क्या अब पुराने संस्कारों को छोड़ने का वक्त सचमुच आ गया हैं: समीर चौगांवकर

हिंसा, युद्ध, नरसंहार, दमन, यातना व गैर धर्मो के प्रति पूरी तरह अमानवीय होना, धार्मिक राष्ट्र की स्थापना, प्रसार व स्थायित्व के लिए आवश्यक होते हैं। हिंन्दू धर्म में इसे सदैव घृणा से देखा गया।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Wednesday, 04 December, 2024
Last Modified:
Wednesday, 04 December, 2024
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समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार।

अपने आधारभूत रूप में हिन्दू धर्म न एक पुस्तक का धर्म रहा न एक ईश्वर का धर्म रहा। किसी भी धार्मिक राष्ट्र की स्थापना के लिए पहला बुनियादी तत्व है एक पुस्तक और एक ईश्वर पर 'अकम्पित निष्ठा', ईसाई और इस्लामी साम्राज्यों के बनने और विस्तार पाने के पीछे मूल तत्व यही था, जो हिन्दू धर्म में कभी नहीं रहा।

धर्म के प्रसार के लिए विश्वविजय जैसी आकांक्षाए इस धर्म में पूरी तरह अवांछित थी। हिंदू धर्म की उत्कृष्टता उसे आत्मिक ऐकांतिकता की ओर ढकेलती थी जिसका चरम लक्ष्य संसार का त्याग होता था। इसी कारण कई महान राजा सारा राजपाट छोड़कर संन्यासी, महान त्यागी और पूजनीय बनें। हिन्दू धर्म के वाहक भी अपनी आंतरिक बुनावट में वीतरागी व संन्यासी थे। इस जगत की माया से मुक्ति चाहते थे।

जनक से लेकर हर्ष तक यही पंरपरा रही। ऐसे व्यक्ति भारत की भूमि पर जन्में ही नहीं जिन्होंने अपने देश की सीमाएं अपनी सेना के साथ अतिक्रमित की हो, जो देश या धर्म या नस्ल के गौरव, धन या व्यक्तिगत महत्वकांक्षा के कारण किसी देश को जीतना चाहते हों। हिंसा, रक्तपात, युद्ध, नरसंहार, दमन, यातना व गैर धर्मो के प्रति पूरी तरह अमानवीय होना, धार्मिक राष्ट्र की स्थापना, प्रसार व स्थायित्व के लिए आवश्यक होते हैं।

हिंन्दू धर्म में इसे सदैव तिरस्कार, उपेक्षा और घृणा से देखा गया। धर्म और राष्ट्र, हिन्दुओ में दो पृथक व बहुधा समानान्तर सत्ताओं के रूप में ही व्यक्त होते रहे।  ईसाई और इस्लामी साम्राज्यों की तरह, हिंदू राज्यों का कोई निश्चित, घोषित राज्य धर्म नहीं रहा जहॉ राष्ट्रवाद व धर्मयुद्ध एकरूप हो जाते थे। किसी भी शासक ने जनता पर शक्ति से अपना धर्म थोपने की कोशिश नहीं की।

धार्मिक राष्ट्र की अवधारणा हिन्दू संस्कृति व पॉलिटी में सामान्यत उस तरह कभी नहीं रही, जैसे कि ईसाई और इस्लामी दो बड़े धर्मो और साम्राज्यों में रही। ईसाई और इस्लाम में धर्मयुद्धों का लम्बा इतिहास रहा है, जो भारत में सदैव अनुपस्थित रहा है।

कालांतर में हिंदू धर्म की इसी ख़ासियत और ख़ूबसूरती को उसकी कमजोरी के रूप में देखा गया। हिंदू धर्म के त्याग और धेर्य की परीक्षा हर समय होने लगी।  बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों के लिए बड़ा मन दिखाने और सदियों से चली आ रहीं त्याग की परंपराओं का निर्वाह करने की सलाह दी जाने लगीं। संयम, त्याग, धेर्य कि पुरातन आदत को पुरखों के संस्कार बता कर उस पर अडिग रहने को कहा जाता हैं। क्या अब पुराने संस्कारों को छोड़ने का वक्त सचमुच आ गया हैं?

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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मेरा धर्म मुझे काल और परिस्थिति के दबावों से मुक्त करता हैं : समीर चौगांवकर ?>

भारत एक आध्यात्मिक प्रयोगशाला है। पूरी दुनिया में राजनीतिक लोकतंत्र हैं। सामाजिक लोकतंत्र हैं लेकिन आध्यात्मिक लोकतंत्र सिर्फ़ हिंदुओं के बीच है।

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Published - Thursday, 16 January, 2025
Last Modified:
Thursday, 16 January, 2025
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समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार।

मैं हिंदू हूं क्योकि हिंदू जन्मा हूं। हिंदू हूं इसलिए आत्मा के अमरत्व में विश्वास करता हूं। पुर्नजन्म और कर्मफल में भी मेरा विश्वास हैं। मेरा धर्म मुझें पूरी स्वतंत्रता देता है कि मै अपना आराध्य, अपनी पूजा या साधना पद्धति और अपनी जीवन शैली अपनी आस्था के अनुसार चुन और तय कर संकू। जरूरी नहीं है कि चोटी रखूं, जनेउ पहनूं, धोती कुर्ता या अंगवस्त्र धारण करूं, रोज संध्यावंदन करूं या सुबह शाम मंदिर जाऊँ, पूजा कंरू, आरती उतारू या तीर्थो में जाकर पवित्र स्नान करू।

यह धार्मिक स्वतंत्रता मुझें मेरे धर्म ने दी है। मेरा धर्म मुझें हर परिस्थिति का खुलकर सामना करने और अपना समाधान खुद निकालने की स्वतंत्रता और क्षमता देता है। दूसरे धर्म जैसा बंधन लगाते है, वैसा कोई बंधन मेरा धर्म नहीं लगाता। इसलिए हिंदू होकर जितना स्वतंत्र में रह सकता हूं उतना किसी भी धर्म में नहीं रह पाता। मेरा धर्म मुझे काल और परिस्थिति के दबावों से भी मुक्त करता हैं, क्योकि काल को वह सदा घूमता चक्र और अनादि अनंत मानता है क्योकि वह आत्मा को अच्छेघ, अक्लेघ और अशोष्य मानता है क्योकि आत्मा को नित्य, सर्वव्यापक, अविकारी, स्थिर और सनातन मानता हैं।

यह धर्म मुझे जन्म और मृत्यु के परे ले जाता है। दूसरा कोई ऐसा दर्शन नहीं है जो मुझे ऐसी मुक्ति दे सके। हिंदुत्व प्रयोगधर्मी है और प्रयोगधर्मिता के कारण भारत एक आध्यात्मिक प्रयोगशाला है। पूरी दुनिया में राजनीतिक लोकतंत्र हैं, सामाजिक लोकतंत्र हैं लेकिन आध्यात्मिक लोकतंत्र सिर्फ़ हिंदुओं के बीच है। ये आध्यात्मिक बहुलवाद भी है। मेरा धर्म मुझें किसी मंहत या शंकराचार्य के अधीन नहीं करता, इसलिए हम शंकराचार्य को भी चुनौती दे सकते हैं। मेरे धर्म में किसी का कहा अंतिम शब्द नहीं है और कोई अंतिम और सर्वोच्च व्यक्ति भी नहीं हैं।

