्धव ठाकरे को आगे करना होगा। हरियाणा की 89 सीटों पर चुनाव लड़कर महज पौने दो फीसदी वोट पाने वाली आम आदमी पार्टी ने भी हरियाणा में कांग्रेस की हार के लिए आप से गठबंधन न करने को जिम्मेदार ठहराते हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में अकेले उतरने का ऐलान कर दिया।
लेकिन पहले दिन दस में छह उम्मीदवार घोषित करते हुए कांग्रेस पर निशाना साध चुके सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कांग्रेस को राहत देते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश की दस विधानसभा सीटों के उपचुनावों में सपा कांग्रेस का गठबंधन जारी रहेगा। अब बची चार सीटों में से कांग्रेस को ज्यादा से ज्यादा दो सीटें ही मिल सकेंगी।
कुल मिलाकर कांग्रेस को हरियाणा की हार की कीमत अपने सहयोगियों के सामने नरम होकर चुकानी पड़ेगी क्योंकि उसके लिए भाजपा को महाराष्ट्र झारखंड और दिल्ली में हराना बेहद जरूरी है वरना लोकसभा चुनावों से विपक्ष के हक में बना माहौल पूरी तरह ध्वस्त हो जाएगा और इंडिया गठबंधन के बिखरने का खतरा भी बढ जाएगा। इससे सबसे ज्यादा नुकसान होगा राहुल गांधी की छवि को जो बमुश्किल उनकी दोनों भारत यात्राओं के बाद न सिर्फ सुधरी बल्कि उससे पार्टी और विपक्ष को चुनावी फायदा भी हुआ।
अब उसके सामने राहुल की छवि और विपक्षी गठबंधन को बनाए और बचाए रखने की कड़ी चुनौती है। इसलिए अगर कांग्रेस ने हरियाणा से सबक लेकर महाराष्ट्र और झारखंड में अपनी रणनीति, अपने संगठन और उम्मीदवारों के चयन के साथ साथ मुद्दों और प्रचार को दुरुस्त कर लिया वह महाराष्ट्र झारखंड में कामयाबी से हरियाणा की हार के झटके से उबर सकती है लेकिन अगर कोई सबक नहीं लिया तो पिछले दो सालों में राहुल गांधी द्वारा की गई मेहनत पर पानी फिर सकता है। अब यह कांग्रेस और राहुल गांधी को तय करना है कि उन्हें किस रास्ते जाना है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - अमर उजाला डिजिटल।
ट्रंप ने दिवाली के दिन ट्वीट करके, बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले की कड़ी निंदा की थी। ट्रंप ने लिखा था कि जो बाइडेन और कमला हैरिस ने दुनिया भर के हिंदुओं की अनदेखी की।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति चुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज की। कमला हैरिस को बड़े मार्जिन से हराया। अमेरिका में 132 साल बाद ऐसा हुआ है जब एक बार चुनाव हारने के बाद कोई पूर्व राष्ट्रपति दोबारा राष्ट्रपति चुनाव जीता हो। ये कारनामा करने वाले ट्रंप अमेरिकी इतिहास में दूसरे राष्ट्रपति हैं। बड़ी बात ये है कि स्विंग स्टेटस में भी ट्रंप को एकतरफा जीत मिली। नतीजे आने के बाद ट्रंप ने निर्वाचित उपराष्ट्रपति जे डी वेंस और परिवार के सदस्यों के साथ समर्थकों को संबोधित किया।
ट्रंप ने कहा, वो अगले चार साल तक बिना रुके, बिना थके अमेरिका की बेहतरी के लिए काम करेंगे। ट्रंप ने कहा कि आने वाले चार साल अमेरिका के लिए स्वर्णिम होंगे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहले सोशल मीडिया पर ट्रम्प को बधाई दी और उसके बाद टेलीफोन पर ट्रंप को जीत की बधाई दी। सूत्रों के मुताबिक, फोन पर बातचीत के दौरान ट्रम्प ने भारत को “एक शानदार देश” और मोदी को “एक शानदार नेता” बताया, “जिन्हें दुनिया भर के लोग प्यार करते हैं।”
सवाल ये है कि अमेरिका में सत्ता परिवर्तन से हमारे देश और हमारे पड़ोसी देशों पर क्या असर होगा ? क्या मोदी और ट्रंप की अंतरंग मित्रता दोनों देशों के संबंधों को और मजबूत करने में काम आएगी? ट्रंप व्यापारी हैं और एक ज़बरदस्त सौदेबाज़ हैं। क्या ट्रंप के आने से भारत के व्यापार पर असर पड़ेगा? ट्रंप अमेरिका में प्रवेश करने वालों के बारे में सख्त नीति बनाए जाने के हिमायती हैं। क्या इसका असर अमेरिका जाने वाले भारतीयों पर पड़ेगा?
ट्रंप की सत्ता में वापसी को अमेरिका के राजनीतिक इतिहास की सबसे ज़बरदस्त वापसी में रूप में देखा जा रहा है। 2020 में जो बाइडेन से चुनाव हारने के बाद ट्रंप ने एक के बाद एक कई मुश्किलों का सामना किया। समर्थकों ने, रिपब्लिकन पार्टी के बड़े नेताओं ने ट्रंप का साथ छोड़ दिया था, लेकिन ट्रंप ने हार नहीं मानी और वो एक बार फिर से अमेरिका के बिग बॉस बन गए। पिछले चार साल में ट्रंप ने तमाम राजनीतिक और अदालती चुनौतियों का सामना किया।
आखिर में सभी चुनौतियों को मात देकर उन्होंने ऐतिहासिक जीत दर्ज की। इस जीत ने अमेरिका को एक मजबूत स्थिति में ला दिया है। अब वहां सरकार को लेकर कोई अनिश्चितता नहीं है।
ट्रंप की जीत का असर पूरी विश्व व्यवस्था पर दिखाई देगा। ट्रंप रूस-यूक्रेन युद्ध को समाप्त कराने की कोशिश करेंगे। इसमें भारत की भूमिका अहम हो सकती है। नरेंद्र मोदी पिछले कुछ महीनों में तीन बार पुतिन से और दो बार जेलेंस्की से मिलकर शांति का रास्ता निकालने की कोशिश कर चुके हैं। ट्रंप की जीत का असर अरब जगत और इजरायल के रिश्तों पर भी पड़ेगा। भारत के संदर्भ में ट्रंप की जीत को दो तरीके से देखा जा सकता है।
एक तो ट्रंप और मोदी के रिश्ते के लिहाज से। जाहिर है कि कमला हैरिस के मुकाबले ट्रंप से मोदी के रिश्ते ज्यादा व्यक्तिगत हैं, पुराने हैं। दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह से जानते और समझते हैं। ट्रंप की कूटनीति का अंदाज व्यक्ति आधारित है। व्यक्तिगत रिश्तों पर वो जोर देते हैं और ट्रंप ये कह चुके हैं कि नरेंद्र मोदी उनके दोस्त हैं और एक मजबूत नेता हैं। इस सोच का फायदा भारत को मिलेगा।
दूसरा पैमाना है, भारत की कूटनीतिक जरूरतें। भारत को चीन हमेशा चुनौती देता रहा है। अब ट्रंप और मोदी की दोस्ती का असर यहां दिखाई देगा। कनाडा में जस्टिन ट्रूडो भारत के लिए नई मुसीबत बन गए हैं। वो खालिस्तानियों का समर्थन करते हैं। बायडेन प्रशासन कनाडा का समर्थन करता हुआ दिखाई दे रहा था। अब ये समीकरण भी बदलेंगे और इस मामले में भारत और ज्यादा मजबूत होगा।
इन सबसे ऊपर, ट्रंप का ये कहना कि मैं इंडिया का फैन हूं और हिंदुओं का फैन हूं। अगर मेरी जीत होती है, व्हाइट हाउस में हिंदुओं का एक सच्चा दोस्त होगा। किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने पिछले 200 साल में इस तरह की बात नहीं कही और इसका असर नजर आएगा। ट्रंप ने बयान दिया था, जिसमें कहा था, “मैं हिंदुओं का बहुत बड़ा फ़ैन हूं और मैं भारत का भी बहुत बड़ा फ़ैन हूं। मैं सीधे सीधे ये बात कहते हुए शुरुआत करना चाहता हूं कि अगर मैं राष्ट्रपति चुना जाता हूं तो व्हाइट हाउस में भारतीय समुदाय और हिंदुओं का एक सच्चा दोस्त होगा। मैं इसकी गारंटी देता हूं।”
ट्रंप ने इसी तरह का जज्बा हिंसा के शिकार बांग्लादेश के हिन्दुओं के लिए भी दिखाया था। इसीलिए इस बात में कोई शक नहीं है कि अमेरिका में ट्रंप की जीत का असर भारत के पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश पर भी असर होगा। कुछ-कुछ असर तो आज ही दिखने लगा। बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना ने ट्रंप को जीत की बधाई दी।
शेख हसीना इस वक्त दिल्ली में हैं। उन्होंने कहा कि वो ट्रंप के साथ मिलकर काम करने को तैयार हैं। अवामी लीग की अध्यक्ष के नाते शेख हसीना के इस बयान के बड़े मतलब हैं। क्योंकि बांग्लादेश में इस वक़्त मुहम्मद यूनुस की अन्तरिम सरकार है। यूनुस क्लिंटन परिवार के करीबी हैं। बाइडेन प्रशासन की मदद से उन्होंने बांग्लादेश में तख्ता पलट करवाया, अन्तरिम सरकार के मुखिया बने। लेकिन, बांग्लादेश को लेकर ट्रंप का रुख़ बिल्कुल साफ़ है।
ट्रंप ने दिवाली के दिन ट्वीट करके, बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले की कड़ी निंदा की थी। ट्रंप ने लिखा था कि जो बाइडेन और कमला हैरिस ने दुनिया भर के हिंदुओं की अनदेखी की, लेकिन वो ऐसा नहीं होने देंगे। ट्रंप ने वादा किया कि राष्ट्रपति बनने पर वो हिंदुओं की हिफ़ाज़त के लिए काम करेंगे, जबरन धर्म परिवर्तन रोकेंगे। इसीलिए, ट्रंप की जीत से बांग्लादेश में कट्टरपंथियों के लिए ख़तरे की घंटी बज गई है। इसी पृष्ठभूमि में शेख हसीना के बयान को समझने की जरूरत है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
हालांकि ट्रंप का पहला कार्यकाल इस बात के लिए जाना जाता है कि ट्रंप ने वैश्विक रिश्तों में अमेरिका की पारंपरिक भूमिका का संपूर्ण तिरस्कार किया। वैश्विक व्यवस्थाओं की हिफाजत करने में पूरी लापरवाही बरती।
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार।
डोनाल्ड ट्रंप एकबार फिर दुनिया के सबसे ताकतवर व्हाइट हाउस के ओवल आफिस में पहुंच गए है। लोगों को ट्रप की किताब 'द आर्ट आफ द डील' पढ़नी चाहिए। ट्रंप ने अपनी किताब में लिखा है कि “बाजार को समझों और अपने लिए लाभ का सौदा करों और अपने प्रभाव और अपनी ताकत का पूरा फायदा उठाओं। अपने पहले कार्यकाल में दुनिया के दरोगा के तौर पर भूमिका निभाने के बाद ट्रंप ने अमेरिकी लोगों से दूसरे कार्यकाल के शुरू होने से पहले कहा है कि 'मेरा काम दुनिया की नुमांइदगी करना नहीं है,मेरा काम संयुक्त राज्य की नुमाइंदगी करना है।
ट्रंप का पहला कार्यकाल बड़बोले, चंचल, घमंडी और महत्वकांक्षी राष्ट्रपति का रहा है। दूसरा कार्यकाल भी ऐसा ही रहेंगा। भारत को ट्रंप की तीन नीतियों से सावधान रहना होगा। डिसंएगेज(अलग होना), डिग्लोबलाइज (गैर भूमंडलीकरण) और डिसरप्ट (उथल पुथल पैदा करना)। पिछले डेढ़ दशक में जिन बुनियादों पर भारत और अमेरिका के बीच रिश्तों का निर्माण किया गया था, यानी हितों और मूल्यों का मिलन, उनकी चूले हिल सकती है। ट्रंप अपने दूसरे कार्यकाल को अवसरवाद से हांकेंगे और भारत के नेतृत्व को चतुर और चालाक बनना होगा।
