भारतीय अर्थव्यवस्था में मनमोहन सिंह का योगदान अविस्मरणीय: आशुतोष चतुर्वेदी

कुछ समय पहले मनमोहन सिंह ने एक सार्वजनिक समारोह में खुद पर चुटकी लेते हुए कहा था कि वह सिर्फ एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर नहीं, एक्सीडेंटल वित्त मंत्री भी थे।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 30 December, 2024
Last Modified:
Monday, 30 December, 2024
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आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक, प्रभात खबर

मनमोहन सिंह का जाना पूर्व प्रधानमंत्री का जाना तो है ही, एक जाने-माने अर्थशास्त्री का भी अवसान है। वे भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के जनक थे। मेरा मानना है कि कोई ऐसा शख्स, जो तीन दशकों तक राज्यसभा का सदस्य रहा हो, 10 साल तक देश का प्रधानमंत्री रहा हो, विपक्ष का नेता रहा हो, देश का वित्त मंत्री रहा हो और जो देश की अर्थव्यवस्था को नेहरूवादी मॉडल से उदारीकरण की दिशा में ले गया हो, उसके बारे में विस्तृत विमर्श की जरूरत है। जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, तब उनके साथ अनेक विदेश यात्राओं का मुझे अनुभव रहा है, जिनमें रूस में आयोजित जी-20, ईरान में आयोजित गुटनिरपेक्ष सम्मेलन, ब्रुनई में आयोजित आसियान सम्मेलन, जर्मनी में आयोजित द्विपक्षीय वार्ता प्रमुख हैं।

इस दौरान वे पत्रकारों से बातचीत का अवसर अवश्य निकालते थे, लेकिन यह बातचीत सीमित और विषय के बारे में ही होती थी। उनके दो मीडिया सलाहकार डॉक्टर संजय बारू और पंकज पचौरी अपने पत्रकारिता जगत के साथी व मित्र रहे हैं। पंकज पचौरी तो अपने सहपाठी भी रहे हैं। मैंने पाया कि विदेशों में एक अर्थशास्त्री के रूप में उनकी ख्याति थी। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने तो कई बार सार्वजनिक मंचों से मनमोहन सिंह की एक अर्थशास्त्री के रूप में तारीफ की थी।

मनमोहन सिंह 2004 से 2014 तक प्रधानमंत्री रहे। वे 1998 से 2004 तक विपक्ष के नेता भी थे। उन्होंने 1991 में नरसिम्हा राव सरकार में सीधे वित्त मंत्री के रूप में राजनीति के मैदान में कदम रखा था। उनके वित्त मंत्री बनने की कहानी दिलचस्प है। विनय सीतापति अपनी किताब ‘हाऊ पीवी नरसिम्हा राव ट्रांसफॉर्म्ड इंडिया’ में लिखते हैं कि 1991 में नरसिम्हा राव रिटायरमेंट मोड में चले गये थे, लेकिन 21 मई, 1991 को श्रीपेरंबदूर में राजीव गांधी की हत्या हो गयी। उसके कुछ दिनों बाद सोनिया गांधी ने इंदिरा गांधी के पूर्व प्रधान सचिव पीएन हक्सर को बुलाया और उनसे पूछा कि कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री पद के लिए कौन सबसे उपयुक्त व्यक्ति हो सकता है।

हक्सर ने तत्कालीन उपराष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा का नाम सुझाया, लेकिन वे तैयार नहीं हुए। इसके बाद नरसिम्हा राव का नाम सुझाया गया और वे प्रधानमंत्री बन गये। विनय सीतापति का कहना है कि नरसिम्हा राव अनेक मंत्रालयों के काम में दक्ष थे, लेकिन वित्तीय मामलों में उनका हाथ तंग था। पीसी एलेक्जेंडर उनके करीबी थे। नरसिम्हा राव ने एलेक्जेंडर से कहा कि वह एक ऐसे शख्स को वित्त मंत्री बनाने चाहते हैं, जिसे आर्थिक मामलों की गहरी समझ हो। एलेक्जेंडर ने उन्हें आइजी पटेल का नाम सुझाया, जो रिजर्व बैंक के गवर्नर रह चुके थे और उस दौरान लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के निदेशक थे, लेकिन पटेल ने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया।

इसके बाद एलेक्जेंडर ने मनमोहन सिंह का नाम सुझाया। शपथ ग्रहण समारोह से एक दिन पहले, 20 जून को एलेक्जेंडर ने मनमोहन सिंह को फोन किया। उस समय मनमोहन सिंह सो रहे थे, क्योंकि वह सुबह ही विदेश यात्रा से वापस लौटे थे। उन्हें जगा कर बताया गया कि वह भारत के अगले वित्त मंत्री होंगे।
मनमोहन सिंह को भरोसा नहीं हुआ और वह अगले दिन सुबह रोजाना की तरह यूजीसी के दफ्तर पहुंच गये। तब उनके पास नरसिम्हा राव का फोन आया कि आप कहां हैं, 12 बजे शपथ ग्रहण समारोह है, आप तुरंत आइए।

वित्त मंत्री के रूप में नरसिम्हा राव ने मनमोहन सिंह को खुली छूट दी और उन्होंने आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत की। उन्होंने आयात-निर्यात व्यवस्था को सरल किया और निजी पूंजी निवेश को प्रोत्साहित किया। इस दौरान आर्थिक नीतियों को लेकर मनमोहन सिंह लगातार निशाने पर रहे, लेकिन जल्द ही उदारीकरण के बेहतर परिणाम सामने आने लगे। देश के आर्थिक इतिहास में इतने साहसिक और निर्णायक कदम किसी वित्त मंत्री ने नहीं उठाये।

सोशल मीडिया पर मनमोहन सिंह को मौन प्रधानमंत्री, मौनी बाबा, मौन मोहन जैसे विशेषणों से खूब ट्रोल भी किया गया है। इसमें आंशिक सच्चाई भी है। प्रधानमंत्री के रूप में उनके अच्छे कार्य दब गये और उनकी ही पार्टी कांग्रेस ने उन्हें श्रेय नहीं लेने दिया। घोटालों और विवादों ने उनके कार्यकाल पर ग्रहण लगा दिया। खासकर उनके दूसरे कार्यकाल के दौरान कांग्रेसी मंत्री अनियंत्रित थे। कांग्रेसी नेताओं ने उनकी सज्जनता का बेजा फायदा उठाया। सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद सुपर कैबिनेट की तरह काम करती थी और सभी सामाजिक सुधारों के कार्यक्रमों की पहल करने का श्रेय उसे ही दिया जाता था।

मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे डॉक्टर संजय बारू ने उन पर एक किताब, ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ लिखी है। संजय बारू का मानना है कि हालांकि सोनिया गांधी उनसे बहुत आदर से पेश आती थीं, लेकिन मनमोहन सिंह ने मान लिया था कि पार्टी अध्यक्ष का पद प्रधानमंत्री के पद से महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री को इस बात की छूट नहीं थी कि वे अपने मंत्रियों का खुद चयन करें। संजय बारू ने एक दिलचस्प वाकये का जिक्र किया था। मंत्रिमंडल में फेरबदल होना था।

राष्ट्रपति को मंत्रियों के नाम भेजे जाने से ठीक पहले सोनिया गांधी का नामों में परिवर्तन का संदेश आया। लिस्ट टाइप करने का समय नहीं था, इसलिए मूल लिस्ट में एक नाम पर व्हाइटनर लगा कर दूसरा नाम लिख दिया गया। आंध्र प्रदेश से सांसद एस रेड्डी को शपथ दिलायी गयी और हरीश रावत का नाम अंतिम क्षणों में काट दिया गया। नतीजा यह निकला कि प्रधानमंत्री पद का रुतबा समाप्त हो गया। रही-सही कसर राहुल गांधी ने पूरी कर दी थी। सितंबर, 2013 में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान उन्होंने आपराधिक छवि वाले नेताओं से संबंधित अपनी ही सरकार के एक अध्यादेश की प्रति को फाड़ दिया था।

मनमोहन सिंह भाषण देने में झिझकते थे। उन्हें हिंदी पढ़नी नहीं आती थी और वह अपने भाषण या तो गुरमुखी में लिखते थे या उर्दू में। कुछ समय पहले मनमोहन सिंह ने एक सार्वजनिक समारोह में खुद पर चुटकी लेते हुए कहा था कि वह सिर्फ एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर नहीं, एक्सीडेंटल वित्त मंत्री भी थे। मनमोहन सिंह 1991 में पहली बार असम से राज्यसभा सांसद चुने गये थे। इसके बाद से वे लगातार पांच बार असम से राज्यसभा के लिए चुने जाते रहे। इस बीच एक बार मनमोहन सिंह ने लोकसभा का चुनाव भी लड़ा, लेकिन हार गये थे।

वे विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे। उदारीकरण की नींव उन्होंने रखी, जिसका आज हम देशवासी लाभ उठा रहे हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में उनका योगदान अविस्मरणीय है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - प्रभात खबर।

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इनकम टैक्स में कटौती होगी? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब-किताब' ?>

ब्याज दरों में बढ़ोतरी से लोगों के लिए लोन लेकर घर या कोई सामान ख़रीदना महँगा हो जाता है। कंपनियों के लिए भी लोन लेकर नया प्रोजेक्ट लगाना महँगा पड़ता है।

Last Modified:
Monday, 13 January, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले महीने संसद को बताया था कि दूसरे क्वार्टर में GDP में गिरावट ‘temporary blip’ है लेकिन अब केंद्र सरकार ने ख़ुद कहा है कि इस साल GDP ग्रोथ चार साल में सबसे कम रहेगी। हिसाब किताब में हम लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि अर्थव्यवस्था धीमी हो रही है। आज हम चर्चा करेंगे कि मंदी का डर क्यों है? इसे दूर करने के लिए ब्याज दर और इनकम टैक्स दोनों में कटौती ज़रूरी हो गई है।

जीडीपी क्या है?