ये आध्यात्मिक बहुलवाद सिर्फ़ हिंदुओं के बीच में है। बाक़ी कहीं भी किसी धार्मिक समुदाय के बीच में ये देखने को नहीं मिलता है। मेरा धर्म मुझें अपने विवेक से चलने की समझ देता हैं। सहीं को सहीं और ग़लत को ग़लत कहने की ताक़त देता हैं। आखें बंद कर बिना सोचें समझे किसी का भी अनुसरण ना करने की सीख देता हैं। गुरु को भी सब कुछ मानने वाले कबीर ने भी कह दिया था कि गुरु की करनी गुरु जाएगा, चेले की करनी चेला।

यानी अंतिम घड़ी में भी गुरु आपको बचा नहीं सकता। अपनी करनी के फल से कोई निस्तार नहीं है। इस जन्म में नहीं तों अगले जन्म में भुगतना होगा। किसी से नफ़रत पर हमारा धर्म टिका हुआ नहीं हैं। भारतीय समाज और राष्ट्र हिंदू धर्म के विराट, सर्वग्राही और सकारात्मक धारण तत्वों पर टिका हैं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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विज्ञापन और मीडिया इंडस्ट्री ने सच्चे दिग्गज को खो दिया: शशि सिन्हा ?>

शशि सिन्हा ने कहा, "भास्कर दास ऊर्जा और उत्साह के पावरहाउस थे- वाकई अद्वितीय। मैंने अभी तक उनके स्तर का जुनून और पेशेवर रवैया किसी और में नहीं देखा।''

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Published - Wednesday, 15 January, 2025
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Wednesday, 15 January, 2025
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भारतीय मीडिया के प्रख्यात हस्ताक्षर डॉ. भास्कर दास का बुधवार को निधन हो गया। वह लंबे समय से कैंसर से जूझ रहे थे। अपने परिवर्तनकारी नेतृत्व और नवोन्मेषी रणनीतियों के लिए जाने जाने वाले दास ने भारतीय मीडिया परिदृश्य को बदलने में एक अहम भूमिका निभाई। डॉ. दास के निधन से भारतीय मीडिया जगत में शोक की लहर दौड़ गई है।

भास्कर दास को याद करते हुए, शशि सिन्हा (सीईओ, IPG Mediabrands India) ने कहा कि दास ऊर्जा और उत्साह के प्रतीक थे और उनके निधन से विज्ञापन और मीडिया इंडस्ट्री ने एक सच्चे दिग्गज को खो दिया है।

शशि सिन्हा ने कहा, "भास्कर दास ऊर्जा और उत्साह के पावरहाउस थे- वाकई अद्वितीय। मैंने अभी तक उनके स्तर का जुनून और पेशेवर रवैया किसी और में नहीं देखा। वह एक महान मार्गदर्शक थे और अपने आसपास के सभी लोगों के लिए हमेशा समर्थन का स्रोत बने रहे।

भास्कर दास ही थे जो लगभग 17 साल पहले मुझे एड क्लब की प्रबंधन समिति में लेकर लाए, जिसने मुझे इंडस्ट्री की विभिन्न समितियों के माध्यम से अपनी यात्रा को आकार देने में मदद की।

उनके निधन के साथ, विज्ञापन और मीडिया इंडस्ट्री ने एक सच्चे दिग्गज, एक मार्गदर्शक प्रकाश खो दिया है, जिनकी बहुत याद आएगी।"

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भास्कर दा, बहुत ही जीवंत व्यक्ति थे, जिनसे हमेशा सकारात्मक ऊर्जा झलकती थी: अनिता नैय्यर ?>

वह एक बहुत ही जीवंत व्यक्ति थे, जिनसे हमेशा सकारात्मक ऊर्जा झलकती थी। वह हमेशा कुछ नया पेश करने के लिए तत्पर रहते थे

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Published - Wednesday, 15 January, 2025
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Wednesday, 15 January, 2025
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अनिता नैय्यर, COO, मीडिया, ब्रांडिंग व कम्युनिकेशन- पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड ।।

भास्कर दा, मैं हमेशा उन्हें इसी नाम से पुकारती थी। मैं दादा को अपने पूरे कार्य जीवन से जानती हूं। वह एक बेहतरीन शिक्षक, मार्गदर्शक, सलाहकार और सबसे बढ़कर एक शानदार इंसान थे, जो हमेशा नई चीजें सीखने की भूख और इंडस्ट्री में योगदान देने के अटूट जज्बे के लिए जाने जाते थे।

मैंने उन्हें हमेशा एक बेहद ही रंगीन व्यक्तित्व वाले व्यक्ति के रूप में पाया। चाहे वह उनके कपड़े पहनने का अंदाज हो, जो उन्हें भीड़ से अलग करता था, या फिर उनके बात करने का तरीका, जो साधारण से बिल्कुल अलग था।

वह एक बहुत ही जीवंत व्यक्ति थे, जिनसे हमेशा सकारात्मक ऊर्जा झलकती थी। वह हमेशा कुछ नया पेश करने के लिए तत्पर रहते थे, चाहे वह टाइम्स, दैनिक भास्कर, Zee या रिपब्लिक में हो।

वह मेरे लिए प्रेरणा थे, जिन्होंने मुझे यह सिखाया कि सीखने की भूख हमेशा बनाए रखनी चाहिए, चाहे वह किसी से भी और कहीं से भी आ रही हो, जब तक कि मेरे अंत का समय न आ जाए।

धन्यवाद, दादा, उस विरासत के लिए जो आपने पीछे छोड़ी है– विनम्रता, दया और निरंतर सीखने की चेष्टा। मैं पूरी कोशिश करूंगी कि मैं इनमें से कुछ भी अपने जीवन में आत्मसात कर सकूं।

हालांकि, यह आपकी उपलब्धियों के सामने बहुत छोटा होगा। हाल के समय में, जब उनकी तबीयत ठीक नहीं थी, तब भी वह सकारात्मकता से भरे रहते थे। उनके जाने से आज यह इंडस्ट्री थोड़ी और गरीब हो गई है।

आपकी कमी हमेशा खलेगी, लेकिन आपकी यादें हमेशा हमारे साथ रहेंगी। ईश्वर आपकी आत्मा को शांति प्रदान करें और आप जहां कहीं भी हों, सिखाते और प्रेरित करते रहिएगा।

(यह लेखिका के निजी विचार हैं)

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'जीवन के हर मोड़ पर सकारात्मकता और विनम्रता की मिसाल रहेंगे डॉ. भास्कर दास' ?>

भास्कर सर से मेरी पहली बार बातचीत 2007 में हुई थी, जब वह BCCL में रिस्पॉन्स के प्रेजिडेंट थे। मुझे जो पहली बात याद आती है वह यह है कि उन्होंने कभी एक सीनियर एग्जिक्यूटिव जैसा अहंकार नहीं दिखाया।

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Published - Wednesday, 15 January, 2025
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Wednesday, 15 January, 2025
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संदीप अमर, फाउंडर, PDlab.me ।।

भास्कर सर से मेरी पहली बार बातचीत 2007 में हुई थी, जब वह BCCL में रिस्पॉन्स (Response) के प्रेजिडेंट थे। मुझे जो पहली बात याद आती है वह यह है कि उन्होंने कभी एक सीनियर एग्जिक्यूटिव जैसा अहंकार नहीं दिखाया। उनका बात करने का तरीका बहुत ही मजाकिया था और इस वजह से मैं काफी कम्फर्टेबल होकर बात कर सका। उन दिनों वह डिजिटल सीखना चाहते थे (BCCL के प्रेजिडेंट होने के बावजूद), उन्होंने मुझे यह कहा था कि 'वह डिजिटल जंकी बनना चाहते हैं।' 