भारत के लिए अच्छी बात यह है कि मोदी ने ट्रंप से पहले ओबामा के कार्यकाल, उसके बाद ट्रंप, उसके बाद बाइडेन के प्रशासन और अब फिर ट्रंप के कार्यकाल को देखने वाले है। मोदी के सभी अमेरिकी राष्ट्रपति से अच्छे संबंध रहे है। सिर्फ ट्रंप को मोदी का दोस्त बताकर खुश होना ठीक नहीं है। किसी भी देश का राष्ट्राध्यक्ष किसी दूसरे देश के राष्ट्राध्यक्ष का दोस्त नहीं होता है। वह अपने देश के हितों के लिए काम करता है। वह डोनाल्ड ट्रंप ही थे, जिन्होंने मोदी के दूसरे कार्यकाल के शुरू होते ही अमेरिका के जनरलाइज्ड सिस्टम आफ प्रीफरेस के तहत भारत को प्राप्त तरहीजी दरों को वापस लेने की घोषणा कर दी।
भारत 1976 से ही अमेरिका मे जीएसपी के तहत तरजीह पाता रहा है। जवाब में भारत ने अमेरिका से आयात होने वाले 29 सामान पर उच्च शुल्क लगा दिया। अमेरिका से आयात होने वाले बादाम पर तो भारत ने 20 फीसद टैक्स बढ़ा दिया था। अमेरिका अपने आधे से ज्यादा बादाम का निर्यात भारत में करता है। नाराज ट्रंप ने भारत के स्टील पर 25 फीसद टैक्स बढ़ा दिया। भारत ने टैरिफ मानदंडो का उल्लंघन करने के लिए अमेरिका को विश्व व्यापार संगठन के विवाद निपटान निकाय में घसीट लिया। ट्रंप ने इस बात पर नाराजगी जताई कि अमेरिका भारत से आने वाली मोटरसाइकल पर कोई टैक्स नहीं लगाता है और भारत अमेरिका से जाने वाली मोटरसाइकिल पर 100 फीसद टैक्स लगा रहा है।
ट्रंप ने धमकी दी कि टैक्स खत्म करो नहीं तो आपकी मोटरसाइकिल आयात पर भी 100 फीसद टैक्स लगेगा। भारत को हार्ले डेविडसन मोटरसाइकिल पर टैक्स हटाना पड़ा। भारत को टैरिफ किंग बता चुके ट्रंप ने सभी आयातों पर टैरिफ लगाने का वादा किया है। इनमें भारतीय आयात भी शामिल है। इनका मूल्य लगभग 75 अरब डॉलर है। हमने 2018 में ईरान से सस्ता तेल आयात करते थे, लेकिन ट्रंप ने कड़े प्रतिबंध लगा दिए। इसके बाद भारत को ईरान से तेल खरीदना बंद करना पड़ा।
चुनाव से पहले अमेरिका का सामना उन चीज से था, जिसे विशेषज्ञों ने 'कयामत के तीन घुड़सवार कहा है यानी अमेरिका में पैदा हुई 'तेज आर्थिक गिरावट', 'कठोर और अक्सर कट्टर नीतियों से पैदा हुए गहरे नस्लीय विभाजन' और तीसरा 'देश भर में सामाजिक अन्याय का बढ़ता अहसास'। अमेरिकी नागरिकों को घुसपैठ की समस्या और अर्थव्यवस्था से जुड़ी तकलीफों से बाहर निकालने की बेहतर योजना ट्रंप में दिखाई दी और देश के कुछ गहरे जख्मों को भरने के लिए उन्हें ट्रंप बेहतर विकल्प लगे।
हालांकि ट्रंप का पहला कार्यकाल इस बात के लिए जाना जाता है कि ट्रंप ने वैश्विक रिश्तों में अमेरिका की पारंपरिक भूमिका का संपूर्ण तिरस्कार किया और अमेरिका के हाथों बनाई गई वैश्विक व्यवस्थाओं की हिफाजत करने में पूरी लापरवाही बरती। ट्रंप ने यूरोप और पूर्वी एशिया में अमेरिका के घनिष्ठ सहयोगियों और दोस्तों के साथ बेअदबी के साथ लेन देन वाला व्यवहार किया और ट्रंप अपने पहले कार्यकाल में उन अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को सहारा देने में भी नाकाम रहे, जिनका निर्माण अमेरिका ने इसलिए किया था कि उसे कठोर ताकत का इस्तेमाल ज्यादा न करना पड़े और वैश्विक प्रतिष्ठा बढ़ सके।
ट्रंप जिद के चलते विश्व स्वास्थ संगठन से बाहर निकल गए। पेरिस जलवायु समझौते को मानने से इंकार कर दिया। ट्रंप सिर्फ राष्ट्रपति का चुनाव ही नहीं जीते है बल्कि सीनेट और हाउस आफ रिप्रजटेटिव में भी उनको बहुमत मिल गया है। ट्रंप अपने दूसरे कार्यकाल में बेहद ताकतवर होकर आए है। आप अपनी सीटबेल्ट बांध ले और दिल थामकर बैठे, क्योकि दुनिया अब उतार चढ़ाव और बड़े फैसलों के लिए अमेरिका से ज्यादा ट्रंप को याद करने जा रही है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
विदेश मंत्रालय ने कनाडा की सरकार से हिन्दुओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने और हमला करने वाले खालिस्तानी आतंकवादियों के खिलाफ एक्शन की मांग की।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
कनाडा से परेशान करने वाली खबर आई, खालिस्तान समर्थकों ने मंदिर में घुसकर हिन्दुओं पर हमला किया, हिन्दुओं को बुरी तरह पीटा गया और स्थानीय पुलिस तमाशा देखती रही। हैरानी की बात ये है कि मंदिर में जबरन घुसने वाले खालिस्तान समर्थक थे, लाठी डंडों से बेकसूर हिन्दुओं पर हमला करने वाले खालिस्तानी थे, जो घायल हुए वो हिन्दू हैं लेकिन कनाडा की पुलिस ने उल्टा काम किया।
एक्शन हिंदुओं के खिलाफ लिया, पकड़ा हिन्दुओं को गया। खालिस्तानियों को पुलिस ने छोड़ दिया। इससे कनाडा में बसे साढ़े आठ लाख हिन्दू गुस्से में हैं, जस्टिन ट्रूडो के खिलाफ प्रोटेस्ट करने के लिए सड़कों पर उतर आए हैं। कनाडा में भी 'बंटोगे , तो कटोगे' के नारे लगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंदिर पर हुए हमले की निंदा की और कहा, कि हमारे राजनयिकों को डराने की कोशिश की गई, लेकिन इससे भारत का संकल्प कमज़ोर नहीं होगा, कनाडा सरकार सुनिशिचत करे कि कानून का राज कायम रहे और सब को न्याय मिले।
विदेश मंत्रालय ने कनाडा की सरकार से हिन्दुओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने और हमला करने वाले खालिस्तानी आतंकवादियों के खिलाफ एक्शन की मांग की। कनाडा के कई सांसदों ने माना कि हिन्दुओं पर हो रहे हमले, मंदिरों में घुसकर मारपीट, जस्टिन ट्रूडो की वोट बैंक वाली सियासत का नतीजा है। उन्होंने कहा कि कनाडा में बोलने की आजादी के नाम पर खालिस्तान समर्थकों को हिंसा की इजाजत देना ठीक नहीं है, लेकिन चिंता की बात ये है कि मंदिर पर हुए हमले में खालिस्तानियों की भीड़ में सिविल ड्रेस में कनाडा पुलिस के कुछ अफसर भी शामिल थे।
पुलिस खालिस्तानियों को रोकने के बजाय, विरोध कर रहे हिन्दुओं को डराने धमकाने की कोशिश करती नजर आई। सारे वीडियों में इसका सबूत है। कनाडा की सरकार इसे स्थानीय लोगों के बीच झड़प बता रही है। हकीकत ये है कि इस हमले की आशंका पहले से जताई गई थी लेकिन कनाडा की पुलिस, और सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया..
कनाडा के टोरंटो में स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास ने हिंदू सभा की मदद से ब्रैम्पटन के मंदिर में कॉन्सुलर कैंप लगाया था। इस कैंप में भारतीय राजनयिक भारतीय मूल के पेंशनरों को लाइफ सर्टिफिकेट देने के लिए पहुंचे थे। कैंप लगभग एक हज़ार लोगों की मदद के लिए लगाया गया था। लाइफ सर्टिफिकेट की जरूरत उन बुजुर्गों को होती है, जो पेंशनर्स हैं और रिटायर होने के बाद कनाडा में अपने बच्चों के पास रह रहे हैं।
इन बुजुर्गों को पेंशन जारी रखने के लिए हर साल अपना लाइफ सर्टिफिकेट जमा कराना होता है। कैंप लगने की ख़बर मिलते ही खालिस्तान समर्थकों ने मंदिर के बाहर प्रोटेस्ट का एलान कर दिया।ब्रैम्पटन की पुलिस ने खालिस्तानियों को मंदिर के ठीक सामने प्रोटेस्ट करने की इजाज़त भी दे दी. शुरू में सिर्फ नारेबाजी हो रही थी लेकिन जैसे ही कुछ लोग कॉन्सुलर कैंप में लाइफ सर्टिफिकेट बनवाने के लिए पहुंचे तो लाठी डंडों से लैस खालिस्तानियों ने उन पर हमला बोल दिया।
मंदिर के गेट पर ही उन्होंने हिन्दुओं की पिटाई शुरू कर दी। जब हिंदुओं ने इसका विरोध किया तो खालिस्तानियों की हिंसक भीड़ मार-पीट करते हुए मंदिर में दाख़िल हो गई। मंदिर के भीतर देर तक हंगामा चलता रहा। हिंदुओं ने खालिस्तानी हमलावरों से झंडे छीनने शुरू कर दिए। कुछ लोग भारत का तिरंगा लेकर आ गए। उन्होंने खालिस्तानी हमलावरों को चुनौती दी। खालिस्तानियों की भीड़ हिंदुओं को मंदिर परिसर में घुसकर पीटती रही और पुलिस, केवल हिंदुओं को रोकती रही। वीडियो में जिस शख्स को हाथ में झंड़ा लेकर नारे लगाते हुए देखा गया, वह ब्रैम्पटन इलाक़े की पुलिस फोर्स में सार्जेंट है।
उसका नाम हरिंदर सोही है। हरिंदर सोही सिविल ड्रेस में मंदिर पर हमला करने वाले खालिस्तानियों के साथ था। वो खालिस्तान का झंडा लेकर भारत सरकार के खिलाफ नारे लगा रहा था। असल में इस तरह की हमले की आशंका हिन्दू संगठनों को पहले से थी क्योंकि दिवाली से पहले खालिस्तानी उग्रवादी गुरपतवंत सिंह पन्नू ने धमकी दी थी कि वो पंजाब में किसी हिंदू को आतिशबाज़ी नहीं करने देगा, पटाखे नहीं चलाने देगा।कनाडा में हिंदुओं पर हमला चिंता की बात है। इसलिए नहीं कि कुछ सिरफिरे खालिस्तानी मंदिर में घुस गए, इसलिए नहीं कि भारत के दुश्मनों ने वहां के हिंदुओं के साथ मारपीट की। चिंता की बात इसलिए है कि ऐसे आतंकवादियों को कनाडा की पुलिस ने संरक्षण दिया।
चिंता की बात इसलिए है कि कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो मजबूर हैं और इस घटना पर लीपा-पोती करने में लगे हैं। कनाडा जैसे देश से ऐसे दोहरे मानदंडों की उम्मीद दुनिया के कम मुल्कों को होगी। पर भारत को अब इस पर हैरानी नहीं होती। पिछले 4 साल से कनाडा खालिस्तान समर्थकों का अड्डा बन गया है। कनाडा इन आतंकवादियों को पनाह देता है।
जिन लोगों ने रिकॉर्ड पर कहा है कि भारत में उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमे हैं। उन पर भारत में आतंक फैलाने का आरोप है। जिन्होंने माना है कि उनके पास से हथियार बरामद हुए। उन्हें भी कनाडा की सरकार ने अपने यहां शरण दी है, जो लोग डिजिटल मीडिया पर खालिस्तान का समर्थन करते हैं, भारत विरोधी बयान देते हैं। कनाडा की सरकार ने उन्हें अपने यहां मेहमान बनाकर रखा हुआ है।
पिछले साल भारत ने सात गैंगस्टर्स की लिस्ट कनाडा को दी थी लेकिन जस्टिन ट्रूडो ने कुछ नहीं किया। अब कनाडा में हिंदुओं पर हुए हमले ने इस पूरी साजिश को एक्सपोज कर दिया है। अब सारी दुनिया को पता है कि दंगाइयों, गैंगस्टर्स को पनाह देने का क्या अंजाम हुआ, उनकी हिम्मत बढ़ती जा रही है इसीलिए कनाडा में रहने वाले हिंदू गुस्से में हैं। वो मानते हैं कि आज के वक्त खालिस्तान सपोटर्स की मदद करना ट्रूडो की मजबूरी है।