GDP ( Gross Domestic Product) का मतलब होता है कि देश में उस अवधि में बने सामान और सर्विस की कुल क़ीमत. यह मोटे तौर पर तीन बातों को लेकर बनता है। हमारा- आपका खर्च ( Private Final Consumption Expenditure). यह GDP का 60% है। सरकार के अपने खर्च जैसे सेलरी (Government Final consumption Expenditure) यह GDP का 10% है। नए प्रोजेक्ट पर खर्च जैसे नए कारख़ाने, सड़कें, बिल्डिंग। यह काम सरकार और कंपनियाँ दोनों करती है।  (Gross Final Capital Formation) यह GDP का 30% है।

केंद्र सरकार बजट से महीने भर पहले अनुमान जारी करती है कि इस वित्त वर्ष में अर्थव्यवस्था की सेहत कैसी रहेगी। फ़ाइनल आँकड़े तो मई के आख़िर में आते हैं लेकिन बजट फ़रवरी में पेश होना होता है। ये आँकड़े बजट का आधार बनते हैं। ये आँकड़े कह रहे हैं कि इस साल जीडीपी ग्रोथ 6.4% रहेगी। यह केंद्र सरकार और रिज़र्व बैंक दोनों के अनुमान से कम है।

हम पहले चर्चा कर चुके हैं कि महंगाई कम करने के लिए रिज़र्व बैंक ने ब्याज दरों को बढ़ाना शुरू किया था। महंगाई तो कम हुई नहीं, ग्रोथ कम हो गई। ब्याज दरों में बढ़ोतरी से लोगों के लिए लोन लेकर घर या कोई सामान ख़रीदना महँगा हो जाता है। कंपनियों के लिए भी लोन लेकर नया प्रोजेक्ट लगाना महँगा पड़ता है।  सामान और सर्विस की खपत कम होती है।

डिमांड कम होने से महंगाई कम होने लगती है। भारत में महंगाई तो कम नहीं हुई, खपत कम हो गई। ख़ासकर शहरों में। खपत कम हो रही है तो कंपनी नया प्रोजेक्ट नहीं लगा रही हैं। हालाँकि सरकार के आँकड़े कह रहे हैं कि खपत इस साल बढ़ रही है। लोगों का खर्च 7% से बढ़ेगा। इस पर सरकार ने बजट में 11.11 लाख करोड़ रुपये का जो बजट कैपिटल खर्च के लिए रखा था वो वो नहीं रहा है। नवंबर तक 5.13 लाख करोड़ रुपये ही खर्च हुए हैं।

तो अब क्या करना होगा?

रिज़र्व बैंक को ब्याज दरों में कटौती करने की ज़रूरत है। यह सिलसिला फ़रवरी में शुरू होने की संभावना है, नहीं तो अप्रैल से हो जाएगा। यह ग्रोथ बढ़ाने के लिए काफ़ी नहीं होगा। लोगों के हाथ में और पैसे देने की ज़रूरत है ताकि महंगाई की मार से जो हाथ खिंच रखा है वो खुल जाए। इससे कंपनियों की बिक्री भी बढ़ेगी। उनका मुनाफ़ा बढ़ेगा तो शेयर बाज़ार चढ़ेगा। इसका एक उपाय है कि इनकम टैक्स कटौती की जाएँ।

सरकार को सुझाव दिया गया है कि 15 लाख रुपये की आमदनी वाले लोगों का टैक्स कम किया जाए। इनकम टैक्स से सरकार की कमाई कॉरपोरेट टैक्स से ज्यादा हो रही है, इसलिए कटौती का स्कोप है। अब गेंद सरकार के पाले में है क्योंकि यह Temporary blip नहीं है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पांडुलिपियों के संरक्षण पर ध्यान दे संस्कृति मंत्रालय: अनंत विजय ?>

राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन का आरंभ अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रधानमंत्रित्व काल में 2003 में किया गया। मिशन के गठन के करीब सालभर बाद अटल जी की सरकार चली गई।

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Monday, 13 January, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव की गहमागहमी के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली कैबिनेट ने पांच भारतीय भाषाओं को क्लासिकल भाषा की श्रेणी में लाने का निर्णय लिया था। ये पांच भाषाएं हैं मराठी, बंगाली, पालि, प्राकृत और असमिया। इन भाषाओं में हमारे देश में प्रचुर मात्रा में ज्ञान संपदा उपलब्ध है। पालि और प्राकृत में तो हमारे इतिहास की अनेक अलक्षित अध्याय भी हैं जिनका सामने आना शेष है।

हमारे देश की ऐतिहासिक ज्ञान संपदा कई मठों और बौद्ध विहारों के अलावा जैन मतावलंबियों के मंदिरों में रखी हैं। इनमें से अधिकतर पांडुलिपियां पालि और प्राकृत में हैं। प्रधानमंत्री मोदी इन भाषाओं को क्लासिकल भाषा की घोषणा से आगे जाकर पांडुलिपियों में दर्ज ज्ञान संपदा को आम जनता तक पहुंचाना चाहते हैं। बुद्ध के बारे में तो प्रधानमंत्री राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय मंचों पर निरंतर बोलते रहते हैं।

हाल ही में प्रवासी भारतीय दिवस के अवसर पर आयोजित समारोह में भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बुद्ध और उनके सिद्धातों के बारे में चर्चा की थी। भगवान बुद्ध ने जो ज्ञान दिया है उसको वैश्विक स्तर पर पहुंचाने का कार्य होना शेष है। प्रधानमंत्री के निर्णय के बाद पालि को लेकर थिंक टैंक श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन ने सक्रियता दिखाई और देश के कई हिस्से में गोष्ठियां आदि करके उसको मुख्यधारा में लाने की पहल आरंभ की है।

इन गोष्ठियों में भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं की भागीदारी ये स्पष्ट है कि इस कार्य में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की सहमति और स्वीकृति दोनों है।  प्रधानमंत्री की अपने देश की ज्ञान संपदा को आमजन तक पहुंचाने के लिए सबसे कारगर तरीका तो यही लगता है कि राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को फिर से सक्रिय किया जाए।

राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन का आरंभ अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रधानमंत्रित्व काल में 2003 में किया गया। मिशन के गठन के करीब सालभर बाद अटल जी की सरकार चली गई। केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार बनी। मिशन की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, ‘इस परियोजना के माध्यम से मिशन का उद्देश्य भारत की विशाल पाण्डुलिपीय सम्पदा को अनावृत करना और उसको संरक्षित करना है।

भारत लगभग पचास लाख पाण्डुलिपियों से समृद्ध है जो संभवत: विश्व का सबसे बड़ा संकलन है। इसमें सम्मिलित हैं अनेक विषय, पाठ संरचनाएं और कलात्मक बोध, लिपियां, भाषाएं, हस्तलिपियां, प्रकाशन और उद्बोधन। संयुक्त रूप से ये भारत के इतिहास, विरासत और विचार की ‘स्मृति’ हैं। ये पाण्डुलिपियां अनेक संस्थानों तथा निजी संकलनों में प्राय: उपेक्षित और अप्रलेखित स्थिति में देशभर में और उसके बाहर भी बिखरी हुई हैं।

राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन का उद्देश्य अतीत को भविष्य से जोड़ने तथा इस देश की स्मृति को उसकी आकांक्षाओं से मिलाने के लिए इन पाण्डुलिपियों का पता लगाना, उनका प्रलेखन करना, उनका संरक्षण करना और उन्हें उपलब्ध कराना है। ’ इस मिशन की वेबसाइट पर ही इसके कार्यों का लेखाजोखा भी उपलब्ध है। उसको देखकर सहज ही ये अनुमान लगाया जा सकता है कि मिशन बस चलता रहा है। कोई उल्लेखनीय कार्य हुआ हो ये ज्ञात नहीं हो सका है। अभी कुछ वर्षों पहले तो सांस्कृतिक जगत में ये चर्चा थी संस्कृति मंत्रालय इस मिशन को बंद करना चाहती है।

पता नहीं किन कारणों से इस मिशन को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र से जोड़ने का निर्णय हुआ। जब मिशन को कला केंद्र से जोड़ा गया तो माना गया था कि वहां इसके उद्देश्यों को पूरा करने को गति मिलेगी। कला केंद्र के पुस्तकालय में भी पांडुलिपियों का खजाना है। देशभर के 52 पुस्तकालयों से इन पांडुलिपियों की माइक्रो फिल्म बनाकर यहां रखा गया है। इन पांडुलिपियों में गणित, अंतरिक्ष विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र शामिल हैं। इसके अलावा कला केंद्र की लाइब्रेरी में एक लाख के करीब स्लाइड्स हैं जिसपर देश की विविध परंपराओं की झलक देखी जा सकती हैं।

देश भर के स्मारकों या ऐतिहासिक इमारतों की तस्वीरें भी यहां हैं। कलानिधि संदर्भ पुस्तकालय अपने आप में अनोखा है। यहां किताबें तो हैं ही एक सांस्कृतिक आर्काइव भी है। पर यहां से जुड़ने के बाद भी मिशन गतिमान नहीं हो सका। बताया जाता है कि संस्कृति मंत्रालय ने मिशन को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र से जोड़ तो दिया पर उसको गतिमान करने के लिए जो आर्थिक संसाधन नहीं दिए। परिणाम वही हुआ जो बिना अर्थ के किसी संस्था का होता है।

अब प्रधानमंत्री की रुचि को देखते हुए एक बार फिर से राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को सक्रिय करने का प्रयास संस्कृति मंत्रालय कर रहा है। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के अकाउंट्स को अस्थायी रूप से साहित्य अकादमी को दिया गया है। साहित्य अकादमी को निर्देश दिया गया है कि वो राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के खर्चों का हिसाब किताब रखे। बिलों का भुगतान आदि करे। इस निर्णय के पीछे की मंशा क्या हो सकती है पता नहीं।

 साहित्य अकादमी को पूरा देश सृजनात्मकता के केंद्र के रूप में जानता है, संस्कृति मंत्रालय इसको लेखा विभाग के लिए भी उपयुक्त समझता है। इन दिनों संस्कृति मंत्रालय अपने अजब-गजब फैसले के लिए भी जाना जाने लगा है। कभी अपने से संबद्ध संस्थाओं के चेयरमैन के स्तर को लेकर जारी फरमान तो कभी राजा राममोहन राय मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में एक अस्थायी अफसर को हटाकर दूसरे अस्थायी अफसर को दायित्व देने को लेकर । मंत्रालय को जो ठोस कार्य करने चाहिए उस ओर वहां कार्यरत अफसरों का ध्यान ही नहीं जा पा रहा है।

