हवाई सपनों की उड़ानें खतरों को कब तक बढ़ाएंगी: आलोक मेहता

इंडिगो को लंबे समय तक भारतीय विमानन का “मॉडल केस स्टडी” कहा गया। 2006 में शुरू हुई इस एयरलाइन के संस्थापक राहुल भाटिया और राकेश गंगवाल का कोई बड़ा विमानन पृष्ठभूमि नहीं था।

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Monday, 08 December, 2025
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आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

भारतीय विमानन उद्योग पिछले तीन दशकों से 'उड़ने की महत्वाकांक्षा और गिरने की मजबूरी' दोनों का प्रतीक रहा है। 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद निजी एयरलाइंस का दौर शुरू हुआ। लोगों ने पहली बार एयर-ट्रैवल को राजसी विलासिता से निकालकर आम मध्यम वर्ग की पहुँच में आते देखा। लेकिन यह कहानी उतनी सरल नहीं थी।

जहाँ एक ओर इंडियन एयरलाइंस और बाद में एयर इंडिया जैसी सरकारी कंपनियाँ भ्रष्टाचार, खराब प्रबंधन और राजनीतिक दख़ल से लगातार घाटे में डूबी रहीं, वहीं निजी क्षेत्र की किंगफिशर, जेट एयरवेज, सहारा एयरलाइंस और अन्य ब्रांड शुरुआती चमक-दमक के बाद दिवालियेपन, कर्ज़, अनियमितताओं और जाँचों में फँसते चले गए।

आज, जब इंडिगो जो कभी भारत का सबसे मजबूत और कुशल एयरलाइन मॉडल माना जाता था, लागत दबाव, परिचालन चुनौतियों और बाजार की उथल-पुथल से जूझ रहा है, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर भारतीय विमानन में गड़बड़ी कहाँ है? और इस गड़बड़ी का ज़िम्मेदार कौन है—कंपनी मालिक, रेगुलेटर, नीति-निर्माता या सम्पूर्ण तंत्र?

इंडिगो को लंबे समय तक भारतीय विमानन का “मॉडल केस स्टडी” कहा गया। 2006 में शुरू हुई इस एयरलाइन के संस्थापक—राहुल भाटिया और राकेश गंगवाल—का कोई बड़ा विमानन पृष्ठभूमि नहीं था। यही कारण था कि उद्योग में उन्हें “नये खिलाड़ी” माना गया, लेकिन उनकी रणनीति बेहद आक्रामक और पेशेवर थी। एक ही मॉडल के विमान (A320/A321), समय पर उड़ान, कम किराए और तेज़ी से बेड़ा बढ़ाने की रणनीतियों ने इंडिगो को 50% से अधिक घरेलू मार्केट शेयर तक पहुँचा दिया।

लेकिन आज इंडिगो नई चुनौतियों से जूझ रहा है। बढ़ती परिचालन लागत—ईंधन, हवाईअड्डा शुल्क और रखरखाव लागत में भारी वृद्धि, पायलट और केबिन कर्मचारियों की कमी, ड्यूटी के दबाव की स्थिति, हड़ताल जैसी तकनीकी समस्याएँ, इंजन विवाद के कारण सैकड़ों उड़ानें रद्द, विमान ग्राउंडेड। अंतरराष्ट्रीय विस्तार में अनिश्चितता।

फिर प्रतिस्पर्धा का नया दौर—टाटा समूह की एयर इंडिया और उसकी साथी सिंगापुर एयरलाइन्स, आकासा जैसी एयरलाइंस चुनौती दे रही हैं। वैसे एयर इंडिया भी पूरी तरह सफल नहीं हो रही है और चुनौतियाँ बढ़ती जा रही हैं। इंडिगो को अभी “वित्तीय पतन” की स्थिति में नहीं कहा जा सकता, लेकिन लाभ में गिरावट और ऑपरेशनल गड़बड़ियाँ साफ संकेत देती हैं कि भारत के सबसे मजबूत ब्रांड को भी संकट से गुज़रने का खतरा है।

सरकारी एयरलाइंस के रूप में विमान सेवाओं का घाटे का सिलसिला कभी रुका ही नहीं। असफलताओं के कई कारण दशकों से सामने आते रहे, जैसे राजनीतिक दख़ल, ख़रीद–फ़रोख़्त में गड़बड़ी, महँगे विमान सौदे, अक्षम प्रबंधन, कर्मचारियों की अधिक संख्या, भ्रष्टाचार के आरोप और विदेशी रूट्स का दबाव। एयर इंडिया की हालत इतनी ख़राब थी कि उसे चलाने के लिए हर साल हजारों करोड़ रुपये की सरकारी सब्सिडी और सहायता देनी पड़ती थी। अंततः 2022 में इसे टाटा समूह को बेचकर सरकार ने अपने कंधे हल्के किए।

निजी एयरलाइनों ने शुरुआत में चमचमाते विज्ञापनों, मॉडल-आधारित प्रचार और “लक्ज़री” की छवि से यात्रियों को लुभाया। लेकिन कई कंपनियों का पतन अव्यवस्थित बिज़नेस मॉडल, अनियंत्रित विस्तार, कर्ज़ और नियामकीय ढिलाई के कारण तेज़ हो गया। किंगफिशर को कभी भारत की “फाइव-स्टार एयरलाइन” कहा जाता था।

अत्यधिक खर्च, महँगा ब्रांडिंग मॉडल और गलत अधिग्रहण (Air Deccan) ने किंगफिशर को कर्ज़ के पहाड़ में धकेल दिया। करीब 7000+ करोड़ बैंक कर्ज़, टैक्स बकाया, कर्मचारियों के वेतन लंबित और कई जाँच और कानूनी विवाद से हालत ख़राब हुई। विजय माल्या पर धन शोधन और बैंक धोखाधड़ी के मामले दर्ज हुए, जिसके बाद वह देश छोड़कर चला गया और भारत के लिए “वित्तीय भगोड़े” का प्रतीक बन गए।

इसी तरह सहारा एयरलाइंस की विमान सेवाएँ 90 के दशक में काफी लोकप्रिय हुईं, लेकिन धीरे-धीरे वित्तीय विवाद और नियामकीय दबाव बढ़ते गए। बाद में यह कंपनी जेट एयरवेज को बेच दी गई। सहारा समूह के खिलाफ बड़े पैमाने पर सेबी के केस चले, और सुब्रत रॉय को लंबे समय तक जेल का सामना करना पड़ा।

जेट एयरवेज कभी भारत की सबसे प्रतिष्ठित निजी एयरलाइन थी, लेकिन 2015–2018 के बीच लागत बढ़ने, खतरनाक कर्ज़ और प्रबंधन विवादों ने इसे धराशायी कर दिया। मालिक नरेश गोयल पर वित्तीय अनियमितताओं, विदेशी फंडिंग संबंधी जाँच और मनी लॉन्ड्रिंग आरोप के मामले चले और वे जेल तक पहुँचे। जेट के बंद होने से लाखों यात्रियों, हजारों कर्मचारियों और सप्लाई-चेन कंपनियों को भारी नुकसान हुआ।

देश में हवाई सेवाओं को लेकर भारतीय विमानन नियामक और नागरिक उड्डयन मंत्रालय पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं। समय पर हस्तक्षेप की कमी रही। कई एयरलाइनों के वित्तीय संकेत वर्षों तक खराब रहे, लेकिन नियामक ने देर से कदम उठाए। सर्दियों में कोहरा या कम विज़िबिलिटी में उड़ान के लिए पायलटों को विशेष प्रशिक्षण चाहिए होता है।

लेकिन यह प्रशिक्षण महँगा पड़ता है, इसलिए कई निजी एयरलाइन्स पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं करातीं। नियामक कई बार सलाह जारी करता रहा, परंतु कठोर कार्रवाई कभी नहीं की गई। सुरक्षा निरीक्षण सिर्फ “औपचारिकता” के रूप में किए जाते रहे। यही नहीं, दबाव में एयरलाइन लाइसेंस देने में जल्दबाज़ी की गई। व्यावसायिक मॉडल कमजोर होने के बावजूद कई कंपनियों को उड़ान की अनुमति दे दी गई।

इन कमज़ोरियों ने भारतीय विमानन को “उड़ान के पहले ही ख़तरे” में झोंक दिया। एक तथ्य यह भी है कि भारत की एयरलाइंस विदेशी लीज़िंग कंपनियों और डॉलर आधारित लागत पर अत्यधिक निर्भर हैं, जिससे वित्तीय जोखिम बढ़ता है। लेकिन जब भी कोई एयरलाइन बंद होती है, यात्रियों का पैसा फँसता है, टिकट रद्द होते हैं, किराए अचानक बढ़ जाते हैं, कर्मचारियों की नौकरियाँ जाती हैं। किंगफिशर, जेट और सहारा के बंद होने से जनता ने भारी नुकसान झेला। और यही चक्र दोहराया जा रहा है, बस नाम बदलते रहते हैं।

भारत के विमानन संकट की जड़ें, लागत बहुत अधिक, किराया बहुत कम। कंपनियाँ लंबे समय तक सस्ते टिकट देकर बाजार कब्जाने की कोशिश करती हैं, लेकिन नुकसान बढ़ता जाता है। डॉलर में लागत, रुपये में आय—ईंधन, लीज़िंग, इंजन, मेंटेनेंस—सब का भुगतान डॉलर में, लेकिन कमाई रुपये में होती है। डीजीसीए की निगरानी मजबूत नहीं रही है। सरकारी एयरलाइनों में तो यह स्थायी समस्या रही है।

टाटा समूह के हाथों में एयर इंडिया का पुनर्जीवन एक उम्मीद जगाता है। इंडिगो अभी भी एक बड़ी और महत्वपूर्ण एयरलाइन है, लेकिन उसे अपनी रणनीति नए दौर के अनुसार बदलनी होगी।

