विपक्षी एकता का संकल्प कितना मजबूत होगा: राजेश बादल

दिल्ली का यह रामलीला मैदान साक्षी है कि जब जब कोई राजनीतिक संदेश देने के लिए यहां जमावड़ा हुआ तो वह बेकार नहीं गया।

राजेश बादल by
Published - Tuesday, 02 April, 2024
Last Modified:
Tuesday, 02 April, 2024
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राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

क़रीब क़रीब आधी सदी से भारत में सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ़ प्रतिपक्षी एकता की बात हो रही है। जब चुनाव निकट आते हैं तो एकता के सुर विपक्षी दलों के गले से फूटने लगते हैं।चुनाव संपन्न हो जाने के बाद एकता के तार टूटने लगते हैं और नए ढंग से गठबंधन आकार लेने लगता है। यदि विपक्षी गठबंधन सरकार बनाने में कामयाब रहा तो सत्ता की मलाई खाने के लिए यह दल साथ चलते रहते हैं। यदि गठबंधन नाकाम रहा तो अपने हितों को ध्यान में रखते हुए यह दल नए समझौते करने लगते हैं। ऐतिहासिक रामलीला मैदान में रविवार को इंडिया गठबंधन की रैली इस परंपरा में एक कड़ी मानी जा सकती है। अनेक सवालों के बीच इतनी अधिक संख्या में विपक्षी पार्टियों के मुखियाओं का एक मंच पर आना भारतीय लोकतांत्रिक सेहत के बारे में आशा तो बंधाता है। लेकिन, स्थानीय स्तर पर विरोधाभासी सियासी समीकरणों के चलते गठबंधन के टिकाऊ होने पर संदेह भी उपजता है।

दिल्ली का यह रामलीला मैदान साक्षी है कि जब जब कोई राजनीतिक संदेश देने के लिए यहाँ जमावड़ा हुआ तो वह बेकार नहीं गया। पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पहले और दूसरे आम चुनाव के बीच कुछ विराट सभाएँ इस मैदान में कीं। जिस तरह का संदेश देने के लिए उनकी रैली अथवा सभाएं हुईं,वह कमोबेश सफल रहा। उनके बाद 1971 में बांग्लादेश निर्माण के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत के लोगों को उस दौर का हाल बयान करने के लिए इसी मैदान का इस्तेमाल किया। बताने की आवश्यकता नहीं कि वे भी अपने मक़सद में कामयाब रहीं। इसके बाद जून 1975 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने आपातकाल के विरोध में यहाँ से श्रीमती गांधी की सरकार के खिलाफ़ जंग का ऐलान किया और कांग्रेस पार्टी के हाथ से सत्ता निकल गई।

इसके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजीव गांधी सरकार के विरुद्ध इसी मैदान से हुंकार भरी और परिणाम उनके लिए भी अनुकूल रहे। फिर 2011 में अन्ना हजारे के नेतृत्व में बड़ी सभा इसी रामलीला मैदान में हुई। यह सभा भी जनमत का सोच बदलने में कामयाब रही। लब्बोलुआब यह कि जम्हूरियत पसंद हर देश में कुछ ऐसे प्रतीक होते हैं, जो लोगों तक लोकतांत्रिक खुराक़ पहुंचाने का काम करते हैं। इन प्रतीकों की अपनी ख़ास भूमिका होती है। हालाँकि भारत में इन गठबंधनों को तात्कालिक लाभ तो मिला, लेकिन बाद में वे मतभेदों के कारण टूटते फूटते रहे। आज़ादी के बाद बना सबसे महत्वपूर्ण साझा मोर्चा जनता पार्टी की शक्ल में सामने आया।

मगर वह तीन साल पूरे होते होते मतभेदों की वजह से बिखर गया। कुछ ऐसा ही विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनमोर्चा का हश्र हुआ।अनुभव कहता है कि इन गठबंधनों में शामिल छोटे और प्रादेशिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं रह पाता।वे अपने सियासी स्वार्थों के कारण ठोस वैचारिक धुरी पर नहीं टिके रह पाते और उन गठबंधनों के साथ कभी जुड़ते हैं तो कभी अलग हो जाते हैं। इस तरह गठबंधन का सैद्धांतिक पक्ष कमज़ोर होता है। प्रश्न है कि क्या इंडिया गठबंधन में शामिल दल चुनाव तक या चुनाव के बाद भी एकजुट रहेंगे? इस गठबंधन में तीन तरह की पार्टियाँ शामिल हैं। एक तो वे,जो कांग्रेस के साथ हरदम साथ खड़ी रही हैं। लालू यादव की आरजेडी, शरद पवार की अगुआई वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, डीएमके याने द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम और वामदलों जैसी पार्टियाँ भरोसेमंद श्रेणी में रखी जा सकती हैं।

इनका साथ नहीं टूटा। दूसरी श्रेणी में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिव सेना, उमर फ़ारूक़ की सदारत वाली नेशनल कांफ्रेंस, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और हेमंत सोरेन का झारखण्ड मुक्ति मोर्चा रखे जा सकते हैं। इंडिया गठबंधन फ़िलहाल इन पर भरोसा कर सकता है। मेरी दृष्टि में तीसरी श्रेणी के दलों में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और अरविन्द केजरी वाल की आम आदमी पार्टी रखी जा सकती है। इन पार्टियों को तीसरी श्रेणी में रखने का कारण यह है कि वे कभी भी, किसी भी वजह से गठबंधन छोड़ सकती हैं। एक तरफ़ तृणमूल कांग्रेस अपने प्रतिनिधि के रूप में डेरेक ओ ब्रायन को इंडिया गठबंधन की रैली में भेजती है,जो ऐलान करते हैं कि उनकी पार्टी हर हाल में इंडिया गठबंधन के साथ है।

मगर उसी दिन महुआ मोइत्रा की प्रचार सभा में पार्टी सुप्रीमो ममता बनर्जी साफ़ साफ़ कहती हैं कि गठबंधन बंगाल के लिए नहीं है। इसलिए उन्होंने सभी सीटों पर पार्टी के उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं और प्रचार भी ज़ोर शोर से शुरू कर दिया है। अब तृणमूल कांग्रेस का असर बंगाल से बाहर तो है नहीं। ऐसे में ममता बनर्जी के कथन का क्या अर्थ लगाया जाए ? सीधा सा अर्थ यही है कि अपने अपने दम पर पार्टियाँ लड़ें। चुनाव के बाद यदि इंडिया गठबंधन इतनी सीटें जीत जाए कि वह सरकार बनाने की स्थिति में हो तो फिर इंडिया में शामिल होने पर तृणमूल कांग्रेस विचार कर सकती है। तब तक तो एकला चलो रे की नीति पर ही पार्टी अमल करेगी।

जहाँ तक आम आदमी पार्टी की बात है तो अरविन्द केजरीवाल की गिरफ़्तारी ने काफी हद तक उसे इंडिया में शामिल होने पर मजबूर भी किया है। अन्यथा इससे पहले उसका सियासी सफ़र भी अकेले चलने की हिमायत करता रहा है। गठबंधन के मामले में वह एक क़दम आगे, दो क़दम पीछे चलती रही है। एक कारण यह भी है कि मौजूदा हालात में इंडिया में शामिल पार्टियों में प्रधानमंत्री पद के लिए संभावित चेहरों पर नज़र डालें तो उनमें से एक चेहरा अरविन्द केजरीवाल का भी हो सकता है। भारत का प्रधानमंत्री होने का एक काल्पनिक अवसर भी मिल रहा हो तो उसे कौन छोड़ेगा ? इसलिए चुनाव परिणाम आने तक अरविन्द केजरीवाल की पार्टी के लिए इंडिया गठबंधन का दामन थामकर रखना विवशता ही है।

इस बात की गारंटी कोई नहीं ले सकता कि चुनाव के बाद भी केजरीवाल इंडिया गठबंधन में बने रहेंगे। तृणमूल कांग्रेस की तरह ही उनकी साख़ भी कुछ कुछ ऐसी ही है। फिर भी गठबंधन का भविष्य चुनाव परिणामों पर निर्भर करेगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - लोकमत समाचार।

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रुस से तेल खरीदना बंद? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के बाद से ट्रंप रूस यूक्रेन युद्ध रोकना चाहते हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि भारत और चीन तेल खरीद कर इस युद्ध को फंड कर रहे हैं।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 27 October, 2025
Last Modified:
Monday, 27 October, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले दिनों जब बार बार बयान दिया कि भारत से उनकी बात हो गई है वो रूस से तेल ख़रीदना बंद कर देंगे। भारत सरकार ने इस पर चुप्पी साध रखी थी, लेकिन अब अमेरिका ने रूस की दो बड़ी कंपनियों को ब्लैक लिस्ट कर दिया है। इसके बाद भारतीय कंपनियों के लिए रुस का तेल ख़रीदना मुश्किल हो जाएगा।

कहानी शुरू होती है 2022 में रूस और यूक्रेन युद्ध से। अमेरिका और यूरोप के देशों ने रूस पर दबाव बनाने के लिए तेल बिक्री पर शर्तें लगाई थीं जैसे रूस $60 प्रति बैरल या उससे कम रेट पर ही तेल बेचेगा ताकि उसका मुनाफा कम होगा। भारत ने इसका फ़ायदा उठाया। युद्ध से पहले भारत अपनी ज़रूरत का 5% तेल रूस से ख़रीदता था। तेल सस्ता होने के कारण भारत ने ज़्यादा तेल ख़रीदना शुरू किया। अब भारत के कुल आयात का 35% तेल रूस से आता है।

अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के बाद से ट्रंप रूस यूक्रेन युद्ध रोकना चाहते हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि भारत और चीन तेल ख़रीद कर इस युद्ध को फंड कर रहे हैं। उन्होंने भारत पर इस कारण 25% अतिरिक्त टैरिफ़ लगा दिया। 25% टैरिफ़ पहले से था। इस कारण अब भारत से अमेरिका जाने वाले सामान पर 50% टैरिफ़ लग रहा है। भारतीय कंपनियों के लिए अमेरिका में सामान बेचने में मुश्किल हो रही है। फिर भी भारत अमेरिका के दबाव में झुका नहीं और रूस से तेल खरीदता रहा।