राजा राममोहन राय मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में नियमित महानिदेशक की नियुक्ति, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में नियमित चेयरमैन की नियुक्ति जैसे कार्यों पर ध्यान है कि नहीं, पता नहीं। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इंडिया गेट के पास अमृत वाटिका की बात की थी। इस वाटिका में मेरी माटी, मेरा देश के दौरान जमा की गई मिट्टी को रखा जाना था।

देशभर से कलश में मिट्टी लेकर लोग दिल्ली में जुटे थे। भव्य कार्यक्रम हुआ था। तब इस तरह की खबर आई थी गृहमंत्री अमित शाह ने अमृत वाटिका के लिए जगह देखने के लिए उस इलाके का दौरा भी किया था। अब पता नहीं कहां हैं वो मिट्टी भरे कलश और कहां बन रही है अमृत वाटिका। संस्कृति मंत्रालय को इस बारे में बताना चाहिए।

राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को अगर संस्कृति मंत्रालय के वर्तमान अधिकारियों के भरोसे छोड़ा गया तो उसका परिणाम क्या होगा इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। जो अफसर संस्कृति और संस्कृति से जुड़े मुद्दों की संवेदना को नहीं समझ सकते वो पांडुलिपियों में संचित ज्ञान को लेकर संवेदनशील होंगे इसपर संदेह है।

दूसरी जो चिंता योग्य बात ये है कि जब मंत्रालय के अफसर प्रधानमंत्री की रुचि वाली योजनाओं को लेकर बेफिक्र रहते हैं तो वो किसकी सुनते होंगे, कहा नहीं जा सकता। आज आवश्यकता इस बात की है कि राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को मिशन की तरह चलाया जाए और उसको किसी योग्य व्यक्ति के हाथों में सौंपा जाए। संस्कृति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत अपने स्तर पर इस कार्य. को पटरी पर लाने में विशेष रुचि लें ताकि भारत का जो इतिहास वर्षों से सामने नहीं आ पाया है वो सामने आ सके और लोग उसपर गर्व कर सकें। प्रधानमंत्री मोदी के पंच-प्रण की पूर्ति की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम होगा।   

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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कांग्रेस का समर्थन रसातल पर और बनाई अपनी इमारत आलीशान: आलोक मेहता ?>

कामराज ने संगठन के लिए ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री का पद जिद करके छोड़ा था। यहां तक हुआ था कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने भी इस्तीफे की पेशकश की थी।

Last Modified:
Monday, 13 January, 2025
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आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
 

आज हम देश में क्या देख रहे हैं? पार्टियों तथा उनके कार्यकर्ताओं के बीच आपसी संघर्ष तथा अप्रिय प्रतिस्पर्धा हो रही है। पार्टियों के पोस्टरों के प्रदर्शन, झंडे लहराने, जुलुस निकालने तथा जन सभाएं करने में एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ लगी हुई है, ताकि जनता का ध्यान और समर्थन मिले लेकिन इससे लोगों के बीच वैमनस्य पैदा होता है।

पार्टियों की ऐसी लड़ाइयों से देश की प्रगति बाधित होती है। जब पार्टियां एक दूसरे से लड़ती है, तो जनता उसे मुर्गों की लड़ाई की तरह देखती है। वह उत्तेजित हो सकती है लेकिन इससे किसी महत्वपूर्ण समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। यह बात आज के किसी सत्ताधारी नेता या बड़े समाजशास्त्री की नहीं वरन कांग्रेस में लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनवाने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष भारत रत्न 'के कामराज' ने अपने भाषण में 1967 में कही थी और वर्तमान दौर में अधिक लागू हो सकती है।

राजनीति में जिस 'कामराज योजना' का जिक्र बार बार आता है, उसमें इस बात पर ही जोर दिया गया था कि कांग्रेस की हार का एकमात्र कारण कमजोर नेतृत्व और जिला ग्रामीण स्तर पर समर्पित कार्यकर्ताओं की कमी। कामराज ने संगठन के लिए ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री का पद जिद करके छोड़ा था। यहाँ तक हुआ था कि प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरु ने भी इस्तीफे की पेशकश की थी। बाद में इंदिरा गाँधी के राज में इसी योजना के तहत वरिष्ठ मंत्रियों के इस्तीफे हुए। कामराज राजनीतिक पार्टी, नेता कार्यकर्ताओं की शान शौकत, बंगलों, गाड़ियों के विरुद्ध सदैव आवाज उठाते रहे।

इसी तरह के तर्कों की वजह से 1947 से 1985 तक कांग्रेस ने अपने मुख्यालय के लिए कोई बिलिंग नहीं बनाई। लेकिन कांग्रेस पार्टी के विभाजन के साथ मुख्यालय के नाम पर राजधानी दिल्ली में कई सरकारी बंगलों पर कब्ज़ा होता रहा। रियायती दरों पर जमीन के प्लाट मिलते रहे। पहले जवाहर भवन बना, लेकिन पार्टी के बजाय बाद में वह राजीव गांधी प्रतिष्ठान बन गया। अब कांग्रेस बुरी तरह कमजोर हालत में है तब एक तरह से 138 साल बाद अपनी बनाई आलीशान इमारत को कांग्रेस पार्टी का मुख्यालय बनाया जा रहा है।

1947 से दिल्ली में 7 जंतर मंतर कांग्रेस का मुख्यालय रहा। वहां महात्मा गांधी, नेहरू, सरदार पटेल भी आते थे। यहां ही इन्दिरा गांधी सन 1959 में कांग्रेस अध्यक्ष चुनी गई थीं। 1969 में कांग्रेस का विभाजन होने पर इंदिरा गाँधी की कांग्रेस 5 राजेंद्र प्रसाद रोड पर आ गई। जगजीवन राम, डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा, देवकांत बरुआ, ब्रह्मानंद रेड्डी के कार्यकाल में यहीं से पार्टी चली। जब रेड्डी ने भी 1978 में इंदिरा गाँधी को निष्कासित कर दिया, तब इंदिरा कांग्रेस का मुख्यालय 24 अकबर रोड पर आ गया।  

दरअसल यह बंगला सन 1978 में कांग्रेस के आंध्र प्रदेश से राज्यसभा सदस्य जी. वेंकटस्वामी को आवंटित हुआ था। तब कांग्रेस सत्ता में नहीं थी। इंदिरा गांधी और संजय गांधी भी 1977 में लोकसभा चुनाव हार चुके थे। तब इसी 24 अकबर रोड को कांग्रेस का पहले अस्थायी और फिर स्थायी मुख्यालय बना दिया गया था। एक दौर में 24 अकबर रोड को बर्मा हाउस कहते थे। म्यांमार (पहले बर्मा) के भारत में राजदूत को यही बंगला सरकारी आवास के रूप में आवंटित किया जाता था। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के निर्देश पर 24 अकबर रोड को बर्मा हाउस कहा जाने लगा था।

7 जंतर मंतर जनता दल यूनाइटेड और अखिल भारतीय सेवा दल, जिसकी स्थापना मोरारजी देसाई ने की थी, का भी मुख्यालय रहा। कांग्रेस में दो फाड़ होने के बाद 7 जंतर मंतर पर कांग्रेस (ओ) का कब्जा हो गया था। कांग्रेस (ओ) का आगे चलकर जनता पार्टी में विलय हुआ। अब उसके एक हिस्से में सरदार पटेल समारक ट्रस्ट , जनता दल ( यू ) और  पत्रकारों के संगठन नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट का कब्ज़ा है।  

इंदिरा कांग्रेस की 1980 में सत्ता में वापसी हुई तो भी पर इंदिरा गांधी ने 7 जंतर मंतर पर दावा नहीं किया। उनका कहना था कि संगठन इमारत से नहीं कार्यकर्ताओं के बल पर शक्तिशाली रह सकता है। बहरहाल, कांग्रेस राज में कई सरकारी  बंगले पार्टी के विभिन्न संगठनो युवक कांग्रेस , सेवा दल , महिला कांग्रेस , इंटक आदि के लिए आवंटित होते रहे। मुख्यालय बनाने के लिए पहले रायसीना रोड पर जमीन मिली तो भव्य जवाहर भवन बना। एक और जमीन दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर मिली हुई थी उस पर बिल्डिंग बनाने के लिए अपने सत्ता काल में सोनिया गांधी और डॉक्टर मनमोहन सिंह ने शिलान्यास किया।

अब 15 साल बाद 15 जनवरी को सही मुहूर्त मानकर सोनिया गाँधी , राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे 6 मंजिले आधुनिक सुविधा संपन्न मुख्यालय का उद्घाटन करेंगे। फिर भी पुराने बंगले खाली नहीं करने की कुछ बातें नेताओं ने कही है। मजेदार बात यह है कि कुछ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट फैसला दे चुका है कि राजनीतिक पार्टियां सरकारी बंगले खाली करें। लेकिन कांग्रेस ही नहीं भाजपा या कुछ अन्य दल अपने आनुषंगिक संगठनों के नाम पर इन्हें अपने पास रखे हुए हैं।  

दूसरी दिलचस्प बात यह हुई है कि भाजपा का दफ्तर तो दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर होना उनके लिए गौरव है। कांग्रेस को इस नाम पर कष्ट रहा, इसलिए उसने अपने मुख्यालय 'इंदिरा गाँधी भवन का मुख्य द्वार दूसरी तरफ बनाया, ताकि पते में फ़िरोज़शाह कोटला मार्ग लिखा जा सके। यों कांग्रेस में अब राहुल गांधी के दादाजी फ़िरोज़ गांधी का नाम नहीं लिया जाता है।  

कांग्रेस दिल्ली विधान सभा चुनाव के दौरान इंदिरा गाँधी के नाम पर भवन का धूमधाम से उद्घाटन कर रही हैं। वह इंदिराजी अपने अध्यक्ष और प्रधान मंत्री कार्यकाल में शहरी आय और संपत्ति के नियंत्रण के सिद्धांत और बैंक बीमा कंपनियों के राष्ट्रीयकरण को अपने दस सूत्रीय कार्यक्रम में महत्व देती रहीं। क्या राहुल गाँधी उसी सिद्धांत पर दिल्ली या देश के अन्य हिस्सों में जनता का समर्थन लेने का अभियान चलाएंगे? यही नहीं प्रदेशों के कांग्रेसी कार्यकर्ता ही नहीं नेता तक वर्षों से राहुल गांधी से मिलने तक में बड़ी भारी बाधाएं होने से इंदिरा युग में नियमित रुप से सामान्य लोगों से मिलने की परम्परा को याद दिलाते हैं। अभी तो 24 अकबर रोड पर भी सोनिया राहुल गांधी के कमरे यदा कदा खुलते थे। क्या फाइव स्टार नए मुख्यालय में जनता आसानी से नेताओं से मिल सकेगी?