उनकी सरकार उन 25 सांसदों के समर्थन पर टिकी है जो खालिस्तान समर्थक हैं। लेकिन अब ये ज्यादा दिन नहीं चलेगा। कनाडा में न सिर्फ हिंदू गुस्से में है, बल्कि बड़ी संख्या में मॉडरेट सिख समाज के लोग भी हिंदुओं पर हुए हमले से नाराज हैं। वे नहीं चाहते कि कनाडा की छवि को नुकसान पहुंचे. इसमें उनकी भी बदनामी है। इसलिए वह दिन दूर नहीं जब जस्टिन ट्रूडो को इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
इकनॉमी में मंदी का डर काफ़ी महीनों से मंडरा रहा है। रिज़र्व बैंक ने महंगाई क़ाबू में करने के लिए ब्याज दर बढ़ाकर रखी है। इसका असर सामान और सर्विसेज़ की खपत पर पड़ने लगा है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
शेयर बाज़ार विक्रम संवत् से चलता है। दीपावली के तुरंत बाद इस कैलेंडर का नया साल शुरू होता है। गुजरात में यही कैलंडर प्रचलन में है। यह अंग्रेज़ी कैलेंडर से 57 साल आगे है। अभी संवत् 2081 शुरू हुआ है। पिछले संवत् में बाज़ार में निफ़्टी ने 24% रिटर्न दिया है। इस बार सिंगल डिजिट रिटर्न की उम्मीद है क्योंकि इकनॉमी के मोर्चे पर खबरें अब तक अच्छी नहीं रही है।
त्योहार होने के कारण कुछ अच्छी ख़बर ज़रूर आयी है जैसे अक्टूबर में गाड़ियों की बिक्री बढ़ गई है। गुड्स एंड सर्विस टैक्स के कलेक्शन में भी बढ़ोतरी हुई है। UPI लेनदेन में रिकॉर्ड उछाल आया है। बाज़ार उम्मीद कर रहा है कि यह रफ़्तार आगे भी बनी रहेगी।
इकनॉमी में मंदी का डर काफ़ी महीनों से मंडरा रहा है। रिज़र्व बैंक ने महंगाई क़ाबू में करने के लिए ब्याज दर बढ़ाकर रखी है। इसका असर सामान और सर्विसेज़ की खपत पर पड़ने लगा है। FMCG फ़ास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स की खपत कमजोर है। यह इकनॉमिक गतिविधियों का पैमाना माना जाता है क्योंकि साबुन, टूथपेस्ट, शैंपू जैसी चीजें लोग ख़रीदते ही है आमदनी कम हो या ज़्यादा। यह खपत इस बार शहरी क्षेत्रों में कम हो रही है।
Nestle के CEO ने तो यहाँ तक कह दिया कि मिडिल क्लास सिकुड़ रहा है। महंगाई का असर खपत पर पड़ रहा है। Nestle और हिंदुस्तान Unilever जैसी कंपनियों के सामान की बिक्री सितंबर की तिमाही में पिछले साल के मुक़ाबले 1 2% तक बढ़ी है यानी जस की तस है लगभग।
यही हाल गाड़ियों की बिक्री का रहा है। सितंबर में ख़त्म छह महीने में गाड़ियों की बिक्री पिछले साल के मुक़ाबले मामूली रूप से बढ़ी है। सिर्फ़ .5% बढ़ोतरी हुई है। सामान की खपत कमजोर होने का असर कंपनियों की आय पर पड़ा है। शेयर बाज़ार में लिस्ट 197 कंपनियों के रिज़ल्ट्स में प्रोफ़िट बढ़ने की दर पहले कम हुई है। इस पर विदेशी निवेशकों ने भारत को छोड़कर चीन का रास्ता पकड़ लिया है। चीन के शेयर भारत के मुक़ाबले सस्ते दामों पर मिल रहे हैं। इस कारण शेयर बाज़ार पर भी ब्रेक लग गया है।
अगला संवत् कैसा रहेगा? यह इस बात पर बहुत निर्भर है कि रिज़र्व बैंक ब्याज दरों में कटौती कब करता है? अभी नज़र दिसंबर पर टिकी हुई है लेकिन महंगाई कम नहीं होती है तो देरी हो सकती है। इस देरी का असर इकनॉमी पर पड़ेगा। ना नई नौकरी आएंगी ना ही आमदनी बढ़ेगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
अमेरिका के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बंगलादेश में हिंदुओं पर होने वाले अत्याचार पर खुलकर बोल रहे हैं वहीं हमारे देश में कई दलों के नेता इस मुद्दे पर खामोशी ओढे हुए हैं।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।
महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा के लिए चुनाव में प्रचार चरम पर है। इन दोनों राज्यों में चुनाव प्रचार के बीच उत्तर प्रदेश की नौ विधानसभा सीटों पर होनेवाले उपचुनाव को लेकर भी राजनीतिक सरगर्मी तेज है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बंटेंगे तो कटेंगे वाले बयान की काट ढूंढने में विपक्ष परेशान प्रतीत हो रहा है। कभी जीतेंगे तो पिटेंगे जैसा बयान आते हैं तो कभी जुड़ेंगे तो जीतेंगे जैसे नारे होर्डिंग पर लगते हैं।
पूरे चुनाव प्रचार में हिंदू और सनातन की ही चर्चा हो रही है। योगी आदित्यनाथ ने तो रामभक्त ही राष्ट्रभक्त का नारा भी दे दिया है। इसपर पलटवार करते हुए अखिलेश यादव ने कहा कि उनका नारा निराशा और नाकामी का प्रतीक है। अखिलेश यादव ने आदर्श राज्य की कल्पना की बात की। यहां वो राम राज्य कहने से बच गए, लेकिन पूरे पोस्ट से भाव यही निकल रहा है।
उनके दल के प्रवक्ता भी श्रीरामचरितमानस की चौपाइयां सुना रहे हैं। हिंदू विमर्श और पौराणिक चरित्र विधानसभा चुनाव प्रचार का केंद्रीय विमर्श है। कुछ लोगों को हिंदू और श्रीराम नाम लेने में कष्ट होता है। वो इशारों में अपनी बात कहते हैं। हिंदुओं की एकजुटता और हिंदू वोटरों को अपने पाले में करने के लिए सभी राजनीतिक दल बेचैन हैं। कोई जाति कार्ड खेल रहा है तो कोई जाति जनगणना की बात को हवा दे रहा है।
हिंदुओं की चिंता सिर्फ विधानसभा चुनावों में नहीं हो रही है बल्कि वैश्विक स्तर पर भी इसको लेकर चर्चा हो रही है। अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव प्रचार में भी हिंदुओं को लेकर दोनों दल सतर्क हैं। रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप ने तो हिंदुओं पर बंगलादेश में हो रहे अत्याचार पर एक लंबी पोस्ट ही लिख डाली। ट्रंप ने लिखा कि वो बंगलादेश में हिंदुओं, ईसाइयों और अन्य अल्पसंख्यों पर होने वाले बर्बर हिंसा की निंदा करते हैं। उन्होंने अपने प्रतिद्वंदी कमला हैरिस और अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन पर आरोप लगाया कि दोनों ने मिलकर अमेरिका और पूरे विश्व में हिंदुओं की अनदेखी की।
ट्रंप ने स्पष्ट रूप से ये घोषणा की है कि धर्म के विरुद्ध रैडिकल लेफ्ट के एजेंडा से अमेरिकन हिंदुओं के अधिकारों की रक्षा के लिए वो प्रतिबद्ध हैं। हिंदुओं की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करेंगे। भारत और अपने मित्र प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ बेहतर समन्वय बनाकर चलेंगे। इसके बाद उन्होंने हिंदुओं को दीवाली की शुभकामनाएं दी और कहा कि ये ये पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है।
उधर डेमोक्रैट पार्टी की उम्मीदवार और अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने भी दीवाली मनाई। दीवाली मनाते हुए उनका वीडियो उनकी टीम ने इंटरनेट मीडिया पर साझा किया। जो बाइडेन ने भी व्हाइट हाउस में अपने परिवार के साथ दीवाली मनाई। जिस तरह से अमेरिका के चुनाव में हिंदुओं की बात हो रही है उतना खुलकर तो यहां भी हिंदुओं और हिंदू धर्म की चर्चा नहीं होती है। पिछले दिनों जब ब्रिटेन में चुनाव हुआ था तो वहां भी प्रधानमंत्री पद के दोनों उम्मीदवारों ने मंदिरों में जाकर पूजा आदि की थी। ऋषि सुनक ने तो खुलकर हिंदू देवी देवताओं के बारे में श्रद्धापूर्वक बात की थी।
एक तरफ अमेरिका के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बंगलादेश में हिंदुओं पर होनेवाले अत्याचार पर खुलकर बोल और लिख रहे हैं वहीं दूसरी तरफ हमारे देश में कई दलों के नेता इस मुद्दे पर खामोशी ओढे हुए हैं। जब भी बंगलादेश में हिंदुओं पर होनेवाले अत्याचार की चर्चा होती है और इन दलों के नेताओं या प्रवक्ताओं से इस बाबत प्रश्न पूछा जाता है तो वो अपने उत्तर के साथ साथ फिलस्तीन का मुद्दा भी उठा देते हैं।
वो ये भूल जाते हैं कि फिलिस्तीनी आतंकवादियों ने इजरायल में घुसकर ना केवल नरसंहार किया बल्कि सैकड़ों बच्चों और महिलाओं को बंधक भी बना लिया था।
इस क्रिया की प्रतिक्रिया में फिलस्तीन पर इजरायल हमले कर रहा है। इससे उलट बंगलादेश में तो हिंदुओं ने किसी प्रकार की कोई हिंसा नहीं की। उनपर तो वहां के बहुसंख्यकों ने अकारण हमले किए। हिंदुओं की हत्या की गई। मंदिरों को तोड़ा गया। जब भारत के सभी राजनीतिक दलों को इस हमले के खिलाफ एक स्वर में बोलना चाहिए था उस वक्त ये किंतु परंतु में अटके रहे। अब भी हैं।
इसका कारण क्या हो सकता है। एक वजह है वोटबैंक की राजनीति। जो दल अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों की राजनीति करते हैं उनको लगता है कि बंगलादेश में हिदुओं पर हो रहे हमलों का विरोध करने से उनका वोटबैंक दरक सकता है। इस कारण वो हिंदुओं पर होनेवाले हमले को लेकर तटस्थ हो जाते हैं। धर्म और राजनीति के घालमेल की आड़ लेते हैं। तर्क होता है कि धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहिए।
इस तर्क को इकोचैंबर में बैठे तथाकथित बुद्धिजीवी हवा देते हैं। ऐसा माहौल बनाते हैं कि राजनीति से धर्म को अलग रखना चाहिए। दरअसल इकोचैंबर वाले बुद्धिजीवी ये नहीं समझ पाते कि मार्क्स ने जिस धर्म की बात की थी और जो भारत का धर्म है वो दोनों बिल्कुल अलग हैं।
आज पूरी दुनिया हिंदुओं की ओर देख रही है। वो सनातन धर्म को समझना चाहती है। हिंदुओं की उस जीवन शैली को समझना चाहती है जिसकी इकाई परिवार है। एकल परिवार से ऊब चुकी दुनिया भारतीय परिवारों और उनके बीच के लगाव को समझना चाहती है। संस्कारों के बारे में जानने को उत्सुक है। हिंदू धर्म और अध्यात्म को लेकर वैश्विक स्तर पर एक रुझान देखा जा रहा है।
ऐसे में अपने देश में हिंदुओं और उनके ग्रंथों को लेकर और सनातन पर अपमानजनक टिप्पणियां करनेवालों को पुनर्विचार करना चाहिए। जब पूरी दुनिया हिंदुओं की ओर देख रही है ऐसे में अपने ही देश में हिंदुओं को लेकर घृणा भाव बहुत दिनों तक चलनेवाला नहीं है।
