'भारत की सकारात्मक छवि और उपलब्धियों को भी दिखाएं CNN, BBC जैसे विदेशी मीडिया संस्थान'

न्यूज मीडिया में सनसनीखेज समाचार ही सबसे ज्यादा देखे व पढ़े जाते हैं, खासकर आजकल के डिजिटल युग में, जहां पर ज्यादातर नकारात्मक टिप्पणियां यानी निगेटिव बातें ही हेडलाइंस बनती हैं

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Sunday, 24 October, 2021
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डॉ. अनुराग बत्रा।।

न्यूज मीडिया में सनसनीखेज समाचार ही सबसे ज्यादा देखे व पढ़े जाते हैं, खासकर आजकल के डिजिटल युग में, जहां पर ज्यादातर नकारात्मक टिप्पणियां यानी निगेटिव बातें ही हेडलाइंस बनती हैं और उन्हीं से पेज व्यूज बढ़ने के साथ ही रेवेन्यू में इजाफा होता है। न्यूज संस्थानों और संपादकों की बात करें तो चाहे वो डिजिटल हो या टेलिविजन, तमाम विषयों पर स्टोरी कर रहे हैं, लेकिन अधिकांश मामलों में पूरे देश में और यहां के लोगों में नकारात्मकता पर ज्यादा रोशनी डाली जाती है। ऐसे में फिर इसका उपयोग केवल बदनाम करने के लिए किया जाता है और यहां तक कि आतंकित करने के लिए भी किया जाता है, हर कोई एक लाइन में खड़ा नजर आता है। एक ऐसी रेखा जिसे मीडिया ने खींचने का फैसला किया है। 

लेकिन इससे पहले की मैं अपने द्वारा प्रस्तुत किए जा रहे तर्कों की गहराई में उतरूं, मैं बता देना चाहता हूं कि मैं एक वैश्विक यात्री और नागरिक हूं। मैं बिना किसी झिझक के कह सकता हूं कि मैं अमेरिका से प्रभावित हूं। मुझे हॉलीवुड से उतना ही प्यार है, जितना कि मुझे भारतीय सिनेमा से। मैं अमेरिका में आइवी लीग विश्वविद्यालयों में अपने दोनों बच्चों के स्टूडियो को देखना चाहता हूं और इसकी संस्कृति, व्यापार और शेयर बाजारों से प्रभावित हूं। इस देश में इनोवेशन की संस्कृति है जो समस्याओं को हल करती है और बड़ी कंपनियों का निर्माण करती है और एंटरप्रिन्योरशिप को चलाती है, जैसा और कहीं नहीं है। मेरा जन्मदिन भी उसी दिन (27 अगस्त) होता है, जिस दिन दो बार अमेरिका के राष्ट्रपति रह चुके लिंडन बेन्स जॉनसन (Lyndon B Johnson) का होता है। मैं अमेरिका और हर अमेरिकी के लिए अपने प्यार के बारे में बता सकता हूं। लेकिन मुझे अमेरिका की एक चीज सबसे ज्यादा अच्छी लगती है और वह है मीडिया... वह भी मेरे बिजनेस की वजह से।

मैं खासतौर पर सबसे ज्यादा ‘सीएनएन’ (CNN) को पसंद करता हूं और जिस तरीके का वह कंटेंट देता है, चाहे वह न्यूज हो या ब्रैंड वह काफी विकसित और बेहतर पैकेज में होता है, जिसे मैं काफी पसंद करता हूं। ‘सीएनएन इंटरनेशनल‘ मेरा पसंदीदा चैनल है और मैं उसे रोजाना दो से चार घंटे देखता हूं और रविवार को यह समय छह घंटे से भी ज्यादा हो सकता है। इसके दो ऐसे शो हैं-फरीद जकारिया का ‘GPS’ और ब्रायन स्टेल्टर का ‘Reliable Sources’, जिन्हें मैं कभी मिस नहीं करता। यहां कि यदि मैं व्यस्त भी होता हूं तो मैं ये सुनिश्चित करता हूं कि ये रिकॉर्ड हो जाएं और दिन में देर भी हो जाए तो मैं इन्हें देख लूं। मैं जिससे मिलता हूं चाहे निजी अथवा बिजनेस के सिलसिले में, उन तमाम लोगों से भी मैं इन शो को देखने के लिए कहता हूं और ऐसे लोगों की गिनती शायद हजारों में है। वैश्विक राजनीति और वैश्विक मीडिया में रुचि रखने वाले तमाम भारतीयों की तरह मैं खाड़ी युद्ध के बाद से सीएनएन से जुड़ा हुआ हूं।

रिज खान जैसे दिग्गज का मैं कई वर्षों से प्रशंसक हूं और करीब 12 साल पहले मैंने रिज खान को एक्सचेंज4मीडिया न्यूज ब्रॉडकास्ट कॉन्फ्रेंस ‘न्यूजनेक्स्ट’ (NewsNxt) में आमंत्रित किया था। इसके अलावा न्यूज को लेकर मैं एक और संस्थान ‘बीबीसी’ (BBC) को काफी पसंद करता हूं और उसका सम्मान करता हूं। मैं टिम सेबस्टियन के शो ‘Hard Talk’ को देखते हुए बड़ा हुआ हूं और इसके नए होस्ट को देखना अभी तक जारी है। मुझे ‘एक्सचेंज4मीडिया’ में मैथ्यू अमरोलीवाला की मेजबानी करने का सौभाग्य मिला है और वह मुलाकात काफी शानदार थी। निजी तौर पर मैं ‘बीबीसी इंडिया’ की तत्कालीन बिजनेस हेड सुनीता राजन की शादी में भी शामिल हुआ था। हालांकि, टिम सेबस्टियन के साथ एक घंटे की बातचीत काफी बेहतरीन थी। ‘सीएनएन’ के बाद मुझे ‘बीबीसी’ काफी पसंद है। मैं सीएनएन और बीबीसी को लेकर अपनी पसंद, उनके प्रति मेरे सम्मान और मुझ पर उनके प्रभाव के बारे में बहुत सारी बात कर सकता हूं। दोनों टॉप न्यूज और लाइव इवेंट्स के अलावा घरेलू बाजार को लेकर भी अपना नजरिया रखते हैं। मुझे यह भी लगता है कि इन दो प्रमुख प्लेटफार्म्स के बीच कई बार कंटेंट की समरूपता (convergence) होती है, हालांकि, शैली और इसे प्रस्तुत करने का तरीका अलग रहता है।

लेकिन मैं यह सब आपके साथ क्यों शेयर कर रहा हूं? मैं आपको यह बताने के लिए यह सब शेयर कर रहा हूं कि जब मैं अपने विचार प्रस्तुत करता हूं तो उसका बैकग्राउंड होता है कि मैं सीएनएन और बीबीसी के साथ जुड़ता हूं- टीवी पर और अब डिजिटल रूप से- और जो कुछ वे कहते हैं, उससे मैं भलीभांति परिचित हूं। हालांकि उनका अपना एजेंडा, विश्वास और शायद कभी-कभी पूर्वाग्रह भी होता है, इसके बावजूद मैं उनका सम्मान करता हूं। मुझे उनके एंकर्स की उच्च क्वालिटी को लेकर भी काफी विश्वास है। मीडिया इंडस्ट्री में होने के नाते और इसके साथ ही उनके साथ निजी तौर पर मिलकर बातचीत करने के नाते मैं ये सब जानता हूं। इनमें से बहुत से मीडिया प्रोफेशनल्स भी भारतीय हैं अथवा भारतीय मूल के हैं। मेरे तर्क के बारे में यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है।

इस साल की शुरुआत में भारत में कोविड-19 महामारी के दूसरे चरण के दौरान, सीएनएन, बीबीसी समेत तमाम वैश्विक मीडिया संस्थानों ने भारत पर अपना ध्यान केंद्रित किया और कई खबरें कीं। उन्होंने ग्राउंड रिपोर्टिंग की और दिल दहला देने वाली स्टोरीज दिखाईं। इनमें जलती चिताएं, अंतिम संस्कार के लिए रखीं लाशें और शोक संतप्त रिश्तेदारों को दिखाया गया। वे भारत सरकार, यहां के समाज और लोगों की लगातार आलोचना कर रहे थे। उन्हें ऐसी पार्टियों का साथ मिल गया, जो सरकार की आलोचक हैं या मैं कहूं कि भारत को विभाजित करने वाली हैं, विपक्ष में हैं अथवा देश के सामने आने वाली प्रतिकूलताओं अथवा परेशानियों को और बढ़ाने वाली हैं। किसी भी तरह से देश में सब कुछ इतना डरावना नहीं था। केंद्र और राज्य सरकारें और भी बहुत कुछ कर सकती थीं, एक समाज के रूप में हम और बेहतर हो सकते थे और एक नागरिक के रूप में हम और मदद कर सकते थे।

पिछले दिनों कैबिनेट में हुए फेरबदल में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री को महामारी से खराब तरीके से निपटने और उनके मंत्रालय की इस मामले में ढिलाई के लिए उन्हें बाहर कर दिया गया था। प्रधानमंत्री ने इस पर संज्ञान लिया और कार्रवाई की। नए मंत्री की नियुक्ति और प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) की निगरानी से वैक्सीनेशन की गति तेज हो गई है। स्वास्थ्य मंत्रालय और नए स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया, वैक्सीन और कोविड-19 के लिए गठित टास्क फोर्स के प्रमुख आरएस शर्मा, विभिन्न राज्य सरकारें, सिविल सोसायटीज, डॉक्टर, स्वास्थ्य कार्यकर्ता, गैर सरकारी संगठन, कॉर्पोरेट और सबसे महत्वपूर्ण कि देश के लोगों ने केंद्र सरकार के माध्यम से स्थिति को बेहतर ढंग से प्रबंधित करने में मदद की और टीकाकरण की एक अरब खुराक को लोगों तक पहुंचाने का अविश्वसनीय सा मुकाम हासिल कर लिया। भारत के नागरिकों ने अपनी सरकार पर भरोसा किया और मेरे हिसाब से पीएम मोदी की विश्वसनीयता के आलोक में बाहर जाकर टीका लगावाया। 700 मिलियन से अधिक भारतीयों को टीके की एक खुराक मिली है और 300 मिलियन से अधिक लोगों का पूरी तरह से टीकाकरण हो गया है। हम अभी भी हार नहीं मान रहे हैं। हम एक नया और ऊंचा मील का पत्थर चुनेंगे और इसे हासिल करेंगे। यहां तक कि अप्रैल से प्रशासन बूस्टर खुराक शुरू करने पर भी विचार कर रहा है। कोविन की सफलता प्रशासन के कार्यक्रम की प्रगति में एक अविश्वसनीय उत्प्रेरक रही है। वैश्विक स्तर पर यह एक बड़ी उपलब्धि है।

