भारत से नफ़रत की आग में हिंदू बने आसान निशाना: नीरज बधवार

78 सालों का इतिहास बताता है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश ने अपने ही हिंदुओं को भारत से अपनी नफ़रत की प्यास बुझाने के लिए एक आसान शिकार के तौर पर देखा है।

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Friday, 26 December, 2025
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नीरज बधवार, पत्रकार, लेखक।

हमारे घर पर पिछले पाँच सालों से बर्तन सफ़ाई के लिए एक बंगाली मुस्लिम महिला आती हैं। वो बताती तो खुद को पश्चिम बंगाल से हैं, मगर एक दिन उनकी ही किसी बात से ये साफ़ हो गया कि वो बांग्लादेशी हैं और काफी साल पहले भारत आईं थीं। वो काम में अच्छी हैं और मन में ऐसा कभी ख़याल आता भी नहीं कि उसकी इस पहचान (बांग्लादेशी मुस्लिम) के आधार पर उसे हटा दिया जाए।

उसके हसबैंड भी पास की ही एक सोसाइटी में मेंटेनेंस टीम में हैं। दोनों पति-पत्नी छोटे-छोटे काम करके घर चलाते हैं। बावजूद इसके बेटा जामिया में हॉस्टल में रहकर पढ़ता है और इस बात के लिए मम्मी ने हमेशा उनकी तारीफ़ की। अभी दो दिन पहले वो सुबह नहीं आईं, तो मम्मी ने उन्हें कॉल किया। पता लगा कि बीती रात उनके पति की तबीयत अचानक बहुत ज़्यादा खराब हो गई थी और उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा।

उन्होंने बताया कि डॉक्टर जिस सर्जरी के लिए बोल रहे हैं, उसमें एक लाख रुपए से ऊपर का ख़र्चा है। ये बात सुबह दस बजे के आसपास की होगी। बारह बजे पता चला कि जिन घरों में वो काम करती थीं, वहीं से उसे ये सारा पैसा मिल गया है। फिर शाम को उसने सर्जरी के बाद अस्पताल से अपने पति की फ़ोटो भी भेजी। ये सारी बात बताने का मक़सद ये है कि भारत जैसा है, उसने वैसा होने की क़ीमत भी चुकाई है, फिर भी वो वैसा होना छोड़ नहीं पाता।

ऐसा तो नहीं है कि सोसाइटी के जिन लोगों ने उनकी मदद की, वो उसकी पहचान नहीं जानते। ऐसा भी नहीं है कि उन्हें ये नहीं पता कि बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ क्या हो रहा है। बावजूद इसके वो वैसा होना छोड़ नहीं पाते, जैसे वो हैं। लोग अक्सर एक-आध घटना को आगे रखकर उसे देश का असल चरित्र बताने की कोशिश करते हैं। घटना तो एक भी नहीं होनी चाहिए, लेकिन एक-आध या दो-चार घटनाएँ इस देश के चरित्र को डिफ़ाइन नहीं करतीं।

78 सालों का इतिहास बताता है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश ने अपने ही हिंदुओं को भारत से अपनी नफ़रत की प्यास बुझाने के लिए एक आसान शिकार के तौर पर देखा है। शेख़ हसीना का तख़्तापलट हुआ, तो हिंदुओं पर एक साल में ढाई हज़ार हमले कर दिए गए। कश्मीर में भारत-विरोधी आंदोलन हुए, तो वहाँ सबसे पहले कश्मीरी पंडितों को भारत का एजेंट बोलकर भगाया गया।

91 के दौर में जब भारत में राम मंदिर आंदोलन चल रहा था, तो उसके विरोध में पाकिस्तान में सरकारी देख-रेख में वहाँ दर्जनों मंदिर गिरा दिए गए। ये सारे उदाहरण बताते हैं कि भारत से अपनी नफ़रत में पाकिस्तान से लेकर बांग्लादेश और कश्मीर तक जिहादियों ने स्थानीय हिंदुओं को सिर्फ़ उनके हिंदू होने की वजह से टारगेट किया, बिना इसकी परवाह किए कि वो भी तो उसी ज़मीन के वासी हैं।

जैसे कश्मीर के लिए अक्सर मैं कहता हूँ कि कश्मीर में हुई हिंसा अगर कश्मीर की आज़ादी की लड़ाई थी, तो वहाँ के पंडित क्या कश्मीरी नहीं थे? ये कौन-सी आज़ादी थी, जो कश्मीरी मुसलमानों को बिना कश्मीरी पंडितों के चाहिए थी? अब ऐसा तो नहीं है कि भारत में खुद को हिंदू मानने वाला हर आदमी संयम और शांति की प्रतिमूर्ति है। अगर एक हमले के बाद ऑस्ट्रेलिया जैसे देश का मीडिया इस्लामिक आतंकियों के लिए Bastard शब्द इस्तेमाल कर देता है।

अगर यूरोप में इसी कट्टरपंथी इस्लामिक सोच से परेशान होकर वहाँ इस्लाम को लेकर हर तरह की बेहूदा बात की जा रही है, यूरोपीय देशों में इस्लाम को बैन करने की बात की जा रही है, तो ऐसा कैसे हो सकता है कि उसी कट्टरपंथी इस्लाम से परेशान होकर कोई भी प्रतिक्रिया नहीं होगी। राजनीतिक तौर पर तो वो प्रतिक्रिया साफ़ दिखती है, लेकिन आपसी व्यवहार में अभी भी हमारे समाज का व्यवहार अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर ज़्यादा है, न कि धार्मिक पहचान के आधार पर।

अगर कश्मीर से आए एक मुस्लिम डॉक्टर को नौकरी चाहिए, तो मुज़फ़्फ़रनगर का एक हिंदू डॉक्टर बिना सोचे उसे अपने अस्पताल में पाँच लाख की नौकरी दे देता है कि कश्मीर में हिंदुओं के साथ क्या हुआ। क्योंकि वो उसे काम देते वक्त उसकी क़ाबिलियत देखेगा, उसका व्यवहार देखेगा, न कि उसका फ़ैसला सिर्फ़ उसकी क्षेत्रीय और मज़हबी पहचान के आधार पर होगा।

तभी आप देखिए, पहलगाम जैसी घटना के बाद ऐसा नहीं होता कि लोग देशभर में कश्मीरी मुसलमानों की निशानदेही करके उन्हें इसलिए प्रताड़ित करने लगें कि किसी कश्मीरी मुसलमान ने पाकिस्तानी आतंकियों की मदद करके किसी पहलगाम को अंजाम दे दिया। या पश्चिम बंगाल में बंगाली हिंदू अपनी बस्ती में रह रहे किसी बंगाली मुसलमान को इसलिए सताने लगें क्योंकि बांग्लादेश में वहाँ के जिहादी हिंदुओं को सता रहे हैं। या नोएडा की किसी सोसाइटी में एक गरीब कामवाली की मदद करते वक्त उसकी ज़रूरत से पहले उसकी मज़हबी पहचान देखने लगें।

नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं हो रहा। अपवाद हो सकता है, लेकिन अपवाद को हादसे के तौर पर देखा जाना चाहिए, न कि समाज के चरित्र के रूप में। इसलिए जब कुछ लोग भारत में हुई दो-चार घटनाओं को आगे रखकर पूरे समाज को उसी रंग में रंगने की कोशिश करते हैं, तो वो दो गुनाह एक साथ करते हैं। पहला, वो घटना को घटना के रूप में देखने के बजाय उसका सामान्यीकरण करके पूरे समाज को बदनाम करने की कोशिश करते हैं। और दूसरा, जब आप ये कहते हैं कि भारत तो ऐसा ही है, तो आप दूसरे पक्ष को भी लाइसेंस दे देते हैं कि हाँ, भैया, तुम जो कर रहे हो, वो तो एकदम जायज़ है।

इसीलिए मैं मानता हूँ कि भारत में आरफ़ा जैसे लोग, जो खुद को मुसलमानों का हमदर्द बताकर तिल का ताड़ बनाते हैं और पूरी दुनिया में ये प्रचारित करते हैं कि भारत में तो ये आम हो गया है, तो ऐसे लोग ही पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों से उनका रत्तीभर अपराधबोध भी छीन लेते हैं। उल्टा, ऐसे लोगों के बयान इन देशों को अपने लाखों कुकर्मों को भारत में अपवाद स्वरूप हुई कुछ घटनाओं के बरक्स रखकर उसे रफ़ा-दफ़ा करने की बेशर्मी देते हैं, भारत को बदनाम करने का हौसला देते हैं।

लेकिन देश खुद से जुड़ी अफ़वाहों के आधार पर बर्ताव नहीं करते, वो अपने चरित्र के आधार पर बर्ताव करते हैं। असल भारत झारखंड में एक मुसलमान को उसके मुसलमान होने की वजह से पीटने वाला नहीं है। न ही वो किसी मॉल के बाहर क्रिसमस की तैयारी देखकर हल्ला मचाने वाला है। असल भारत वो है, जो बांग्लादेश से आई एक गरीब मुस्लिम महिला की मदद के लिए दो घंटे में एक लाख रुपए इकट्ठा कर लेता है। और जो लोग ऐसा कर रहे हैं, उनमें कोई किसी को नहीं जानता।

वो ऐसा करते वक्त ये भी नहीं सोच रहा कि वो कोई महान काम कर रहा है। वो ऐसा कर रहा है, तो इसलिए क्योंकि वो ऐसा है। ऐसा होना उसके लिए कोई विकल्प नहीं, बल्कि जीवन जीने का एकमात्र तरीका है। उसके जीवन संस्कार हैं। वो संस्कार, जो तमाम उत्तेजना के बीच भी इंसान की ज़रूरत पर उसकी मज़हबी पहचान को भारी नहीं पड़ने देते। और उससे वो करवाते हैं, जो उसका धर्म है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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भारत और बांग्लादेश के रिश्तों को किसकी नजर लग गई : प्रोफेसर संजय द्विवेदी

एक समय में पाकिस्तान के अत्याचारों से कराह रहे लोगों को मुक्तिवाहिनी भेजकर उन्हें ‘अपना देश’ की खड़ा करने में मददगार रहा भारत आज बांग्लादेश की कुछ ताकतों की नजर में सबसे बड़ा दुश्मन है।

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Friday, 26 December, 2025
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प्रोफेसर संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष।

हिंदुस्तानी होना साधारण नहीं है। 1947 से हम अपनी पहचान से जूझते हुए लोग हैं। मुल्क के आजाद होते ही हम बंट गए। जमीन से भी, दिलों से भी। दुनिया के नक्शे पर नया देश उभरा जिसका नाम ‘पाकिस्तान’ था। भूगोल के बंटवारे और उसके बाद हुए कत्लेआम ने हमें पूरी तरह तोड़ दिया। उस हिस्से में रह गए लोग अचानक ‘पाकिस्तानी’ हो गए, जो कल तक हिंदुस्तानी थे।