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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डिजिटल युग में हिंदी मीडिया के समक्ष अवसर और चुनौतियां: प्रो. (डॉ.) के जी सुरेश ?>

डिजिटल युग में हिंदी मीडिया अपनी  महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। आज विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर डिजिटल युग में हिंदी मीडिया के समक्ष अवसर और चुनौतियां की समीक्षा करना उचित होगा।

विकास सक्सेना by
Published - Friday, 10 January, 2025
Last Modified:
Friday, 10 January, 2025
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प्रो. (डॉ.) के जी सुरेश ।।

डिजिटल युग में हिंदी मीडिया अपनी  महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। आज विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर डिजिटल युग में हिंदी मीडिया के समक्ष अवसर और चुनौतियां की समीक्षा करना उचित होगा। वर्तमान में हिंदी में प्रमुख समाचार पत्रों समेत कई ऑनलाइन समाचार पोर्टल हैं तो दूसरी और हिंदी मीडिया सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर भी सक्रिय है, जैसे कि फेसबुक, ट्विटर, और यूट्यूब। कई हिंदी समाचार पत्र और चैनल अपने मोबाइल ऐप्स भी सफलतापूर्वक चला रहे हैं, जिससे पाठकों को ताज़ा खबरें और अपडेट्स मिलते हैं।

हिंदी के पाठकों, श्रोताओं और दर्शकों के बदलते प्रौद्योगिकी की दिशा में सकारात्मक रुझान इसी बात से स्पष्ट होता है कि हिंदी में पॉडकास्ट की लोकप्रियता बढ़ रही है, जिसमें विभिन्न विषयों पर चर्चा और विश्लेषण किया जाता है। यही नहीं, हिंदी मीडिया वीडियो कंटेंट पर भी ध्यान केंद्रित कर रहा है, जिसमें समाचार, विश्लेषण, और मनोरंजन संबंधी वीडियो शामिल हैं। मगर हिंदी मीडिया की यह प्रगतिशील यात्रा निष्कंटक भी नहीं है। इसके समक्ष एक बड़ी चुनौती डिजिटल साक्षरता की कमी है, जिससे पाठकों को ऑनलाइन सामग्री तक पहुंचने में परेशानी होती है। साथ ही सोशल मीडिया पर झूठी खबरों और अफवाहों का फैलना एक बड़ी चुनौती है, जिससे हिंदी मीडिया की विश्वसनीयता पर असर पड़ रहा है। असामाजिक और राष्ट्र विरोधी तत्व छद्म समाचार और आख्यान के माध्यम से समाज में भ्रम और नफरत पैदा करने का प्रयास कर रहे हैं । मीडिया साक्षरता के अभाव में यह निश्चित ही चिंता का विषय है।

प्रौद्योगिकी के लोकतांत्रिकरण और पाठकों, विशेष कर युवा पीढ़ी के बढ़ते हिंदी प्रेम के चलते, ऑनलाइन मीडिया में प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है, जिसके चलते हिंदी मीडिया को अपनी सामग्री और प्रस्तुति में सुधार करना पड़ रहा है। यह निश्चित ही पाठकों के दृष्टि से सकारात्मक है किंतु ऑनलाइन मीडिया के लिए वित्तीय संसाधन जुटाना एक बड़ी चुनौती बनकर उभर रही है, जिससे हिंदी मीडिया, विशेष कर लघु और मध्यम प्लेटफॉर्म्स को अपनी सामग्री और सेवाओं को बनाए रखने में परेशानी हो रही है। 

निश्चित ही वर्तमान परिस्थितियों बहुत सकारात्मक नहीं है लेकिन यह भी सत्य है की ऑनलाइन मीडिया में विज्ञापन राजस्व की संभावनाएं अधिक हैं, जिससे हिंदी मीडिया को अपनी आय बढ़ाने का अवसर मिलेगा। यही नहीं, हिंदी मीडिया को प्रायोजित सामग्री के माध्यम से आयb अर्जित करने का विकल्प तलाशने होंगे। पेड सामग्री की संभावनाएं भी अधिक हैं, जिससे हिंदी मीडिया अपनी आय बढ़ा सकती है। भारत में सब्सक्रिप्शन मॉडल बहुत ज्यादा सफल नहीं साबित हुआ है परंतु एमेजॉन, फ्लिपकार्ट जैसे ऐप्स की सफलता से यह साबित होता है कि हिंदी मीडिया ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स के साथ एकीकरण करके आय अर्जित कर सकती है।

आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस और अन्य नवाचारों के माध्यम से ऑनलाइन मीडिया में डेटा विश्लेषण की संभावनाएं अधिक हैं, जिससे हिंदी मीडिया कम खर्चे में अपनी सामग्री और सेवाओं को बेहतर बना सकती हैं। प्रौद्योगिकी और सामग्री में विविधता की दृष्टि से निश्चित ही हिंदी डिजिटल मीडिया का भविष्य उज्जवल है लेकिन साथ ही अपने विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए उसे विशेष प्रयास करने होंगे। तभी हम अपने लोकतांत्रिक भूमिका सही अर्थों में निभा पायेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया गुरु हैं)

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पूरा भारतीय लोकतंत्र पुरुष वर्चस्व का मारा है: समीर चौगांवकर ?>

राजनीतिक कटुता और प्रतिस्पर्धा कितनी भी हो राजनीतिक शब्दावली का स्तर इतना ना गिरें की आपके समर्थक वर्ग को, आपको बचाने के लिए विरोधी दलों के नेताओ के बयानों का सहारा लेना पड़े।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Tuesday, 07 January, 2025
Last Modified:
Tuesday, 07 January, 2025
sameer

समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार।

बीजेपी के पूर्व सांसद रमेश बिधूड़ी के बयान के बाद सोशल मीडिया पर सभी राजनीतिक दल एक दूसरे को महिला विरोधी बताने के लिए पुराने बयानों को वायरल कर रहें हैं और विरोधी दल को ज़्यादा दाग़दार बता रहें हैं। लेकिन सच यही हैं कि भारतीय राजनीति में महिलाओं के ख़िलाफ अभद्र, अश्लील और अस्वीकार्य भाषा की इस होड़ में सभी राजनीतिक दलों का ट्रैक रिकॉर्ड आपस में टक्कर लेते नज़र आता हैं।

राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि लगातार अभद्र, छिछली और कई मायनों में स्त्री-विरोधी होती जा रही राजनीति में शील की स्थापना के लिए वे गंभीर दिखे। दरअसल महिलाओं पर अभद्र टिप्पणी के मामले में सभी राजनीतिक दलों का चौकन्नापन उनकी मुखरता की सीमाएं तय करता रहा और उनकी चुप्पियां चुनता रहा। सभी दल अपने नेता द्वारा महिला पर अमर्यादित टिप्पणी करने पर चुप हों जाते हैं। फिर कहना होगा कि ऐसी चुनी हुई चुप्पियां भारतीय राजनीति की संस्कृति बन गई है।  

हमारा सारा समर्थन और विरोध बहुत फौरी मुद्राओं में बदल जाता है। हम अपना पक्ष देखकर उनका विरोध या बचाव करते हैं। महिलाओं के प्रति शालीनता सिर्फ़ भाषा में ही नहीं, सार्वजनिक व्यवहार में भी परिलक्षित होनीं चाहिए। वैसे तो पूरा भारतीय लोकतंत्र पुरुष वर्चस्व का मारा है। स्त्री- बेटी, देवी या नारायणी- तो मान ली जाती है, लेकिन सत्ता की सहज अधिकारिणी नहीं मानी जाती। इस माहौल में स्त्रियों का राजनीति करना आसान नहीं है। अगर वे राजनीतिक पृष्ठभूमि से आती हैं तो भी ग़नीमत है, वरना लगभग सबको मर्दवाद की सड़ांध का बहुत दूर तक सामना करना पड़ता है।

इसमें चरित्र पर कीचड़ उछालने से लेकर तरह-तरह की हिंसा के उद्धत प्रयत्न भी शामिल रहते हैं। भारतीय राजनीति में शायद ही कोई ऐसी महिला हों जिसनें इसे ना झेला हों। सोनिया से लेकर सुषमा तक और मायावती से लेकर ममता तक सब झेल चुकी है। एक आम भारतीय मतदाता सिर्फ यही तो चाहता है कि उसे किसी भ्रष्ट्र आचरण करने वाले, भ्रष्ट्राचार में लिप्त और सत्ता के लिए कदम कदम पर दलबदल करने वाला प्रतिनिधि न मिले। क्या राजनीतिक दलों के लिए पढ़ा लिखा, साफ सुथरे चरित्र का प्रत्याशी ढूढ़ना इतना मुश्किल है?