हम अमेरिका और यूरोप समेत अन्य देशों में वैक्सीन को लेकर हिचकिचाहट और अपेक्षाकृत कम आंकड़ों को देखें, तो पता चलेगा कि  ये वही देश हैं जो भारत को उपदेश दे रहे हैं। सीएनएन और बीबीसी के नेतृत्व वाले मीडिया प्लेटफॉर्म्स जिन्होंने भारत को नीचा दिखाया है, उन्हें अब निश्चित रूप से यह महसूस करना चाहिए कि वे भारत की इतनी खराब इमेज बनाने के लिए काफी कठोर थे, क्योंकि उन्होंने जानबूझकर देश की वैश्विक विश्वसनीयता को कम किया है। हम अपने टीकाकरण कार्यक्रम के कारण आर्थिक सुधार की राह पर हैं। 

पीएम मोदी ने अपने संबोधन में इसका जिक्र किया है। उन्होंने जो कुछ हो रहा है, उसकी व्यापक रूपरेखा को सामने रखा और अर्थव्यवस्था को विकास की पटरी पर और गति से वापस लाने की योजना भी बनाई है।

निष्पक्ष न्यूज प्लेटफॉर्म्स के रूप में ‘सीएनएन’ और ‘बीबीसी’ को संभवतः अब भारत में स्टेकहोल्डर्स और आम नागरिकों से बात करनी चाहिए कि वे कैसा महसूस करते हैं। मुझे पता है कि भारत कोविड की तीसरी लहर की आशंका को देखते हुए खुद को तैयार करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है, फिर चाहे वह अस्पताल के बेड हों, स्वास्थ्य सेवा का बुनियादी ढांचा हो, ऑक्सीजन की उपलब्धता या अन्य व्यवस्थाएं हों। मुझे उम्मीद है कि ‘सीएनएन’ और ‘बीबीसी’ अब अपने कार्यक्रमों में टीकाकरण को तैयारी और सफलता के लिए भारत के प्रयासों को प्रमुखता से सामने लाएंगे। मुझे उम्मीद है कि ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ और ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ भारत में बड़े पैमाने पर हुए वैक्सीनेशन और इसकी बड़ी सफलता की तस्वीरें वैश्विक पटल पर सामने रखेंगे। मुझे उम्मीद है कि विदेशी मीडिया वैक्सीनेशन समेत तमाम क्षेत्रों में भारत सरकार की सफलता को दिखाएगा। देश की सामाजिक संस्थाओं (civil society), गैर सरकारी संगठनों, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं और यहां तक कि मीडिया संस्थानों ने भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मैं वैक्सीन की दोनों डोज ले चुका हूं और यह उतना ही आसान था, जितना कि पास की कॉफी शॉप में कॉफी लेना।

मैं पिछले 20 वर्षों के अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि विदेशी मीडिया भारत की नकारात्मक छवि को उभारता है और विशेष रूप से यहां की उपलब्धियों को कम दिखाता है। एनडीए सरकार के पिछले करीब साढ़े साल के कार्यकाल में इसमें और इजाफा हुआ है। देश विरोधी तत्वों का प्रतिनिधित्व करने वाले कई भारतीय पत्रकारों ने अपने निहित स्वार्थों के लिए मौजूदा सरकार और प्रधानमंत्री के खिलाफ प्रचार को और बढ़ाने का काम किया है। विदेशी मीडिया को इन विचारों को संतुलित तरीके से पेश करना चाहिए और भारत के विकास में सभी हितधारकों से बात करना चाहिए, चाहे वे राजनेता हों, नीति निर्माता हों, सरकारी अधिकारी, मीडिया और स्वतंत्र विश्लेषक हों। मेरा मानना है कि आलोचना के साथ-साथ भारत की सकारात्मकता को दिखाना भी उनका कर्तव्य है, जो यहां हो रही है। 
भारत आगे बढ़ रहा है और अगले तीन वर्षों में यह काफी तेज गति से आगे बढ़ेगा- और मैं वादा कर सकता हूं कि कोई भी पश्चिमी पत्रकार न तो समझ रहा है, न ही विश्लेषण कर रहा है और न ही उसमें इतना साहस है कि आंखें खोलकर देखे कि इस सरकार और पीएम के नेतृत्व में भारत ने कितनी प्रगति की है। यह भारत, यहां के नागरिकों, सरकार और पीएम को श्रेय देने का समय है। कृपया निष्पक्ष होने में संकोच न करें।

भारत में समावेशी मानवतावाद है। हम भारतीय हमेशा ही रचनात्मक, मेहनती, ईमानदारी व निस्वार्थ सेवा देने वाले रहे हैं। महामारी के दौरान पिछले 18 महीनों में हमने देशवासियों को अपने लोगों के समर्थन में दिल खोलकर पैसा खर्च करते व हर तरह से मदद करते देखा है। मैं विदेशी मीडिया में देखना चाहता हूं कि वह हमारी कमियों के साथ-साथ हमारे वैक्सीनेशन प्रोगाम की पूरी सफलता की कहानी को भी दिखाएं, संख्या दिखाएं, आंकड़े दिखाए और हमारी प्रगति को भी दिखाएं। ऐसा कुछ जो हर देश ने महामारी के दौरान अनुभव किया है और वह भी जिस पर अभी तक उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है, जो हमारे हासिल किया है।

प्रधानमंत्री को आत्मनिर्भर अभियान के लिए धन्यवाद। दुनियाभर की परेशानियों को हल करने में अपना सहयोग देने के लिए हम भारतीय हमेशा ही मजबूती के साथ खड़े रहते हैं। एक भारतीय के तौर पर हम जानते हैं कि दुनिया में कहीं भी कुछ होता है, तो उसका प्रभाव वैश्विक स्तर पर पड़ता है। देश में इतने बड़े पैमाने पर टीकाकरण अभियान को लेकर भारत में दुनिया के लिए एक रोल मॉडल बनने की क्षमता है। साथ ही हमारे कई नेताओं, सरकारों और सामाजिक संस्थाओं में भी टीकाकरण अभियान में तेजी लाकर और दुनिया की मदद कर प्रेरणास्रोत बनने की क्षमता है।

इसलिए मैं वैश्विक मीडिया से कहना चाहता हूं कि भगवान के लिए जागिए और आगे बढ़कर यहां की सकारात्मकता को दिखाइए (smell the coffee)। टीकाकरण में भारत की सफलता को दुनिया के सामने लाने का समय आ गया है। दुनिया को बचाने में भारत अग्रणी भूमिका निभा सकता है। भारत को आगे करना मतलब दुनिया को आगे बढ़ाना है। बेहतर उपलब्धि के लिए हम भारतीयों के साथ-साथ यहां की सरकार को भी कुछ श्रेय दीजिए।

आखिर में मैं यह कहना चाहता हूं कि जब मैंने यह सब लिखा तो मुझे यह देखकर निराशा हुई कि ‘सीएनएन’ ने अपनी एक स्टोरी में शीर्षक दिया है, जिसमें कहा गया है, ‘भारत ने एक बिलियन लोगों को कोविड वैक्सीनेशन दिया है, लेकिन अभी भी लाखों लोग ऐसे हैं, जिन्हें पहली डोज लगनी बाकी है।’ यहां कहना चाहूंगा कि यदि अनिच्छा से किसी की तारीफ करना हो तो ही ऐसे किया जा सकता है।

(लेखक ‘बिजनेसवर्ल्ड’ समूह के चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ और ‘एक्सचेंज4मीडिया’ समूह के फाउंडर व एडिटर-इन-चीफ हैं।)

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अंग्रेजी के श्रेष्ठता बोध को खत्म करने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे: अनंत विजय

देशभर में हिंदी पखवाड़ा मनाया जा रहा है। कई कार्यालयों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ाने के लिए शपथ आदि भी दिलवाया जा रहा है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Wednesday, 27 September, 2023
Last Modified:
Wednesday, 27 September, 2023
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तम्भकार।

इस समय देश भर के सरकारी कार्यालयों, सरकारी उपक्रमों, कई महाविद्यालयों आदि में हिंदी पखवाड़ा मनाया जा रहा है। भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने पुणे में राजभाषा अधिकारियों और हिंदी प्रेमियों को आमंत्रित कर राजभाषा सम्मेलन का आयोजन किया। हिंदी पखवाड़ा मनाए जाने के बीच दो खबरों ने ध्यान आकृष्ट किया। पहली खबर कानपुर से 'दैनिक जागरण' में विगत शुक्रवार को प्रकाशित हुई थी। ये समाचार अखिल भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी सोमेश तिवारी से जुड़ा है। तिवारी का दावा है कि अक्तूबर 2022 में उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारी को विभाग में अधिकतर कामकाज अंग्रेजी में होने के बाबत पत्र लिखा था। अनुरोध ये भी किया था कि अधिकतर कामकाज राजभाषा हिंदी में किया जाना चाहिए।  उन्होंने विभाग की हिंदी पत्रिका के लिए समुचित राशि के आवंटन की मांग भी की। उनका आरोप है कि उनके वरिष्ठ अधिकारी को ये नागवार गुजरा। उन्होंने न केवल विभागीय हिंदी पत्रिका बंद कर दी बल्कि सोमेश तिवारी का तबादला आंध्र प्रदेश के गुंटूर कर दिया। इसके पहले भी हिंदी में कार्यालय का कामकाज करने को लेकर उनका तबादला गुवाहाटी कर दिया गया था। मामला अदालत तक गया था और निर्णय तिवारी के पक्ष में आया था। इस बार भी उन्होंने प्रधनामंत्री और गृहमंत्री आदि को पत्र लिखकर अपनी व्यथा बताई है।