संभव हो अपनी पहचान बदलना उनका शौक न रहा हो। किंतु वे भारतीय से पाकिस्तानी हो गए। फिर एक दिन अचानक इन्हीं पाकिस्तानियों में कुछ लोग ‘बांग्लादेशी’ हो गए। कई ऐसे लोग होगें जिन्होंने एक ही जनम में तीन मुल्क देखे। पैदा हिंदुस्तान में हुए, जवान पाकिस्तान में हुए तो बाकी जिंदगी बांग्लादेश में गुजरी। आज देखिए तो तीनों देशों के बीच रिश्ते कैसे हैं।

अपने ही लोग रिश्तों में कैसे पराए हो जाते हैं, पाकिस्तान इसका पहले दिन से उदाहरण है तो बांगलादेश अब हिंदुस्तान के विरूद्ध ही अभियानों का केंद्र बन गया है।वहीं बांग्लादेशियों की जान-माल, अस्मत लूटने वाले पाकिस्तान से फिर से प्यार की पेंगें बढ़ाई जा रही हैं। बांग्लादेश के विश्वविद्यालयों के छात्र नारे लगा रहे हैं –“तुम क्या, मैं क्या रजाकार...रजाकार”। आखिर ये रजाकार कौन हैं। बांग्लादेश में सन 1971 में जमात-ए-इस्लामी के वरिष्ठ सदस्य मौलाना अबुल कलाम मोहम्मद यूसुफ ने जमात के 96 सदस्यों की रजाकारों की पहली टीम बनाई थी।

बंगाली में 'रेजाकार' शब्द को 'रजाकार' कहा गया। इन रजाकारों में गरीब लोग शामिल थे। वे पाकिस्तानी सेना के मुखबिर बना दिए गए थे, उनको स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ लड़ने के लिए हथियार भी दिए गए थे। इनमें से ज्यादातर बिहार के उर्दू भाषी प्रवासी थे जो भारत की आजादी और बंटवारे के दौरान बांग्लादेश चले गए थे। ये सब लोग पाकिस्तान के समर्थक थे।

रजाकार बांग्लादेश की स्वतंत्रता के विरोधी थे, इन सबने बंगाली मुसलमानों के भाषा आंदोलन का भी विरोध किया था। कल तक बांग्लादेश में रजाकार शब्द बेहद अपमानजनक शब्द था, क्योंकि ये पाक समर्थक थे। आज यही शब्द इस आंदोलन का नारा बन गया है। कट्टरता कैसे किसी देश को निगलती है,यह उसका उदाहरण है। बांग्लादेश के विश्वविद्यालयों में मौलानाओं की बढ़ती दखल युवा पीढ़ी को हिंसक बना रही है।

यह इस देश को उसकी स्मृति से काटकर बांग्लादेशी संस्कृति को कमजोर करने का प्रयास है।भारत और बांग्लादेश के रिश्तों को किसकी नजर लग गई है? आखिर अपनी सारी सदाशयता के बाद भी भारत निशाने पर क्यों है? अगर सोचेंगे तो पाएंगें इसका एक बड़ा कारण पंथ भी है। कभी भाषा के नाम पर अलग हुए देश अगर एक सुर अलाप रहे हैं तो जोड़ने वाली कड़ी क्या है? क्या कट्टरता और पांथिक एकता इसका मुख्य कारण है या और कुछ। क्या कारण है बांग्लादेशी मुस्लिम अपने ही देश के हिंदुओं की जान के दुश्मन हो गए हैं?

वर्षों से हम जिनके साथ रहते आए, काम करते आए वे अचानक हमें दुश्मन क्यों लगने लगे? अमन पसंद और उदार आवाजों पर क्यों बन आई है? इन सालों में हमने पाकिस्तान को समाप्त होते देखा है। उसे लेकर मजाक बनते हैं। क्या बांग्लादेश उसी रास्ते पर जा रहा है? उसे पाकिस्तान बनने से रोकने के उपाय नदारद हैं। देश की अमनपसंद आवाजें या तो खामोश हैं या खामोश कर दी गयी हैं। तसलीमा नसरीन जैसे लेखक सच लिखने के कारण जलावतन हैं। अखबारों के दफ्तर जलाए जा रहे हैं। कलाकार, मीडिया के लोग निशान पर हैं।

‘डेली स्टार’ के संपादक श्री महफूज अनम ने साफ कहा है कि – “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अब मुद्दा नहीं हैं, मुद्दा है जीवित रहने का अधिकार।” जाहिर है बांग्लादेश जिस रास्ते पर चल पड़ा है उसके भविष्य का अंदाजा लगाया जा सकता है। पाकिस्तान और चीन का बढ़ता हस्तक्षेप उसे अराजक, बदहाल और भारतविरोधी बना रहा है। हाल में ही माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के विद्यार्थियों ने अपने प्रायोगिक पत्र ‘पहल’ का ‘बंगलादेश विजय विशेषांक’ प्रकाशित किया है। इसका मुख्य शीर्षक है, “जब दूसरे खत्म हो जाते हैं, तब आतंक अपनों को भी नहीं छोड़ता है।” यह अकेला वाक्य इस देश की त्रासदी बयां करने के लिए काफी है।

बांग्लादेश को देखें तो वह काफी अच्छा कर रहा था। लेकिन ताजा हालात में उसकी आर्थिक स्थिति बिगड़ रही है। जमात ए इस्लामी और इस्लामी उग्रवादी समूहों का उभार भारत और बांग्लादेश दोनों के लिए चिंता का कारण है। अब जो चुनाव होने जा रहे हैं, वह भी आतंक के साए में हो रहे हैं। युवा नेता उस्मान हादी की हत्या से देश का माहौल खराब है और उसकी गाज निरीह हिंदुओं पर गिर रही है।

एक हिंदू युवक को जिंदा जला देना इसकी ताजा मिसाल है। सड़कों पर भीड़ के द्वारा हो रही ऐसी निर्लज्ज बर्बरता बताती है कि हालात कैसे हैं। इस सबके बावजूद बांग्लादेश से भारत के रिश्ते अच्छे बने रहें यह जरूरी है। अपनी सीमा सुरक्षा को मजबूत करते हुए हमें कूटनीतिक स्तर पर संवाद बनाए रखना आवश्यक है।

भले ही शेख हसीना के युग जैसे अच्छे रिश्ते न हों किंतु संवाद, सहयोग से कट्टरपंथी प्रभावों को रोकना होगा। बेहतर होगा कि नई लोकप्रिय सरकार का गठन जल्द हो ताकि रिश्ते पटरी पर आ सकें। इसे हम इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि आज अफगानिस्तान से हमने कूटनीतिक प्रयासों से अपने संबंध सामान्य कर लिए हैं। हालात बदतर हैं लेकिन उम्मीद की जानी कि आने वाले समय में हम फिर कुछ रिश्तों को बहाल कर पाएंगें। अमरीका की वहां बढ़ती सक्रियता एक बड़ा खतरा है।

अवामी लीग समर्थकों की हत्याएं, उनको जेलों में ठूंसकर, हत्याआरोपियों और आतंकी तत्वों की रिहाई ने वहां हालात बिगाड़े हैं और युनुस ने अपने कार्यकाल से बहुत निराश किया है। किंतु बांग्लादेश की भारत पर निर्भरता बहुत है, हमें भी उनकी जरूरत है। ऐसे में रिश्तों को कूटनीतिक स्तर पर बेहतर किए जाने की जरूरत तो है ही। हमें किसी भी स्तर पर उन्हें पाकिस्तान की गोद में जाने से रोकना है।

भारत एक बड़ा और जिम्मेदार देश है, उसे बहुत संयम और गंभीरता से इस चुनौती का सामना करना होगा। निश्चित ही आज का बांग्लादेश आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकटों से जूझ रहा है। लेकिन पड़ोसी देश होने के नाते हम उसे उसके हाल पर नहीं छोड़ सकते। धर्मांधता की अंधी गली में उसका प्रवेश खतरनाक है। किंतु हम खामोश देखते रहें, यह विश्वमानवता के लिए ठीक नहीं होगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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मीडिया और सरकार: 2025 में कंटेंट से कंट्रोल तक बदलता परिदृश्य

साल 2025 भारत के मीडिया सेक्टर के लिए सिर्फ बदलावों का साल नहीं रहा, बल्कि यह वह दौर भी रहा जब सरकार ने मीडिया, डिजिटल प्लेटफॉर्म और कंटेंट क्रिएटर्स को लेकर अपनी नीतियों को और साफ व सख्त किया।

Last Modified:
Wednesday, 24 December, 2025
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साल 2025 भारत के मीडिया सेक्टर के लिए सिर्फ बदलावों का साल नहीं रहा, बल्कि यह वह दौर भी रहा जब सरकार ने मीडिया, डिजिटल प्लेटफॉर्म और कंटेंट क्रिएटर्स को लेकर अपनी नीतियों को और साफ व सख्त किया। न्यूज चैनल हों, OTT प्लेटफॉर्म, सोशल मीडिया या इंफ्लुएंसर्स, हर सेक्टर पर सरकार की नजर इस साल और गहरी होती दिखी।

इस साल सरकार की मीडिया पॉलिसी का फोकस तीन बड़े मुद्दों पर साफ तौर पर दिखा- राष्ट्रीय सुरक्षा, गलत सूचना पर रोक और डिजिटल युग में जवाबदेही।

सबसे पहले बात राष्ट्रीय सुरक्षा की। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने मीडिया और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के लिए एडवाइजरी जारी की, जिसमें साफ कहा गया कि सैन्य या सुरक्षा अभियानों की रियल-टाइम लाइव कवरेज नहीं की जाए। सरकार का तर्क था कि ऐसी कवरेज से संवेदनशील जानकारी दुश्मन तक पहुंच सकती है। इस कदम का असर यह हुआ कि टीवी चैनलों और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स को ब्रेकिंग न्यूज की होड़ में अतिरिक्त सावधानी बरतनी पड़ी।

दूसरा बड़ा मुद्दा रहा फेक न्यूज और गलत सूचना। सरकार ने साफ संकेत दिए कि अब फेक न्यूज को सिर्फ नैतिक मुद्दा नहीं, बल्कि कानून-व्यवस्था का मामला माना जाएगा। इसी कड़ी में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया एक्ट में बदलाव का प्रस्ताव सामने आया, ताकि डिजिटल मीडिया, इंफ्लुएंसर्स और कंटेंट क्रिएटर्स को भी इसके दायरे में लाया जा सके। इसका मकसद यह है कि सोशल मीडिया पर खबर या जानकारी देने वाले लोग भी उसी तरह जवाबदेह हों, जैसे पारंपरिक मीडिया होता है।