अब अमेरिका ने रूस की दो बड़ी कंपनियों Rosneft और Lukoil को ब्लैक लिस्ट कर दिया है। यह दोनों कंपनियाँ रूस का आधा तेल उत्पादन करती हैं। भारत की सरकारी और प्राइवेट कंपनियाँ पहले तो तेल ख़रीदकर बच जाती थीं, अब मुश्किल होगी।

रिलायंस इंडस्ट्रीज़ ने Rosneft से 5 लाख बैरल तेल रोज़ ख़रीदने का करार किया है। अब तेल ख़रीदने में दिक़्क़त है कि रिलायंस पर अमेरिका प्रतिबंध लगा सकता है। कोई भी कंपनी अमेरिका के फ़ाइनेंशियल सिस्टम से बाहर रहकर कारोबार नहीं कर सकती है। रिलायंस इंडस्ट्रीज़ कह चुकी है कि वो दूसरे रास्ते तलाश रहे हैं। यही बात सरकारी तेल कंपनियों पर भी लागू होती है।

भारत के लिए यह कुल मिलाकर अच्छी खबर साबित हो सकती है। रूसी तेल की ख़रीद बंद होने के बाद अमेरिका को अतिरिक्त टैरिफ़ हटाना पड़ सकता है। भारतीय बाज़ार के लिए यह अच्छी खबर होगी। सरकारी सूत्रों ने यह भी दावा किया है कि अमेरिका के साथ ट्रेड डील जल्द हो सकती है। हालाँकि रूस से तेल नहीं ख़रीदने में एक रिस्क यह भी है कि पेट्रोल डीज़ल की क़ीमतें बढ़ सकती है। अमेरिका के फ़ैसले के बाद तेल की क़ीमतों में प्रति बैरल $5 इज़ाफ़ा हुआ है। यह और बढ़ने पर नया सिरदर्द खड़ा हो सकता है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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बौद्धिकता की आड़ में राजनीति का खेल: अनंत विजय

लंदन विश्वविद्यालय की प्रोफेसर फ्रांसेस्का ओरसिनी को भारत नहीं आने देने पर एक इकोसिस्टम के लोग शोर मचा रहे हैं। मोदी सरकार को घेरने का प्रयत्न कर रहे हैं।

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Published - Monday, 27 October, 2025
Last Modified:
Monday, 27 October, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

हिंदी के कथाकार हैं शिवमूर्ति। कई अच्छी कहानियां लिखी हैं। कुछ दिनों पहले उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट लिखी, सुबह देखा, रात 12 बजे फ्रांसेस्का जी का व्हाट्सएप-शिवमूर्ति जी, देखिए क्या गजब हो गया। दुम दबाकर लंदन जा रही हूं। पता नहीं अब कब आना हो पाएगा। फ्रांसेस्का की इस टिप्पणी के बाद शिवमूर्ति ने लिखा क्या कहूं? न कुछ कर सकता हूं न कुछ कह सकता हूं सिवा इसके कि बहुत शर्म आ रही है।

शिवमूर्ति को जिसपर शर्म आ रही थी उसके कारणों की पड़ताल तो करनी चाहिए थी। एक लेखक होने के नाते ये अपेक्षा तो की जानी चाहिए कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले उसकी वजह तो जान लेते, शायद शर्म ना आती। या शर्म बाद में शर्मिंदगी का सबब नहीं बनती। फ्रांसेस्का जो हिंदी विद्वान बताई जा रही हैं उन्होंने दुम दबाकर लंदन जाने की बात क्यों लिखी।

दुम दबाना शब्द युग्म का प्रयोग तो भय या डर के संदर्भ में किया जाता है। शिवमूर्ति के लिखने के साथ साथ कई पत्रकारों ने भी एक्स पर पोस्ट किया। फ्रांसेस्का ओरसिनी को एयरपोर्ट से वापस लौटाने को लेकर भारत सरकार की आलोचना आरंभ कर दी। एक पूरा इकोसिस्टम सक्रिय हो गया। तरह तरह की बातें सामने आने लगीं। लोग कहने लगे कि इतनी बड़ी हिंदी की विदुषी को वीजा होते हुए एयरपोर्ट से लौटाकर भारत सरकार ने बहुत गलत किया। कुछ ने इसको सीएए से जोड़ा तो किसी ने गाजा पर इजरायल के हमलों पर फ्रांसेस्का के स्टैंड से।

आगे बढ़ने से पहले फ्रांसेस्का ओरसिनी के बारे में जान लेते हैं। फ्रांसेस्का लंदन विश्वविद्यालय की स्कूल आफ ओरिएंटल और अफ्रीकन स्टडीज में प्रोफेसर हैं। हिंदी पर उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। भारत आती जाती रहती हैं। सेमिनारों में उनके व्याख्यान आदि होते रहते हैं। मैंने भी दिल्ली में एक बार उनको सुना है।

हिंदी को लेकर उनका अपना एक अलग सोच है। वो हिंदी-उर्दू को मिलाकर देखने और साझी संस्कृति की बात करते हुए हिंदी का पब्लिक स्पीयर देखती हैं। उनकी पुस्तक है द हिंदी पब्लिक स्पीयर 1920-1940। इसके बाद भी हिंदी को लेकर उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। ईस्ट आफ डेल्ही, मल्टीलिंगुअल लिटररी कल्चर एंड वर्ल्ड लिटरेचर उनकी अन्य पुस्तक है।

फिलहाल प्रश्न उनके लेखन को लेकर नहीं उठ रहा है। सवाल इस बात पर उठाया जा रहा है कि फ्रांसेस्का को दिल्ली एयरपोर्ट से वापस क्यों लौटाया गया। सरकार की तरफ से ये जानकारी आई कि फ्रांसेस्का पहले पर्यटक वीजा पर कई बार भारत आ चुकी हैं। उस दौरान उन्होंने वीजा की शर्तों का उल्लंघन किया। सेमिनारों में व्याख्यान दिए और विश्वविद्यालयों में शोध कार्य किया।

उनके उल्लंघनों को देखते हुए भारत सरकार ने उनको ब्लैकलिस्टेड कर दिया। पिछले दिनों जब वो चीन से एक सेमिनार में भाग लेकर भारत आना चाह रही थीं तो उनको एयरपोर्ट पर रोक दिया गया। इस बात को नजरअंदाज करते हुए फ्रांसेस्का को भारत नहीं आने देने पर हो हल्ला मचाया जा रहा है। लंदन विश्वविद्लाय की प्रोफेसर होने से क्या किसी संप्रभु राष्ट्र के नियम और कानून में छूट मिलनी चाहिए। इस प्रश्न से कोई नहीं टकराना चाहता है। इससे ही मिलता जुलता एक मामला लंदन में भी चल रहा है।

आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में भारतीय इतिहासकार मणिकर्णिका दत्त के ब्रिटेन में रहने पर खतरा मंडरा रहा है। मणिकर्णिका दत्त इंडेफनिटिव लीव (वीजा का एक प्रकार) पर लंदन में रह रही थीं। ब्रिटेन का नियम है कि इस वीजा के अंतर्गत वहां रहनेवाले वीजा अवधि में अपने शोध आदि के सिलसिले में 548 दिन ब्रिटेन से बाहर रह सकते हैं। मणिकर्णिका भारतीय इतिहास पर शोध कर रही हैं और इस क्रम में वो 691 दिन ब्रिटेन से बाहर रहीं।

नियम का हवाला देते हुए ब्रिटेन सरकार ने उनके इंडेफनिटिव लीव को रद्द कर दिया। जबकि वो वहां ना सिर्फ नौकरी करती हैं बल्कि उनके पति भी वहां नौकरी में हैं। उनके अपील को भी खारिज कर दिया गया। मणिकर्णिका दत्त वाली घटना पर हमारे देश के वो बुद्धिजीवी खामोश हैं जो फ्रांसेस्का को भारत नहीं आने देने पर छाती पीट रहे हैं।

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने फ्रांसेस्का के मसले पर एक्स पर पोस्ट किया कि प्रोफेसर फ्रांसेस्का ओरसिनी भारतीय साहित्य की विद्वान हैं जिनके कार्य ने हमें अपनी संस्कृतिक विरासत को समझने में मदद की। इसके बाद उन्होंने एक साक्षात्कार में मोदी सरकार को एंटी इंटलैक्चुअल घोषित कर दिया। ये जो शब्द एंटी इंटलैक्चुअल गढ़ा गया है उसका उपयोग कई अन्य एक्स हैंडल पर देखने को मिल रहा है।

वैसे एक्स हैंडल जो एक विशेष इकोसिस्टम के सदस्यों के हैं। रामचंद्र गुहा को ये भी बताना चाहिए कि कैसे फ्रांसेस्का के कार्यों ने भारत की सांस्कृतिक विरासत को समझने में उनकी मदद की। फ्रांचेस्का अपनी पुस्तक में लिखती हैं कि 1920-40 का कालखंड हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल है। इस कालखंड में कविता और गल्प के क्षेत्र में असाधारण रचनात्मकता देखने को मिलती है।

वो इसी तरह की बात करते हुए इस कालखंड को हिंदी के विकास और खड़ी बोली के स्थापित होने का कालखंड मानती हैं। अगर इस कालखंड में गल्प और कविता में असाधारण कार्य हुआ तो फिर द्विवेदी युग में क्या हुआ? बाबू श्यामसुंदर दास ने क्या किया? प्रताप नारायण मिश्र जैसे कवियों ने जो लिखा वो सामान्य था? और तो और वो हिंदी की बात करते हुए तुलसी और अन्य मध्यकालीन कवियों को अपेक्षित महत्व नहीं देती हैं। अपनी पुस्तक द हिंदी पब्लिक स्पीयर 1920-1940, में जर्मन स्कालर हेबरमास की पब्लिक स्पीयर के सिद्धांतो को स्थापित करती हैं। पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में वो कितना सटीक है इसपर चर्चा होनी चाहिए।