दूसरी खबर जम्मू से आई। इसमे बताया गया है कि जम्मू कश्मीर पुलिस ने जम्मू संभाग में अपने कार्यलयों में हिंदी के उपयोग को बढ़ावा देने के बीस सदस्यीय समिति का गठन किया है। 5 अगस्त 2019 को संसद ने जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देनेवाले संविधान के अनुचछेद 370 को खत्म कर दिया था। इसके पहले जम्मू कश्मीर के सरकारी कार्यालयों में उर्दू और अंग्रेजी में कामकाज होता था क्योंकि वहां की राजभाषा हिंदी नहीं थी। सितंबर 2022 में लोकसभा ने जम्मू कश्मीर की आधिकारिक भाषा अधिनियम पास किया। इसके बाद कश्मीरी, डोगरी और हिंदी को जम्मू कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश में आधिकारिक भाषा का दर्जा मिला। इस अधिनियम के कानून बनने के बाद जम्मू संभाग के सरकारी कार्यालयों में राजभाषा हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देन के प्रयास आरंभ हुए। जम्मू कश्मीर पुलिस का हिंदी को बढ़ावा देने के लिए समिति निर्माण का निर्णय इसका ही अंग है। स्वाधीनता के बाद पूरे देश में हिंदी राजभाषा के रूप में प्रयोग में लाई जा रही थी लेकिन अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू कश्मीर को जो विशेष दर्जा प्राप्त होने के कारण वहां सरकारी कार्यालयों में राजभाषा हिंदी का प्रयोग नहीं हो रहा था। अब हिंदी के साथ साथ डोगरी और कश्मीरी को भी समान अधिकार मिला है। यह स्थानीय भाषाओं को महत्व देकर हिंदी को शक्ति प्रदान करने की कोशिशों का हिस्सा है। स्थानीय भाषाओं की समृद्धि के साथ हिंदी का भविष्य जुड़ा हुआ है।

हिंदी पखवाड़े के दौरान केंद्रीय सेवा के एक अधिकारी के हिंदी प्रेम के चलते तबादले का समाचार आना, दूसरी तरफ स्वाधीनता के बाद हिंदी को मान देने के लिए प्रयास आरंभ होना, विरोधाभास जैसा प्रतीत होता है। दरअसल सरकारी कार्यालयों में हिंदी के प्रयोग में सबसे बड़ी बाधा अधिकारियों की वो मानसिकता है जिसमें उनको लगता है कि अंग्रेजी श्रेष्ठ है। अफसरों में अंग्रेजी को लेकर जो श्रेष्ठता बोध है वो अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों के बीच गहरे तक धंसा हुआ है। आज हालात ये है कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री अपने भाषणों में, अपने सरकारी कामकाज में हिंदी को प्राथमिकता देते हैं। जब अखिल भारतीय सेवा के अधिकारी प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से संवाद करते हैं तो वो हिंदी में होता है। इनको जो फाइलें भेजी जाती हैं,उनमें अधिकतर टिप्पणियां हिंदी में होती हैं। प्रधानमंत्री ने पिछले वर्ष लाल किले की प्राचीर से पांच प्रण की घोषणा की थी। उसमें एक प्रण पराधीनता की मानसिकता को खत्म करने का भी था। अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों में भाषा को लेकर गुलामी की मानसिकता सबसे अधिक है। इसी मानसिकता का परिणाम है कि हिंदी के प्रयोग करने का प्रयास करनेवाले अधिकारी को गैर हिंदी प्रदेश के ऐसे जिले में भेज दिया जाता है जहां हिंदी का उपयोग एक चुनौती है। अमृत काल में पराधीनता की इस मानसिकता से मुक्ति सबसे बड़ी चुनौती है।

पुणे में भले ही राजभाषा सम्मेलन का आयोजन हो गया। फिल्मी सितारों और चमकते चेहरों से हिंदी में संवाद भी हुआ,शब्दकोश आदि की घोषणा की गई। उसके बाद देशभर में हिंदी पखवाड़ा मनाया जा रहा है। कई कार्यलयों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ाने के लिए शपथ आदि भी दिलवाया जा रहा है। लेकिन अंग्रेजी के श्रेष्ठता बोध को खत्म करने के लिए किसी प्रकार का कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है। नई शिक्षा नीति में मातृभाषा और भारतीय भाषाओं पर जोर दिया गया है लेकिन इसके क्रियान्वयन की गति थोड़ी धीमी है। गांधी जी को इस बात की आशंका थी और वो बार बार हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रयोग को लेकर आग्रह करते रहते थे। 1921 में ही उन्होंने कहा था कि अंग्रेजी से प्रेरणा लेने की गलत भावना से छुटकारा होना स्वराज्य के लिए अति आवश्यक है। फिर उन्होंने 1947 में हरिजन पत्रिका में एक लेख लिखकर कहा था कि जिस प्रकार भारत के लोगों ने सत्ता हड़पनेवाले अंग्रेजों के राजनैतिक शासन को सफलतापूर्वक उखाड़ फेंका उसी प्रकार सांस्कृतिक अधिग्रहण करनेवाली अंग्रेजी को भी हटा देना चाहिए। यह आवश्यक परिवर्तन करने में जितनी देरी होगी उतनी ही अधिक राष्ट्र की सांस्कृतिक हानि होती जाएगी। जब संविधान लागू हुआ तो तय ये हुआ कि अंग्रेजी चलती रहेगी। हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो मिला लेकिन अंग्रेजी के साथ साथ चलते रहने के निर्णय के कारण राजकाज की प्राथमिक भाषा अंग्रेजी बनी रही। स्वाधीनता के बाद सत्ता में आए नेता गांधी की बातों को राजनीतिक कारणों से नजरअंदाज करते रहे।

संविधान लागू होने के 15 वर्ष बाद हिंदी और अंग्रेजी के प्रयोग को लेकर पुनर्विचार आरंभ हुआ। उस वक्त के गृह मंत्री लालबहादुर शास्त्री ने संसद में कहा कि ‘हम अंग्रेजी को अनिश्चित काल के लिए जीवन-दान दे रहे हैं, अनंत काल के लिए नहीं।‘ तब कवि लेखक रामधारी सिंह दिनकर ने गृहमंत्री के उक्त वाक्य को उद्धृत करते हुए कहा था कि ‘जिस प्रकार सरकार भाषा को लेकर में कार्य करती है, उससे मुझे भय होता है कि वह ‘कल-कल’ की बात अनंत काल तक बढ़ जाएगी।‘ वही हुआ। 1963 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संसद में एक ऐसा वाक्य कह दिया जिसकी वजह से अंग्रेजी आज भी सरकारी कामकाज में प्राथमिकता पर है। तब नेहरू ने कहा था कि ‘जबतक अहिंदी भाषी राज्य अंग्रेजी को चलाना चाहेंगे तब तक हिंदी के साथ-साथ केंद्र में अंग्रेजी भी चलती रहेगी।‘ यह ठीक बात है कि ये अंग्रेजी के श्रेष्ठता बोध की जो औपनिवेशिक मानसिकता है उसको खत्म करना या कम करना बेहद चुनौतीपूर्ण है। यह चुनौती आज की है भी नहीं। नेहरू जी स्वयं हिंदी से अधिक अंग्रेजी में सहज थे इस कारण भी अधिकारी सरकारी कामकाज में अंग्रेजी को प्राथमिकता देते थे। अब आवश्यकता इस बात की है कि भाषा को लेकर देशव्यापी चर्चा हो। भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी के मुकाबले प्राथमिकता देने को लेकर राज्य सरकारों को विश्वास में लिया जाए। गैर हिंदी प्रदेशों में हिंदी को लेकर जो एक भय का छद्म वातावरण तैयार किया गया है उसका निषेध किया जाए। भाषा को राजनीति से दूर रखा जाए। अगर ऐसा हो पाता है तो हिंदी समेत तमाम भारतीय भारतीय भाषाओं को ताकत मिलेगी और किसी सोमेश तिवारी को हिंदी में कामकाज करने के लिए गुंटूर भेजने का साहस कोई अधिकारी नहीं कर पाएगा।   

(साभार - दैनिक जागरण)

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मोदी के जेंडर जस्टिस बनाम राहुल के सोशल जस्टिस के बीच होगी चुनावी लड़ाई: विनोद अग्निहोत्री

सरकार द्वारा संसद का विशेष सत्र बुलाने की खबर ने देश में हलचल मचा दी और विपक्षी इंडिया गठबंधन चौकन्ना हो गया।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Tuesday, 26 September, 2023
Last Modified:
Tuesday, 26 September, 2023
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विनोद अग्निहोत्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, वरिष्ठ सलाहकार सम्पादक, अमर उजाला।

संसद का विशेष सत्र, नया भवन और महिलाओं को लोकसभा व विधानसभाओं में 33 फीसदी आरक्षण देने वाला नारी शक्ति वंदन विधेयक क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वो तारणहार अस्त्र है जो अगले लोकसभा चुनावों में विपक्षी इंडिया गठबंधन की सारी किलेबंदी को ध्वस्त करके भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों के गठबंधन एनडीए की नैया को चुनावी वैतरणी के पार लगा देगा या फिर इंडिया गठबंधन महिला आरक्षण विधेयक का समर्थन करते हुए इसमें पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों की महिलाओं की हिस्सेदारी का सवाल जोड़ कर मोदी सरकार के इस हथियार को जाति जनगणना के सामाजिक न्याय के अपने अस्त्र से कुंद करके हवा का रुख अपने पक्ष में मोड़ देगा। जिस तरह से सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों अपने-अपने एजेंडे पर आगे बढ़ रहे हैं उससे तय है कि अगले लोकसभा चुनावों में लड़ाई महिला आरक्षण बनाम पिछड़े वर्गों को आरक्षण और जातीय जनगणना के मुख्य मुद्दे के बीच होगी। या यूं कहें कि अगले लोकसभा चुनाव में मुकाबला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जेंडर जस्टिस और राहुल गांधी व इंडिया गठबंधन के सोशल जस्टिस के मुद्दे के बीच होगा।

सरकार द्वारा संसद का विशेष सत्र बुलाने की खबर ने देश में हलचल मचा दी और विपक्षी इंडिया गठबंधन चौकन्ना हो गया कि हमेशा अपने औचक फैसलों से देश को चौंकाने और विपक्ष को बचाव की मुद्रा में लाने वाली मोदी सरकार इस बार क्या करेगी। एक देश एक चुनाव, इंडिया बनाम भारत, रोहिणी आयोग की रिपोर्ट और महिला आरक्षण विधेयक जैसे तमाम मुद्दे हवा में उछले कि सरकार इस विशेष सत्र में कुछ ऐसा करेगी जिससे विपक्षी इंडिया गठबंधन के मुद्दों महंगाई, बेरोजगारी, जातीय जनगणना आदि की हवा निकल जाएगी। सरकार ने पहले जानकारी दी कि विशेष सत्र में चार विधेयकों को पारित कराया जाएगा, फिर उनकी संख्या आठ बताई जाने लगी और आखिरकार सत्र जब शुरू हुआ तो केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अपनी बैठक में नारी शक्ति वंदन विधेयक-2023 को मंजूरी दी। यह कुछ और नहीं बल्के बदले हुए नाम के साथ लगभग वही महिला आरक्षण विधेयक था जैसा 2010 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने राज्यसभा में भारी संघर्ष के बाद पारित करवाया था और गठबंधन की मजबूरी की वजह से लोकसभा में ला ही नहीं पाई थी।