डिजिटल और OTT प्लेटफॉर्म्स पर भी इस साल सरकार का रुख और सख्त दिखा। अश्लीलता, भ्रामक कंटेंट और साइबर अपराधों को लेकर IT नियमों के तहत प्लेटफॉर्म्स की जिम्मेदारी बढ़ाई गई। कंटेंट हटाने, शिकायत निवारण और यूजर सुरक्षा को लेकर प्लेटफॉर्म्स को ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाने के निर्देश दिए गए। इसका सीधा असर OTT कंटेंट, वेब सीरीज और डिजिटल न्यूज प्लेटफॉर्म्स पर पड़ा।

2025 की सबसे बड़ी नई बहस रही AI और डीपफेक कंटेंट को लेकर। सरकार ने ड्राफ्ट IT नियमों के जरिये यह संकेत दिया कि AI से बने फोटो, वीडियो और ऑडियो को लेकर अब सख्त पहचान और नियंत्रण की जरूरत है। डीपफेक से जुड़े मामलों में प्लेटफॉर्म्स और पब्लिशर्स की जिम्मेदारी तय करने की दिशा में यह एक बड़ा कदम माना गया। आने वाले समय में मीडिया और ऐडवर्टाइजिंग इंडस्ट्री को यह साफ बताना पड़ सकता है कि कौन सा कंटेंट AI-जनरेटेड है।

इंफ्लुएंसर मार्केटिंग भी सरकार की रडार पर रही। फेक प्रमोशन, भ्रामक विज्ञापन और गलत जानकारी फैलाने वाले सोशल मीडिया अकाउंट्स पर कार्रवाई के संकेत दिए गए। इससे डिजिटल मार्केटिंग इंडस्ट्री को यह संदेश मिला कि अब 'क्रिएटर' होना सिर्फ फॉलोअर्स का खेल नहीं, बल्कि जिम्मेदारी का भी मामला है।

इसके अलावा, राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था के नाम पर कुछ सोशल मीडिया अकाउंट्स और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर प्रतिबंध और कंटेंट ब्लॉकिंग भी देखने को मिली। इससे यह साफ हुआ कि सरकार इंटरनेट और मीडिया को पूरी तरह अनियंत्रित स्पेस के तौर पर नहीं देखती।

कुल मिलाकर, 2025 की मीडिया पॉलिसी यह बताती है कि सरकार अब 'फ्रीडम विद रिस्पॉन्सिबिलिटी' के मॉडल की ओर बढ़ रही है। एक तरफ डिजिटल विस्तार, AI और नए प्लेटफॉर्म्स हैं, तो दूसरी तरफ कंटेंट पर निगरानी और जवाबदेही। मीडिया, मार्केटिंग और ऐडवर्टाइजिंग इंडस्ट्री के लिए यह साल एक साफ संदेश छोड़ता है- अब सिर्फ रचनात्मकता नहीं, नियमों की समझ भी उतनी ही जरूरी है।

गुजरते हुए साल के लिहाज से देखें तो 2025 वह साल रहा जब सरकार और मीडिया का रिश्ता पहले से ज्यादा नियमों और जवाबदेही से बंधा नजर आया।

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कोडीन माफिया का आका कौन: रजत शर्मा

योगी ने विधानसभा में आरोपियों की तस्वीरें दिखाई, घोटाले में शामिल किरदारों के नाम बताए, केस में शामिल समाजवादी पार्टी के नेताओं का खुलासा किया। कार्रवाई करने की चेतावनी दी।

Last Modified:
Wednesday, 24 December, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कोडीन कफ सिरप मामले से जुड़े हर सवाल का जवाब दिया, विधानसभा में सबूत पेश किए और समाजवादी पार्टी को आड़े हाथों लिया। योगी ने बताया कि कफ सिरप घोटाले में अब तक 77 लोग पकड़े जा चुके हैं, किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा। इसके बाद योगी आदित्यनाथ ने यह कहकर चौंका दिया कि पकड़े गए आरोपियों की पृष्ठभूमि में जाने पर उनका कोई न कोई नाता समाजवादी पार्टी से जुड़ रहा है।योगी ने विधानसभा में आरोपियों की तस्वीरें दिखाई, घोटाले में शामिल किरदारों के नाम बताए, केस में शामिल समाजवादी पार्टी के नेताओं का खुलासा किया।

फिर योगी ने घोटाले में शामिल लोगों के खिलाफ बुलडोजर कार्रवाई करने की चेतावनी दी। योगी ने कहा कि जब सरकार की कार्रवाई अंतिम दौर में पहुंचेगी तो आपमें से कई लोग फातिहा पढ़ने आएंगे, लेकिन सरकार उन्हें फातिहा पढ़ने लायक भी नहीं छोड़ेगी। केस की जांच की आंच अब समाजवादी पार्टी के नेताओं तक पहुंच गई है। कुछ नए नाम सामने आए हैं। इसमें पहला नाम समाजवादी पार्टी से जुड़ी लोहिया वाहिनी के नेता मिलिंद यादव का है। पता चला है कि मिलिंद यादव के कफ सिरप केस के मुख्य आरोपी शुभम जायसवाल के साथ कारोबारी रिश्ते थे।

शुभम जायसवाल की शैली ट्रेडर्स फर्म के ड्रग लाइसेंस और जीएसटी रजिस्ट्रेशन के दस्तावेजों में मिलिंद यादव का ही मोबाइल नंबर दर्ज है। इसके अलावा आरोप है कि समाजवादी युवजन सभा के नेता अमित यादव जायसवाल का बिजनेस पार्टनर था। मिलिंद और अमित यादव के जायसवाल परिवार के खातों में अवैध लेनदेन के सबूत भी मिले हैं। कफ सिरप केस को लेकर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव लगातार योगी सरकार पर हमला कर रहे हैं। अब तक योगी इस मुद्दे पर चुप थे।

लेकिन योगी ने अकेले मोर्चा संभाला और समाजवादी पार्टी को बैकफुट पर भेज दिया। कफ सिरप मुद्दे को लेकर समाजवादी पार्टी के विधायकों ने विधानसभा परिसर में प्रदर्शन किया। सदन की कार्यवाही के दौरान समाजवादी पार्टी के नेताओं ने योगी से पूछा कि बुलडोजर कब बाहर आएगा और सरकार पर केस को दबाने का आरोप लगाया गया। विपक्ष के हर आरोप पर योगी मुस्कुराते रहे। योगी ने साफ कहा कि विपक्ष कफ सिरप से बच्चों की मौत का जो आरोप लगा रहा है, वह गलत है।

उत्तर प्रदेश में कफ सिरप की मैन्युफैक्चरिंग यूनिट ही नहीं है। यूपी में किसी बच्चे की मौत नहीं हुई है। यह मामला कफ सिरप की अवैध आपूर्ति का है। उन्होंने कहा कि दाग तो समाजवादी पार्टी के दामन पर है। कोडीन सिरप के सबसे बड़े थोक विक्रेता को अखिलेश सरकार ने लाइसेंस दिया था। अब सच सामने आ रहा है तो समाजवादी पार्टी के नेता बौखला रहे हैं। जिस कफ सिरप केस को लेकर यूपी की राजनीति गरम है, उसका कुछ ब्यौरा भी सामने आया है। असल में यह मामला नकली दवा का नहीं है।

यह गैरकानूनी तरीके से स्टॉक करने और सप्लाई का है। कोडीन कफ सिरप को अवैध तरीके से नशे के बाजार में पहुंचाया जा रहा था। असल में कफ सिरप में मिलाया जाने वाला कोडीन नशे के लिए इस्तेमाल किया जा रहा था। माफियाओं ने सुपर स्टॉकिस्ट से लेकर रिटेलर तक की पूरी सप्लाई चेन बना रखी थी। यह माफिया इसे देश के कई राज्यों और यहां तक कि विदेशों तक भेज रहे थे। इस मामले का मुख्य आरोपी वाराणसी का शुभम जायसवाल है। वह फर्जी फर्म बनाकर कफ सिरप कंपनियों से खरीद करता था, फर्जी खरीद-बिक्री के बिल बनाकर इसे तस्करों को बेच देता था और करोड़ों का मुनाफा कमाता था।

नोट करने वाली बात यह है कि ये फर्में देश के सात राज्यों में बनाई गई थीं। एसटीएफ से बर्खास्त सिपाही आलोक सिंह और अमित सिंह इस काम में शुभम के साझीदार थे। झारखंड में दो फर्मों का ड्रग लाइसेंस इन्हीं दोनों के नाम पर बना था। इन लोगों ने कभी मेडिकल फील्ड में काम नहीं किया था, फिर भी फर्जी सर्टिफिकेट लगाकर ड्रग लाइसेंस बनवाया गया। गौरतलब है कि यूपी के कई जिलों के मेडिकल स्टोर में कोडीन कफ सिरप की सप्लाई दिखाई गई, जबकि हकीकत में ये मेडिकल स्टोर थे ही नहीं। कफ सिरप को गाजियाबाद, सोनभद्र, वाराणसी और लखनऊ जैसे जिलों में बने गोदामों में स्टॉक किया जाता था और फिर अवैध तरीके से दूसरे राज्यों में भेज दिया जाता था।

यह कारोबार हजारों करोड़ रुपये का था। मामले का मुख्य आरोपी शुभम जायसवाल दुबई फरार हो गया, जबकि उसके पिता भोला जायसवाल, आलोक सिंह और अमित सिंह को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। कोडीन कफ सिरप खांसी के इलाज के लिए होता है, लेकिन इसमें नशा होता है। लगातार सेवन से इसकी लत लग जाती है। इसी कारण इसे नशीली दवा की श्रेणी में रखा गया है। नशे के कारण बाजार में कोडीन कफ सिरप की भारी मांग रहती है। माफिया पैसा कमाने का कोई मौका नहीं छोड़ते। यूपी में भी यही हुआ।

यहां कफ सिरप को गैरकानूनी तरीके से स्टोर किया गया और नशे के बाजार तक पहुंचाया गया। जिसने भी यह पाप किया है, उसे कड़ी सजा मिलनी चाहिए। इस बात की परवाह नहीं की जानी चाहिए कि इस माफिया के राजनीतिक संबंध क्या हैं, क्योंकि ऐसे लोग सियासत में कोई न कोई संबंध निकाल ही लेते हैं। योगी आदित्यनाथ पर कई दिनों से आरोप लगाए जा रहे थे और वह खामोश थे। कुछ लोगों ने इसका गलत मतलब निकाला। योगी आदित्यनाथ ने विधानसभा में सबूत दिखाकर पूरी बाज़ी पलट दी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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'RRP Semiconductor' का सच क्या: पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