जब राजनीतिक शुचिता पर बौद्धिक नसीहतें देने वाले राजनीतिक दल ही इस कालिख के पैरोकार बन जाए तो राजनीति से गंदगी की सफाई कैसे होगी?राजनीतिक कटुता और प्रतिस्पर्धा कितनी भी हो राजनीतिक शब्दावली का स्तर इतना ना गिरें की आपके समर्थक वर्ग को,आपको बचाने के लिए विरोधी दलों के नेताओ के बयानों का सहारा लेना पड़े और बयान देने वाले को बाद में शर्मिंदा होना पड़े।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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'आने वाला समय न्यूजरूम में जिस भीड़ को लाएगा, वह चमक-दमक में बढ़ोतरी करेगी' ?>

इस दौर का मीडिया का छात्र गांधी नहीं है, न ही तिलक। वह किसी मिशन को लेकर पत्रकार नहीं बनना चाहता। उसके सामने पैसा कमाने की प्रबल इच्छा है।

Last Modified:
Monday, 06 January, 2025
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डॉ. वर्तिका नन्दा ।।

'क्लासरूम से न्यूजरूम तक'

80 छात्रों की क्लास है। वाइवा चल रहा है। छात्र पांच के समूह में वाइवा देने के लिए आ रहे हैं। सिलेबस में दिए गए कुछ पहलुओं के अलावा सभी छात्रों से दो और सवाल भी पूछे जाते हैं। पहला सवाल दिल्ली के मौजूदा मुख्यमंत्री का नाम छोड़कर किसी भूतपूर्व मुख्यमंत्री का नाम बताइए। एक छात्र अंदाजा लगाता है कि एक मुख्यमंत्री थीं, जिनका नाम था शिल्पा दीक्षित। बाकी किसी छात्र को किसी मुख्यमंत्री का नाम याद नहीं है। दूसरा सवाल है भारत में छपने वाले कुछ प्रमुख समाचार पत्रों के नाम बताइए। कोई भी छात्र चार से ज्यादा समाचार पत्रों का नाम नहीं बता पाता। बताए गए तीनों समाचार पत्र दिल्ली से प्रकाशित होते हैं। इसमें हिंदी का कोई भी समाचार पत्र शामिल नहीं है। जवाब न बता पाने के बदले में एक छात्र कहता है कि इन सबको जानना बिल्कुल ही जरूरी नहीं है क्योंकि गूगल करने से सारी जानकारी मिल जाती है। इसलिए अपने दिमाग पर जोर देने की जरूरत ही क्या है?  

यह वाक्या पूरी तरह से सच्चे अनुभव पर आधारित है। इसे पढ़ने के बाद भी अगर हमारी और आपकी आंखें नहीं खुलतीं तो हम खुद को मूर्ख बना रहे हैं। 

पत्रकारिता के छात्र जब यह कहते हैं कि उनके लिए खबरों के संसार को जानना जरूरी नहीं है, तो यह पत्रकारिता पर भी सवाल खड़े करता है। जो छात्र पत्रकार बनकर खबरनवीसी करना चाहता है और उसे अपनी आय का जरिया बनाना चाहता है, वह खुद अपने समाज और परिवेश से बेखबर है। 

दूसरी बात यह है कि कोरोना के दौर के बाद जितनी तेजी से समाज बदला है, उतनी ही तेजी से शिक्षा की दुनिया भी बदली है। ऑनलाइन मीडिया की लत ने जैसे एक तरह से यह मोहर लगा दी है कि समसामयिक विषयों को जानना जरूरी नहीं है। मीडिया का उपयोग सनसनीखेज और मसालेदार खबरों के लिए होने लगा है और गंभीर विषय पीछे छूट गए हैं। शोध की लंबी और गहरी प्रक्रिया की जगह तुरत-फुरत की आपाधापी को अहमियत मिलने लगी है। इसका सीधा असर दिखने लगा है।

इस दौर का मीडिया का छात्र गांधी नहीं है, न ही तिलक। वह किसी मिशन को लेकर पत्रकार नहीं बनना चाहता। उसके सामने पैसा कमाने की प्रबल इच्छा है। उसके रोल मॉडल पैसे के दम पर इठलाते टीवी के कुछ ऐसे पत्रकार हैं जिन्हें दुनिया भी मनोरंजन के लिए ज्यादा और खबर के लिए कम देखती है। इनमें से कई एंकर अपनी चिल्लाहट और असभ्य व्यवहार के बावजूद स्क्रीन पर बने हुए हैं। वे बॉडी गार्ड  के साथ चलते हैं, बड़ी गाड़ियों में घूमते हैं, आलीशान जिंदगी जीते हैं और सोशल मीडिया उनकी मोटी तन्ख्वाहों के कयास लगाता है। 

इस कहानी का एक दूसरा सिरा भी है। मीडिया का छात्र इन एंकरों के संघर्ष से नावाकिफ हैं, उनकी शारीरिक और मानसिक सेहत की गिरावट से अनभिज्ञ। छात्र को सिर्फ चमक दिखती है। यही 'दिखना' उनके लिए विशिष्ट है। मीडिया का छात्र भी 'दिखना' चाहता है। प्रिंट मीडिया उसके काम की नहीं। इसलिए प्रिट मीडिया भले ही सिलेबस का हिस्सा है, लेकिन यह छात्र की खुद की रुचि का नहीं। उन्हें प्रिंट मीडिया ढीला और पिछड़ा दिखता है। वे रुआब से कहते हैं कि वे अखबार नहीं पढ़ते। 

हालांकि पत्रकार इस बात पर यह कह सकते हैं कि चूंकि मीडिया शिक्षण और मीडिया के व्यवसाय के बीच कोई पुल नहीं है, इसलिए स्थितियां हास्यास्पद होने लगी हैं और चिंतनीय भी लेकिन यह बात भी सही नहीं होगी। पेशेवर पत्रकारों की भी कई किस्में हैं। सीधे रास्ते पर चलकर, तपकर बने पत्रकार की भाषा, आचार-व्यवहार उन पत्रकारों  से एकदम अलग होती है जो किसी जुगाड़ की वजह से नौकरी पा गए। जुगाड़ू पत्रकार से फिर आप यह उम्मीद करें कि वह क्लास में जाकर मेहनत की बात करेगा तो यह भी संभव नहीं। व्यक्ति उसी रास्ते की सही व्याख्या कर पाता है जिस रास्ते पर वह खुद चला होता है। 

आने वाला समय न्यूजरूम में जिस भीड़ को लाएगा, वह चमक-दमक में बढ़ोतरी करेगी, आर्टिफिशल इंटेलिजेंस उसका हमराही होगा, खबरों में स्वाद बढ़ेगा, वैविध्य भी आएगा लेकिन इससे न्यूजरूम में परिपक्वता का भी इजाफा होगा, इसकी ज्यादा उम्मीद न कीजिएगा।

(यह लेखिका के निजी विचार हैं। लेखिका मीडिया शिक्षक और जेल सुधारक हैं और वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कॉलेज में पत्रकारिता विभाग की प्रमुख हैं।)

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केतन पारिख फिर फंसे, पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब' ?>

केतन पारिख फिर से चर्चा में हैं। SEBI ने उन्हें फिर बैन कर दिया है। अबकी बार आरोप है कि वो अमेरिका के बड़े फंड के ऑर्डर पर वो फ़्रंट रनिंग कर रहे थे।

Last Modified:
Monday, 06 January, 2025
milindkhandekar

मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

केतन पारिख को लेकर 25 साल पहले इकनॉमिक टाइम्स के पहले पन्ने पर ख़बर छपी थी कि बाज़ार में नया बिग बुल आ गया है। वो जिस शेयर को हाथ लगाते थे वो भाग जाता था। उनके दस पसंदीदा शेयर K 10 के नाम से जाने जाते थे। इन शेयरों के भाव कुछ ही महीनों में कई गुना बढ़ गए थे। रोज अपर सर्किट लग जाता था। दो साल में भांडा फूट गया। जेल जाना पड़ा। शेयर बाज़ार की देखरेख करने वाली संस्था SEBI ने उन्हें 14 साल के लिए बाज़ार में कारोबार से बैन कर दिया गया था।

केतन पारिख फिर से चर्चा में हैं। SEBI ने उन्हें फिर बैन कर दिया है। अबकी बार आरोप है कि वो अमेरिका के बड़े फंड के ऑर्डर पर वो फ़्रंट रनिंग कर रहे थे।  सिंगापुर के रोहित सालगावकर को अमेरिका के फंड ने भारतीय शेयर बाज़ार में उसके सौदे करने का काम दिया था। रोहित ने यह सौदे पूरे करने का काम मोतीलाल ओसवाल और Nuvama को दिया था।

अमेरिका का फंड रोहित को जो शेयर ख़रीदने या बेचने के लिए कहता था वह Non Public Information थी। यह जानकारी सार्वजनिक नहीं थीं। किसी के साथ शेयर करना अपराध है। रोहित यही जानकारी केतन पारिख को दे देते थे। अमेरिकी फंड के सौदे पूरे होने से पहले केतन यह जानकारी कोलकाता में अपने सहयोगियों को दे रहे थे। ये सहयोगी उन शेयरों में ख़रीद बेच कर मुनाफ़ा कमा रहे थे। यह खेल 2021 से 2023 तक चलता रहा। 66 करोड़ रुपये का फ़ायदा हुआ जिसे SEBI ने ज़ब्त करने का आदेश दिया है।  

SEBI को केतन और कोलकाता के ब्रोकरों की Whatsapp chat मिली जिसमें वो ख़रीदने बेचने का ऑर्डर दे रहे थे। पहचान छिपाने के लिए 12 फ़ोन नंबरों का इस्तेमाल किया। कोलकाता के ब्रोकरों ने केतन का नाम अपने फ़ोन में Jack, Jack New, Boss, Bhai जैसे नामों से सेव कर रखा था। SEBI ने इन ब्रोकरों के सौदे और अमेरिकी फंड के ऑर्डर को मैच कर लिया। पैटर्न पकड़ में आ गया।

सबसे पहले जब केतन को पकड़ा गया था तो शेयर बाज़ार डूब गया था। केतन ने कहानी यह बनाई कि उनका फ़ोकस TMT यानी टेक्नोलॉजी, मीडिया और टेलीकॉम शेयरों पर है। 25 साल पहले यह उभरते सेक्टर थे। HFCL, Zee Telefilms , DSQ सॉफ़्टवेयर जैसे शेयर रोज़ बढ़ रहे थे। भांडा फूटा तो पता चला कि केतन अपने शेयरों में सर्कूलर ट्रेडिंग करवा रहे थे। उनके साथी आपस में शेयर ख़रीद कर भाव बढ़वा रहे थे। बाज़ार भी इन शेयरों के पीछे भागता था।