सरकार के रणनीतिकारों को पूरी उम्मीद थी कि एक तरफ यह विधेयक इंडिया गठबंधन में कांग्रेस और अन्य सहयोगी दलों विशेषकर राजद और समाजवादी पार्टी के बीच पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए अलग से कोटा देने के मुददे पर ऐसी दरार डाल देगा कि विपक्षी एकता बिखर जाएगी। वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस विधेयक के समर्थन को विवश होगी और सरकार इसे पारित करवा कर पूरा श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देकर भाजपा अगले चुनाव में आधी आबादी के बीच जाएगी। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से कांग्रेस ने न सिर्फ विधेयक पेश होने से पहले ही सोशल मीडिया और अन्य समाचार माध्यमों के जरिए लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के एक तिहाई आरक्षण के लिए पिछले 27 सालों में किए गए अपने प्रयासों और राजीव गांधी द्वारा पंचायतों में महिलाओं को दस फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की याद दिलाते हुए महिला आरक्षण के मुद्दे पर खुद को भाजपा के समानांतर खड़ा करने की पुरजोर कोशिश की।

बल्कि साथ ही अपने पुराने रुख से एकदम उलट उसने नए विधेयक में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों के भीतर अलग से पिछड़ी जाति की महिलाओं के लिए कोटा निर्धारित करने की मांग भी जोड़ दी। इस तरह कांग्रेस ने संकेत दे दिए कि वह इस मामले में इंडिया गठबंधन के अपने सहयोगियों के साथ है।  संसद में विधेयक पर बहस के दौरान सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे, राहुल गांधी, अधीर रंजन चौधरी समेत सभी कांग्रेस नेताओं ने विधेयक में पिछड़ी जाति की महिलाओं के लिए कोटा तय करने और महिला आरक्षण को फौरन 2024 के लोकसभा चुनावों से ही लागू करने की मांग करते हुए सरकार को बचाव की मुद्रा में ला दिया। विधेयक का समर्थन करते हुए भी कांग्रेस समेत इंडिया गठबंधन के सभी घटक दलों के सांसदों ने जिस आक्रामकता के साथ पिछड़े वर्गों का कोटा तय करने, जातीय जनगणना कराने और विधेयक को फौरन लागू करने की मांग की उससे सत्ता पक्ष के भी कई नेता भी दबे स्वर में सहमत दिखाई दिए। भाजपा नेता और मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने खुलकर विधेयक में पिछड़े वर्गों के लिए अलग से आरक्षित सीटों का पचास फीसदी कोटा तय करने की मांग कर डाली।

एनडीए के घटक दलों के नेता चिराग पासवान, अनुप्रिया पटेल आदि ने भी पिछड़े वर्गों के आरक्षण की बात कही। राहुल गांधी ने तो अपने संक्षिप्त भाषण में सिर्फ तीन ही बातें कहीं। पहली पिछड़े वर्ग अनुसूचित जाति जनजाति की महिलाओं को आरक्षण, दूसरा जातीय जनगणना और तीसरा विधेयक को कानून बनते ही इसी समय लागू करना। राहुल ने सदन के बाहर संवाददाता सम्मेलन में भी यही बात दोहराई।उधर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मौके को एक ऐतिहासिक मौका बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। विधेयक को संसद भवन के नए परिसर में पहले सत्र की सबसे बड़ी और ऐतिहासिक उपलब्धि के रूप में प्रदर्शित करते हुए न सिर्फ सभी महिला सांसदों से मिलकर प्रधानमंत्री ने उन्हें बधाई दी बल्कि संसद के दोनों सदनों की दर्शक दीर्घा में भी देश के हर क्षेत्र से बड़ी संख्या में महिलाओं को आमंत्रित करके इस ऐतिहासिक अवसर का साक्षी बनाया गया। संसद के बाहर भी महिलाओं के जत्थे आए और इस ऐतिहासिक उपलब्धि के लिए देश की महिलाओं की तरफ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बधाई और धन्यवाद दिया गया।

लोकसभा में 454 बनाम दो और राज्यसभा में 215 बनाम शून्य के भारी बहुमत से पारित लोकसभा विधानसभा में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने वाला नारी शक्ति वंदन विधेयक यानी 128वां संविधान संशोधन को भाजपा आने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों और उसके बाद होने वाले लोकसभा चुनावों में अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप पेश करेगी और उसकी कोशिश होगी कि देश की आधी आबादी का एकमुश्त वोट उसे मिले।पार्टी को उम्मीद है कि जिस तरह पिछले एक साल में महिला पहलवानों के धरने से लेकर मणिपुर तक की घटनाओं से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के रुख को लेकर विपक्ष ने सवाल उठाकर महिलाओं के बीच भाजपा को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की,नारी शक्ति वंदन विधेयक उसका सबसे कारगर जवाब है और इससे देश की महिलाओं के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता न सिर्फ कायम रहेगी बल्कि उसमें इजाफा भी होगा और भाजपा एनडीए और उसके समर्थक इसे मोदी सरकार का मास्टर स्ट्रोक मानते हैं।

लेकिन विपक्ष भी इस मुद्दे पर अपना मुद्दा हावी करने की कोशिश में जुट गया है।  एक स्वर से इंडिया गठबंधन ने पिछड़े वर्गों की महिलाओं के आरक्षण और जातीय जनगणना के मुद्दे पर जोर देना शुरू कर दिया है। साथ ही इस कानून के लागू होने के समय को लेकर भी सरकार पर निशाना साधा जा रहा है। कांग्रेस ने 25 सितंबर को देश के इक्सीस राज्यों की राजधानियों में अपनी महिला नेताओं से महिला आरक्षण के मुद्दे पर संवाददाता सम्मेलन के जरिए भाजपा के मुद्दे की धार कमजोर करने में जुट गई। पिछड़ों के आरक्षण और जातीय जनगणना के मुद्दे पर राहुल गांधी अखिलेश यादव, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, तेजस्वी यादव जैसे मंडलवादी नेताओं से भी आगे और आक्रामक होते दिख रहे हैं। कांग्रेस इस मुद्दे पर पिछड़े वर्गों को अपने साथ जोड़ कर पहले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों और फिर लोकसभा चुनावों में इसका सियासी लाभ लेने की पूरी कोशिश कर रही है।

इंडिया गठबंधन के अन्य घटक दल भी इस लड़ाई में कूद पड़े हैं और महिला आरक्षण में पिछड़ वर्गों की महिलाओं के कोटे और जातीय जनगणना को को आगामी राजनीति का केंद्रीय मुद्दा बनाने में जुट गए हैं।  मोदी के लैंगिक न्याय (जेंडर जस्टिस) और राहुल के सामाजिक न्याय (सोशल जस्टिस) की इस चुनावी लड़ाई में भाजपा सरकार की चंद्रयान, जी-20, पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और 2047 तक भारत को विश्व की महाशक्ति बनाने के सपने, राम मंदिर निर्माण, धारा 370 की समाप्ति आदि जैसी उपलब्धियां और विपक्ष के बेरोजगारी महंगाई पुरानी पेंशन स्कीम सीमाओं पर चीनी अतिक्रमण, मणिपुर की अशांति आदि जैसे मुद्दे दोनों खेमों के प्रचार में तो होंगे लेकिन चुनावी नतीजों को मुख्य रूप से सामाजिक ध्रुवीकरण (महिला आरक्षण बनाम पिछड़े वर्गों की जातीय जनगणना) ही प्रभावित करेगा।

साभार - अमर उजाला।

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नेहरू की तिब्बत नीति का खामियाजा भुगत रहा है देश: अरुण आनंद

भारत के पूर्व विदेश सचिव तथा चीनी मामलों के विशेषज्ञ श्यामसरन ने अपनी हालिया किताब 'हाउ चाइना सीज इंडिया एंड द वर्ल्ड' में ठीक ही कहा है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Tuesday, 26 September, 2023
Last Modified:
Tuesday, 26 September, 2023
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अरुण आनंद, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तम्भकार।

स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के चीन के प्रति अदूरदर्शी दृष्टिकोण अपनाया जिसके कारण चीन ने  तिब्बत को हड़प लिया। तिब्बत भारत और चीन के बीच रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण बफर जोन था। एक वैश्विक नेता होने के आत्म-गौरव में डूबे हुए नेहरू ने तिब्बत को एक थाली में सजा कर चीन को परोस दिया। इसके परिणामस्वरूप भारतीय सीमाएँ चीनी अतिक्रमणों  का बार बार शिकार होती हैं।

1950 में तिब्बत पर चीनी आक्रमण के मद्देनजर, जिसने इस क्षेत्र की भू-राजनीति को नाटकीय रूप से बदल दिया, भारत के उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने अपनी मृत्यु से एक महीने पहले नेहरू को लिखा था, “हमें इस पर विचार करना होगा कि नया क्या है। जैसा कि हम जानते हैं, तिब्बत के लुप्त होने और हमारे द्वार तक चीन के विस्तार के परिणामस्वरूप स्थिति अब हमारे सामने है। पूरे इतिहास में हम शायद ही कभी अपने उत्तर-पूर्व सीमांत के बारे में चिंतित रहे हैं। हिमालय को उत्तर से आने वाले खतरों के खिलाफ एक अभेद्य बाधा माना गया है। हमारे बीच दोस्ताना तिब्बत था जिसने हमें कोई परेशानी नहीं दी। चीनी विभाजित थे। उनकी अपनी घरेलू समस्याएं थीं और उन्होंने कभी भी हमें अपनी सीमाओं के बारे में परेशान नहीं किया।”