हिंदू धर्म में जो भी कुरीतियां हों उसको दूर करने का सामूहिक प्रयास किया जाना चाहिए। ऐसा पहले होता भी रहा है। हिंदू समाज के अंदर से ही कोई ना कोई सुधारक आता है जो कुरीतियों पर प्रहार करता है और वृहत्तर हिंदू समाज उसको स्वीकार करता है। कुरीतियों और रूढ़ियों के आधार पर हिंदू समाज को बांटने का जो षडयंत्र चल रहा है उसका निषेध हिंदू समाज ही करेगा।
अगर कोई सोचता है कि हिंदू समाज को अपमानित करके अपने वोटबैंक को मजबूत कर लेगा तो वो गलतफहमी में है। हिंदू एकता पर पहले भी बातें होती रही हैं, साहित्य में भी इसके उदाहरण मिलते हैं और इतिहास में भी। रामचंद्र शुक्ल से लेकर शिवपूजन सहाय और रामवृक्ष बेनीपुरी के लेखन में हिंदुओं को संगठित होने की अपेक्षा की गई है। यह अकारण नहीं है कि आज प्रबुद्ध हिंदू समाज भी इस ओर सोचने लगा है।
सहिष्णुता हिंदुओं का एक दुर्लभ गुण है लेकिन सहिष्णुता को अगर निरंतर छेड़ा या कोंचा जाएगा तो एक दिन उसकी प्रतिक्रिया तो होगी ही। स्वाधीनता के बाद से ही विचारधारा विशेष के लोगों ने हिंदुओं को अपमानित करने का योजनाबद्ध तरीके से लेकिन परोक्ष रूप से उपक्रम चलाया। ऐसा करनेवाले अब परिधि पर हैं और हिंदू केंद्र में।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
नक्सलियों का खतरा सिर्फ राज्यों के दूरदराज इलाकों तक सीमित नहीं है। नक्सली संगठनों की मौजूदगी शहरी इलाकों में भी हो गई है। नक्सली या तो मुठभेड़ में मारे गए या गिरफ्तार हुए।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
जम्मू कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों में विदेशी आतंकियों की घुसपैठ नियंत्रित करने के बाद अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार शहरों के नकाबपोश आतंकी और उनको पनाह देने वाले प्रभावशाली लोगों पर क़ानूनी शिकंजे से कठोर कार्रवाई की तैयारी कर रही है। बिहार , उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र जैसे राज्यों में माओवादी नक्सली आतंकी गतिविधियां पिछले वर्षों के दौरान न्यूनतम हो गई हैं।
वहीं केंद्रीय सुरक्षा बल और राज्यों की पुलिस के बेहतर तालमेल से झारखण्ड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना में बड़े पैमाने पर नक्सली या तो मुठभेड़ में मारे गए या गिरफ्तार हुए अथवा उन्होंने आत्म समर्पण किया। फिर भी कुछ दुर्गम क्षेत्रों में सक्रिय आतंकी माओवादी नक्सली को दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और विदेशों से हथियार, धन और साइबर आपराधिक तरीकों से सहायता मिलने पर अंकुश के लिए सरकार को अधिक सतर्कता से कार्रवाई की आवश्यकता है।
चुनाव की घोषणा से दो महीने पहले महाराष्ट्र सरकार ने 'अर्बन नक्सल' के खिलाफ कार्रवाई के लिए महाराष्ट्र विशेष सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक (MSPSA), 2024 पेश किया। लेकिन सत्र समाप्त होने से यह विधेयक पारित नहीं हो सका। सरकार चाहती तो अध्यादेश लाकर इसे कानून का रुप दे सकती थी लेकिन अकारण आलोचना और अदालती हस्तक्षेप की संभावना के कारण ऐसा नहीं किया गया।
मजेदार बात यह है कि ऐसा कानून छत्तीसगढ़, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और ओड़िसा में लागू है लेकिन महाराष्ट में कानून का प्रस्ताव आते ही एक वर्ग और कांग्रेस पार्टी सहित कुछ पार्टियों ने इसका विरोध शुरु कर दिया। क्या इसे ' चोर की दाढ़ी में तिनके ' की कहावत की तरह यह माना जा सकता है कि प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तरीकों से हिंसक नक्सली गतिविधियों से सरकार का विरोध और विकास कार्यों को रोकने वाले तत्वों को यह लॉबी समर्थन सहायता कर रही है ?
यह कानून लागू होने पर पुलिस को ऐसे लोगों के खिलाफ एक्शन लेने की शक्ति मिल जाएगी, जो नक्सलियों को लॉजिस्टिक के साथ शहरों में सुरक्षित ठिकाने मुहैया कराते हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि नक्सली संगठनों की गैरकानूनी गतिविधियों को प्रभावी कानूनी तरीकों से नियंत्रित करने की आवश्यकता है। अभी मौजूद कानून नक्सलवाद, इसके फ्रंटल संगठनों और व्यक्तिगत समर्थकों से निपटने के लिए अप्रभावी और अपर्याप्त हैं। नक्सलियों का खतरा सिर्फ राज्यों के दूरदराज इलाकों तक सीमित नहीं है।
नक्सली संगठनों की मौजूदगी शहरी इलाकों में भी हो गई है। 1999 में संगठित अपराध पर काबू करने के लिए महाराष्ट्र में मकोका लागू किया गया था। इस कानून की काफी आलोचना हुई थी, मगर सरकार और पुलिस को क्राइम कंट्रोल में फायदा मिला। अब शहरों में बैठकर नक्सली गतिविधि चलाने वालों के खिलाफ महाराष्ट्र सरकार नया कानून लागू करना चाहती है। शहरों में सक्रिय नक्सली संगठन अपनी विचारधारा का प्रचार कर अशांति पैदा कर रहे हैं। इन संगठनों का मकसद संवैधानिक जनादेश के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह को भड़काना है।
यह सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने के लिए अभियान चलाते हैं। महाराष्ट्र विशेष सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक (MSPSA) में 18 धाराएं हैं, जो सुरक्षा एजेंसियों को 'अर्बन नक्सल' के खिलाफ कार्रवाई की शक्ति देगी। इसका दुरुपयोग रोकने के लिए भी पर्याप्त प्रावधान हैं। लेकिन लगता है कि विधान सभा चुनाव के दौरान न केवल कुछ राजनैतिक पार्टियां बल्कि नक्सल तत्वों का समर्थन करने वाले देशी विदेशी संगठन भाजपा गठबंधन की विजय रोकने के लिए हर संभव प्रयास कर सकते हैं।
शायद इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरदार पटेल जयंती और राष्ट्रीय एकता दिवस पर अर्बन नक्सली के खतरों को विस्तार से बताया है। प्रधानमंत्री ने कहा है कि जैसे-जैसे जंगलों में नक्सलवाद खत्म हो रहा है, अर्बन नक्सलियों का एक नया मॉडल अपना सिर उठा रहा है। उन्होंने कहा, 'हमें ऐसे लोगों की पहचान करनी होगी जो देश को तोड़ने का सपना देख रहे हैं। हमें इन ताकतों से लड़ना होगा। आज अर्बन नक्सली उन लोगों को भी निशाना बनाते हैं जो कहते हैं कि अगर आप एकजुट रहेंगे तो आप सुरक्षित रहेंगे।हमें शहरी नक्सलियों की पहचान करके उनका पर्दाफाश करना होगा।
उन्होंने कहा कि पिछले 10 वर्षों में सरकार के प्रयासों के कारण, नक्सलवाद भारत में अंतिम सांसें गिन रहा है। जब 21वीं सदी का इतिहास लिखा जाएगा…तो उसमें एक स्वर्णिम अध्याय होगा कि कैसे भारत ने दूसरे और तीसरे दशक में नक्सलवाद जैसी भयानक बीमारी को जड़ से उखाड़कर दिखाया, उखाड़कर के फेंका। जनजातीय समाज में सोची-समझी साजिश के तहत नक्सलवाद के बीज बोये गए। नक्सलवाद की आग भड़काई गई।
ये नक्सलवाद, भारत की एकता और अखंडता के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन गया था। प्रधानमंत्री का यह तर्क बहुत महत्वपूर्ण है कि भारत के बढ़ते सामर्थ्य से भारत में बढ़ते एकता के भाव से कुछ ताकतें, कुछ विकृत विचार, कुछ विकृत मानसिकताएं, कुछ ऐसी ताकतें बहुत परेशान है। भारत के भीतर और भारत के बाहर भी ऐसे लोग भारत में अस्थिरता, भारत में अराजकता फैलाने की कोशिश कर रहे हैं।
वो भारत के आर्थिक हितों को चोट पहुंचाने में जुटी है। वो ताकतें चाहती हैं कि दुनियाभर के निवेशकों में गलत संदेश जाए, भारत की नेगेटिव छवि उभरे…ये लोग भारत की सेनाओं तक को टारगेट करने में लगे हैं, मिस इनफॉरमेशन कैंपेन चलाए जा रहे हैं। सेनाओं में अलगाव पैदा करना चाहते हैं…ये लोग भारत में जात-पात के नाम पर विभाजन करने में जुटे हैं। इनके हर प्रयास का एक ही मकसद है- भारत का समाज कमज़ोर हो…भारत की एकता कमजोर हो। ये लोग कभी नहीं चाहते की भारत विकसित हो…क्योंकि कमजोर भारत की राजनीति…गरीब भारत की राजनीति ऐसे लोगों को सूट करती है।
5-5 दशक तक इसी गंदी, घिनौनी राजनीति, देश को दुर्बल करते हुए चलाई गई। इसलिए…ये लोग संविधान और लोकतंत्र का नाम लेते हुए भारत के जन-जन के बीच में भारत को तोड़ने का काम कर रहे हैं। अर्बन नक्सलियों के इस गठजोड़ को, इनके गठजोड़ को हमें पहचानना ही होगा, और मेरे देशवासियों जंगलों में पनपा नक्सलवाद, बम-बंदूक से आदिवासी नौजवानों को गुमराह करने वाला नक्सलवाद जैसे-जैसे समाप्त होता गया…अर्बन नक्सल का नया मॉडल उभरता गया।
हमें देश को तोड़ने के सपने देखने वाले, देश को बर्बाद करने के विचार को लेकर के चलने वाले, मुंह पर झूठे नकाब पहने हुए लोगों को पहचानना होगा, उनसे मुकाबला करना ही होगा। 'अर्बन नक्सल' शब्द, जो 2018 से प्रचलन में आया है, का पहली बार इस्तेमाल महाराष्ट्र में एल्गार परिषद मामले में उलझे वामपंथियों और अन्य उदारवादियों पर कार्रवाई के मद्देनजर सत्ता-विरोधी प्रदर्शनकारियों और अन्य असंतुष्टों का वर्णन करने के लिए किया गया था।
यह 1 जनवरी, 2018 को भीमा कोरेगांव हिंसा से संबंधित दो चल रही जांचों में से एक है। यह पुणे में दर्ज एक प्राथमिकी पर आधारित है, जिसमें आरोप लगाया गया है कि प्रतिबंधित नक्सली समूहों ने भीमा कोरेगांव की लड़ाई की 200वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर 31 दिसंबर, 2017 की शाम को एल्गार परिषद का आयोजन किया था। पुलिस का दावा है कि एल्गार परिषद में दिए गए भाषण अगले दिन हिंसा भड़काने के लिए कम से कम आंशिक रूप से जिम्मेदार थे। इसके अलावा, पुणे पुलिस का दावा है कि जांच के दौरान उसे ऐसी सामग्री मिली थी, जिससे प्रतिबंधित नक्सली समूहों के एक बड़े भूमिगत नेटवर्क के संचालन के बारे में सुराग मिले थे।
बाद में, अदालतों में, पुणे पुलिस ने दावा किया कि गिरफ्तार कार्यकर्ताओं के प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) से सक्रिय संबंध थे, जो कथित तौर पर देश को अस्थिर करने और राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाफ काम करने में लगा हुआ था। इसने यहां तक दावा किया था कि गिरफ्तार किए गए लोग प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साजिश से जुड़े थे।