फिर केतन के साथी इसे एक लेवल पर पहुँचाकर बेच देते थे। मोटा मुनाफ़ा कमाते थे। इसके बाद 2003 में उन्हें 14 साल शेयर बाज़ार में कारोबार करने से रोक दिया गया था। 2013 में उन्हें दोबारा पकड़ा गया जब किसी और के नाम पर कारोबार कर रहे थे। अब दस साल बाद वो फिर SEBI के जाल में फँसे है। SEBI ने अपने आदेश में ऐसे ही केतन पारिख को आदतन अपराधी नहीं कहा है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

 

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इतिहास पुनर्लेखन के सामने चुनौतियां: अनंत विजय ?>

अमित शाह जब इतिहास लेखन के बारे में बात कर रहे थे तो वो भारतीय दृष्टि से लिखे गए इतिहास की अपेक्षा कर रहे थे। परोक्ष रूप से उन्होंने मार्क्सवादी इतिहासकारों पर तंज भी कसा।

Last Modified:
Monday, 06 January, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

नववर्ष में दिल्ली के आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर में गृह मंत्री अमित शाह ने राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित पुस्तक ‘जम्मू कश्मीर एवं लद्दाख, सातत्य और संबद्धता का ऐतिहासिक वृत्तांत’ का लोकार्पण किया। लोकार्पण समारोह में अमित शाह ने कई ऐसी बातें कहीं जिसपर बौद्धिक जगत में विमर्श होना चाहिए। गृह मंत्री ने कहा कि हमारे देश के हर हिस्से में मौजूद भाषाएं, लिपियां, आध्यात्मिक विचार, तीर्थ स्थलों की कलाएं, वाणिज्य और व्यापार, हजारों साल से कश्मीर में उपaस्थित थे और वहीं से देश के कई हिस्सों में पहुंचे थे।

जब ये बात सिद्ध हो जाती है तो कश्मीर का भारत से जुड़ाव का प्रश्न बेमानी हो जाता है। उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि यह पुस्तक प्रमाणित करती है कि देश के कोने-कोने में बिखरी हुई हमारी समृद्ध विरासत हजारों वर्षों से कश्मीर में भी थी। पुस्तक के बारे में बताया जा रहा है कि इसमें लगभग 8 हजार साल पुराने ग्रंथों में जहां भी जिस रूप में कश्मीर का उल्लेख आया है उसको निकालकर इसमें रखा गया है।

गृह मंत्री ने कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग बताते हुए कहा कि किसी भी कानून की धारा इसे भारत से अलग नहीं कर सकती। पूर्व में कश्मीर को भारत से अलग करने का प्रयास किया गया था, लेकिन समय ने उस धारा को ही हटा दिया। जाहिर सी बात है वो कश्मीर से अनुच्छेद 370 के खत्म करने की बात कर रहे थे। गृह मंत्री ने इस प्रयास को रेखांकित किया जिसके अंतर्गत लंबे समय से देश में चल रहे मिथक को तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर तोड़कर सत्य को ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्थापित करने का काम किया गया।

इस पुस्तक का संपादन भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के चेयरमैन रघुवेन्द्र तंवर ने किया है। अमित शाह ने इतिहास लेखन पर चुटकी भी ली और कहा कि कुछ लोगों के लिए इतिहास का मतलब दिल्ली के दरीबे से बल्लीमारन और लुटियन से जिमखाना तक सिमट गया था।

अमित शाह जब इतिहास लेखन के बारे में बात कर रहे थे तो वो भारतीय दृष्टि से लिखे गए इतिहास की अपेक्षा कर रहे थे। परोक्ष रूप से उन्होंने मार्क्सवादी इतिहासकारों पर तंज भी कसा और कमरे में बैठकर इतिहास लिखने की बात की। अमित शाह ने इतिहास लेखन को लेकर पहली बार अपना मत नहीं रखा बल्कि समय समय पर वो इतिहास लेखन को लेकर अपनी बेबाक राय रखते रहे हैं।

मोदी सरकार के पहले और दूसरे कार्यकाल में काफी लोग वामपंथियों को हर गलती के लिए जिम्मेदार ठहराते थे। सेमिनारों और गोष्ठियों में वामपंथी और मार्क्सवादी इतिहासकारों की गलतियों की ओर इशारा कर उनको कोसते थे। कुछ वर्षों पहले अमित शाह ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में भारतीय दृष्टि से इतिहास के पुनर्लेखन की बात की थी। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया था कि सिर्फ किसी को दोष देने से काम नहीं चलनेवाला है।

उन्होंने भारतीय दृष्टि रखनेवाले इतिहासकारों पर भी सवाल खड़े उनमें से कितनों ने भारतीय दृष्टि से विचार किया। बड़े-बड़े भारतीय साम्राज्य के संदर्भग्रंथ तक नहीं बना पाने की बात भी अमित शाह ने रेखांकित की थी। मौर्य साम्राज्य, गुप्त साम्राज्य का संदर्भग्रंथ तैयार नहीं कर पाए। मगध का इतना बड़ा आठ सौ साल का इतिहास, विजयनगर का साम्राज्य लेकिन संदर्भग्रंथ नहीं बना पाए।

शिवाजी महाराज का संघर्ष...उनके स्वदेश के विचार के कारण पूरा देश आजाद हुआ। पुणे से लेकर अफगानिस्तान तक और पीछे कर्नाटक तक बड़ा साम्राज्य बना हम कुछ नहीं कर पाए। सिख गुरुओं के बलिदानों को भी इतिहास में संजोने की कोशिश नहीं की गई। महाराणा प्रताप के संघर्ष और मुगलों के सामने हुए संघर्ष की एक बड़ी लंबी गाथा को संदर्भ ग्रंथ में परिवर्तित नहीं किया जा सका।

वीर सावरकर न होते तो सन सत्तावन की क्रांति भी इतिहास में सही तरीके से दर्ज नहीं हो पाती। उसको भी हम अंग्रेजों की दृष्टि से ही देखते रहते। आज भी कई लोग उसको सिपाही विद्रोह के नाम से ही जानते समझते हैं। वीर सावरकर ने सन सत्तावन की क्रांति को पहला स्वातंत्र्य संग्राम का नाम देने का काम किया। गृहमंत्री ने तब जोर देकर कहा था कि वामपंथियों को, अंग्रेज इतिहासकारों को या मुगलकालीन इतिहासकारों को दोष देने से कुछ नहीं होगा। केंद्रीय गृहमंत्री ने बेहद सटीक बात कही थी कि अगर किसी की लकीर को छोटी करनी है तो उसके समानांतर एक बड़ी लकीर खींचनी होगी।

भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद से लेकर तमाम साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं को ये देखना होगा कि इतिहास लेखन में सतर्कता और तटस्थता बरती जा रही है या नहीं। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद में पिछले कुछ वर्षों से इतिहास को लेकर कुछ कार्य हुए हैं लेकिन बीच बीच में वहां कुछ ऐसा घटित हो जाता है जिसकी छाया लंबे समय तक उस संस्था पर महसूस की जाती है। परिषद का काम इतिहास लेखन और उसकी प्रविधि पर ध्यान देने का है झंडा लगवाने और गेस्ट हाउस बनवाने का नहीं।

भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद पर बहुत महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है लेकिन वहां भी लंबे समय से सदस्य सचिव नहीं होने के कारण प्रशासनिक और अकादमिक बाधाएं आती रहती हैं। ऊपर से वहां कुछ ऐसा घटित हो जाता है जो उसके अच्छे कार्यों को ढंक देता है। जहां तक बड़ी लकीर खींचने का सवाल है तो उसकी जिम्मेदारी सरकार पर नहीं छोड़ी जा सकती है। बुद्धिजीवी वर्ग को ये बीड़ा उठाना होगा।

सरकार संस्थाएं बना सकती हैं, उन संस्थाओं की कमान योग्य व्यक्तियों को देकर उनसे यही अपेक्षा की जाती है कि वो इतिहास लेखऩ में सतर्कता और तटस्थता को बरकरार रखें। इतिहास को लेकर काम कर रही सरकारी संस्थाएं हों या साहित्य कला और संस्कृति के क्षेत्र में काम कर रही स्वायत्त संस्थाएं, ज्यादातर में ठोस काम की जगह कार्यक्रमों ने ले ली हैं। इसका भी बड़ा नुकसान हुआ है। किसी से पूछिए कि सालभर में क्या हुआ तो कहेंगे इतने कार्यक्रम कर लिए।

आवश्यकता इस बात की है कि ‘जम्मू कश्मीर एवं लद्दाख, सातत्य और संबद्धता का ऐतिहासिक वृत्तांत’ जैसी पुस्तकें अधिक से अधिक संख्या में आएं। संपादित किताबें भी आएं लेकिन स्कालर्स का चयन करके उनको स्वतंत्र पुस्तकें लिखने के लिए भी प्रेरित किया जाए। उनको फेलोशिप दी जाए, उनसे विषय़ देकर शोध करवाया जाए। जो तथ्य ओझल कर दिए गए उनको सामने लाने का दायित्व दिया जाए।

अमित शाह जिन संदर्भ ग्रंथों की बात कर रहे हैं उनको तैयार करने की दिशा में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद को गंभीरता से विचार करना चाहिए। भारतीय दृष्टिवाले इतिहासकारों का चयन करके उनसे संदर्भ ग्रंथ तैयार करवाने चाहिए। मंत्रालय का भी दायित्व है कि वो इस तरह की संस्थाओं में समय पर मानव संसाधन उपलब्ध करवाए ताकि प्रशासनिक और अकादमिक कार्यों में व्यवधान नहीं आ सके।

ये अच्छी बात है कि एक पुस्तक आई और गृह मंत्री ने उसकी प्रशंसा की। ऐसी पुस्तकों को राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत पाठ्यक्रमों में शामिल करवाना चाहिए। प्रतियोगी परीक्षाओं में उन्हीं पुस्तकों से प्रश्न पूछे जाएं ताकि विद्यार्थी उसका अध्ययन कर सकें। जिस तरह से भारतीय इतिहास को विकृत किया गया है उसके लिए एक टास्क फोर्स बनाकर कार्य करना होगा अन्यथा समय बहुत तेजी से निकलता जा रहा है।   