बर्टिल लिंटनर ने 'चाइनाज इंडिया वॉर: कोलिशन कोर्स ऑन द रूफ ऑफ द वर्ल्ड', जो 1950 के दशक में चीन-भारतीय संबंधों पर सबसे प्रामाणिक पुस्तकों में से एक है, में लिखा है, "नेहरू, जो बीजिंग के नए कम्युनिस्ट शासकों की मानसिकता को समझने में विफल रहे, उनका  चीन के साथ दोस्ती में भरोसा जारी रहा। भारत और चीन, उनके विचार में, दोनों ऐसे देश थे जो दमन से उठे थे और उन्हें एशिया और अफ्रीका के सभी नए मुक्त देशों के साथ मिलकर काम करना चाहिए था।''भारत के पूर्व विदेश सचिव तथा चीनी मामलों के विशेषज्ञ श्यामसरन ने अपनी हालिया किताब 'हाउ चाइना सीज़ इंडिया एंड द वर्ल्ड' में ठीक ही कहा है, "नेहरू ने  तिब्बत पर चीन के कब्जे के बारे जो रूख अपनाया वह एक असामान्य रूप से अदूरदर्शी दृष्टिकोण साबित हुआ।" 

"हाल ही में कुछ विद्वानों द्वारा  नेहरू के पत्रों से जो जानकारी मिली है उसके अनुसार नेहरू का चीन और तिब्बत के बारे में यह कहना था: चीन के संबंध में तिब्बत का अंतिम भाग्य जो भी हो, मुझे लगता है कि किसी भी सैन्य खतरे की व्यावहारिक रूप से कोई आशंका नहीं है।" तिब्बत में  कोई भी संभावित परिवर्तन  भौगोलिक रूप से यह बहुत कठिन है और व्यावहारिक रूप से यह एक मूर्खतापूर्ण साहसिक कार्य होगा। यदि भारत को प्रभावित करना है या उस पर दबाव बनाने का प्रयास करना है, तो तिब्बत इसके लिए मार्ग नहीं है।"

जबकि वास्तविकता में ठीक इसके उलट हुआ। चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया और पहले 1962 में हम पर आक्रमण किया तथा उसके बाद बार—बार हमारी सीमाओं का अतिक्रमण करने लगा।इससे पहले चीनी आक्रमण के डर से, तिब्बत ने 1949 के अंत में संयुक्त राष्ट्र में इसे एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता देने के लिए भारत से संपर्क किया था। लेकिन नेहरू ने तिब्बत की मदद नहीं  की। वास्तव में चीनियों का तिब्बत पर कोई वैध दावा नहीं था, भारत को 1914 में ब्रिटिश भारत और तिब्बत के बीच हुई संधि से महत्वपूर्ण अधिकार विरासत में मिले थे।

इस संधि द्वारा तिब्बत में भारत को मिली लाभ की स्थिति को नेहरू ने चीन के पक्ष में समाप्त कर दिया। तिब्बत में  भारत का एक पूरा दूतावास था तथा  सैन्य चौकियों के साथ एक मजबूत आधिकारिक उपस्थिति भी थी। 1950 के दशक में भारत ने सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इन सबको चीनी दबाव में छोड़ दिया तथा तिब्बत पर चीन का पूर्ण आधिपत्य स्वीकार कर लिया। यहां तक कि चीनी हमले के बाद जब तिब्बत ने संयुक्त राष्ट्र में अपील की तो  भारत ने तिब्बत के प्रस्ताव को आगे बढ़ाने में कोई मदद नहीं की।

इसके उलट नेहरू ने तिब्बत को चीन के साथ मिलकर समझौता करने की सलाह दी।जब ये सारा घटनाक्रम चल रहा था तब भारतीय हितों की रक्षा करने तथा तिब्बत के पक्ष में खड़े होने के बजाए  नेहरू साम्यवादी चीन को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बनाने की पैरवी करने में व्यस्त थे। इसके अलावा, 1954 के एक समझौते में नेहरू ने तिब्बत में सभी प्रकार की भारतीय उपस्थिति को समाप्त करना स्वीकार कर लिया। इसने भारत—चीन सीमाओं पर  भारत को एक स्थायी सामरिक झटका दिया जिसका खामियाजा भारत लंबे समय से भुगत रहा है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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अगर गाड़ी चलानी है तो उसी अव्यवस्था से बचते-बचाते आगे बढ़ना होगा: नीरज बधवार

गाड़ी निकालने से पहले क्या आप ये शर्त लगा सकते हैं कि जब तक ट्रैफिक व्यवस्थित नहीं होगा, मैं गाड़ी नहीं चलाऊंगा।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Tuesday, 26 September, 2023
Last Modified:
Tuesday, 26 September, 2023
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नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, व्यंगकार और लेखक।

बीवी अक्सर टांग खींचती है कि जब भी आप ये बताते हैं कि फलां ने मेरी तारीफ की, तो ये बताना नहीं भूलते कि कैसे वो आदमी कितना महान, पढ़ा-लिखा, उच्च पद पर आसीन, चारों वेदों का ज्ञाता और न जाने क्या-क्या है। उसे तो मैं सफाई नहीं देता मगर बात ये है कि एक रचनाकार भले पूरी दुनिया को अव्वल दर्जे का गधा माने, मगर अपने प्रशंसक के लिए उसके मन में ईश्वर से ज्यादा सम्मान होता है।

दुनिया में किसी भी कलाकार को अपने फैन की आईक्यू पर सवाल उठाया जाना गंवारा नहीं। मां भी बच्चे को लेकर इतना पक्षपाती नहीं होती, जितना लेखक अपने प्रशंसक को लेकर होता है। अब वो प्रशंसक अपने प्यार और सम्मान की अभिव्यक्ति में कितना ऊलजुलूल क्यों न हो जाए, नाराज होने के बजाए हमें उसके इस गंवारपने में एक तरह की क्यूटनेस दिखती है। हमारे अंदर का न्यायधीश उसकी भावनाओं में भावुकता न देख, उसमें एक सच्चाई ढूंढने लगता है। आखिर वो हमारा प्रशंसक जो होता है।

मगर प्रतिक्रियाओं में अतिरेक को लेकर जो आरक्षण हम प्रशंसकों को देते हैं, वो आलोचकों को नहीं देते। खुद को मिलने वाले प्यार में अगर संयम नहीं है, तो हम बुरा नहीं मानते क्योंकि हम तो पैदा ही रॉकस्टार हुए थे इसलिए दुनिया को हक है कि वो हम पर टूट पड़े। मगर जब यही आलोचक टूट पड़ता है, तो हम उससे उसकी दसवीं की मार्कशीट, मूलनिवास और चरित्र प्रमाण पत्र मांगने लगते हैं। हम ये मानकर चलते हैं कि अपनी आलोचना में वो इतने निष्ठुर इसलिए हैं क्योंकि वो पूर्वाग्रही है, क्योंकि उदार और सभ्य होता, तब तो मेरे प्रशंसक होता।

लेखक का ये परम विश्वास कि जो सम्मान उसे मिल रहा है वो तो उसने कमाया है और जो लानतें मिल रही हैं, वो बिजली विभाग की गलती से बढ़ा-चढ़ाकर आया बिल है, जिसे वो डिजर्व नहीं करता, उसे अपने अतिउत्तेजित प्रशंसक जितना ही ‘क्यूट’ बनाता है। गाड़ी निकालने से पहले क्या आप ये शर्त लगा सकते हैं कि जब तक ट्रैफिक व्यवस्थित नहीं होगा, मैं गाड़ी नहीं चलाऊंगा। अगर गाड़ी चलानी है तो उसी अव्यवस्था से बचते-बचाते आगे बढ़ना होगा, वरना घर बैठने का विकल्प तो हमेशा खुला है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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आलोक मेहता ने बताया, ओबीसी के पुराने फॉर्मूले से कांग्रेस के मोर्चे को कितना नफा नुकसान

गाँधी परिवार ओबीसी आरक्षण के वी पी सिंह और लालू मुलायम के तीर कमान से घायल हो केंद्र और राज्यों की सत्ता खोते रहे हैं।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Tuesday, 26 September, 2023
Last Modified:
Tuesday, 26 September, 2023
alokmehta

आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तम्भकार।

संसद और विधानसभा में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण के नए कानून में पिछड़े वर्ग की व्यवस्था को लेकर कांग्रेस पार्टी ने संसद में अपने गठबंधन के सहयोगी दलों से अधिक ऊँची आवाज और संशोधन प्रस्ताव रखने के प्रयास किए। सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी , पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे सहित कांग्रेसी नेताओं ने लालू यादव, नीतीश कुमार, अखिलेश यादव की पार्टियों से अधिक ताकत दिखाकर क्या सचमुच पिछड़े वर्ग के वोट बैंक पर एकाधिकार का सपना देख लिया है? गाँधी परिवार ओबीसी आरक्षण के वी पी सिंह और लालू मुलायम के तीर कमान से घायल हो केंद्र और राज्यों की सत्ता खोते रहे हैं। राहुल गाँधी तो दिशाहीन हैं, लेकिन सोनिया गाँधी और कांग्रेस के अन्य बड़े नेता क्या राजीव गाँधी के विचारों प्रयासों नीतियों को गंगा यमुना नदी में प्रवाहित कर चुके हैं या नए राजनीतिक गठजोड़ के समक्ष  समर्पण कर चुके हैं? इस चक्रव्यूह से क्या वे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी को चुनावी मैदान में पराजित कर सकेंगे?