हिसाब किताब में हम पहले से AI Bubble को लेकर चेतावनी देते रहे हैं लेकिन यह तो बुलबुले से भी बड़ी चीज़ है। GD Trading & Agencies Limited बहुत पहले से BSE में लिस्ट है।

Last Modified:
Monday, 22 December, 2025
milindkhandekar

मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

RRP Semiconductors के शेयरों में आपने पिछले साल की शुरुआत में ₹500-600 लगाए होते तो आज उसकी क़ीमत एक लाख रुपये होती। इस कंपनी ने 20 महीने में 55,000% का रिटर्न दिया है। अब इस कहानी में ट्विस्ट आ गया है। Bloomberg के मुताबिक़ कंपनी का रेवेन्यू ज़ीरो भी नहीं निगेटिव है। इसमें सिर्फ़ दो कर्मचारी काम करते हैं। कंपनी सेमीकंडक्टर भी नहीं बनाती है। शेयर बाज़ार के Regulator SEBI ने अब इस शेयर में हफ़्ते में एक बार ट्रेडिंग की अनुमति दी है। शेयरों में उछाल की जाँच भी की जा रही है।

हिसाब किताब में हम पहले से AI Bubble को लेकर चेतावनी देते रहे हैं लेकिन यह तो बुलबुले से भी बड़ी चीज़ है। GD Trading & Agencies Limited बहुत पहले से BSE में लिस्ट है। काम था इलेक्ट्रॉनिक्स सामान की ख़रीद फरोख्त। महाराष्ट्र के राजेंद्र कमलाकांत चोडनकर ने इस साल मई में क़रीब 74% शेयर ख़रीदे। काम बताया इलेक्ट्रॉनिक और सेमीकंडक्टर की ख़रीद फरोख्त।

कंपनी के शेयर पहले से चढ़ रहे थे लेकिन नाम बदलने के बाद भागने लगे। सेमीकंडक्टर का इस्तेमाल AI यानी Artificial Intelligence में होता है। दुनिया भर में AI कंपनियों में तेज़ी है। यही सोचकर निवेशक इसके पीछे भागने लगे। रोज अपर सर्किट लगने लगा। इसका एक कारण यह भी था कि बाज़ार में बहुत कम शेयरों में ही कारोबार हो रहा था। शेयरों की संख्या कम होने से भी माँग बढ़ती रही।

इस तेज़ी को हवा देने का काम किया राजेंद्र की एक और कंपनी RRP इलेक्ट्रॉनिक्स। पिछले साल इसके कार्यक्रम में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, एकनाथ शिंदे और अजित पवार के साथ सचिन तेंदुलकर भी शामिल थे।

कार्यक्रम को यह कहकर किया था कि महाराष्ट्र का पहला सेमीकंडक्टर प्लांट खुलेगा, लेकिन इस कंपनी का काम Outsourced Semiconductor Assembly and Testing। OSAT का है मतलब सेमीकंडक्टर कोई और बनाता है। ये कंपनी पैकेजिंग और टेस्टिंग करती है। इस काम में भी उसे अभी तक सिर्फ साढ़े छह करोड़ रुपये का ऑर्डर मिला है। और ऑर्डर मिले हैं तो इसकी जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है। SSP Electronics के OSAT प्लांट के उद्घाटन में पिछले साल राजेंद्र के साथ एकनाथ शिंदे, देवेंद्र फडणवीस, अजित पवार और सचिन तेंदुलकर।

RRP Semiconductor और RRP electronics के कंफ्यूजन को खुद कंपनी ने दूर किया। पिछले महीने कंपनी ने शेयर बाज़ार को बताया कि ना तो वो सेमीकंडक्टर बनाती है ना ही उसे सरकार से कोई मदद मिली है। किसी Celebrity ने उसे सपोर्ट नहीं किया है। सचिन तेंदुलकर को लेकर इन्वेस्टमेंट की खबरें आ रही थीं। तब से शेयरों के दाम गिरे हैं। अब SEBI सक्रिय है।

कंपनी का रेवेन्यू साल 31 करोड़ रुपये था वो अब इस साल दूसरे क्वार्टर में निगेटिव हो गया। निगेटिव होने का मतलब यह है कि पिछले साल जो बिक्री बताई गई होगी वो नहीं हुई इसलिए इस साल अकाउंट ठीक किया गया होगा। ऐसी कंपनी का शेयर दस हज़ार रुपये में बिक रहा है तो इसे क्या कहेंगे?

अमेरिका में AI bubble की बात हो रही है लेकिन वहाँ कंपनियाँ कुछ बना रही हैं। सवाल यह उठ रहा है कि जितना पैसा लगाया है वो रिकवर कैसे होगा लेकिन हमारे यहाँ तो बिना सेमीकंडक्टर बनाए कंपनी का वेल्युशन एक बिलियन डॉलर पार गया है और राजेंद्र कमलाकांत चोडनकर अरबपति बन गए हैं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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भारतीय मन को छूती फिल्म त्रयी: अनंत विजय

इस फिल्म में मुसलमान किरदार को हिंसक दिखाया गया है जो इस इकोसिस्टम को नहीं भा रहा है। आईसी 814 में जब एक यात्री का गला रेता जा रहा है तो उस दृश्य को लेकर भी आलोचनात्मक स्वर उभरे।

Last Modified:
Monday, 22 December, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

इन दिनों फिल्म धुरंधर की बहुत चर्चा हो रही है। चर्चा इस फिल्म के निर्देशक आदत्य धर की भी हो रही है। फिल्म रिलीज होने के पहले ही हिंदी फिल्मों से जुड़े एक विशेष इकोसिस्टम ने इसके विरुद्ध लिखना आरंभ कर दिया था। इस फिल्म के विरोध में इस इकोसिस्टम को साथ मिला उनका भी जो पाकिस्तान को लेकर साफ्ट रहते हैं। आतंक की पनाहगार से आतंक और आतंकवादियों का देश बन चुका पाकिस्तान और भारत के रिश्तों में शांति की बातें करनेवाले इकोसिस्टम को ये फिल्म आईना दिखाती है। इस कारण इसका विरोध होना स्वाभाविक था।

कहा जाने लगा कि इसमें बहुत हिंसा है। अत्यधिक हिंसा की बात वो लोग कर रहे हैं जिनकी तब जिह्वा तालु से चिपक जाती है या कीबोर्ड पर टाइप करते हुए उंगलियां कापने लगती हैं जब हिंसा का प्रदर्शन करती वेबसीरीज आती हैं। वेब सीरीज मुंबई डायरीज की याद नहीं आई। मुंबई डायरीज के दूसरे संस्करण में मायानगरी में 2006 की भयानक बाढ के दौरान अस्पताल में डाक्टरों की कठिन जिंदगी को दिखाया गया है।

यथार्थ चित्रण के नाम पर जिस तरह के दृष्य दिखाए गए हैं वो इस सैक्टर में नियमन या प्रमाणन की आवश्यकता को पुष्ट करते हैं। बाढ में फंसी गर्भवती महिला की स्थिति जब बिगड़ती है तो उसकी शल्यक्रिया का पूरा दृष्य दिखाना जुगुप्साजनक है। कैमरे पर आपरेशन के दौरान पेट को चीरने का दृश्य, खून से लथपथ बच्चे को माता के उदर से बाहर निकालने के दृश्य पर किसी ने कुछ नहीं बोला।

इसी तरह से एक वेबसीरीज आई थी घोउल उसमें हाथ काट दिया जाता है और उसके बाद तर्जनी को छटपटाते हुए क्लोज शाट में दिखाया जाता है। वो हिंसा इनको नजर नहीं आई। केजीएफ में दिखाई जानेवाली जबरदस्त हिंसा के दृश्यों का भी इतना विरोध नहीं हुआ था। दरअसल हिंसा का बहाना लेकर धुरंधर की आलोचना की जा रही है। कारण कुछ और ही है।

फिल्म धुरंधर में ये दिखाया गया है कि पाकिस्तानी जब भारतीय सैनिकों या खुफिया एजेंटों को पकड़ते हैं तो उनके साथ किस तरह का हिंसक बर्ताव करते हैं। सौरभ कालिया के साथ पाकिस्तानियों ने क्या किया था वो जगजाहिर है।

दर्शकों ने इस इकोसिस्टम के विरोध की परवाह नहीं की और फिल्म को जबरदस्त सफल बना दिया। हिंसा के आरोपों को भी दर्शकों ने यथार्थ के भाव से देखा। इस फिल्म में मुसलमान किरदार को हिंसक दिखाया गया है जो इस इकोसिस्टम को नहीं भा रहा है। आईसी 814 में जब एक यात्री का गला रेता जा रहा है तो उस दृश्य को लेकर भी आलोचनात्मक स्वर उभरे।

क्या ऐसा नहीं हुआ था। इस देश में ही आईसी 814, कांधार हाईजैक को लेकर एक वेबसीरीज बनी। जिसको लेकर ये इकोसिस्टम लहालोट हुआ था। एक राजनीकिक विश्लेषक को तो ये कहते सुना गया था कि इस वेबसीरीज को बनाने वाले अनुभव सिन्हा विश्वस्तरीय निर्देशक हैं। हाल ही में झूठ पर आधारित उस वेबसीरीज को पुरस्कृत भी किया गया और उसके बारे में फिर से चर्चा हुई। वेबसीरीज में कांधार हाईजैक में पाकिस्तान की बदनाम खुफिया एजेंसी का हाथ नहीं था या बहुत कम था को स्थापित करने का झूठा प्रयास किया गया था।

हाईजैक के बाद उस समय के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने संसद में 6 जनवरी 2000 को एक बयान दिया था। उस बयान में ये कहा गया था कि हाईजैक की जांच करने में जुटी एजेंसी और मुंबई पुलिस ने चार आईएसआई के आपरेटिव को पकड़ा था। ये चारो इंडियन एयरलाइंस के हाईजैकर्स के लिए सपोर्ट सेल की तरह काम कर रहे थे। इन चारों आतंकवादियों ने पूछताछ में ये बात स्वीकार की थी कि आईसी 814 का हाईजैक की योजना आईएसआई ने बनाई थी और उसने आतंकवादी संगठन हरकत-उल-अंसार के माध्यम से अंजाम दिया था।

पांचों हाईजैकर्स पाकिस्तानी थे। हरकत उल अंसार पाकिस्तान के रावलपिडीं का एक कट्टरपंथी संगठन था जिसको 1997 में अमेरिका ने आतंकवादी संगठन घोषित किया था। उसके बाद इस संगठन ने अपना नाम बदलकर हरकत- उल- मुजाहिदीन कर लिया था। संसद में दिए इस बयान के अगले दिन पाकिस्तान के अखबारों में ये समाचार प्रकाशित हुआ था कि भारत ने जिन तीन आतंकवादियों को छोड़ा वो कराची में देखे गए थे।