दशकों से, साजिश के आरोप का इस्तेमाल कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा संदिग्धों की लंबी कानूनी हिरासत के लिए किया जा रहा है - इस मामले में हाई-प्रोफाइल कार्यकर्ता और वकील जिन्हें सबसे पहले 'शहरी नक्सली' कहा गया था - जबकि जांचकर्ता आरोपों के समर्थन में महत्वपूर्ण सबूतों को एक साथ जोड़कर अपना मामला आगे बढ़ाते हैं।
देश के दुश्मन सिर्फ आतंकी, जिहादी और बंदूकधारी नक्सली ही नहीं हैं बल्कि इसे अंदर से खोखला करने का सपना देखने वाले अर्बन नक्सल सबसे बड़ा खतरा हैं। सरकार, पुलिस और सेना आतंकियों, नक्सलियों से तो निपट लेती है, लेकिन 'बुद्धिजीवी' की खाल में छिपे अर्बन नक्सल देश विरोधियों की नई फौज तैयार कर लेते हैं। इसलिए देश में शांति और प्रगति की नींव मजबूत करनी है तो अर्बन नक्सलों की जमात का समूल नष्ट करना होगा।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इसी मकसद से कानून लागू करने वाली एजेंसियों से कहा है कि वो 'शहरी नक्सलियों' के नाभि नाल पर चोट करें जो उनको देश के दुश्मनों से होने वाली फंडिंग है। शाह ने कानून प्रवर्तन एजेंसियों को निर्देश दिया कि वो वामपंथी उग्रवाद के समर्थकों 'अर्बन नक्सल' की पहचान करके उनकी फंडिंग की गहन छानबीन करें। वामपंथी उग्रवाद के इकोसिस्टम पर अंतिम प्रहार करने और माओवादी फंडिंग को रोकने की रणनीति के तौर पर शाह ने यह कड़ा संदेश दिया है।
सरकार का संकल्प है कि मार्च 2026 तक देश को वाम उग्रवाद से मुक्त करा दिया जाए। असल में सरकार के साथ अन्य सामाजिक संगठनों और कानूनविदों , अदालतों तथा शैक्षणिक और मीडिया संस्थानों को इस अभियान में सहयोग देना होगा। आतंकी और दूर दराज इलाकों से महानगरों तक सक्रिय खतरनाक लोगों अपराधियों के सबूत आसानी से नहीं मिलते हैं। फिर कथित मानव अधिकार संगठन और मीडिया का एक वर्ग क़ानूनी शरण लेकर बचाव का प्रयास करता है। अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क को भी नियंत्रित करने के लिए जांच एजेंसियों और कूटनीतिक प्रयासों की आवश्यकता होगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
अयोध्या का ये दीपोत्सव इसलिए भी विशेष है क्योंकि 500 साल बाद ये पहली दिवाली है, जब अयोध्या में फिर से भगवान राम का विशाल मंदिर बन चुका है।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
अयोध्या नगरी 25 लाख से ज़्यादा दीपों के बीच जगमगायी। दीपोत्सव का दिव्य नज़ारा देखने को मिला। अय़ोध्या के 55 घाटों पर एक साथ 25 लाख 12 हजार 585 दीए जलाकर गिनीज़ बुक का विश्व रिकॉर्ड बनाया गया। सरयू के तट पर 1,121 वेदाचार्यों ने एक साथ सरयू की आरती की। ऐसा अयोध्या में पहली बार हुआ है।
अयोध्या में सनातन धर्म की विरासत औऱ त्रेतायुग की दिवाली की झलक दिखाई दी। दीपोत्सव से पहले 1,121 संतों-महंतो ने सरयू घाट पर भव्य आरती की। योगी ने दीपोत्सव पर राजनीति करने वालों को करारा जवाब दिया। सनातन धर्म का विरोध करने वालों को कड़ी चेतावनी दी। राम मंदिर के निर्माण पर योगी आदित्यनाथ ने डंके की चोट पर कहा कि हमने जो कहा वह करके दिखाया।
अयोध्या में रिकॉर्ड दीये जलाने के उत्सव में कई संदेश छिपे हैं। एक तो ये कि रामलला के मंदिर में विराजमान होने के बाद ये दीपोत्सव का पहला उत्सव है, जो याद दिलाता है कि नरेंद्र मोदी ने राम मंदिर के निर्माण का वादा पूरा किया। इसलिए योगी ने याद दिलाया, जो कहा वह करके दिखाया है। दूसरा, दीपोत्सव के बहाने योगी ने हिंदू समाज को एक होने का आह्वान किया। सनातन पर हमला करने वालों को चेतावनी दी।
तीसरी बात, राम मंदिर को लेकर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने अपनी गलती दोहराई। उन्होंने एक बार फिर अयोध्या में दीपोत्सव का विरोध किया। एक ने भेदभाव का नाम लिया तो दूसरे ने दीयों के तेल से फैलने वाली गंदगी को बहाना बनाया।
अयोध्या में दिवाली के अवसर पर दीपोत्सव के प्रति लोगों के उत्साह को देखते हुए समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का स्टैंड बचकाना लगता है। ये वही काम है जो उन्होंने प्राण प्रतिष्ठा के समय किया था । अयोध्या में राम का मंदिर बना है, रामलला विराजमान हुए हैं, इसके बाद पहली दीपावली है। सबको इसे मिलकर मनाना चाहिए। इसपर विवाद खड़ा करने का क्या फायदा? लेकिन विवाद सिर्फ अयोध्या के दीपोत्सव को लेकर नहीं हुआ, पटाखों और आतिशबाजी पर भी सवाल उठाए गए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
सरदार वल्लभभाई पटेल का जीवन ऐसी विजयों से भरा था कि दशकों बाद भी वह हमें आश्चर्यचकित करता है। उनकी जीवन कहानी दुनिया के अब तक के सबसे महान नेताओं में से एक का प्रेरक अध्ययन है।
डॉ. भुवन लाल, प्रसिद्ध भारतीय लेखक।।
यह नई दिल्ली में मानसून का मध्यकाल था। 2 सितंबर 1946 को सुबह साढ़े दस बजे, वल्लभभाई पटेल, महात्मा गांधी के पैर छूने के लिए और उनका आशीर्वाद लेने के लिए झुके। आशीर्वाद और मालाएं प्राप्त करने के बाद, पटेल और उनके सहयोगी राजेंद्र प्रसाद, जगजीवन राम और शरत चंद्र बोस वाइसरीगल हाउस की ओर चले गए। यहां उन्होंने गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद, जिसे अंतरिम सरकार भी कहा जाता है, में पद की शपथ ली। कुछ ही मिनटों बाद नए शपथ ग्रहण करने वाले सदस्यों को वायसराय हाउस के बाहर भारतीयों के दो समूहों का सामना करना पड़ा। उत्साही कांग्रेस पार्टी के सदस्य बेतहाशा जयकार कर रहे थे और मुस्लिम लीग के सदस्य काले झंडे के साथ विरोध कर रहे थे। पत्रकारों ने नोट किया कि हंगामे के बावजूद आज़ाद हिंद फ़ौज की वर्दी पहने एक पांच वर्षीय लड़के ने भीड़ में सबसे अधिक ध्यान आकर्षित किया।
उस वर्ष की शुरुआत में नई दिल्ली में लाल किले पर आज़ाद हिंद फौज के सैन्य कोर्ट मार्शल से पूरा देश स्वतंत्रता की ओर आकर्षित हो गया था। देशभक्त बने तीन पूर्व ब्रिटिश भारतीय सैन्य अधिकारियों कैप्टन शाह नवाज खान, कैप्टन प्रेम सहगल और लेफ्टिनेंट गुरबख्श सिंह ढिल्लों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जा रहा था। रातों-रात, उनके नेता सुभाष चंद्र बोस और उनकी सेना आजाद हिंद फौज ने युद्ध के मैदान में अपनी बहादुरी की कहानियों से लाखों भारतीयों का दिल जीत लिया। सरोजिनी नायडू ने घोषणा की, कि यदि वह अपने बेटों को चुन सकतीं तो वह ख़ुशी से इन तीन आईएनए अधिकारियों को चुनेंगी।
उस समय पटेल आईएनए राहत समिति के अध्यक्ष और नेताजी की सेना के प्रति हुकुमत-ए-ब्रिटानिया के रवैये के सबसे मुखर आलोचक थे। आख़िरकार, जनवरी 1946 में, हुकुमत-ए-ब्रिटानिया ने सज़ा कम कर दी और तीनों लोगों को आज़ाद कर दिया। इससे कुछ ही हफ्तों में नौसेना गदर शुरू हो गया, जिसके बाद जबलपुर में ब्रिटिश भारतीय सेना के रैंकों में विद्रोह हुआ। जब बड़ी संख्या में सेना के सैनिक गांधी से मिलने गए, तो उन्होंने उनसे कहा, "मुझे पता है कि आज सेना के सभी रैंकों में एक नया उत्साह और एक नई जागृति है... इस सुखद बदलाव का श्रेय नेताजी बोस को है..." सैनिकों ने “जय हिन्द” नारे के साथ जवाब दिया और भारत का आकाश 'जय हिन्द' के घोष से गूंज उठा। सशस्त्र बलों की हुकुमत-ए-ब्रिटानिया के प्रति बेवफाई के भयानक और मंडराते खतरे ने भारत की आजादी का मार्ग प्रशस्त किया।
हुकुमत-ए-ब्रिटानिया ने तेजी से आगे बढ़ने का फैसला किया। 2 सितंबर 1946 तक, भारत के इतिहास में एक नया अध्याय शुरू करने के लिए एक अंतरिम सरकार की शपथ ली गई। उस दिन, पटेल ने गृह विभाग का कार्यभार संभाला और नई दिल्ली में रायसीना हिल पर नॉर्थ ब्लॉक में प्रवेश किया। गृह सचिव अल्फ्रेड अर्नेस्ट पोर्टर ने 70 वर्षीय नेता को उनकी मेज पर रखी फाइलों की सामग्री के बारे में सावधानीपूर्वक जानकारी दी। अचानक, राष्ट्र की चुनौतियों की व्यापक विविधता, मात्रा और जटिलता स्पष्ट हो गई। लंदन में डेली हेराल्ड ने कहा, “नई सरकार में बहुत कम लोगों के पास पूर्व प्रशासनिक अनुभव है। उन्होंने अपना जीवन विपक्ष में बिताया है-कभी-कभी जेल में भी - उस उद्देश्य की लड़ाई में जिसे वे प्रिय हैं। कार्य के इस क्षेत्र से रचनात्मक उपलब्धि की भूमिका में परिवर्तन आसान नहीं है।'' हमेशा की तरह, ब्रिटिश अखबार के संपादकों ने भारतीयों को गलत समझा। वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि पटेल शायद ही कभी अभिभूत हुए हों।
वल्लभभाई झावेरीभाई पटेल लाडबा और एक किसान झावेरीभाई पटेल के चौथे पुत्र थे, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने 1857 में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के पक्ष में लड़ाई लड़ी थी। अहमदाबाद से पचहत्तर मील दक्षिण में नडियाद में जन्मे, वल्लभभाई पटेल की जन्मतिथि मैट्रिक प्रमाणपत्र में 31 अक्टूबर 1875 थी। गोधरा में एक वकील के रूप में शुरुआत करते हुए, उन्होंने अपने बड़े भाई विट्ठलभाई पटेल के पक्ष में लंदन में प्रशिक्षित बैरिस्टर बनने का अवसर खुशी-खुशी त्याग दिया। बाद में वे मात्र दो वर्ष के भीतर मिडिल टेम्पल से बैरिस्टर बन गए और रोमन कानून में सर्वोच्च अंक प्राप्त किये। विवेकपूर्ण दिमाग और समझौता न करने वाले धैर्य के धनी, उन्होंने जल्द ही खुद को अहमदाबाद में एक कानूनी विद्वान के रूप में स्थापित कर लिया।
