हजारों निवेशकों के करोड़ों रुपये डूब गए थे। कोई तो ऐसा तरीका होना चाहिए कि इन लोगों के नुकसान की भरपाई हो और नुकसान पहुंचाने वालों को सज़ा मिले।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
देश के बड़े औद्योगिक समूह अडानी समूह को बड़ी राहत मिली। प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड यानी सेबी ने शेयरों में हेरा-फेरी करने और अंदरूनी कारोबार (इनसाइडर ट्रेडिंग) के आरोपों से अडानी समूह को क्लीन चिट दे दी। अमेरिका की शॉर्ट सेलर कंपनी हिंडनबर्ग रिसर्च ने गौतम अडानी और उनके समूह की कंपनियों, अडानी पोर्ट्स और अडानी पावर, पर विदेश से फंडिंग के ज़रिए अपने समूह में पैसे लगवाने और अंदरूनी कारोबार करने के आरोप लगाए थे लेकिन जांच में ये सारे आरोप बेबुनियाद और झूठे साबित हुए।
सेबी के सदस्य कमलेश चंद्र वार्ष्णेय ने अपने आदेश में कहा कि अडानी समूह पर शेयरों की हेराफेरी के जो आरोप लगाए गए थे, उन्हें साबित करने वाला एक भी सबूत नहीं मिला। सारे आरोप निराधार पाए गए। हिंडनबर्ग ने जनवरी 2023 में अडानी समूह के ख़िलाफ़ अपनी रिपोर्ट में दावा किया था कि अडानी समूह की कंपनियां अंदरूनी कारोबार कर रही हैं, शेयरों में हेरफेर (स्टॉक मैनिपुलेशन) करके उनकी कीमतें बढ़ा रही हैं।
यह मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने विशेष जांच दल (एसआईटी) बनाकर मामले की जांच कराई थी। एसआईटी ने भी अडानी समूह को हिंडनबर्ग के लगाए इल्ज़ामों से क्लीन चिट दे दी थी लेकिन सेबी शेयर बाज़ार से जुड़े आरोपों की जांच कर रही थी। आज अडानी समूह को सेबी ने भी क्लीन चिट दे दी। क्लीन चिट मिलने पर गौतम अडानी ने एक बयान में कहा कि उनकी कंपनी शुरू से कह रही थी कि हिंडनबर्ग के आरोप बेबुनियाद और झूठे हैं।
सेबी की अडानी को क्लीन चिट बिलकुल स्पष्ट है। इसमें कोई अगर-मगर नहीं है। हिंडनबर्ग के दावे झूठे निकले। अडानी समूह की सारी लेन-देन (ट्रांजैक्शन) को वास्तविक करार दे दिया गया। न कोई धोखाधड़ी साबित हुई, न धन की हेराफेरी (फंड सिफोनिंग) के सबूत मिले। सारे कर्ज़ ब्याज के साथ लौटा दिए गए। सेबी को किसी नियम-कानून का उल्लंघन नहीं मिला।
अडानी समूह की कंपनियों को तो राहत मिल गई। सवाल ये है कि हिंडनबर्ग की फर्जी रिपोर्ट के कारण हज़ारों निवेशकों का जो नुकसान हुआ, उसके जिम्मेदार कौन हैं? झूठी कहानी (नेरेटिव) के कारण अडानी के शेयरों में भारी गिरावट आई थी। हजारों निवेशकों के करोड़ों रुपये डूब गए थे। कोई तो ऐसा तरीका होना चाहिए कि इन लोगों के नुकसान की भरपाई हो और नुकसान पहुँचाने वालों को सज़ा मिले।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
ऐसे पेशेवरों का इंतजार है जो ‘फार्मूला पत्रकारिता’ से आगे बढ़ें। जो मीडिया को इस देश की आवाज बना सकें। जो जन-मन के सपनों, आकांक्षाओं को स्वर दे सकें।
प्रो.संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में आचार्य और अध्यक्ष।
मीडिया शिक्षा में सिद्धांत और व्यवहार का बहुत गहरा द्वंद है। ज्ञान-विज्ञान के एक अनुशासन के रूप में इसे अभी भी स्थापित होना शेष है। कुछ लोग ट्रेनिंग पर आमादा हैं तो कुछ किताबी ज्ञान को ही पिला देना चाहते हैं। जबकि दोनों का समन्वय जरूरी है। सिद्धांत भी जरूरी हैं। क्योंकि जहां हमने ज्ञान को छोड़ा है, वहां से आगे लेकर जाना है। शोध, अनुसंधान के बिना नया विचार कैसे आएगा।
वहीं मीडिया का व्यवहारिक ज्ञान भी जरूरी है। मीडिया का क्षेत्र अब संचार शिक्षा के नाते बहुत व्यापक है। सो विशेषज्ञता की ओर जाना होगा। आप एक जीवन में सब कुछ नहीं कर सकते। एक काम अच्छे से कर लें, वह बहुत है। इसलिए भ्रम बहुत हैं। एआई की चुनौती अलग है। चमकती हुई चीजों ने बहुत से मिथक बनाए और तोड़े हैं।
पत्रकारिता, मीडिया या संचार तीनों क्षेत्रों में बनने वाली नौकरियों की पहली शर्त तो भाषा ही है। हम बोलकर, लिखकर भाषा में ही खुद को व्यक्त करते हैं। इसलिए भाषा पहली जरूरत है। तकनीक बदलती रहती है, सीखी जा सकती है। किंतु भाषा संस्कार से आती है। अभ्यास से आती है। पढ़ना, लिखना, बोलना, सुनना यही भाषा का असल स्कूल और परीक्षा है। भाषा के साथ रहने पर भाषा हममें उतरती है।
मीडिया में अनेक ऐसे चमकते नाम हैं, जिन्होंने अपनी भाषा से चमत्कृत किया है। अनेक लेखक हैं, जिन्हें हमने रात भर जागकर पढ़ा है। ऐसे विज्ञापन लेखक हैं, जिनकी पंक्तियां हमने गुनगुनाई हैं। इसलिए भाषा, तकनीक का ज्ञान और अपने पाठक, दर्शक की समझ हमारी सफलता की गारंटी है। इसके साथ ही पत्रकारिता में समाज की समझ, मिलनसारिता, संवाद की क्षमता बहुत मायने रखती है।
ऐसे पेशेवरों का इंतजार है जो ‘फार्मूला पत्रकारिता’ से आगे बढ़ें। जो मीडिया को इस देश की आवाज बना सकें। जो जन-मन के सपनों, आकांक्षाओं को स्वर दे सकें। मीडिया का संकट यह है वह नागरबोध के साथ जी रहा है। वह भारत के सिर्फ पांच प्रतिशत लोगों की छवियों को प्रक्षेपित कर रहा है। जबकि कोई भी समाज अपनी लोकचेतना से खास बनता है। देश की बहुत गहरी समझ पैदा करने वाले, संवेदनशील पत्रकारों का निर्माण जरूरी है। मीडिया शिक्षा को संवेदना, सरोकार, राग, भारतबोध से जोड़ने की जरूरत है।
पश्चिमी मानकों पर खड़ी मीडिया शिक्षा को भारत की संचार परंपरा से जोड़ने की जरूरत है। जहां संवाद से संकटों के हल खोजे जाते रहे हैं। जहां संवाद व्यापार और व्यवसाय नहीं, एक सामाजिक जिम्मेदारी है। मीडिया शिक्षा का विस्तार बहुत हुआ है। हर केंद्रीय विश्वविद्यालय में मीडिया शिक्षा के विभाग हैं। चार विश्वविद्यालय- भारतीय जन संचार संस्थान(दिल्ली), माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विवि(भोपाल), हरिदेव जोशी पत्रकारिता विवि(जयपुर) और कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विवि(रायपुर) देश में काम कर रहे हैं।
इन सबकी उपस्थिति के साथ-साथ निजी विश्वविद्यालय और कालेजों में भी जनसंचार की पढ़ाई हो रही है। अब हमें इसकी गुणवत्ता पर ध्यान देने की जरूरत है। ये जो चार विश्वविद्यालय हैं वे क्या कर रहे हैं। क्या इनका आपस में भी कोई समन्वय है। विविध विभागों में क्या हो रहा है। उनके ज्ञान, शोध और आइडिया एक्सचेंज जैसी व्यवस्थाएं बनानी चाहिए। दुनिया में मीडिया या जनसंचार शिक्षा के जो सार्थक प्रयास चल रहे हैं, उसकी तुलना में हम कहां हैं। बहुत सारी बातें हैं, जिनपर बात होनी चाहिए। अपनी ज्ञान विधा में हमने क्या जोड़ा। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री ने भी एक समय देश में एक ग्लोबल कम्युनिकेशन यूनिर्वसिटी बनाने की बात की थी। लेकिन चीजें ठहरी हुई हैं।
दुख है कि मीडिया शिक्षा में अब बहुत अच्छे और कमिटेड विद्यार्थी नहीं आ रहे हैं। अजीब सी हवा है। भाषा और सरोकारों के सवाल भी अब बेमानी लगने लगे हैं। सबको जल्दी ज्यादा पाने और छा जाने की ललक है। ऐसे में स्थितियां बहुत सुखद नहीं हैं। पर भरोसा तो करना होगा। इन्हीं में से कुछ भागीरथ निकलेंगें जो हमारे मीडिया को वर्तमान स्थितियों से निकालेगें। ऐसे लोग तैयार करने होंगें, जो बहुत जल्दी में न हों।
जो ठहरकर पढ़ने और सीखने के लिए तैयार हों। वही लोग बदलाव लाएंगें। सबसे बड़ी चुनौती है ऐसे विद्यार्थियों का इंतजार जिनकी प्राथमिकता मीडिया में काम करना हो। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह ग्लैमर या रोजगार दे पाए। बल्कि देश के लोगों को संबल, साहस और आत्मविश्वास दे सके। संचार के माध्यम से क्या नहीं हो सकता। इसकी ताकत को मीडिया शिक्षकों और विद्यार्थियों को पहचानना होगा। क्या हम इसके लिए तैयार हैं,यह एक बड़ा सवाल है।
मीडिया शिक्षा के माध्यम से हम ऐसे क्म्युनिकेटर्स (संचारक) तैयार कर सकते हैं जिनके माध्यम से समाज के संकट हल हो सकते हैं। यह साधारण शिक्षा नहीं है। यह असाधारण है। भाषा,संवाद,सरोकार और संवेदनशीलता से मिलकर हम जो भी रचेगें, उससे ही नया भारत बनेगा। इसके साथ ही मीडिया एजूकेशन कौंसिल का गठन भारत सरकार करे ताकि अन्य प्रोफेशनल कोर्सेज की तरह इसका भी नियमन हो सके।
गली-गली खुल रहे मीडिया कालेजों पर लगाम लगे। एक हफ्ते में पत्रकार बनाने की दुकानों पर ताला डाला जा सके। मीडिया के घरानों में तेजी से मोटी फीस लेकर मीडिया स्कूल खोलने की ललक बढ़ी है, इस पर नियंत्रण हो सकेगा। गुणवत्ता विहीन किसी शिक्षा का कोई मोल नहीं, अफसोस मीडिया शिक्षा के विस्तार ने इसे बहुत नीचे गिरा दिया है।
दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छह स्तरों पर होती है। सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में, दूसरे, विश्वविद्यालयों से संबंद्ध संस्थानों में, तीसरे, भारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों में, चौथे, पूरी तरह से प्राइवेट संस्थान, पांचवे डीम्ड विश्वविद्यालय और छठे, किसी निजी चैनल या समाचार पत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान। इस पूरी प्रक्रिया में हमारे सामने जो एक सबसे बड़ी समस्या है, वो है किताबें।
हमारे देश में मीडिया के विद्यार्थी विदेशी पुस्तकों पर ज्यादा निर्भर हैं। लेकिन अगर हम देखें तो भारत और अमेरिका के मीडिया उद्योगों की संरचना और कामकाज के तरीके में बहुत अंतर है। इसलिए मीडिया के शिक्षकों की ये जिम्मेदारी है, कि वे भारत की परिस्थितियों के हिसाब से किताबें लिखें।
मीडिया शिक्षण में एक स्पर्धा चल रही है। इसलिए मीडिया शिक्षकों को ये तय करना होगा कि उनका लक्ष्य स्पर्धा में शामिल होने का है, या फिर पत्रकारिता शिक्षण का बेहतर माहौल बनाने का है। आज के समय में पत्रकारिता बहुत बदल गई है, इसलिए पत्रकारिता शिक्षा में भी बदलाव आवश्यक है। आज लोग जैसे डॉक्टर से अपेक्षा करते हैं, वैसे पत्रकार से भी सही खबरों की अपेक्षा करते हैं।
अब हमें मीडिया शिक्षण में ऐसे पाठ्यक्रम तैयार करने होंगे, जिनमें विषयवस्तु के साथ साथ नई तकनीक का भी समावेश हो। न्यू मीडिया आज न्यू नॉर्मल है। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं पर ध्यान देने की बात कही गई है। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें इस पर ध्यान देना होगा। मीडिया शिक्षण संस्थानों के लिए आज एक बड़ी आवश्यकता है क्षेत्रीय भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करना।
भाषा वो ही जीवित रहती है, जिससे आप जीविकोपार्जन कर पाएं और भारत में एक सोची समझी साजिश के तहत अंग्रेजी को जीविकोपार्जन की भाषा बनाया जा रहा है। ये उस वक्त में हो रहा है, जब पत्रकारिता अंग्रेजी बोलने वाले बड़े शहरों से हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के शहरों और गांवों की ओर मुड़ रही है। आज अंग्रेजी के समाचार चैनल भी हिंदी में डिबेट करते हैं।
मीडिया शिक्षण संस्थानों को अपने पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव करने चाहिए, कि वे न्यू मीडिया के लिए छात्रों को तैयार कर सकें। आज तकनीक किसी भी पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मीडिया में दो तरह के प्रारूप होते हैं। एक है पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार और पत्रिकाएं और और दूसरा है डिजिटल मीडिया। अगर हम वर्तमान संदर्भ में बात करें तो सबसे अच्छी बात ये है कि आज ये दोनों प्रारूप मिलकर चलते हैं।
आज पारंपरिक मीडिया स्वयं को डिजिटल मीडिया में परिवर्तित कर रहा है। जरूरी है कि मीडिया शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्म' के लिए पहले से तैयार करें। देश में प्रादेशिक भाषा यानी भारतीय भाषाओं के बाजार का महत्व भी लगातार बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी भाषा के उपभोक्ताओं का डिजिटल की तरफ मुड़ना लगभग पूरा हो चुका है।
ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक भारतीय भाषाओं के बाजार में उपयोगकर्ताओं की संख्या 500 मिलियन तक पहुंच जाएगी और लोग इंटरनेट का इस्तेमाल स्थानीय भाषा में करेंगे। जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनजर तैयार करें, यह एक बड़ी जिम्मेदारी है।
पत्रकारिता के प्रशिक्षण के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैं, उनमें से एक दमदार तर्क यह है कि यदि डॉक्टरी करने के लिए कम से कम एम.बी.बी.एस. होना जरूरी है, वकालत की डिग्री लेने के बाद ही वकील बना जा सकता है तो पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे को किसी के लिए भी खुला कैसे छोड़ा जा सकता है? बहुत बेहतर हो मीडिया संस्थान अपने अध्यापकों को भी मीडिया संस्थानों में अनुभव के लिए भेजें।
इससे मीडिया की जरूरतों और न्यूज रूम के वातावरण का अनुभव साक्षात हो सकेगा। विश्वविद्यालयों को आखिरी सेमेस्टर या किसी एक सेमेस्टर में न्यूज रूम जैसे ही पढ़ाई पर फोकस करना चाहिए। अनेक विश्वविद्यालय ऐसे कर सकने में सक्षम हैं वे खुद का न्यूज रूम क्रियेट कर सकते हैं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
जनता और जमीन से जुड़े मुद्दे गायब हो चुके हैं। मोदी जी हों या राहुल गांधी, भाजपा हो या कांग्रेस अथवा अन्य पार्टियां, गरीबी, बीमारी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और महंगाई की बात अब कोई नहीं करता।
जितेन्द्र बच्चन, वरिष्ठ पत्रकार।
अक्टूबर-नवंबर में बिहार के विधानसभा चुनाव होने हैं। उसके बाद 2026 में तमिलनाडु व पश्चिम बंगाल में चुनावी रणभेरी बजेगी। बिहार में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार है। जबकि पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और तमिलनाडु में डीएमके की सरकार है। इन तीनों राज्यों के चुनावी आहट होते ही नेताओं के सुर बदल चुके हैं।
कल तक जिस पार्टी या दल के मुखिया विकसित प्रदेश, सशक्त भारत, संस्कृति और संस्कार की बात करते नहीं थकते थे, आज वे धर्म और जाति का जहर उगल रहे हैं। वोट बैंक सुरक्षित करने के चक्कर में सारा दृष्टिकोण हिंदू-मुस्लिम पर आकर टिक गया है। मां, बहन और बेटियों तक को गाली दी जा रही है। इतनी गंदी सियासत ! जरा सोचिए, इस फिजा में जीतकर सत्ता तक पहुंचने वाले हमारा क्या भला करेंगे? हर नेता खुद को दूध का धुला तो बताता है पर उसकी जुबान काबू में नहीं रहती।
कहां हम तरक्की पसंद भारत को विश्व गुरु होने का डंका पीट रहे थे और कहां सत्ता हथियाने के लिए नफरत की बिसात बिछाने से बाज नहीं आ रहे हैं। आप किसी भी जाति धर्म को हों, अगर इन्हें वोट देते हैं तो बहुत अच्छा, वरना एक मिनट में ये आपको ‘नमक हराम’ बता देंगे। कहने का मतलब इन्हें लोकतंत्र से कोई मतलब नहीं, ये सिर्फ आपका इस्तेमाल करना चाहते हैं।
इस तरह के बयान, भाषण और बातें अब आम चुकी हैं। क्या तुष्टिकरण बनाम ध्रुवीकरण की राजनीत हो रही है? जनता और जमीन से जुड़े मुद्दे गायब हो चुके हैं। मोदी जी हों या राहुल गांधी, भाजपा हो या कांग्रेस अथवा अन्य पार्टियां, गरीबी, बीमारी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और महंगाई की बात अब कोई नहीं करता। पक्ष हो विपक्ष, सभी की एक ही नीति है- ‘हिंदू-मुस्लिम का डर-भय दिखाकर वोट बैंक सुरक्षित करो।
हजारों की संख्या में घुसपैठिए, रोहिंग्या, वक्फ बोर्ड और न जाने क्या-क्या ! कोई इनसे पूछे कि जब आपको सब पता है तो उसका खात्मा क्यों नहीं करते? सरकार आपकी है, शासन आपका है, तो कार्यवाही क्यों नहीं की जाती? लेकिन न कोई पूछने वाला है और न ही कोई कार्यवही होगी, क्योंकि अगर सबकुछ ठीक हो गया तो सियासत कैसे चलेगी?
हर पार्टी या दल एक ही बात समझाता है, अभी तक हम जो पिछड़े हैं, क्षेत्र में विकास नहीं हुआ, सड़कें नहीं बनी, भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लगी, इसकी सारी जवाबदेही (कांग्रेस हो या भाजपा अथवा कोई अन्य पार्टी) पहले की सरकार की है। अच्छा बहाना है। लेकिन अपने गिरहबान में एक बार भी नहीं झांकते कि अब तो आपकी सरकार है। फिर भ्रष्टाचार चरम पर क्यों पहुंचता जा रहा है?
तमाम कानूनी सुधार के बावजूद बहन-बेटियां सुरक्षित क्यों नहीं हैँ? सबकुछ ऑनलाइन होते हुए भी नौकरशाही में घूसखोरी क्यों बढ़ रही है? दरअसल, सभी का एक ही मकसद है ! धर्म और मजहब के नाम पर लोग भयभीत होंगे तो वोट उन्हीं को देंगे और उनकी सरकार बननी तय है। लेकिन सवाल उठता है कि आखिर कब तक इस आग में लोगों को झोंकते रहेंगे? कब तक धर्म को खतरे में बताकर जनता को बेवकूफ बनाते रहोगे? एक तरफ तो शिक्षित समाज का नारा दिया जाता है तो दूसरी तरफ दकियानूसी बातें की जाती हैं।
नफरत की दुकान खोलकर लोगों को डराया-धमकाया जाता है। समाज को भयभीत करने की कोशिश की जाती है। कभी मुसलमानों का भय दिखाकर हमें अपने पक्ष में करते हैं तो कभी हिंदुओं की बात कर आपको डराने की कोशिश होती है। आखिर कब तक यह नफरती सियासत की दुकान चलेगी? जवाब साफ है- जब तक हम आप जैसे इनके ग्राहक बने रहेंगे। राजनीति के पहरेदारों! हमें भय से मत छलो! सत्ता के लिए लोकतंत्र का रास्ता अपनाओ, जनता आपको पलकों पर बैठाकर रखेगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
अगर अब भी हमने यह बात नहीं समझी, तो हालात यही रहेंगे कि एक के बाँह मरोड़ने पर दूसरे की गोद में जाना पड़ेगा, और दूसरे के धोखे के डर से तीसरे का हाथ पकड़ना पड़ेगा।
नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
एससीओ शिखर सम्मेलन के दौरान जिस तरह किम जोंग, पुतिन और जिनपिंग हाथ पकड़कर चल रहे थे, वो तस्वीरें पूरी दुनिया ने देखीं। वो तस्वीर साम्यवादी (कम्युनिस्ट) देशों की एकता की प्रतीक थीं। यूरोपीय देशों के पास नाटो (NATO) की सुरक्षा है। मुस्लिम देशों में भले ही ईरान-सऊदी अरब और तुर्की के बीच प्रभुत्व की लड़ाई है, लेकिन वहाँ मुस्लिम ब्रदरहुड (इस्लामी भाईचारा) का तत्व भी काम करता है।
अब सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच सुरक्षा समझौता हुआ है, तो यह भी लग रहा है कि मुस्लिम देश भी नाटो जैसा कोई संगठन बना सकते हैं। सवाल यह है कि इस सबके बीच भारत कहाँ खड़ा है? न तो हम साम्यवाद की तरह वैचारिक स्तर पर किसी के स्वाभाविक दोस्त बन सकते हैं, न हमारे पास कोई भाईचारे का फैक्टर है, और न ही हम सैन्य तौर पर पूरी तरह आत्मनिर्भर हैं।
ऊपर से, हमारा सबसे बड़ा हथियार-आपूर्तिकर्ता (रूस) आज हमारे सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी (चीन) के साथ असीमित मित्रता (Limitless Friendship) की कसमें खा रहा है। और हमारे "ढाई दुश्मनों" में से "आधा" हमारे ही घर के भीतर मौजूद है। ऐसा नहीं है कि इस पूरी स्थिति के लिए केवल हमारी ही गलती ज़िम्मेदार है।
इंसानों की तरह कभी-कभी राष्ट्रों का चरित्र भी (जैसे गुटनिरपेक्ष नीति - Non Alignment Policy) उन्हें अकेला कर देता है। इसलिए ज़रूरी है कि हम सब पहचान से ऊपर उठकर सिर्फ अपनी राष्ट्रीय पहचान के लिए काम करें — न राज्य, न जाति, न धर्म; सिर्फ और सिर्फ एक भारतीय पहचान।
अगर अब भी हमने यह बात नहीं समझी, तो हालात यही रहेंगे कि एक के बाँह मरोड़ने पर दूसरे की गोद में जाना पड़ेगा, और दूसरे के धोखे के डर से तीसरे का हाथ पकड़ना पड़ेगा। हमारी हस्ती मिटेगी नहीं, लेकिन अगर उसका दायरा सिकुड़ता जा रहा है, तो इसकी कोई न कोई वजह ज़रूर रही होगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने पाकिस्तान के विदेश मंत्री इसहाक डार को बताया कि भारत के लिए ये एक द्विपक्षीय मसला है। इसहाक़ डार ने एक इंटरव्यू में इस बात का खुलासा किया।
रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
पाकिस्तान ने मंगलवार को कबूल किया कि वो भारत के साथ बात करना चाहता है। पाकिस्तान ने माना कि वो एक बार फिर अमेरिका के सामने जाकर रोया लेकिन अमेरिका ने पाकिस्तान को बता दिया कि भारत किसी तीसरे देश की मध्यस्थता को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने पाकिस्तान के विदेश मंत्री इसहाक डार को बताया कि भारत के लिए ये एक द्विपक्षीय मसला है।
इसहाक़ डार ने अल जज़ीरा चैनल को दिए एक इंटरव्यू में इस बात का खुलासा किया।एक तरफ आतंकवादी भारत के खिलाफ ज़हर उगल रहे हैं लेकिन दूसरी तरफ पाकिस्तान की सरकार भारत के साथ बातचीत के लिए बेकरार है, बार-बार भारत से बातचीत की टेबल पर आने की गुहार लगा रहा है। इसके लिए अमेरिका से मदद मांग रहा है।
भारत से बातचीत को लेकर इसहाक़ डार का ये बयान ऐसे वक़्त में आया है, जब पाकिस्तान में वज़ीर-ए-आज़म शहबाज़ शरीफ़ के अमेरिका दौरे की चर्चा है। शहबाज़ शरीफ़ संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करने के लिए न्यूयॉर्क जा रहे हैं। न्यूयॉर्क में शहबाज़ शरीफ़ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से भी मिलेंगे। दावा किया जा रहा है कि इस मीटिंग में पाकिस्तान के आर्मी चीफ आसिम मुनीर भी मौजूद रहेंगे। आसिम मुनीर पिछले तीन महीने में दो बार अमेरिका जा चुके हैं।
पता ये चला है कि पाकिस्तान अमेरिकी संसद में मानवाधिकार हनन के आरोप में पाकिस्तानी जनरलों और अधिकारियों पर sanctions लगाने के एक बिल को रुकवाना चाहता है। इसीलिए शहबाज़ और आसिम मुनीर पूरी शिद्दत से ट्रंप को ख़ुश करने में लगे हुए हैं।न्यूयॉर्क में ट्रंप और शहबाज़ शरीफ़ की मुलाक़ात के दौरान बलूचिस्तान की रेको डिक़ तांबा और सोने की खान पर डील भी हो सकती है।
रेको डिक़ को दुनिया की सबसे बड़ी तांबे की खान बताया जा रहा है। इसको डेवेलप करने में कनाडा, फिनलैंड, जापान और अमेरिका की कंपनियां लगी हैं। ट्रंप चाहते हैं कि पाकिस्तान इस खान में अमेरिका को भी हिस्सा दे।ये बात खुद ट्रंप बता चुके हैं कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कश्मीर के मसले पर मध्यस्थता करने का प्रस्ताव दिया था। ट्रंप ने ये भी बताया था कि मोदी ने साफ इनकार कर दिया था।
ट्रंप ने कहा था कि 'Modi is a tough man'। मोदी ने कहा था कि, हम अपने मसलों को सुलझाने में सक्षम हैं। लेकिन पाकिस्तान बड़ी बेशर्मी से बार बार अमेरिका से गुहार लगाता है।अमेरिका पाकिस्तान को आजकल खुश रखना चाहता है। अलग-अलग लोग इसकी अलग-अलग वजह बताते हैं। कोई कहता है कि ट्रंप के परिवार ने पाकिस्तान के साथ बड़ी Crypto deal की है।
कोई कहता है कि अमेरिका की नजर पाकिस्तान की तांबे और सोने की खान पर है।कुछ दिन पहले ट्रंप ने कहा था कि वो पाकिस्तान की जमीन से तेल निकालेंगे। हो सकता है ये सारी बातें ठीक हों, पर अमेरिका और पाकिस्तान के बीच कहीं न कहीं, कुछ न कुछ डील तो हुई है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
आज, 17 सितम्बर, माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का जन्मदिन है। यह केवल एक नेता के जीवन की वर्षगांठ नहीं है, बल्कि भारत के लोकतंत्र के एक निर्णायक अध्याय का उत्सव है।
कार्तिकेय शर्मा, फाउंडर, आईटीवी नेटवर्क ।।
आज, 17 सितम्बर, माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का जन्मदिन है। यह केवल एक नेता के जीवन की वर्षगांठ नहीं है, बल्कि भारत के लोकतंत्र के एक निर्णायक अध्याय का उत्सव है। उनके नेतृत्व ने न केवल हमारे राष्ट्र की दिशा बदली है, बल्कि वैश्विक अनिश्चितताओं के दौर में राजनीतिक नेतृत्व का अर्थ भी पुनर्परिभाषित किया है।
पिछले दशक में अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था युद्धों, बदलते गठबंधनों और क्षेत्रीय संघर्षों से प्रभावित रही, जिनकी गूंज भारत की सीमाओं तक पहुंची। अस्थिर पड़ोस में भारत के रणनीतिक हितों की रक्षा करने से लेकर वैश्विक व्यवस्था में भारत की जगह स्थापित करने तक, प्रधानमंत्री मोदी ने लगातार अडिग “इंडिया फर्स्ट” नीति को आगे बढ़ाया। उनके नेतृत्व ने दिखाया कि रणनीतिक स्वायत्तता और सैद्धांतिक कूटनीति साथ-साथ चल सकती हैं, जिससे भारत क्षेत्रीय संघर्षों और महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता के बीच बिना राष्ट्रीय हित से समझौता किए आगे बढ़ा। इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में साझेदारी मजबूत करने, पारंपरिक सहयोगियों से रिश्ते गहरे करने और जी20, ब्रिक्स और एससीओ जैसे बहुपक्षीय मंचों में भारत की भूमिका बढ़ाने के जरिए उन्होंने भारत को एक निष्क्रिय सहभागी नहीं बल्कि वैश्विक राजनीति में आकार देने वाली ताकत के रूप में स्थापित किया। इस लिहाज से उनका कार्यकाल वह समय माना जाएगा जब वैश्विक शासन में भारत की आवाज को अभूतपूर्व महत्व मिला।
उतना ही परिवर्तनकारी रहा उनका घरेलू एजेंडा, जिसमें संरचनात्मक सुधार महत्वाकांक्षी संस्थागत निर्माण के साथ-साथ हुए। वित्तीय समावेशन की पहलों ने लाखों-करोड़ों नागरिकों को औपचारिक अर्थव्यवस्था में लाया, जिससे नागरिक और राज्य के बीच संबंधों की परिभाषा बदली। बैंकिंग क्षेत्र के बड़े सुधारों ने अत्यधिक बोझिल व्यवस्था को स्थिरता दी, वहीं जीएसटी जैसी पहल ने एकीकृत राष्ट्रीय बाजार बनाया। एक्सप्रेसवे से लेकर हाई-स्पीड रेल तक, बिजली उत्पादन से लेकर अक्षय ऊर्जा तक बुनियादी ढांचे पर जोर ने न केवल ऐतिहासिक कमी पूरी की बल्कि विकास के नए स्रोत भी खोले। ये सभी कदम एक साफ समझ का संकेत हैं कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में भारत का उदय तभी संभव है जब उसकी नींव आर्थिक ताकत, संस्थागत विश्वसनीयता और नागरिकों के सशक्तिकरण पर टिकी हो।
यह युग भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए भी परिवर्तनकारी रहा। उनके नेतृत्व में पार्टी ने अपने सामाजिक और भौगोलिक दायरे से निकलकर एक सच्ची राष्ट्रीय शक्ति का रूप लिया। उत्तर-पूर्व, ओडिशा, हरियाणा और महाराष्ट्र में जीतें इस विस्तार की गवाही देती हैं, जबकि गुजरात निरंतरता और विकास का गढ़ बना रहा। मोदी जी केवल पार्टी के नेता नहीं बने, बल्कि बदलाव के शिल्पकार बने, जिन्होंने भाजपा को व्यापक सामाजिक आधार और वैश्विक राजनीति में पहचान दी। जो कभी सीमित प्रभाव वाली कैडर-आधारित आंदोलन था, आज वह भारतीय लोकतंत्र का मुख्य ध्रुव बन चुका है।
इस दिन को मनाना केवल प्रधानमंत्री को जन्मदिन की शुभकामनाएं देने तक सीमित नहीं है। यह उनके उन मूल्यों, अनुभवों और विश्वासों पर चिंतन करने का अवसर है जिन्होंने उनकी यात्रा को आकार दिया और उस स्थायी विरासत पर जो वह भारत के ‘प्रधान सेवक’ के रूप में गढ़ते जा रहे हैं।
उनकी सार्वजनिक जीवन की इस सेवा-भावना और नैतिक स्पष्टता की गहरी जड़ें उनकी माता हीराबेन द्वारा impart किए गए मूल्यों में मिलती हैं। जीवन में जल्दी ही विधवा हो जाने के बाद भी परिवार की जिम्मेदारियों को शांत साहस से निभाते हुए, वह शक्ति और ईमानदारी का स्तंभ बनीं। उनका जीवन परिस्थितियों से नहीं बल्कि गरिमा से परिभाषित हुआ, जिसने उनके बच्चों में ईमानदारी, धैर्य और सादगी के संस्कार डाले। जब मोदी जी पहली बार मुख्यमंत्री बने, तब उनकी माँ के शब्द गर्व के नहीं बल्कि सिद्धांत के थे- “मुझे तुम्हारा सरकारी काम समझ नहीं आता, लेकिन कभी रिश्वत मत लेना।” यही सरल सलाह उनका नैतिक कम्पास बन गई। आत्मनिर्भर जीवन, सादगी और न्यायप्रियता पर उनका आग्रह ही मोदी जी की आजीवन सेवा-भावना का आधार बना। उनकी बाद की नीतियों पर भी उनकी छाप रही: धुएं से भरे रसोईघरों ने उज्ज्वला योजना को प्रेरित किया, जबकि गरिमा पर उनका जोर गरीब कल्याण की नीतियों की नींव बना। उन्होंने केवल एक बेटे को नहीं पाला, बल्कि भारत माता का सच्चा सेवक गढ़ा।
जहाँ परिवार ने उन्हें मूल्य दिए, वहीं संघ ने उन्हें अनुशासन दिया। 1972 में मोदी जी लक्ष्मणराव इनामदार (जिन्हें स्नेह से “वकील साहब” कहा जाता था) के मार्गदर्शन में पूर्णकालिक आरएसएस प्रचारक बने। अपने परिवार से अलग होकर सार्वजनिक जीवन को समर्पित कर चुके युवा नरेंद्र मोदी के लिए इनामदार मार्गदर्शक, गुरु और पिता समान बने। उन्होंने मोदी जी में असाधारण दृढ़ता को पहचाना और उनके विकास में व्यक्तिगत दिलचस्पी ली। उन्होंने शिक्षा जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया और शासन व सार्वजनिक जीवन की गहरी समझ के लिए संसाधन उपलब्ध कराए। सबसे महत्वपूर्ण, उन्होंने मोदी जी में यह विश्वास जगाया कि संगठनात्मक काम केवल संख्या या लामबंदी नहीं है, बल्कि चरित्र निर्माण और राष्ट्र निर्माण है। उनके मार्गदर्शन में मोदी जी ने विनम्रता और अधिकार, अनुशासन और जनसंपर्क के बीच संतुलन सीखा। सेवा को स्वयं से पहले और राष्ट्रीय एकता को व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से पहले रखने पर उनका जोर गहरी छाप छोड़ गया। वर्षों बाद, गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए, मोदी जी ने ‘सेतुबंध’ नामक जीवनी सह-लेखन कर अपने गुरु की स्मृति को सम्मान दिया, उन्हें अपने जीवन को दिशा देने वाले सेतु-निर्माता के रूप में चित्रित किया। इनामदार से मोदी जी ने निस्वार्थ परिश्रम, बड़े समुदायों को एकजुट करने की क्षमता और यह आंतरिक विश्वास सीखा कि नेतृत्व का आधार चरित्र ही होना चाहिए। यही गुण आगे चलकर उन्हें अभूतपूर्व पैमाने पर राष्ट्रीय अभियानों को सटीकता और उद्देश्यपूर्ण ढंग से संचालित करने में सक्षम बनाए।
तीसरा प्रभाव मोदी जी के स्वामी विवेकानंद के गहन अध्ययन और सरदार वल्लभभाई पटेल के प्रति श्रद्धा से आया। विवेकानंद की यह शिक्षा कि मानवता की सेवा ही सबसे बड़ा भक्ति का रूप है, मोदी जी के लिए केवल प्रधानमंत्री नहीं बल्कि ‘प्रधान सेवक’ कहलाने के निर्णय में परिलक्षित हुई। स्वामीजी का यह संदेश कि समाज तभी प्रगति करता है जब समानता सुनिश्चित हो, मोदी जी की कल्याणकारी योजनाओं की प्रेरणा बना- जन धन, आयुष्मान भारत और गरीब कल्याण योजना, जो गरीबों को गरिमा प्रदान करती हैं। वहीं, राष्ट्रीय एकता के प्रति पटेल की अडिग प्रतिबद्धता मोदी जी के राजनयिक दृष्टिकोण की मार्गदर्शक शक्ति बनी, जो अनुच्छेद 370 हटाने जैसे ऐतिहासिक फैसलों और विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा के निर्माण जैसे प्रतीकात्मक उपक्रमों में दिखती है।
ये सभी सूत्र- मातृ मूल्यों, संगठनात्मक अनुशासन और दार्शनिक प्रेरणाओं के- एक साथ आकर वह नेतृत्व बने जिन्होंने पिछले दशक में भारत को रूपांतरित किया। ‘जैम ट्रिनिटी’ ने कल्याणकारी योजनाओं को क्रांतिकारी ढंग से बदल दिया, सीधे लाभ नागरिकों तक पहुंचाए और रिसाव खत्म किए। स्वच्छ भारत अभियान ने पूरे देश में स्वच्छता और सार्वजनिक स्वास्थ्य को सुधारा, जबकि डिजिटल इंडिया ने दूर-दराज के इलाकों को अवसरों से जोड़ा। ‘मेक इन इंडिया’ और अक्षय ऊर्जा की पहल ने भारत की वैश्विक आर्थिक उपस्थिति को नया आयाम दिया। कौशल विकास और ग्रामीण बुनियादी ढांचे को समर्थन देने वाले कार्यक्रमों ने सभी वर्गों के लिए समावेशी विकास सुनिश्चित किया। उनके शासन ने महिलाओं के सशक्तिकरण पर भी विशेष जोर दिया- ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसी योजनाओं से लेकर संसद और विधानसभा में महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण देने वाले ऐतिहासिक क़ानून तक। पर्यावरण संरक्षण भी उनके दृष्टिकोण का केंद्र रहा, जो ‘लाइफ मिशन’, अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा, वनीकरण अभियान और संरक्षण की पहलों में झलकता है। 2025 के लिए योजनाएं- जैसे 75,000 स्वास्थ्य शिविरों वाला ‘स्वस्थ नारी सशक्त परिवार अभियान’, नए अस्पताल और आयुष्मान आरोग्य मंदिर- नागरिक सशक्तिकरण, स्वास्थ्य अवसंरचना की मजबूती और सामाजिक समानता की दिशा में उनके व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाती हैं।
मैं इन पहलों को अलग-अलग योजनाओं के रूप में नहीं देखता, बल्कि सेवा, सादगी और त्याग से गढ़ी जीवन दृष्टि के विस्तार के रूप में देखता हूं। जो प्रधानमंत्री मोदी ने जिया है, वही अब वे भारत और दुनिया को लौटा रहे हैं। माँ से सीखे मूल्य, संघ से मिला अनुशासन और विवेकानंद व पटेल से मिली प्रेरणा- ये सब एक ऐसे नेतृत्व में मिलते हैं जो शासन को राज करने का नहीं, बल्कि उठाने का माध्यम मानता है।
इसी भावना में, उनका जन्मदिन कोई उत्सव नहीं बल्कि एक अर्पण है। ‘सेवा पर्व’ व्यक्तिगत पड़ावों को राष्ट्रीय सेवा में बदल देता है। सरदार पटेल प्राणी उद्यान (2019) से लेकर एक दिन में दो करोड़ टीकाकरण (2021) तक, पीएम विश्वकर्मा (2023) से लेकर 26 लाख घरों और सुभद्रा योजना (2024) तक- हर कदम अनुभव से जुड़ा हुआ है, केवल इरादे से नहीं। और अब, उनके 75वें जन्मदिन पर 75,000 स्वास्थ्य शिविर और नए आयुष्मान आरोग्य मंदिर अगला कदम हैं। ये केवल नीतिगत घोषणाएं नहीं हैं- ये संघर्षों से गढ़े जीवन का भारत माता को समर्पण हैं।
श्री नरेंद्र मोदी की महानता इस बात में है कि उन्होंने लोकतंत्र में नेतृत्व के अर्थ को विस्तृत किया। वे केवल शासन नहीं करते, बल्कि सहभागिता को प्रेरित करते हैं। ‘मन की बात’ के माध्यम से सीधे नागरिकों से संवाद करके उन्होंने राष्ट्र के नेता और अंतिम घर तक रहने वाले नागरिक के बीच एक अनोखी कड़ी बनाई, जिससे शासन एक साझा राष्ट्रीय अनुभव बन गया। ‘प्रधान सेवक’ के रूप में हस्ताक्षर कर उन्होंने प्रधानमंत्री पद को अधिकार की कुर्सी नहीं बल्कि सेवा के व्रत के रूप में परिभाषित किया। यहां तक कि वह अपना जन्मदिन भी निजी उत्सव की बजाय सेवा को समर्पित करते हैं, जिससे वे अन्य नेताओं से अलग खड़े होते हैं और यह विश्वास मजबूत करते हैं कि नेतृत्व अंततः देने के लिए है, पाने के लिए नहीं। उनके सुधार केवल प्रशासनिक फैसले नहीं बल्कि राष्ट्र निर्माण के कार्य हैं, जिन्हें स्पष्ट उद्देश्य और अनुशासित क्रियान्वयन के साथ पूरा किया गया है। चाहे कल्याण हो, आर्थिक परिवर्तन या विदेश नीति- हर क्षेत्र में उनकी छाप स्पष्ट रही है: निर्णायक, जनकेंद्रित और दूरदर्शी। उन्होंने नीतियों को जनआंदोलनों में और आदर्शों को कार्यों में बदलकर शक्ति नहीं बल्कि सेवा को सर्वोच्च आदर्श के रूप में मूर्त रूप दिया।
जब प्रधानमंत्री 75 वर्ष के हो रहे हैं, तब राष्ट्र केवल अपने नेता का जन्मदिन नहीं मना रहा, बल्कि भारत माता के प्रति उनकी अथक सेवा का सम्मान कर रहा है। उनकी यात्रा केवल आज के लिए प्रेरणा नहीं है, बल्कि भविष्य के लिए मार्गदर्शक है, जो हमें- विशेषकर सार्वजनिक जीवन में रहने वालों को- यह याद दिलाती है कि सच्चा नेतृत्व सेवा, त्याग और जनता के प्रति अटूट समर्पण में निहित है। इस दिन, जब भारत सेवा पर्व मना रहा है, हम श्री नरेंद्र मोदी जी को हार्दिक शुभकामनाएं देते हैं। ईश्वर उन्हें लंबी आयु, उत्तम स्वास्थ्य और निरंतर शक्ति प्रदान करें ताकि वे भारत को और भी ऊंचाइयों, समृद्धि, गरिमा और वैश्विक सम्मान की ओर अग्रसर करते रहें। उनकी आत्मनिर्भर, समावेशी और आत्मविश्वासी भारत की दृष्टि आने वाले वर्षों में पूर्ण रूप से साकार हो, जो हमारे महान राष्ट्र के हर नागरिक को प्रगति और गर्व प्रदान करे।
सुधीर चौधरी लिखते हैं कि मोदी का दौर किसी क्रांति से कम नहीं रहा। उन्होंने अपने दो दशक से भी अधिक लंबे सफर को याद किया और कहा कि एक पत्रकार के रूप में मुझे इतिहास को खुलते हुए देखने का सौभाग्य मिला
सुधीर चौधरी, वरिष्ठ पत्रकार व एडिटर-इन-चीफ, डीडी न्यूज ।।
17 सितंबर 2025 को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 75 वर्ष के हो रहे हैं, तब मैं अपने दो दशक से भी अधिक लंबे सफर को याद कर रहा हूं। एक पत्रकार के रूप में मुझे इतिहास को खुलते हुए देखने का सौभाग्य मिला है, अक्सर उस दृष्टिकोण से जिसे बहुत कम लोग देख पाते हैं। मेरी मुलाकातें मोदी जी से उस समय शुरू हुईं, जब वे देश के सर्वोच्च पद पर नहीं पहुंचे थे। इन मुलाकातों के जरिये मैंने न केवल उस व्यक्ति को देखा, बल्कि उस गहन परिवर्तन को भी महसूस किया है, जिसे उन्होंने भारत में साकार किया। एक ऐसे राष्ट्र से, जो जड़ता से जूझ रहा था, लेकर उस भारत तक, जो आज आत्मविश्वास के साथ वैश्विक मंच पर आगे बढ़ रहा है। मोदी युग वास्तव में एक क्रांति से कम नहीं रहा। इस विशेष जन्मदिन पर, मुझे अपने कुछ निजी अनुभव और अवलोकन साझा करने दें, एक ऐसे दौर के गवाह के रूप में जो अद्वितीय रहा है।
मुझे आज भी याद है 2001 की एक शुरुआती मुलाकात, जब नरेंद्र मोदी जी हाल ही में गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे। मैं उस समय 'जी न्यूज' का युवा रिपोर्टर था, देश को आकार देने वाली कहानियों को समझने की उत्सुकता लिए। मैंने उनसे साक्षात्कार का अनुरोध किया और मेरी आश्चर्य की बात यह थी कि उन्होंने बिना हिचकिचाहट इसे स्वीकार कर लिया। हम उनके सादे कार्यालय में मिले, जहां ताजी चाय और दृढ़ संकल्प की खुशबू बसी हुई थी। मोदी जी ने जिस स्पष्टता के साथ अपनी बातें रखीं, उसने मुझे प्रभावित किया। उन्होंने गुजरात के विकास का अपना दृष्टिकोण समझाया, प्रशासनिक सुधारों पर बल दिया और जवाबदेही की आवश्यकता पर जोर दिया। वह उस समय भी आज की तरह निपुण वक्ता थे, एक ऐसे वैश्विक नेता की झलक जिनकी नींव आरएसएस की विचारधारा और अटूट कार्यनीति पर टिकी थी। 20 मिनट की वह बातचीत बढ़कर पूरे एक घंटे में बदल गई, जब उन्होंने जल संरक्षण और औद्योगिक विकास की अपनी योजनाओं को धैर्यपूर्वक विस्तार से बताया। मुझे अंदाजा नहीं था कि यह एक ऐसे प्रोफेशनल रिश्ते की शुरुआत होगी, जिसमें मैं उनके राज्य नेता से राष्ट्रीय प्रतीक बनने तक के सफर का गवाह बनूंगा।
इन वर्षों में मैंने प्रधानमंत्री मोदी का कई बार इंटरव्यू किया और हर मुलाकात ने उनके व्यक्तित्व और नीतिगत समझ की नई परतें खोलीं। एक अविस्मरणीय अनुभव 2014 में था, उनके ऐतिहासिक लोकसभा विजय से ठीक पहले। 'जी न्यूज' पर DNA का एंकर होते हुए मैंने उनसे भारत के एजेंडे पर खुलकर चर्चा की। पूरे दिन के चुनाव प्रचार के बाद भी वे ऊर्जा से भरे हुए आए, जबकि उनका लोकसभा कैंपेन बेहद कठिन और निरंतर चल रहा था। सबसे ज्यादा जो बात उभरकर आई, वह थी उनकी विनम्रता। इंटरव्यू के बाद उन्होंने पूरी टीम का अभिवादन किया। कैमरामैन से लेकर मेकअप आर्टिस्ट तक, सभी के साथ तस्वीरें खिंचवाईं, हालचाल पूछा और चाय-नाश्ते का भी आग्रह किया। इंटरव्यू के दौरान उन्होंने “नए भारत” का सपना रखा, जो भ्रष्टाचार और अक्षमता की बेड़ियों से मुक्त हो। मैंने बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दों पर सवाल पूछे और उनके जवाब सीधे, आंकड़ों पर आधारित और दृढ़ निश्चय से भरे थे। यह स्पष्ट था कि यह महज भाषणबाजी नहीं थी, बल्कि बदलाव का खाका था। उनकी आंखों में नए भारत के रोडमैप की पूरी स्पष्टता दिख रही थी।
मोदी शासन के दौरान एक पत्रकार के रूप में मैंने भारत के इस परिवर्तन को नजदीक से देखा है- चाहे वह मेरे शो DNA हो, 'आजतक' पर ब्लैक&व्हाइट, या अब 'डीडी न्यूज' पर डिकोड। 2014 में जब उन्होंने पद संभाला, तब भारत नीति-गत गतिरोध से जूझ रहा था, 2जी और कोलगेट जैसे घोटालों ने जनविश्वास को हिला दिया था और अर्थव्यवस्था अस्थिर थी। 2025 तक आकर तस्वीर बदल चुकी है। 2017 में जीएसटी लागू हुआ, जिसकी मैंने गहन कवरेज की। इसने बिखरे टैक्स ढांचे को एकीकृत किया, राजस्व बढ़ाया और कारोबार आसान बनाया। आलोचकों ने शुरुआत में इसे अराजक कहा, लेकिन राज्यों में व्यापारियों और उद्यमियों से मिलते हुए मैंने देखा कि इसने कामकाज को सरल बनाया और भारत को एकल बाजार में बदल दिया। आज हमारी जीडीपी 4 ट्रिलियन डॉलर पार कर चुकी है, हमें दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना रही है और जल्द ही तीसरे स्थान पर पहुंचने का अनुमान है।
बुनियादी ढांचे में यह बदलाव और भी स्पष्ट है। 2014 से पहले उत्तर प्रदेश के दूरदराज गांवों में बिजली एक विलासिता थी। सौभाग्य जैसी योजनाओं ने 2.6 करोड़ से अधिक घरों को रोशन किया। हाई-स्पीड रेल प्रोजेक्ट्स, दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेसवे और अहमदाबाद से कोच्चि तक मेट्रो नेटवर्क का विस्तार- ये सब महज ढांचे नहीं हैं, बल्कि अर्थव्यवस्था की धड़कनें हैं। गुजरात में स्टैच्यू ऑफ यूनिटी की रिपोर्टिंग के दौरान मैंने स्थानीय लोगों से बात की, जिनकी जिंदगियां पर्यटन से बदल गईं। मोदी जी का “मेक इन इंडिया” अभियान टेस्ला और एप्पल जैसी वैश्विक कंपनियों को भारत लाया, जिससे रोजगार और नवाचार को बढ़ावा मिला। विभिन्न मंचों पर मैंने विदेशी निवेशकों को शुरुआत में सशंकित और बाद में उत्साहित होते देखा।
डिजिटल क्षेत्र में भारत की छलांग अद्भुत रही। जन धन योजना के तहत 50 करोड़ से अधिक बैंक खाते खुले, जिससे वित्तीय समावेशन हुआ। 2016 की नोटबंदी की कवरेज करते हुए मैंने बहसें और कतारें देखीं, लेकिन इसने नकदी रहित अर्थव्यवस्था का मार्ग प्रशस्त किया। आज यूपीआई हर महीने अरबों लेन-देन संभाल रहा है और फ्रांस व यूएई जैसे देशों में अपनाया गया है। अपने कार्यक्रमों में मैंने अक्सर दिखाया है कि कैसे आधार-लिंक्ड सेवाओं ने कल्याणकारी योजनाओं में रिसाव कम किया और लाभार्थियों तक सीधी सहायता पहुंचाई। कोविड-19 महामारी के दौरान मैंने दुनिया के सबसे बड़े टीकाकरण अभियान- कोविन- की रिपोर्टिंग की, जिसने 220 करोड़ से अधिक खुराकें प्रभावी ढंग से दीं। उन अंधेरे दिनों में मोदी जी का नेतृत्व, राष्ट्र के नाम संबोधन और 80 करोड़ लोगों के लिए मुफ्त राशन योजना ने मानवीय संकट टाल दिया।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोदी जी ने भारत की स्थिति को ऊंचा उठाया। उनकी शुरुआती विदेश यात्राओं से लेकर 2023 के जी20 दिल्ली शिखर सम्मेलन और हालिया चीन में हुए एससीओ सम्मेलन तक, मैंने कूटनीति को प्रतिक्रियात्मक से सक्रिय होते देखा। उरी सर्जिकल स्ट्राइक, 2019 की बालाकोट कार्रवाई और 2025 का ऑपरेशन सिंदूर- इन पर मेरी वास्तविक समय की कवरेज रही- ने आतंकवाद के खिलाफ हमारे संकल्प को दिखाया। इंटरनेशनल सोलर अलायंस और वैक्सीन मैत्री जैसी पहल ने भारत को एक जिम्मेदार वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित किया। 2024 में यूक्रेन-रूस संघर्ष में भारत की मध्यस्थता, जिसे विश्व नेताओं ने सराहा, हमारे बढ़ते प्रभाव का प्रमाण बनी।
लेकिन नीतियों से परे, मोदी जी का व्यक्तिगत स्पर्श दिल को छूता है। 2019 में एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने वडनगर के बचपन की कहानियां साझा कीं- रेलवे प्लेटफॉर्म पर चाय बेचने से लेकर विपक्षियों की तीखी आलोचना पर उनकी भावनाएं। इससे उनका मानवीय रूप सामने आया, यह याद दिलाते हुए कि महान नेता साधारण पृष्ठभूमि से भी उभरते हैं। मैंने उन्हें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले पर बच्चों से बातचीत करते देखा है, आपदाओं जैसे मोरबी पुल हादसे के बाद परिवारों को ढांढस बंधाते देखा है। उनका अनुशासन- सुबह 4 बजे उठना, योग करना- लोगों के लिए उदाहरण है। आलोचक केंद्रीकरण का आरोप लगाते हैं, लेकिन एक पत्रकार के रूप में मैंने देखा है कि उन्होंने राज्यों को “सहकारी संघवाद” के जरिये सशक्त किया, जो पीएम गति शक्ति जैसी योजनाओं में झलकता है।
जब मोदी जी 75वें जन्मदिन का उत्सव मना रहे हैं, भारत 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने की दहलीज पर खड़ा है। चुनौतियां अब भी हैं- असमानता, जलवायु परिवर्तन, भू-राजनीतिक तनाव लेकिन उनका विजन एक स्पष्ट रोडमैप देता है। एक पत्रकार के रूप में 2001 की शंका से लेकर आज की प्रशंसा तक की मेरी यात्रा समृद्ध रही है। उन्होंने न केवल भारत को बदला है, बल्कि नेतृत्व की परिभाषा भी नई गढ़ी है।
जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं, प्रधानमंत्री जी। आप हमें और ऊंचाइयों की ओर मार्गदर्शन देते रहें।
किशोरावस्था से ही नरेन्द्र मोदी में नेतृत्व, सेवा और दृढ़ता के गुण दिखाई देते थे। वे सार्वजनिक भाषणों में निपुण थे और गरीबों का जीवन सुधारने का संकल्प रखते थे।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
17 सितम्बर को भारत अपने 21वीं सदी के सबसे प्रभावशाली नेता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का 75वां जन्मदिन मना रहा है। 1950 में गुजरात के वडनगर में जन्मे मोदी की यात्रा एक छोटे कस्बे के चाय विक्रेता से लेकर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री बनने तक, असाधारण और प्रेरणादायक है। यह जन्मदिन केवल व्यक्तिगत पड़ाव नहीं है, बल्कि 25 वर्षों के सतत शासन का प्रतीक भी है।
पहले गुजरात के मुख्यमंत्री (2001–2014) और फिर भारत के प्रधानमंत्री (2014 से अब तक)। इन दशकों में मोदी ने शासन और राजनीति को नई दिशा दी, और राष्ट्रवाद, ईमानदारी तथा सामाजिक कल्याण की प्रतिबद्धता का प्रतीक बने। किशोरावस्था से ही नरेन्द्र मोदी में नेतृत्व, सेवा और दृढ़ता के गुण दिखाई देते थे। वे सार्वजनिक भाषणों में निपुण थे और गरीबों का जीवन सुधारने का संकल्प रखते थे। उनके लिए सत्ता और सफलता से अधिक मूल्यवान था अपने आदर्शों पर टिके रहना और संघर्ष करना। बहुत कम पत्रकार होंगे जिन्होंने उनके आरंभिक वर्षों को नज़दीक से देखा होगा।
1973 से 1976 के बीच हिंदुस्तान समाचार में संवाददाता रहते हुए मैंने गुजरात छात्र आंदोलन, कांग्रेस अधिवेशन और आपातकाल की घटनाओं को रिपोर्ट किया। आपातकाल के दौरान मोदी भूमिगत हो गए और आरएसएस तथा जनसंघ नेताओं के बीच संपर्क बनाए रखने, गुप्त सूचनाएँ पहुँचाने और वेश बदलकर अभियानों का नेतृत्व करने का काम किया। यहां तक कि समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस भी गिरफ्तारी से पहले भेष बदलकर गुजरात आए और मोदी से सहयोग माँगा।सामान्यतः लोग सत्ता में साथ होते हैं और कठिन संघर्ष के समय दूरी बना लेते हैं।
लेकिन नरेंद्र मोदी प्रारम्भ से संघर्ष , समस्या और दुःख में किसी अपेक्षा के बिना सहायता के लिए आगे आते रहे। उस समय मोदीजी के छोटे भाई पंकज मोदी हिंदुस्तान समाचार कार्यालय में मेरे साथ कार्यरत थे। उनसे और ब्यूरो प्रमुख भूपत परिख से हुई चर्चाओं से पता चलता था कि मोदी बचपन से ही सामाजिक सेवा और लेखन में निपुण रहे हैं। साधना पत्रिका के संपादक विष्णु पंड्या से भी उन्हीं दिनों मेरा भी परिचय हुआ था। साधना में नरेंद्र मोदी जी के लेख छपते थे।
उन्होंने कभी कभी कविताएं भी लिखी। बाद में अपने अनुभवों और विचारों की पुस्तकें भी लिखी। इस तरह लेखन और पत्रकारिता के प्रति लगाव और सम्मान सदा रहा। मुख्यमंत्री तथा प्रधान मंत्री रहते हुए पत्रकारों के साथ संबंधों को लेकर अलग अलग राय बनती रही लेकिन शायद बहुत कम लोग इस बात पर ध्यान देते हैं कि गुजरात के ही दो पुराने प्रमुख अख़बारों ने लगातार उनके विरुद्ध समाचार, लेख प्रकाशित किए, लेकिन उन पर कभी कोई कार्रवाई नहीं की। उनका एक ही तरीका रहा कि पूर्वाग्रही आलोचकों से दूरी रखी जाए।
जनता से सीधे संवाद और संचार साधनों का सही उपयोग कर अपनी बात करोड़ों लोगों को पहुंचाई जाए। हिमालय जितना उन्हें प्रिय है, उतनी ही गहरी आत्मीयता नर्मदा नदी से है। मेरा खुद का पृष्ठभूमि उज्जैन–इंदौर–ओंकारेश्वर से जुड़ा रहा और 1973 से नर्मदा विवादों और सांस्कृतिक महत्व पर लिखता रहा हूँ। इसी कारण मेरी और मोदी की इस विषय पर कई बार बातचीत हुई। जब मैंने नर्मदा पर पुस्तक लिखी, मोदीजी ने व्यस्तता के बावजूद उसकी पाण्डुलिपि पढ़कर सुन्दर भूमिका लिखी।
बाद में भारत के सामाजिक बदलावों पर पहले तथा उनके कार्यकाल में हुए निर्णयों पर भी मेरी किताब के लिए विस्तृत संदेश लिखकर भेजा। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उनकी पुस्तक पढ़ने की आदतें कम नहीं हुईं। वे देर रात तक पढ़ते हैं और विदेशी राष्ट्राध्यक्ष उन्हें दुर्लभ किताबें भेंट करते हैं। आशा है कि उनके नेतृत्व में भारत में पुस्तकालयों और पुस्तकों तक पहुँच को बढ़ावा मिलेगा। 2001 में जब मोदी मुख्यमंत्री बने, गुजरात भूकंप से तबाह था। बहुतों को शक था कि वे इस संकट को संभाल पाएंगे।
लेकिन कुछ ही वर्षों में गुजरात को आदर्श राज्य कहा जाने लगा। ज्योति ग्राम योजना से गाँवों को 24 घंटे बिजली मिली। जल प्रबंधन से सूखा-ग्रस्त क्षेत्रों में कृषि पुनर्जीवित हुई। वाइब्रेंट गुजरात शिखर सम्मेलनों से राज्य निवेश का केंद्र बन गया। इन सम्मेलनों में देश विदेश के शीर्ष पूंजीपतियों के अलावा विदेशी मंत्री राजनयिक भी आए। बुनियादी ढाँचा, उद्यमिता और सुशासन पर ध्यान देकर उन्होंने “गुजरात मॉडल” खड़ा किया, जिसने उन्हें राष्ट्रीय नेता बनाया। 2014 तक देश परिवर्तन की तलाश में था।
मोदी का अभियान विकास और राष्ट्रवाद का संगम था। उनका नारा “सबका साथ, सबका विकास” जन-जन तक पहुँचा। उस चुनाव में भाजपा को 30 वर्षों बाद पूर्ण बहुमत मिला और भारत ने नई दिशा व नई नेतृत्व शैली को स्वीकारा। 75 वर्ष की आयु में भी मोदी का परिचय अटूट राष्ट्रवाद से है। धारा 370 हटाना, सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट एयरस्ट्राइक और आतंकवाद के खिलाफ सिन्दूर ऑपरेशन जैसे कदमों ने भारत की रणनीतिक स्थिति बदल दी। उन्होंने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को भी नई पहचान दी।
काशी विश्वनाथ धाम का पुनर्निर्माण, अयोध्या में राम मंदिर का नेतृत्व, और भारत की सभ्यतागत अस्मिता को सुदृढ़ करना उनके प्रयासों के उदाहरण हैं। मोदी सरकार की सबसे बड़ी विशेषता है योजनाओं की सीधी और पारदर्शी पहुँच -जन धन योजना। 50 करोड़ से अधिक खाते खुले। उज्ज्वला योजना: महिलाओं को रसोई गैस मिली।स्वच्छ भारत मिशन: 10 करोड़ शौचालय बने। आयुष्मान भारत: 50 करोड़ से अधिक लोगों को स्वास्थ्य बीमा। पीएम किसान: किसानों को सीधे आय हस्तांतरण।इन योजनाओं ने करोड़ों परिवारों का जीवन बदला है।
मोदी ने भारत को उभरती वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित किया। 2023 की जी-20 अध्यक्षता में उनका नेतृत्व सराहा गया। अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन और आत्मनिर्भर भारत जैसे दृष्टिकोण ने भारत को वैश्विक एजेंडा तय करने वाली शक्ति बना दिया। कोविड-19 महामारी के दौरान भारत का प्रदर्शन कई विकसित देशों से बेहतर रहा। उनकी कूटनीति ने पाकिस्तान को अलग-थलग किया और इस्लामी देशों का समर्थन भारत के पक्ष में लाया।
सत्ता के शिखर पर पहुँचने के बाद भी मोदी की व्यक्तिगत सादगी उनकी पहचान है। वे परिवारवाद से दूर हैं, योगाभ्यास करते हैं, लंबे समय तक काम करते हैं और अनुशासित जीवन जीते हैं। मन की बात, सोशल मीडिया और विशाल जनसभाएँ उन्हें जनता से सीधे जोड़ती हैं। 2024 में उन्होंने तीसरी बार चुनाव जीता और 2029 में चौथी बार प्रधानमंत्री बनने की योजना की बात भी कही है। उनका लक्ष्य 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाना है। 1950 में जन्मे मोदी तब 97 वर्ष के होंगे, लेकिन उनके लिए उम्र केवल एक संख्या है। उनका मंत्र है—“जब हम ठान लेते हैं, तो मीलों आगे निकल जाते हैं।”
भारत जब नरेन्द्र मोदी का 75वां जन्मदिन मना रहा है, तब वेद की यह वाणी स्मरणीय है: “जीवेम शरदः शतम्”—हम सौ शरद ऋतु तक जिएं। राष्ट्र, समाज और सेवा को समर्पित इस नेता के लिए यह शुभकामना विशेष रूप से सार्थक है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का 75 वां जन्मदिन आज है। उनकी जीवन यात्रा रचना, सृजन और संघर्ष की त्रिवेणी है। उनके व्यक्तित्व का सबसे खास पक्ष है संचार और संवाद।
प्रो. संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष।
भारत जैसे महादेश को संबोधित करना आसान नहीं है। इस विविधता भरे देश में वाक् चातुर्य से भरे विद्वानों, राजनेताओं, प्रवचनकारों और अदीबों की कमी नहीं है। अपनी वाणी से सम्मोहित कर लेने वाले अनेक विद्वानों को हमने सुना और परखा है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की क्षमताएं उनमें विलक्षण हैं। वे हमारे समय के अप्रतिम संचारकर्ता हैं। संचार का विद्यार्थी होने के नाते मैं उनकी तरफ बहुत विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखता हूं, किंतु वे अपनी देहभाषा, भाव-भंगिमा, शब्दावली और वाक् चातुर्य से जो करते हैं, उसमें कमियां ढूंढ पाना मुश्किल है।
उनका आत्मविश्वास और शैली तो विलक्षण है ही, वे जो कहते हैं उस बात पर भी सहज विश्वास करने का मन होता है। मोदी सही मायने में संवाद के महारथी हैं। वे जनसभाओं के नायक हैं तो एक्स जैसे नए माध्यमों पर भी उनकी तूती बोलती है। पारंपरिक मंचों से लेकर आधुनिक सोशल मीडिया मंचों पर उनकी धमाकेदार उपस्थिति बताती है संवाद और संचार को वे किस बेहतर अंदाज में समझते हैं।
गुजरात के एक छोटे से कस्बे बड़नगर में पले-बढ़े नरेंद्र मोदी में ऐसा क्या है जो लोंगों को सम्मोहित करता है? उनकी राजनीतिक यात्रा भी विवादों से परे नहीं रही है। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें जिस तरह निशाना बनाकर उनकी छवि मलिन करने के सचेतन प्रयास हुए, वे सारे प्रसंग लोकविमर्श में हैं। बावजूद इसके वे हिंदुस्तानी समाज के नायक बने हुए हैं तो इसके पीछे उनकी संप्रेषण कला और देहभाषा का अध्ययन प्रासंगिक हो जाता है।
नरेंद्र मोदी देश के ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जो कभी सांसद नहीं थे और पहली बार लोकसभा पहुंचकर देश के प्रधानमंत्री बने। 2014 के आमचुनावों की याद करें तो देश किस तरह निराशा और अवसाद से भरा हुआ था। लोग राजनीति और राजनेताओं से उम्मादें छोड़ चुके थे। अन्ना आंदोलन से एक अलग तरह का गुस्सा लोगों के मन में पनप रहा था। तभी एक आवाज गूंजती है ‘मैं देश नहीं झुकने दूंगा।’
दूसरी आवाज थी ‘अच्छे दिन आने वाले हैं।’ ये दो आवाजें थीं नरेंद्र मोदी की, जो देश को एक विकल्प देने के लिए मैदान में थे। राजनीति में आश्वासनपरक आवाजों का बहुत मतलब नहीं होता, क्योंकि राजनीति तो सपनों और आश्वासनों के आधार पर ही की जाती है। किंतु नरेंद्र मोदी ने इस दौर में जो कुछ कहा उसे देश ने बहुत ध्यान से सुना। उनका दल लंबे समय से सत्ता से बाहर था और वे अपने दल की ओर से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार बनाए जा चुके थे।
जाहिर है अवसाद और निराशा से भरी जनता को एक अवसर था परख करने का। मोदी इस अवसर का लाभ उठाते हैं और जनता के मन में भरोसा जगाने का प्रयास करते हैं। वे लगातार अपनी सभाओं में कहते हैं कि वे ही इस देश को उसके संकटों से उबार सकने की क्षमता से लैस हैं। जनता मुग्ध होकर उनके भाषणों को सुनती है। अपनी अप्रतिम संवादकला से वे लोगों में यह भरोसा जगाने में सफल हो जाते हैं कि वे कुछ कर सकते हैं।
2014 में मोदी सत्ता में आते हैं और संचार के सबसे प्रभावकारी माध्यम को साधते हैं। वे आकाशवाणी पर ‘मन की बात’ के माध्यम से लोगों से संवाद का अवसर चुनते हैं। यानि उनका संवाद अवसर और चुनाव केंद्रित नहीं है, निरंतर है। उनमें एक सातत्य है। बदलाव के लिए, परिवर्तन के लिए, लोकजागरण के लिए। वे मन की बात को राजनीतिक विमर्शों के बजाए लोकविमर्शों का केंद्र बनाते हैं। जिसमें जिंदगी की बात है, सफाई की बात है, शिक्षा और परीक्षा की बात है, योग की बात है।
मन की बात के माध्यम से वे खुद को एक ऐसे अभिभावक की तरह पेश करने में सफल होते हैं, जिसे देश और देशवासियों की चिंता है। संवाद की यही सफलता है और यही उसका उद्देश्य है। अपने लक्ष्य समूह को निरंतर अपने साथ जोड़े रखना मोदी की संवाद कला की दूसरी सफलता है। करोना संकट में भी हमने देखा कि उनकी अपीलों को किस तरह जनमानस ने स्वीकार किया, चाहे वे करोना वारियर्स के सम्मान में दीप जलाने और थाली बजाने की ही क्यों न हों। यह बातें बताती हैं कि अपने नायक पर देश का भरोसा किस तरह कायम है।
मोदी अपनी देहभाषा से कमाल करते हैं। कई बार चौंकाते भी हैं। देश की गहरी समझ भी इसका बड़ा कारण है, यही कारण है वे देश के जिस हिस्से में होते हैं वहां की स्थानीय बोली, वस्त्रों और प्रतीकों का सचेत इस्तेमाल करते हैं। इसके साथ ही उनकी पोशाकें, उनका हाफ कुर्ता, जैकेट्स आज एक तरह से स्टाइल स्टेटमेंट है। उनका अनुसरण कर नौजवान आज खद्दर और सूती कपड़ों की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। हम विश्लेषण करें तो पाते हैं कि उनका समर्पित जीवन और ईमानदारी से उनकी वाणी का भी एक रिश्ता है।
जब हम सिर्फ बोलते हैं तो उसका असर अलग होता है। किंतु अगर हम जो बोलते हैं उसमें कृतित्व भी शामिल हो तो बात का असर बढ़ जाता है। नरेंद्र मोदी अपनी असंदिग्ध ईमानदारी, राष्ट्रनिष्ठा और देशभक्ति के प्रतीक हैं। उनका समूचा जीवन राष्ट्र के लिए अर्पित है। ऐसा व्यक्ति जब कोई बात कहता है तो उसका असर बहुत ज्यादा होता है। क्योंकि आपकी वाणी को आपके जीवन का समर्थन है। सिर्फ देश की बात करना और देश के लिए जीना दो बातें हैं। मुझे लगता है जीवन और कर्म में एक रूप होने के नाते मोदी बाकी राजनेताओं से बहुत आगे निकल जाते हैं।
क्योंकि उनकी राष्ट्रनिष्ठा पर सबको भरोसा है, इसलिए उनकी वाणी पर भी सहज विश्वास आता है। इस तरह उनकी वाणी ‘भाषण’ न होकर ‘ह्दय से ह्दय के संवाद’ में बदल जाती है। लोंगों को भरोसा है कि वे हमारी ही बात कर रहे हैं और हमारे लिए ही कर रहे हैं। मोदी ने अपनी साधारण पृष्ठभूमि की बात कभी छिपाई नहीं, जब भी उनकी साधारण स्थितियों का मजाक बनाया गया तो उसे भी उन्होंने एक सफल अभियान में बदल दिया। ‘चाय पर चर्चा’ का कार्यक्रम किस तरह बना, उसके संदर्भ हम सबके ध्यान में हैं। नरेंद्र मोदी सही मायने में सामान्य जनों में भरोसा जगाते हैं कि अगर संकल्प हों, इच्छाशक्ति हो तो व्यक्ति क्या नहीं कर सकता।
यह एक बात लोगों को उनसे कनेक्ट करती है। अनेक राजनेता हैं, जो साधारण पृष्ठभूमि से आए हैं। किंतु उनका या तो अपनी जड़ों से उनका रिश्ता टूट गया है या वे उन विथिकाओं को याद नहीं करना चाहते। जबकि नरेंद्र मोदी अपनी जड़ों को नहीं भूलते वे हमेशा उसे याद करते हैं और खुद पर भरोसा करते हैं।
यही कारण है उनका कनेक्ट सीधा जनता से बनता है। वे प्रधानमंत्री होकर भी अपने से नजर आते हैं। संचार, संवाद और पोजिशिनिंग की यह कला उनमें सहज है। बिना जतन के भी वे इन सबको साधते हैं और साधते रहेंगें क्योंकि आसमान पर होकर भी माटी की सोंधी महक उन्हें जड़ों से जोड़े रखती है। इसलिए उनका संवाद दिलों को जोड़ता है, देश को भी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
हालांकि, इन सबके बीच भारत और अमेरिका को ट्रेड डील करनी होगी, जो आसान नहीं है। मामला सिर्फ़ रूसी तेल का नहीं है। भारत ख़रीद कम या ज़्यादा कर सकता है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
भारत और अमेरिका के रिश्तों पर जमी बर्फ कुछ पिघलने लगी है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक महीने पहले तक भारत को Dead Economy कह रहे थे, लेकिन अब वे पोस्ट कर रहे हैं कि मोदी मेरे दोस्त हैं और डील में कोई दिक़्क़त नहीं होगी। भारत के कॉमर्स मंत्री पीयूष गोयल भी कह रहे हैं कि नवंबर तक डील हो सकती है। अब सवाल यह है कि अमेरिका का रुख क्यों बदल रहा है?
अमेरिका ने भारत से आने वाले सामान पर 50% टैरिफ़ लगाया हुआ है। इसमें 25% टैरिफ़ Reciprocal है यानी भारत के ज़्यादा टैरिफ़ के जवाब में लगाया गया है, जबकि 25% अतिरिक्त टैरिफ़ रूस से तेल ख़रीदने की वजह से है। भारत इस दबाव में नहीं आया बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन और रूस के राष्ट्रपति से मुलाकात कर अमेरिका को सख्त संदेश दिया।
टैरिफ़ का असर अब अमेरिका पर ही उल्टा पड़ने लगा है। पिछले हफ़्ते दो आंकड़े जारी हुए। अमेरिका में महंगाई दर बढ़कर 2.9% तक पहुंच गई है। कंपनियों ने दूसरे देशों से आने वाले सामान की ऊंची क़ीमत ग्राहकों पर डालनी शुरू कर दी है। कॉफी से लेकर कार तक की क़ीमतें बढ़ रही हैं। वहीं बेरोज़गारी भी बढ़ रही है और नई नौकरियां पैदा नहीं हो रही हैं। अगस्त में सिर्फ़ 22 हज़ार नौकरियां आईं। ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से नई नौकरियों की संख्या लगातार कम हो रही है। कंपनियों ने टैरिफ़ के चलते नौकरी देने से हाथ खींच लिए हैं।
महंगाई और बेरोज़गारी की दोहरी मार ने फेड रिजर्व को भी दुविधा में डाल दिया है। बढ़ती बेरोज़गारी की वजह से फेड रिजर्व ब्याज दरों में कटौती करना चाहता है, लेकिन महंगाई को देखते हुए उसे सावधानी रखनी होगी क्योंकि कटौती से महंगाई और बढ़ सकती है। इस हफ़्ते फेड रिजर्व की बैठक में ब्याज दरों पर फ़ैसला होना है। ब्याज दरों में कटौती भारत के शेयर बाज़ार के लिए अच्छी ख़बर होगी क्योंकि ऐसी स्थिति में विदेशी निवेशक आम तौर पर भारत जैसे उभरते बाजारों की ओर रुख करते हैं, जहां रिटर्न बेहतर होता है।
हालांकि, इन सबके बीच भारत और अमेरिका को ट्रेड डील करनी होगी, जो आसान नहीं है। मामला सिर्फ़ रूसी तेल का नहीं है। भारत ख़रीद कम या ज़्यादा कर सकता है, लेकिन अमेरिका कृषि और डेयरी उत्पाद भारत में बेचना चाहता है, जो भारत में किसी भी पार्टी की सरकार के लिए मानना मुश्किल है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
बाबू श्यामसुंदर दास की पुस्तक में इस बात का उल्लेख मिलता है कि 1893 में काशी में स्कूलों में डिबेटिंग क्लब होते थे। बाद में कुछ बच्चों ने अपनी डिबेटिंग सोसाइटी बनाई।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
हिंदी दिवस के पूर्व दिल्ली के प्रतिष्ठित मिरांडा हाउस महाविद्यालय में जागरण संवादी का आयोजन हुआ। दैनिक जागरण के अपनी भाषा हिंदी को समृद्ध करने के उपक्रम ‘हिंदी हैं हम’ के अंतर्गत कई शहरों में संवादी का आयोजन होता है। इस आयोजन में हिंदी भाषा को लेकर भी विचार विनिमय होता है। दिल्ली संवादी में भी भाषा को लेकर सत्रों में चर्चा हुई।
हिंदी दिवस के अवसर उन चर्चाओं को याद कर रहा था तो अपनी भाषा हिंदी की व्याप्ति को लेकर गर्व का अनुभव हो रहा है। हिंदी हर तरफ बढ़ रही है। देश के प्रधानमंत्री विभिन्न अंतराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी में बोलते हैं। गृह मंत्री अमित शाह हिंदी को लेकर उत्साहित रहते हैं।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों के उपर हिंदी में नाम लिखा जाने लगा है। इनके बारे में विचार करते समय एक बात ध्यान में आई कि हिंदी आज पूरे राष्ट्र में समादृत और स्वीकृत हो रही है तो इसका आaधार कहां से तैयार हुआ। हिंदी के किन पुरोधाओं ने इस भाषा को स्वरूप दिया और उसके लिए किस प्रकार का श्रम किया या उनका क्या योगदान था। सबसे पहले नाम याद आता है है भारतेन्दु का।
भारतेन्दु ने हिंदी के विकास में बहुत महत्वपूर्ण योगदान किया। उनके अलावा भी कई लोग थे जिन्होंने हिंदी के लिए अपनी जिंदगी खपा दी। आज अगर हिंदी की धमक वैश्विक स्तर पर महसूस की जा रही है तो उनको याद करना आवश्यक है। कुछ दिनों पहले मैंने किसी पुस्तक में बाबू श्यामसुंदर दास की आत्मकथा की चर्चा पढ़ी थी।
जिज्ञासा हुई इस पुस्तक के बारे में जानने की। दैनिक जागरण के प्रयागराज के संपादकीय प्रभारी राकेश पांडे से मैंने इस पुस्तक की चर्चा की। उनसे आग्रह किया कि 1941 में इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग से प्रकाशित श्यामसुदंर दास की आत्मकथा उपलब्द करवाएं। ये पुस्तक तो उपलब्ध नहीं थी लेकिन प्रयासपूर्वक उनहोंने उसकी फोटो प्रति उपलब्ध करवा दी। उस पुस्तक को पढ़ते ये महसू, हुआ कि व्यक्तियों के अलावा हिंदी को वैज्ञानिक स्वरूप देने के लिए कई संस्थाओं ने भी उल्लेखनीय कार्य किया। इन संस्थाओं में से एक काशी की नागरी प्रचारिणी सभा भी है।
बाबू श्यामसुंदर दास की पुस्तक में इस बात का उल्लेख मिलता है कि 1893 में काशी में स्कूलों में डिबेटिंग क्लब होते थे। बाद में कुछ बच्चों ने अपनी डिबेटिंग सोसाइटी बनाई। गर्मी की छुट्टियों में सोसाइटी का काम बंद हो गया था। 9 जुलाई 1893 को इस सोसाइटी का एक अधिवेशन बाबू हरिदास बुआसाव के अस्तबल के ऊपरी कमरे में हुआ। इसमें आर्यसमाज के उपदेशक शंकर लाल जी आए थे। उनका बेहद जोशीला भाषण हुआ।
उसके बाद ये निर्णय हुआ कि अगले सप्ताह 16 जुलाई को फिर सभा हो। इसी दिन ये तय किया गया कि नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की जाए। बाबू श्यामसुंदर दास सभा के मंत्री चुने गए। उनके साथ पंडित रामनारायण मिश्र, ठाकुर शिवकुमार सिंह थे। ये वो समय था जब भारतेन्दु का निधन हो चुका था। हिंदी का नाम लेना भी उस समय पाप समझा जाता था।
कचहरियों में इसकी बिल्कुल पूछ नहीं थी। पढ़ाई में केवल मिडिल क्लास तक इसको स्थान मिला था। अधिक संख्या में विद्यार्थी उर्दू लेते थे। वो कहते हैं कि इस अपमान के वातावरण में लड़कों के खिलवाड़ की तरह नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई। वो इसको ईश्वर कृपा मानते हैं। जब सभा की स्थापना हुई तो भारतजीवन पत्र के संपादक बाबू कार्तिकप्रसाद ने इसको आश्रय दिया। धीरे धीरे सभा ने हिंदी के लिए ठोस कार्य करने की पहल की।
अर्थ का संकट आया। दरभंगा के महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह से सभा ने हिंदी का शब्दकोश तैयार करने के लिए आर्थिक सहायता मांगी। उन्होने तत्काल 125 रु की सहायता भेजी। साथ में लिखा कि सभा कार्य आरंभ करे भविष्य में और सहायता पर विचार करेंगे। कांकरौली के महाराज ने भी 100 रु की मदद की। इससे ही नागरी प्रचारिणी सभा ने कार्य आरंभ किया। हिंदी के प्राचीन ग्रंथों की खोज आरंभ हुई। लोग सभा से जुड़ते गए और हिंदी की समृद्धि का कार्य चलता रहा।
इनके अलावा हिंदी को विस्तार देने में सरस्वती पत्रिका और उसके संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। 1903-04 में द्विवेदी जी ने सरस्वती पत्रिका का संपादन झांसी से किया। द्विवेदी जी बहुत तीखा लिखा करते थे इस कारण जब वो सरस्वती के संपादक हुए तो वरिष्ठ लेखकों ने उनसे असहयोग शुरू कर दिया। कई बार तो उनको सरस्वती के लिए कई लेख स्वयं लिखने पड़ते थे। 1905 में द्विवेदी जी ने झांसी छोड़ दिया और कानपुर के पास जुहीकलां गांव में रहकर सरस्वती का संपादन करने लगे।
अब जुही कानपुर शहर का हिस्सा है। जुही में उनके मित्र बाबू सीताराम ने उनकी खूब मदद की। उन्होंने अपने मित्र गिरधर शर्मा नवरत्न को लिखा कि ‘ऊपर भी हमारे सीताराम हैं और नीचे भी सीताराम’। सरस्वती के माध्यम से हिंदी सेवा में द्विवेदी जी इतने तल्लीन हो गए कि वो गंभीर रूप से बीमार हो गए। वर्ष 1910 में सरस्वती के अंकों के संपादन उनके मित्र पं देवीप्रसाद शुक्ल ने किया। जब सालभऱ बाद काम पर लौटे तो दिन रात हिंदी को आकार देने के कार्य में जुटे रहे। कुछ सालों बाद फिर उनका स्वास्थ्य बिगड़ा और 1918 में सरस्वती के संपादन कार्य से दो वर्ष का अवकाश लेना पड़ा।
इस बार भी संपादन का दायित्व शुक्ल जी के पास आया। फिर वो वापस लौटे लेकिन ज्यादा दिनों तक कार्य नहीं कर सके। 1921 में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सरस्वती के संपादक बने। द्विवेदी जी अपने गांव दौलतपुर जाकर रहने लगे। 1938 में बीमारियों ने उको जकड़ लिया और दिसंबर में देह त्याग दिया। तब तक द्विवेदी जी हिंदी को ऐसा स्वरूप प्रदान कर चुके थे कि वो युग निर्माता कहलाए।
द्विवेदी जी की सरस्वती में ही सहायक संपादक और फिर संपादक हुए देवीदत्त शुक्ल। सरस्वती के संपादन कार्य के दौरान उन्होंने भाषा और वर्तनी को सुधारने में बहुत श्रम किया। इस दौरान उनकी आंख में भयंकर तकलीफ हुई और उनके आंखों की रोशनी समाप्त हो गई। देवीदत्त शुक्ल ने हिंदी भाषा को और समावेशी बनाया। सरस्वती में साहित्येत्तर विषयों को प्रकाशित किया।
यहां सरस्वती पत्रिका के मालिक चिंतामणि घोष को भी याद करना चाहिए। उन्होंने द्विवेदी जी से लेकर सभी संपादकों को खुली छूट दी, सम्मान भी। मदन मोहन मालवीय ने हिंदी को राष्ट्र निर्माण और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जोड़कर कार्य किया। हिंदी के इन महापुरुषों के अलावा भी अन्य कई विद्वानों ने, राजाओं ने और कुछ अफसरों ने भी हिंदी को विकसित करने में अपनी भूमिका दर्ज करवाई।
सूची बहुत लंबी हो सकती है लेकिन महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसा समपर्ण और हिंदी को स्वरूप देने की जिद कम ही लोगों में दिखती है। आज हिंदी दिवस के अवसर पर द्विवेदी जी जैसे लोगों को याद करना बहुत आवश्यक है। स्मरण तो हिंदी की उस परंपरा को भी करना होगा जिसने भाषा को समृद्ध करने के लिए हस्तलिखित ग्रंथों की खोज की, शब्दकोश तैयार करवाए। पत्रिकाएं निकालीं और हिंदी को फलने फूलने का अवसर उपलब्ध करवाया।
(यह लेखक के निजी विचार हैं) साभार - दैनिक जागरण।