मेरी बातचीत बहुत तब और भी ज्यादा गहरी हो गई, जब वह जी एंटरटेनमेंट में मेरे सुपर सीनियर थे। हम कई बार मुंबई के फोर सीजन्स कॉफी शॉप में मिले। मैंने सच में उनका कई बार समय लिया, ताकि मैं जीवन के कुछ अहम पहलुओं को समझ सकूं। वह हमेशा शुरुआत करते थे "मैं तुम्हें क्या सिखा सकता हूं?" लेकिन धीरे-धीरे वह अपनी लय में आते थे और काफी ज्ञान की बातें साझा करते थे। उन बातों को समझना आसान नहीं था, क्योंकि पहली बार में वह विनम्र लगती थीं, लेकिन धीरे-धीरे मुझे समझ में आया कि वह क्या कह रहे थे। एक दिन मुझे लगता है कि मैं उनके साथ था और DG (Debashish Ghosh, ZEEL में मेरे मैनेजर) भी थे और हम किसी बात को लेकर नाराज थे, या शायद मैं नाराज था, तो उन्होंने हमें कहा "वह इंसान है और तुम भी इंसान हो"। मुझे समझ नहीं आया और मैंने वही सवाल किया - तो उन्होंने समझाया कि हम सभी सिर्फ इंसान हैं और एक दिन हम सभी मर जाएंगे, तो किसी में भी कुछ खास नहीं है, लिहाजा नाराज होने का क्या मतलब है?

तब मुझे पूरी तरह से समझ नहीं आया, लेकिन समय के साथ, यह बात मैं कई बार याद करता हूं और यह मुझे निश्चित रूप से मदद करती है।

एक बार मैंने एक वर्कशॉप में भाग लिया था, जहां वह पहले सत्र में थे- उन्होंने बिना किसी हिचकिचाहट के यह बताया कि मीडिया बायर्स उन्हें BCCL में होने के दौरान कैसे ट्रीट करते थे और अन्य कंपनियों में होने के दौरान कैसे ट्रीट करते थे। वैसे अब लोग यह बातें निजी तौर पर करते हैं, लेकिन उनके लिए इसे खुलकर कहना, कुछ हिम्मत की बात थी। ब्रेक के दौरान, मैंने उनसे पूछा, "सर, मैं बहुत हैरान हूं कि आपने यह खुलकर कहा"। उन्होंने बड़ी ही मुस्कुराहट के साथ जवाब दिया, "यह सच है, है न?"। मैं दंग रह गया। 

आज, जब मैंने उनके निधन के बारे में सुना, तो मैं चौंक गया, क्योंकि उनसे मेरी आखिरी फोन कॉल बहुत सकारात्मक और जीवन से भरपूर थी। वह और अधिक काम करना चाहते थे और मैंने उनसे पूछा, आप अब रिटायर क्यों नहीं हो जाते... लेलेकिन उन्हें रिटायर होने में कोई रुचि नहीं थी।

यह विश्वास करना बहुत मुश्किल है कि वह अब हमारे बीच नहीं हैं। मुझे लगता है कि हम उनके जीवन से बहुत कुछ सीख सकते हैं, और कुछ महत्वपूर्ण बातें यह हैं:

  1. हमेशा सकारात्मक रहो (उन्होंने कभी अपनी बीमारी या स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में नहीं कहा)
  2. अंत तक काम करते रहो
  3. अहंकार न रखो
  4. सीखते रहो - यह कहीं से भी आ सकता है

(यह लेखक निजी विचार हैं) 

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भारत के खिलाफ ये गलत बयान देकर फंस गए मार्क जुकरबर्ग, संसदीय समिति भेजेगी समन ?>

भाजपा सांसद और संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी पर सदन की समिति के अध्यक्ष निशिकांत दुबे ने अपनी पोस्ट में लिखा, मेरी कमेटी इस गलत जानकारी के लिए मेटा को बुलाएगी।

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Published - Wednesday, 15 January, 2025
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Wednesday, 15 January, 2025
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लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजों पर झूठा ज्ञान देकर मेटा कंपनी के मालिक मार्क जकरबर्ग बुरी तरह फंस गए हैं। संसदीय समिति उन्हें समन भेजने जा रही है।

भारत के बारे में फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग की भ्रामक टिप्पणी मामले में संसदीय समिति फेसबुक को समन करेगी। आईटी मामलों की संसदीय समिति के अध्यक्ष निशिकांत दुबे ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर एक पोस्ट शेयर करते हुए यह जानकारी दी है। मार्क जकरबर्ग ने कहा था कि कोविड 19 के बाद 2024 में हुए चुनाव में भारत समेत कई देशों की सरकारें गिर गईं।

भाजपा सांसद और संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी पर सदन की समिति के अध्यक्ष निशिकांत दुबे ने अपनी पोस्ट में लिखा, मेरी कमेटी इस गलत जानकारी के लिए मेटा को बुलाएगी। किसी भी लोकतांत्रिक देश की गलत जानकारी देश की छवि को धूमिल करती है। इस गलती के लिए भारतीय संसद से तथा यहां की जनता से उस संस्था को माफी मांगनी पड़ेगी। बता दें, 10 जनवरी को एक पॉडकास्ट में 40 वर्षीय फेसबुक के को-फाउंडर जकरबर्ग ने कहा था कि कोविड महामारी ने दुनिया भर में मौजूदा सरकारों में विश्वास को खत्म कर दिया है। उन्होंने इस संबंध में भारत का उदाहरण गलत तरीके से दिया।

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पिछले पांच साल में जम्मू कश्मीर के हालात तेजी से बदले: रजत शर्मा ?>

उमर अब्दुल्ला की सरकार केन्द्र सरकार के साथ मिलकर काम कर रही है। इसका असर जमीन पर दिख रहा है। वैसे जम्मू कश्मीर भी दिल्ली की तरह केन्द्र शासित प्रदेश है।

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Published - Wednesday, 15 January, 2025
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Wednesday, 15 January, 2025
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रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ ।।

जिस अंदाज में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ की, वह राहुल गांधी को बिल्कुल पसंद नहीं आएगा। उमर अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कांफ्रेंस अभी भी INDIA गठबंधन में है, हालांकि विरोधी दलों के कई नेता कह रहे हैं कि ये गठबंधन सिर्फ और सिर्फ लोकसभा चुनाव के लिए था। मौका था, सोनमर्ग तक 8,500 फीट की ऊंचाई पर जुड़ने वाली 6.5 किलोमीटर लंबी टनल का उद्घाटन, जिसमें उमर अब्दुल्ला मोदी के स्वागत में भाषण दे रहे थे।

गांदरबल में हुई रैली में उमर अब्दुल्ला ने प्रधानमंत्री की जमकर तारीफ की। उमर ने कहा कि कश्मीर के साथ मोदी का पुराना नाता है, मोदी ने जम्मू कश्मीर के लोगों से जो भी वादे किए, उन्हें पूरा किया। मोदी ने पिछले साल जून में कश्मीर में विधानसभा चुनाव कराने का वादा किया था और 4 महीने के अंदर चुनाव करा दिया। ये चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष हुआ और इसमें कोई बाहरी हस्तक्षेप नहीं हुआ। अब प्रधानमंत्री अपना तीसरा वादा जल्द पूरा करें, वो है जम्मू कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा वापस देने का वादा।

जवाब में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, हर काम का एक वक्त होता है और सही समय पर ये वादा भी पूरा करेंगे। मोदी ने कहा कि जम्मू कश्मीर विकास की नई ऊंचाइयों पर पहुंच रहा है, ये मिलकर काम करने का नतीजा है। जम्मू में रेलवे डिवीजन बन गया, सोनमर्ग टनल बन गई, जोजीला टनल का काम तेजी से चल रहा है, चिनाब नदी पर दुनिया का सबसे सबसे ऊंचा पुल बन गया।