शीर्ष कानूनी दिग्गज पटेल, जो अपने हास्य की भावना के लिए जाने जाते हैं, अप्रैल 1916 में दक्षिण अफ्रीका के नायक गांधी से पहली बार अहमदाबाद में मिले। अहिंसा और सत्याग्रह की ओर आकर्षित होने में उन्हें थोड़ा समय लगा। 1918 की गर्मियों में खेड़ा के युद्धक्षेत्र में, उन्होंने भू-राजस्व पर हुकुमत-ए-ब्रिटानिया की शक्ति को चुनौती दी और एक अथक प्रचारक के रूप में उभरे। 1928 में सफल 'नो-टैक्स' आंदोलन के बाद, बारडोली की महिलाओं ने उन्हें ‘सरदार’ की उपाधि से सम्मानित किया, और गांधी ने उन्हें अहिंसक सविनय अवज्ञा आंदोलन में अपना उप कमांडर चुना। अत्यधिक अंग्रेजीदां पटेल ने अपने अच्छे कट वाले सूट उतार दिए और बेदाग सफेद कुर्ता धोती पहनने और गंदी जेलों में समय बिताने के लिए अपनी सफल कानूनी प्रैक्टिस छोड़ दी। प्रत्येक कारावास के साथ, वह और भी अधिक मजबूत होकर बाहर निकले । स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान, उनका उपनाम 'भारत का लौह पुरुष' था। मार्च 1931 में, कराची में छियालीसवीं कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने के बाद, पटेल ने कहा, “आपने एक साधारण किसान को सर्वोच्च पद पर बुलाया है।”
उथल-पुथल भरे स्वतंत्रता संग्राम के अंत में, जैसे ही भारत गुलामी से स्वराज की ओर उभरा, पटेल जिन्होंने अपनी विशेष प्रशासनिक प्रतिभा के साथ कांग्रेस मशीन का निर्माण किया, उनका प्रधानमंत्री बनना निश्चित था। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से गांधी की पसंद युवा नेहरू पर गिरी। नेहरू की अंतर्राष्ट्रीय मान्यता और भारत में अपार लोकप्रियता के साथ, पटेल को राजनीतिक रूप से हार का सामना करना पड़ा। लेकिन कांग्रेस के अनौपचारिक नेता और गांधी के सबसे प्रमुख शिष्य एक शांत कर्मठ व्यक्ति थे, जो अपने जीवन के प्रत्येक चरण में चीजों के बारे में व्यापक दृष्टिकोण तक पहुंचने में कामयाब रहे। मानव जाति के पांचवें हिस्से का प्रतिनिधित्व करने वाले राष्ट्र के शक्तिशाली उप प्रधान मंत्री के रूप में, उन्होंने अपने स्पष्ट नेतृत्व का प्रदर्शन किया। लोदी गार्डन में सुबह से पहले अपनी अनुशासित दैनिक सैर के दौरान, उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों को सावधानी से राजधानी से दूर रखा ताकि निहित स्वार्थी लोग अनुग्रह के लिए उनसे संपर्क न कर सकें। गांधीजी ने अपनी पत्रिका में लिखा, "सरदार ईमानदार हैं"।
हुकुमत-ए-ब्रिटानिया ने अपने समापन कार्य में भारत का रक्तरंजित विभाजन किया। बीसवीं सदी के सबसे खराब रक्तपात में से एक में लाखों टूटे हुए, प्रताड़ित, असहाय और क्रोधित पुरुष, महिलाएं और बच्चे पूर्वी और पश्चिमी दोनों सीमाओं से शरणार्थियों के रूप में भारत में आ रहे थे। आज़ादी के कुछ ही घंटों के भीतर, अनेक गाँव जलकर खाक हो गए, आदमी आदमी नहीं रहे और कानून, कानून नहीं रहा। निराशा के भविष्यवक्ताओं ने भविष्यवाणी की कि भारतीय संघ का नया लॉन्च किया गया जहाज आगे की चट्टानों से बच नहीं पाएगा। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि भारत विनाश की ओर अग्रसर है। उस महत्वपूर्ण मोड़ पर, पटेल ने सांप्रदायिक फ्रेंकस्टीन का मुकाबला किया जिसने देश को अभिभूत कर दिया था। वह एक विशालकाय व्यक्ति में बदल गया जो अपने खून बहते और टूटे हुए देश को बचा रहे थे। अपने जीवन को जोखिम में डालते हुए, उन्होंने उग्र संकटों को सख्ती से शांत किया और संकटग्रस्तों को सहायता प्रदान की। वह धीरे बोलते थे लेकिन उनके शब्दों में पहाड़ों का वजन था। हर सार्वजनिक संबोधन में स्पष्ट शब्द कहने के उनके साहस ने सीमा के दोनों ओर अनगिनत मौतों को टाल दिया। नागरिक प्रशासन के प्रति अपने विशिष्ट व्यावहारिक दृष्टिकोण के साथ, उन्होंने लगातार भारत के भीषण संघर्ष को पूर्ण नियंत्रण में ला दिया। पटेल के शांत स्वभाव और दूर दृष्टिकोण ने साबित कर दिया कि उस तूफानी युग में राष्ट्र का उन पर दांव लगाना सही था।
शुक्रवार, 30 जनवरी 1948 की ठंडी शाम को, शाम 4 बजे के ठीक बाद जब भारत में सूरज फीका पड़ रहा था, गांधी अपने करीबी विश्वासपात्र पटेल के साथ दिल्ली में चर्चा कर रहे थे। नेहरू के साथ पटेल के नाजुक रिश्ते टूटने की स्थिति पर पहुँच गये थे। पटेल को लगा कि चौदह साल छोटे व्यक्ति के साथ उनके मतभेद सुलझने योग्य नहीं हैं। उन्होंने अपने करियर का सबसे कठिन फैसला लेते हुए कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था। गांधीजी के लिए कैबिनेट में पटेल की मौजूदगी जरूरी थी। अपनी रोजमर्रा की प्रार्थना सभा के लिए निकलने से ठीक पहले, गांधी ने सब कुछ तय करने के लिए अगले दिन तीन पुराने सहयोगियों के बीच एक संयुक्त परामर्श का सुझाव दिया। उनकी सलाह पर, पटेल अपना इस्तीफा वापस लेने के लिए सहमत हो गए और अपने घर वापस चले गये। कुछ ही मिनटों बाद एक हत्यारे की गोलियों से दुनिया ने महात्मा को खो दिया। हत्या के बारे में सुनकर सदमे में आए पटेल लौट आए। डॉक्टर द्वारा मृत्यु की पुष्टि करने के बाद, दुखी शिष्य अपने गुरु के चरणों के पास मौन होकर बैठ गए। इसके तुरंत बाद नेहरू आए और वे गांधी के निर्जीव शरीर को देखकर एक बच्चे की तरह रोने लगे। जैसे ही राष्ट्रपिता की मृत्यु हुई, उनकी सुलह की अंतिम इच्छा को पूरा करते हुए, यथार्थवादी पटेल और आदर्शवादी नेहरू दोनों ने राष्ट्र का नेतृत्व करने के लिए एक-दूसरे को गले लगा लिया।
भारत की आजादी के समय पटेल के लीये सबसे बड़ी चुनौती विंस्टन चर्चिल की भारत के भीतर 562 स्वतंत्र स्वदेशी राजाओं को शामिल करते हुए प्रिंसेस्तान बनाने की इच्छा थी। चर्चिल ने प्रसिद्ध रूप से कहा था, “भारत की सरकार को इन तथाकथित राजनीतिक वर्गों को सौंपकर भारत हम को भूसे से भरे लोगों को सौंप रहे हैं”। पटेल और राज्य मंत्रालय के प्रतिभाशाली सचिव वी.पी. मेनन ने 1947 के विभजन के मलबे से ]भारत को बचाने के लिए संघर्ष किया। अक्टूबर 1947 में, पाकिस्तान ने श्रीनगर पर तेजी से कब्ज़ा करने के लिए अपनी सेना भेजी थी। पटेल ने स्थिति की कमान संभाल ली। उन्होंने घटनाओं को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। उनकी दीक्षा पर, जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने विलय के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ पर अपने हस्ताक्षर किए और इसे वी.पी. मेनन को सौंप दिया। उस दस्तावेज़ ने भारत सरकार द्वारा सैन्य हस्तक्षेप को सक्षम किया और श्रीनगर को समय रहते बचा लिया गया।
मृदुभाषी लेकिन सख्त वार्ताकार पटेल ने रियासतों के अधिकांश शासकों को नवगठित भारतीय संघ में सद्भावना और पारस्परिक समायोजन की भावना से क्षेत्रीय और प्रशासनिक रूप से विलय करने के लिए राजी किया। एक शाही उस्मान अली खान आसफ जाह VII, हैदराबाद के निज़ाम फिर भी डटे रहे। माना जाता है कि वह दुनिया का सबसे अमीर आदमी था और उसने एक स्वतंत्र राज्य की कल्पना की थी। पटेल साहसपूर्वक कार्य करने से नहीं डरते थे। भारत के बिस्मार्क ने 17 सितंबर 1948 तक हैदराबाद को भी शानदार ढंग से एकीकृत कर लिया और भारत के बाल्कनीकरण की ब्रिटिश योजनाओं को ध्वस्त कर दिया। भारतीय रियासतों का महाद्वीपीय आकार के एक विविध देश में एकीकरण समकालीन भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी सफलता की कहानियों में से एक है। अपने निडर सहयोगी की प्रशंसा करते हुए, जवाहरलाल नेहरू ने कहा, “उन्होंने स्वतंत्र भारत का नक्शा बनाया है। भारत की आजादी हासिल करने में उनका बहुत बड़ा हाथ रहा है और बाद में उन्होंने इसे संरक्षित करने में भी बहुत योगदान दिया।”
पटेल ने कुछ ही समय में भारत और पाकिस्तान की संपत्ति और देनदारियों के जटिल विभाजन को समाप्त करने के लिए सिविल सेवकों को एक संयुक्त टीम में शामिल कर लिया। विभाजन परिषद की अंतिम बैठक में पाकिस्तान आंदोलन के दिग्गज नेता अदबुर रब निश्तर ने विदा लेते समय पटेल की दूरदर्शिता की प्रशंसा की और घोषणा की कि पाकिस्तान के मंत्री उन्हें अपने बड़े भाई के रूप में देखते रहेंगे। अपने निर्भीक, स्पष्ट और चट्टानी स्वभाव के पीछे पटेल का दिल सोने का था और उन्होंने तुरंत इसकी प्रशंसा सिविल सेवकों तक पहुंचा दी। इसके बाद, दूरदर्शी पटेल दुनिया के सातवें सबसे बड़े राष्ट्र को एकजुट करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त सार्वजनिक प्रशासन ढांचे के चैंपियन बन गए।
उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि एक अखिल भारतीय लोक प्रशासन सेवा संवर्ग, भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस), अन्य केंद्रीय सेवाओं के साथ, भारत सरकार की कार्यकारी शाखा के रूप में स्थापित हो। 21 अप्रैल 1947 को, पटेल ने दिल्ली में आईएएस के पहले बैच के एक प्रेरक भाषण में उन्हें 'भारत का स्टील फ्रेम' कहा। आजादी के बाद, 30 करोड़ से अधिक बहुभाषी, बहु-धार्मिक, बहुजातीय और बहुसांस्कृतिक भारतीय लोकतांत्रिक संवैधानिक ढांचे के बिना दुनिया के मानचित्र पर तैर रहे थे। पटेल भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने में शामिल प्राथमिक व्यक्तियों में से एक थे। उन्होंने महत्वपूर्ण अनुभागों और प्रमुख प्रावधानों का भी संचालन किया। उन्होंने एक बिल्कुल नये उत्तर-औपनिवेशिक लोकतंत्र की आशाओं और सपनों को गर्व के साथ अपने चौड़े कंधों पर उठाया।
उन पर गोलियां चलाई गईं-उनका स्वास्थ्य ख़राब हो रहा था और वह एक हवाई दुर्घटना में भी बचे फिर भी वह मौजूदा काम पर केंद्रित रहे। फिर 15 दिसंबर 1950 की सुबह, बॉम्बे (अब मुंबई) में, भारत के पहले उप प्रधान मंत्री के निजी सचिव विद्या शंकर ने नेहरू को फोन पर सूचित किया कि सरदार अब नहीं रहे। वह 75 वर्ष के थे। अपनी अंतिम सांस तक, जैसा कि महात्मा से वादा किया गया था, पटेल ने अत्यधिक तनावपूर्ण परिस्थितियों में प्रधानमंत्री के साथ एक कुशल साझेदारी बनाए रखी और भारत के स्थिर भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया।