हिंदी और उर्दू को एक पायदान पर रखने के कारण फ्रांचेस्का एक इकोसिस्टम की चहेती हैं जो गंगा-जमुनी संस्कृति की वकालत करती है। उनको प्रोफेसर मौलवी वहीउद्दीन की पुस्तक वजै-इस्तलाहात (परिभाषा निर्माण) को देखना चाहिए जहां लेखक कहता है उर्दू जिस जमीन पर खड़ी है, वह जमीन हिंदी की है। हिंदी को हम अपनी जबान के लिए उम्मुलिसान (भाषा की जननी) और हमूलाए-अव्वल (मूल तत्व) कह सकते हैं।

इसके बगैर हमारे जबान की कोई हस्ती नहीं है। इसकी मदद के बगैर हम एक जुमला भी नहीं बोल सकते। जो लोग हिंदी से मुहब्बत नहीं रखते वे उर्दू जबान के हामी नहीं हैं। फारसी, अरबी या किसी दूसरी जबान के हामी हों तो हों। इन बातों को ध्यान में रखते हुए फ्रांचेस्का के निष्कर्षों पर लंबी डिबेट हो सकती है लेकिन वो हमारी संस्कृति को समझने में मदद करती हो इसमें संदेह है।

विद्वता चाहे किसी भी स्तर की हो लेकिन वीजा के नियमों में छूट तो नहीं ही दी जा सकती है। ना ही इस एक घटना से मोदी सरकार एंटी इंटलैक्चुअल हो सकती है। मोदी सरकार पर असहिष्णु होने का आरोप 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले भी लगा था। पुरस्कार वापसी का संगठित अभियान योजनाबद्ध तरीके से चला था। बाद में सचाई सामने आ गई थी। बिहार विधानसभा चुनाव चल रहा है और असहिष्णुता को एंटी इंटलैक्चुअल ने रिप्लेस कर दिया है। पर कहते हैं ना कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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बिहार की राजनीति में ठगों और दंगाइयों पर नियंत्रण का सवाल: आलोक मेहता

1990 के दौरान हुए दलित हत्याकांडों और बिहार के भागलपुर में हुए सबसे बड़े सांप्रदायिक दंगों में सैकड़ों लोगों के मारे जाने के तथ्य को कैसे भूल रहे हैं क्योंकि तब वहां कांग्रेस की ही सरकारें थीं।

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Published - Monday, 27 October, 2025
Last Modified:
Monday, 27 October, 2025
aalokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, लेखक, वरिष्ठ पत्रकार।

‘कांग्रेस में काफी ठग पड़े हैं। आज ठगी का बड़ा जोर है। कांग्रेस में जिन लोगों पर कुछ भी शक है, वेकांग्रेस को छोड़ दें या उन्हें बाहर निकाल दिया जाए। कुछ जगहों में लोग कहते हैं कि काफी गुंडे हैं तो काम कैसे किया जाए। काम करने वाले गुडों को भी कह सकते हैं कि हम आपसे डरेंगे नहीं और काम करेंगे। गुंडा जहां होता है, वहां अच्छे आदमी भी रहते हैं और अच्छे आदमियों को चाहिए कि गुंडों से कहें कि आप हमें मारेंगे, तो हम मरेंगे, मगर भागेंगे नहीं।’

यह बात आज भारतीय जनता पार्टी या उसके किसी सहयोगी दल के नेता ने नहीं कही है। यह बात 18 मार्च, 1947 को महात्मा गांधी ने सांप्रदायिक दंगों के बाद मसौढ़ी के बीर गांव में देहात के प्रतिनिधियों की सभा में कही थी। 75 वर्ष बाद भी बिहार में इस तरह की चर्चा होती है। खासकर जब जंगलराज यानी लालू प्रसाद यादव के सत्ताकाल में अपराधों की पराकाष्ठा अथवा 1970 से 1990 के बीच कांग्रेस के सत्ताकाल में हुए भीषण सांप्रदायिक दंगे और बड़े पैमाने पर दलितों के हत्याकांड की याद दिलाई जाती है।

बिहार विधानसभा के चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के नेता मुख्यमंत्री पद के दावेदार तेजस्वी यादव और उनके साथ सवारी कर रहे कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता राहुल गांधी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सत्ताकाल में दलितों और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के आरोप लगाकर अधिकाधिक वोट पाने की कोशिश कर रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी ने मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी सामने नहीं रखी है और नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही विश्वास जताते हुए समाज के विभिन्न वर्गों और अल्पसंख्यकों के वोट पाने के लिए अभियान चलाया हुआ है।

लेकिन तेजस्वी और राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को निशाना बना रहे हैं। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सप्ताह अपने संदेश में कहा है कि बिहार की जनता जंगलराज को सौ साल तक नहीं भूल सकेगी। विपक्ष का गठबंधन ‘गठबंधन नहीं, बल्कि लठबंधन (अपराधियों का गठबंधन) है क्योंकि दिल्ली और बिहार के उनके नेता जमानत पर बाहर हैं।’

आश्चर्य की बात यह है कि राहुल गांधी के सलाहकार बेलछी कांड में दलितों की हत्या के विरोध में आक्रोश व्यक्त करने के लिए 1977 में प्रतिपक्ष की नेता के रूप में श्रीमती इंदिरा गांधी के जाने से हुए राजनीतिक लाभ का जिक्र करते हुए दलितों पर अत्याचार का मुद्दा वर्तमान दौर में भी लाभदायक समझ रहे हैं। वे 1970 से 1990 के दौरान हुए दलित हत्याकांडों और बिहार के भागलपुर में हुए सबसे बड़े सांप्रदायिक दंगों में सैकड़ों लोगों के मारे जाने के तथ्य को कैसे भूल रहे हैं क्योंकि तब वहां कांग्रेस की ही सरकारें थीं।

इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि 1972 से पत्रकारिता में होने के कारण मुझे बिहार के मुख्यमंत्रियों केदार पांडे, अब्दुल गफूर, जगन्नाथ मिश्र, कर्पूरी ठाकुर, भोला पासवान शास्त्री, रामसुंदर दास, चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दूबे, भागवत झा आजाद, सत्येंद्र नारायण सिन्हा, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार से मिलने और उनके कार्यकाल के दौरान घटनाचक्रों पर लिखने और बोलने के अवसर मिले हैं।

जहानाबाद में दलितों के हत्याकांड और भागलपुर के सांप्रदायिक दंगों की भयावह घटनाओं के समय कांग्रेस के ही मुख्यमंत्री थे और मैं स्वयं नवभारत टाइम्स के पटना संस्करण का संपादक था। उस समय की घटनाओं पर सर्वाधिक रिपोर्ट और टिप्पणियां हमने लिखी और प्रकाशित की थी।

भागलपुर दंगे की शुरुआत अक्टूबर 1989 में हुई और यह कई महीनों तक चलता रहा। इस हिंसा में लगभग 1000 से अधिक लोगों की जान गई, जबकि हजारों लोग बेघर हो गए। अधिकांश पीड़ित मुस्लिम समुदाय से थे, परंतु हिंदू समुदाय के भी कई लोग हिंसा के शिकार बने। 24 अक्टूबर 1989 को भागलपुर के परवती और लोदीपुर क्षेत्रों में जुलूस के दौरान विवाद हुआ। एक छोटी सी झड़प ने देखते-देखते पूरे शहर और आसपास के ग्रामीण इलाकों को अपनी चपेट में ले लिया।

कई गाँवों में आगजनी और लूटपाट हुई, दर्जनों मस्जिदें और घर जला दिए गए, महिलाएँ और बच्चे तक हिंसा से नहीं बचे। अधिकारिक आंकड़ों के अनुसार करीब 900 से अधिक लोग मारे गए, जबकि स्वतंत्र रिपोर्टों में यह संख्या 2000 से ऊपर बताई गई। विपक्ष और मानवाधिकार संगठनों ने आरोप लगाया कि सरकार ने राजनीतिक कारणों से सख्त कदम नहीं उठाए। दंगे की जांच के लिए बाद में कई समितियाँ और न्यायिक आयोग गठित किए गए।

मुख्य रूप से न्यायमूर्ति एन. एन. सिंह आयोग और बाद में न्यायमूर्ति राम नंदन प्रसाद आयोग ने घटनाओं की विस्तृत जांच की। इन रिपोर्टों में स्पष्ट कहा गया कि— पुलिस ने निष्पक्षता नहीं बरती, स्थानीय अधिकारियों ने हिंसा रोकने के लिए समय पर कदम नहीं उठाए। भागलपुर दंगे ने बिहार और राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा प्रभाव छोड़ा। कांग्रेस की छवि “धर्मनिरपेक्षता” की मुखर पक्षधर होने के बावजूद कमजोर पड़ी। आगामी 1990 के विधानसभा चुनावों में जनता दल ने इस मुद्दे को जोरदार तरीके से उठाया, जिसके परिणामस्वरूप लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में कांग्रेस को करारी हार मिली।

यह घटना बिहार की राजनीति में मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई का भी अहम मोड़ बनी। कई वर्षों तक दंगे के पीड़ित शरणार्थी शिविरों में रहे। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा मुआवजे की घोषणाएँ की गईं, परंतु ज्यादातर पीड़ितों को न्याय या पूर्ण पुनर्वास नहीं मिला।

1970 के दशक का उत्तरार्द्ध बिहार के सामाजिक-राजनीतिक इतिहास का अत्यंत उथल-पुथल भरा दौर था। जातिगत संघर्ष, भूमि विवाद, और राजनीतिक अस्थिरता ने राज्य के ग्रामीण समाज को गहराई तक प्रभावित किया। आपातकाल (1975–77) के बाद जब इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर हुईं, तब बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस की स्थिति काफी कमजोर पड़ गई थी।

इसी राजनीतिक परिदृश्य में 1977 के बेलछी नरसंहार (कांड) ने देश को झकझोर दिया और एक बार फिर इंदिरा गांधी को जनता से सीधे जुड़ने का अवसर प्रदान किया। यह घटना बेलछी गाँव, (नालंदा) में 27 मई 1977 को हुई थी। बेलछी कांड मूलतः जातिगत हिंसा का वीभत्स उदाहरण था। गाँव में भूमिहार और दलित (हरिजन, पासवान) समुदायों के बीच लंबे समय से जमीन और मजदूरी को लेकर विवाद चल रहा था।

इसी विवाद ने 27 मई को भयावह रूप ले लिया जब सवर्ण भूमिहारों के समूह ने 11 दलितों और पिछड़ों को घेरकर एक झोपड़ी में बंद कर दिया और उन्हें जिंदा जला दिया। जब बेलछी कांड की खबर उन्हें मिली, तो वे तत्काल वहाँ जाने का निर्णय लिया। उस समय बिहार में बारिश के कारण सड़कों की स्थिति बेहद खराब थी। वाहन से जाना लगभग असंभव था।

उन्होंने पहले ट्रेन से पटना तक की यात्रा की, फिर जीप में आगे बढ़ीं। रास्ता खराब होने पर उन्होंने ट्रैक्टर और फिर हाथी का सहारा लिया। अंततः कई घंटे की कठिन यात्रा के बाद इंदिरा गांधी बेलछी गाँव पहुँचीं। इंदिरा गांधी की इस यात्रा का प्रभाव तत्काल राजनीतिक स्तर पर देखने को मिला। जहाँ जनता पार्टी के नेता जातीय हिंसा और प्रशासनिक अक्षमता के आरोपों में उलझे थे, वहीं इंदिरा गांधी ने स्वयं को एक संवेदनशील और दृढ़ नेता के रूप में पुनः स्थापित किया।

1980 के दशक में बिहार के खासकर जहानाबाद और उसके आसपास के इलाकों में जमीन, जाति और राजनीतिक-पठित हिंसा ने सामूहिक हत्या और दमन का भयावह चेहरा दिखाया। स्थानीय जमींदार, जातिगत मिलिशिया, सशक्त दलित उठान तथा नक्सली गतिविधियों के आपसी द्वन्द्व ने नियंत्रणहीन हिंसा और बदले की कार्रवाईयों को जन्म दिया। ऐसी घटनाओं में अक्सर स्थानीय राजनीतिक संस्थाओं और नेताओं के समर्थकों पर भी संगठित हिंसा का आरोप उठते रहे.

जहानाबाद जिले में जून–जुलाई 1988 के आसपास नॉन्हीगढ़ और नागवान के पास दलित बस्तियों पर एक संगठित हमले में कई हरिजनों की हत्या हुई। कुछ रिपोर्टों के अनुसार इस हमले में 19 हरिजन मारे गए। इस घटना ने प्रशासन और राजनीतिक नेतृत्व पर तीव्र प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए थे — बाद में अभियुक्तों के खिलाफ मुक़दमों व सज़ाओं की कार्रवाई भी चली। इन कत्लेआम घटनाओं की पृष्ठभूमि सिर्फ जातिगत द्वेष नहीं रही — स्थानीय शक्तिशाली राजनीतिक इकाइयों, सांसद/विधायक या उनके निकटस्थ समर्थकों पर भी हमलों में भूमिका के आरोप उठते रहे।

1980 के दशक में कुछ मामलों में कांग्रेस (या अन्य स्थानीय राजनीतिक समूहों) के स्थानीय नेताओं/सपोर्टरों पर आरोप लगे कि उन्होंने या उनके समर्थकों ने हिंसा को संरक्षण या दिशा दी — पर हर मामले में राजनीतिक जुड़ाव बराबर प्रमाणित नहीं हुआ; कई मामलों में लंबी मुक़दमेबाजी और बिना-नतीजे वाली जांचों की शिकायत भी रही।

जहानाबाद और आसपास के इलाकों में 1980 के दशक की इन हत्याओं की कहानी केवल अतीत की कथा नहीं है — यह बताती है कि जब जमीन, जाति, व राजनीतिक शक्ति मिले तो सामाजिक सुरक्षा कहाँ फेल हो सकती है। इन घटनाओं ने यह भी उजागर किया कि त्वरित, निष्पक्ष और पारदर्शी जांच तथा न्यायिक प्रक्रिया तथा सामाजिक-आर्थिक सुधार ही ऐसी हिंसा को जड़ से खत्म कर सकती हैं।

मानवाधिकार संगठनों, मीडिया और सामाजिक आंदोलनों की निरन्तर निगरानी एवं पीड़ितों की आवाज़ को न्यायपालिका तक पहुँचाना आवश्यक रहा। दुखद बात यह रही कि जहानाबाद में दलितों की हत्या करने वाले अपराधियों को काँग्रेस के बड़े नेता का संरक्षण मिलने का गंभीर आरोप रहा। लेकिन काँग्रेस आलाकमान ने इसे निरंतर सांसद बनाए रखने में भी संकोच नहीं किया।

इसे जातीय समीकरण के साथ धनबल और बाहुबली की राजनीति के रूप में याद किया जाता है। एक बार राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने मेरी अनौपचारिक मुलाकात के दौरान काँग्रेस पार्टी और सरकार द्वारा ऐसे बाहुबली नेता को प्रश्रय दिए जाने पर गहरा दुख व्यक्त किया था। इस तरह बिहार की राजनीति में जातीय और सांप्रदायिक संघर्ष का मुद्दा निरंतर रहा है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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अपनी कहानियों से देश को जोड़ने वाले विज्ञापन गुरु थे पीयूष पांडेय: प्रो. साजल मुखर्जी

पीयूष पांडेय के निधन की खबर भारतीय विज्ञापन जगत के लिए एक युग के अंत जैसी महसूस हो रही है।

Samachar4media Bureau by
Published - Saturday, 25 October, 2025
Last Modified:
Saturday, 25 October, 2025
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प्रो. साजल मुखर्जी- डायरेक्टर, एपीजे इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन, द्वारका, नई दिल्ली ।।

पीयूष पांडेय के निधन की खबर भारतीय विज्ञापन जगत के लिए एक युग के अंत जैसी महसूस हो रही है। जिन लोगों ने इस इंडस्ट्री में दशकों बिताए हैं, उनके लिए वे सिर्फ एक क्रिएटिव लीडर नहीं थे, बल्कि एक ऐसे कहानीकार थे जो भारत को बहुत गहराई से समझते थे। उनके विज्ञापन आम लोगों की भाषा बोलते थे। उनमें अपनापन, हंसी-मजाक और सच्चाई थी। यही वो खूबियां थीं जिन्होंने भारतीय विज्ञापन को एक अलग पहचान दी, जबकि दुनिया के ज्यादातर विज्ञापन विदेशी अंदाज की नकल से भरे होते थे।

पीयूष पांडेय का काम भावनात्मक जुड़ाव का बेहतरीन उदाहरण है। 'हर घर कुछ कहता है' (एशियन पेंट्स), 'मिले सुर मेरा तुम्हारा', 'कुछ खास है जिंदगी में' (कैडबरी) और 'तोड़ो नहीं, जोड़ो' (फेविक्विक) जैसी मुहिमें आज भी लोगों के दिलों में जिंदा हैं। ये सिर्फ विज्ञापन नहीं थे, बल्कि हमारी जिंदगी और समाज का आईना थे। वह जिंदगी की छोटी-छोटी बातों को इस तरह पेश करते थे कि वह हर किसी के चेहरे पर मुस्कान ले आती थी।

उनकी किताब ‘Pandeymonium’ उनके रचनात्मक सफर को ईमानदारी से बयां करती है। यह किताब विज्ञापन की कला और संवाद की सोच को समझने वाली सबसे गहरी पुस्तकों में से एक है। हर अध्याय ये सिखाता है कि अच्छा विज्ञापन चतुराई नहीं, बल्कि सादगी और इंसानी समझ पर टिका होता है।

एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर जिसने इस पेशे में चार दशक से ज्यादा समय बिताया है और अब नए विद्यार्थियों को पढ़ाता हूं, मैं अक्सर अपने क्लासरूम में उनके कामों का जिक्र करता हूं। उनके विज्ञापन सिर्फ रचनात्मक उदाहरण नहीं, बल्कि सहानुभूति, सादगी और जीवन के प्रति नजरिए के पाठ हैं। छात्र तुरंत उनसे जुड़ जाते हैं, क्योंकि उनमें उन्हें जिंदगी दिखाई देती है, सिर्फ रणनीति नहीं।

पीयूष पांडेय की विरासत उनके विज्ञापनों से कहीं बड़ी है। वह हजारों लोगों को इस क्षेत्र में आने और कुछ नया करने के लिए प्रेरित कर गए। उनका जीवन इस बात का सबूत है कि इस प्रोफेशन में असली सफलता ईमानदारी, जिज्ञासा और अपनी जड़ों से जुड़े रहने के साहस से मिलती है।

हममें से बहुतों के लिए वे हमेशा वो विज्ञापन गुरु रहेंगे, जिन्होंने भारत को अपनी कहानियों से प्यार करना सिखाया। उनके विचार, उनकी आवाज और उनकी आत्मा हमेशा हर क्लासरूम, हर कैंपेन और हर उस रचनात्मक दिल में जिंदा रहेगी जो कहानी कहने की ताकत पर विश्वास रखता है।

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छठ की भीड़, रेलवे से कहां चूक हुई : रजत शर्मा

अंबाला स्टेशन पर जबरदस्त भीड़ थी, अमृतसर से पूर्णिया की तरफ जाने वाली ट्रेन जैसे ही स्टेशन पर पहुंची तो धक्कामुक्की शुरू हो गई। तुंरत जालंधर से एक स्पेशल ट्रेन भेजी गई।

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Published - Saturday, 25 October, 2025
Last Modified:
Saturday, 25 October, 2025
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रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

बिहार के लोगों में महापर्व छठ को लेकर इस बार काफी उत्साह है। बिहार के जो लोग देश के दूसरे राज्यों में रहते हैं, वे छठ के मौके पर अपने घर लौटना चाहते हैं। यही वजह है कि ट्रेनों में जबरदस्त भीड़ देखने को मिल रही है। गुजरात के रेलवे स्टेशनों के बाहर दो किलोमीटर लंबी लाइनें लगी हुई देखी गईं। रेलवे ने छठ के लिए 13,000 विशेष ट्रेनों का इंतजाम किया है, लेकिन भीड़ इतनी ज्यादा है कि सारे इंतजाम कम पड़ रहे हैं।

गुरुवार को खुद रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने मोर्चा संभाला। स्टेशनों पर भीड़ प्रबंधन और ट्रेनों की लोकेशन पर नजर रखने के लिए तीन वॉर रूम बनाए गए। इनकी फीड सीधे रेल भवन में बने मुख्य वॉर रूम में पहुंच रही थी, जहां रेल मंत्री स्वयं मौजूद थे। जिस स्टेशन पर ज्यादा भीड़ दिखती है, वहां तुरंत ट्रेन भेजी जा रही है।

जैसे अंबाला स्टेशन पर जबरदस्त भीड़ थी। अमृतसर से पूर्णिया की ओर जाने वाली ट्रेन जैसे ही स्टेशन पर पहुंची, धक्का-मुक्की शुरू हो गई। तुरंत जालंधर से एक स्पेशल ट्रेन भेजी गई और यात्री उस ट्रेन से बिहार के लिए रवाना हो गए। बीते सालों से सबक लेकर इस बार रेलवे ने भीड़ प्रबंधन के लिए नया मैकेनिज्म (mechanism) तैयार किया है।

देश के ऐसे 35 रेलवे स्टेशन चिह्नित किए गए हैं, जहां त्योहारों के वक्त सबसे ज्यादा भीड़ होती है। इन स्टेशनों पर सीसीटीवी कैमरों के जरिए 24 घंटे मॉनिटरिंग की जा रही है। किसी भी स्टेशन पर भीड़ बढ़ने पर स्थानीय अधिकारियों से फीडबैक लेकर तुरंत स्पेशल ट्रेन पहुंचाई जाती है।

छठ पूजा के लिए लोग पहले भी घर लौटते थे। ट्रेनों में भीड़ पहले भी होती थी। कई लोग ट्रेन की छत पर बैठकर सफर करते थे, कुछ ट्रेन से लटककर जान जोखिम में डालकर घर जाते थे और कोई इसकी परवाह नहीं करता था। रेलवे में इस तरह की यात्रा को कभी सामान्य (normal) माना जाता था।

भीड़ अब भी है, ट्रेनें अब भी कम पड़ रही हैं, लेकिन अब रेलवे को लोगों की परवाह है। इसकी वजह है रेल मंत्री की व्यक्तिगत दिलचस्पी। अश्विनी वैष्णव ने डेटा स्टडी (Data Study) करके प्लान बनाया, स्पेशल ट्रेनें चलाईं, सुविधाएं बढ़ाईं। पर जब लोगों को पता चला कि अब स्पेशल ट्रेनें चल रही हैं और ज्यादा सहूलियतें हैं, तो जो लोग पहले छठ पर घर नहीं जाते थे, उन्होंने भी अपने बैग पैक कर लिए। नतीजा, भीड़ और बढ़ गई।

अंदाजा गलत निकला, इंतजाम कम पड़ने लगे। पर लोगों को इस बात का संतोष है कि रेलवे उनकी यात्रा और सुविधाओं की चिंता करता है और यह विश्वास, बहुत बड़ी बात है। एक बात और, सोशल मीडिया पर जो भी दावे किए जा रहे हैं, उन पर आंख मूंदकर भरोसा न करें। सरकार की तरफ से जो औपचारिक जानकारी दी जाती है, उसी पर यकीन करें, क्योंकि आजकल सोशल मीडिया के चक्कर में सबसे ज्यादा गड़बड़ियां होती हैं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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सिर्फ चुनाव में क्यों याद आता है संविधान : प्रो. संजय द्विवेदी

संविधान सभा को इस बात की जानकारी थी, कि संविधान को नए सूत्रों में पिरोना होगा। एक गतिशील विश्व मे, यह जनता और समग्र राष्ट्र की सेवा करने का सर्वोत्तम माध्यम बनेगा।

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Published - Saturday, 25 October, 2025
Last Modified:
Saturday, 25 October, 2025
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प्रो. संजय द्विवेदी, पूर्व महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान।

देश में जब भी चुनाव आते हैं, संविधान की याद आती है। गत लोकसभा चुनावों में संविधान बदलने के शिगूफे से विपक्ष को अनेक स्थानों पर चुनावी लाभ भी मिला। अब एक बार फिर बिहार चुनाव के बहाने संविधान चर्चा में है। जबकि भारत के संविधान की सबसे उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इसका विचार-दर्शन चिरस्थाई है, लेकिन इसका ढांचा और अनुच्छेद लचीले हैं।

हमारे संविधान निर्माता समय के साथ अनुच्छेदों के संशोधन और परिवर्तन के लिए भावी पीढ़ी को पर्याप्त शक्ति प्रदान करने के मामले में प्रबुद्ध और दूरदर्शी थे। हमारा संविधान गतिहीन नहीं है, बल्कि एक सजीव दस्तावेज है। संविधान सभा को इस बात की जानकारी थी, कि संविधान को नए सूत्रों में पिरोना होगा। एक गतिशील विश्व मे, यह जनता और समग्र राष्ट्र की सेवा करने का सर्वोत्तम माध्यम बनेगा। भारतीय संविधान को हमने अनेकों बार संशोधित किया है, जिससे यह परिलक्षित होता है कि हम कितनी सक्रियता से यह सुनिश्चित करने में लगे हैं, कि तेजी से रूपांतरित हो रहे इस देश में इसकी प्रासंगिकता कम न पड़ जाए।

संविधान निर्माताओं ने अनुभव किया था कि संविधान, चाहे कितना बढ़िया लिखा गया हो और कितना बड़ा हो, अमल में लाए और मूल्यों का अनुकरण किए बिना उसका कोई अर्थ नहीं है। इसलिए हमने भावी पीढ़ियों पर विश्वास जताया है। संविधान लोगों को उतना ही सशक्त बनाता है, जितना लोग संविधान को सशक्त बनाते हैं। जब व्यक्ति और संस्थाएं पूछती हैं कि संविधान ने उनके लिए क्या किया है और इसने उनकी क्षमता को कितना बढ़ाया है, उन्हें यह भी विचार करना चाहिए कि उन्होंने संविधान के अनुपालन के लिए क्या किया है?

उन्होंने इसके मूल्य तंत्र के समर्थन के लिए क्या किया है? संविधान का अर्थ ‘हम लोग’ हैं और ‘हम लोग, संविधान’ हैं। भारतीय संविधान प्रत्येक व्यक्ति और समुदाय को सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार देने का वादा करता है और उन्हें किसी प्रकार के भेदभाव से भी बचाता है। हमने इसे हमेशा बनाए रखने और प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुनिश्चित करने का संकल्प गणतंत्र की शुरुआत में ही लिया था। यह हमारी प्रगति का मूल्यांकन और विश्लेषण करने का भी समय है कि हमने आम आदमी के लिए इस वादे को कितने अच्छे तरीके से निभाया है।

राष्ट्र केवल सीमाओं, प्रतीकों और संस्थाओं का समूह नहीं है, बल्कि राष्ट्र उसके लोगों में निहित होता है। राष्ट्र की तीन शाखाओं - न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के संबंधों को खोजते हुए इनके जटिल और नाजुक संतुलन का ध्यान रखना बेहद जरूरी है। सभी एक समान हैं। इन्हें अपनी स्वतंत्रता के प्रति जागरूक होना चाहिए तथा स्वायतत्ता की रक्षा करने का प्रयास करना चाहिए। हमारे स्तंभों में से प्रत्येक स्तंभ को अपनी शक्तियों के प्रयोग में स्वतंत्र होने की आवश्यकता है, लेकिन राष्ट्रीय एकता, अखंडता और खुशहाली के लिए संगठित रूप से अन्य दो स्तंभों के साथ कड़ी के रूप काम करने की भी जरूरत है।

पिछले आठ दशकों में हमारा लोकतांत्रिक अनुभव सकारात्मक रहा है। अपनी इस यात्रा में हमें अत्यंत गौरव के साथ पीछे मुड़ कर देखना चाहिए कि हमारे देश ने, न केवल अपने लोकतांत्रिक संविधान का पालन किया है, बल्कि इस दस्तावेज में नए प्राण फूंकने और लोकतांत्रिक चरित्र को मजबूत करने में भी अत्यधिक प्रगति की है। हमने 'जन' को अपने 'जनतंत्र' के केंद्र में रखा है और हमारा देश न केवल सबसे बड़े जनतंत्र के रूप में, बल्कि एक ऐसे देश के रूप में उभर कर सामने आया है, जो निरंतर पल्लवित होने वाली संसदीय प्रणाली के साथ जीवंत और बहुलतावादी संस्कृति का उज्ज्वल प्रतीक है।

हमने संविधान की प्रस्तावना के अनुरूप एक समावेशी और विकसित भारत के निर्माण के लिए न केवल अपनी नीतियों एवं कार्यक्रमों को साकार करने पर ध्यान केंद्रित किया है, बल्कि हम शासन-प्रणाली में भी रूपांतरण कर रहे हैं। यह वास्तव में एक आदर्श परिवर्तन है, जिसमें लोग अब निष्क्रिय और मूकदर्शक या 'लाभार्थी' नहीं रह गए हैं, बल्कि परिवर्तन लाने वाले सक्रिय अभिकर्ता हैं। जब तक हम में से प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन नहीं करेगा, तब तक अन्य लोगों के अधिकारों को मूर्त रूप नहीं दिया जा सकता।

भारत के पास ऐसी बहुत सी शक्तियां और क्षमताएं हैं, जो हमें उच्च विकास के मार्ग की ओर प्रेरित कर सकती हैं। हमारा समृद्ध मानव संसाधन उनमें से एक है। हमारे पास सक्षम सिविल सेवा के रूप में एक मजबूत ढांचा है, जिसे सरदार पटेल के नेतृत्व में हमारे संविधान निर्माताओं ने बनाया था। हमारी प्रमुख निष्ठा हमारे संविधान के मूल्यों तथा हमारे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास के फायदों को समाज के निचले पायदान तक ले जाने की होनी चाहिए। इसके लिए, हमें अधीनस्थ संस्थानों के स्तर को उठाने का निरंतर प्रयास करना चाहिए और उन्हें सभी क्षेत्रों की उच्च संस्थाओं के बराबर लाना चाहिए।

यदि हम राष्ट्रीय उद्देश्यों और संवैधानिक मूल्यों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन निष्ठा एवं प्रतिबद्धता के साथ करें, तो विकास पथ पर देश तीव्र गति से अग्रसर होगा और हमारा लोकतंत्र ओर अधिक परिपक्व लोकतंत्र बनेगा। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विश्व में हमारा सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन हो। हमें 'विचारशील' व्यक्ति भी बनना चाहिए और यह देखना चाहिए कि हम मौजूदा प्रक्रियाओं एवं प्रणालियों को कैसे 'सुधार' सकते हैं। भारत अपने इतिहास के ऐसे महत्वपूर्ण समय में हैं, जहां हम एक प्रमुख विश्व अर्थव्यवस्था के रूप में निरंतर विकास कर रहे हैं।

हम लगातार अपने लोकतंत्र को कार्यशील बनाए हुए हैं और यह सुनिश्चित करने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं कि इसका लाभ समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे। यही समय है कि हम संविधान में प्रस्तावित कर्तव्यों को याद रखें। यही समय है कि भारत का प्रत्येक नागरिक इस उत्साहपूर्ण भावी यात्रा का हिस्सा बनने की शपथ ले। आज जब देश अमृतकाल में अपने लिए असाधारण लक्ष्य तय कर रहा है, दशकों पुरानी समस्याओं के समाधान तलाशकर नए भविष्य के लिए संकल्प ले रहा है, तो ये सिद्धि सबके साथ से ही पूरी होगी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पीयूष जी ने मुझे सोचने और बड़े सपने देखने की प्रेरणा दी: अरनब गोस्वामी

पद्मश्री पीयूष पांडेय एक लेजेंड थे और इतिहास हमेशा उन्हें ऐसे ही याद रखेगा। लेकिन मेरे लिए, उनकी सबसे बड़ी खासियत थी उनकी गर्मजोशी और साफगोई, जिन्हें मैं सबसे ज्यादा मिस करूंगा।

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Published - Friday, 24 October, 2025
Last Modified:
Friday, 24 October, 2025
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अरनब गोस्वामी- फाउंडर, चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ, रिपब्लिक मीडिया नेटवर्क ।।

पद्मश्री पीयूष पांडेय एक लेजेंड थे और इतिहास हमेशा उन्हें ऐसे ही याद रखेगा। लेकिन मेरे लिए, उनकी सबसे बड़ी खासियत थी उनकी गर्मजोशी और साफगोई, जिन्हें मैं सबसे ज्यादा मिस करूंगा।

सालों से मुझे पीयूष जी के साथ कई खूबसूरत पल बिताने का मौका मिला। ये यादें हमेशा मेरे साथ रहेंगी। सब कुछ लिख पाना मुश्किल है, लेकिन जो चीज सबसे ज्यादा याद रहेगी, वह है उनका लगातार दिया गया फीडबैक, उनकी सटीक और तेज आलोचना और हमारा हौसला बढ़ाने का उनका अंदाज- खासकर जब हम रिपब्लिक मीडिया नेटवर्क को बना रहे थे।

मुझे याद हैं रिपब्लिक के शुरुआती दिन, जब हम बहुत छोटी टीम के साथ दिन-रात मेहनत कर रहे थे ताकि एक सपना हकीकत बन सके। उन्हीं दिनों मेरी पीयूष जी से लंबी बातचीत हुई थी कि मैं क्या करने जा रहा हूं। उनके सुझाव बेहद ही ईमानदारी भरे, गहरे और दूरदर्शी थे। उन्होंने हमें पूरा चित्र देखने और हर चीज को बड़े परिप्रेक्ष्य में समझने की सीख दी।

फरवरी, मार्च और अप्रैल 2017 के महीनों में उन्होंने रिपब्लिक के लॉन्च कैंपेन के लिए इतना समय दिया कि रविवार को भी वे प्रेजेंटेशन के लिए मौजूद रहते थे।

मुझे अब भी याद है, वह अक्सर कमरे के सबसे पीछे बैठते थे चुपचाप सब सुनते और सोचते रहते। जब प्रेजेंटेशन खत्म होता और सब उनकी राय का इंतजार करते, तब वह अचानक उठकर कोई बेहद रचनात्मक और अप्रत्याशित आइडिया देते, जो अंत में हमारे पूरे लॉन्च कैंपेन की बुनियाद बन जाता था। उस कैंपेन की सफलता में उनका योगदान बेहद अहम था।

क्रिएटिव मीटिंग्स से परे, पीयूष जी अक्सर हमारे ब्रैंड की आत्मा और सोच पर बात करते थे। वह बड़ी खूबी से हमारे मिशन और उद्देश्य को कलात्मक रूप में बदलते थे, ताकि वह जनता तक सही भाव से पहुंचे। मैं हमेशा आभारी रहूंगा उस वक्त के लिए जो उन्होंने और उनकी ओगिल्वी टीम ने रिपब्लिक की शुरुआत में हमें दिया। वे दिन मेरे लिए बहुत कीमती हैं।

लेकिन मेरा रिश्ता पीयूष जी से सिर्फ रिपब्लिक कैंपेन तक सीमित नहीं था। पिछले दो दशकों में हमने देश से जुड़ी कई बातों पर निजी स्तर पर चर्चा की। 'टाइम्स नाउ' के दिनों से ही वह मेरा शो देखने के बाद मुझे कॉल करते थे, कभी-कभी डिबेट के बीच में मैसेज भेज देते थे। यदि वे किसी बात से असहमत होते तो खुलकर कहते और अगर सहमत होते तो उतनी ही गर्मजोशी से तारीफ भी करते। यही बात उन्हें सबसे अलग बनाती थी- उनकी ईमानदारी और खुलापन।

हमने 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ऐतिहासिक जीत के कुछ ही हफ्तों बाद RedInk Awards में मंच साझा किया था। विषय था “क्या मीडिया ने NaMo Wave बनाई?” और पीयूष जी के विचार बिल्कुल सटीक और बेबाक थे। जब बाकी मीडिया उस समय असमंजस में था, तब उन्होंने तथ्यों और समझ के साथ साफ कहा कि असली बात क्या है। यही थे पीयूष जी -हमेशा निडर, साफ सोच वाले और ट्रेंड्स से अप्रभावित।

सितंबर 2022 में जब रिपब्लिक ने #UnitedByLanguage कैंपेन शुरू किया, उन्होंने मुझे शो के दौरान मैसेज किया। मैंने उसी वक्त 1990 के दशक में लिखा उनका एक शानदार लेख याद किया, जो शहरी भारत के लिए एक आईना था। पीयूष जी सचमुच भारत की विविधता और एकता की भावना से जुड़े हुए व्यक्ति थे।

जब भारत ने अपनी 71वीं आजादी का जश्न मनाया, वह मुंबई स्टूडियो आए और अपनी यात्रा के बारे में बात की। मुझे हमेशा यही बात सबसे खास लगी। उन्होंने हर चीज में भारतीयता को केंद्र में रखा, उस दौर में जब कई लोग पश्चिमी ढर्रे की नकल करने में लगे थे। यही थे पीयूष जी- एक सच्चे भारतीय, जिन्होंने लगभग चार दशकों तक भारतीय विज्ञापन जगत को नई पहचान दी।

कोविड के मुश्किल भरे दिनों में, जब हर तरफ अंधकार था, वह मेरे Sunday Debate शो में आए और पूरे देश को यह भरोसा दिया कि “हम जीत रहे हैं।” यही थे पीयूष जी- उम्मीद देने वाले, लोगों को प्रेरित करने वाले और मुश्किल वक्त में हौसला बढ़ाने वाले।

देश के लिए पीयूष जी विज्ञापन जगत के एक संस्थान के रूप में हमेशा याद किए जाएंगे। मेरे लिए वह हमेशा ऐसे व्यक्ति रहेंगे जिन्होंने मुझे और गहराई से सोचने, बड़े सपने देखने और अपने मूल्यों पर डटे रहने की प्रेरणा दी।

सिर्फ मैं ही नहीं पूरा देश हमेशा आपको याद करेगा, पीयूष जी।

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पीयूष पांडेय ने सिखाया कि इंसानियत ही सबसे बड़ी कला है: संतोष देसाई

पीयूष पांडेय का दिल बहुत बड़ा था। वह हर उस व्यक्ति को गले लगाते थे जो उनसे जुड़ता था।

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Published - Friday, 24 October, 2025
Last Modified:
Friday, 24 October, 2025
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फ्यूचरब्रैंड्स इंडिया के सीईओ संतोष देसाई ने विज्ञापन जगत के दिग्गज पीयूष पांडेय के निधन पर गहरा दुख जताया। उन्होंने कहा कि पीयूष पांडेय ऐसे इंसान थे जो अपने आस-पास के हर व्यक्ति को यह एहसास कराते थे कि वह खास है, उसकी बात सुनी जा रही है और उसकी कद्र की जा रही है।

संतोष देसाई ने कहा, “पीयूष का दिल बहुत बड़ा था। वह हर उस व्यक्ति को गले लगाते थे जो उनसे जुड़ता था। उनकी गर्मजोशी और उत्साह हर किसी को छू जाता था। उन्होंने हमेशा लोगों को दिया ही दिया है, चाहे वह उनके युवा सहयोगी हों, क्लाइंट हों या उनके दोस्त, जो उन्हें बेहद प्यार करते थे।”

उन्होंने आगे कहा, “विज्ञापन की दुनिया में उनके योगदान को किसी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है। उनकी असली खूबी थी उनका बेहद मानवीय स्वभाव। वह अपने आसपास के हर व्यक्ति को यह महसूस कराते थे कि वह महत्वपूर्ण है। आखिरी बार मैं उनसे इस साल गोवा में अपने घर पर मिला था। तब उनकी तबीयत पूरी तरह ठीक नहीं थी, लेकिन उनका वही जोश और वही जोरदार हंसी अब भी वैसी ही थी, जो पूरे कमरे को रोशनी से भर देती थी। वह पल भुलाए नहीं जा सकते।”

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रामबहादुर राय होने का अर्थ समझाती एक किताब: प्रोफेसर संजय द्विवेदी

भारतीय जीवन मूल्यों और पत्रकारिता के उच्च आदर्शों को जीवन में उतारने वाले रामबहादुर राय ने राजनीति के शिखर पुरुषों से रिश्तों के बावजूद कभी कलम को ठिठकने नहीं दिया।

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Published - Thursday, 16 October, 2025
Last Modified:
Thursday, 16 October, 2025
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प्रोफेसर संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष।

कभी जनांदोलनों से जुड़े रहे, पदम भूषण और पद्मश्री सम्मानों से अलंकृत श्री रामबहादुर राय का समूचा जीवन रचना, सृजन और संघर्ष की यात्रा है। उनकी लंबी जीवन यात्रा में सबसे ज्यादा समय उन्होंने पत्रकार के रूप में गुजारा है। इसलिए वे संगठनकर्ता, आंदोलनकारी, संपूर्ण क्रांति के नायक के साथ-साथ महान पत्रकार हैं और लेखक भी।

अपने समय के नायकों से निरंतर संवाद और साहचर्य ने उनके लेखन को समृद्ध किया है। हमारे समय में उनकी उपस्थिति ऐसे नायक की उपस्थिति है, जिसके सान्निध्य का सुख हमारे जीवन को शक्ति और लेखन को खुराक देता है। उनका समावेशी स्वभाव, मानवीय संवेदना से रसपगा व्यक्तित्व भीड़ में उन्हें अलग पहचान देता है। ‘दिल्ली’ में ‘भारत’ को जीने वाले बौद्धिक योद्धा के रूप में पूरा देश उन्हें देखता, सुनता और प्रेरणा लेता है।

जिस दौर की पत्रकारिता की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता पर ढेरों सवाल हों, ऐसे समय में राम बहादुर राय की उपस्थिति हमें आश्वस्त करती है कि सारा कुछ खत्म नहीं हुआ है। सही मायने में उनकी मौजूदगी हिन्दी पत्रकारिता की उस परंपरा की याद दिलाती है, जो बाबूराव विष्णुराव पराड़कर से होती हुई राजेन्द्र माथुर और प्रभाष जोशी तक जाती है।

4 फरवरी, 1946 को उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के एक गांव में जन्में श्री राय सही मायने में पत्रकारिता क्षेत्र में शुचिता और पवित्रता के जीवंत उदाहरण हैं। वे एक अध्येता, लेखक, दृष्टि संपन्न संपादक, मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में प्रेरक छवि रखते हैं। भारतीय जीवन मूल्यों और पत्रकारिता के उच्च आदर्शों को जीवन में उतारने वाले रामबहादुर राय ने राजनीति के शिखर पुरुषों से रिश्तों के बावजूद कभी कलम को ठिठकने नहीं दिया।

उन्होंने वही लिखा और कहा जो उन्हें सच लगा। राय साहब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर छात्र राजनीति में सक्रिय रहते हुए, ऐतिहासिक जयप्रकाश आंदोलन के नायकों में रहे। दैनिक 'आज' में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का आंखों देखा वर्णन लिखकर आपने अपनी पत्रकारीय पारी की एक सार्थक शुरुआत की। युगवार्ता फीचर सेवा, हिन्दुस्तान समाचार संवाद समिति में कार्य करने के बाद आप 'जनसत्ता' से जुड़ गए।

'जनसत्ता' में एक संवाददाता के रूप में कार्य प्रारंभ कर वे उसी संस्थान में मुख्य संवाददाता, समाचार ब्यूरो प्रमुख, संपादक, जनसत्ता समाचार सेवा के पदों पर रहे। आप नवभारत टाइम्स, दिल्ली में विशेष संवाददाता भी रहे। आप देश की अनेक सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हैं जिनमें प्रज्ञा संस्थान, युगवार्ता ट्रस्ट, दशमेश एजुकेशनल चेरिटेबल ट्रस्ट, इंडियन नेशनल कमीशन फॉर यूनेस्को, प्रभाष परंपरा न्यास, भानुप्रताप शुक्ल न्यास के नाम प्रमुख हैं।

आपकी चर्चित किताबों में आजादी के बाद का भारत झांकता है। ये किताबें राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र की मूल्यवान किताबें हैं। जिनमें भारतीय संविधानःएक अनकही कहानी, रहबरी के सवाल (पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की जीवनी), मंजिल से ज्यादा सफर (पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह की जीवनी), काली खबरों की कहानी (पेड न्यूज पर केंद्रित), भानुप्रताप शुक्ल- व्यक्तित्व और विचार प्रमुख हैं।

भारतीय पत्रकारिता की उजली परंपरा के नायक के रूप में रामबहादुर राय आज भी निराश नहीं हैं, बदलाव और परिवर्तन की चेतना उनमें आज भी जिंदा है। स्वास्थ्यगत समस्याओं के बावजूद आयु के इस मोड़ पर भी वे उतने ही तरोताजा हैं।

पत्रकारिता के इस अनूठे नायक पर प्रो. कृपाशंकर चौबे की नई किताब ‘रामबहादुर रायःचिंतन के विविध आयाम’( प्रवासी प्रेम पब्लिशिंग, गाजियाबाद द्वारा प्रकाशित) उनके अवदान को अच्छी तरह से रेखांकित करती है। एक पत्रकार, संपादक, सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में बहुज्ञात राय साहब को इस तरह देखना निश्चित ही कृपाजी की उपलब्धि है। उनकी यह किताब राय साहब के संपूर्ण रचनाधर्मी स्वभाव का जिस तरह मूल्यांकन करती है, वह अप्रतिम है। किताब में उनका व्यक्तित्व, उनकी किताबें, उनके रिश्ते और रचना कर्म दिखता है।

इस तरह यह किताब उन्हें जानने का सबसे बेहतरीन जरिया है। क्योंकि रामबहादुर राय जैसे बहुआयामी व्यक्तित्व को आप उनकी किसी एक किताब, एक मुलाकात, एक व्याख्यान से नहीं समझ सकते। किंतु यह किताब बड़ी सरलता से उनके बारे में सब कुछ कह देती है। किताब में अंत में छपा उनका साक्षात्कार तो अद्भुत है, एक यात्रा की तरह और फीचर का सुख देता हुआ।

संवाद ऐसा कि चित्र और दृश्य साकार हो जाएं। रामबहादुर राय से यह सब कुछ कहलवा लेना लेखक के बूते ही बात है। यह किताब एक बड़ी कहानी की तरह धीरे-धीरे खुलती है और मन में उतरती चली जाती है। किताब एक बैठक में उपन्यास का आस्वाद देती है, तो पाठ-दर पाठ पढ़ने पर कहानी का सुख देती है। यह एक पत्रकार की ही शैली हो सकती है कि इतने गूढ़ विषय पर इतनी सरलता से, सहजता से संचार कर सके। संचार की सहजता ही इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है।

किताब की सबसे बड़ी विशेषता इसकी समग्रता है। वह बताती है कि किसी खास व्यक्ति का मूल्यांकन किस तरह किया जाना चाहिए। हिंदी पत्रकारिता में आलोचना की परंपरा बहुत समृद्ध नहीं है। इसका कारण यह है कि साहित्यिक आलोचना में सक्रिय लोग पत्रकारिता को बहुत गंभीरता से नहीं लेते, मीडिया अध्ययन संस्थानों में भी पत्रकारों के काम पर शोध का अभ्यास नहीं है।

ऐसे में यह किताब हमें पत्रकारीय व्यक्तित्व की आलोचना का पाठ भी सिखाती है। 11 अध्यायों में फैली इस किताब का हर अध्याय समग्रता लिए हुए है। हमारे बीते दिनों की यात्राएं, आजादी के बाद एक बनते हुए देश की चिंताएं, सरकारों की आवाजाही, हमारे नायकों की मनोदशा सबकुछ। पहले अध्याय में संघर्ष और सरोकार के तहत उनके बचपन,स्कूली शिक्षा, कालेज जीवन, अखिलभारतीय विद्यार्थी परिषद में उनकी सक्रियता, संघर्ष, जेल यात्रा सब कुछ जीवंत हो उठा है। उनके आंदोलनकारी और छात्र राजनीति के पक्ष को यहां समझा जा सकता है। जयप्रकाश नारायण से उनका रिश्ता कैसे उन्हें रूपांतरित करता है, कैसे वे आंदोलन के मार्ग से लोकजागरण के लिए पत्रकारिता के मार्ग पर आते हैं, इसे पढ़ना सुख देता है।

अध्याय दो में ‘प्रश्नोत्तर शैली में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की जीवनी’ शीर्षक अध्याय में राय साहब की किताब ‘रहबरी के सवाल’ की चर्चा है। चंद्रशेखर जी के साथ संवाद से बनी यह किताब राजनीति, समाज और समय के संदर्भों की अनोखी व्याख्या है। जहां संवाद एक तरह के शिक्षण में बदल जाता है। पुस्तक में एक भाषण में भारत को पारिभाषित करते हुए चंद्रशेखर जी कहते हैं,-“भारत सिर्फ मिट्टी का नाम नहीं है। कुछ नदियों और पहाड़ों का समुच्चय नहीं है। भारत सत्य, एक सतत, शास्वत गवेषणा का नाम है। सत्य की इस धारा से दुनिया बार-बार आलोकित होती रही है।”

अध्याय तीन में पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की जीवनी (मंजिल से ज्यादा सफर) भी संवाद शैली में ही लिखी गयी है। इस स्तर के राजनेताओं के अनुभव निश्चय ही हमें समृद्ध करते हैं। क्योंकि वे आजादी के बाद के भारत की राजनीति, संसद और समाज की गहरी समझ लेकर आते हैं। पत्रकार राय साहब इस तरह समाजविज्ञानियों और राजनीतिशास्त्रियों के लिए मौलिक पाठ रचते नजर आते हैं। इस किताब की भूमिका में यशस्वी संपादक प्रभाष जोशी लिखते हैं -“रामबहादुर राय देश के एक बहुत विश्वसनीय और प्रामाणिक पत्रकार हैं। यह जल्दी में काता-कूता कपास नहीं है। बड़े जतन से बुनी गयी चादर है। ”

अध्याय चार और पांच महान समाजवादी चिंतक और राजनेता जेबी कृपलानी और जयप्रकाश नारायण को समझने में मदद करते हैं। अध्याय –छह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक रहे बालासाहब देवरस की विचार दृष्टि पर चर्चा है। यह पाठ ‘हमारे बालासाहब देवरस’ नामक पुस्तक पर केंद्रित है जिसका संपादन राय साहब और राजीव गुप्ता ने किया था। अध्याय सात में गोविंदाचार्य पर संपादित किताब की चर्चा है। गोविंदाचार्य के बहाने यह किताब राजनीति की लोकसंस्कृति पर विमर्श खड़ा करती है। अध्याय आठ में पड़ताल शीर्षक से छपे उनके स्तंभ का विश्वेषण है।

इस स्तंभ पर केंद्रित चार पुस्तकें अरुण भारद्वाज के संपादन में प्रकाशित हुई हैं। जिनका प्रो. कृपाशंकर चौबे ने नीर-क्षीर विवेचन किया है। अध्याय- नौ में राय साहब की बहुचर्चित किताब ‘भारतीय संविधान- एक अनकही कहानी’ की चर्चा है। इस किताब में संविधान सभा की बहसें हमारे सामने चलचित्र की तरह चलती हैं। बहुत मर्यादित और गरिमामय टिप्पणियों के साथ। शायद लेखक चाहते हैं कि उनके पाठक भी वही भाव और स्पंदन महसूस कर सकें, जिसे संविधान सभा में उपस्थित महापुरुषों ने उस समय महसूस किया होगा।

रामबहादुर जी की कलम उस ताप को ठीक से महसूस और व्यक्त करती है। जैसे राजेंद्र प्रसाद जी को संविधान सभा का स्थायी अध्यक्ष बनाते समय श्री सच्चिदानंद सिन्हा और अंत में बोलने वाली भारत कोकिला सरोजनी नायडू जी के वक्तव्य को पढ़ते हुए होता है। अध्याय-10 में राय साहब के निबंधों की चर्चा है। अध्याय-11 में राय साहब से कृपाशंकर जी का संवाद अद्भुत है।

उसे पढ़ना पत्रकारिता में उनके अनुभवों के साथ बहुत सी बातें सामने आती हैं। खासकर नवभारत टाइम्स के संपादक राजेंद्र माथुर की मृत्य के कारणों पर उन्होंने जो कहा वह बहुत साहसिक है। यह वही समय है जब हमारी पत्रकारिता से संपादक के विस्थापन और कारपोरेट के पंजों की पकड़ मजबूत हो रही है।

अपनी आधी सदी की पत्रकारिता में रामबहादुर राय ने जिन आदर्शों और लोकधर्म का पालन किया है, यह किताब उनके जीवन मूल्यों को लोक तक लाने में सफल रही है। इस बहाने उनके जीवन, कृतित्व और सरोकारों से परिचित होने का मौका यह पुस्तक दे रही है। लेखक को इस शानदार किताब के लिए बधाई। राय साहब के लिए प्रार्थनाएं कि वे शतायु हों।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पाकिस्तान ने काबुल पर हमला क्यों किया: रजत शर्मा

तहरीक-ए-लब्बैक के कार्यकर्ताओं ने शुक्रवार को लाहोर और इस्लामाबाद में प्रोटेस्ट किया। शहबाज शरीफ की पुलिस ने आंसू गैस छोड़ी, फिर फायरिंग की और हैडग्रेनेड तक फेंके।

Samachar4media Bureau by
Published - Tuesday, 14 October, 2025
Last Modified:
Tuesday, 14 October, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

गाज़ा में शांति प्लान को लेकर पाकिस्तान में जबरदस्त हंगामा हो रहा है। पाकिस्तान की हुकूमत और आर्मी चीफ आसिम मुनीर ने ट्रंप के गाजा पीस प्लान का न केवल समर्थन किया, बल्कि इस्लामिक मुल्कों का समर्थन हासिल करने में ट्रंप की मदद की थी। इससे पाकिस्तान में जबरदस्त नाराजगी है।

तहरीक-ए-लब्बैक के कार्यकर्ताओं ने शुक्रवार को लाहोर और इस्लामाबाद में प्रोटेस्ट किया। शहबाज शरीफ की पुलिस ने आंसू गैस छोड़ी, फिर फायरिंग की और हैडग्रेनेड तक फेंके। तहरीक-ए-लब्बैक ने लाहौर से इस्लामाबाद तक मार्च निकालने और अमेरिकी दूतावास के घेराव का एलान किया था लेकिन पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को रोक दिया। इस्लामाबाद और रावलपिंडी में इंटरनेट सेवाओं को सस्पेंड कर दिया।

इस्लामाबाद, रावलपिंडी, पेशावर और लाहौर के एंट्री और एग्जिट प्वॉइंट्स पर कंटेनर्स लगाकर सड़कों को बंद कर दिया। तहरीक-ए-लब्बैक के लाहौर के सेंटर रहमत अली मस्जिद को पुलिस ने चारों तरफ से घेर लिया। जैसे ही प्रदर्शनकारियों मस्जिद से बाहर निकले तो पहले पुलिस ने लाठियां चलाईं और फायरिंग शुरू कर दी।

तहरीक-ए-लब्बैक के नेताओं ने कहा कि शहबाज शरीफ की हुकूमत और पाकिस्तान की फौज अमेरिका के हुक्म पर इजराय की जी हुजूरी कर रही है, इसे पाकिस्तान की आवाम कभी बर्दाश्त नहीं करेगी।

पाकिस्तान की जनता की भावनाएं पूरी तरह फिलिस्तीन के साथ है। उन्हें लगता है कि शहबाज और मुनीर ने अमेरिका की जी हुजूरी करने के लिए इजरायल का साथ दिया। इसीलिए लाखों लोग सड़कों पर उतर आए हैं। इन लोगों को ना तो पुलिस की लाठियों का डर है ना गोलियों का। मस्जिदों से ऐलान किए जा रहे हैं, मौलाना तकरीर कर रहे हैं, पाकिस्तान के मुसलमानों से फिलिस्तीन के हक के लिए आवाज उठाने की अपील की जा रही है। शहबाज की हुकूमत और मुनीर की फौज को ये सौदा महंगा पड़ेगा।

पाकिस्तान ने आवाम का ध्यान भटकाने के लिए नई चाल चली। पाकिस्तानी एय़र फोर्स ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में मिसाइल्स से हमला कर दिया। पाकिस्तानी फौज का दावा है कि पाकिस्तान में आंतकवादी हमले करने वाले तहरीक-ए-तालिबान के दहशतगर्द काबुल में छुपे हैं। इसलिए काबुल में तहरीक-ए-तालिबान के अड्डों को निशाना बनाया गया।

पाकिस्तानी वायु सेना ने दावा किया कि पाकिस्तान के फाइटर जैट्स ने काबुल में छुपे तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के चीफ नूर वली महसूद को निशाना बनाया। पाकिस्तानी अखबार डॉन ने अफगान अधिकारियों के हवाले से बताया कि अब्दुल हक चौराहे के पास एक लैंड क्रूजर कार को निशाना बनाया गया। कहा जा रहा है कि इसी लैंड क्रूज़र में नूर वली महसूद था। लेकिन कुछ ही देर के बाद नूर वली महसूद की आवाज में एक ऑडियो टेप जारी किया गया जिसमें महसूद दावा कर रहा है कि वो ज़िंदा और सही सलामत है।

पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाज़ा आसिफ ने संसद में कहा कि अफगानिस्तान की सरकार अब पाकिस्तान के साथ गद्दारी कर रही है। ख्वाज़ा आसिफ ने कहा कि जो अफगान शरणार्थी तीन पीढियों से पाकिस्तान में रह रहे हैं, वो भी पाकिस्तान के साथ नमक हरामी कर रहे हैं, इसलिए अब पाकिस्तान ऐसे लोगों को बर्दाश्त नहीं करेगा।

गौर करने वाली बात ये है कि पाकिस्तान ने अफगानिस्तान पर एयर स्ट्राइक ऐसे वक्त पर की, जब अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी भारत में हैं। चार साल पहले अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद उसके किसी मंत्री का ये पहला भारत दौरा है।

शहबाज शरीफ की सरकार अफगानिस्तान से बुरी तरह चिढ़ी हुई है और अपनी नाराजगी जाहिर करने के लिए पाकिस्तान ने अफगानिस्तान पर एयर स्ट्राइक की। बुरी तरह बौखलाए पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाज़ा आसिफ ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि ये अफगानी पाकिस्तान के साथ कभी थे ही नहीं, वो हमेशा से भारत के वफादार रहे हैं।

जब दिल्ली में अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी से इसके बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान हर मुद्दे का बातचीत से हल चाहता है, वो तनाव नहीं बढ़ाना चाहता। लेकिन मुत्ताकी ने पाकिस्तान को चेतावनी भी दी।

उन्होंने कहा कि पाकिस्तान की सरकार अफगानिस्तान को हल्के में लेने की गलती न करे, अगर किसी ने अफगानिस्तान को छेड़ा तो उसे छोड़ेंगे नहीं, पाकिस्तान याद करे कि इससे पहले सोवियत संघ और अमेरिका का क्या हश्र हुआ।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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