कश्मीर में स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, सिनेमा हॉल, होटल और स्टेडियम बन रहे हैं, कश्मीर की आबोहवा में रौनक फिर लौट रही है। मोदी ने कहा कि उन्होंने जो वादा किया वो पूरा हुआ, जिस परियोजना का शिलान्यास किया, उसका उद्घाटन भी किया।

मोदी ने कहा कि कश्मीर में बदलाव का श्रेय कश्मीर को लोगों को मिलना चाहिए क्योंकि कश्मीर की जनता ने आतंकवाद को खारिज किया और लोकतंत्र का साथ दिया। मोदी ने कहा कि कश्मीर भारत का ताज है और वो चाहते हैं कि ये मुकुट और चमके।

उमर अब्दुल्ला ने जो कहा, वह शतप्रतिशत सही है। पिछले पांच साल में जम्मू कश्मीर के हालात तेजी से बदले हैं। कश्मीर में 40 साल बाद लोगों ने मल्टीप्लैक्स में जाकर फिल्म देखी, अस्पताल बने, गांव-गांव तक सड़के पहुंची, स्कूलों में स्मार्ट क्लासेज बनी, कनैक्टिविटी के लिए हाईवे बन रहे हैं, टनल्स बन रही है, आम लोगों के जीवन पर इन सबका सीधा असर होता है। सिस्टम के प्रति लोगों का भरोसा बढ़ता है। इसीलिए इस बार के चुनाव में जम्मू कश्मीर के लोगों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, रिकॉर्ड वोटिंग हुई।

उमर अब्दुल्ला की सरकार केन्द्र सरकार के साथ मिलकर काम कर रही है। इसका असर जमीन पर दिख रहा है। वैसे जम्मू कश्मीर भी दिल्ली की तरह केन्द्र शासित प्रदेश है। उमर अब्दुल्ला को भी उतने ही अधिकार है जितने दिल्ली के सीएम के पास। लेकिन अरविंद केजरीवाल दस साल से मोदी को सिर्फ गाली दे रहे हैं। LG ने भी केजरीवाल के काम अटकाये। इस टकराव का खामियाजा दिल्ली वालों को भुगतना पड़ा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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भारतीय संचार परंपरा का उत्सव है कुंभ: प्रो. संजय द्विवेदी ?>

कुंभ भारतीय संचार और ज्ञान परंपरा का एक ऐसा उत्सव और जुटान है, जिससे ‘भारत’ को जानने की समझ मिलती है। आंखें मिलती हैं। नई रोशनी मिलती है।

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Published - Tuesday, 14 January, 2025
Last Modified:
Tuesday, 14 January, 2025
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- प्रो. संजय द्विवेदी ।।

साथ मिलना- बैठना, संवाद करना और लोक विमर्श से बनी है महान परंपरा

कुंभ भारतीय संचार और ज्ञान परंपरा का एक ऐसा उत्सव और जुटान है, जिससे ‘भारत’ को जानने की समझ मिलती है। आंखें मिलती हैं। नई रोशनी मिलती है। भारत जैसे विशाल देश, उसकी संस्कृति, संत परंपरा का यह महाउत्सव है। स्वयं को जानना, भारत को जानना, भारत के धर्म और उसकी विविध ज्ञान धाराएं और ज्ञान परंपरा का अवगाहन करने का यह उत्सव है। भारत की अद्भुत संचार परंपरा का भी यह केंद्र है। सामान्य जन से लेकर देश के प्रभुजनों का न सिर्फ यहां आगमन होता है, बल्कि यहां से मिले संदेश को वे देश भर में लेकर जाते हैं। यहां संवाद, संदेश और एकत्व का सृजन खास है। दुनिया भर के मनुष्य एक हैं और वे एक ही भावबोध से बंधे हुए हैं यह विचार यहां हमें मिलता है। भारत का ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ का विचार इसके मूल में हैं। जो सामान्य जन को शक्ति देता है। यहां से प्राप्त विचार हमें जीवन युद्ध में खड़े और डटे रहने का हौसला देते हैं। यह सामान्य संवाद क्षण नहीं है, विमर्श का भी उत्सव है।

भारत की संवाद और संचार परंपरा से ही यह राष्ट्र सांस्कृतिक रूप से एक रहा है। इसलिए कहते हैं इस राष्ट्र में राज्य अनेक थे, राजा अनेक थे किंतु राष्ट्र एक था। राष्ट्र को जोड़ने वाली शक्ति ही संस्कृति ही। इसलिए विष्णु पुराण में हमारे ऋषि कह पाए-

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।

वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः॥

इस सांस्कृतिक एकता को बनाए रखने के लिए संवाद सबसे जरूरी तत्व था। जिससे सम भाव, मम भाव और समानुभूति पैदा होती है। उत्तर से दक्षिण तक,पूर्व से पश्चिम तक समूचा भारत एक भाव से जुड़े और सोचे इसके लिए ऐसे आयोजन जरूरी हैं जो एकत्व के सूत्र को मजबूत कर सकें। कुंभ एक ऐसा ही आयोजन है जिसमें समूचा भारत एक साथ आकर अपने सामयिक संदर्भों, जीवन संदर्भों, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भों पर विचार करता है। हमारी संत परंपरा, ऋषि परंपरा के नायक हमें संवाद के वे सूत्र देते हैं जिनसे हमारा आगे का जीवन समर्थ होता है। संवाद परंपरा की यह उजली परिपाटी आज भी बनी हुई है। एक समय था जब हमारे पास संवाद के,संचार के समाचार के आधुनिक माध्यम नहीं थे। मीडिया या पत्रकारिता नहीं थी। किंतु समाज था, लोग थे, विविध भाषाएं थीं। संवाद, संचार और शास्त्रार्थ जैसे शब्द भी थे। ये आधुनिक शब्द नहीं हैं। यानी तब भी समाज में जीवंत संचार परंपरा थी। जिसने सारे राष्ट्र को जोड़ रखा था। राजा राज्यों को बनाते होंगें, किंतु भारत राष्ट्र को ऋषियों ने रचा है। इसलिए यह राष्ट्र चिरंतन है। एक साथ नया और पुराना दोनों है। इसलिए भारत राष्ट्र को एक ओर जीता जागता राष्ट्रपुरुष कहा गया तो दूसरी ओर भारतमाता कहकर इससे आत्मीयता का संबंध भी बनाया गया। ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।’ यह मंत्र इसी भाव की सार्थक अभिव्यक्ति है। पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लिखा है-

भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।
हम जियेंगे तो इसके लिये
मरेंगे तो इसके लिये।

भारतीय ज्ञान परंपरा में विमर्श का सबसे बड़ा मंच कुंभ ही है। जहां समूचे विश्व से साधक, ज्ञानी और विद्वान आते हैं। उनकी उपस्थिति में वहां होने वाली चर्चाएं जहां आध्यात्मिक जीवन के लिए प्रेरक होती हैं, वही लोकजीवन के लिए भी उनके संदेश प्रेरणा बनते हैं। यहां होने वाले विमर्श और चर्चाएं सारे भारत के गिरिवासियों, नगरवासियों, ग्रामवासियों और वनवासियों तक पहुंचती रही हैं। संवाद और संचार की यह परंपरा कितनी वैज्ञानिक रही होगी कि यहां होने वाली चर्चाओं का समूचा संदेश उसी रूप में बिना विकृत हुए आमजन तक पहुंचता रहा है। जबकि आधुनिक संचार माध्यमों से प्रसारित संदेशों ग्रहणशीलता के कई तल हैं। ऐसा अनेक अध्ययनों में प्रामाणिक हो चुका है। यानी कुंभ की संचार और संवाद परंपरा ज्यादा प्रभावी तथा लोकमंगलकारी है। सही मायनों में लोकप्रबोधन का सबसे सशक्त माध्यम हमारे देश की वाचिक परंपरा रही है। वाचिक परंपरा के नाते ही श्रुति और स्मृति परंपरा हमारे सामने आती है। इसका बहुत महत्व है। विद्वान मानते हैं कि बोले हुए शब्द हमारी सांस्कृतिक परंपरा में बहुत महत्वपूर्ण हैं।  प्रख्यात संस्कृतिकर्मी विनय उपाध्याय कहते हैं,- “वेद हमारे आदिग्रंथ हैं तो उनके मंत्र लगभग दो हज़ार वर्षों तक हमारी मानवीय सभ्यता के पास मौखिक परंपरा में ही रहे। स्मृति और कंठ ने इन्हें कई पीढि़यों तक जीवित रखा। जब लिपि का आविष्कार हुआ तब वे ग्रंथ में यानी पृष्ठों पर अंकित हुए। सामवेद से जन्में संगीत का ही कमाल है कि आज भी वे स्वर और लय की निश्चित गतियों और आरोह-अवरोह में गाये जाते हैं। थोड़ा आगे बढ़ें तो रामायण और महाभारत की कथाएँ आख्यान की रोचक-रम्य शैली में आज तक जन मानस को आन्दोलित करती हैं।”

  भारत की संचार परंपरा वास्तव में श्रुति और स्मृति परंपरा से ही आकार लेती है। जिसका उद्देश्य ही लोकमंगल और विश्वमंगल है। लोककल्याण भारत की चिति है। इससे कम और ज्यादा कुछ नहीं। हमारे शास्त्र कई रूपों में इसकी घोषणा करते हैं। भारत के पर्व, उत्सव,मेले, प्रवचन, प्रदर्शन कलाएं, लोक कलाएं,संगीत, साहित्य, योग, आयुर्वेद सब लोकमंगल में ही अपनी मुक्ति खोजते हैं। कुंभ मेला इन अभिव्यक्तिजन्य कलाओं का सामूहिक मंच रहा है। जहां ज्ञान,कला, संगीत और ज्ञान-विज्ञान के सभी अनुशासन अपना स्थान पाते रहे हैं। इन सामूहिक अभिव्यक्तियों से ही समूचा भारत प्रेरित होता रहा और जीवनी शक्ति पाता रहा। भारत में मनुः भव की संस्कृति को अपने समूचे लोकजीवन में स्थापित किया। इसलिए सर्वभूत हिते रताः का भाव पूरे भारत के मन पर अंकित हो गया। जिसे तुलसीदास के शब्दों में सुनें तो-

परहित सरिस धर्म नहिं भाई,

पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।

(श्री रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड)

 यही बात एक मंत्र में भी कही गई-

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥

परोपकार और लोकमंगल भारतीय अवचेतन का लक्ष्य है। शायद इसीलिए बाद के दिनों में मिर्जा गालिब भी इसे इस रूप में लिखते हैं-

यूं तो मुश्किल है हर काम का आसां होना,

आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना।

 भारत की सांस्कृतिक यात्रा में कुंभ के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि विविधता भरे इस समाज को एक सूत्र में जोड़ने का काम ऐसे आयोजनों के माध्यम से होता रहा है। भारत की सांस्कृतिक थाती और विरासत को बनाने, बचाने और संवादरत रखने का काम भी इन आयोजनों ने किया है। ज्ञान को अमृत मानकर चखने की परंपरा का उत्कर्ष ही कुंभ है। यह काम दुनिया में भारत ही कर सकता है। वह ज्ञान में ही रत है यानी ‘भा-रत’ है। संचार के जितने भी प्रकार हो सकते हैं, कुंभ में उन सबका प्रकटीकरण होता  है। इन अर्थों में यह सभा आध्यात्मिक शुद्धि के विचारों से कहीं आगे है, जिसमें संपूर्ण जीवन का विचार है। यहां पारंपरिक संगीत,नृत्य, कलाओं, शिल्प कौशल सबके प्रयोग से सार्थक संवाद का सृजन होता है। आध्यात्मिक यात्रा के साथ-साथ विविध जीवनानुभवों की साक्षी बनकर व्यक्ति भारत की सांस्कृतिक भाव यात्रा से भी जुड़ जाता है। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा जारी विवरण में कहा गया है कि,-“ वर्ष 2025 का महाकुंभ मेला सिर्फ एक सभा नहीं है; यह स्वयं की ओर एक यात्रा है। अनुष्ठानों और प्रतीकात्मक कृत्यों से परे, यह तीर्थयात्रियों को आंतरिक प्रतिबिंब और परमात्मा के साथ गहरे संबंध का अवसर प्रदान करता है। आधुनिक जीवन की माँगों पर अकसर हावी रहने वाली दुनिया में, महाकुंभ मेला एकता, पवित्रता और ज्ञानोदय के प्रतीक के रूप में खड़ा है। यह कालातीत तीर्थयात्रा शक्तिशाली अनुस्मारक के रूप में कार्य करती है कि मानवता के विभिन्न मार्गों के बावजूद, हम मूल रूप से शांति, आत्म-बोध और पवित्र के प्रति स्थायी श्रद्धा की ओर एक साझा यात्रा के लिए एकजुट हैं।”

     कुंभ यानी साथ मिलना- बैठना, संवाद करना और लोक विमर्श से बनी इस महान परंपरा का आधुनिक युग में भी महत्व कम नहीं हुआ है। आज के समय में जब समूची दुनिया में संघर्ष, कत्लेआम, युद्ध और श्रेष्ठता के लिए दूसरे को कुचल डालने के षड़यंत्र आम हैं। मानवता संकटों से घिरी हुई है। ऐसे कठिन समय में भारत की संवाद और संचार की परंपरा हमारे तनावों को कम करने में सहयोगी हो सकती है। भारत ने संवाद और शास्त्रार्थ के माध्यम से संकटों की हल निकालने की परिपाटी विकसित की है। जहां हिंसा और आतंक का कोई स्थान नहीं है। संवाद न होने से ही ज्यादातर संकट खड़े होते हैं। संवाद की दुनिया इसका एकमात्र विकल्प है। एक ही देश से अलग होकर बने दो देशों में भी संवाद नहीं है। रूस-यूक्रेन इसके उदाहरण हैं। भारत-पाकिस्तान-बंगलादेश भी इस क्रम में गिनाए जा सकते हैं। इसका एकमात्र कारण है कि हमने लोकमंगल और संवाद का विचार त्याग दिया है। संवाद न होने से राज्य-राज्य,व्यक्ति-व्यक्ति, समाज-समाज टकरा रहे हैं। कुंभ का विचार आध्यात्म, ज्ञान और संवाद तीनों की त्रिवेणी है। इससे उपजी संवाद की धाराएं हमें  लोकमंगल और विश्वमंगल के लिए प्रेरित करती हैं। एक सुंदर दुनिया बनाने के लिए हमें इन्हीं भावों से भरी मनुष्यता का निर्माण करना पड़ेगा। यह विश्व मानवता के सुमंगल का विचार करने की जगह भी है। मानवता के सम्मुख चुनौतियां हम सबकी हैं। समूचे विश्व की हैं। आध्यात्म जहां हमें समष्टि से जोड़ता है वहीं संवाद हमें आपस में जोड़ता है। कुंभ भारतबोध का भी उत्सव है। यह हमें बताता है कि भारत क्या है। यहां आप भारत को महसूस कर सकते हैं। पत्रकार उमेश चतुर्वेदी के अनुसार, “भारतबोध शब्द दो शब्दों का सम्मिलन है—भारत और बोध, जिसका सामान्य अर्थ होता है भारत का बोध। स्पष्ट है कि भारत बोध का अभिप्राय है भारत संदर्भित वे अनुभूत तथ्य और सत्य, जिसमें देश की सामूहिक चेतना आप्लावित होती है। भारतबोध, भारतीयता का ही चैतन्य विस्तार है।”

आज जब विश्वमानवता के सामने संकट के बादल छाए हुए हैं, ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में कुंभ का आयोजन सही मायने में बहुत प्रासंगिक है। इसके आयोजन से विश्व मानवता आपस में जुड़ती है, संवादित होती है और लोकमंगल के संकल्प प्रखर होते हैं।  उम्मीद की जानी चाहिए कि भारत की संचार और संवाद परंपरा का अनुगमन कर समूचा विश्व अपने संकटों का ठोस और वाजिब हल तलाश सकेगा।

लेखक परिचयः 

प्रो.संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में 10 वर्ष मास कम्युनिकेशन विभाग के अध्यक्ष, विश्वविद्यालय के कुलपति और कुलसचिव भी रहे।  भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली (आईआईएमसी) के  पूर्व महानिदेशक हैं। 'मीडिया विमर्श' पत्रिका के सलाहकार संपादक। राजनीतिक, सामाजिक और मीडिया के मुद्दों पर निरंतर लेखन। अब तक 35 पुस्तकों का लेखन और संपादन।

 

 

 

 

 

 

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इनकम टैक्स में कटौती होगी? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब-किताब' ?>

ब्याज दरों में बढ़ोतरी से लोगों के लिए लोन लेकर घर या कोई सामान ख़रीदना महँगा हो जाता है। कंपनियों के लिए भी लोन लेकर नया प्रोजेक्ट लगाना महँगा पड़ता है।

Last Modified:
Monday, 13 January, 2025
milindkhandekar

मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले महीने संसद को बताया था कि दूसरे क्वार्टर में GDP में गिरावट ‘temporary blip’ है लेकिन अब केंद्र सरकार ने ख़ुद कहा है कि इस साल GDP ग्रोथ चार साल में सबसे कम रहेगी। हिसाब किताब में हम लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि अर्थव्यवस्था धीमी हो रही है। आज हम चर्चा करेंगे कि मंदी का डर क्यों है? इसे दूर करने के लिए ब्याज दर और इनकम टैक्स दोनों में कटौती ज़रूरी हो गई है।

जीडीपी क्या है?

GDP ( Gross Domestic Product) का मतलब होता है कि देश में उस अवधि में बने सामान और सर्विस की कुल क़ीमत. यह मोटे तौर पर तीन बातों को लेकर बनता है। हमारा- आपका खर्च ( Private Final Consumption Expenditure). यह GDP का 60% है। सरकार के अपने खर्च जैसे सेलरी (Government Final consumption Expenditure) यह GDP का 10% है। नए प्रोजेक्ट पर खर्च जैसे नए कारख़ाने, सड़कें, बिल्डिंग। यह काम सरकार और कंपनियाँ दोनों करती है।  (Gross Final Capital Formation) यह GDP का 30% है।

केंद्र सरकार बजट से महीने भर पहले अनुमान जारी करती है कि इस वित्त वर्ष में अर्थव्यवस्था की सेहत कैसी रहेगी। फ़ाइनल आँकड़े तो मई के आख़िर में आते हैं लेकिन बजट फ़रवरी में पेश होना होता है। ये आँकड़े बजट का आधार बनते हैं। ये आँकड़े कह रहे हैं कि इस साल जीडीपी ग्रोथ 6.4% रहेगी। यह केंद्र सरकार और रिज़र्व बैंक दोनों के अनुमान से कम है।

हम पहले चर्चा कर चुके हैं कि महंगाई कम करने के लिए रिज़र्व बैंक ने ब्याज दरों को बढ़ाना शुरू किया था। महंगाई तो कम हुई नहीं, ग्रोथ कम हो गई। ब्याज दरों में बढ़ोतरी से लोगों के लिए लोन लेकर घर या कोई सामान ख़रीदना महँगा हो जाता है। कंपनियों के लिए भी लोन लेकर नया प्रोजेक्ट लगाना महँगा पड़ता है।  सामान और सर्विस की खपत कम होती है।

डिमांड कम होने से महंगाई कम होने लगती है। भारत में महंगाई तो कम नहीं हुई, खपत कम हो गई। ख़ासकर शहरों में। खपत कम हो रही है तो कंपनी नया प्रोजेक्ट नहीं लगा रही हैं। हालाँकि सरकार के आँकड़े कह रहे हैं कि खपत इस साल बढ़ रही है। लोगों का खर्च 7% से बढ़ेगा। इस पर सरकार ने बजट में 11.11 लाख करोड़ रुपये का जो बजट कैपिटल खर्च के लिए रखा था वो वो नहीं रहा है। नवंबर तक 5.13 लाख करोड़ रुपये ही खर्च हुए हैं।

तो अब क्या करना होगा?

रिज़र्व बैंक को ब्याज दरों में कटौती करने की ज़रूरत है। यह सिलसिला फ़रवरी में शुरू होने की संभावना है, नहीं तो अप्रैल से हो जाएगा। यह ग्रोथ बढ़ाने के लिए काफ़ी नहीं होगा। लोगों के हाथ में और पैसे देने की ज़रूरत है ताकि महंगाई की मार से जो हाथ खिंच रखा है वो खुल जाए। इससे कंपनियों की बिक्री भी बढ़ेगी। उनका मुनाफ़ा बढ़ेगा तो शेयर बाज़ार चढ़ेगा। इसका एक उपाय है कि इनकम टैक्स कटौती की जाएँ।

सरकार को सुझाव दिया गया है कि 15 लाख रुपये की आमदनी वाले लोगों का टैक्स कम किया जाए। इनकम टैक्स से सरकार की कमाई कॉरपोरेट टैक्स से ज्यादा हो रही है, इसलिए कटौती का स्कोप है। अब गेंद सरकार के पाले में है क्योंकि यह Temporary blip नहीं है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पांडुलिपियों के संरक्षण पर ध्यान दे संस्कृति मंत्रालय: अनंत विजय ?>

राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन का आरंभ अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रधानमंत्रित्व काल में 2003 में किया गया। मिशन के गठन के करीब सालभर बाद अटल जी की सरकार चली गई।

Last Modified:
Monday, 13 January, 2025
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव की गहमागहमी के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली कैबिनेट ने पांच भारतीय भाषाओं को क्लासिकल भाषा की श्रेणी में लाने का निर्णय लिया था। ये पांच भाषाएं हैं मराठी, बंगाली, पालि, प्राकृत और असमिया। इन भाषाओं में हमारे देश में प्रचुर मात्रा में ज्ञान संपदा उपलब्ध है। पालि और प्राकृत में तो हमारे इतिहास की अनेक अलक्षित अध्याय भी हैं जिनका सामने आना शेष है।

हमारे देश की ऐतिहासिक ज्ञान संपदा कई मठों और बौद्ध विहारों के अलावा जैन मतावलंबियों के मंदिरों में रखी हैं। इनमें से अधिकतर पांडुलिपियां पालि और प्राकृत में हैं। प्रधानमंत्री मोदी इन भाषाओं को क्लासिकल भाषा की घोषणा से आगे जाकर पांडुलिपियों में दर्ज ज्ञान संपदा को आम जनता तक पहुंचाना चाहते हैं। बुद्ध के बारे में तो प्रधानमंत्री राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय मंचों पर निरंतर बोलते रहते हैं।

हाल ही में प्रवासी भारतीय दिवस के अवसर पर आयोजित समारोह में भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बुद्ध और उनके सिद्धातों के बारे में चर्चा की थी। भगवान बुद्ध ने जो ज्ञान दिया है उसको वैश्विक स्तर पर पहुंचाने का कार्य होना शेष है। प्रधानमंत्री के निर्णय के बाद पालि को लेकर थिंक टैंक श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन ने सक्रियता दिखाई और देश के कई हिस्से में गोष्ठियां आदि करके उसको मुख्यधारा में लाने की पहल आरंभ की है।

इन गोष्ठियों में भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं की भागीदारी ये स्पष्ट है कि इस कार्य में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की सहमति और स्वीकृति दोनों है।  प्रधानमंत्री की अपने देश की ज्ञान संपदा को आमजन तक पहुंचाने के लिए सबसे कारगर तरीका तो यही लगता है कि राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को फिर से सक्रिय किया जाए।

राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन का आरंभ अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रधानमंत्रित्व काल में 2003 में किया गया। मिशन के गठन के करीब सालभर बाद अटल जी की सरकार चली गई। केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार बनी। मिशन की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, ‘इस परियोजना के माध्यम से मिशन का उद्देश्य भारत की विशाल पाण्डुलिपीय सम्पदा को अनावृत करना और उसको संरक्षित करना है।

भारत लगभग पचास लाख पाण्डुलिपियों से समृद्ध है जो संभवत: विश्व का सबसे बड़ा संकलन है। इसमें सम्मिलित हैं अनेक विषय, पाठ संरचनाएं और कलात्मक बोध, लिपियां, भाषाएं, हस्तलिपियां, प्रकाशन और उद्बोधन। संयुक्त रूप से ये भारत के इतिहास, विरासत और विचार की ‘स्मृति’ हैं। ये पाण्डुलिपियां अनेक संस्थानों तथा निजी संकलनों में प्राय: उपेक्षित और अप्रलेखित स्थिति में देशभर में और उसके बाहर भी बिखरी हुई हैं।

राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन का उद्देश्य अतीत को भविष्य से जोड़ने तथा इस देश की स्मृति को उसकी आकांक्षाओं से मिलाने के लिए इन पाण्डुलिपियों का पता लगाना, उनका प्रलेखन करना, उनका संरक्षण करना और उन्हें उपलब्ध कराना है। ’ इस मिशन की वेबसाइट पर ही इसके कार्यों का लेखाजोखा भी उपलब्ध है। उसको देखकर सहज ही ये अनुमान लगाया जा सकता है कि मिशन बस चलता रहा है। कोई उल्लेखनीय कार्य हुआ हो ये ज्ञात नहीं हो सका है। अभी कुछ वर्षों पहले तो सांस्कृतिक जगत में ये चर्चा थी संस्कृति मंत्रालय इस मिशन को बंद करना चाहती है।

पता नहीं किन कारणों से इस मिशन को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र से जोड़ने का निर्णय हुआ। जब मिशन को कला केंद्र से जोड़ा गया तो माना गया था कि वहां इसके उद्देश्यों को पूरा करने को गति मिलेगी। कला केंद्र के पुस्तकालय में भी पांडुलिपियों का खजाना है। देशभर के 52 पुस्तकालयों से इन पांडुलिपियों की माइक्रो फिल्म बनाकर यहां रखा गया है। इन पांडुलिपियों में गणित, अंतरिक्ष विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र शामिल हैं। इसके अलावा कला केंद्र की लाइब्रेरी में एक लाख के करीब स्लाइड्स हैं जिसपर देश की विविध परंपराओं की झलक देखी जा सकती हैं।

देश भर के स्मारकों या ऐतिहासिक इमारतों की तस्वीरें भी यहां हैं। कलानिधि संदर्भ पुस्तकालय अपने आप में अनोखा है। यहां किताबें तो हैं ही एक सांस्कृतिक आर्काइव भी है। पर यहां से जुड़ने के बाद भी मिशन गतिमान नहीं हो सका। बताया जाता है कि संस्कृति मंत्रालय ने मिशन को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र से जोड़ तो दिया पर उसको गतिमान करने के लिए जो आर्थिक संसाधन नहीं दिए। परिणाम वही हुआ जो बिना अर्थ के किसी संस्था का होता है।

अब प्रधानमंत्री की रुचि को देखते हुए एक बार फिर से राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को सक्रिय करने का प्रयास संस्कृति मंत्रालय कर रहा है। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के अकाउंट्स को अस्थायी रूप से साहित्य अकादमी को दिया गया है। साहित्य अकादमी को निर्देश दिया गया है कि वो राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के खर्चों का हिसाब किताब रखे। बिलों का भुगतान आदि करे। इस निर्णय के पीछे की मंशा क्या हो सकती है पता नहीं।

 साहित्य अकादमी को पूरा देश सृजनात्मकता के केंद्र के रूप में जानता है, संस्कृति मंत्रालय इसको लेखा विभाग के लिए भी उपयुक्त समझता है। इन दिनों संस्कृति मंत्रालय अपने अजब-गजब फैसले के लिए भी जाना जाने लगा है। कभी अपने से संबद्ध संस्थाओं के चेयरमैन के स्तर को लेकर जारी फरमान तो कभी राजा राममोहन राय मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में एक अस्थायी अफसर को हटाकर दूसरे अस्थायी अफसर को दायित्व देने को लेकर । मंत्रालय को जो ठोस कार्य करने चाहिए उस ओर वहां कार्यरत अफसरों का ध्यान ही नहीं जा पा रहा है।

राजा राममोहन राय मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में नियमित महानिदेशक की नियुक्ति, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में नियमित चेयरमैन की नियुक्ति जैसे कार्यों पर ध्यान है कि नहीं, पता नहीं। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इंडिया गेट के पास अमृत वाटिका की बात की थी। इस वाटिका में मेरी माटी, मेरा देश के दौरान जमा की गई मिट्टी को रखा जाना था।

देशभर से कलश में मिट्टी लेकर लोग दिल्ली में जुटे थे। भव्य कार्यक्रम हुआ था। तब इस तरह की खबर आई थी गृहमंत्री अमित शाह ने अमृत वाटिका के लिए जगह देखने के लिए उस इलाके का दौरा भी किया था। अब पता नहीं कहां हैं वो मिट्टी भरे कलश और कहां बन रही है अमृत वाटिका। संस्कृति मंत्रालय को इस बारे में बताना चाहिए।

राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को अगर संस्कृति मंत्रालय के वर्तमान अधिकारियों के भरोसे छोड़ा गया तो उसका परिणाम क्या होगा इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। जो अफसर संस्कृति और संस्कृति से जुड़े मुद्दों की संवेदना को नहीं समझ सकते वो पांडुलिपियों में संचित ज्ञान को लेकर संवेदनशील होंगे इसपर संदेह है।

दूसरी जो चिंता योग्य बात ये है कि जब मंत्रालय के अफसर प्रधानमंत्री की रुचि वाली योजनाओं को लेकर बेफिक्र रहते हैं तो वो किसकी सुनते होंगे, कहा नहीं जा सकता। आज आवश्यकता इस बात की है कि राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को मिशन की तरह चलाया जाए और उसको किसी योग्य व्यक्ति के हाथों में सौंपा जाए। संस्कृति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत अपने स्तर पर इस कार्य. को पटरी पर लाने में विशेष रुचि लें ताकि भारत का जो इतिहास वर्षों से सामने नहीं आ पाया है वो सामने आ सके और लोग उसपर गर्व कर सकें। प्रधानमंत्री मोदी के पंच-प्रण की पूर्ति की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम होगा।   

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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कांग्रेस का समर्थन रसातल पर और बनाई अपनी इमारत आलीशान: आलोक मेहता ?>