श्रीमती इंदिरा गांधी 1975 में प्रधानमंत्री थीं तो 'टूवर्ड्स इक्वैलिटी' नाम की एक रिपोर्ट आई थी। इसमें हर क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति का विवरण दिया गया था। इसमें महिलाओं के लिए आरक्षण की भी बात थी। इस रिपोर्ट तैयार करने वाली कमिटी के अधिकतर सदस्य आरक्षण के ख़िलाफ़ थे। राजीव गाँधी तो सत्ता में आने के बाद संविधान में प्रदत्त आरक्षण व्यवस्था को सुधार करने  के विचार के साथ इसका विस्तार किए जाने के पक्ष में नहीं थे। इस सन्दर्भ में मुझे प्रधान मंत्री के रुप में राजीव गाँधी द्वारा 2 मार्च 1985 को  दिए गए एक इंटरव्यू के दौरान आरक्षण के मुद्दे पर उत्तर का उल्लेख उचित लगता है। यह इंटरव्यू उस समय नव भारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ था। आज भी रिकार्ड्स में उपलब्ध है। राजीव गाँधी ने उत्तर दिया था -" मैं यह मनाता हूँ कि आरक्षण की पूरी नीति पर ही नए सिरे से विचार होना चाहिए। 35 साल पहले सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए यह व्यवस्था की गई थी लेकिन पिछले वर्षों के दौरान उसका राजनीतिकरण कर दिया गया।

दूसरी तरफ इतने वर्षों में हमारा समाज बहुत बदल गया है, तरक्की हुई है। शिक्षा का विकास हुआ है। इसलिए अब समय आ गया है ,जब हमें गंभीरता के साथ साथ इस नीति और सुविधाओं पर पुनः विचार करना है। हमें वास्तविक दबे और पिछड़े गरीब लोगों के लिए कुछ आरक्षण रखना होगा। लेकिन यदि इसका विस्तार किया गया तो योग्य लोग कहीं नहीं आ पाएंगे। हम अति सामान्य लोगों ( उन्होंने बुद्धू शब्द तक का इस्तेमाल किया ) लोगों को बढ़ावा दे रहे होंगे और इससे पूरे देश को नुकसान होगा। ' यह बहुत तीखी टिपण्णी थी। आज कोई कहता और छपता तो हंगामा हो जाता।

 राजीव गाँधी उसे कम तो नहीं कर पाए लेकिन बोफोर्स मुद्दे पर उनका विरोध कर अन्य दलों का साथ लेकर सत्ता में आए विश्वनाथ सिंह ने पिछड़ी जातियों को भी  आरक्षण देने  का बड़ा राजनीतिक दांव खेल दिया।  यही नहीं जनता दल के प्रतिद्वंदी देवीलाल को भी मात दे दी। उन्हें तात्कालिक लाभ अवश्य हुआ, लेकिन बाद में यह दांव उल्टा पड़ा और उनकी सत्ता ही चली गई। मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने पर देश भर में विरोध हुआ और राजीव गाँधी तथा कांग्रेस ने कड़ा विरोध जताया। राजीव गांधी संसद में मंडल कमीशन के खिलाफ जमकर बोले थे और वह सब रिकॉर्ड में है। 1997 में कांग्रेस और तीसरे मोर्चे की सरकार ने प्रमोशन में आरक्षण बंद कर दिया था। वह तो अटल जी की सरकार थी, जिसने फिर से एससी-एसटी समाज को न्‍याय दिलाया।

हाँ, राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्री काल में 1980 के दशक में पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दिलाने के लिए विधेयक पारित करने की कोशिश की थी, लेकिन राज्य की विधानसभाओं ने इसका विरोध किया था। उनका कहना था कि इससे उनकी शक्तियों में कमी आएगी। पहली बार महिला आरक्षण बिल को एचडी देवेगौड़ा की सरकार ने 12 सितंबर 1996 को पेश करने की कोशिश की। सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में संसद में महिला आरक्षण विधेयक पेश किया। इसके तुरंत बाद देवगौड़ा सरकार अल्पमत में आ गई। देवगौड़ा सरकार को समर्थन दे रहे मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद महिला आरक्षण बिल के विरोध में थे। जून 1997 में फिर इस विधेयक को पारित कराने का प्रयास हुआ। उस समय शरद यादव ने विधेयक का विरोध करते हुए कहा था, ''परकटी महिलाएं हमारी महिलाओं के बारे में क्या समझेंगी और वो क्या सोचेंगी। '

1998 में 12वीं लोकसभा में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए की सरकार आई। इसके क़ानून मंत्री एन थंबीदुरई ने महिला आरक्षण बिल को पेश करने की कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली। एनडीए सरकार ने 13वीं लोकसभा में 1999 में दोबारा  महिला आरक्षण बिल को संसद में पेश करने की कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली। वाजपेयी सरकार ने 2003 में एक बार फिर महिला आरक्षण बिल पेश करने की कोशिश की। लेकिन प्रश्नकाल में ही जमकर हंगामा हुआ और बिल पारित नहीं हो पाया।

एनडीए सरकार के बाद सत्तासीन हुई यूपीए सरकार ने 2010 में महिला आरक्षण बिल को राज्यसभा में पेश किया। लेकिन सपा-राजद ने सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी दी। इसके बाद बिल पर मतदान स्थगित कर दिया गया। बाद में 9 मार्च 2010 को राज्यसभा ने महिला आरक्षण बिल को एक के मुकाबले 186 मतों के भारी बहुमत से पारित किया। जिस दिन यह बिल पारित हुई उस दिन मार्शल्स का इस्तेमाल हुआ। लोक सभा में यह अटक गया।

भारतीय जनता पार्टी ने 2014 और 2019 के चुनाव घोषणा पत्र में 33 फ़ीसदी महिला आरक्षण का वादा किया। इस मुद्दे पर उसे मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस का भी समर्थन हासिल हो गया। कांग्रेस संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी ने 2017 में भी प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर इस बिल पर सरकार का साथ देने का आश्वासन दिया था। वहीं कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी ने 16 जुलाई 2018 को प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर महिला आरक्षण बिल पर सरकार को अपनी पार्टी के समर्थन की बात दोहराई थी।

लेकिन अब 2023 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को श्रेय मिलता देख कांग्रेस ने लालू अखिलेश का दामन थाम ओबीसी को लेकर तूफान खड़ा करने की कोशिश की।  बहरहाल यह कानून संसद से पारित हो गया। यह ऐतिहासिक विजय है। संवैधानिक औपचारिकता और जनगणना और परिसीमन के बाद 2029 में भारतीय संसद में एक तिहाई महिला सांसद आ सकेंगी। फिलहाल देखना यह होगा कि 2024 के चुनाव में कांग्रेस कितना लाभ उठाएगी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पुरानी पेंशन स्कीम से क्या खतरा है, पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

पुरानी पेंशन स्कीम ( OPS या Old Pension Scheme) में सरकारी कर्मचारी जिस सैलरी पर रिटायर होंगे उसकी आधी रकम जिंदगी भर पेंशन मिलती रहेगी।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 25 September, 2023
Last Modified:
Monday, 25 September, 2023
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मिलिंद खांडेकर, मैनेजिंग एडिटर, तक चैनल्स, टीवी टुडे नेटवर्क।

चुनाव का सीजन शुरू हो गया है। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव है, फिर लोकसभा चुनाव। सरकारी कर्मचारियों को पुरानी पेंशन स्कीम का वादा फिर किया जा सकता है। ऐसे में रिजर्व बैंक ने चेतावनी दी है कि पुरानी पेंशन स्कीम फिर से लागू की गई तो नतीजे बुरे होंगे। सरकार का पेंशन खर्च साढ़े चार गुना बढ़ जाएगा।  विकास के लिए पैसे कम बचेंगे। पुरानी पेंशन स्कीम ( OPS या Old Pension Scheme) में सरकारी कर्मचारी जिस सैलरी पर रिटायर होंगे उसकी आधी रकम जिंदगी भर पेंशन मिलती रहेगी। साथ में महंगाई भत्ता भी, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इसे बदल डाला।

1 अप्रैल 2004 से नौकरी में आने वाले केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों के लिए ये सुविधा बंद कर दी गई। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु को छोड़कर सभी राज्यों ने भी नई स्कीम लागू कर दी। पुरानी पेंशन को बंद करने का मक़सद था कि सरकार का बोझ कम हो। नई स्कीम में कर्मचारी अपनी सैलरी का दस प्रतिशत पेंशन स्कीम में जमा करता है। सरकार अपनी तरफ से 14 प्रतिशत देती है। ये पैसे नेशनल पेंशन स्कीम (NPS) में जमा होते रहते हैं। कर्मचारी के पास ऑप्शन होता है कि इस पैसे का कितना हिस्सा वो शेयर बाजार में लगाना चाहता है।

ज़्यादा हिस्सा लगाने पर रिस्क ज़्यादा है और रिटर्न भी। अगर फ़िक्स इनकम में लगाया तो रिस्क कम है और रिटर्न भी कम। रिटायर होने पर कर्मचारी अपने खाते से 60% रक़म एकमुश्त निकाल सकता है। इस पर टैक्स नहीं लगता है। बाक़ी बची रक़म को फिर निवेश करना पड़ता है जो सालाना रिटर्न देता रहता है।

नई स्कीम से सरकार फायदे में है लेकिन कर्मचारी घाटे में। एक अनुमान के अनुसार रिटायर होने वाले कर्मचारियों को अपनी आखिरी सैलरी का 38% ही पेंशन मिल रही है। महाराष्ट्र में पुराने स्कीम की मांग करने वाले कर्मचारियों का दावा है कि महीने में दो से पांच हजार रुपये मिल रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में पुरानी पेंशन स्कीम की मांग बीजेपी ने नहीं मानी। कांग्रेस और आप ने इसे लागू करने का वादा किया है। ये स्कीम कांग्रेस राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश में लागू कर चुकी है। कांग्रेस समर्थित झारखंड सरकार ने लागू कर दिया है जबकि आप ने पंजाब में।

हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हार के बाद केंद्र सरकार हरकत में आ गईं। केंद्र सरकार ने नई पुरानी पेंशन स्कीम को लेकर कमेटी बना दी। कमेटी की रिपोर्ट नहीं आयी है लेकिन आंध्र प्रदेश फार्मूले पर विचार हो रहा है। इस फार्मूले के तहत सरकार और कर्मचारी हर महीने अपना अपना योगदान पेंशन के लिए देते रहते हैं, सरकार ने 33% सैलरी की गारंटी दे रखी है। मान लीजिए सरकार 40% या 45% की गारंटी दे दें तो उसका खर्च पुरानी पेंशन स्कीम के मुकाबले कम होगा।

सरकार के नजर से देखिए तो सरकारी कर्मचारियों की सैलरी, पेंशन और पुराने कर्ज की अदायगी में उसका बजट खर्च हो जाता है। बाकी बचा पैसा नए काम पर खर्च होता है। केंद्र सरकार का आय 100 रुपये है उसमें से 41 रुपये कर्ज की अदायगी में जाते हैं जबकि 9 रुपये पेंशन पर यानी 50 रुपये का खर्च।

रिजर्व बैंक के अनुसार राज्य सरकारों की हालत ज्यादा खराब है। बिहार, केरल, उत्तर प्रदेश,पंजाब और पश्चिम बंगाल की अपनी आय के 100 रुपये में से 25 से ज़्यादा रुपये पेंशन पर खर्च कर रहे है। पहाड़ी राज्यों और उत्तर पूर्व राज्यों में ये खर्च 40 - 50 रुपये से ज्यादा है। सभी राज्यों सरकारों की आय ₹100 मानी जाएं तो ₹13 पेंशन पर खर्च हो जाते हैं। पेंशन के साथ खर्च में पुराना कर्ज की अदायगी और सरकारी कर्मचारी की सैलरी जोड़ लें तो ये खर्च ₹56 हो जाता है। ये खर्च फिक्स है, हर हाल में देना ही है। सरकार के पास जनता के लिए काम करने के लिए बचे ₹44, सरकार या तो और कर्ज लेंगी या फिर जनता पर होने वाले खर्च में कटौती करेगी।

रिजर्व बैंक ने कहा कि सभी राज्यों में पुरानी पेंशन लागू हो जाएं तो अगले कुछ साल खर्च कम होगा क्योंकि सरकारों को नई पेंशन के लिए अभी अपना हिस्सा नहीं देना होगा। करीब 15 साल बाद खर्च साढ़े चार पांच गुना बढ़ जाएगा। नेताओं को तो अगला चुनाव जीतने से मतलब है, समझना जनता को है कि उसके पैसे का इस्तेमाल किस तरह से किया जाए?