अनुभव सिन्हा की वो वेबसीरीज पूरी तरह से एजेंडा थी। लेकिन धुरंधर फिल्म में इसको अलग तरीके से दिखाया गया जिससे ये साफ होता है कि पाकिस्तान ही आतंकी वारदातों का एपिसेंटर है। चाहे वो संसद पर हमला हो या मुबंई की 26/11 की आतंकी वारदात हो।

आदित्य धर की इस फिल्म में उन आडियो को भी दर्शकों को सुनवाया गया है जो पाकिस्तान में बैठे आतंक के आका और आतकवादियों के बीच की बातचीत थी। फिल्म धुरंधर में कोई एजेंडा नहीं है बल्कि यथार्थ का ऐसा चित्रण है जो इस बात की परवाह नहीं करता है कि कहानी किसको पसंद आएगी और किसको नहीं। आदित्य ने सच को सच की तरह कहने का साहस किया है।

किस तरह से पाकिस्तान में बैठे आईएसआई के आपरेटिव भारतीय अर्थव्यवस्था को कमजोर करना चाहते हैं। नकली नोट छापकर उसको किस रूट से भारत में भेजा जाता है और इसमें किस तरह से भारत में बैठे मां भारती के गद्दार पाकिस्तानियों की मदद करते हैं। अजीत डोभाल के चरित्र के आधार पर जिस तरह से स्थितियों को बुना गया है वो देकने लायक है।

अपने छोटे किंतु महत्वपूर्ण भूमिका में माधवन ने पाकिस्तानी आतंकवादी घटनाओं को बेनकाब किया है। जिस तरह से आदित्य धर और उनके साथ काम करनेवाले युवाओं ने आतंक के जानर के साथ साथ वैश्विक स्तर पर भारत का नैरेटटिव बनाने का काम किया है उसने इकोसिस्टम को मिर्ची लगा दी है। चाहे फिल्म बारामूला हो या आर्टिकल 370 हो। इन तीनों फिल्मों को अगर एक साथ मिलाकर देखंगे तो आको एक सूत्र नजर आएगा जो हिंदी फिल्मों के स्थापित विमर्श को बगैर डरे ध्वस्त करता है।

आतंक और आतंकवादियों को लेकर जिस तरह से हिंदी फिल्मों में रोमांटिसिज्म रहा है उससे अलग हटकर आदित्य धर ने एक जानर क्रिएट कर दिया। नहीं तो हिंदी फिल्मों के दर्शकों ने तो आईएसआई और भारतीय खुफिया एजेंसी को साथ काम करते भी देखा है।

आदित्य धर की फिल्म को एजेंडा पिल्म कहनेवाले भी सामने आ रहे हैं। उनलोगों ने कश्मीर फाइल्स और द केरला स्टोरी को भी एजेडा फिल्म कहा था। आदित्य धर की फिल्म धुरंधर या आर्टिकल 370 और बारामूला की जो त्रयी है उसने हिंदी दर्शकों को एक नई तरह की फिल्म का स्वाद दिया है। दर्शक फिल्मों को भारतीय विमर्श की तरह देखना चाहते हैं।

दर्शकों का मूड अब बदल गया है। एजेंडा फिल्म तो अनुषा रिजवी की द ग्रेट शमसुद्दीन फैमिली है। इस फिल्म में फिर से मुसलमानों के विरुद्ध अत्याचार का झूठा नैरेटिव गढ़ा गया है। देश की वर्तमान राजनीति पर झूठा आरोप लगाते हुए कहा गया है कि देश में कुछ भी ठीक नहीं है। पत्रकार मारे जा रहे हैं, लोगों पर हमले हो रहे हैं। इकोसिस्टम के रुदाली गैंग की प्रतिक्रिया इस फिल्म पर देखने की अपेक्षा है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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पश्चिमी देश मीडिया की आज़ादी के लिए अपना आईना देखें: आलोक मेहता

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की प्रेस स्वतंत्रता की 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका 180 देशों में 57वें स्थान पर है, और प्रेस की स्वतंत्रता पिछले वर्षों की तुलना में कमज़ोर हुई है।

Last Modified:
Monday, 22 December, 2025
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आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

भारत में अब भी अमेरिका और ब्रिटेन के लोकतंत्र और प्रेस की आज़ादी को महान समझने की गलतफहमी रखने वाले कुछ संगठन और नेता हैं। खासकर पश्चिमी देशों से भारी फंडिंग पाने वाली संस्थाएँ या विदेशी ज़मीन पर भारत की बुराई करके तालियाँ बजवाने वाले राहुल गांधी जैसे नेता, कथित एक्टिविस्ट किस्म के पत्रकार-लेखक विदेशी मीडिया की रिपोर्ट्स दिखाकर भारतीयों को भ्रमित करने की कोशिश करते हैं।

जबकि भारत में जितने अख़बार, पत्रिकाएँ, टीवी न्यूज़ चैनल और वेबसाइट्स हैं, उतनी दुनिया के किसी देश में नहीं हैं। सारे दबाव, विरोध के बावजूद सैकड़ों पत्रकार, लेखक अंग्रेजी से अधिक हिंदी और भारतीय भाषाओं में लिख-बोलकर सत्ता व्यवस्था या अन्य सामाजिक-आर्थिक कमियों को उजागर कर रहे हैं। साल की समीक्षा करने वाले पश्चिमी देशों के साथ भारत में उनके पिछलग्गू लोगों को पश्चिम का आइना भी देखना चाहिए। तब समझ में आएगा कि उन्हें भारत को सबक सिखाने की ज़रूरत नहीं है। वे अपनी दुर्दशा सुधारने का प्रयास करें।

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की प्रेस स्वतंत्रता की 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका 180 देशों में 57वें स्थान पर है, और प्रेस की स्वतंत्रता पिछले वर्षों की तुलना में कमज़ोर हुई है। मुख्य कारणों में आर्थिक दबाव, समाचार संस्थानों की वित्तीय अनिश्चितता, पत्रकारों के ख़िलाफ़ प्रतिकूल माहौल शामिल हैं। मीडिया हाउस आर्थिक रूप से संघर्ष कर रहे हैं, जिससे विरोधी आवाज़ों को दबाया जा रहा है। अमेरिकी मीडिया को राजनीतिक दबाव का सामना करना पड़ रहा है, खासकर जब राजनीति से जुड़े समूह और नेता मीडिया की आलोचना करते हैं। प्रेस स्वतंत्रता पर चिंता की एक वजह यह भी है कि मीडिया को समय-समय पर आर्थिक सहायता और संसाधन कटौती का सामना करना पड़ रहा है।

प्यू रिसर्च सेंटर के अनुसार, आम अमेरिकियों में प्रेस स्वतंत्रता को लेकर चिंता बनी हुई है। कई लोग मानते हैं कि समाचार स्वतंत्र रूप से रिपोर्ट नहीं हो पा रहा। ब्रिटेन की रॉयटर्स की रिपोर्ट में बताया गया कि अमेरिकी पेंटागन (सेना विभाग) ने मीडिया को कहा कि वे संवेदनशील सूचनाओं को प्रकाशित करने से पहले अनुमति प्राप्त करें, जिससे पत्रकारों के सामने सूचना स्वीकार्यता और रिपोर्टिंग स्वतंत्रता पर सवाल खड़े हुए हैं। अमेरिका में मीडिया पर राजनीतिक और सामाजिक समूहों से आलोचना और दबाव बढ़ा है तथा कुछ समूह मीडिया को निष्पक्ष नहीं मानते।

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने चेतावनी दी है कि प्रेस स्वतंत्रता इतिहास के सबसे निचले स्तर पर है, और अमेरिका समेत कई लोकतांत्रिक देशों में इस स्थिति का असर देखा जा रहा है। ब्रिटेन में (प्रधानमंत्री कार्यालय) ने प्रेस लॉबी सिस्टम में बड़े बदलाव किए हैं, जिसमें परंपरागत दैनिक लंचब्रीफ़िंग (जहाँ पत्रकार सवाल पूछते हैं) अब हटाई जा रही है या सीमित की जा रही है।

पत्रकारों ने इसका विरोध किया है और कहा है कि इससे सरकारी जवाबदेही और पारदर्शिता कम होगी। भारत में एक वर्ग द्वारा 'आदर्श' बताई जाने वाले संस्थान बीबीसी के लिए 2025 में एक बड़ा विवाद हुआ, जहाँ यह आरोप लगा कि कुछ रिपोर्टिंग, खासकर राजनीतिक मुद्दों पर, राजनीतिक झुकाव प्रदर्शित कर रही थी। इसके बाद बीबीसी के वरिष्ठ नेतृत्व में इस्तीफे भी हुए और यह विवाद प्रेस स्वतंत्रता व न्यूज़ मीडिया के संपादकीय स्वतंत्रता पर बड़ा विषय बना। ब्रिटेन में प्रेस को लेकर सरकार और मीडिया के बीच बातचीत और संघर्ष जारी है, खासकर जब सरकारी संदेश और अफ़वाहों/भेदभाव मुद्दों को रिपोर्ट करना होता है।

विश्व स्तर पर प्रेस स्वतंत्रता सबसे अधिक दबाव में है। आर्थिक संकट, राजनीतिक दबाव, मीडिया मालिकाना संरचना इत्यादि ने पत्रकारिता को चुनौती दी है। दुनिया के लगभग आधे देशों में प्रेस स्वतंत्रता गंभीर रूप से कमज़ोर है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दुनिया भर में करीब 10% गिरी है, और सरकारी/तकनीकी नियंत्रण में वृद्धि हुई है। डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर नियंत्रण भी एक बड़ा मुद्दा बन रहा है।

अमेरिकी राजनीति में मीडिया और सत्ता के बीच तनाव कोई नया विषय नहीं है, लेकिन 2025 में यह टकराव एक बार फिर तेज़ और आक्रामक रूप में सामने आया। डोनाल्ड ट्रम्प—चाहे चुनावी राजनीति में हों, अदालतों से जूझ रहे हों या अपने समर्थकों को संबोधित कर रहे हों—ने अमेरिकी मीडिया, विशेषकर सीएनएन को लगातार निशाने पर रखा।

यह टकराव केवल आलोचना तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसमें अपमानजनक भाषा, मीडिया की विश्वसनीयता पर सीधा हमला और पत्रकारों को ‘दुश्मन’ के रूप में पेश करने की प्रवृत्ति स्पष्ट दिखी। डोनाल्ड ट्रम्प का मीडिया से टकराव उनके पहले राष्ट्रपति कार्यकाल (2017–2021) से ही चर्चा में रहा है। उस समय उन्होंने कई बार मीडिया को “फेक न्यूज़” और “जनता का दुश्मन” कहा।