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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शताब्दी वर्ष में संघ की दृष्टि, दिशा और संबंधों की परीक्षा: आलोक मेहता ?>

संगठन के अंग्रेजी साप्ताहिक प्रफुल्ल केतकर के सम्पादकीय और भाजपा के भी कुछ कट्टरपंथी नेताओं की मंदिर मस्जिद दावेदारियों के बयानों से अनावश्यक तनाव पैदा हो रहा है।

Last Modified:
Monday, 06 January, 2025
mohanbhagwat

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

लोकसभा और महाराष्ट्र हरियाणा विधान सभा चुनाव के दौरान राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की भूमिका, भारतीय जनता पार्टी के साथ खट्टे मीठे सम्बन्ध बहुत चर्चा में रहे। अब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अधिक ताम झाम और विज्ञापनबाजी के अपनी स्थापना का शताब्दी वर्ष मनाना प्रारम्भ किया है। संघ ने अपने शताब्दी वर्ष में लक्ष्य रखा है कि देशभर में अपनी शाखाओं की संख्या बढ़ाकर एक लाख करनी है। अपनी शाखाओं को शहर और कस्बों में नहीं बल्कि गांव तक अपनी जड़ें जमाने का है।

संघ का सामाजिक समरसता का एजेंडा सबसे महत्वपूर्ण है, जिसके जरिए जातियों में बिखरे हुए हिंदुओं को एकजुट करना है। इसी कड़ी में संघ और भाजपा ने मंदिर मस्जिद हिन्दू मुस्लिम से जुड़े मुद्दों पर भी अपनी दृष्टि दिशा और संबंधों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने पर जोर दिया है। संघ प्रमुख मोहन भागवत और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के सार्वजनिक वक्तव्यों से यह स्पष्ट है कि उनमें कोई मतभेद नहीं है। यह बात अलग है कि वे अपने अपने संगठन और सरकार के कामकाज में स्वतंत्र रुप से सक्रिय रहे हैं और भविष्य में भी रहना चाहते हैं।

जिस तरह आर्य समाज, हिन्दू महासभा, कांग्रेस, कम्युनिस्ट,समाजववादी विचारधारा और उनके कई नेताओं, कार्यकर्ताओं में गहरे मतभेद और पार्टियों के विभाजन तक हुए हैं,उसी तरह संघ या भाजपा में भी कुछ अतिवादी रहे और अब भी उनके बयानों तथा गतिविधियों से भ्र्म, विवाद और समाज तथा राष्ट्र को कुछ हद तक नुकसान भी हो रहा है। सरसंघचालक मोहन भागवत के दो तीन वर्षों के सार्वजनिक बयानों के बावजूद संगठन के अंग्रेजी साप्ताहिक प्रफुल्ल केतकर के सम्पादकीय और भाजपा के भी कुछ कट्टरपंथी नेताओं की मंदिर मस्जिद दावेदारियों के बयानों से अनावश्यक तनाव पैदा हो रहा है।

यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग ही कहा जा सकता है। देश में लगातार अलग-अलग जगहों पर उठते मंदिर-मस्जिद विवाद के बीच संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हिंदूवादी नेताओं को फिर नसीहत दी है। नसीहत कि राम मंदिर जैसे मुद्दों को कहीं और न उठाएं। उन्होंने किसी का नाम लिए बिना यह तक कह दिया कि अयोध्या में राम मंदिर बन जाने के बाद कुछ लोग ऐसे मुद्दों को उछालकर खुद को 'हिंदुओं का नेता' साबित करने की कोशिश में लगे हैं। राम मंदिर बनने के बाद कुछ लोगों को लगता है कि बाकी जगहों पर भी इसी तरह का मुद्दा उठाकर वो 'हिंदुओं के नेता' बन जाएंगे।

राम मंदिर आस्था का विषय था, और हिंदुओं को लगता था कि इसका निर्माण होना चाहिए। नफरत और दुश्मनी के कारण कुछ नए स्थलों के बारे में मुद्दे उठाना अस्वीकार्य है।' मोहन भागवत ने कहा कि भारत को सभी धर्मों और विचारधाराओं के सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। उन्होंने कहा, 'उग्रवाद, आक्रामकता, बल प्रयोग और दूसरों के देवताओं का अपमान करना हमारी संस्कृति नहीं है...यहां कोई बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक नहीं है; हम सब एक हैं। इस देश में सभी को अपनी पूजा पद्धति का पालन करना चाहिए, करने देना चाहिए।' गनीमत है कि पांचजन्य के संपादक हितेश शंकर ने संघ प्रमुख के विचारों का जोरदार समर्थन कर दिया है।

इसमें  कोई शक नहीं कि हर महापुरुष, संगठन के विचारों में समय काल के साथ कुछ बदलाव होते रहे हैं। इसलिए संघ और भाजपा में कुछ वैचारिक परिवर्तन होने पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यदि संघ या भाजपा के भटके लोगों को अधिक गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए और अतिवादियों पर नियम कानून के तहत आवश्यक कार्रवाई भी हो सकती है। बहरहाल, मेरी पत्रकारिता का अनुभव तो यही है कि संघ में गुरु गोलवलकरजी से मोहन भागवतजी और संघ से ही आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक अयोध्या, काशी, मथुरा के प्राचीन महत्व अस्तित्व और देश में जन्मे 98 प्रतिशत लोगों को विभिन्न पूजा पद्धतियों के साथ भारतीय हिंदू के रुप में स्वीकारने का सिद्धांत रहा है।

इसे संयोग अथवा सौभाग्य कहा जा सकता है कि मुझे पिछले पांच दशकों में ऐसे विभिन्न मीडिया संस्थानों और सम्पादकों पत्रकारों के साथ करीब से काम करने के अवसर मिले हैं, जो कभी संघ के समर्पित प्रतिष्ठित प्रचारक, कोई कोंग्रेसी, कोई सामाजवादी, कोई प्रगतिशील संघ विचार विरोधी रहे। जैसे 71 से 75 तक हिंदुस्तान समाचार में रहने के कारण संघ से जुड़े रहे बालेश्वर अग्रवाल , एन बी लेले , रामशंकर अग्निहोत्री , भानुप्रताप शुक्ल के साथ काम करने से उनके विचारों को समझने का लाभ मिला।

एक संपादक रामशंकर अग्निहोत्री ने दिसम्बर 1972 में दी गई एक किताब ' श्री गुरुजी व्यक्ति और कार्य "( मराठी के एन एच पालकर द्वारा लिखित अनुवादित ) आज भी मेरे पास है। इसी पुस्तक में संघ प्रमुख गुरु गोलवलकर द्वारा बम्बई ( अब मुंबई ) 1948 में दिए गए एक भाषण का अंश संभवतः आज भी महत्वपूर्ण माना जा सकता है। इसमें गुरुजी ने कहा था, भारत के प्रत्येक व्यक्ति को इसी तरह सोचना चाहिए कि जो हो रहा है, वह उचित हो या अनुचित, हमें क्षुब्ध हुए बिना समस्याओं का मूलगामी विचार करते हुए ह्रदय में किसी अपकार भावना को प्रश्रय न देकर, पारस्परिक वैमनस्य छोड़कर शांत चित्त से प्रगति करते रहना चाहिए।

सभी प्रक्षोभक कारणों को पचाकर आगे बढ़ेंगे। अपने दिल दिमाग में क्रोध का विष नहीं आने देंगे। जो दिखाई दे रहे हैं, वे जैसे भी हों, हमारे ही लोग हैं, हमारे राष्ट्र जीवन के हमारे समाज के घटक हैं। उनकी विचारधारा कैसी भी हो उन्होंने कुछ अच्छा कार्य भी किया होगा। अतः हमें अपनी स्नेहमय उदारता और बंधुता की भावना उसके लिए प्रगट करेंगे। मतलब संघ के शीर्ष नेता राष्ट्र और समाज को सर्व प्रमुख लक्ष्य मानते रहे हैं।

संघ साफ तौर पर हिंदू समाज को उसके धर्म और संस्कृति के आधार पर शक्तिशाली बनाने की बात करता है। भाजपा 2014 से देश की सत्ता में है। कई राज्यों में बीजेपी की अपने दम पर सरकार चल रही है तो कई राज्यों में सत्ता की भागीदार है। भाजपा और नरेंद्र मोदी के सत्ता में होने के चलते संघ अपने कोर एजेंडे को भी अमलीजामा पहनाने में कामयाब रहा है। जम्मू-कश्मीर से धारा 370 समाप्त हो गई है।

एक देश, एक विधान का सपना भी साकार हो रहा है। संघ का कोर एजेंडा समान नागरिक संहिता का है, जिसे अमलीजामा पहनाने का काम भी बीजेपी ने शुरू कर दिया है। उत्तराखंड के जरिए इसका प्रयोग किया जा रहा है। इतना ही नहीं केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में साफ शब्दों में कहा है कि बीजेपी शासित राज्यों में यूसीसी को लागू करेंगे। इसके लिए उन्होंने उत्तराखंड की मिसाल भी दी है। फिर संघ भाजपा में टकराव का कौनसा मुद्दा हो सकता है?

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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ऑस्ट्रेलिया से नहीं, क्रिकेट के बाजार से हारे हैं हम: नीरज बधवार ?>

सवाल यह है कि जब सारी दुनिया यह कह रही है कि रोहित के बाद अगला कप्तान बुमराह को ही होना चाहिए। वह आज तीनों फॉर्मेट में न सिर्फ दुनिया के बेस्ट बॉलर हैं, बल्कि बेस्ट खिलाड़ी भी हैं।

Last Modified:
Monday, 06 January, 2025
neerajbadhwar

नीरज बधवार, पत्रकार, लेखक।

सिडनी टेस्ट के दूसरे दिन, जब जतिन सप्रू रोहित शर्मा का इंटरव्यू कर रहे थे, तभी उन्होंने रोहित से एक अजीब सा सवाल पूछा। जतिन ने पूछा, आपको क्या लगता है कि इस टीम में बुमराह के अलावा ऐसा कौन है जो टीम इंडिया का अगला कप्तान हो सकता है? फिर, दूसरे दिन का खेल ख़त्म होने पर, मयंती लैंगर ने ठीक यही सवाल संजय मांजरेकर से पूछा, आपको क्या लगता है कि अगर हम बुमराह को छोड़ दें, तो रोहित के अलावा इस टीम में कौन सा खिलाड़ी है जो अगला कप्तान हो सकता है?