(वरिष्ठ पत्रकार मिलिंद खांडेकर 'टीवी टुडे नेटवर्क' के 'तक चैनल्स' के मैनेजिंग एडिटर हैं और हर रविवार सोशल मीडिया पर उनका साप्ताहिक न्यूजलेटर 'हिसाब किताब' प्रकाशित होता है।)

 

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दिनकर की कविताओं में समय, समाज, संस्कृति, प्रेम की गाढ़ी उपस्थिति: अनंत विजय

दिनकर चाहते थे कि उनकी कृतियों की समग्रता में चर्चा हो लेकिन जब सिर्फ उनकी राष्ट्र आधारित कविताओं की चर्चा होती तो वो झुब्ध हो जाते।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 25 September, 2023
Last Modified:
Monday, 25 September, 2023
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, स्तम्भकार।

हिंदी जगत में रामधारी सिंह दिनकर की राष्ट्रकवि के रूप में समादृत हैं। द्वारिका राय सुबोध के साथ एक साक्षात्कार में दिनकर ने इस विशेषण को लेकर अपनी पीड़ा व्यक्त की थी। जब उनसे पूछा गया कि क्या आलोचकों ने उनके साथ न्याय किया तो उन्होंने साफ कहा कि राष्ट्रकवि के नाम ने मुझे बदनाम किया है। मेरे कवित्व की झांकी दिखलाने का कोई प्रयास नहीं करता। उन्होंने माना था कि कवि की निष्पक्ष आलोचना उसके जीवनकाल में नहीं हो सकती है क्योंकि जीवनकाल में उनके व्यवहार आदि से कोई रुष्ट रहता है और कोई अकारण ईर्ष्यालु हो उठता है।

यह अकारण भी नहीं है कि दिनकर को राष्ट्रकवि कहा जाता है। उनकी कविताओं में राष्ट्रीय भावनाओं का प्राबल्य है। उनकी आरंभिक कविताओं से लेकर परशुराम की प्रतीक्षा तक में राष्ट्र को लेकर चिंता दिखाई देती है। स्वयं दिनकर ने भी लिखा है कि लिखना आरंभ करने के समय सारे देश का कर्त्तव्य स्वतंत्रता संग्राम को सबल बनाना था। अपनी कविताओं के माध्यम से वो भी कर्तव्यपालन में लग गए थे। दिनकर की कविताओं में अतीत का गौरव गान भी मुखरित होता है। जब देश स्वाधीन हुआ था तो दिनकर ने ‘अरुणोदय’ जैसी कविता लिखकर स्वतंत्रता का स्वागत किया था। एक वर्ष में ही दिनकर का मोहभंग हुआ और उन्होंने ‘पहली वर्षगांठ’ जैसी कविता लिखकर राजनीतिक दलों की सत्ता लिप्सा पर प्रहार किया।

राष्ट्रकवि के विशेषण से दिनकर के दुखी होने का कारण था कि उनकी अन्य कविताओं और गद्यकृतियों को आलोचक ओझल कर रहे थे। दिनकर के सृजनकर्म में पांच महत्वपूर्ण पड़ाव है। इनको रेखांकित करने के पहले दिनकर के बाल्यकाल के बारे में जानना आवश्यक है। दिनकर ने दस वर्ष की उम्र से ही रामायण और श्रीरामचरितमानस का नियमित पारायण आरंभ कर दिया था। रामकथा और रामलीला में उनकी विशेष रुचि थी। उनपर श्रीराम के चरित्र का गहरा प्रभाव था। किशोरावस्था से ही वो वाल्मीकि और तुलसी की काव्यकला से संस्कारित हो रहे थे।

कालांतर में पराधीनता ने उनके कवि मन को उद्वेलित किया। रेणुका और हुंकार जैसी कविताओं ने उनको राष्ट्रवादी कवि के रूप में पहचान दी। जब कुरुक्षेत्र और के बाद रश्मिरथी का प्रकाशन हुआ तो दिनकर को चिंतनशील और विचारवान कवि माना गया। कुछ समय बाद जब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ का प्रकाशन हुआ तो दिनकर को इतिहास में संस्कृति और दर्शन की खोज करनेवाला लेखक कहा गया। दिनकर की कलम निरंतर चल रही थी। उर्वशी के प्रकाशन पर तो साहित्य जगत में जमकर चर्चा हुई। दर्जनों लेख लिखे गए, वाद-विवाद हुए। चर्चा में दिनकर को प्रेम और अध्यात्म का कवि कहा गया। 1962 के चीन युद्ध के बाद जब ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ आई तो आलोचकों ने कविता में विद्रोह के तत्वों को रेखांकित करते हुए उनको विद्रोही कवि कह डाला।

दिनकर चाहते थे कि उनकी कृतियों की समग्रता में चर्चा हो लेकिन जब सिर्फ उनकी राष्ट्र आधारित कविताओं की चर्चा होती तो वो झुब्ध हो जाते । दिनकर की कविताओं में वर्णित ओज के आधार पर कुछ आलोचक उनको गर्जन-तर्जन का कवि घोषित कर देते हैं। वो भूल जाते हैं कि ओज के पीछे गहरा चिंतन भी है।

दिनकर की कविता की भाषा एकदम सरल है लेकिन बीच में जिस तरह से वो संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग करते हैं उससे उनकी कविता चमक उठती है। इस बात पर भी शोध किया जाना चाहिए कि जो दिनकर बाल्यकाल में रामायण और श्रीरामचरितमानस के प्रभाव में थे उन्होने बाद में अपने प्रबंध काव्यों में महाभारत को प्राथमिकता क्यों दी। प्रणभंग, कुरुक्षेत्र और रश्मिरथी तो महाभारत आधारित है। अगर समग्रता में देखें तो दिनकर की कविताओं में समय, समाज, संस्कृति, प्रेम,प्रकृति, राजनीति और राष्ट्रीयता आदि की गाढ़ी उपस्थिति है। यही उनकी काव्य धरा भी है और क्षितिज भी।     

(साभार - दैनिक जागरण)

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महिला आरक्षण में ओबीसी महिलाओं के लिए कोटे की बात सिर्फ राजनीति: अवधेश कुमार

हमारे यहां कहा गया है कि अरे हंस अगर तुम ही पानी और दूध में भेद करना छोड़ दोगे तो दूसरा कौन करेगा।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 25 September, 2023
Last Modified:
Monday, 25 September, 2023
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अवधेश कुमार , वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, स्तम्भकार।

मेरा मानना है कि जो हम तय करते हैं कि उसे हमें करना ही चाहिए। महिला आरक्षण विधेयक के लिए विशेष सत्र बुलाकर नए संसद भवन की शुरुआत करना एक बड़ा संदेश है न सिर्फ भारत के लिए बल्कि विश्व के लिए। जो आप (विपक्ष) ने आज तक नहीं किया, उसे अगर मौजूदा सरकार करा पाती है तो यह उसकी प्रतिबद्धता  दर्शाता है। 

हमारे यहां पुरुष देवों से ज्यादा स्त्री देवियों की संख्या है, लेकिन काल खंड में धीरे-धीरे महिलाएं पीछे होती गईं। मैं निजी तौर पर मानता हूं कि समाज के वंचित तबके को आगे लाने के लिए सरकार को विशेष व्यवस्थाएं करनी चाहिए, लेकिन यह एक निश्चित कालखंड के लिए होनी चाहिए।

जो पार्टियां आलोचना कर रही हैं कि तत्काल इसे क्यों नहीं लागू किया क्या, वह अगले चुनाव से अपनी पार्टी से 33 फीसदी महिलाओं को टिकट देंगी। बीते कई वर्षों से परिसीमन से सरकारें बचती रही हैं। मेरा मानना है कि विरोध करने वाले इतिहास में अपना नाम अंकित कराने से चूक गए हैं।

मैं हमेशा से कहता रहा हूं कि महिलाओं में पुरुषों से काम करने की क्षमता बहुत ज्यादा है। अगर महिलाएं किसी क्षेत्र में आएंगी तो उसमें आपको एक बड़ा बदलाव दिखेगा। हमारे यहां कहा गया है कि अरे हंस अगर तुम ही पानी और दूध में भेद करना छोड़ दोगे तो दूसरा कौन करेगा।

या यूं कहें कि अगर बुद्धिमान व्यक्ति अपना काम करना छोड़ देगा तो दूसरा कौन करेगा।  जो लोग आरक्षण में ओबीसी महिलाओं के लिए कोटे की बात कर रहे हैं, वो सिर्फ राजनीति कर रहे हैं। क्या कांग्रेस जो बिल लेकर आई थी उसमें पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था थी? क्या समाजवादी राजनीति करने वाले दलों के गठबंधन संयुक्त मोर्चा सरकार के बिल में ऐसा कुछ था?  