2025 में यह रवैया और तीखा हो गया, क्योंकि अमेरिका गहरे राजनीतिक ध्रुवीकरण से गुजर रहा है। चुनावी राजनीति फिर से केंद्र में है। ट्रम्प खुद को सर्वोच्च नेता के रूप में पेश कर रहे हैं। इस माहौल में मीडिया, खासकर सीएनएन जैसे राष्ट्रीय नेटवर्क, ट्रम्प की रणनीति में प्रतिद्वंद्वी बन गए। सीएनएन को ट्रम्प बार-बार इसलिए निशाना बनाते रहे क्योंकि राष्ट्रीय और वैश्विक प्रभाव—सीएनएन अमेरिका ही नहीं, दुनिया भर में देखा जाता है।

उसकी जाँचपरक रिपोर्टिंग—ट्रम्प की नीतियों, बयानों और कानूनी मामलों पर सवाल उठाती है। जबकि ट्रम्प लॉबी सीएनएन को झूठ फैलाने वाला नेटवर्क, अमेरिका-विरोधी एजेंडा चलाने वाला मीडिया, जनता को गुमराह करने वाला संस्थान जैसे आरोपों से घेरती है। ट्रम्प की भाषा केवल आलोचनात्मक नहीं बल्कि वह व्यक्तिगत, तंजपूर्ण और अपमानजनक रही। कठोर और आक्रामक भाषा ट्रम्प के समर्थकों को यह संदेश देती है कि: “हम बनाम वे” की लड़ाई है। मीडिया अभिजात वर्ग का हिस्सा है। ट्रम्प अकेले “सच” बोल रहे हैं।

ट्रम्प और राहुल गांधी जैसे नेता द्वारा जब बार-बार मीडिया को झूठा कहा जाता है, तो जनता का भरोसा कमज़ोर होता है। तथ्य और राय के बीच अंतर धुंधला होता है। असहज सवालों से ध्यान हटाना—कानूनी मामलों, नीतिगत आलोचनाओं और राजनीतिक विफलताओं से ध्यान हटाने के लिए मीडिया पर हमला एक प्रभावी हथियार बनता है। 2025 में ट्रम्प लॉबी ने केवल सीएनएन ही नहीं, बल्कि “मुख्यधारा मीडिया” पत्रकारों को व्यक्तिगत रूप से निशाना बनाया।

भीड़ के सामने उकसाने वाली भाषा का प्रयोग किया। इन हमलों का असर केवल शब्दों तक सीमित नहीं रहा; कई बार पत्रकारों को सार्वजनिक कार्यक्रमों में शत्रुतापूर्ण माहौल का सामना करना पड़ा। अमेरिकी संविधान का पहला संशोधन प्रेस की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। इसलिए 2025 में सवाल उठा है कि क्या शक्तिशाली राजनीतिक नेताओं द्वारा मीडिया पर लगातार हमले इस स्वतंत्रता को कमज़ोर कर रहे हैं?

क्या आलोचना और धमकी के बीच की रेखा धुंधली हो रही है? इसमें कोई शक नहीं है कि ट्रम्प की भाषा मीडिया संस्थानों पर आर्थिक और सामाजिक दबाव बढ़ा सकती है। तभी तो हमारा कहना है कि हम अपनी आज़ादी और अधिकारों के लिए अपनी आचार संहिता बनाएँ, पुराने ब्रिटिश राज के नियम या उनके द्वारा अब हमारे लिए बताए जा रहे रास्तों के बजाय भारतीय नियम, परंपरा, कानूनों को तैयार करें और उनका पालन करें।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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प्रसार भारती का बदलता स्वरूप: बना रहा है डिजिटल, ग्लोबल और युवा‑केंद्रित मीडिया हब

प्रसार भारती, जिसमें दूरदर्शन और आकाशवाणी शामिल हैं, अब पुराने सरकारी प्रसारण के रूप से निकलकर एक आधुनिक, डिजिटल और बहु‑प्लैटफॉर्म मीडिया नेटवर्क में बदल रहा है।

Last Modified:
Saturday, 20 December, 2025
PrasarBharati8541

प्रसार भारती, जिसमें दूरदर्शन और आकाशवाणी शामिल हैं, अब पुराने सरकारी प्रसारण के रूप से निकलकर एक आधुनिक, डिजिटल और बहु‑प्लैटफॉर्म मीडिया नेटवर्क में बदल रहा है। यह सिर्फ टीवी और रेडियो तक सीमित नहीं रहा, बल्कि अपने WAVES OTT प्लेटफॉर्म, हाई‑डेफिनिशन प्रसारण, लाइव इवेंट कवरेज और क्षेत्रीय भाषाओं में कंटेंट के जरिए देश और दुनिया के दर्शकों तक अपनी पहुंच बढ़ा रहा है। इस बदलाव का मकसद केवल मनोरंजन नहीं है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक और भाषाई विविधता को डिजिटल दुनिया में मजबूत तरीके से पेश करना और नई पीढ़ी के दर्शकों को जोड़ना भी है। आधुनिक तकनीक, कंटेंट मॉनेटाइजेशन नीतियां, व्यापक कवरेज और स्थानीय कलाकारों के योगदान के साथ प्रसार भारती अब पुराने सरकारी चैनल की छवि से आगे निकलकर एक सशक्त, ग्लोबल और युवा‑केंद्रित मीडिया हब के रूप में उभर रहा है।

1. WAVES: डिजिटल दुनिया में बड़ा कदम

सबसे बड़ा बदलाव है प्रसार भारती का अपना OTT प्लेटफॉर्म WAVES का लॉन्च होना। यह ऐप नवंबर 2024 में लॉन्च हुआ और आज 80 लाख से अधिक डाउनलोड पार कर चुका है, जिससे यह साफ होता है कि दर्शक खासकर डिजिटल और मोबाइल प्लेटफॉर्म पर भी प्रसार भारती का कंटेंट देखना चाहते हैं। 

WAVES पर अब सिर्फ पुराने टीवी शो नहीं, बल्कि लाइव TV, लाइव रेडियो, ई‑बुक्स, गेम्स, लाइव इवेंट, मनोरंजन, संस्कृति, शिक्षा और स्थानीय कंटेंट जैसे कई सेक्शन्स भी उपलब्ध हैं। इसमें आर्काइव और नए कंटेंट दोनों मिलते हैं, जिससे पुरानी यादों से जुड़ी सामग्री और नए दर्शकों को एक ही प्लेटफॉर्म पर मजा मिलता है।  

WAVES में कंटेंट 80 से ज्यादा जॉनर और 26 से अधिक भाषाओं में दिया जा रहा है, ताकि देश भर के लोगों को अपनी भाषा और पसंद के हिसाब से मनोरंजन और जानकारी मिल सके। यह मोबाइल, स्मार्ट TV और स्ट्रीमिंग डिवाइस पर आसानी से चलाया जा सकता है।

2. कंटेंट की कमाई और नई नीतियां 

प्रसार भारती अब सिर्फ सामग्री दिखाने तक सीमित नहीं रह रहा, बल्कि अपने कंटेंट से कमाई (मॉनेटाइजेशन) भी करने की कोशिश कर रहा है। इसके लिए Draft Content Syndication Policy 2025 तैयार की गई है, जिसमें दूरदर्शन और आकाशवाणी के सभी प्रकार के कंटेंट (चाहे वह पुराना आर्काइव हो, लाइव कार्यक्रम हो या डिजिटल‑फर्स्ट प्रोडक्शन) को तीसरे पक्ष के प्लेटफॉर्म पर लाइसेंस या साझेदारी के जरिए उपलब्ध कराया जा सकेगा। 

पॉलिसी की योजना है कि यह कंटेंट कमर्शियल, सार्वजनिक और अंतरराष्ट्रीय उपयोग के लिए अलग‑अलग तरीके से उपलब्ध कराया जाए, ताकि आर्थिक रूप से भी फायदा मिले और भारतीय संस्कृति की दुनिया भर में पहुंच भी बढ़े। 

इसके अलावा WAVES पर Pay‑Per‑View (PPV) मॉडल भी पेश किया गया है, जिसमें कंटेंट निर्माताओं को उनके कंटेंट को देखने पर निर्धारित व्यूज के आधार पर भुगतान मिलेगा- एक तरह से प्लेटफॉर्म को और ज्यादा कंटेंट‑क्रिएटर‑फ्रेंडली बनाना। 

3. तकनीक और इंफ्रास्ट्रक्चर की अपग्रेड

सरकार ने प्रसार भारती के लिए BIND (Broadcasting Infrastructure and Network Development) योजना को मंजूरी दी है, जिसमें ₹2,500 करोड़ से ऊपर का बजट उन पुराने सिस्टमों को बदलने, स्टूडियोज को डिजिटल‑रेडी बनाना, और रेडियो‑टीवी कवरेज बढ़ाने के लिए दिया गया है। इससे अब दूरदर्शन और आकाशवाणी एचडी प्रसारण, डिजिटल प्रसारण, और दूर‑दराज के इलाकों तक बेहतर कवरेज ला सकते हैं। 

इस योजना के तहत डीडी और AIR के स्टूडियो, ट्रांसमीटर और तकनीकी सिस्टम्स को आधुनिक बनाया जा रहा है ताकि समय के अनुसार अच्छी क्वालिटी और तेज पहुंच सुनिश्चित की जा सके। 

अब दूरदर्शन सिर्फ ज्यादा चैनल दिखाने तक सीमित नहीं है। स्थानीय कलाकारों और भाषा‑भाषी कंटेंट निर्माताओं को शामिल करके, क्षेत्रीय कहानियां, संस्कृति और कला को भी डिजिटल और ब्रॉडकास्ट प्लेटफॉर्म पर लाया जा रहा है। यह न केवल दर्शकों को विविधता देता है, बल्कि डिजिटल इंडिया के लक्ष्यों को भी पूरा करता है। 

WAVES OTT पर कंटेंट 10 से ज्यादा भाषाओं में उपलब्ध है और 26 से ज्यादा भाषाओं को सपोर्ट करता है, जिससे भारत की भाषाई विविधता डिजिटल प्लेटफॉर्म पर आसानी से नजर आने लगी है।

5. लाइव इवेंट, जानकारी और सरकारी कार्यक्रमों की कवरेज

प्रसार भारती अब सिर्फ टीवी शोज दिखाने तक नहीं रुक रहा। वह राष्ट्रीय कार्यक्रमों, त्योहारों, खेलों और सरकारी कार्यक्रमों की लाइव कवरेज भी कर रहा है- जैसे मन की बात, गणतंत्र दिवस, महाकुंभ आदि, ताकि आम जनता को सीधे घर बैठे जानकारी मिल सके।  