उद्योगपति जे.आर.डी. टाटा ने बाद में नोट किया; “जबकि मैं आम तौर पर गांधी से मिलने से उत्साहित और प्रेरित होकर वापस आता था, लेकिन हमेशा थोड़ा सशंकित रहता था, और जवाहरलाल के साथ भावनात्मक उत्साह से भरी बातचीत से अक्सर भ्रमित और असंबद्ध होकर लौटता था… वल्लभभाई के साथ मुलाकात एक खुशी थी, जिससे मैं भारत के भविष्य में नए आत्मविश्वास के साथ लौटता था। मैंने अक्सर सोचा है कि अगर भाग्य ने यह तय किया होता कि जवाहरलाल के बजाय वल्लभभाई दोनों में से छोटे होते, तो भारत बहुत अलग रास्ते पर चलता और आज की तुलना में बेहतर आर्थिक स्थिति में होता।” सरदार वल्लभभाई पटेल का जीवन ऐसी विजयों से भरा था कि दशकों बाद भी वह हमें आश्चर्यचकित करता है। उनकी जीवन कहानी दुनिया के अब तक के सबसे महान नेताओं में से एक का प्रेरक अध्ययन है। और वह भारत की निडर आवाज़ थे।
(डॉ. भुवन लाल सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल और हर दयाल के जीवनी लेखक और विश्व मंच पर भारतीय लेखक हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है)
सबसे पहले दोनों सेनाओं ने डेपसांग और डेमचोक में अपने एक-एक टेंट हटाए, LAC पर जो अस्थायी ढांचे बनाए गए थे, उन्हें तोड़ा गया। भारत और चीन के सैनिक LAC से पीछे हटने शुरू हो गए।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
इस साल दीवाली के दिन भारत-चीन सीमा पर माहौल थोड़ा बदला हुआ होगा। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर साढ़े चार साल बाद दोनों देशों की पेट्रोलिंग फिर से शुरू होगी। सीमा पर सैनिकों का जमावड़ा भी कम होगा क्योंकि सीमा पर शान्ति का समाझौता होने के बाद LAC पर भारत और चीन की सेना पीछे हटने लगी है। मंगलवार को भारत और चीन के लोकल सेना कमांडरों की मीटिंग हुई जिसके बाद 23 अक्टूबर से दोनों तरफ की सेनाओं के पीछे हटने की प्रक्रिया शुरु हो गई। सबसे पहले दोनों सेनाओं ने डेपसांग और डेमचोक में अपने एक-एक टेंट हटाए, LAC पर जो अस्थायी ढांचे बनाए गए थे, उन्हें गुरुवार को तोड़ा गया। शुक्रवार सुबह से भारत और चीन के सैनिक LAC से पीछे हटने शुरू हो गए।
डेमचोक में भारतीय सेना के जवान चार्डिंग नाले से पश्चिम की तरफ़ पीछे हटे, वहीं चीन की सेना इस नाले से पूरब की तरफ़ पीछे हट रही है। डेमचोक में दोनों देशों ने अपने सैनिकों के लिए करीब एक दर्जन अस्थायी ढांचे बनाए थे, उन्हें तोड़ा जा रहा है। डेपसांग में चीनी सेना ने गाड़ियों के बीच तिरपाल लगाकर अपने सैनिकों को तैनात किया था चीनी सेना ने अपनी कुछ गाड़ियां पीछे हटाईं हैं। दोनों देशों ने डेपसांग और डेमचोक में सैनिकों की तैनाती में करीब 50 प्रतिशत की कमी की है। पीछे हटने की प्रक्रिया 28-29 अक्टूबर तक पूरी होने की उम्मीद है। इसके बाद, भारत और चीन के सैनिक अपने अपने इलाक़ों में पैट्रोलिंग करेंगे।
इससे पहले भारत और चीन दोनों ही एक दूसरे के सैनिकों के पीछे हटने का ज़मीनी स्तर पर सत्यापन करेंगे। यानी मौक़े पर जाकर देखेंगे कि सच में सैनिक पीछे हटें हैं या नहीं, गाड़ियां हटाई गई हैं या नहीं, और अस्थायी ढांचे तोड़े गए हैं या नहीं। ड्रोन से भी डिसएंगेजमेंट का वीडियो बनाया जाएगा ताकि दोनों देशों के कमांडर पूरी प्रक्रिया की समीक्षा कर सकें। दोनों सेनाओं के लोकल कमांडर्स दिन में दो बार एक दूसरे से बात करेंगे।
फिर कोर कमांडर स्तर की बातचीत होगी। दो दिन पहले रूस के कज़ान में ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच बातचीत हुई थी और दोनों नेताओं ने 62 साल पुराने सीमा विवाद के हल के लिए अपने अपने देश के विशेष प्रतिनिधियों को जल्द मुलाक़ात करके बातचीत करने को कहा था।
भारत के विशेष प्रतिनिधि अजित डोभाल हैं, जबकि चीन के विशेष प्रतिनिधि वहां के विदेश मंत्री वांग यी हैं। पिछले हफ्ते तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि इस बार दिवाली पर हमारे जवान और अफसर चीन की सीमा पर पहले की तरह गश्त लगाएंगे। हमारे बहादुर जवान चीन की सीमा पर बिना किसी तनाव के दिवाली मनाएंगे। पिछले दो साल में चीन के सवाल पर नरेंद्र मोदी की खूब आलोचना की गई।
कहा गया कि मोदी चीन से डरते हैं, चीन ने हमारी ज़मीन पर कब्जा कर लिया, मोदी ने चीन के सामने सरेंडर कर दिया। मोदी ने ऐसी किसी बात का जवाब नहीं दिया। वो उत्तेजित नहीं हुए। मोदी चुपचाप काम करते रहे, डिप्लोमेसी का इस्तेमाल किया, सैन्य ताकत भी दिखाई। न चीन से डरे, न चीन के आगे झुके।
मुझे तो ये भी लगता है कि मोदी ने चीन से संबंध सुधारने के लिए पुतिन से भी अपनी दोस्ती का थोड़ा बहुत फायदा उठाया होगा। पुतिन को भी सूट करता है कि भारत और चीन दोनों साथ रहें और रूस के साथ खड़े दिखाई दें, तभी वो अमेरिका के सामने एक बड़ी ताकत होने का दावा कर सकते हैं। अब हमारे यहां चीन की लाल आंख की बात करने वालों की आंखें लाल हो जाएंगी।
चीन और भारत के रिश्ते सुधरे, तो राहुल को काफी मुश्किल होगी। उन्हें इस बात का अहसास होगा कि उन्होंने मोदी की बात मानने की बजाय चीन के दावों पर विश्वास किया। चीन के साथ समझौते की आज पूरी दुनिया में चर्चा हो रही है कि किस तरह एशिया की दो बड़ी ताकतों ने आपसी विवाद को बातचीत से हल किया। यह यूरोप और मध्य पूर्व में चल रहे युद्धों को ख़त्म करने की दिशा में उदाहरण बन सकता है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
आने वाले वर्ष में इसके कार्य देश के लिए अगले पांच वर्षों में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने और 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनने की नींव रख सकते हैं।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
आधुनिक अर्थव्यवस्था ने भारत में बहुत कुछ बदला है। महानगरों से सुदूर गांवों तक जीवन में बदलाव नजर आ रहा है। संघर्ष और विषमता के रहते विकास का रथ रुका नहीं है। भारत की सांस्कृतिक पहचान आज भी विश्व में अनूठी है। अपने विचार, अपना भोजन , अपने कपड़े , अपनी पम्पराएं , अपनी भाषा - सम्भाषण , अपनी मूर्तियां , अपने देवता , अपने पवित्र ग्रन्थ और अपने जीवन मूल्य , यही तो है अपनी संस्कृति। इसी संस्कृति का दीपावली पर्व कई अर्थों में समाज को जोड़ने वाला है।
भारतीय पर्व और संस्कृति आनंद और का संदेश देती है। दीपावली पर छोटा सा घर हो या महल, बही खातों और तिजोरियों पर शुभ लाभ के साथ लिखा जाता है - " लक्ष्मीजी सदा सहाय ", दार्शनिक स्तर पर भारतीय मान्यता रही है कि निराकार ब्रह्म स्वयं निष्क्रिय हैं और इस सृष्टि को उसका स्त्री रूप, उसकी शक्ति ही चलाती है। लक्ष्मी के साथ नारायण, राम के नाम आगे सीता , कृष्ण के आगे राधा , शिव के साथ पार्वती का नाम लिए बिना उनकी महत्ता नहीं स्वीकारी जाती।
व्यावहारिक रूप से देखें तो सामान्य स्त्रियां किसी भी मर्द से अधिक कर्मठ और जिम्मेदार होती हैं। विभिन्न देशों की सरकारों , मुंबई से न्यूयॉर्क तक कारपोरेट कंपनियों ,को ही नहीं सुदूर पूर्वोत्तर , कश्मीर से केरल , छतीसगढ़ , बिहार , उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश, हरियाणा , पंजाब के ग्रामीण और दुर्गम क्षेत्रों में महिलाऐं घर और खेत खलिहान का काम बहुत अच्छे ढंग से संभालती हैं। परम्परा के अनुसार भारतीय परिवारों में लक्ष्मी पूजा के साथ बही खाते पर कुमकुम लगाकर नए पन्ने से भविष्य का हिसाब लिखा जाता था। इस दृष्टि से अमावस्या के अँधेरे से निकल रही आर्थिक रोशनी की चमक पर ख़ुशी मनाई जा सकती है।
मध्यवर्गीय परिवार की शिक्षित स्त्रियां अब कमाऊ बनकर सही अर्थों में लक्ष्मी हो गई हैं। यूरोप , अमेरिका , जापान ही नहीं भारत में महिलाएं सामाजिक राजनैतिक आर्थिक वैज्ञानिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। इसलिए भारत में बहू और बेटी को लक्ष्मी कहा जाना हर दृष्टि से उचित है। भारत ही नहीं अंतर राष्ट्रीय सर्वेक्षणों से साबित हुआ है कि बेटियां अपने माता पिता, घर परिवार की चिंता देखभाल अधिक अच्छे ढंग से करती हैं। अपने देश के विभिन्न राज्यों में अनगिनत दुर्गा, लक्ष्मी , सरस्वती की प्रतिमूर्ति समाज सेविकाएं सामाजिक चेतना, पर्यावरण , साक्षरता , स्व रोजगार के अभियान में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं।
लाखों आंगनवाड़ियों को महिलाएं चला रही हैं। विश्व बैंक ने कहा है कि वर्ष 2024 में भारत की अर्थव्यवस्था 7.5 प्रतिशत की दर से बढ़ने का अनुमान है। भारत के लिए अपने पहले के अनुमान में संशोधन करते हुए विश्व बैंक ने इसमें 1.2 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की है। हाल के विकास अपडेट के अनुसार वर्ष 2024 में दक्षिण एशिया की समग्र वृद्धि दर 6 प्रतिशत रहने की संभावना है। ऐसा मुख्य रूप से भारत में तेज विकास तथा पाकिस्तान और श्रीलंका में आर्थिक बहाली के कारण संभव होगा।रिपोर्ट के अनुसार, दक्षिण एशिया वर्ष 2025 में 6.1 प्रतिशत की अनुमानित आर्थिक वृद्धि दर के साथ अगले दो वर्ष तक विश्व में सबसे तेज आर्थिक वृद्धि दर वाला क्षेत्र बना रहेगा।
चुनौतीपूर्ण वैश्विक परिदृश्य के बीच, भारत एक महत्वपूर्ण आर्थिक और भू-राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा है। आने वाले वर्ष में इसके कार्य देश के लिए अगले पांच वर्षों में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने और 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनने की नींव रख सकते हैं, जो समावेशी, सतत आर्थिक विकास, डिजिटल विकास और जलवायु कार्रवाई पर एक उदाहरण स्थापित करेगा। आर्थिक मोर्चे पर, भारत दुनिया के लिए एक प्रमुख विकास इंजन रहा है, जिसने 2023 में वैश्विक विकास में 16% का योगदान दिया है । वित्त वर्ष 2022-2023 में देश की विकास दर 7.2% थी , जो जी20 देशों में दूसरी सबसे अधिक थी और उस वर्ष उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं के औसत से लगभग दोगुनी थी।