(यह लेखक के निजी विचार हैं )

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महिला कल्याण के मामले में मोदी का अच्छा ट्रैक रिकॉर्ड है: रजत शर्मा

कोई भी सरकार होती, महिला आरक्षण बिल को संसद से पास करवाकर तुरंत लागू करना संभव नहीं था। विपक्ष सरकार की मजबूरियां समझता है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Saturday, 23 September, 2023
Last Modified:
Saturday, 23 September, 2023
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रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ ।।

लोकसभा में नेताओं के बयान सुनेंगे, तो साफ हो जाएगा कि महिला आरक्षण लागू करना कितना मुश्किल काम था, ये मामला 27 साल से क्यों लटका था। मोदी सरकार ने जो बिल पेश किया है, उसमें कहा गया है कि नारी शक्ति वंदन बिल संसद में पास होने के बाद जनगणना होगी, फिर परिसीमन आयोग बनेगा। वही आयोग तय करेगा कि लोकसभा और विधानसभाओं की कौन-कौन सी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। बिल के इसी प्रावधान को विरोधी दलों के नेताओं ने पकड़ा, सरकार की नीयत पर सवाल उठाए।

कहा कि अगर सरकार की मंशा साफ है तो महिलाओं को तुरंत आरक्षण क्यों नहीं देती, इसमें देर करने की क्या जरूरत है। परिसीमन आयोग के नाम पर इस मामले को 2029 तक लटकाने की क्या जरूरत है? बिल पास होते ही महिलाओं को आरक्षण क्यों नहीं दिया जा सकता? जवाब में अमित शाह ने साफ शब्दों में कहा कि परिसीमन और सीटों का आरक्षण एक संवैधानिक प्रक्रिया है, और सरकार इसमें दखलंदाजी नहीं कर सकती। अमित शाह ने ये लेकिन जरूर कहा कि मोदी सरकार किसी के साथ नाइंसाफी नहीं होने देगी। विरोधी दल भी अच्छी तरह जानते और समझते हैं कि कोई भी सरकार होती, महिला आरक्षण बिल को संसद से पास करवाकर तुरंत लागू करना संभव नहीं था। विपक्ष सरकार की मजबूरियां समझता है।

संविधान के मुताबिक, परिसीमन 2026 से पहले नहीं हो सकता। संविधान में ये भी कहा गया है कि परिसीमन जनगणना के बाद ही होगा। परिसीमन आयोग ही लोकसभा और विधानसभाओं में सीटों की नई संख्या तय करेगा और महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें तय करना भी परिसीमन आयोग की जिम्मेदारी होगी। इसलिए ये सरकार की मजबूरी है कि 2026 से पहले कुछ नहीं कर सकती। अब तक तीन बार सीटों का परिसीमन हुआ है। तीनों बार कांग्रेस की सरकारें थी। इसलिए कांग्रेस के नेता ये बात अच्छी तरह जानते हैं। इसके बाद भी सोनिया गांधी समेत सभी विरोधी दलों के नेता कह रहे हैं कि सरकार की मंशा साफ नहीं है। ये समझने की जरूरत है कि आखिर आज सभी विरोधी दलों के नेता पिछड़े वर्ग की महिलाओं और जातिगत जनगणना की बात क्यों कर रहे हैं।

असल में  विरोधी दलों को लगता है कि विकास के नाम पर मोदी को हराना मुश्किल है, गरीब कल्याण योजनाओं के मुकाबले में भी वो नहीं ठहरेंगे, मोदी पर भ्रष्टाचार का इल्जाम भी नहीं लगा सकते। हिन्दू-मुसलमान की बात करके भी मोदी को नहीं घेर सकते। तो अब एक ही रास्ता बचता है, जाति का मुद्दा उठाया जाए। विरोधी दलों को लगता है कि वोट बैंक के लिहाज से पिछड़े वर्ग की संख्या सबसे ज्यादा है, इसलिए जातिगत जनगणना की बात करके पिछड़ों को भड़काया जाए। इसीलिए नीतीश कुमार ने बिहार में जाति जनगणना का मुद्दा उछाला। मोदी विरोधी मोर्चे की सारी पार्टियों को पूरा गणित समझाया, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी भागीदारी’ का नारा दिया। अखिलेश यादव तो पहले ही PDA को जीत का फॉर्मूला बताते हैं।

PDA का मतलब है, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक। अब कांग्रेस को भी ये बात समझ आ गई। इसीलिए राहुल और सोनिया गांधी ने भी जातिगत जनगणना की मांग की। लेकिन ये नरेन्द्र मोदी की चतुराई है कि तमाम विरोध और सवालों के बाद भी उन्होंने सभी विरोधी दलों को महिला आरक्षण बिल का समर्थन करने के लिए मजबूर कर दिया ।और ये बिल लोकसभा में बिना किसी विरोध के पास हुआ। इस बिल का समर्थन 454 सांसदों ने किया। सिर्फ दो सासदों ने इस बिल का विरोध किया। एक असदुद्दीन ओबैसी और दूसरे उन्हीं की पार्टी के सांसद इम्तियाज जलील। उनका विरोध का कारण था, मुस्लिम महिलाओं को आरक्षण क्यों नहीं दिया गया। ओवैसी ने आरोप लगाया कि महिला आरक्षण बिल सिर्फ सवर्ण जातियों को फायदा पहुंचाने के लिए लाया गया है।  

असल में कोई भी पार्टी देश की आधी आबादी को नाराज करने का जोखिम नहीं ले सकती। सबने अपना सियासी फायदा देखा लेकिन सबने इल्जाम लगाया कि नरेंद्र मोदी ये कानून राजनीतिक मकसद से लाए हैं। लेकिन अमित शाह ने बताया कि मोदी का महिला कल्याण के प्रति प्रतिबद्धता कोई आज का नहीं है। अमित शाह ने जो बताया उसे समझने की जरूरत है। मोदी जब बीजेपी के संगठन में थे तो उन्होंने पार्टी से ये प्रस्ताव पास करवाया था कि बीजेपी के पदाधिकारियों  में एक-तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिया जाय। गुजरात में जब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे, तो जो भी उपहार उन्हें मिलते थे, उनकी हर साल नीलामी होती थी और नीलामी से आने वाला पैसा गरीब लड़कियों की पढ़ाई पर खर्च किया जाता। जिस दिन मोदी ने गुजरात का मुख्यमंत्री पद छोड़ा, उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर जितनी भी सैलरी मिली थी, वो सारी उन्होंने लड़कियों की शिक्षा के लिए  दान कर दी।

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने महिलाओं के लिए शौचालय बनाने का बड़ा फैसला किया और इसका जिक्र कई बार हुआ है कि कैसे शौचालय बनने से महिलाओं की रोज़ की दिक्कतें कम हुई, उनकी सेहत और सुरक्षा दोनों सुनिश्चित हुई। इसी तरह मोदी ने चूल्हे की आग से होने वाले धुएं पर ध्यान दिया। इस त्रासदी से महिलाओं को बचाने के लिए उज्ज्वला योजना के तहत गैस कनेक्शन दिए। नल से जल योजना भी महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई क्योंकि गांव-देहात में महिलाओं की आधी ज़िंदगी पानी भरने में गुजर जाती थी।मुस्लिम महिलाओं के लिए तीन तलाक का कानून बनाया ।

अगर इस पृष्ठभूमि को देखें तो मोदी पर ये आरोप सही नहीं बैठता कि वह महिलाओं की चिंता सिर्फ चुनाव से पहले करते हैं। ये कहना कि महिला आरक्षण बिल सिर्फ उनके वोटों के लिए लाया गया, कमजोर तर्क है। एक बात मैं फिर कहना चाहता हूं कि कोई भी नेता, कोई भी पार्टी अगर लोक कल्याण के काम करके वोट मांगना चाहती है तो इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। महिला आरक्षण का कानून बनने से महिलाओं को देश की सत्ता में भागीदारी मिलेगी। लोकसभा औऱ विधानसभाओं में उनकी संख्या बढ़ेगी, उनके अधिकार बढेंगे, उनका मान बढ़ेगा। ये एक ऐसा फैसला है जिसका सबको स्वागत करना चाहिए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पीएम मोदी के कारण महिला सशक्तिकरण के नए अध्याय का बीजारोपण हुआ: मारिया शकील

27 साल और कई असफल प्रयासों के बाद, अटल बिहारी वाजपेयी और फिर डॉ. मनमोहन सिंह के बाद, महिला आरक्षण आखिरकार एक वास्तविकता है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Saturday, 23 September, 2023
Last Modified:
Saturday, 23 September, 2023
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मारिया शकील, एग्जिक्यूटिव एडिटर (नेशनल अफेयर्स) एनडीटीवी

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत ने महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें (33%) आरक्षित करने का कानून बनाकर इतिहास रचा है। इस पर 1996 से काम चल रहा है, जब एचडी देवेगौड़ा ने पहली बार विधेयक पेश किया था। 27 साल और कई असफल प्रयासों के बाद, अटल बिहारी वाजपेयी (4 प्रयास) और फिर डॉ. मनमोहन सिंह (2 प्रयास) के बाद, महिला आरक्षण आखिरकार एक वास्तविकता है, इसके लागू होने के 15 साल बाद तक यह रहेगा।

भारत में, स्वतंत्रता प्राप्ति के दिन से ही महिलाओं को मतदान का अधिकार देने, एक महिला प्रधानमंत्री, कई मुख्यमंत्रियों, संघीय और राज्य दोनों स्तरों पर मंत्रियों को चुनने के बावजूद, लोकसभा और यहां तक ​​​​कि विधानसभाओं में महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं था। यह सब तब बदल गया जब पीवी नरसिम्हा राव ने 1992-93 में एक कानून पारित किया, जिसमें ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक तिहाई पद आरक्षित किए गए।

आज, 15 लाख से अधिक महिलाएं जमीनी स्तर पर निर्वाचित होती हैं और शासन तंत्र में योगदान देती हैं। ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, यूएई, यूके और स्वीडन सहित 107 देशों ने सरकार में महिलाओं के लिए कोटा आरक्षित किया है। भारत भी इस सूची में शामिल हो गया है।

दिलचस्प बात यह है कि रवांडा, क्यूबा, ​​मैक्सिको, न्यूजीलैंड और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों में निचले सदनों में महिलाओं की भागीदारी सबसे अधिक 50% या उससे अधिक है। हालाँकि, 185 में से 134 देशों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 33% से कम है। और 91 देशों में महिलाओं की भागीदारी 25% से कम है।

भारत में लगभग 15% है। वह सब अब बदलने के लिए तैयार है। जनगणना और परिसीमन के बाद, जब महिला आरक्षण लागू होगा, तो भारत 33% महिला विधायकों को चुनेगा, जिनकी नीति निर्माण में निर्णायक भूमिका होगी।

इस प्रगतिशील कानून का श्रेय निस्संदेह पीएम मोदी को जाता है, जिन्होंने लंबे समय से लंबित विधेयक को साकार करने के लिए अपने पूर्ण जनादेश की शक्ति का लाभ उठाया है। महिला सशक्तिकरण के नये अध्याय का बीजारोपण हो चुका है।

( यह लेखिका के निजी विचार हैं )

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