आकासा जैसी नई एयरलाइंस सादगी और दक्षता पर जोर दे रही हैं। लेकिन जब तक डीजीसीए वास्तविक निगरानी नहीं करेगा, पायलट प्रशिक्षण में सुधार नहीं होगा, वित्तीय पारदर्शिता नहीं बढ़ेगी, राजनीति और विमानन का रिश्ता साफ नहीं होगा, कंपनियों के दिवालिया होने पर जनता को सुरक्षा नहीं मिलेगी, तब तक भारत विमानन उद्योग उछाल और गिरावट के इस चक्र से मुक्त नहीं हो पाएगा। विमानन सिर्फ उड़ान भरना नहीं है; यह उस भरोसे का प्रश्न है जिसे यात्री हर बार अपनी जान सौंपकर बनाते हैं। यदि यह भरोसा बार-बार टूटा, तो एयरलाइनें नहीं, बल्कि पूरा देश कीमत चुकाएगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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जवाहरलाल नेहरू का बाबर प्रेम: अनंत विजय

जवाहरलाल नेहरू ने बाबरी मस्जिद का प्रश्न भी उठाया था लेकिन सरदार पटेल ने साफ कर दिया था कि सरकार एक भी पैसा किसी मस्जिद को बनवाने पर खर्च नहीं करेगी।

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Monday, 08 December, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के पिछले दिनों दिए एक बयान पर विवाद हो गया। रक्षा मंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि, सरदार वल्लभ भाई पटेल उदार व्यक्ति थे। वे सच्चे अर्थों में सेकुलर थे, पंथनिरपेक्ष थे। वे तुष्टीकरण में विश्वास नहीं करते थे। जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर सरकारी खजाने के पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाने की बात कही थी तो उसका भी विरोध अगर किसी ने किया था तो वो गुजराती मां की कोख से पैदा हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया था।

उस समय उन्होंने सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद नहीं बनने दी। इसपर नेहरू जी ने सोमनाथ मंदि के पुनर्निमाण का सवाल उठाया तो बहुत ही शांत लेकिन दृढ़ स्वर में सरदार पटेल ने स्पष्ट किया कि सोमनाथ मंदिर का मामला अलग है, वहां 30 लाख रुपए जनता ने दान दिए हैं और एक ट्रस्ट बनाया गया है। इस काम में सरकार का एक कौड़ी भी खर्च नहीं हुआ है।

राजनाथ सिंह ने आगे कहा कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण में ऐसा ही हुआ। अयोध्या में भी जनता के पैसे से ही श्रीराममंदिर का निर्माण हुआ। यही पंथ निरपेक्षता की सच्ची परिभाषा है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के इस बयान के बाद आनन-फानन में कांग्रेस के नेता ने इसे झूठ करार दिया और कहा कि इन बातों का कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं है।

कांग्रेस के नेता माणिकराम टैगोर ने एक्स पर लिखा कि राजनाथ जी का बयान इतिहास नहीं बल्कि राजनीति है और ये वर्तमान को बांटने के लिए भूतकाल का पुनर्लेखन है। कांग्रेस के अन्य नेताओं ने भी राजनाथ सिंह के इस बयान पर कठोर प्रतिक्रिया दी। जो लोग रक्षा मंत्री के बयान का आधार और दस्तावेजी सबूत मांग रहे थे उनको भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल की पुस्तक पढ़ने की सलाह दी। वैसे भी ये समझा जाना चाहिए था कि राजनाथ सिंह सार्वजनिक जीवन में कोई हल्की बात नहीं करते हैं।

ये पूरा प्रसंग मणिबेन पटेल की पुस्तक ‘इनसाइड स्टोरी आफ सरदार पटेल’ में पृष्ठ संख्या चौबीस पर है। वो लिखती हैं कि नेहरू ने बाबरी मस्जिद का प्रश्न भी उठाया था लेकिन सरदार पटेल ने साफ कर दिया था कि सरकार एक भी पैसा किसी मस्जिद को बनवाने पर खर्च नहीं करेगी। उन्होंने नेहरू को स्पष्ट किया था कि सोमनाथ मंदिर के पुनर्निमाण का मसला अलग है।

वहां एक ट्रस्ट बनाया गया था और उस ट्रस्ट ने जनता से तीस लाख रुपए जमा किए थे। सरदार पटेल ने नेहरू को बताया कि इस ट्रस्ट के चेयरमैन जामसाहब हैं और मुंशी इसके सदस्य हैं। इसमें सरकार का कोई पैसा नहीं दिया गया है जो मंदिर निर्माण के लिए खर्च किया जाए। इतना सुनकर नेहरू चुप हो गए थे। सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल की पुस्तक के अनुसार ये पूरा प्रसंग 20 सितंबबर 1950 को घटित हुआ था। इस प्रसंग को पढ़ते हुए यही लगता है कि नेहरू और पटेल के बीच बाबरी मस्जिद पुनर्निमाण पर बा हुई थी जिसमें नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के फिर से बनाए जाने का उदाहरण दिया था।

जो कांग्रेस के नेता या समर्थक राजनाथ सिंह के बयान के बारे में प्रमाण मांग रहे हैं उनके लिए मणिबेन की पुस्तक उपयोगी हो सकती है। पुस्तक में उल्लिखित उपरोक्त प्रसंग से स्पष्ट है कि नेहरू जी सरकारी धन से बाबरी मस्जिद बनवाना चाहते थे जिसको सरदार पटेल ने रुकवा दिया था। दरअसल बाबर को लेकर नेहरू के मन में आदर का भाव हमेशा से था।

उनके हिसाब से वो पुनर्जागरण के दूत जैसे थे। नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी आफ इंडिया (शताब्दी संस्करण, आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 1989) में लिखा है कि बाबर एक आकर्षक व्यक्ति था, पुनर्जागरण का साहसी और दबंग राजकुमार जिसकी कला और साहित्य में रुचि थी और शानदार जीवन जीना चाहता था। यहां यह प्रश्न तो उठता ही है कि बाबर ने भारत में किस तरह से पुनर्जागरण किया जिसके कारण नेहरू को उनमें पुनर्जागरण के राजकुमार की छवि दिखाई देती थी। इस पूरी पुस्तक में नेहरू ने बहुधा बाबर को आदर के साथ याद किया है।

बाबर ही क्यों नेहरू मुगल राजवंश के अनेक शासकों के प्रति उदार दिखाई पड़ते हैं। अकबर को तो वो बाबर से अधिक आकर्षक और साहसी बताते हैं। मुगलों के भारतीयकरण के वामपंथी इतिहासकारों के प्रयास को गति देते भी दिखते हैं। इसलिए अगर डिस्कवरी आफ इंडिया में बाबर के प्रति नेहरू के व्यक्त आदर को मणिबेन पटेल की पुस्तक में वर्णित प्रसंग से जोड़कर देखा जाए तो किसी प्रकार की शंका शेष नहीं बचती है कि बाबर के नाम से बनी मस्जिद को वो सरकारी पैसे से बनवाना चाहते थे।

नेहरू सत्ता में बने रहने के लिए कोई भी उपक्रम करने को तैयार रहते थे। जो ये कहते हैं कि नेहरू के समय में सरकार के समर्थन से धार्मिक कार्य नहीं किए जा सकते थे उनको भी इतिहास की पुस्तकों में वर्णित और दबा दिए गए तथ्यों को देखना चाहिए। एक पुस्तक है ‘आफ्टरमाथ आफ पार्टिशन इन साउथ एशिया’। उसमें 14 अगस्त 1947 का एक प्रसंग है जब शाम को डा राजेन्द्र प्रसाद के दिल्ली के घर पर पूजा और हवन का आयोजन किया गया।

हवन के लिए पुरोहितों को बुलाया गया था। भारत की नदियों का पवित्र जल मंगवाया गया था। राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू हवन कुंड के सामने बैठे थे। उपस्थित महिलाओं ने दोनों के माथे पर चंदन का तिलक लगाया। नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद ने हवन पूजन किया। पूजा और हवन के पहले नेहरू ने कहा था कि उनको ये सब पसंद नहीं है। तब उनके कई मित्रों ने समझाया कि सत्ता प्राप्त करने का हिंदू तरीका यही है। उसके फौरन बाद नेहरू तैयार हो गए। नेहरू के बाद तुष्टीकरण की ये नीति कांग्रेस की नीति बन गई। दिरा से लेकर राजीव गांधी और मनमोन सिंह तक सभी इसी पर चलते रहे।

प्रणब मुखर्जी ने सक्रियय राजनीति से अलग होने के बाद तीन पुस्तकें लिखीं जो उनके अनुभवों पर आधारित है। अपनी तीसरी पुस्तक द कोएलीशन इयर्स में उन्होंने कांची के शंकराचार्य की गिरफ्तारी के प्रसंग पर कैबिनेट की चर्चा का वर्णन किया है। लिखा कि ‘कैबिनेट की बैठक में शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती की गिरफ्तारी की टाइमिंग पर सवाल उठाते हुए मैं गुस्सा हो गया और पूछा कि इस देश में धर्मनिरपेक्षता सिर्फ हिंदुओं के लिए ही है, किसी की हिम्मत है कि वो ईद के समय किसी मुस्लिम धर्मगुरू को गिरफ्तार कर ले?