स्थिरता बनाए रखने और संरचनात्मक सुधारों को लागू करने के भारत के प्रयासों ने वैश्विक चुनौतियों का सामना करने में इसकी आर्थिक लचीलापन में योगदान दिया है। भारतमाला राजमार्ग कार्यक्रम, बंदरगाह आधारित विकास के लिए सागरमाला परियोजना और स्मार्ट सिटी मिशन जैसी परियोजनाओं सहित बुनियादी ढांचे और कनेक्टिविटी को उन्नत करने में निवेश देश के परिदृश्य को बदल रहा है और देश की आर्थिक उन्नति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। भारत ने एक दशक से भी ज़्यादा पहले अपने राष्ट्रीय पहचान कार्यक्रम, आधार की शुरुआत के साथ एक ज़्यादा डिजिटल अर्थव्यवस्था के लिए एक ठोस नींव रखना शुरू कर दिया था, जो निवास का प्रमाण स्थापित करने के लिए बायोमेट्रिक आईडी का उपयोग करता है।
आज, एक उभरते हुए तकनीकी उद्योग के साथ, देश नवाचार और प्रौद्योगिकी सेवाओं के लिए एक प्रमुख केंद्र बन गया है, जिसने न केवल आर्थिक विकास को बढ़ावा दिया है, बल्कि भारत को डिजिटल अर्थव्यवस्था के भविष्य को आकार देने में एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में भी स्थापित किया है।जलवायु से जुड़ी बढ़ती चिंताओं के बीच, भारत जलवायु परिवर्तन के खिलाफ़ वैश्विक लड़ाई में भी अहम नेतृत्व की भूमिका निभा रहा है। पर्यावरण के लिए जीवनशैली के मिशन लाइफ़ की शुरुआत और ग्रीन हाइड्रोजन के लिए ठोस प्रयासों के ज़रिए भारत ने आर्थिक प्रगति और पारिस्थितिकी ज़िम्मेदारी के बीच संतुलन बनाने वाली विकास की दिशा में दृढ़ प्रतिबद्धता दिखाई है।
भारत ने अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन और आपदा रोधी अवसंरचना के लिए गठबंधन की भी शुरुआत की है, तथा नवीकरणीय ऊर्जा के लिए वैश्विक ग्रिड का प्रस्ताव रखा है। चालू वित्त वर्ष 2024-2025 की पहली तिमाही के दौरान सबसे ज्यादा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आकर्षित करने में महाराष्ट्र टॉप पर रहा है। उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग (डीपीआईआईटी) के मुताबिक, महाराष्ट्र दूसरे राज्यों के बीच नंबर एक स्थान पर बना हुआ है, क्योंकि अप्रैल से जून 2024-25 की पहली तिमाही में उसे 70,795 करोड़ रुपये का एफडीआई प्राप्त हुआ है।
पड़ोसी राज्य कर्नाटक 19,059 करोड़ रुपये का निवेश आकर्षित करके दूसरे स्थान पर रहा। देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) 47.8 प्रतिशत बढ़कर 16.17 अरब डॉलर रहा है। सर्विस सेक्टर, कंप्यूटर, टेलीकॉम और फार्मा सेक्टर में बेहतर कैपिटल फ्लो से एफडीआई बढ़ा है। उद्योग और आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग (DPIT) के मुताबिक इस साल कुल एफडीआई इन-फ्लो चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में 28 प्रतिशत बढ़कर 22.49 अरब डॉलर रहा, जो बीते वित्त वर्ष 2023-24 में अप्रैल-जून में 17.56 अरब डॉलर था। कुल एफडीआई इन-फ्लो में इक्विटी, री-इंवेस्टेड इनकम और अन्य कैपिटल को शामिल किया जाता है।
अगर अप्रैल-जून अवधि के एफडीआई आंकड़ों को देखें, तो इस दौरान मॉरीशस, सिंगापुर, अमेरिका, नीदरलैंड, संयुक्त अरब अमीरात, केमैन द्वीप और साइप्रस सहित कई प्रमुख देशों से एफडीआई इक्विटी फ्लो बढ़ा है। वित्तीय वर्ष-23 में भारत का रक्षा उत्पादन 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गया, जबकि निर्यात 16,000 करोड़ रुपये को पार कर गया। वित्त वर्ष 2024 में उम्मीद है कि रक्षा उत्पादन 1.5 लाख करोड़ रुपये को पार कर जाएगा और 1.75 लाख करोड़ रुपये के लक्ष्य तक भी पहुंच सकता है। उन्होंने कहा कि निर्यात 20,000 करोड़ रुपये के आंकड़े को पार करने की राह पर है। सर्विस सेक्टर, कंप्यूटर सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर, टेलीकॉम, फार्मा और केमिकल सेक्टर में पूंजी प्रवाह बढ़ा है।
सबसे पिछड़े कहे जाने वाले बिहार के आर्थिक विकास पर राजनीतिक उठापटक में ध्यान नहीं दिया जा रहा है। पटना के पास बिहटा में राज्य के पहले ड्राई पोर्ट का उद्घाटन हाल ही में हुआ है। ड्राई पोर्ट को निजी कंपनी के सहयोग से बिहार में उत्पादित वस्तुओं के निर्यात को बढ़ावा देने की राज्य की बड़ी पहल के रूप में देखा जा रहा है। एक शुष्क बंदरगाह, या अंतर्देशीय कंटेनर डिपो (ICD), कार्गो हैंडलिंग, भंडारण और परिवहन के लिए बंदरगाह या हवाई अड्डे से दूर एक रसद सुविधा प्रदान करता है। यह समुद्री/हवाई बंदरगाहों और अंतर्देशीय क्षेत्रों के बीच एक पुल के रूप में कार्य करता है, जिससे माल की कुशल आवाजाही की सुविधा मिलती है।
बिहार जैसे राज्य के लिए यह एक बहुत ही उपयोगी पहल है ,जहां इसके निर्यात वस्तुएं - मुख्य रूप से कृषि आधारित, वस्त्र और चमड़े के उत्पाद - विभिन्न स्थानों पर निर्मित होते हैं। विभिन्न शिपर्स के कार्गो को ड्राई पोर्ट पर एकत्रित किया जा सकता है, जिससे परिवहन आसान हो जाता है। ड्राई पोर्ट का सबसे अच्छा लाभ यह है कि यह कस्टम क्लीयरेंस प्रक्रियाओं को संभालता है, जिससे बंदरगाहों/हवाई अड्डों पर भीड़भाड़ कम होती है। बिहार आलू, टमाटर, केला, लीची और मखाना जैसे फलों और सब्जियों का एक प्रमुख उत्पादक है। इसके अलावा, इसमें मक्का (बिहार के 38 में से 11 जिले मक्का उत्पादन पर ध्यान केंद्रित करते हैं), स्पंज आयरन, पैक्ड फूड, बेकार कागज, अखबारी कागज, चावल और मांस के निर्यात की भी महत्वपूर्ण क्षमता है।
मक्का उत्पादन मुख्य रूप से उत्तर बिहार के खगड़िया, बेगूसराय , सहरसा और पूर्णिया जैसे जिलों में केंद्रित है। उत्तर बिहार के मुजफ्फरपुर, पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण जिलों में कई चमड़ा और परिधान इकाइयाँ खुली हैं। वैशाली, नालंदा , पटना और बेगूसराय में भी खाद्य प्रसंस्करण में निर्यात की अपार संभावनाएँ हैं। शुष्क बंदरगाह से निर्यात की गई पहली खेप चमड़े के जूतों की थी, जो रूस भेजी गई। हाल ही में आधा दर्जन निवेशकों ने राज्य में चमड़ा विनिर्माण इकाइयां खोली हैं। राज्य में चमड़ा और परिधान के निर्यात की अपार संभावनाएं हैं।
शायद बहुत कम लोग यह जानते हैं कि बिहार ने 2022-23 में 20,000 करोड़ रुपये का निर्यात किया। अब, आईसीडी बिहटा की उपलब्धता के साथ, राज्य अपनी निर्यात क्षमता को बढ़ाने की ओर देख रहा है। यह रेलवे द्वारा पश्चिम बंगाल में कोलकाता और हल्दिया, आंध्र प्रदेश में विशाखापत्तनम, महाराष्ट्र में न्हावा शेवा , गुजरात में मुंद्रा आदि के गेटवे बंदरगाहों से जुड़ा हुआ है। पूरे पूर्वी भारत की सेवा करते हुए, आईसीडी बिहटा पड़ोसी राज्यों झारखंड, उत्तर प्रदेश और ओडिशा की मदद कर सकता है।
मोदी सरकार के पहले 100 दिन में लगभग 15 लाख करोड़ रूपये की परियोजनाएं शुरू हुई हैं। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार ने नीतियों की दिशा, गति और उनके क्रियान्वयन की सटीकता को 10 साल से बरकरार रखा है। इन्फ्रास्ट्रक्चर के तहत 100 दिन में 3 लाख करोड़ की परियोजनाओं को शुरू किया गया है। महाराष्ट्र के वधावन में 76 हज़ार करोड़ रूपए की लागत से मेगा पोर्ट बनेगा जो पहले दिन से ही दुनिया के 10 प्रमुख बंदरगाहों में शामिल होगा। 49 हज़ार करोड़ रूपए की 25 हज़ार गांवों को सड़क से जोड़ने की योजना की शुरूआत हुई। 50,600 करोड़ रूपए की लागत से भारत के बड़े मार्गों के विस्तार का निर्णय लिया गया है।
वाराणसी में लाल बहादुर शास्त्री इंटरनेशनल एयरपोर्ट, पश्चिम बंगाल में बागडोगरा, बिहार में बिहटा में उन्नयन और अगत्ती और मिनी काय में नई हवाईपट्टी बनाकर पर्यटन को बढ़ावा देने का काम हो रहा है। प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना की 17वीं किस्त के तहत 9.50 करोड़ किसानों को 20000 करोड़ रूपए वितरित किए गए हैं। अभी तक कुल 12 करोड़ 33 लाख किसानों को 3 लाख करोड़ रूपए वितरित किए गए हैं। खरीफ फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी बढ़ाया गया है। सशक्त युवा किसी भी देश के विकास की प्राथमिक शर्त है। सरकार ने 2 लाख करोड़ के पीएम पैकेज की घोषणा की है जिसके तहत अगले 5 साल में 4 करोड़ 10 लाख युवाओं को लाभ पहुंचाने वाला है।
सरकार ने एक करोड़ युवाओं को टॉप कंपनी में इंटर्नशिप के अवसर, अलाउंस और एकमुश्त सहायता राशि देने का भी निर्णय किया है। केंद्र सरकार ने भी कई हजार नियुक्तियों की घोषणा की है। श्रीकैपिटल एक्सपेंडीचर को बढ़ाकर 11 लाख 11000 करोड़ रूपए तक पहुंचाना अपने आप में एक मील का पुत्थर है। इससे कई युवाओं के लिए रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे और हमारा इंफ्रास्ट्रक्चर भी मजबूत होगा। दीनदयाल अंत्योदय योजना के तहत 10 करोड़ से अधिक महिलाओं को संगठित कर 90 लाख से अधिक स्वयं सहायता समूह बनाए गए हैं। गाइड का काम करने के लिए पर्यटन दीदी को पर्यटन मित्रों और ड्रोन दीदी के माध्यम से सेल्फ हेल्प ग्रुप से जोड़ा गया है।
इसके साथ ही युवाओं को पर्यटन से जोड़ने का काम भी किया गया है। जनजातीय उन्नत ग्राम अभियान के तहत 63000 जनजातीय गांवों का पूर्ण विकास किया जाएगा। इससे 5 करोड़ आदिवासियों की आर्थिक स्थिति में सुधार आएगा। इस योजना के तहत गांव को प्राथमिक जरूरत और सुविधाओं से पूरी तरह युक्त किया जाएगा। हाँ इन सभी सपनों को साकार करने के लिए सरकार के साथ राज्यों की प्रशासनिक मशीनरी और जिले से पंचायत स्तर तक ईमानदारी से कार्य करने की आवश्यकता होगी। किसी भी धर्म की पूजा अर्चना प्रार्थना में सबके सुख शांति और समृद्धि की कामना होती है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )