हिंदी आज भी अंग्रेजी की छाया में जीने को मजबूर है, कभी उसकी अधीन बनकर, तो कभी उसकी सहायिका बनकर।
आज जब हम हिंदी दिवस मना रहे हैं, यह सवाल बार-बार दिल और दिमाग में गूंजता है कि स्वतंत्रता के इतने दशकों बाद भी हिंदी को उसका वास्तविक स्थान क्यों नहीं मिला। यह वही हिंदी है, जिसने करोड़ों लोगों को जोड़ने का सेतु बनाया, जिसने हमारी मिट्टी की खुशबू और हमारी संस्कृति की आत्मा को दुनिया तक पहुंचाया। लेकिन अफसोस की बात यह है कि वही हिंदी आज भी अंग्रेजी की छाया में जीने को मजबूर है, कभी उसकी अधीन बनकर, तो कभी उसकी सहायिका बनकर।
नीति-नियंताओं ने हमेशा हिंदी को सम्मान देने और उसके प्रचार-प्रसार की बात जरूर की, लेकिन उनके प्रयास अधूरे ही रहे। हकीकत यह है कि हिंदी ने हमारे समाज और अर्थव्यवस्था को सहारा दिया, रोजगार दिया, उद्योगों को खड़ा किया, लेकिन स्वयं अपने हक से वंचित रही। हिंदी फिल्मों से लेकर हिंदी पत्रकारिता और मीडिया उद्योग तक- सबकी नींव हिंदी पर खड़ी है। इनसे करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी चल रही है, फिर भी विडंबना यह है कि हिंदी आज तक राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं पा सकी।
प्रिंट, टीवी या डिजिटल- मीडिया का हर माध्यम हिंदी की ताकत से फल-फूल रहा है, लेकिन संवैधानिक रूप से हिंदी आज भी राजभाषा होकर एक “सहायिका” भर है। यह स्थिति हर उस भारतीय को चुभती है, जो अपनी मातृभाषा को सिर्फ संवाद का नहीं, बल्कि आत्मसम्मान का प्रतीक मानता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंदी को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहचान और सम्मान दिलाने का जो साहसिक कदम उठाया है, वह काबिले-तारीफ है। लेकिन असली सवाल यही है कि क्या यही सरकार आने वाले समय में हिंदी को राष्ट्रभाषा का संवैधानिक दर्जा दिलाने की हिम्मत दिखाएगी? अगर इस हिंदी दिवस पर यह बड़ा फैसला हो जाता है, तो न सिर्फ हिंदी दिवस सफल होगा बल्कि यह देश के हर उस दिल को तसल्ली देगा, जो वर्षों से हिंदी के हक की प्रतीक्षा कर रहा है।
समाचार4मीडिया ने इस अवसर पर मीडिया में हिंदी की बदलती भूमिका पर विशेष आलेखों का संग्रह प्रस्तुत किया है। यह प्रयास केवल लेखों का संग्रह नहीं है, बल्कि हिंदी के उत्थान और उपेक्षा के बीच के संघर्ष का आईना है। उद्देश्य यही है कि पाठकों तक हिंदी की ताकत, उसकी चुनौतियां और उसके भविष्य की दिशा एक ही मंच पर पहुँच सके।
आजादी के आंदोलन के समय से राष्ट्रीय नेताओं की मान्यता रही कि भारत में राष्ट्र की भावना सुदृढ़ करने के लिए एक भाषा से समन्वय जरूरी है।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।।
वर्षों तक हिंदी दिवस, सप्ताह, पखवाड़ा औपचारिकता की तरह मनाया जाता रहा है। लेकिन हाल के वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विभिन्न स्तरों पर हिंदी का अनिवार्य ढंग से उपयोग कर इसे भाषाई समन्वय का आधार बना दिया है। गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट आदेश देकर अपने मंत्रालय का सारा कामकाज पहले हिंदी में करवाना शुरू कर दिया। विदेशमंत्री सुब्रमण्यम जयशंकर दक्षिण भारतीय होकर जितने प्रभावशाली ढंग से हिंदी में अपनी बातें रखते हैं, वह लोगों के लिए प्रेरक बन रही है। नई शिक्षा नीति में हिंदी और भारतीय भाषाओँ को सर्वाधिक प्राथमिकता दिए जाने से हिंदी के उपयोग के विस्तार में महत्वपूर्ण सहायता मिलने वाली है। हां, कुछ राजनीतिक तत्व निहित स्वार्थों के कारण इस नीति का विरोध कर रहे हैं, लेकिन देश के किसी हिस्से में सामाजिक विरोध देखने सुनने को नहीं मिल रहा है।
वास्तव में सारी विविधताओं के बावजूद संपूर्ण भारत का चिंतन एक जैसा रहा है। इसी चिंतन के आधार पर हिंदी को समन्वय भाषा के रूप में अधिकाधिक बढ़ाने का काम किया जा सकता है। आजादी के आंदोलन के समय से राष्ट्रीय नेताओं की मान्यता रही कि भारत में राष्ट्र की भावना सुदृढ़ करने के लिए एक भाषा से समन्वय जरूरी है। इसीलिए लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी ने हिंदी को देश की एकता और उन्नति के लिए आवश्यक बताया। जो लोग आज मोदीजी या भाजपा सरकार द्वारा हिंदी के उपयोग को राजनीति से प्रेरित बताते हैं, वे भूल जाते हैं कि इस पार्टी और सरकार से बहुत दशकों पहले हिंदी को महत्व देने वाले संत, नेता, विद्वान अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के रहे हैं। राजा राममोहन राय ने जब कलकत्ता से बंगदत्त साप्ताहिक निकाला, तो उसमें हिंदी की रचनाओं को स्थान दिया। केशवचन्द्र सेन ने 1875 में सुलभ समाचार में लिखा कि हिंदी को भारत की भाषा स्वीकारे जाने पर सहज में एकता हो सकती है। सुभाष बोस ने हिंदी को आजाद हिन्द फौज की भाषा बनाया। गांधी तो गुजराती के साथ निरंतर हिंदी का उपयोग करते रहे। गुजराती स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में लिखा। सुब्रहण्यम भारती ने राष्ट्रीय एकता की भावना से प्रेरित होकर हिंदी की कक्षाएं संचालित की। विनोबा भावे मराठी भाषी थे। उनके समय में कुछ इलाकों में हिंदी विरोधी राजनीतिक आंदोलन भी हुए, लेकिन उन्होंने देश भर में भूदान आंदोलन का संदेश हिंदी माध्यम से पहुंचाया। हिंदी पत्रकारिता के पितामह बाबू विष्णुराव पराड़कर मराठीभाषी थे। हिंदी का विकास केवल उत्तर भारत में ही नहीं दक्षिण भारत का बड़ा योगदान रहा है। वहां की हिंदी को दक्खिनी हिंदी कहा गया। दक्खिनी हिंदी का विकास 14 वीं से 19वीं सदी तक बहमनी, कुतुबशाही और आदिलशाही सुलतानों के संरक्षण में हुआ। इतिहासकार फरिश्ता ने लिखा है कि राजकीय कार्यालयों में फारसी के बजाय हिंदी चलती थी। 17वीं सदी में तंजावूर के शासक शाहजी महाराज ने हिंदी भाषा में दो यक्ष गानों की रचना की थी। 1942 के आंदोलन में अल्लुरी सत्यनारायण राजू ने जेल में रहकर हिंदी सीखी और महान विद्वान राहुल सांकृत्यायन के उपन्यास 'वोल्गा से गंगा तक' का तेलुगु में अनुवाद किया। केरल के महाराजा स्वाति तिरुनाल ने ब्रज भाषा में अनेक गीत लिखे। 1942 में केरल के त्रिचूर से पहली हिंदी पत्रिका हिंदी मित्र निकली, जिसके संपादक के जी नीलकंठन नायर थे।
हिंदी साहित्य और भाषा में गुजरात का योगदान भी महत्वपूर्ण है। स्वामी दयानन्द के अलावा नरसिंह मेहता, केशवराम जैसे संत कवियों ने गुजराती के साथ हिंदी में रचनाएं लिखीं। कच्छ, सौराष्ट्र और राजकोट के शासकों ने हिंदी कवियों को आश्रय दिया तथा हिंदी सिखाने की सुविधाएं प्रदान की। मध्य काल में भक्त कवियों ने उड़िया तथा ब्रज भाषा में आदान प्रदान किया। वंशी वल्लभ, जगबंधु हरिचंदन, रामदास तथा प्रह्लाद राय आदि उड़िया कवियों ने ब्रज भाषा में रचनाएं लिखीं। गुरु नानक देव ने पंजाबी के साथ हिंदी में काव्य लिखे। लाला लाजपत राय, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा हेमराज, पंडित गुरुदत्त तथा भाई परमानन्द ने स्वयं हिंदी सीखी और लोगों को सिखाई। असम के संत कवी शंकर देव और माधव देव के नाटकों और गीतों में ब्रजबुलि भाषा का प्रयोग मिलता है। बाद में नाथ पंथियों और वैष्णव संतों ने असमिया के साथ हिंदी को आगे बढ़ाया।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन में हिंदी भवन की स्थापना की। हिंदी भवन की स्थापना के अवसर पर गुरुदेव टैगोर ने हिंदी के विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी से कहा था, ‘तुम्हारी परम्परा शक्तिशाली है। बड़े-बड़े पदाधिकारी तुमसे कहेंगे कि हिंदी में कौन सा रिसर्च होगा भला? लेकिन तुम उनकी बात में कभी न आना। मुझे भी लोगों ने बंगला में न लिखने का उपदेश दिया था। तुम कभी अपना मन छोटा न करना। कभी दूसरों की और मत ताकना। साहस अधिक जरूरी है। लग पड़ोगे तो सब हो जाएगा। हिंदी के माध्यम से तुम्हें ऊंचे से ऊंचे विचारों को व्यक्त करने का प्रयत्न करना होगा।’ जापान के बौद्ध भिक्षु फुजी गुरूजी 1933 में गांधीजी से मिलने आए और भारतीयों के बीच काम करने की इच्छा व्यक्त की। तब गांधीजी ने उन्हें सलाह दी कि वे अपना काम शुरू करने से पहले हिंदी-हिंदुस्तानी सीख लें। गांधीजी के प्रयासों के कारण 1918 में होमरूल कार्यालय में सी पी रामास्वामी आयंगर की अध्यक्षता में श्रीमती एनी बेसेंट ने पहले हिंदी वर्ष का उद्घाटन किया था। फादर कामिल बुल्के ने बहुत पहले लिखा था, 'हिंदी न केवल देश के करोड़ों लोगों की सांस्कृतिक और संपर्क भाषा है, वरन बोलने और समझने की दृष्टि से दुनिया की तीसरी भाषा है। भारत के सभी धर्मों और विभिन्न भाषा भाषियों ने हिंदी के विकास में योगदान दिया है | यह किसी वर्ग, प्रदेश या समुदाय की भाषा न होकर भारतीय जनता की भाषा है|'
इस गौरवपूर्ण पृष्ठभूमि के बाद वर्तमान दौर मैं हिंदी को सर्वाधिक प्रतिष्ठित यानी देश भर में उपयोग के लिए केवल सरकार पर निर्भर रहने के बजाय पत्रकारिता, शिक्षा, विधि और न्याय से जुड़े लोगों को निरंतर अभियान के रुप में योगदान देना होगा। हिंदी के साथ सभी भारतीय भाषाओँ को सम्मान और ज्ञान की दृष्टि से विदेशी भाषा की शिक्षा के प्रति उदार रुख अपनाने से कट्टरता का भय भी नहीं रहेगा। गंगा में अन्य नदियों के सम्मिलन से गंगा की गरिमा काम नहीं होती। हिंदी के लिए उसी पवित्र भाव से संकल्प और प्रयासों की आवश्यकता है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक आईटीवी नेटवर्क इंडिया न्यूज और आज समाज के संपादकीय निदेशक हैं)
भाषा संवाद संप्रेषण का सशक्त माध्यम है। मनुष्य को इसलिए भी परमात्मा की श्रेष्ठ कृति कहा जाता है कि वह भाषा का उपयोग कर अपने भावों को अभिव्यक्त करने में सक्षम है।
प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी।।
भाषा संवाद संप्रेषण का सशक्त माध्यम है। मनुष्य को इसलिए भी परमात्मा की श्रेष्ठ कृति कहा जाता है कि वह भाषा का उपयोग कर अपने भावों को अभिव्यक्त करने में सक्षम है। यही विशेषता है, जो मनुष्य को अन्य प्राणियों से भिन्न करती है।
हिंदी एक बहुआयामी भाषा है। यह बात इसके प्रयोग क्षेत्र के विस्तार को देखते हुए भी समझी जा सकती है। यह अलग बात है कि हिंदी भाषा की बात करते समय हम सामान्यतः हिंदी साहित्य की बात करने लगते हैं। इसमें संदेह नहीं कि साहित्यिक हिंदी, हिंदी के विभिन्न आयामों में से एक है, लेकिन यह केवल हिंदी के एक बड़े मानचित्र का छोटा-सा हिस्सा है, शेष आयामों पर कम विचार हुआ है और व्यावहारिक हिंदी की पृष्ठभूमि पर विचार करते हुए तो और भी कम विमर्श हमारे सामने हैं। यदि हिंदी भाषा के आंतरिक इतिहास का उद्घाटन करना हो तो नामकरण ही उसका आधार बन सकता है। हिंदी, हिंदवी, हिन्दुई और दकिनी के विकास क्रम में यह स्पष्ट दिखाई देता है कि अलग-अलग समय में एक ही भाषा के भिन्न नाम प्रचलित रहे हैं। हिंदी भाषा का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना है। यह करीब 11वीं शताब्दी से ही राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित रही है। उस समय भले ही राजकीय कार्य संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी में होते रहे हों, लेकिन संपूर्ण राष्ट्र में आपसी संपर्क, संवाद, संचार, विचार, विमर्श, जीवन और व्यवहार का माध्यम हिंदी ही रही है।
भारतेंदु हरिश्चन्द्र, स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गांधी जैसे महापुरुषों ने राष्ट्रभाषा हिंदी के माध्यम से ही संपूर्ण राष्ट्र से सम्पर्क किया और सफलता हासिल की। इसी कारण आजादी के पश्चात संविधान-सभा द्वारा बहुमत से ‘हिंदी’ को राजभाषा का दर्जा देने का निर्णय किया था। जैसे-जैसे भाषा का विस्तार क्षेत्र बढ़ता जाता है, वो भाषा उतने ही अलग-अलग रूप में विकसित होना शुरू हो जाती है, यही हिंदी भाषा के साथ हुआ, क्योंकि यह भाषा पहले केवल बोलचाल की भाषा तक ही सीमित थी। उसके बाद साहित्यिक भाषा के क्षेत्र में इसे जगह मिली, और फिर समाचार-पत्रों में ‘हिंदी पत्रकारिता’ का विकास हुआ। अपनी अनवरत यात्रा के कारण स्वतन्त्रता के बाद हिंदी, भारत की राजभाषा घोषित की गई तथा उसका प्रयोग कार्यालयों में होने लगा और हिंदी का एक राजभाषा का रूप विकसित हुआ।
अगर हम आंकड़ों में हिंदी की बात करें तो 260 से ज्यादा विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है। 64 करोड़ लोगों की हिंदी मातृभाषा है। 24 करोड़ लोगों की दूसरी और 42 करोड़ लोगों की तीसरी भाषा हिंदी है। इस धरती पर 1 अरब 30 करोड़ लोग हिंदी बोलने और समझने में सक्षम हैं। 2030 तक दुनिया का हर पांचवा व्यक्ति हिंदी बोलेगा। यूएई और फिजी जैसे देशों में हिंदी को तीसरी राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। हिंदी की देवनागरी लिपि वैज्ञानिक लिपि मानी जाती है, ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में 18 हजार शब्द हिंदी के शामिल हुए हैं, और सबसे बड़ी बात कि जो तीन साल पहले अंग्रेजी इंटरनेट की सबसे बड़ी भाषा थी, अब हिंदी ने उसे पीछे छोड़ दिया है। गूगल सर्वेक्षण बताता है कि इंटरनेट पर डिजिटल दुनिया में हिंदी सबसे बड़ी भाषा है।
अक्सर ये प्रश्न पूछा जाता है कि हिंदी ही हमारी राजभाषा क्यों? इसका जवाब बहुत पहले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने दिया था। महात्मा गांधी ने किसी भाषा को राजभाषा का दर्जा दिये जाने के लिए तीन लक्षण बताए थे। पहला कि वो भाषा आसान होनी चाहिए। दूसरा प्रयोग करने वालों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए। और तीसरा उस भाषा को बोलने वालो की संख्या अधिक होनी चाहिए। अगर ये तीनों लक्षण किसी भाषा में थे, हैं और रहेंगे, तो वो सिर्फ हिंदी भाषा ही है। आज भाषा को लेकर संवेदनशील और गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। इस सवाल पर भी सोचना चाहिए कि क्या अंग्रेजी का कद कम करके ही हिंदी का गौरव बढ़ाया जा सकता है? जो हिंदी कबीर, तुलसी, रैदास, नानक, जायसी और मीरा के भजनों से होती हुई प्रेमचंद, प्रसाद, पंत और निराला को बांधती हुई, भारतेंदु हरिशचंद्र तक सरिता की भांति कलकल बहती रही, आज उसके मार्ग में अटकले क्यों हैं?
यदि हम सच में चाहते हैं कि हिंदी भाषा का प्रभुत्व राजभाषा के रूप में बना रहे, तो हमें इसके प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देना होगा। सरकारी कामकाज में हिंदी को प्राथमिकता देनी होगी। ऐसे में भरोसा फिर उन्हीं नौजवानों का करना होगा, जो एक नए भारत के निर्माण के लिए तैयार हैं। जो अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहते हैं। भरोसे और आत्मविश्वास से दमकते ऐसे तमाम चेहरों का इंतजार भारत कर रहा है। ऐसे चेहरे, जो भारत की बात भारत की भाषाओं में करेंगे। जो अंग्रेजी में दक्ष होंगे, किंतु अपनी भाषाओं को लेकर गर्व से भरे होंगे। उनमें ‘एचएमटी’ यानी ‘हिंदी मीडियम टाइप’ या ‘वर्नाकुलर पर्सन’ कहे जाने पर हीनता पैदा नहीं होगी, बल्कि वे अपनी भाषा से और अपने काम से लोगों का और दुनिया का भरोसा जीतेंगे। हिंदी और भारतीय भाषाओं के इस समय में देश ऐसे युवाओं का इंतजार कर है, जो अपनी भारतीयता को उसकी भाषा, उसकी परंपरा, उसकी संस्कृति के साथ समग्रता में स्वीकार करेंगे। जिनके लिए परंपरा और संस्कृति एक बोझ नहीं, बल्कि गौरव का कारण होगी। यह नौजवानी आज कई क्षेत्रों में सक्रिय दिखती है। खासकर सूचना-प्रौद्योगिकी की दुनिया में। जिन्होंने इस भ्रम को तोड़ दिया, कि सूचना-प्रौद्योगिकी की दुनिया में बिना अंग्रेजी के गुजारा नहीं है। ये लोग ही हमें भरोसा जगा रहे हैं। ये भारत को भी जगा रहे हैं। आज भरोसा जगाते ऐसे कई दृश्य हैं, जिनके श्रीमुख और कलम से व्यक्त होती हिंदी देश की ताकत है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं, लेखक नई दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान के पूर्व महानिदेशक हैं।)
हिंदी को लेकर जिस दिन हम यह नजरिया बदलेंगे, सब अपने आप ठीक हो जाएगा
जयदीप कर्णिक
संपादक, अमर उजाला (डिजिटल) ।।
मेरा मानना है कि हिंदी को लेकर बातें करने का वक्त बहुत पीछे जा चुका है। हमें यहां से वहां पहुंचना है कि हमें हिंदी दिवस मनाने की जरूरत ही न पड़े।
असल में, हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा मनाना पड़ रहा है, यही सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात है। दिक्कत यह है कि हिंदी को लेकर जो व्यावहारिक कदम उठाए जाने चाहिए थे, वे नहीं उठाए गए। जितनी तेजी से अंग्रेजी शब्द हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में घुसपैठ कर रहे हैं (चाहे मीडिया माध्यमों से हों, चाहे विद्यालयों से) उससे समस्या और बड़ी हो रही है। हम अनजाने में ही अपनी भाषा को खो रहे हैं।
कुछ अच्छे प्रयत्न हुए हैं, सरकारी स्तर पर भी हुए हैं, लेकिन पर्याप्त नहीं हैं। हालांकि मैं आशावादी व्यक्ति हूं, मुझे विश्वास है कि चीजें बदलेंगी। लोगों को चाहिए कि जब वे एटीएम मशीन से पैसा निकालें, तो भाषा का विकल्प आने पर हिंदी चुनें। जब वेबसाइट खोलते हैं और वहां हिंदी का विकल्प मिलता है, तो उसका प्रयोग करें। ऐसा करने से हिंदी में निवेश करने वालों को प्रोत्साहन मिलेगा। हिंदी में अच्छा काम करने से रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। अभी संदेश ये जाता है कि हिंदी का विकल्प देने की आवश्यकता ही नहीं है।
आज पत्रकारिता में अच्छी हिंदी लिखने वालों की जरूरत है। लेकिन जो विद्यार्थी पत्रकारिता पढ़कर आते हैं, उन्होंने विद्यालयों और महाविद्यालयों में हिंदी उतनी अच्छी तरह नहीं पढ़ी होती। नतीजतन हमें उन्हें पत्रकारिता सिखाने से पहले भाषा सिखानी पड़ती है।
समस्या की शुरुआत यहीं से होती है। गली-गली में खुले कॉन्वेंट स्कूलों ने लोगों के दिमाग में यह भ्रम बैठा दिया है कि अंग्रेजी ही रोजगार की गारंटी है, जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। भारतीय भाषाओं में रोजगार के अवसर लगातार बढ़ रहे हैं, लेकिन उन भाषाओं को गहराई से जानने-समझने वाले लोग कम हो रहे हैं। यही वजह है कि भाषा के अच्छे जानकारों की अहमियत और भी ज्यादा हो गई है।
आज न्यूज़ रूम में अच्छे भाषा जानकारों की खोज रहती है। लेकिन अब लोग गूगल पर शब्द ढूंढ लेते हैं, खुद का भाषा ज्ञान अधूरा रह जाता है। यही दोहरा मापदंड है। अंग्रेजी में कठिन शब्द पढ़ते हैं तो गर्व होता है कि हमारी वोकैबुलरी मजबूत हो गई, लेकिन हिंदी में कठिन शब्द पढ़ते हैं तो कहते हैं कि यह क्लिष्ट भाषा है। जबकि भाषा कभी कठिन नहीं होती, हम उसे पढ़ना छोड़ देते हैं।
हमें संस्कृत कठिन क्यों लगती है? क्योंकि हमने उसे पढ़ना छोड़ दिया। यही समस्या हिंदी के साथ भी हो रही है। सबसे पहले हमें अंग्रेजी को श्रेष्ठ मानने की मानसिकता से निकलना होगा। जिस दिन हम अपनी भाषा, अपनी संस्कृति और अपनी जड़ों से प्यार करेंगे, उसी दिन हमारे मन का हीनता-बोध खत्म होगा।
हिंदी शब्दों को भी अंग्रेजी की तरह सीखना और समझना चाहिए। जिस दिन हम यह नजरिया बदलेंगे, सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा।
मैं सौभाग्यशाली हूं कि मेरी पूरी जिंदगी हिंदी और हिंदी पत्रकारिता की सेवा में बीती है। आगे भी मैं मन, धन, प्राण और प्रण से हिंदी के लिए जीता रहूंगा। क्योंकि जो सभ्यता अपनी भाषा और संस्कृति से कट जाती है, वह लुप्त हो जाती है।
यह भी सच है कि संस्कृति को खत्म करने का एक सुनियोजित षड्यंत्र चलता है। हम सबको उसके प्रति सावधान रहना होगा। आज हम धीरे-धीरे शब्दों की हत्या सी कर रहे हैं। जब हमारे पास ‘राजनीतिज्ञ’ जैसा सुंदर शब्द है, तो हमें ‘पॉलिटिशियन’ क्यों बोलना चाहिए? जब ‘खेल’ जैसा सुंदर शब्द है, तो हमें ‘स्पोर्ट्स’ क्यों कहना चाहिए?
अगर हम हिंदी शब्दों का प्रयोग छोड़ देंगे, तो हम आने वाले समय में अपनी ही भाषा के शब्दों की हत्या के गुनाहगार बनेंगे। इसलिए मेरा मानना है कि हिंदी की सेवा करनी है, तो उसका शब्द भंडार समृद्ध कीजिए। अंग्रेजी का शब्दकोश लगभग हर घर में है, लेकिन हिंदी का कितने घरों में है?
अमर उजाला में हमने पिछले चार साल से ‘हिंदी हैं हम’ नाम से एक मुहिम चला रखी है। इसमें हम रोज़ एक नया हिंदी शब्द, उसका अर्थ, भावार्थ और कविता में उसका प्रयोग प्रकाशित करते हैं। इससे लोग नए शब्द सीख रहे हैं। मैं खुद भी इससे कई बार नए शब्द सीखता हूं।
यही तरीका अपनाकर हम हिंदी को समृद्ध कर सकते हैं।
भाषा को सहेजना, उसे समृद्ध करना ये सब हमारे साझा सरोकार हैं। जब ऐसा करने लगेंगे तो हिंदी दिवस की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
चार्ली कर्क ट्रंप के भरोसेमंद सहयोगी थे। राष्ट्रपति चुनाव में चार्ली कर्क ने ट्रंप के लिए जबरदस्त प्रचार किया था। अमेरिकी युवाओं के बीच 31 साल के चार्ली की फैन फॉलोइंग जबरदस्त है।
रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
अमेरिका में एक युवा आइकॉन की हत्या ने पूरी दुनिया को चौंका दिया है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के करीबी चार्ली कर्क का हत्यारा अभी तक पकड़ा नहीं जा सका है और अब तक यह भी साफ नहीं हो पाया है कि चार्ली कर्क को किसने मारा। ट्रंप ने इस हत्या को अति-वाम (Ultra-Left) आतंकवाद का नतीजा बताया है। उन्होंने कहा कि हत्यारे को खोजकर कड़ी से कड़ी सजा दी जाएगी और कातिल का समर्थन करने वालों—चाहे वे व्यक्ति हों या संस्थाएँ—किसी को भी बख्शा नहीं जाएगा।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, कुछ वीडियो सामने आए हैं जिनमें काले कपड़ों में एक शख्स छत पर बैठकर चार्ली की ओर निशाना साधता हुआ दिख रहा है। लेकिन वारदात के बाद यह शख्स कहाँ गायब हो गया, किसी को नहीं पता। पुलिस का कहना है कि चार्ली पर यूनिवर्सिटी कैंपस में छत से फायरिंग की गई। गोली चलाने के बाद हमलावर जंगल की ओर भाग गया, जहाँ से उसकी राइफल, जूते और कुछ सामान बरामद हुए हैं।
चार्ली कर्क ट्रंप के भरोसेमंद सहयोगी थे और राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने ट्रंप के लिए जोरदार प्रचार किया था। 31 वर्षीय चार्ली की अमेरिकी युवाओं में भारी लोकप्रियता थी। हाल ही में वे "The American Comeback Tour" चला रहे थे और इसी कार्यक्रम के तहत यूटा वैली यूनिवर्सिटी पहुँचे थे। हजारों छात्रों के बीच जब कार्यक्रम चल रहा था, तभी एक गोली चली और चार्ली कुर्सी पर गिर पड़े। उनकी गर्दन से खून बहने लगा और चारों ओर भगदड़ मच गई।
चार्ली ने 18 साल की उम्र में Turning Point USA नाम का संगठन बनाया था, जो अमेरिकी युवाओं के बीच कंज़र्वेटिव विचारधारा को बढ़ावा देता है। उनकी किताब The MAGA Doctrine बेस्टसेलर रही। लेकिन कर्क हमेशा अपने दक्षिणपंथी विचारों, गर्भपात (Abortion) और महिलाओं पर दिए बयानों के कारण विवादों में रहे। वे इज़रायल के खुले समर्थक और लिबरल विचारधारा के कट्टर विरोधी थे।
इस हत्या ने अमेरिकी समाज में बढ़ती वैचारिक नफरत को उजागर कर दिया है। सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने इस हत्या पर खुशी जाहिर की, तो कुछ न्यूज़ एंकरों ने इसे “अच्छी खबर” तक बताया। यह सब देखकर साफ है कि अमेरिका में वैचारिक जहर किस हद तक गहरा चुका है। चार्ली कर्क की हत्या ने न केवल देश की सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े किए हैं, बल्कि ट्रंप और उनके समर्थकों के लिए भी बड़ी चिंता पैदा कर दी है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
असल में नरेंद्र मोदी की यात्रा एक साधारण इंसान के असाधारण बनने की कहानी है। वो आज जिस मुकाम पर हैं, इसमें उनकी संवाद शैली की सबसे अहम भूमिका है।
प्रो. संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग में प्रोफेसर और अध्यक्ष।
राजनीति में संवाद की बड़ी भूमिका है। कुशल नेतृत्व के लिए नेतृत्वकर्ता का कुशल संवादक होना अत्यंत आवश्यक है। संवाद की इसी प्रक्रिया को भारत के माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक क्रांतिकारी दिशा दी है। आम आदमी से जुड़कर सीधे संवाद करने की कला को मोदी ने पुन: जीवित कर जनता को 'प्रधान' का दर्जा दिया है और स्वयं 'सेवक' की भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। वे भारत और भारतीय जन को संबोधित करने वाले नेता हैं। उनकी देहभाषा और उनकी जीवन यात्रा भारत के उत्थान और उसके जनमानस को स्पंदित करती है। यह कहने में संकोच नहीं करना चाहिए कि नरेंद्र मोदी उम्मीदों को जगाने वाले नेता हैं।
नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए अक्सर लोग ये प्रश्न पूछते हैं कि आखिर उनकी सफलता का राज क्या है? आखिर वो कौन सी चीज है, जो उन्हें भारत की मौजूदा राजनीति में नेताओं की भीड़ में सबसे अलग और सबसे खास बनाती है? असल में नरेंद्र मोदी की यात्रा एक साधारण इंसान के असाधारण बनने की कहानी है। वो आज जिस मुकाम पर हैं, इसमें उनकी संवाद शैली की सबसे अहम भूमिका है। उनके भाषणों की गूंज सिर्फ देश में ही सुनाई नहीं देती, बल्कि उन्होंने अपनी अनूठी संचार कला से दुनिया भर को प्रभावित किया है। वो बोलते हैं तो हर किसी के लिए उनके पास कुछ ना कुछ रहता है, वो अपनी बात जिस तरीके से समझाते हैं और लोगों को प्रभावित करते हैं, उससे लोग प्रेरित होते हैं।
अपनी संवाद कला से प्रधानमंत्री मोदी ने देश के नेताओं को लेकर सोचने के बने-बनाए ढर्रे को तोड़ने का काम किया है। आम लोग जब नेताओं के भाषणों से उकता गए थे, जब चारों ओर निराशा घर कर चुकी थी, तब उनके भाषणों ने हताश-निराश माहौल के अंधेरे को छांटने का काम किया। वो आए और लोगों के दिलो-दिमाग पर छा गए। अपने जीवन में मन-वचन-कर्म को एक कर उन्होंने करोड़ों लोगों में अपनी अद्भुत भाषण शैली से नई जान डाल दी।
याद कीजिए 13 सितंबर, 2013 का वो दिन, जब नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव की कमान सौंपी और उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया। महज 6 महीने के भीतर शुरू हो रहे आम चुनावों में उन्हें पार्टी ने सवा अरब भारतवासियों के साथ संवाद करने की जिम्मेदारी सौंपी। और तब जिस जोरदार तरीके से उन्होंने रैलियों में अपने अनूठे अंदाज वाले भाषणों से समां बांधा, उस चुनाव अभियान ने एक बारगी पूरे विश्व को अचंभित कर दिया।
बगैर थके-बगैर रुके और बगैर एक भी सभा स्थगित किए, नरेंद्र मोदी ने 440 रैलियों के साथ पूरे देश की 3 लाख किलोमीटर की बेहद थकाऊ यात्रा महज 6 महीने में पूरी कर रिकॉर्ड कायम किया। इस चुनावी कैंपेन में उनके ओजस्वी भाषणों में कुछ ना कुछ नया और अनूठा था। काशी में जब मोदी की चुनावी सभा पर प्रशासन द्वारा रोक लगाई गई, तब उन्होंने कहा था, “मेरी मौन भी मेरा संवाद है।” इस एक वाक्य ने पूरे देश को उनके करिश्माई नेतृत्व में ऐसा गूंथ दिया कि भारतीय जनमानस में आत्माभिमान और आत्मगौरव वाले राजनीतिक नेतृत्व को लेकर एक नई बहस पैदा हो गई।
नरेंद्र मोदी ने श्रोताओं के हिसाब से अपने भाषणों में बदलाव किया, जो उनकी शैली की सबसे बड़ी खासियत भी बनी। अपने चुनावी अभियान में मोदी ने युवाओं और वृद्ध दोनों आयु वर्ग के लोगों को प्रभावित किया। मोदी ने रटे-रटाए भाषणों के बजाय लय में बात रखी, जिसने अपेक्षाकृत अधिक लोगों के दिलों को छुआ। अपनी बॉडी लैंग्वेज में मोदी हाथों और उंगलियों का शानदार इस्तेमाल करते हैं। अपने शब्दों के हिसाब से वह चेहरे पर भाव लाते हैं । तर्कों को जब आंकड़ों और शानदार बॉडी लैंग्वेज का साथ मिलता है, तो भाषण अधिकतम प्रभाव छोड़ता है।
मोदी अपने विजन को लोगों तक पहुंचाने के लिए आंकड़ों का खूब इस्तेमाल करते हैं। जरुरतों और उपलब्धता के आंकड़े अपने भाषणों में इस्तेमाल कर मोदी ने मुश्किल समस्याओं को आसानी से लोगों के सामने रखा। महान वक्ता इतिहास के किस्सों से अपने भाषणों को जीवंत बनाते हैं। अपनी बात को प्रभावी तरीके से रखने के लिए वे मुस्कुराहट, नारों और लयात्मक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। कई बार अच्छे वक्ता एक कहानी के माध्यम से ही अपनी बात और इरादे साफ कर देते हैं। नरेंद्र मोदी इस कला में निपुण हैं। उनके ‘वन लाइनर्स’ भाषण को यादगार बना जाते हैं।
विदेशों में बसे भारतीय मूल के लोगों को जब वे संबोधित करते हैं, तब भी ऐसा ही होता है। प्रधानमंत्री मोदी ने भारत की ‘सॉफ्ट पॉवर’ को पेश करने के लिए खास तौर पर प्रवासी भारतीयों पर ध्यान दिया है। चूंकि विदेशों में गए प्रवासी भारतीय काफी प्रभावशाली भूमिकाओं में हैं, इसलिए प्रधानमंत्री ने विभिन्न देशों के प्रमुख शहरों (जैसे कि ब्रसेल्स या दुबई) में विशेष कार्यक्रम आयोजित किए, जिससे मजबूत संदेश दिया जा सके। ये प्रवासी भारतीय विदेश नीति संबंधी प्रयासों में एक अहम तत्व हैं और साथ ही भारत की ‘सॉफ्ट पॉवर’ को आगे भी बढ़ा रहे हैं।
मोदी सोशल मीडिया और पारंपरिक मीडिया का जम कर उपयोग करते हैं। मीडिया प्रबंधन की उनके पास कारगर रणनीति है। वे सोशल मीडिया की अहमियत को हमेशा स्वीकार करते रहे हैं और इसलिए लोगों को सीधे इसी के जरिए संबोधित करते हैं। प्रधानमंत्री मोदी उन शुरुआती नेताओं में से हैं, जिन्होंने हाल के समय में शुरू हुए ‘सेल्फी ट्रेंड’ के महत्व को समझा और इसका उपयोग उन्होंने अपने प्रचार के लिए किया। मोदी के बेहद लोकप्रिय ट्विटर अकाउंट पर सेल्फी को काफी महत्वपूर्ण जगह मिलती है और इस कारण युवाओं में उनकी काफी लोकप्रियता है।
संचार को ले कर वे जैसी रणनीति बनाते हैं, वो सबसे अलग है। साल 2014 के प्रचार के दौरान उन्होंने होलोग्राम तकनीक का इस्तेमाल किया, ताकि एक साथ उन्हें कई जगह पर देखा जा सके। संचार की यह रणनीति उनकी ‘लार्जर दैन लाइफ’ छवि बनाने में मददगार साबित हुई। नरेंद्र मोदी लोगों से सीधा संवाद कायम करने में सक्षम भी हैं और इच्छुक भी हैं।
मोदी जब विदेश जाते हैं, उस दौरान वहां के लिए संदेश देने के लिहाज से भी सोशल मीडिया ही उनकी पहली पसंद है। वे दूसरे देशों के लोगों के सामने उनकी अपनी भाषा में बात रखते हैं। यह भारतीय कूटनीति के तरकश में एक तीर है। सोशल मीडिया के जरिए पब्लिक डिप्लोमेसी आधुनिक कूटनीति का एक अहम साधन है, जिसका उद्देश्य खास तौर पर अपनी ‘सॉफ्ट पॉवर’ को पेश करना है। नरेंद्र मोदी इस कूटनीति के माहिर खिलाड़ी हैं।
लेकिन क्या मोदी का व्यक्तित्व सिर्फ भाषणों ने गढ़ा है? असल में नरेंद्र मोदी ‘मैन ऑफ एक्शन’ हैं। उन्हें मालूम है कि किस चीज को कैसे किया जाता है और भाषण की चीजों को एक्शन में कैसे लाया जाता है। लक्ष्य केंद्रित मोदी को मालूम है कि उनकी जिंदगी का उद्देश्य क्या है? 2014 में ब्यूरोक्रेसी के साथ सारे सहयोगियों को समय पर आने के आग्रह की शुरुआत प्रधानमंत्री खुद दफ्तर में ठीक 9 बजे हाजिर होकर शुरु करते हैं।
उनका ये एक कार्य ही मातहतों के लिए साफ संकेत था कि प्रधानमंत्री किस तरह की कार्यशैली के कायल हैं। एक तंत्र, जो अरसे से चलता आ रहा है, प्रवृत्ति का शिकार है, उस तंत्र को भीतर से दुरुस्त कर उसे इस तरह सक्रिय करना कि देखते ही देखते सारा काम पटरी पर आ जाए। ये कमाल उस नेतृत्व का है, जिसके आते ही प्रशासन में लोग खुद को बदलने के लिए मजबूर हो गए।
जापान दौरे में ताइको ड्रम बजाकर उन्होंने जिस तरह से संसार भर को खुद के भीतर लय-सुर-ताल की समझ रखने वाले शख्स का अहसास कराया, उसने क्षण भर में ही उनके भीतर मौजूद हर मौके पर आम लोगों की दिलचस्पी के मुताबिक काम करने वाले बहुआयामी शख्सियत को सामने ला दिया। जो बताता है कि मोदी को मालूम है कि आखिर उनके सामने दर्शक वर्ग उक्त समय में क्या सुनना पसंद करेगा और किस तरह के बर्ताव और संवाद की अपेक्षा लोग उनसे करेंगे।
लोकप्रिय भाषण देने में वो समकालीन नेताओं में सबसे आगे दिखाई देते हैं, क्योंकि उनके भाषणों के पीछे कठोर तपस्या और कर्म-साधना का बल खड़ा रहता है। हर जगह के हिसाब से उनके भाषणों का मिजाज अलग होता है। स्थानीय बोलियों के साथ देश की अनेक मातृभाषाओं में जनता के साथ वो सीधा संवाद करते हैं। स्थानीय लोकोक्तियों और स्थानीय लोगों की जिंदगी से जुड़े मार्मिक प्रसंगों का वो सहारा लेते हैं। मोदी अपने भाषणों में अक्सर जरुरत के अनुसार कहीं सख्त प्रशासक, तो कहीं नरमदिल और उदार नेता के तौर पर खुद की भावनाओं को आगे रखते हैं।
जिंदगी के रास्ते में उनके ऊपर फेंके गए पत्थरों से कैसे उन्होंने सफलता की सीढ़ियों का निर्माण किया, उनका जीवन और उनके भाषण इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। वो एक ओर देश के युवाओं में आस भरते हैं, तो खिलखिलाकर हंसते भी हैं। मुट्ठी बांधकर आसमान में देश की ताकत का परचम फहराते हैं, तो दोनों हाथ उठाकर करोड़ों भारतीयों के आत्मविश्वास को आवाज देते हैं।
आंखों में आंसू भरकर अपने बचपन की दुखों भरी जिंदगी का हवाला देकर वो आम भारतीय को हार न मानकर हिम्मत के साथ लड़ने और कर्मक्षेत्र में डटने की सीख भी देते हैं। ताकि गांव-गरीब-किसान, झुग्गी-झोपड़ी के इंसान, बेरोजगार नौजवान की जिंदगी में उम्मीदों का नया सवेरा आए। प्रधानमंत्री इन्हीं वजहों से बार बार ‘मुद्रा बैंक योजना’ के जरिए युवकों को स्वरोजगार के लिए कर्ज देने, नए बैंक खातों की योजना को सफल बनाने और ‘स्किल इंडिया’ के जरिए हर नौजवान को देश की जरुरत के हिसाब से हुनरमंद बनाने की बात करते हैं।
‘स्टार्टअप योजना’ के जरिए लाखों नए उद्यमी खड़े करने, स्वच्छता अभियान के जरिए भारत की बदरंग तस्वीर बदलने और ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ के जरिए महिलाओं और बच्चियों की जिंदगी में बड़ा बदलाव लाने की कोशिश करते हैं। वह देश के कॉरपोरेट, विज्ञान, शिक्षा और खेल जगत समेत हर वर्ग और हर क्षेत्र में ‘सबका साथ-सबका विकास’ का महान मंत्र देते हैं, ताकि सबके साथ मिलकर भविष्य के भारत की तस्वीर को बदला जा सके।
प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति सब के बस की बात नहीं है। यह कला सीखी नहीं जा सकती। यह केवल और केवल अनुभव से आती है। जनता के बीच से निकला जमीनी नेता ही इस स्तर तक पहुंच सकता है। जैसे कि नरेंद्र मोदी। उन्हें सुनने वालों की फेहरिस्त में देश के लोग भी हैं और दुनिया के भी। विरोधियों को घेरना हो या मन की बात करनी हो, उनके शब्दों का चयन अनूठा होता है।
पुलवामा हमले के बाद जब उन्होंने कहा, “घर में घुसकर मारेंगे”, तब उनके चेहरे पर जो भाव थे, वे बता रहे थे कि यह महज भाषणबाजी नहीं है। विरोधी भले ही इसे जुमलेबाजी कहें, लेकिन शायद जनता इसे जुमलेबाजी नहीं मानती। अगर मानती तो मोदी का नाम ‘ब्रांड मोदी’ नहीं बन पाता। राष्ट्रीय राजनीति में अपने सेवा भाव, साधारण जीवन शैली, शानदार प्रबंधन और शब्दों के प्रभावी चयन के बूते नरेंद्र मोदी अगली कतार में आ खड़े हुए हैं।
जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने देश की विविध जनता को ध्यान में रखते हुए अपनी संवाद क्षमता का इस्तेमाल किया है, वह उनकी सफलता का बड़ा आधार भी है। ऐसे परिदृश्य में जब भारत के प्रधानमंत्री को वैश्विक नेता के रूप में मान्यता मिली है, उनका प्रत्येक शब्द मूल्यवान हो जाता है। विशाल देश की विशाल जनसंख्या से संवाद करने का इससे ज्यादा प्रभावी तरीका दूसरा नहीं हो सकता।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
नेपाल के घटनाक्रम को कुछ लोग विदेशी ताकतों का खेल बता रहे हैं। कुछ हद तक संभव है, क्योंकि हर शक्ति सुपरबॉस बनना चाहती है। अमेरिका, रूस या चीन कोई भी हो।
जितेन्द्र बच्चन, वरिष्ठ पत्रकार।
बांग्लादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान, म्यांमार और अब नेपाल में तख्तापलट से एक बात साफ हो गई है कि इंटरनेट के साथ पली-बढ़ी इस पीढ़ी को जो चाहिए, वह उसे हासिल करने के लिए हर तरीका आजमाने को तैयार है। नेपाल में सरकार और नेताओं के भ्रष्टाचार के खिलाफ जेन जी के विद्रोह का तात्कालिक कारण आप भले ही इंटरनेट मीडिया पर प्रतिबंध मान सकते हैँ, लेकिन इसके पीछे एक बड़ी वजह रेमिटेंस पर निर्भर अर्थव्यवस्था भी है।
नेपाल बहुत हद तक देश से बाहर रहकर काम कर रहे अपने नागरिकों की कमाई पर निर्भर है। वहां न तो युवाओं के लिए नौकरियां हैं और न ही दूसरे अवसर। ऐसे में आकांक्षाओं की आग में सुलग रहे जेन जी को इंटरनेट मीडिया पर प्रतिबंध ने विस्फोटक बना दिया।
नेपाल के घटनाक्रम को कुछ लोग विदेशी ताकतों का खेल बता रहे हैं। कुछ हद तक संभव है, क्योंकि हर शक्ति सुपरबॉस बनना चाहती है। अमेरिका, रूस या चीन कोई भी हो। नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली तो जाते-जाते भारत को ही दोषी ठहरा गए। लेकिन ओली और उनके मंत्री यह नहीं समझ पाए कि देश के जिन युवाओं की वे उपेक्षा कर रहे हैं, उनकी जरूरतों की अनदेखी कर परिवार को आगे बढ़ा रहे हैं, लोगों के साथ अन्याय हो रहा है, देश में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच चुका है, वही लोग एक दिन उनके लिए काल बन सकते हैं।
दरअसल, सत्ता का नशा ही ऐसा है कि जब तक ये तथाकथित नेता कुर्सी पर होते हैं, उन्हें नहीं लगता कि एक दिन उनसे यह सत्ता छिन सकती है। वे भूल जाते हैं कि अत्याचार, भ्रष्टाचार और अन्याय सहन करने वाला जब मरने-मारने पर उतरू हो जाता है तो वह अब पांच साल इंतजार नहीं करता। न संविधान न सरकार, न मुकदमा न अदालत, उसे तो ऑन स्पाट फैसला चाहिए।
बांग्लादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान, म्यांमार और अब नेपाल में यही हुआ है। इसके बावजूद नेता सबक नहीं ले रहे हैं। सत्ता में आते ही वे यह मान कर चलते हैं कि अब इस धरती के असली भगवान वही हैं। स्याह करें या सफेद, वह जो कर रहे हैं, वही सही है और उनका ही निर्णय सर्वमान्य होगा। बस, यहीं गच्चा खा जाते हैं।
ओली सरकार के साथ भी यही हुआ। देश की तरक्की, नवजवानों को रोजगार और भ्रष्टाचार से मुक्ति की शांति तरीके से मांग करने के लिए सरकार के विरोध में प्रदर्शन कर रहे कई लोगों को विद्रोही मानकर पुलिस ने गोलियों से भून दिया। प्रदर्शनकारियों पर सरकारी गाड़ी चढ़ाने की कोशिश हुई। ऐसे तानशाह प्रधानमंत्री और उसकी सरकार को कौन बर्दाश्त करेगा? आंदोलन कर रही युवकों की भीड़ विद्रोह पर उतर आई।
भ्रष्टाचार, अन्याय सह रही आम जनता भी युवाओं के समर्थन में उतर गई। अंतत: अपनी बात मनवाने के लिए राष्ट्रपति भवन, संसद और सुप्रीम कोर्ट तक को आग के हवाले कर दिया गया। कई पूर्व प्रधानमंत्रियों को भी जान-माल का नुकसान हुआ है और मंत्रियों को हिंसा व आगजनी की त्रासदी झेलनी पड़ रही है।
नेपाल के घटनाक्रम ने बता दिया है कि आज की युवा पीढ़ी पांच साल चुनाव का इंतजार करने को तैयार नहीं है। उसकी मानें तो अत्याचार, भ्रष्टाचार और अन्याय सहन करने वाला जब मरने-मारने पर उतरू हो जाता है तो न संविधान न सरकार, मुकदमा न अदालत, वह ऑन स्पाट फैसला चाहता है।
पड़ोसी देशों में यही हुआ है। हमें भी इस घटनाक्रम से सतर्क रहना चाहिए। यद्यपि हमारा संविधान बहुत अच्छा है। यहां हर किसी को बोलने की आजादी है। मानवाधिकार की अनदेखी नहीं की जाती, फिर भी हमें इससे सबक लेना चाहिए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
एक बलात्कारी बाबा कुछ महीनों में 12 बार पैरोल पर बाहर आ जाता है, क्या ये कानून का मज़ाक नहीं है। एक नेता का दूधमुंहा बच्चा किस काबिलियत पर स्टेट क्रिकेट बोर्ड का अध्यक्ष बन जाता है।
नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
ये देखकर सच में बड़ी हैरानी होती है कि एक देश के तौर पर हममें पहचान का इतना संकट क्यों है। वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि एक तरफ हम इस बात में भी गौरव तलाशते हैं कि हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं, दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। एशिया में हम ही चीन को चुनौती दे सकते हैं। एक हम ही हैं जो ट्रंप के टैरिफ के दबाव में नहीं झुके। दूसरी तरफ हम इस बात के लिए खुद को शाबाशी दे रहे होते हैं कि देखो भारत के बगल में बांग्लादेश से लेकर नेपाल और श्रीलंका में तख्तापलट हो गया लेकिन हमारे यहां कुछ नहीं हुआ।
अगर आपके नाम ओलंपिक और वर्ल्ड रिकॉर्ड है तो आप इस बात पर खुश कैसे हो सकते हैं कि पूरे ज़िले में मेरे से तेज़ कोई नहीं दौड़ सकता। आप इस बात पर कैसे खुश हो सकते हैं कि देखो फलां गांव का बनवारी तो मेरे आगे कहीं नहीं ठहरता। नेपाल में लोकतंत्र का कोई इतिहास नहीं रहा। पाकिस्तान और बांग्लादेश बनने के बाद से वहां आधे वक्त तक सेना की हुकूमत रही है। अब इन देशों में तख्तापलट हो जाना और हमारे यहां न होना हमारे लिए गर्व का विषय कैसे हो गया।
दरअसल इस तरह का झूठा गौरव आत्महीनता से आता है। अंदर से हम भी जानते हैं कि इन देशों जितने न सही लेकिन राजनीति से लेकर लगभग हर क्षेत्र तक हम भी इतने ही भ्रष्ट हैं। सैकड़ों करोड़ की लागत से सालों के इंतज़ार के बाद पुल बनता है और वो एक महीने की बारिश में गड्ढों में तब्दील हो जाता है। इसके बावजूद क्या कभी किसी इंजीनियर या ठेकेदार को सज़ा होते देखी?
एक बलात्कारी बाबा कुछ महीनों में 12 बार पैरोल पर बाहर आ जाता है, क्या ये कानून का मज़ाक नहीं है। एक नेता का दूधमुंहा बच्चा किस काबिलियत पर स्टेट क्रिकेट बोर्ड का अध्यक्ष बन जाता है, क्या ये भ्रष्टाचार नहीं है। एक नेता देश की सबसे मुश्किल परीक्षा पास करके पुलिस अधिकारी बनी महिला से गुंडों की ज़बान में बात करता है, क्या ये देश के टैलेंट का मज़ाक नहीं है।
चारों तरफ लोग बाढ़ के पानी में डूबकर मर रहे हैं। हर तरफ सड़क पर आवारा जानवर घूम रहे हैं। प्राइवेट अस्पताल आम आदमी की पॉकेट से बाहर है। सरकारी अस्पताल में इलाज करवाने से अच्छा आदमी चाय में फिनाइल घोलकर पी ले। इस पर भी एक मुल्क की गैरत नहीं ललकारती। चीजें ज्यों की त्यों बनी रहती हैं, तो इसलिए नहीं कि हम बड़े सहिष्णु हैं। इस देश की जड़ें बहुत मज़बूत हैं। वो इसलिए क्योंकि ये देश भाग्यवादी है। सड़क हादसे में आदमी इसलिए नहीं मरता कि ये उसकी नियति थी। वो इसलिए मरता है क्योंकि रात के अंधेरे में उसकी बाइक सड़क के बीचों-बीच बने गड्ढे से जा टकराई थी।
मरने वाले के परिवारवाले इसे ईश्वर की मर्ज़ी मानकर संतोष कर लेते हैं। व्यवस्था में बैठे लोगों के शरीर में शर्म का रसायन बनना बंद हो चुका है। जो लोग इस हादसे का हिस्सा नहीं हैं उनके लिए ये लोकल एडिशन के तीसरे पेज के किसी आखिरी कोने में छपी ख़बर है। इसके बावजूद हालात इसलिए नहीं बदलते क्योंकि हर कोई अपने-अपने हिस्से का भारत खाने में लगा है।
नेता और ब्यूरोक्रेसी को मोटे तौर पर देश से इसलिए लेना-देना नहीं क्योंकि वो इस देश में किराएदार की तरह रहते हैं। जिनके बच्चे विदेशों में पढ़ते हैं, जो छुट्टियां विदेशों में मनाते हैं, इलाज विदेशों में करते हैं। जो अपने-अपने शहरों के वीआईपी इलाकों में रहते हैं, जहां न कोई पटरियों पर अवैध कब्ज़े होते हैं, न आवारा पशु घूमते हैं। इसलिए जब ये देश झूठा दंभ भरता है कि हम तो इतने ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी हो गए तो ऐसा लगता है कि उन्हें इस बात का भान ही नहीं कि भाई असल मुद्दा ये है ही नहीं।
एक देश जो अपनी लगभग पूरी आबादी को पीने का साफ पानी नहीं दे पा रहा है, ना साफ हवा दे पा रहा है, ना उसे ट्रांसपोर्ट की चिंता है, न उसे हर साल रोड एक्सीडेंट्स में मरने वाले लोगों की फिक्र है। जहां खाने की एक भी चीज़ बिना मिलावट के नहीं मिलती, वो देश जब बार-बार अपने उभरने की, अपने विश्व शक्ति बनने की बात करता है तो इससे बड़ी निर्लज्जता और कुछ नहीं हो सकती। मगर हम ऐसे निर्लज्ज बन गए हैं जो दूसरों की बदहाली से खुद की तुलना कर अपने लिए महानता तलाशते हैं। जिस बात पर माथा पीटना चाहिए, उस पर ताली बजाते हैं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
नेपाल के युवाओं का गुस्सा उबाल पर है। इन्हें मीडिया में GenZ कहा जा रहा है। बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार से तंग आ चुकी जनता सोशल मीडिया पर बैन लगाये जाने के बाद सड़कों पर उतर आई और तख्तापलट कर दिया।
रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
नेपाल में भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और सोशल मीडिया बैन के खिलाफ फूटा जनाक्रोश हिंसक तख्तापलट में बदल गया और दूसरे ही दिन प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली को इस्तीफा देना पड़ा। काठमांडू, पोखरा सहित तमाम शहरों में संसद भवन, प्रधानमंत्री निवास, राष्ट्रपति भवन, सुप्रीम कोर्ट, राजनीतिक दलों के दफ्तरों और बड़े होटलों को भीड़ ने आग के हवाले कर दिया, मंत्रियों और पूर्व पीएम शेर बहादुर देउबा तक को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया और हालात इतने बिगड़े कि काठमांडू अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डा बंद करना पड़ा तथा नेताओं को सेना ने हेलीकॉप्टर से सुरक्षित ठिकानों पर पहुंचाया।
सोमवार को पुलिस फायरिंग में 21 युवाओं की मौत और ढाई सौ से ज्यादा के घायल होने से गुस्सा और भड़क गया, मृतकों के सीने पर गोलियां मिलीं और देशभर में आंदोलन "Gen-Z मूवमेंट" के नाम से फैल गया जिसमें 1997 से 2012 के बीच जन्मे डिजिटल युग के युवा शामिल हैं, जो इंस्टाग्राम, यूट्यूब, फेसबुक, ट्विटर और टिकटॉक जैसे प्लेटफॉर्म्स पर सक्रिय रहते हैं और बेरोजगारी व पलायन जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं।
नेपाल की तीन करोड़ की आबादी में करीब सवा करोड़ सोशल मीडिया अकाउंट्स हैं और विदेशी कमाई देश की GDP का 25% है, इसलिए सोशल मीडिया पर तीन सितंबर को लगाए गए बैन ने युवाओं की नाराज़गी को विस्फोटक रूप दे दिया। गुस्साई भीड़ ने सोशल मीडिया पाबंदी के खिलाफ नहीं बल्कि भ्रष्टाचार, महंगाई और नेताओं की चीनपरस्ती के खिलाफ नारे लगाए और ओली सरकार को जनआक्रोश का सामना करना पड़ा।
नेपाल में पिछले 35 साल में 32 सरकारें बन चुकी हैं और पिछले 10 साल में 9 प्रधानमंत्री बदले हैं, जिससे अस्थिरता और गहरी हुई। ओली पर आरोप था कि वे चीन के दबाव में TikTok को छोड़ बाकी प्लेटफॉर्म्स पर बैन लगाकर नेपाल को बीजिंग के नजदीक ले जा रहे थे, जिससे युवाओं में असंतोष बढ़ा। सरकार के भीतर भी संकट गहराया, गृह मंत्री ने इस्तीफा दिया लेकिन आंदोलन थमा नहीं।
ओली ने अपने त्यागपत्र में राजनीतिक समाधान की बात कही और सर्वदलीय बैठक बुलाने का ऐलान किया, लेकिन जनता का भरोसा टूट चुका है। इस पूरे घटनाक्रम ने भारत को भी सतर्क कर दिया है क्योंकि नेपाल से सीमा और रोटी-बेटी का गहरा रिश्ता है, लिहाज़ा सीमा पर चौकसी बढ़ा दी गई है। यह साफ है कि सोशल मीडिया बैन ने सिर्फ चिंगारी का काम किया, असली आग भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और आर्थिक मंदी ने भड़काई, जिसने नेपाल को सबसे बड़े जनआंदोलन और सत्ता परिवर्तन की ओर धकेल दिया।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
GST जुलाई 2017 से लागू हुआ था। इस बार प्रचार ऐसे हो रहा है कि पहली बार कटौती हुई है। जबकि पहली बार कटौती नवंबर 2017 में हुई थी। क़रीब 175 चीज़ों को 28% से हटाकर 18% में लाया गया था।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (GST) काउंसिल ने रेट कटौती पर मुहर लगा दी है।अब ज़्यादातर सामान और सर्विस 5% और 18% के दायरे में होंगी। केंद्र सरकार को उम्मीद है कि इससे महंगाई कम होगी, लोग ज़्यादा ख़रीददारी करेंगे, अमेरिका के टैरिफ़ की भरपाई होगी और अर्थव्यवस्था में तेज़ी आएगी। इसके पीछे भरोसा है कि कंपनियाँ या दुकानदार टैक्स कटौती का फ़ायदा अपनी जेब में नहीं रखेंगे, बल्कि ग्राहकों को सस्ता बेचेंगे।
अब चर्चा इस बात पर है कि क्या सरकार कंपनियों को क़ाबू में रख पाएगी? GST जुलाई 2017 से लागू हुआ था। इस बार प्रचार ऐसे हो रहा है कि पहली बार कटौती हुई है। जबकि पहली बार कटौती नवंबर 2017 में हुई थी। क़रीब 175 चीज़ों को 28% से हटाकर 18% में लाया गया था। केरल के पूर्व वित्त मंत्री थॉमस आयजेक ने कहा है कि 2018 में GST का औसत रेट 15% से घटाकर 12% पर लाया गया, लेकिन फ़ायदा लोगों को नहीं मिला।
केरल सरकार ने 25 कंपनियों का अध्ययन किया और निष्कर्ष निकाला कि रेट कट का फ़ायदा कंपनियों ने अपनी जेब में रख लिया। 2017 में GST लागू हुआ तो कानून में दो साल के लिए National Anti Profiteering Agency (NAA) बनाई गई थी। इसका काम था यह देखना कि कंपनियाँ बेमानी तो नहीं कर रही हैं।NAA ने हिंदुस्तान यूनिलीवर, P&G, Domino’s, KFC, Pizza Hut, Samsung जैसी बड़ी कंपनियों की जाँच की।
उन पर आरोप लगे कि टैक्स कट का फ़ायदा ग्राहकों तक नहीं पहुंचाया। हिंदुस्तान यूनिलीवर, Samsung और Domino’s पर तो जुर्माना भी लगाया गया। यह एजेंसी अब अस्तित्व में नहीं है। केंद्र सरकार ने कहा है कि वो सेंट्रल बोर्ड ऑफ इनडायरेक्ट टैक्स एंड कस्टम (CBIC) के ज़रिए कंपनियों पर एक डेढ़ महीने नज़र रखेगी।
बात सिर्फ़ सरकार की नहीं है, बाज़ार को भी कंपनियों पर पूरा भरोसा नहीं है। मोतीलाल ओसवाल की रिपोर्ट कहती है कि रेट कट का फ़ायदा ग्राहकों तक कितना पहुँचेगा, इस पर संदेह है। अन्य ब्रोकरेज फर्म का अनुमान है कि FMCG, White Goods और ऑटो कंपनियाँ अपने मार्जिन को बेहतर करने के लिए शायद टैक्स कट का कुछ हिस्सा अपने पास रख लें। सीमेंट कंपनियों को लेकर भी यही आशंका है। यह आशंका सही साबित हुई तो सरकार की कोशिश पर पानी फिर जाएगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
हिंदी साहित्य पर मार्क्सवाद लादने की तुलना घोड़े के पीठ पर मेढक लादने से की गई। समय समय पर हिंदी के लेखकों ने इस खतरे के विरुद्ध आवाज उठाई पर उन आवाजों को दबा दिया गया।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
पिछले महीने स्वाधीनता दिवस के आसपास झारखंड से कवि चेतन कश्यप ने अमृलाल नागर का एक आलोचक को लिखे पत्र, जो पुस्तकाकार भी प्रकाशित है, का स्क्रीनन शाट भेजा। पुस्तक का नाम है मैं पढ़ा जा चुका पत्र। अमृतलाल नागर उस पत्र में लिखते हैं, तुम सौ फीसदी मार्क्सिस्टों को राम-राम कहने से मुझे बहुत आनंद लाभ होता है। प्रियवर रामविलास जी से तो जै बजरंगबली तक हो जाती है इसलिए तुम सबको सस्नेह राम-राम। तब इस पत्र पर चेतन से चर्चा हुई और कुछ अन्य साहित्यिक विषयों पर भी। बात आई गई हो गई।
अभी अचानक एक मित्र ने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक ‘सर्जक मन का पाठ’ के कुछ अंश भेजे। ये पुस्तक वरिष्ठ साहित्यकार गोविन्द मिश्र को साहित्यकारों ने के लिखे पत्रों का संकलन है। इसका जो अंश मुझे मिला वो अमृतलाल नागर के पत्र की तरह ही दिलचस्प है। शैलेश मटियानी ने गोविन्द मिश्र को लिखा, आपने साहित्य द्वारा आत्मिक से साक्षात्कार का प्रश्न भी कुछ विस्तार से लिया है, क्योंकि यही साहित्य का कर्म रहा है।
जैसे भौतिक विज्ञान वाह्य जगत, वैसे ही अन्त:विज्ञान भीतरी संसार को प्रतिस्थापित करता है। हम सब जानते हैं कि मनुष्य के भीतर का विस्तार बाह्य जगत के विस्तार से तिल भर भी कम नहीं है। क्योंकि शून्य मनुष्य का भी उतना ही अपरिचित है जितना कि पृथ्वी का। यहीं प्रश्न वह उठाया है कि चूंकि विचारधाराएं सिर्फ राज्य का माडल बनाती हैं लेकिन साहित्य समाज का माडल, इसलिए ही दृष्टि का अंतर पड़ जाता है।‘ अपनी इस टिप्पणी में शैलेश मटियानी ने विचारधारा की सीमाओं को स्पष्ट किया है।
शैलेश मटियानी की आगे की टिप्पणी से स्पष्ट होता है कि वो मार्क्सवाद से झुब्ध थे। आलोचकों और लेखक संगठनों द्वारा मार्क्सवाद को हिंदी साहित्य पर लादे जाने को लेकर भी कठोर टिप्पणी करते हैं। वो लिखते हैं कि मार्क्सवाद को जिस तरह से हिंदी साहित्य पर लादा जा रहा है, इससे ही कोफ्त हुई और थोड़ी सी छेड़खानी इसी निमित्त की है, क्योंकि मार्क्सवाद को साहित्य पर लादना घोड़े की पीठ पर मेढ़क को लादना है। मैं साहित्य के सामने मार्क्सवाद की कोई हैसियत नहीं समझता। मनुष्य के लिए जितनी जगह और जितना विस्तार साहित्य में है, अन्यत्र कहीं नहीं है।
आपसे बहुत ईमानदारी से कहना चाहता हूं कि लेखक होने का अहसास ध्वस्त हो चुका है और इसलिए अब लात-जूता खाने का डर नहीं रहा। खोपड़ी-भंजन अब इसलिए भी सुहाने लगा है कि शायद इसके बाद कुछ लेखक हो सकने की गुंजाइश निकल आए, क्योंकि वो जड़ता को कुछ तोड़ने की कोशिश में ही है। खुद पर हंसना आना चाहिए, इस कथन का मर्म आज समझ में आ रहा है और खुद की लकड़बुद्धि पर कई बार मुझे ठहाका लगाने का मन होता है।‘ उन्होंने जिस तरह से लेखकों पर मार्क्सवाद लादने की तुलना घोड़े पर मेढ़क लादने की कोशिश से की है उससे ये स्पष्ट होता है कि वो मानते हैं कि लेखकों पर मार्क्सवाद थोपना कितना कठिन कार्य था।
बावजूद इसके मार्कसवादी आलोचकों और लेखक संगठनों ने ये प्रयास तो किया ही। लेखकों पर भले ही मार्क्सवाद नही लाद पाए हों पर हिंदी साहित्य और अकादमिक जगत में उनको सफलता मिली। मार्क्सवाद रूपी मेढ़क को अकादमिक जगत रूपी घोड़े पर लादने में कम्युनिस्ट सफल रहे। उन्होंने वैचारिक रूप से कुछ ऐसे मेढ़क तैयार कर दिए जो घोडे की पीठ पर बैठकर भी यात्रा कर पा रहा है। ये कोई हुनर नहीं है बल्कि मेढ़क को निष्क्रिय करके घोड़े की पीठ पर लाद दिया गया। उसको उसी अवस्था में सबकुछ मिलता रहा और वो सर्वाइव करता रहा।
अब एक तीसरा उदाहरण आपसे समक्ष रखता हूं। ये उदाहरण भी एक पुस्तक से है जिसको राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित लेखक विनोद अनुपम ने फेसबुक पर पोस्ट किया है। ये पुस्तक है देसी पल्प फिक्शन पर केंद्रित बेगमपुल से दरियागंज। उसके उस अंश को देख लेते हैं जो अनुपम जी ने साझा किया, कांबोज के दोस्त सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों का सिलसिला तबतक चल निकला था।
पाठक जी याद करते हैं, 1970 तक शर्मा जी के प्रकाशन ‘जनप्रिय’ के यहां से लोकप्रिय सीरीज ते तहत उनके उपन्यासों का स्कोर ग्यारह तक पहुंच गया था जिनमें से तीन- अरब में हंगामा, आपरेशन जारहाजा पोर्ट और आपरेशन पीकिंग- जेम्स बांड सीरीज के थे जो कि शर्मा जी के बेटे महेन्द्र के अनुरोध पर लिखे गए थे। आरती पाकेट बुकस के लेटरहेड पर उसी साल अगस्त में उन्हें शर्मा जी के तीसरे पुत्र सुरेन्द्र के दस्तखत से एक चिट्ठी मिली, पिताजी के आदेशानुसार हम निकट भविष्य में आपके उन उपन्यासों को प्रकाशित करने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं जो रूस विरोध एवं कम्युनिस्ट विरोधी हों।
यानि के चार जेम्स बांड उपन्यास के बाद वहां चेतना जागृत हुई कि ये उपन्यास रूस विरोधी होते हैं। शायद रूस और कम्युनिज्म से प्रेम का ट्रेड यूनियन काल वहां दस्तक दे रहा था।‘ इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि किस तरह से कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखक और प्रकाशक रूस और कम्युनिस्ट विरोध के नाम पर रचनात्मकता को बाधित करते थे, करते रहे और अब भी कर रहे हैं। अब भी प्रकाशन जगत में खुलापन नहीं आया। एक बडा प्रकाशक अब भी कम्युनिस्टों को प्रश्रय देता है। कमीशन करके कम्युनिस्टों से पुस्तकें लिखवाता है। ये सब वही लोग हैं जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर दिन रात छाती कूटते रहते हैं। लेकिन जब अवसर मिलता है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करते हैं।
उपरोक्त तीन उदाहरणों से स्पष्ट है कि मार्क्सवाद और कम्युनिज्म को लेकर बहुत संगठित और योजनाबद्ध तरीके से साहित्य जगत में कार्य हुआ। लेखन हो, आलोचना हो, पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हो, पुस्तकों का प्रकाशन हो, पुस्तकों की सरकारी खरीद हो, अकादमिक जगत हो, अकादमियां हों हर जगह अपनी विचारधारा के लोग फिट किए गए।
नामवर जी जब राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में थे तो उनपर एक प्रकाशक विशेष को लाभ पहुंचाने के आरोप लगे थे। संसद में भी सवाल उठे थे। एक तरफ तो ये हो रहा था और दूसरी तरफ इन जगहों पर जिन्होंने उस विचारधारा को स्वीकार नहीं किया उनको हाशिए पर डालने में पूरी शक्ति लगा दी गई थी। विश्वविद्यालयों में नौकरी नहीं मिल जाए इसपर नजर रखने के लिए एक टीम रहती थी। जो उम्मीदावारों की वैचारिक पृष्ठभूमि जांचती थी।संस्कृति को भी प्रभावित करने या एक नई संस्कृति बनाने का प्रयास हुआ।
सनातन संस्कृति को गंगा-जमुनी तहजीब जैसे भ्रामक पर रोमांटिक शब्दावली से विस्थापित करने का प्रयास हुआ जो आंशिक सफल भी रहा। मार्सवादी विचार और विचारधारा की इस जकड़न में लंबे समय तक रहने से हिंदी साहित्य एकांगी सा होने लगा था। परिणाम ये हुआ कि पाठक साहित्य से दूर होने लगे।
अब पाठकों को विचारधारा मुक्त साहित्य का विकल्प मिलने लगा है तो वो फिर से पुस्तकों की ओर लौट रहा है। दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेला से लेकर पटना पुस्तक मेला और रांची पुतक मेला में पाठकों की भीड़ हिंदी प्रकाशकों के स्टाल पर आने लगी है। यह आश्वस्ति प्रदान करने वाला है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।