ये वो समय था जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और प्रणब मुखर्जी उनके कैबिनेट के सदस्य थे। सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाने की कोशिश और सोमनाथ मंदिर के भव्य स्वरूप को बनाने को लेकर हिचक। जनता से पैसे से सोमनाथ मंदिर जब बनकर तैयार हुआ तो राष्ट्रपति को वहां जाने से रोकने का प्रयास नेहरू ने किया। नेहरू की नीतियों पर चलनेवाली कांग्रेस ने अयोध्या में प्रभु श्रीराम के नव्य और भव्य मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह का आमंत्रण यूं ही नहीं ठुकराया।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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Gemini या ChatGPT कौन बेहतर? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

कौन सा AI मॉडल बेहतर है? इस समझने के लिए एक परीक्षा होती है। इसका नाम है Humanities Last Exam, हर बड़े विषय के एक्सपर्ट इसका पेपर बनाते हैं।

Last Modified:
Monday, 08 December, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

ChatGPT को आए 30 नवंबर को तीन साल हो गए। यह पहला Generative AI App था। इसके बाद से AI का चलन बहुत तेज़ी से बढ़ा है। तीन साल पूरे होने पर ChatGPT बनाने वाली कंपनी Open AI ने जश्न मनाने के बजाय अपने लिए ख़तरे की घंटी बजाई है।

Open AI के संस्थापक सैम अल्टमैन ने कोड रेड जारी किया है। अपने स्टाफ़ से कहा कि सारे नए काम बंद कर ChatGPT पर ध्यान दें क्योंकि Google Gemini और Claude जैसे एप अब उसे टक्कर दे रहे हैं। आज हिसाब किताब करेंगे कि ChatGPT और Google Gemini में बेहतर कौन है।

कौन सा AI मॉडल बेहतर है। इसके लिए एक परीक्षा होती है। इसका नाम है Humanities Last Exam। हर बड़े विषय के एक्सपर्ट इसका पेपर बनाते हैं। ढाई से तीन हज़ार सवाल होते हैं। इस परीक्षा में Gemini का स्कोर 37% रहा है जबकि ChatGPT का 31%। यानी Gemini आगे निकल गया है।

पर परीक्षा से आपको क्या मतलब है। आपको तो रोज़ाना के कामों में इसे इस्तेमाल करना है। अगर एक लाइन में कहा जाए तो Gemini साइंस का अच्छा स्टूडेंट है जबकि ChatGPT लिबरल आर्ट्स का। Gemini आँकड़ों से खेल सकता है जबकि ChatGPT शब्दों से। इसका मतलब यह नहीं है कि ChatGPT गणित में कमजोर है या Gemini भाषा में।

जो तीन काम आपके लिए ChatGPT अच्छा कर सकता है वह है लिखना। ई-मेल, लेख। दूसरा काम है समझाना। किसी अच्छे टीचर की तरह यह मुश्किल विषय आसान भाषा में समझा सकता है। तीसरा काम है सलाहकार का। जैसे करियर को लेकर CV बनाने या इंटरव्यू की तैयारी को लेकर यह आपकी मदद कर सकता है।

अब बात करते हैं Gemini के तीन कामों के बारे में। यह आपको फ़ाइनेंस, बिज़नेस और इन्वेस्टमेंट जैसे विषयों में फ़ैसले में मदद कर सकता है। Google का रियल टाइम डेटा इसे बेहतर बनाता है। दूसरा काम है रिपोर्ट पढ़ने का।

यह Multi Modal है यानी अलग-अलग इनपुट जैसे फ़ोटो, वीडियो, ऑडियो, टेक्स्ट को एक साथ समझने की क्षमता रखता है। सारी बातें लिखकर बताना ज़रूरी नहीं है। तीसरा काम जो यह बेहतर कर सकता है वह है ट्रैवल एजेंट का। आपके Gmail, कैलेंडर का उसे पता है। Google Flights से उसके पास रियल टाइम डेटा है जो आपको बुकिंग में मदद करेगा। सिर्फ पेमेंट आपको करना है।

फ़ैसला आपका है कि किसे चुनना है। दोनों की खूबियाँ आपको बता दी गई हैं। मेरी सलाह है कि यूज़ करना शुरू कीजिए। यह ध्यान रखना होगा कि AI गलती कर सकता है। उसे सब पता नहीं है। परीक्षा में उसका स्कोर पासिंग परसेंट पर ही है फ़िलहाल।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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भारत-रूस दोस्ती अब और मजबूत होगी: रजत शर्मा

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी की पुतिन के साथ 17वीं मुलाकात हुई। जब नरेंद्र मोदी पुतिन का स्वागत करने एयरपोर्ट पहुंचे तो रूसी अधिकारी आश्चर्यचकित थे।

Last Modified:
Saturday, 06 December, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

भारत और रूस ने विज़न 2030 आर्थिक और व्यापार सहयोग समझौते पर दस्तखत किया। इसका उद्देश्य दोनों देशों के बीच व्यापार,पूंजी निवेश,आवागमन और उद्योग सहित तमाम क्षेत्रों में आपसी सहयोग को तेज करना है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ साझा प्रेस कांफ्रेंस में राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन ने उम्मीद जतायी कि दोनों देशों के बीच सालाना कारोबार 65 अरब डॉलर से बढ़ कर 100 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा और रूस भारत को तेल की सप्लाई जारी रखने के लिए तैयार है।

अमेरिका के यूक्रेन शांति प्रस्ताव को ठुकराने के बाद पुतिन और मोदी की ये मुलाकात बहुत महत्वपूर्ण थी। मोदी के लिए भी पुतिन के आगमन का समय बहुत खास था। अमेरिका ने भारत पर टैरिफ असामान्य तरीके से बढ़ाया है। टैरिफ बढ़ाने के लिए भारत के रूस से तेल खरीदने को बहाना बनाया है। कुछ हफ्ते पहले चीन में मोदी, शी जिनपिंग और पुतिन की तस्वीरें देखकर अमेरिका के तेवर ढीले हुए थे।

रक्षा के मामले में रूस भारत का सबसे विश्वसनीय दोस्त है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत अब रूस से नए हथियार खरीदेगा। रूस भारत को मिसाइल सप्लाई करेगा। भारत के एयर डिफेंस सिस्टम को मजबूत करने के लिए रूस मदद करेगा। भारत और रूस के बीच जो रक्षा सौदे होंगे, उनको लेकर सबसे ज्यादा बेचैनी पाकिस्तान और चीन को है। कहने को तो ये रूस और भारत की सालाना समिट थी लेकिन पूरी दुनिया में इस मीटिंग की चर्चा है।

रूस और भारत अच्छे दोस्त हैं, अच्छे ट्रेड पार्टनर हैं। रक्षा के मामलों में एक दूसरे के भरोसेमंद दोस्त हैं लेकिन दोनों मुल्कों के रिश्ते मजबूत हुए, मोदी और पुतिन की व्यक्तिगत दोस्ती की वजह से। प्रधानमंत्री बनने के बाद आज नरेंद्र मोदी की पुतिन के साथ 17वीं मुलाकात हुई। जब नरेंद्र मोदी पुतिन का स्वागत करने एयरपोर्ट पहुंचे तो रूसी अधिकारी आश्चर्यचकित थे क्योंकि उन्हें पहले से नहीं बताया गया था कि मोदी पुतिन का स्वागत करने एयरपोर्ट आएंगे।

जब पुतिन दिल्ली पहुंचे तो उनका स्वागत गर्मजोशी के साथ हुआ। ऐसा स्वागत किसी दोस्त के लिए होता है। प्रधानमंत्री मोदी प्रोटोकॉल की सीमा लांघकर पुतिन का स्वागत करने एयरपोर्ट पहुंचे और अपनी कार में बिठाकर प्रधानमंत्री आवास तक ले गए।

मोदी और पुतिन की अक्सर फोन पर बात होती है। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल भी मॉस्को जाकर कई बार पुतिन से मिल चुके हैं। इसीलिए भारत और रूस दोनों मिलकर एक महाशक्ति बन सकते हैं और एक नया वर्ल्ड आर्डर तैयार कर सकते हैं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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सेलिब्रिटी और बैंक: क्या विज्ञापनों में स्टार्स भरोसा दिला सकते हैं?

AU Small Finance Bank इन दिनों काफी चर्चा में है। वजह है इसका नया ऐड कैंपेन, जिसमें रणबीर कपूर और रश्मिका मंदाना नजर आ रहे हैं।

Last Modified:
Friday, 05 December, 2025
Ganpathy654213

गणपति स्वामिनाथन, इंडिपेंडेंट कम्युनिकेशन कंसल्टेंट ।।

AU Small Finance Bank इन दिनों काफी चर्चा में है। वजह है इसका नया ऐड कैंपेन, जिसमें रणबीर कपूर और रश्मिका मंदाना नजर आ रहे हैं। इससे पहले बैंक ने आमिर खान और कियारा आडवाणी के साथ भी काम किया था। इतने जल्दी-जल्दी चेहरे बदलने से जाहिर है लोगों की नजर इस पर जाती है। और AU अकेला नहीं है- फेडरल बैंक के लिए विद्या बालन, ICICI के लिए अमिताभ बच्चन, HSBC के लिए विराट कोहली और एक्सिस बैंक के लिए दीपिका पादुकोण… बैंकिंग सेक्टर को बॉलीवुड का सहारा लेना जैसे आम बात हो गई है। मगर बड़ा सवाल ये है कि आखिर फिल्म स्टार बैंक जैसे भरोसे और सावधानी पर आधारित सेक्टर के लिए क्या कर पाते हैं?

क्यों करते हैं बैंक सितारों का इस्तेमाल 

सच कहें तो बैंकिंग कोई मजेदार या ग्लैमरस कैटेगरी नहीं है। सेविंग्स अकाउंट और FD रेट्स में ग्लैमर ढूंढना मुश्किल है। ऐसे में सेलिब्रिटीज इन ads में जान डाल देते हैं। उनकी मौजूदगी से बैंक भीड़ में अलग दिखते हैं और कैंपेन को तुरंत पहचान मिल जाती है।

सेलिब्रिटीज पहले से ही लोगों की नजरों में भरोसा, सफलता, आत्मविश्वास और स्थिरता जैसी इमेज लेकर आते हैं। बैंक कोशिश करते हैं कि ये इमेज उनके ब्रांड पर भी चिपक जाए। AU जैसे नए बैंक के लिए बड़े स्टार्स के साथ काम करना यह दिखाने का तरीका भी है कि “हम छोटे नहीं हैं, बड़े खेल में आ चुके हैं।”

क्या कोई सेलिब्रिटी सच में भरोसा दिला सकता है?

यहीं मामला मुश्किल हो जाता है। एक बैंक में भरोसा तब बनता है जब वह सालों तक लोगों का पैसा सुरक्षित रखे, मुश्किल समय में साथ दे, और रोजमर्रा की सेवाओं में भरोसेमंद साबित हो।
सेलिब्रिटी ध्यान जरूर खींच सकता है, लेकिन वह किसी को अपनी लाइफ सेविंग्स बदलने के लिए मनाए- ये कम ही होता है।

सेलिब्रिटी सिर्फ “पहली मुलाकात” को आसान बनाते हैं। भरोसा तो ब्रांच के काउंटर, मोबाइल ऐप या मुश्किल समय में बैंक की मदद से बनता है—30 सेकंड के खूबसूरत ऐड से नहीं।

क्या सेलिब्रिटी बैंक की छवि या उसकी आइडिंटिटी से मेल खाते हैं?

अक्सर यहीं गलती हो जाती है। मान लीजिए बैंक की इमेज बहुत गंभीर और स्थिर है, और सेलिब्रिटी बहुत ज्यादा ग्लैमरस या फन-लविंग। तब ऐड अच्छा तो लगता है, लेकिन दिल को छू नहीं पाता—कनेक्शन मिस हो जाता है।

अच्छे पार्टनरशिप वहीं बनती हैं, जहां फिट सही हो:

  • अमिताभ बच्चन और ICICI की मजबूत, भरोसेमंद इमेज

  • विद्या बालन और फेडरल बैंक की सीधी, अपनापन भरी टोन

  • दीपिका और एक्सिस बैंक की स्टाइलिश, आधुनिक ब्रांडिंग

AU का आमिर–कियारा से रणबीर–रश्मिका की तरफ जाना शायद उसकी नई योजनाओं को दिखाता है- उन्हें अब और युवा, डिजिटल और आधुनिक दिखना है।

अल्पकालिक रणनीति, स्थायी योजना नहीं

ज्यादातर बैंक सेलिब्रिटीज को लंबे समय के लिए नहीं रखते। उन्हें बस एक तेज, जोरदार कैंपेन चाहिए होता है- नई मार्केट में प्रवेश, किसी नए प्रोडक्ट का लॉन्च, या ब्रांड रिफ्रेश के समय। लेकिन मीडिया का खर्च इतना बढ़ गया है कि लंबे समय तक ऐसे ऐड चलाना मुश्किल हो गया है।

इसके अलावा, किसी स्टार को सालों तक रखना महंगा भी है, और अगर उस स्टार से जुड़ा कोई विवाद हो जाए तो बैंक की इमेज पर खतरा हो सकता है। इसलिए बैंक चाहते हैं छोटी, लेकिन प्रभावी साझेदारी।

निष्कर्ष यह है कि: सेलिब्रिटीज मदद जरूर करते हैं, लेकिन सब कुछ नहीं हैं।

सेलिब्रिटीज बैंक को खास तौर पर दिखाते हैं। वे कैंपेन में ऊर्जा, आकर्षण और ताजगी लाते हैं। लेकिन वो भरोसा नहीं बना सकते।
वह दरवाजा खोल देते हैं- अंदर बुलाने का हक बैंक को अपने काम से कमाना पड़ता है।

लंबे समय में बैंक की साख उन्हीं चीजों से बनती है जो दिखती नहीं हैं- बेहतर सेवा, तेज डिजिटल सुविधाएं, साफ-सुथरी कम्युनिकेशन और सबसे बढ़कर ग्राहक को ये भरोसा कि उसका पैसा सुरक्षित है। 

(लेखक MASTERING THE MESSAGE नामक किताब के लेखक हैं और ये उनके निजी विचार हैं)

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स्पेशलिस्ट गेंदबाज़ नाम की भी चिड़िया होती है: नीरज बधवार

गंभीर बाबू को ये बात कब समझ आएगी कि जडेजा और सुंदर आपको बीच में कुछ टाइट ओवर तो दे सकते हैं, मगर वो अपनी बॉलिंग से आपको मैच नहीं जिता सकते।

Last Modified:
Thursday, 04 December, 2025
neerajbadhwar.

नीरज बधवार, पत्रकार, लेखक।

पहले वनडे में टीम इंडिया साढ़े तीन सौ के करीब रन बनाकर हारने वाली थी और दूसरे वनडे में तो वो 359 रन बनाकर भी हार ही गई। कारण बड़ा सिंपल है। आप स्पेशलिस्ट गेंदबाज़ों की इज़्ज़त नहीं करते और आपने यहाँ भी 'bits and pieces' वाले प्लेयर भर रखे हैं।

गंभीर बाबू को ये बात कब समझ आएगी कि जडेजा और सुंदर आपको बीच में कुछ टाइट ओवर तो दे सकते हैं, मगर वो अपनी बॉलिंग से आपको मैच नहीं जिता सकते। हर्षित जैसा गेंदबाज़ कभी-कभार आपको विकेट दिला सकता है, लेकिन वो इतना 'inconsistent' है कि वो कभी भी आपका मुख्य गेंदबाज़ नहीं बन सकता।

अर्शदीप अच्छे बॉलर हैं, लेकिन वनडे फॉर्मेट में वो बेहद नए हैं। सिराज और शमी जैसे गेंदबाज़ों के होते प्रसिद्ध कृष्णा टीम में क्यों हैं, इस बात पर तो खुद प्रसिद्ध कृष्णा भी हैरान हैं। मैं इस बात पर भी हैरान हूँ कि वरुण चक्रवर्ती जैसा क्लास स्पिनर वनडे टीम से क्यों बाहर है।

आप उनकी जगह जडेजा या सुंदर को इसलिए खिला रहे हैं कि वो बैटिंग भी कर सकते हैं, लेकिन भाई अगर आपके पास मैच विनर बॉलर हो तो वो ढाई सौ रन भी डिफेंड करवा सकता है। जिस दिन आप आठ बल्लेबाज़ खिलाकर साढ़े तीन सौ रन बनाने के बजाय, चार क्लास बॉलर खिलाकर 250 रन डिफेंड करने की सोचने लगेंगे, तो आपको अपने आप समझ आ जाएगा कि किसे टीम में रखना है और किसे नहीं।

मगर जब कोच के सिर पर थके हुए ऑलराउंडर्स को टीम में भर्ती करने का भूत सवार हो और स्पेशलिस्ट गेंदबाज़ जैसी चिड़िया उसके शब्दकोष में शामिल ही न हो, तो टीम का वही हाल होगा जो टेस्ट के बाद वनडे सीरीज़ में हुआ है।

जागो, बीसीसीआई जागो, इससे पहले कि गंभीर अर्शदीप और कुलदीप को टीम से निकालकर ग्यारहवें नंबर तक बैटिंग मज़बूत करने के लिए उनकी जगह शार्दुल ठाकुर और नीतीश कुमार रेड्डी को न खिला ले।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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वेब सीरीज में घटनाओं का काल्पनिक कोलाज: अनंत विजय

ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक किरदार के राजनीतिक पहचान को उजागर तो करना चाहता है लेकिन बचने का रास्ता भी बनाकर चलता है। कहानी कहने की ये प्रविधि अपेक्षाकृत नई है।

Last Modified:
Monday, 01 December, 2025
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

हाल ही में दो वेब सीरीज प्रदर्शित हुई। ‘द फैमिली मैन’ का सीजन तीन और महारानी का सीजन चार। महारानी सीजन चार बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान रिलीज हुई। बिहार की राजनीति को केंद्र में रखकर बनी ये वेबसीरीज उस दौरन चर्चा में रही। प्रधानमंत्री कार्यालय के खबर रोकने के लिए फोन किए जाने के दृश्य को लेकर चुनाव के दौरान विपक्षी ईकोसिस्टम के कुछ लोगों ने माहौल बनाने का प्रयास किया था।

इन दोनों सीरीज में समानता है। दोनों कहीं न कहीं राजनीति और उसके दाव-पेंच पर आधारित है। राजनीति के साथ-साथ अपराध और आतंकवाद भी समांतर कहानी के तौर पर चलती है। दोनों वेबसीरीज में लेखक ने पिछले दशकों की राजनीतिक घटनाओं को उठाया है और उसका काकटेल बनाकर एक काल्पनिक कहानी गढ़ने का प्रयास किया है।

ऐसी काल्पनिक कहानी जिसमें भारतीय राजनीति की कुछ घटनाएं तो दिखती हैं लेकिन उसका कालखंड मेल नहीं खाता है। कई प्रधानमंत्रियों के स्वभाव और उनके कालखंड में घटी घटनाओं को जोड़कर एक ऐसा प्रधानमंत्री बना दिया गया जिससे कि इसको काल्पनिक कहा जा सके। महारानी सीरीज में जिस प्रधानमंत्री को दिखाया गया है उसमें नरसिम्हाराव से लेकर अटल जी की छवि दिखती है।

इसी तरह से फैमिली मैन में महिला प्रधानमंत्री दिखाया गया है लेकिन घटनाएं अलग अलग दौर की जोड़ दी गई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक किरदार के राजनीतिक पहचान को उजागर तो करना चाहता है लेकिन बचने का रास्ता भी बनाकर चलता है। कहानी कहने की ये प्रविधि अपेक्षाकृत नई है। दर्शकों के सामने ये चुनौती होती है कि वो राजनीति के पात्रों को सीरीज में पहचाने और फिर घटनाओं का आनंद ले।

एक और चीज जो दोनों वेबसीरीज में समान रूप से प्रमुखता से उपस्थित है। वो है इसका अंत। फैमिली मैन के सात एपिसोड देखने के बाद भी दर्शकों को पूर्णता का एहसास नहीं होता और एक जिज्ञासा रह जाती है कि आगे क्या? म्यांमार में आपरेशन के बाद तमाम भारतीय सिपाही और एजेंट भारत लौट आते हैं लेकिन नायक मनोज वाजपेयी म्यांमार की सीमा में ही अचेत होकर गिरते दिखते हैं। सीरीज समाप्त हो जाती है।

खलनायक की भूमिका निभा रहे जयदीप अहलावत भी फरार हो जाते हैं और दर्शकों के मन में प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है कि उसका क्या हुआ? वो भी घायल है। महारानी सीरीज में हुमा कुरैशी ने रानी भारती का किरदार निभाया है जिसको पहले सीजन से ही राबड़ी देवी से प्रेरित बताकर प्रचारित किया जा रहा है। इस सीजन में वो प्रधानमंत्री बनना चाहती है लेकिन उसके मंसूबों पर प्रधानमंत्री जोशी पानी फेर देते हैं। राजनीति के इन चालों के बीच उसके बेटे जयप्रकाश भारती और उसके दोस्त की लाश मिलती है।

जयप्रकाश क्षेत्रीय दलों को रानी भारती के समर्थन केक लिए तैयार कर रहा था। रानी भारती की बेटी जिसको बिहार की मुख्यमंत्री दिखाया गया है उसको भी एक घोटाले का आरोपी बनाकर जेल में डाल दिया जाता है। इस सीरीज में भी कई घटनाक्रम भारतीय राजनीति से जुड़े हैं। रानी भारती की पार्टी के अधिकतर विधायक उसका साथ छोड़कर नई पार्टी बना लेते हैं।

रानी के विश्वस्त मिश्रा के नेतृत्व में बिहार में नई सरकार बनती है। ये दृष्य कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना का विभाजन याद दिलाती है। रानी भारती के बड़े बेटे की लाश मिलती है, बेटी जो मुख्यमंत्री थी अब जेल में है। रानी बिल्कुल अकेली पड़ जाती है। विदेश में पढ़ रहा उसका दूसरा बेटा उसके साथ खड़ा हो जाता है। रानी भारती को पता चलता है कि उसके बेटे की योजनाबद्ध तरीके से हत्या की गई है।

जब प्रधानमंत्री जोशी उसके पुत्र के निधन पर संवेदना प्रकट करने आते हैं तो वो उनसे कहती है कि जिस तरह से उसने अपने पति भीमा भारती के हत्यारों को सजा दी उसी तरह से वो अपने बेटे जयप्रकाश के हत्यारों को भी ढूंढ निकालेगी और सजा देगी या दिलवाएगी। कहानी यहीं समाप्त हो जाती है।

दोनों वेब सीरीज के अंत में दर्शकों को पूर्णता का अहसास नहीं होता है। ऐसा लगता है कि निर्माता या प्लेटफार्म अगले सीजन के लिए उत्सुकता बनाए रखना चाहते हैं। यह ठीक है कि निर्माता और प्लेटफार्म दर्शकों की उत्सुकता बनाए रखने के लिए कहानी को ऐसे मोड़ पर छोड़ देते हैं ताकि दर्शकों को इस बात का अनुमान रहे कि अगले सीजन में कहानी आगे बढ़ेगी।

प्रश्न यही उठता है कि जो दर्शक सात और आठ एपिसोड देख रहा है और तीन या चार सीजन देख रहा है उसको पूरी कहानी के लिए कितनी प्रतीक्षा करनी चाहिए। सीक्वल का एक तरीका तो ये भी हो सकता है जो साधरणतया फिल्मों में अपनाया जाता है। फिल्म दबंग या फिर एक था टाइगर, टाइगर जिंदा है और टाइगर 3 को देखा जा सकता है। तीनों फिल्म अपने आप में पूर्ण है लेकिन सीक्वल की संभावना भी बनी हुई है।

पर वेब सीरीज तो जैसे दर्शकों के धैर्य की प्रतीक्षा लेना चाहते हैं। क्या दर्शकों को छह सात घंटे देखने के बाद कहानी की पूर्णता नहीं मिलनी चाहिए। इन दोनों सीरीज के आखिर में लगता है कि कुछ मिसिंग है। इस मीसिंग को सीक्वल की संभावना बताकर सही नहीं ठहराया जा सकता है। अगर इसी तरह का व्यवहार दर्शकों के साथ किया जाता रहा तो संभव है कि दर्शकों का वेब सीरीज से मोहभंग हो जाए। वेब सीरीज के लेखक को, फिल्म के निर्देशक को और उसको प्रसारित करनेवाले प्लेटफार्म को इसपर विचार करना चाहिए।

एक और बात जो इन वेब सीरीज से जुड़े लोगों को सोचना होगा कि जिस कालखंड की कहानी दिखा रहे हैं उस कालखंड में वो सारी चीजें होनी चाहिए जो वेब सीरीज में दिखाई जा रही हैं। अगर 2005 के कालखंड की घटनाओं को मुंबई में घटित होते दिखा रहे हैं तो बांद्रा वर्ली सी लिंक कैसे दिखा सकते हैं। 2005 में तो वो बना ही नहीं था। उस कालखंड की कहानी दिखाते समय इस बात का ध्यान भी रखना चाहिए कि उस समय ट्वीटर प्रचलन में था या नहीं।

अगर नहीं था तो फिर उस दौर की घटनाओं को ट्वीटर पर ट्रेंड करते हुए कैसे दिखा सकते हैं। ये छोटी बाते हैं लेकिन इनका अपना एक महत्व है। घटनाओं का कोलाज बनाने के चक्कर में इस तरह की छोटी पर महत्वपूर्ण भूल दिख जाती है जो लेखक और निर्देशक की सूझबूझ पर प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं। आज के दौर की कई वेबसीरीज में इस तरह की घटनाएं आपको दिख जाएंगी।

कहानी जिस कालखंड में सेट होती है उस कालखंड की विशेषताओं का ध्यान रखना होता है। अलग अलग समय पर हुए प्रधानमंत्रियों के गुणों और अवगुणों को मिलाकर एक चरित्र तो गढ़ सकते हैं लेकिन उस दौर की स्थायी चिन्हों को नहीं बदल सकते। किसी पात्र को संसद भवन ले जाते हैं तो उसको नई संसद के गेट पर उतरते हुए दिखाना होगा ना कि पुरानी संसद के पोर्टिको में। काल्पनिकता को भी एक प्रकार की प्रामाणिकता की जरूरत होती है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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Google Gemini का इस्तेमाल कैसे करें? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

मैंने Google Gemini का फ्री वर्जन इस्तेमाल किया है। आप इसे Apple App Store या गूगल प्ले स्टोर से डाउनलोड कर सकते हैं। आप Jio के यूजर हैं तो प्रीमियम वर्जन 18 महीने के लिए फ्री में मिलेगा।

Last Modified:
Monday, 01 December, 2025
googlegemini

मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

Google Gemini ने AI की दुनिया में धूम मचा दी है। आप इसका इस्तेमाल कैसे करेंगे यह जानने से पहले दो बातें समझ लीजिए। पहली बात तो यह है कि यह ChatGPT की टक्कर का माना जा रहा है और दूसरा इसके पीछे NVIDIA की GPU (Graphic Processing Unit) नहीं लगी है बल्कि Google ने अपनी TPU ( Tensor Processing Unit) का इस्तेमाल किया है। Gemini के आने से ChatGPT और NVIDIA दोनों की मोनोपॉली को चुनौती मिली है। हिसाब किताब में इसकी चर्चा आगे कभी करेंगे लेकिन अभी पिछले हफ़्ते के वादे को निभा रहा हूँ। Google Gemini का इस्तेमाल हफ़्ते भर किया है। आपको अपने अनुभव बताऊंगा।

मैंने Google Gemini का फ्री वर्जन इस्तेमाल किया है। आप इसे Apple App Store या गूगल प्ले स्टोर से डाउनलोड कर सकते हैं। आप Jio के यूजर हैं तो प्रीमियम वर्जन 18 महीने के लिए फ्री में मिलेगा। जैसे Airtel यूज़र्स को Perplexity फ्री में मिल रहा है या ChatGPT हर किसी को फ्री में मिल रहा है। तो Gemini का आप तीन तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं।

पहला Vibe Coding मतलब आप को एप या वेबसाइट बनाने के लिए कोडिंग जानना ज़रूरी नहीं है। आप जानते होंगे कि कम्प्यूटर की भाषा को कोडिंग कहते हैं जैसे HTML, इसी भाषा को इस्तेमाल करके इंजीनियर सॉफ़्टवेयर बनाते हैं। अब आपको सिर्फ़ यह लिखना है कि आप क्या प्रोडक्ट बनाना चाहते हैं जैसे मैंने लिखा है कि SIP Calculator बना दो।

करोड़पति ( या लखपति) बनने के लिए हर महीने के लिए कितने पैसे इन्वेस्टमेंट करना होगा? आप तय करें कि कितने साल में करोड़पति बनना है और कहाँ कितना पैसा लगाना होगा जैसे म्यूचुअल फंड, सोना, PPF, Gemini को मैंने यह Prompt दिया। जवाब में उसने Prompt ठीक किया और HTML कोड लिख दिया। दूसरा काम किया मैंने ग्राफिक्स बनाने का।

Gemini के भीतर ग्राफिक्स या फ़ोटो बनाने के लिए Nano Banana मॉडल है। आप जो चाहें बनवा सकते हैं। मैंने कहा कि यह बताइए कि Gemini काम कैसे करता है उसने यह ग्राफिक्स बना दिया। हालाँकि हिंदी में ग़लतियाँ हुई, अंग्रेज़ी ठीक है। तीसरा काम है कि आपका ट्रैवल एजेंट। आप बजट बताइये, तारीख़ बताइए, ये आपके Google Calendar में जाकर देखेगा कि आप फ्री है या नहीं।

फिर आपको एयरलाइन या होटल की बुकिंग तक ले जाएगा, बुकिंग के लिए ज़रूरी जानकारी जैसे आपका नाम, नंबर खुद भर सकता है। पेमेंट फ़िलहाल आपको करना OK करना पड़ेगा। आगे चलकर यह काम भी वो खुद कर लेगा। तो अब देर किस बात की है, आप भी टेस्ट कीजिए और बताइए कि आपने क्या बनाया है?