मांजरेकर ने कहा, मुझे नहीं लगता कि बुमराह के अलावा कोई और कप्तान हो सकता है। मयंती के एक-दो बार कुरेदने पर भी, जब मांजरेकर बुमराह के अलावा किसी और का नाम लेने के लिए तैयार नहीं हुए, तो मयंती ने कहा, अरे, जैसे इस मैच में बुमराह के जाने के बाद कोहली ने कप्तानी की थी। मगर मांजरेकर अब भी झांसे में नहीं आए और उन्होंने अगले कप्तान के तौर पर बुमराह का ही नाम लिया। अब सवाल यह है कि जब सारी दुनिया यह कह रही है कि रोहित के बाद अगला कप्तान बुमराह को ही होना चाहिए। वह आज तीनों फॉर्मेट में न सिर्फ दुनिया के बेस्ट बॉलर हैं, बल्कि बेस्ट खिलाड़ी भी हैं।

अपनी कप्तानी में वह भारत को पर्थ टेस्ट जितवा भी चुके हैं। ऐसे में क्या वजह थी कि जतिन सप्रू और मयंती रोहित और संजय मांजरेकर से बुमराह के अलावा कौन कप्तान हो सकता है? का सवाल पूछ रहे थे। अगर आप इस सवाल के पीछे की सोच को समझेंगे, तो यह भी आसानी से समझ जाएंगे कि भारतीय टीम लगातार टेस्ट में बुरा प्रदर्शन क्यों कर रही है। अगर आप इस सवाल के पीछे की नीयत को समझ जाएंगे, तो यह भी आपको पता लग जाएगा कि आखिर क्या वजह है कि पिछले 4-5 सालों से खराब प्रदर्शन करने के बावजूद कुछ खिलाड़ी टीम से क्यों नहीं निकाले जा रहे।

आपको यह समझने में भी देर नहीं लगेगी कि टीम इंडिया ने ऑस्ट्रेलिया में आठ-आठ बैट्समैन क्यों खिलाए और टीम इंडिया ने विदेशी दौरों पर प्रैक्टिस मैच खेलने क्यों बंद कर दिए हैं। स्टार स्पोर्ट्स ने "बुमराह के अलावा" वाला सवाल बार-बार क्यों पूछा? तो इसका सीधा सा जवाब है कि बुमराह sellable नहीं हैं। वह विकेट लेने के बाद कोई नौटंकी नहीं करते। वह स्टाइल आइकन नहीं हैं। उन्होंने एजेंसीज़ को पैसे देकर सोशल मीडिया पर अपने फैन पेज नहीं बनवा रखे हैं। इसलिए, इतना बड़ा प्लेयर होने के बावजूद, उन्हें लेकर वैसा हल्ला नहीं होता।

दूसरी तरफ, कोहली sellable हैं। तभी आपको वह बीजीटी सीरीज़ के प्रोमो में कप्तान से ज़्यादा दिखते हैं। भले ही कोहली ने 4 साल से टेस्ट में रन न बनाए हों, मगर बावजूद इसके स्टार स्पोर्ट्स लंच से लेकर टी ब्रेक के बीच में आपको यह याद दिलाना नहीं भूलता कि कोहली ने कैसे 2014-15 की सीरीज़ में कितने रन बनाए थे। भारी दबाव के बावजूद रोहित शर्मा को सिडनी टेस्ट से पीछे हटना पड़ा। लेकिन उनके टेस्ट से ड्रॉप होने के बाद जब उनके रिटायरमेंट की ख़बरें चलने लगीं और बात ब्रांड वैल्यू कम होने पर आ गई, तो उन्होंने बिना किसी बड़ी वजह के स्टार स्पोर्ट्स को न सिर्फ इंटरव्यू दिया, बल्कि बिना किसी के पूछे यह भी बोल दिया कि "मैं अभी रिटायर नहीं हो रहा हूं।"

और तो और, शाम होते-होते रोहित की किरकिरी तब हो गई जब सोशल मीडिया पर फरहान अख्तर और विद्या बालन जैसी कुछ celebrities ने रोहित के पक्ष में ट्वीट कर दिए। कुछ ही देर में यह साफ हो गया कि यह सब पीआर एजेंसीज़ का किया-धरा है, ताकि रोहित के पक्ष में एक भावुक माहौल बनाया जा सके। और यह बाज़ार क्रिकेट पर इतना हावी है। तभी तो 4 सालों से टेस्ट में 30 की औसत रखने के बावजूद, कोहली को टीम से बाहर निकालने की कोई बात नहीं करता। अगर कभी होती भी है, तो ऐसा माहौल बनाया जाता है जैसे उनके बाहर जाते ही भारतीय टीम सड़क पर आ जाएगी।

यही सब बातें रोहित शर्मा पर भी लागू होती हैं। जबकि हकीकत यह है कि इन्हीं कोहली के बिना भारत ने 2021 में ऑस्ट्रेलिया को उनके घर में हराया था। इन्हीं कोहली के बिना भारत ने पिछले साल इंग्लैंड को भारत में 4-1 से हराया था। रोहित शर्मा ने टी20 से भले ही रिटायरमेंट ले लिया हो, मगर वह वनडे खेलते रहें, इसके लिए यशस्वी जायसवाल जैसे प्लेयर को वनडे टीम में जगह नहीं मिल रही। रोहित ने जब दोबारा टेस्ट टीम में वापसी की, तो मयंक अग्रवाल को बिना किसी बुरी परफॉर्मेंस के ठिकाने लगा दिया गया।

पूरे ऑस्ट्रेलिया दौरे में टीम इंडिया आठ-आठ बल्लेबाज़ों के साथ खेली, ताकि जैसे-तैसे कुछ रन बन जाएं और इन बड़े खिलाड़ियों की खराब फॉर्म पर सवाल न उठें। एक से दूसरे मैच के बीच कोई प्रेक्टिस मैच भी नहीं खेले जाते ताकि बैंच पर बैठे बैट्समैन रन बनाकर रन नहीं बना रहे सीनियर खिलाड़ियों की जगह पर अपना दावा न ठोक दें।मगर हुआ क्या...आठ- आठ बल्लेबाज़ों को खिलाने के बावजूद, 5 मैचों की 9 पारियों में भारत 6 बार 200 रन भी नहीं बना पाया।

हर मैच भारत ने सिर्फ 3 गेंदबाज़ों के साथ खेला। उनमें भी भारत के दूसरे या तीसरे नंबर के गेंदबाज़ स्किल के मामले में बुमराह के एक चौथाई भी नहीं थे। इसके बावजूद हम हैरान होते हैं कि हम सीरीज़ कैसे हार गए। मेरा शिद्दत से मानना है कि अगर लगातार फ्लॉप चल रहे सीनियर प्लेयर्स की जगह आपने दूसरे प्लेयर्स को मौका दिया होता, तो हमें एक साल पहले यशस्वी जायसवाल और नीतीश रेड्डी जैसे एक-दो consistent batsman पक्का मिल जाते। फिर आपको अपने बैट्समैन पर भरोसा होता।

आप 8 के बजाय 7 बैट्समैन खिलाते और एक गेंदबाज़ और खिला पाते। लेकिन भारत में गेंदबाज़ तो दिहाड़ी मज़दूर वर्ग से आता है। उस बेचारे की कौन सुनता है।आपने अकेले बुमराह को रगड़-रगड़ कर उनकी कमर तोड़ दी। इन सीनियर खिलाड़ियों की खराब फॉर्म को डिफेंड करने के लिए बनाई गई आपकी ही नीति आपका काल बन गई। ऐन मौके पर बुमराह इंजर्ड हो गए और सिर्फ दो प्रॉपर गेंदबाज़ों के साथ आप सिडनी की उस मुश्किल विकेट पर आप 161 रन का स्कोर डिफेंड नहीं कर पाए।

जैसे क्रिकेट प्लेयर्स को हार या जीत देखने की आदत होती है, उसी तरह क्रिकेट फैंस भी इस हार या जीत के आदी हो जाते हैं। मगर तकलीफ तब होती है जब आप देखते हैं कि कुछ खिलाड़ी खेल से भी बड़े हो गए हैं। उन बड़े खिलाड़ियों के करियर बचाने के लिए आप अपनी बेस्ट इलेवन ही नहीं उतार रहे हैं। सिडनी टेस्ट के दूसरे दिन बुमराह का इंजर्ड होना हर क्रिकेट फैन के लिए अफसोस की बात थी। अगर बुमराह इंजर्ड न होते, तो इंडिया मैच जीतकर सीरीज़ भी बचा सकता था।

और इंडिया सीरीज़ बचा लेता तो कई खिलाड़ियों के कुकर्मों पर पर्दा पड़ जाता। लेकिन जो हुआ, वह किसी poetic justice से कम नहीं था। आपने अपने फिसड्डी बल्लेबाज़ों को शर्मिंदगी से बचाने के लिए अपनी टीम में शामिल दुनिया के महानतम गेंदबाज़ के वर्कलोड की परवाह नहीं की। और ऐन मौके पर उनके ज़ख्मी होने से आपकी गेंदबाज़ी की गहराई expose हो गई और आप सीरीज़ हार गए। भारत में जब तक क्रिकेट से ऊपर क्रिकेट के स्टार्स को रखा जाएगा, और खेल से ऊपर खेल के बाज़ार को, तब तक यही होता रहेगा जो बीजीटी में हुआ है।

दुनिया के किसी भी हिस्से में खेल प्रेमियों के लिए खेल सिर्फ खेल नहीं होता बल्कि वो उनकी खुशियों और दुख का ठिकाना होता है। मैच के एक-एक लम्हे में उसका भावनात्मक निवेश होता है। जब टीम जीतती है तो उसके अंदर का मामूली इंसान भी जीतता है और जब टीम हारती है तो वो अंदर से टूट जाता है। और जब आप खेल में न हारकर खेल के बाज़ार से हार जाएँ तो इससे बुरा और कुछ भी नहीं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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