6. डिजिटल इंडिया के साथ तालमेल

आज भारत में इंटरनेट और मोबाइल के जरिए मनोरंजन और सूचना का तरीका बदल गया है। ऐसे में प्रसार भारती ने डिजिटल, मोबाइल और स्मार्ट टीवी प्लेटफॉर्म पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है, जिससे टेक‑सेवी युवा पीढ़ी भी आसानी से जुड़ सके। 

पहले दूरदर्शन और आकाशवाणी सिर्फ टीवी और रेडियो तक सीमित थे, लेकिन अब प्रसार भारती एक आधुनिक, डिजिटल‑फर्स्ट, ग्लोबल प्लेटफॉर्म बनने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। वह डिजिटल OTT WAVES, लाइव इवेंट्स, सांस्कृतिक कंटेंट, तकनीकी अपग्रेड और आर्थिक रूप से अपनी कंटेंट का उपयोग जैसे कई बड़े कदम उठा चुका है।

इन प्रयासों से न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया भर में भारतीय संस्कृति, भाषा और कला की पहचान मजबूत होती जा रही है, साथ ही युवा दर्शकों का ध्यान भी सरकारी प्रसारण की तरफ आकर्षित हो रहा है- यही बदलाव आज के दौर में प्रसार भारती को एक नया चेहरा दे रहा है।  

7- कंटेंट सोर्सिंग नियम को बनाया आसान

प्रसार भारती ने कंटेंट सोर्सिंग नियम को भी आसान बनाया है, ताकि छोटे और बड़े प्रोड्यूसर भी अपने कार्यक्रम दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए बना सकें। इससे अलग‑अलग राज्यों और भाषाओं के कलाकारों को भी मौका मिला है कि वे अपनी स्थानीय कहानियां, संगीत और संस्कृति आसानी से दर्शकों तक पहुंचा सकें।  

सरकार और प्रसार भारती यह भी चाहते हैं कि दूरदर्शन और आकाशवाणी सिर्फ पुरानी यादें नहीं बल्कि आज की नई डिजिटल दुनिया के हिसाब से पूरी तरह प्रतिस्पर्धी प्लेटफॉर्म बने। इसलिए लाइव इवेंट कवरेज, पॉडकास्ट सीरीज और डिजिटल प्रोडक्ट्स भी शुरू किए जा रहे हैं जिनसे युवा दर्शकों को भी जोड़ा जा सके।  

कंटेंट की गुणवत्ता, तकनीक, डिजिटल रीच और कमाई के प्रयासों से दूरदर्शन और प्रसार भारती अब सिर्फ एक सरकारी चैनल नहीं बल्कि डिजिटल मीडिया इकाई के रूप में विकसित हो रहे हैं, जो देशभर के दर्शकों को नई और पुरानी दोनों तरह की मनोरंजन और जानकारी प्रदान कर सकता है।

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सीएम नीतीश बीमार, कट्टरता एक लाइलाज बीमारी: समीर चौगांवकर

इस पूरे मामले को देखने का दूसरा नजरिया यह भी उठ रहा है कि भोजन,पहनावे को लेकर क्यो आग्रही होते जा रहे हैं? कट्टर हिंदू समाज नीतीश के समर्थन में खड़ा नजर आ रहा है।

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Saturday, 20 December, 2025
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समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार।

कई विवाद ऐसे व्यक्तियों से जुड़ जाते है, जिससे उस विवाद के जुड़ने की सबसे कम उम्मीद होती है। लगता है अपने लंबे सार्वजनिक जीवन में विवादों से परे रहने वाले नीतीश कुमार अपने राजनीति के अंतिम पारी में तमाम विवाद समेट कर अपने साथ ले जाना चाहते है। नीतीश कुमार ने एक मुस्लिम महिला के चेहरे से हिजाब जिस तरीके से हटाने की कोशिश की वह विवाद बिहार से बाहर फैल गया।

इस विवाद से जो उपजना था,वही हुआ। पूरा मामला हिंदू बनाम मुस्लिम में बदल गया। इस विवाद में स्त्री पुरूष अधिकार, पहचान और बहुसंख्यक- अल्पसंख्यक पर आधारित चुनावी सियासत जैसे संवेदनशील मुद्दे भी कुद पडे। हिजाब विवाद इस सवाल में और गहरे से उतरता है कि हम देश के विविध संस्कृतियों को स्वीकार करते भी हैं या नहीं, जिसकी दुनिया भर में सराहना होती है।

भारत में हिजाब पहनने पर बहस अभी तक सरकार वित्त पोषित शिक्षा संस्थानों तक ही सीमित रही है, अब इसका दायरा बढ़ रहा हैं। इस पूरे मामले को देखने का दूसरा नजरिया यह भी उठ रहा है कि भोजन,पहनावे को लेकर क्यो आग्रही होते जा रहे हैं? कट्टर हिंदू समाज नीतीश के समर्थन में खड़ा नजर आ रहा है, जबकि कट्टर मुस्लिम समाज पहनावे से अपनी पहचान पर जोर देने पर अड़ा है।

नीतीश लगातार अपनी छवि को तार तार कर रहे है। महिला की गरिमा सर्वाच्च है। किसी भी महिला की भाषा,भूषा,भोजन,भवन कुछ भी हो, उसकी इच्छा और गरिमा सर्वाच्च है। कुरान में ‘खिमार‘ का जिक्र है। जिसका मतलब सिर ढंकने वाले कपडे से है।हिजाब का जिक्र नहीं है।

महिलाओं को हिजाब के रिवाज से बाहर निकालना मुस्लिम मौलानाओं और मुस्लिम प्रगतिशील समाज की जिम्मेंदारी है। हम ना ही उनके प्रतिगामी रवैये की खिल्ली उड़ाकर और नहीं सार्वजनिक स्थान पर उनका हिजाब हटाकर उनके गरिमा और निजी स्वतंत्रता से खिलवाड़ करके इसे हटा सकते हैं।

यह दृश्य भी हमने देखा है कि लड़किया हिजाब या नकाब पहन रही है और लड़के भगवा स्कार्फ लहरा रहे है। कट्टरता किसी का इलाज नहीं है। यह लाइलाज बीमारी है। नीतीश बीमार है। उनके शीघ्र स्वास्थ लाभ की कामना है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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बंगाल में 1.9 करोड़ वोटरों के नाम पर शक़ क्यों: रजत शर्मा

इसी तरह की अलग-अलग गड़बड़ियों वाले लाखों मामले हैं। चुनाव आयोग को करीब 12 लाख ऐसे फार्म मिले, जिनमें पिता और बच्चे की उम्र का अंतर 15 साल से कम है।

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Friday, 19 December, 2025
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रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

पश्चिम बंगाल से जुड़ी वोटर लिस्ट को लेकर एक चौंकाने वाली तस्वीर सामने आई है। राज्य की वोटर लिस्ट के ताज़ा ड्राफ्ट के मुताबिक 58 लाख से ज्यादा लोगों के नाम सूची से हटाए गए हैं, लेकिन इससे भी ज़्यादा गंभीर तथ्य यह है कि करीब एक करोड़ नब्बे लाख वोटर्स को ‘संदेहास्पद’ (सस्पिशस) कैटेगरी में रखा गया है।

कुल मिलाकर बंगाल में मतदाताओं की संख्या करीब 7 करोड़ 66 लाख है और अगर उनमें से लगभग दो करोड़ वोटर संदेह के घेरे में हैं, तो यह बेहद गंभीर मामला बन जाता है। दावा किया जा रहा है कि इन संदिग्ध मतदाताओं में बड़ी संख्या में बांग्लादेशी घुसपैठिए हो सकते हैं।

स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न (SIR) के दौरान भरे गए फॉर्म्स के अध्ययन में कई असामान्य और चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। चुनाव आयोग को करीब 12 लाख ऐसे फॉर्म मिले हैं जिनमें पिता और बच्चे की उम्र का अंतर 15 साल से भी कम है। देश में शादी की कानूनी उम्र 18 साल होने के बावजूद ऐसा अंतर कई सवाल खड़े करता है।

इसके अलावा 8 लाख 77 हजार से ज्यादा फॉर्म्स में माता-पिता और बच्चों की उम्र का अंतर 50 साल से ज्यादा पाया गया है। तीन लाख से अधिक ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें दादा-दादी और पोते-पोतियों की उम्र में 40 साल से भी कम का अंतर दर्ज है।

करीब 85 लाख फॉर्म्स में पिता का नाम या तो दर्ज नहीं है या रिकॉर्ड से मेल नहीं खा रहा। डेटा एनालिसिस में 24 लाख से ज्यादा ऐसे फॉर्म भी मिले जिनमें बच्चों की संख्या छह या उससे अधिक बताई गई है। इतना ही नहीं, SIR के दौरान 45 साल से ज्यादा उम्र के करीब 20 लाख लोगों ने पहली बार वोटर बनने के लिए आवेदन किया है।

इन सभी मामलों को संदेहास्पद श्रेणी में रखा गया है। इन एक करोड़ नब्बे लाख संदिग्ध वोटर्स को नोटिस भेजे गए हैं और उन्हें अपनी स्थिति स्पष्ट करने का मौका दिया जाएगा। इस बीच ज़मीनी पड़ताल में भी कई हैरान करने वाले तथ्य सामने आए। बर्धमान जिले के एक मामले में पिता और बेटों की उम्र में केवल चार-पांच साल का अंतर पाया गया, जांच में पता चला कि कथित बेटे असल में बांग्लादेशी नागरिक हैं।

हालांकि चुनाव आयोग ने साफ किया है कि जिन 58 लाख वोटर्स के नाम हटाए गए हैं, उनमें से 24 लाख से ज्यादा की मौत हो चुकी है, 20 लाख लोग दूसरे राज्यों में बस चुके हैं, 1.38 लाख मामलों में डुप्लीकेट वोट पाए गए और करीब 12.20 लाख वोटर्स का कोई ठोस पता नहीं मिल पाया। सबसे ज्यादा नाम नॉर्थ और साउथ 24 परगना जिलों से हटाए गए हैं।

बंगाल में घुसपैठ की समस्या दशकों पुरानी है, लेकिन अब SIR के ज़रिए यह मुद्दा सबूतों के साथ सामने आ रहा है। इसका असर बंगाल की राजनीति पर भी साफ़ दिखाई देने लगा है, और यही वजह है कि SIR को लेकर सियासी तनाव बढ़ता जा रहा है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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प्रदूषण हमारे पापों की जॉइंट स्टेटमेंट है: नीरज बधवार