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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राहुल की सरकार करे तो पुण्य, मोदी सरकार करे तो पाप क्यों: आलोक मेहता

इसी पृष्ठभूमि में गृह मंत्री के रूप में पी. चिदंबरम ने कहा था कि 'भारत को एक मजबूत नागरिक पहचान प्रणाली चाहिए, जो केवल निवास नहीं, बल्कि नागरिकता को भी दर्ज करे।'

Last Modified:
Monday, 01 December, 2025
alokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी भारतीय नागरिकता की पहचान कर मतदाता सूची बनाए जाने के मोदी सरकार के कदम का विरोध कर रही है, लेकिन उनको और जनता को यह क्यों नहीं याद दिलाया जाता कि जब 2008-2009 में राहुल बाबा की सरकार थी, तब नागरिकता पहचान पत्र की योजना का कार्यान्वयन मिस्टर चिदंबरम ने शुरू कर दिया था।

गृह मंत्री के नाते चिदंबरम ने अवैध बांग्लादेशियों की घुसपैठ रोकने और भारत की सुरक्षा के लिए इसके लिए करोड़ों रुपयों का बजट स्वीकृत करवाकर कई राज्यों में नागरिकता के स्मार्ट कार्ड के लिए बाकायदा फॉर्म भरवाकर सूचियां बनवानी तक शुरू करवा दी थी। मेरे जैसे पत्रकार सहित देश के लाखों लोगों ने संबंधित सरकारी केंद्रों पर फोटो खिंचवाकर पहचान की तकनीकी औपचारिकता पूरी की थी।

लेकिन कुछ महीनों बाद पता चला कि गांधी परिवार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने न जाने किस दबाव में इस योजना को रुकवा दिया। फिर यह बताया गया कि आधार कार्ड की योजना को ही प्राथमिकता दी जाए। यही नहीं, करोड़ों की संख्या में ‘स्मार्ट कार्ड्स’ बनवाने के लिए निजी कंपनियों को ठेके देने में घोटाले के आरोप सामने आए थे। इसीलिए सवाल उठ रहा है कि राहुल कांग्रेस की सरकार नागरिकता पहचान करे तो पुण्य और मोदी सरकार करे तो पाप क्यों?

भारतीय राजनीति में “पहचान”, “नागरिकता” और “मतदाता सत्यापन” जैसे विषय हमेशा से संवेदनशील रहे हैं। लेकिन पिछले डेढ़ दशक में इन मुद्दों पर कांग्रेस पार्टी के भीतर ही जो वैचारिक और राजनीतिक परिवर्तन दिखाई देता है, वह अत्यंत विवादास्पद है। एक समय था जब कांग्रेस सरकार में गृह मंत्री पी. चिदंबरम स्वयं राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (NPR) जैसी कठोर पहचान परियोजना के प्रमुख सूत्रधार थे।

2008–2012 का कालखंड भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौतीपूर्ण था। एक ओर 26/11 जैसे आतंकी हमले, दूसरी ओर पूर्वोत्तर और सीमावर्ती इलाकों में अवैध बांग्लादेशी घुसपैठ, और तीसरी ओर फर्जी दस्तावेजों से जुड़ा संगठित अपराध। इसी पृष्ठभूमि में गृह मंत्री के रूप में पी. चिदंबरम ने कहा था कि “भारत को एक मजबूत नागरिक पहचान प्रणाली चाहिए, जो केवल निवास नहीं, बल्कि नागरिकता को भी दर्ज करे।” इसी सोच से ‘नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर’ को मंत्रिमंडल से योजना और बजट की स्वीकृति मिली।

उस समय सरकार ने इस योजना के लिए प्रत्येक व्यक्ति का घर-घर जाकर सत्यापन, निवासी और संभावित नागरिक के बीच प्राथमिक अंतर, आंतरिक सुरक्षा एजेंसियों के लिए एक राष्ट्रीय डेटाबेस और अवैध प्रवास की पहचान का प्रारंभिक ढांचा आवश्यक माना था। तब कांग्रेस का तर्क था कि: “राष्ट्रीय सुरक्षा और नागरिक पहचान पर राजनीतिक संवेदनशीलता नहीं, बल्कि प्रशासनिक साहस दिखाना होगा।”

2009–10 के दौरान NPR और स्मार्ट कार्ड परियोजना के लिए: प्रारंभिक बजटीय प्रावधान: ₹3,700 करोड़ से अधिक, बाद में संशोधित अनुमान ₹6,000 करोड़ तक का प्रावधान रखा गया। यह राशि सर्वे एजेंसियों को भुगतान, बायोमेट्रिक उपकरण, स्मार्ट कार्ड निर्माण, केंद्रीय सर्वर अवसंरचना और राज्य सरकारों को अनुदान मदों पर व्यय होनी थी। तभी प्रकट हुआ आधार: दो पहचान प्रणालियों का टकराव। 2009 में भारत सरकार ने समानांतर रूप से UIDAI की स्थापना कर दी और आधार परियोजना शुरू कर दी।

चिदंबरम के कार्यकाल में NPR (राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर) को एक सुरक्षा-प्रधान परियोजना के रूप में देखा गया। यह कोई केवल जनगणना जैसी योजना नहीं थी। इसका आधार यह था कि बिना सत्यापित पहचान के आतंकवाद और अपराध से लड़ना मुश्किल है। अवैध प्रवासी मतदाता सूची और राशन प्रणाली दोनों को प्रभावित कर रहे हैं।

उस समय सरकार ने यह दावा किया था कि NPR किसी समुदाय के खिलाफ नहीं है, यह केवल प्रशासनिक शुद्धिकरण है, इससे असली नागरिकों को लाभ और फर्जी पहचान को नुकसान होगा। उसी दौर में कांग्रेस सरकार ने योजना आयोग के माध्यम से ‘आधार’ पहचान पत्र को भी आगे बढ़ाया। यहीं से पार्टी के भीतर ही दोहरी नीति से टकराव होने लगा और चिदंबरम की योजना को रुकवा दिया गया।

कई राज्यों में NPR का केवल आंशिक क्रियान्वयन हुआ। स्मार्ट कार्ड कभी राष्ट्रव्यापी स्तर पर जारी ही नहीं हो पाए। करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद मूल उद्देश्य—नागरिकता सत्यापन—पूरा नहीं हो सका। स्मार्ट कार्ड के ठेकों में गड़बड़ी के गंभीर आरोप लगे। डेटा संग्रह के लिए निजी कंपनियों को बड़े पैमाने पर ठेके दिए गए। कुछ एजेंसियों पर मानक पूरे न करने और गलत डेटा अपलोड के आरोप लगे।

कई स्थानों पर दोबारा सर्वे कराना पड़ा, जिससे दोहरा खर्च हुआ। NPR और आधार दोनों में एक ही व्यक्ति का बायोमेट्रिक डेटा दो बार लिया गया। इससे उपकरणों की दोहरी खरीद, मानव संसाधन पर दोहरा खर्च, हजारों करोड़ का अनुत्पादक अपव्यय हुआ। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक CAG ने अपनी रिपोर्टों में कहा कि परियोजनाओं के बीच समन्वय का अभाव, लागत-लाभ विश्लेषण अधूरा, नीति स्पष्ट न होने से सार्वजनिक धन का प्रभावी उपयोग नहीं हुआ।

2009 में आधार पहचान पत्र का काम शुरू हुआ। यह विश्व की सबसे बड़ी बायोमेट्रिक पहचान परियोजना बनी। आधार पर अब तक (लगभग 2010–2024 के बीच) अनुमानतः 14,000 से 16,000 करोड़ रुपये से अधिक का सार्वजनिक धन खर्च हो चुका है।

फिर आधार पहचान पत्र में दुरुपयोग और अनियमितताओं के आरोप सामने आए। फर्जी नामांकन और डुप्लीकेट आधार शुरुआती वर्षों में कई स्थानों पर, एक व्यक्ति के दो-दो आधार, फर्जी बायोमेट्रिक, दलालों द्वारा अवैध नामांकन, बाद में लाखों आधार संख्या रद्द की गई। समय-समय पर मीडिया में आरोप लगे कि कुछ राज्यों की वेबसाइटों से आधार डेटा लीक हुआ, निजी एजेंसियों द्वारा आधार विवरण का व्यापार किया गया। हालांकि सरकार ने कहा कि “कोर बायोमेट्रिक डेटा सुरक्षित है।”

आधार की अनिवार्यता पर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। न्यायालय ने कहा कि आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं, निजी सेवाओं में अनिवार्य करना असंवैधानिक और केवल सीमित सरकारी योजनाओं में वैध उपयोग। इससे स्पष्ट हो गया कि आधार: “कल्याण वितरण का उपकरण है, राष्ट्रीय नागरिकता पहचान नहीं।” जहां तक चुनाव आयोग का मामला है, इसका वार्षिक बजट आम तौर पर ₹1,000–₹2,000 करोड़ के बीच रहता है। इसमें शामिल होते हैं: वोटर कार्ड छपाई, डिजिटल वोटर डेटाबेस, बूथ लेवल ऑफिसर्स नेटवर्क, मतदाता सूची संशोधन अभियान और साइबर सुरक्षा। हर बड़े चुनाव (लोकसभा/विधानसभा) से पहले विशेष पुनरीक्षण का काम होना चाहिए।

2014 में सत्ता परिवर्तन के बाद कांग्रेस विपक्ष में आ गई। यहीं से कांग्रेस के लिए पहचान सत्यापन जैसे विषय: “सुरक्षा प्रश्न” से अधिक “सामाजिक-राजनीतिक जोखिम” बन गए। यहां यह स्पष्ट दिखने लगा कि जिस NPR को चिदंबरम ने एक समय सुरक्षा ढाल माना था, वही कांग्रेस के नए नेतृत्व के लिए “मानवाधिकार और लोकतांत्रिक चिंता” का विषय बन गया।

अब चुनाव आयोग द्वारा लागू की जा रही मतदाता सूची शुद्धिकरण प्रक्रिया को लेकर राहुल गांधी और विपक्ष ने कड़ा विरोध दर्ज किया है। उनका कहना है कि यह प्रक्रिया गरीब, प्रवासी और अल्पसंख्यक मतदाताओं के नाम काटने का माध्यम बन सकती है, इससे चुनावों की निष्पक्षता प्रभावित होगी, यह सत्तारूढ़ दल के पक्ष में वोटर सूची को “री-इंजीनियर” करने का प्रयास हो सकता है। राहुल गांधी का तर्क यह है कि: “मतदाता सत्यापन के नाम पर लोकतांत्रिक अधिकारों से छेड़छाड़ की जा रही है।”

चिदंबरम के गृह मंत्री काल में NPR को उन्होंने प्रशासनिक सुधार और सुरक्षा उपाय माना। आज वही चिदंबरम कहते हैं कि: ऐसी कोई भी सूची, जो नागरिकता या मताधिकार को चुनौती देती है, उसे अत्यंत सीमित, पारदर्शी और न्यायिक रूप से नियंत्रित होना चाहिए। “अवैध बांग्लादेशी” शब्द के प्रयोग पर भी चिदंबरम की आपत्ति है। उनका कहना है कि अवैध प्रवासी की पहचान सरकार का दायित्व है, लेकिन नागरिक को बार-बार अपनी वैधता सिद्ध करने के लिए खड़ा कर देना लोकतांत्रिक राज्य की परिभाषा के विरुद्ध है।

NPR यदि पूरी शक्ति के साथ लागू होता तो अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों की वास्तविक पहचान संभव होती, फर्जी वोटर सूचियां समाप्त होतीं, NRC प्रक्रिया सरल हो चुकी होती। परंतु राजनीतिक संवेदनशीलता और राज्य सरकारों के विरोध के चलते NPR को केवल एक सांख्यिकीय रजिस्टर बनाकर छोड़ दिया गया। नागरिकता जैसे प्रश्नों को “स्वैच्छिक” कर दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि अवैध प्रवास पर प्रभावी नियंत्रण नहीं हो पाया और आधार जैसा पहचान पत्र नागरिकता का प्रमाण बने बिना ही देश की मुख्य पहचान प्रणाली बन गया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने अब चुनाव आयोग को सही नागरिकता के साथ मतदाता सूची के शुद्धिकरण के लिए स्वीकृति दे दी। मतदाता पहचान पत्र सीधे-सीधे लोकतंत्र की जड़ों से जुड़ा हुआ है। यदि मतदाता सूची ही संदिग्ध हो जाए, तो चुनाव की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। मतदाता सूचियों में लंबे समय से फर्जी नाम, एक व्यक्ति के कई वोटर कार्ड, मृत व्यक्तियों के नाम, अवैध प्रवासियों के नाम, बार-बार स्थानांतरण के बाद भी नाम न कटना समस्याएं रही हैं।

इसी पृष्ठभूमि में चुनाव आयोग समय-समय पर मतदाता सूची शुद्धिकरण और अब मतदाता सूची शुद्धिकरण जैसी प्रक्रियाएं लागू करता है, ताकि मतदाता सूची को शुद्ध किया जा सके। इसका उद्देश्य यह होता है कि प्रत्येक मतदाता का पुनः सत्यापन किया जाए, गलत प्रविष्टियों को हटाया जाए, दोहरे नामों को समाप्त किया जाए, स्थान परिवर्तन के अनुसार नई प्रविष्टियां की जाएं।

यह एक नियमित प्रशासनिक प्रक्रिया है, जिसे चुनाव आयोग स्वतंत्र रूप से समय-समय पर करता रहा है। यही प्रक्रिया वर्तमान में कुछ राज्यों में विशेष रूप से लागू की जा रही है, ताकि आगामी चुनावों से पहले मतदाता सूची को अधिक विश्वसनीय बनाया जा सके। बहरहाल, दीर्घकालिक समाधान यही है कि भारत को अंततः एक स्पष्ट, वैधानिक और सर्वमान्य नागरिकता आधारित राष्ट्रीय पहचान प्रणाली बनानी ही होगी, ताकि बार-बार मतदाता सत्यापन जैसे विवाद खड़े न हों।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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कर्नाटक में कांग्रेस का टूटना तय: समीर चौगांवकर

राहुल, उनकी मां सोनिया गांधी और बहन प्रियंका एक साथ राजनीति में सक्रिय हैं उसके बाद भी पार्टी पर गांधी परिवार की पकड़ और देशभर में कांग्रेस इससे ज्यादा कमजोर पहले कभी नहीं थी।

Last Modified:
Saturday, 29 November, 2025
congress

समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

कर्नाटक कांग्रेस में वर्चस्व की लड़ाई बेशर्मी के साथ सड़कों पर आ गई है। कांग्रेस का कर्नाटक संकट यह बताता है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व ऐतिहासिक गलतियों के बाद भी सुधरना नहीं चाहता और मोदी और शाह की कार्यशैली से सीखना नहीं चाहता। भाजपा में सत्ता का हस्तातंरण जिस सहजता, स्वीकार्यता और सभी की सहभागिता के साथ होता है वह कांग्रेस के संस्कारों में कभी नहीं रहा।

एक दल के रूप में दयनीय हालत में पहुंचने के बाद भी सत्ता के लिए आपस में खून खच्चर करना,पार्टी से बगावत करना और रत्तीभर कांग्रेस का न सुधरना बताता है कि कांग्रेस को मिट्टी में मिलाने की तैयारी विपक्ष नहीं, कांग्रेस हाईकमान खुद कर रहा है।

राहुल, उनकी मां सोनिया गांधी और बहन प्रियंका एक साथ राजनीति में सक्रिय हैं उसके बाद भी पार्टी पर गांधी परिवार की पकड़ और देशभर में कांग्रेस इससे ज्यादा कमजोर पहले कभी नहीं थी। यह पारिवारिक तिकड़ी पार्टी में पकड़ और जनता में असर को लगातार खोते जा रही है।

कांग्रेस की भौगोलिक सिकुड़न भी सोनिया और राहुल को परेशान नहीं करती। सिर्फ तीन राज्यों- कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और तेलंगाना में सत्ता में है और झारखंड़ में सत्तारूढ़ गठबंधन में जूनियर पार्टनर है। पार्टी पिछले कई सालों से बड़े पैमाने पर दलबदल की गवाह बनी है और पार्टी के विधायक भाजपा और दूसरे दलों का दामन थामते रहे और कांग्रेस की सरकार गिराते रहे।

कर्नाटक में गुटबाजी, तलवारबाजी और खून खच्चर कांग्रेस के नेता आपस में ही कर रहे हैं और बीजेपी को सत्ता में आने का मौका खुद ही मुहैया करा रहे हैं। कांग्रेस के राज्यों के ज्यादातर ताकतवर और वफादार नेता या तो फीके पड़ रहे हैं, दरकिनार कर दिए गए हैं या फिर कांग्रेस को छोड़ कर अन्य दलों का दामन थाम रहे हैं।

कांग्रेस के देशभर में गिरते ग्राफ को देखने के बाद भी सोनिया और राहुल गांधी ने पार्टी संगठन का ढांचा सुधारने की कोई कोशिश नहीं की है और न ही प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री शाह के अगुआई में भाजपा के बढ़ते कारवां का मुकाबला करने की कोई विचाराधारात्मक और रणनीतिक योजना बनाने की कोशिश की।

शाश्वत कांग्रेस पर गांधी परिवार के नियंत्रण ने कांग्रेस को एक अलग सांचे में ढाल दिया है। निरंतर कांग्रेस पर गांधी परिवार के नियंत्रण ने संगठन को खत्म कर दिया। कांग्रेस के खिलाफ देशभर में उपजे असंतोष और कमजोर संगठन ने विपक्षी दलों को अपने खोटे सिक्कों को भी आसानी से चुनाव जीतने में मदद की है।

कांग्रेस मर रही है और सारे कांग्रेसी और देश की जनता कांग्रेस को तिल तिल कर मरता हुआ देख रही है। कांग्रेस की कमजोरियों से कांग्रेस की मुक्ति का दिन अभी दूर है, इसलिए कांग्रेस में बगावत होना और कांग्रेस का टूटना तय है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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समाप्त नहीं हुआ है भारतीय भाषाओं का संघर्ष: प्रो.संजय द्विवेदी

अमृतसर के गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में शिक्षा मंत्रालय द्वारा स्थापित भारतीय भाषा समिति की ओर से दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में भारतीय भाषाओं के समक्ष उपस्थित चुनौतियों पर चर्चा हुई।