मतलब जितने लोग हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु धमाकों में मरे थे, उतने लोग भारत में सिर्फ दो महीने के प्रदूषण में मर रहे हैं। आज छोटे-छोटे बच्चे बीमार हो रहे हैं।

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Thursday, 18 December, 2025
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नीरज बधवार, पत्रकार, लेखक।

10 नवंबर की शाम लाल किले के बाहर हुए जबरदस्त धमाके में 13 लोगों की मौत हो गई थी। घटना के फौरन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संवेदना प्रकट करते हुए ट्वीट आया। फिर भूटान से लौटने के बाद वो घायलों से मिलने भी पहुंचे। और ऐसा होना भी चाहिए था। अगर इतनी बड़ी घटना हुई है तो प्रधानमंत्री फौरन अपने बयानों से, एक्शन से देश को ये बताना भी चाहिए कि सरकार ऐसी घटना के प्रति कितनी संवेदनशील है। पूरी तरह एक्टिव है ताकि लोगों को तसल्ली मिले और वो घबराएं न।

पर मेरी ये बात समझ से परे है कि आज जब दो महीने से पॉल्यूशन को लेकर देश में हाहाकार मचा हुआ है, तो सरकार को क्यों नहीं लगता कि इस मामले में भी देश को वैसी ही तसल्ली चाहिए। पॉल्यूशन की वजह से आज छोटे-छोटे बच्चे बीमार हो रहे हैं। अस्पतालों में मरीज़ों की लाइनें लगी हुई हैं। पॉल्यूशन की वजह से होने वाले हादसे में 13 लोग ज़िंदा जल जाते हैं। लेकिन कहीं कोई अर्जेंसी दिखाई नहीं देती। अगर मामला जान का ही है, तो आतंकी हमले में तो 13 लोग मरे थे। लेसेंट की रिपोर्ट को सच मानें तो भारत में प्रदूषण से तो हर दिन 5 हज़ार लोग मर रहे हैं।

मतलब जितने लोग हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु धमाकों में मरे थे, उतने लोग भारत में सिर्फ दो महीने के प्रदूषण में मर रहे हैं। जितने लोग आज़ादी के बाद हुए सारे साम्प्रदायिक दंगों और आतंकी हमलों में कुल मिलाकर नहीं मरे, उतने लोग प्रदूषण से सिर्फ एक महीने में मर जाते हैं। इसके बावजूद जब संसद का सत्र शुरू होता है तो प्रदूषण के बजाय वंदेमातरम पर चर्चा होती है, तो इस देश का भगवान ही मालिक है। ऊपर से संवेदनहीनता का आलम ये है कि संसद में पर्यावरण मंत्री ये बताते हैं कि इस साल तो पहले से कम प्रदूषण हुआ है।

इस साल साफ हवा वाले दिनों की संख्या पहले से ज़्यादा हुई है। लोगों की घबराहट की दलील देकर AQI मैज़रमेंट की अपर लिमिट को 500 तक ही सीमित कर दिया जाता है। मतलब खराब हवा की वजह से आपकी सांसें अटकें तो आप इनहेलर यूज़ करने के बजाए दो बार मोबाइल पर साफ हवा वाला ये बयान सुन लें तो छाती में हल्कापन महसूस होगा। हद है निर्लज्जता की। अब सवाल ये है कि इतनी बड़ी समस्या है, फिर भी ये सरकार की प्राथमिकता में क्यों नहीं है। प्रधानमंत्री तक को क्यों नहीं लगता कि ज़बानी तौर पर ही सही, खुद उनकी तरफ से एक मैसेज आए कि आप घबराएं मत।

क्या बेहतर नहीं होता इस मामले पर कुछ प्रधानमंत्री एक हाई लेवल मीटिंग चेयर करते। जिसमें हरियाणा, पंजाब, यूपी के मुख्यमंत्रियों को बुलाया जाता। बाद में खुद प्रधानमंत्री का एक स्टेटमेंट आता। बताया जाता कि क्या प्लान तैयार किया गया। हम ये-ये कदम उठाने वाले हैं। अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो इसका सीधा जवाब ये है कि सरकार भी जानती है कि प्रदूषण को ख़त्म करना उसके बूते की और उससे बढ़कर फायदे की बात नहीं है। इसे आप ऐसे समझें कि प्रदूषण ख़त्म करना ऐसा नहीं है कि आपने एक झटके में चाइनीज़ ऐप पर बैन लगाकर लोगों को खुश कर दिया। दरअसल प्रदूषण की समस्या भारत में फैली जबरदस्त अराजकता और भ्रष्टाचार की एक जॉइंट स्टेटमेंट है।

क्यों ख़त्म नहीं होता प्रदूषण?

अब सवाल ये है कि इस देश में प्रदूषण में कभी ख़त्म क्यों नहीं होता। तो इसका सीधा सा जवाब है कि प्रदूषण से जुड़ी हर वजह के पीछे राजनीति है। इस देश में जिस तरह अवैध कब्ज़े हो रखे हैं, जो पुलिस और लोकल नेताओं की शह पर करवाए जाते हैं। अवैध फैक्ट्रियां चल रही हैं, जो या तो नेताओं की हैं या जिनके मालिकों से नेताओं को पैसा मिलता है। पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन पर कोई ध्यान नहीं है क्योंकि उसे सुधार दिया तो गाड़ियों की बिक्री रुक जाएगी और पेट्रोल की खपत कम हो जाएगी। कंस्ट्रक्शन साइट्स पर कोई नियम फॉलो नहीं किया जाता है क्योंकि बिल्डरों से भी पैसा मिलता है।

सड़कों की साफ-सफाई का कहीं कोई ध्यान नहीं है। चूंकि ये सारी अराजकता राजनीति की देन है और नेताओं को प्रदूषण दूर करने के लिए इस अराजकता को ख़त्म करना है, तो बताइए कैसे होगा… बिल्ली अपने ही गले में घंटी कैसे बांधेगी। दरअसल इस देश में भ्रष्टाचार को लेकर सरकार और आम आदमी में एक गुप्त समझौता है। सरकार कहती है कि तुम हमसे हमारे कामों को हिसाब नहीं मांगोगे बदले में तुम्हें जैसी अराजकता करनी है कर लो, बस हमें हमारा हिस्सा दे देना। इस देश में जगह-जगह बनी अवैध बस्तियां, सड़कों और फुटपात पर हुए अवैध कब्ज़ें, बेतरतीब ट्रैफिक उसी गुप्त समझौते के तहत सरकार से जनता को मिला रिटर्न गिफ्ट है।

पूरे कुएं में भांग घुली है और बात सिर्फ हवा की नहीं है। साफ हवा तो एक ऐसी चीज़ है जिसका बेचारी जनता के पास कोई इलाज नहीं है। सरकार तो आपको साफ पानी भी नहीं दे पा रही। सिर्फ साफ पानी पीने के लिए हर मध्यमवर्गीय आदमी को हर साल कुछ हज़ार रुपए आरओ और फिल्टर बदलवाने में लगाने पड़ते हैं। इसी तरह सरकारी स्कूल से लेकर सरकारी अस्पताल तक ऐसा कुछ भी नहीं है जो मध्यमवर्गीय आदमी के इस्तेमाल लायक है। अब चूंकि पैसा खर्च करके मध्यमवर्गीय आदमी उन चीजों का विकल्प निकाल लेता है तो मुद्दा नहीं बन पाता।

लेकिन हवा का कोई विकल्प नहीं है। आप कितने एयर प्यूरिफ़ायर लगा लेंगे। कहां-कहां लगा लेंगे। बस यही बात सरकार की समस्या है। वरना वो तो बाकी चीज़ों में भी वो उतनी ही निकम्मी और संवेदनहीन है जितनी हवा के मामले में। हवा का चूंकि विकल्प नहीं है, इसलिए उस बेचारी को यूं बदनाम होना पड़ रहा है। वरना तो गुल बाकी बाकी जगह भी ऐसे ही खिलाए हैं। तो इस सबसे होता क्या है — जिस आदमी को पहला मौका मिलता है, वो देश छोड़कर चला जाता है। आज साढ़े तीन करोड़ भारतीय हैं जो भारत से बाहर रह रहे हैं।

इतनी तो आधी दुनिया के देशों की कुल आबादी नहीं है। पिछले दस सालों में 28 हज़ार करोड़पतियों ने देश छोड़ दिया है। लेकिन ये भी कब तक होगा। दुनिया में हर जगह नेटिव लोग अपना हक मांग रहे हैं। उन्हें बाहर से आए लोगों से समस्या है। बाहरी लोग उनकी नौकरी छीन रहे हैं। उनका कल्चर बदल रहे हैं। यही वजह है कि ऑस्ट्रेलिया से लेकर अमेरिका तक हर जगह प्रवासी भारतीयों के खिलाफ गुस्सा है। ये गुस्सा जायज़ है या नहीं, ये मुद्दा ही नहीं है। जब खुद हमारे देश में दूसरे राज्यों से आए आदमी को लेकर हम सहज नहीं हैं, तो दुनिया को हम क्या नसीहत देंगे।

कुल जमा बात ये है कि इस तरह की पलायनवादी राजनीति का घड़ा भर चुका है। इस देश को सच की आंख में आंख डालकर समस्याओं से डील करना होगा। भ्रष्टाचार सिर्फ पैसे का ही नहीं होता। भ्रष्टाचार हर कीमत में सत्ता में बने रहने का भी होता है। और सत्ता में बने रहने के उस लालच में हर तरह के समझौते करने का भी होता है। यही डर आपसे कड़े कदम नहीं उठवाता। उठाते भी हैं तो वापिस ले लेते हैं।

यही डर आपको Status Quo को चुनौती देने का हौसला नहीं देता। क्योंकि अंदर से आप भी जानते हैं कि अगर आपने अराजक समाज को ज़्यादा झकझोरने की कोशिश की, तो वो आपके ही खिलाफ हो जाएगा। और ऐसा हुआ तो आपकी सत्ता चली जाएगी। बस सत्ता चले जाने का ये डर ही है जो इस देश की कथित ईमानदार राजनीति को भी एक हद के बाद कुछ करने की हिम्मत नहीं देता। और जिस भी इंसान के मन में ये ऐसा डर है, वो उतना ही भ्रष्ट है जितना हज़ारों करोड़ का घोटाला करने वाला।

क्योंकि अंततः दोनों ही देश को बर्बाद कर रहे हैं। इसलिए पॉल्यूशन की जड़ में सरकारी आलस नहीं है, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है। वो इच्छाशक्ति जो देश के लिए आपसे अपनी सत्ता गंवा देने का साहस मांगती है। और अफसोस, वो साहस कहीं दिखता नहीं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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