Last Modified:
Saturday, 29 November, 2025
profsanjay

प्रो.संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष।

राजनीतिक परिवर्तन के नाते भारतीय भाषाओं को मिल रहा सम्मान स्थाई नहीं हैं, क्योंकि उपनिवेशवाद की गहरी छाया से हमारे समाज को मुक्त करने में अभी हम सफल नहीं हो सके हैं। भारतीय भाषाओं को सम्मान दिलाने के लिए शासकीय प्रयासों के बाहर भी हमें देखना चाहिए कि क्या अकादमिक, न्याय, चिकित्सा, प्रशासन के तंत्र में भारतीय भाषाएं स्थापित हो रही हैं। सच तो यह है कि दो भारतीय भाषाओं में संघर्ष का वातावरण बनाकर हर जगह अंग्रेजी के लिए जगह बनाई जा रही है। आप देखें सड़कों और दुकानों पर लगे सूचना पट, नाम पट और होर्डिंग इसकी गवाही देगें।

वे प्रायः स्थानीय भाषा और अंग्रेजी में होते हैं। या सिर्फ अंग्रेजी में होते हैं। पिछले सप्ताह अमृतसर के गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में शिक्षा मंत्रालय द्वारा स्थापित भारतीय भाषा समिति की ओर से दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में भारतीय भाषाओं के समक्ष उपस्थित चुनौतियों पर चर्चा हुई। इस अवसर पर भारतीय भाषा समिति की ओर अंग्रेजी में प्रकाशित दो पुस्तकों ‘भारतीय भाषा परिवारः ए न्यू फ्रेमवर्क इन लिंगग्विस्टिक्स’ और ‘भारतीय भाषा परिवारः पर्सपेक्टिव एंड होरिजोंस’ का लोकार्पण भी हुआ।

इस पुस्तक में भारतीय भाषाओं के विविध पक्षों पर लेखकों ने विद्वतापूर्ण लेख लिखे हैं। संस्कृत को लोकमानस में प्रतिष्ठित करने वाले श्री चमू कृष्ण शास्त्री भारतीय भाषा समिति के अध्यक्ष के रुप में बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। हम जानते हैं भाषाएं और माताएं अपने पुत्र और पुत्रियों से ही सम्मानित होती हैं। आजादी के आठ दशक के बाद भी हमारी भारतीय भाषाओं का आत्मसंघर्ष समाप्त नहीं हुआ है तो इसका दोष हम किसी अन्य को नहीं दे सकते। भारतीय समाज स्वभाव से बहुभाषी है, और उसे किसी भाषा को अपनाने में कभी संकोच नहीं रहा।

इसका ही परिणाम है कि अंग्रेजी को भी हमने अपनी एक भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया है। उसका पठन, पाठन और अध्ययन शौक से करते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सिर्फ हमारी उदारता के कारण है या इसके सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक कारण भी हैं। दूसरा यह कि क्या किसी भाषा के कारण हम अपनी भारतीय भाषाओं की उपेक्षा करें और उनके व्यापक अवदान की अनदेखी करें। सच तो यह है कि कोई भी देश अपनी भाषा और लिपियों के सहारे ही स्वयं को बनाता है। उसकी सघन स्मृति में उसकी भाषा, उसकी लिपि, प्रदर्शन कलाओं, साहित्य, संगीत, सिनेमा और रंगमंच के दृश्य और नाद रचे बचे-बसे होते हैं।

इन्हीं स्मृतियों के सहारे वह बड़ा होता है, उसी नजर से दुनिया को देखता है। ऐसे में हमारी नयी पीढ़ी पर मातृभाषा के स्थान पर एक अन्य भाषा आरोपित कर क्या हम अपने बच्चों के साथ अन्याय नहीं कर रहे हैं? हम उसे एक ऐसी भाषा में तैयार कर रहे हैं, जो उसकी स्मृति का, परिवार का, समाज का हिस्सा नहीं रही है। उसकी मौलिकता को, उसके स्वभाव और रचनात्मकता को कुचल देने का जतन हम होता हुआ देख रहे हैं। भाषा को एक ‘कौशल’ के बजाए उसे ‘ज्ञान’ का पर्याय मान लेना हमारा मूल संकट है।

भारतीय भाषाओं को स्वतंत्र भारत में जो संघर्ष करना पड़ रहा है, उसका बड़ा कारण हमारा शैक्षिक परिवेश है, जो उपनिवेशवादी मानसिकता से ग्रस्त है। उसे इससे मुक्त करना बड़ी चुनौती है। क्या हिंदी और भारतीय भाषाओं की सामूहिक शक्ति इतनी है कि वे अंग्रेजी को उसके स्थान से पदच्युत कर सकें। यह संकल्प हममें या हमारी नई पीढ़ी में दिखता हो तो बताइए? अंग्रेजी को हटाने की बात दूर, उसे शिक्षा से हटाने की बात दूर, सिर्फ हिंदी और भारतीय भाषाओं को उसकी जमीन पर पहली भाषा का दर्जा दिलाने की बात है।

कितना अच्छा होता कि हमारे न्यायालय आम जनता को न्याय उनकी भाषा में दे पाते। चिकित्सा और दवाएं हमारी भाषा में मिल पातीं। काश , शिक्षा का माध्यम हमारी भारतीय भाषाएं बन पातीं। यह अँधेरा हमने किसके लिए चुना है। कल्पना कीजिए कि इस देश में इतनी बड़ी संख्या में गरीब लोग, मजबूर लोग, अनुसूचित जाति-जनजाति, अल्पसंख्यक, पिछड़े वर्ग के लोग नहीं होते तो हिंदी और भारतीय भाषाएं कहां दिखती। मदरसे में गरीब का बच्चा, संस्कृत विद्यालयों में गरीब ब्राम्हणों के बच्चे और अन्य गरीबों के बच्चे, हिंदी माध्यम और भारतीय भाषाओं के माध्यम से स्कूलों में प्रायः इन आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के बच्चे। कई बार लगता है कि गरीबी मिट जाएगी तो हिंदी और भारतीय भाषाएं भी लुप्त हो जाएंगीं।

गरीबों के देश में होना हिंदी और भारतीय भाषाओं के साथ होना है। लेकिन समय बदल रहा है मजदूर ज्यादा समय रिक्शा चलाकर, दो घंटे ज्यादा करके अब अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में भेजना चाहता है। उसने यह काम शुरू कर दिया है। दलित अंग्रेजी माता के मंदिर बना रहे हैं। उन्हें पता है कि अंग्रेजी का ज्ञान ही उन्हें पद और प्रतिष्ठा दिला सकता है। ऐसे में हिंदी का क्या होगा, उसकी बहनों भारतीय भाषाओं का क्या होगा। हिंदी को मनोरंजन,बाजार,विज्ञापन और वोट मांगने की भाषा तक सिमटता हुआ हम सब देख रहे हैं। वह ज्ञान- विज्ञान, उच्चशिक्षा, तकनीकी शिक्षा से लेकर प्राथमिक शिक्षा तक कहीं अब भी अंग्रेजी का विकल्प नहीं बन सकी है। उसकी शक्ति उसके फैलाव से आंकी जा रही है किंतु उसकी गहराई कम हो रही है।

देश की भाषाओं को हम उपेक्षित करके अंग्रेजी बोलने वाली जमातों के हाथ में इस देश का भविष्य दे चुके हैं। ऐसे में देश का क्या होगा? संतोष है कि इस देश के सपने अभी भारतीय भाषाओं में देखे जा रहे हैं। पर क्या भरोसा आने वाली पीढ़ी अपने सपने भी अंग्रेजी में देखने लगे। संभव है कि वही समय, अपनी भाषाओं से मुक्ति का दिन भी होगा। आज अपने पास-पड़ोस में रह रहे बच्चे की भाषा और ज्ञान के संसार में आप जाएं तो वास्तविकता का पता चलेगा। उसने अंग्रेजी में सोचना शुरू कर दिया है।

उसे भारतीय भाषाओं में लिखते हुए मुश्किलें आ रही हैं, वह अपनी कापियां अंग्रेजी में लिखता है, संवाद हिंग्लिश में करता है। इसे रोकना मुश्किल नहीं, नामुमकिन है। अभिभावक अपने बच्चे की खराब हिंदी पर गौरवान्वित और गलत अंग्रेजी पर दुखी हैं। हिंदी का यही आकाश है और हिंदी की यही दुनिया है। हिंदी की चुनौतियां दरअसल वैसी ही हैं जैसी कभी संस्कृत के सामने थीं। चालीस वर्ष की आयु के बाद लोग गीता पढ़ रहे थे, संस्कृत के मूल पाठ को सीखने की कोशिशें कर रहे थे।

अंततःसंस्कृत लोकजीवन से निर्वासित सी हो गयी और देश देखता रह गया। आज हमारी बोलियों ने एक-एक कर दम तोड़ना शुरू कर दिया है। वे खत्म हो रही है और अपने साथ-साथ हजारों हजार शब्द और अभिव्यक्तियां समाप्त हो रही हैं। कितने लोकगीत, लोकाचार और लोककथाएं विस्मृति के आकाश में विलीन हो रही हैं। बोलियों के बाद क्या भाषाओं का नंबर नहीं आएगा, इस पर भी सोचिए। वे ताकतें जो पूरी दुनिया को एक रंग में रंगना चाहती हैं, एक से वस्त्र पहनाना चाहती हैं,एक से विचारों, आदतों और भाषा से जोड़ना चाहती हैं, वे साधारण नहीं हैं। कपड़े, खान-पान, रहन-सहन, केश विन्यास से लेकर रसोई और घरों के इंटीरियर तक बदल गए हैं।

भाषा कब तक और किसे बाँधेगी? समय लग सकता है, पर सावधान तो होना ही होगा। आज भी महानगरीय जीवन में अच्छी हिंदी बोलने वाले को भौंचक होकर देखा जा रहा है, उसकी तारीफ की जा रही है कि “आपकी हिंदी बहुत अच्छी है।” वहीं शेष भारत के संवाद की शुरूआत 'मेरी हिंदी थोड़ी वीक है' कहकर हो रही है। दोनों तरह के भारत आमने-सामने हैं। जीत किसकी होगी, तय नहीं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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