कामराज ने संगठन के लिए ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री का पद जिद करके छोड़ा था। यहां तक हुआ था कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने भी इस्तीफे की पेशकश की थी।

Last Modified:
Monday, 13 January, 2025
aalokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
 

आज हम देश में क्या देख रहे हैं? पार्टियों तथा उनके कार्यकर्ताओं के बीच आपसी संघर्ष तथा अप्रिय प्रतिस्पर्धा हो रही है। पार्टियों के पोस्टरों के प्रदर्शन, झंडे लहराने, जुलुस निकालने तथा जन सभाएं करने में एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ लगी हुई है, ताकि जनता का ध्यान और समर्थन मिले लेकिन इससे लोगों के बीच वैमनस्य पैदा होता है।

पार्टियों की ऐसी लड़ाइयों से देश की प्रगति बाधित होती है। जब पार्टियां एक दूसरे से लड़ती है, तो जनता उसे मुर्गों की लड़ाई की तरह देखती है। वह उत्तेजित हो सकती है लेकिन इससे किसी महत्वपूर्ण समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। यह बात आज के किसी सत्ताधारी नेता या बड़े समाजशास्त्री की नहीं वरन कांग्रेस में लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनवाने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष भारत रत्न 'के कामराज' ने अपने भाषण में 1967 में कही थी और वर्तमान दौर में अधिक लागू हो सकती है।

राजनीति में जिस 'कामराज योजना' का जिक्र बार बार आता है, उसमें इस बात पर ही जोर दिया गया था कि कांग्रेस की हार का एकमात्र कारण कमजोर नेतृत्व और जिला ग्रामीण स्तर पर समर्पित कार्यकर्ताओं की कमी। कामराज ने संगठन के लिए ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री का पद जिद करके छोड़ा था। यहाँ तक हुआ था कि प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरु ने भी इस्तीफे की पेशकश की थी। बाद में इंदिरा गाँधी के राज में इसी योजना के तहत वरिष्ठ मंत्रियों के इस्तीफे हुए। कामराज राजनीतिक पार्टी, नेता कार्यकर्ताओं की शान शौकत, बंगलों, गाड़ियों के विरुद्ध सदैव आवाज उठाते रहे।

इसी तरह के तर्कों की वजह से 1947 से 1985 तक कांग्रेस ने अपने मुख्यालय के लिए कोई बिलिंग नहीं बनाई। लेकिन कांग्रेस पार्टी के विभाजन के साथ मुख्यालय के नाम पर राजधानी दिल्ली में कई सरकारी बंगलों पर कब्ज़ा होता रहा। रियायती दरों पर जमीन के प्लाट मिलते रहे। पहले जवाहर भवन बना, लेकिन पार्टी के बजाय बाद में वह राजीव गांधी प्रतिष्ठान बन गया। अब कांग्रेस बुरी तरह कमजोर हालत में है तब एक तरह से 138 साल बाद अपनी बनाई आलीशान इमारत को कांग्रेस पार्टी का मुख्यालय बनाया जा रहा है।

1947 से दिल्ली में 7 जंतर मंतर कांग्रेस का मुख्यालय रहा। वहां महात्मा गांधी, नेहरू, सरदार पटेल भी आते थे। यहां ही इन्दिरा गांधी सन 1959 में कांग्रेस अध्यक्ष चुनी गई थीं। 1969 में कांग्रेस का विभाजन होने पर इंदिरा गाँधी की कांग्रेस 5 राजेंद्र प्रसाद रोड पर आ गई। जगजीवन राम, डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा, देवकांत बरुआ, ब्रह्मानंद रेड्डी के कार्यकाल में यहीं से पार्टी चली। जब रेड्डी ने भी 1978 में इंदिरा गाँधी को निष्कासित कर दिया, तब इंदिरा कांग्रेस का मुख्यालय 24 अकबर रोड पर आ गया।  

दरअसल यह बंगला सन 1978 में कांग्रेस के आंध्र प्रदेश से राज्यसभा सदस्य जी. वेंकटस्वामी को आवंटित हुआ था। तब कांग्रेस सत्ता में नहीं थी। इंदिरा गांधी और संजय गांधी भी 1977 में लोकसभा चुनाव हार चुके थे। तब इसी 24 अकबर रोड को कांग्रेस का पहले अस्थायी और फिर स्थायी मुख्यालय बना दिया गया था। एक दौर में 24 अकबर रोड को बर्मा हाउस कहते थे। म्यांमार (पहले बर्मा) के भारत में राजदूत को यही बंगला सरकारी आवास के रूप में आवंटित किया जाता था। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के निर्देश पर 24 अकबर रोड को बर्मा हाउस कहा जाने लगा था।

7 जंतर मंतर जनता दल यूनाइटेड और अखिल भारतीय सेवा दल, जिसकी स्थापना मोरारजी देसाई ने की थी, का भी मुख्यालय रहा। कांग्रेस में दो फाड़ होने के बाद 7 जंतर मंतर पर कांग्रेस (ओ) का कब्जा हो गया था। कांग्रेस (ओ) का आगे चलकर जनता पार्टी में विलय हुआ। अब उसके एक हिस्से में सरदार पटेल समारक ट्रस्ट , जनता दल ( यू ) और  पत्रकारों के संगठन नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट का कब्ज़ा है।  

इंदिरा कांग्रेस की 1980 में सत्ता में वापसी हुई तो भी पर इंदिरा गांधी ने 7 जंतर मंतर पर दावा नहीं किया। उनका कहना था कि संगठन इमारत से नहीं कार्यकर्ताओं के बल पर शक्तिशाली रह सकता है। बहरहाल, कांग्रेस राज में कई सरकारी  बंगले पार्टी के विभिन्न संगठनो युवक कांग्रेस , सेवा दल , महिला कांग्रेस , इंटक आदि के लिए आवंटित होते रहे। मुख्यालय बनाने के लिए पहले रायसीना रोड पर जमीन मिली तो भव्य जवाहर भवन बना। एक और जमीन दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर मिली हुई थी उस पर बिल्डिंग बनाने के लिए अपने सत्ता काल में सोनिया गांधी और डॉक्टर मनमोहन सिंह ने शिलान्यास किया।

अब 15 साल बाद 15 जनवरी को सही मुहूर्त मानकर सोनिया गाँधी , राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे 6 मंजिले आधुनिक सुविधा संपन्न मुख्यालय का उद्घाटन करेंगे। फिर भी पुराने बंगले खाली नहीं करने की कुछ बातें नेताओं ने कही है। मजेदार बात यह है कि कुछ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट फैसला दे चुका है कि राजनीतिक पार्टियां सरकारी बंगले खाली करें। लेकिन कांग्रेस ही नहीं भाजपा या कुछ अन्य दल अपने आनुषंगिक संगठनों के नाम पर इन्हें अपने पास रखे हुए हैं।  

दूसरी दिलचस्प बात यह हुई है कि भाजपा का दफ्तर तो दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर होना उनके लिए गौरव है। कांग्रेस को इस नाम पर कष्ट रहा, इसलिए उसने अपने मुख्यालय 'इंदिरा गाँधी भवन का मुख्य द्वार दूसरी तरफ बनाया, ताकि पते में फ़िरोज़शाह कोटला मार्ग लिखा जा सके। यों कांग्रेस में अब राहुल गांधी के दादाजी फ़िरोज़ गांधी का नाम नहीं लिया जाता है।  

कांग्रेस दिल्ली विधान सभा चुनाव के दौरान इंदिरा गाँधी के नाम पर भवन का धूमधाम से उद्घाटन कर रही हैं। वह इंदिराजी अपने अध्यक्ष और प्रधान मंत्री कार्यकाल में शहरी आय और संपत्ति के नियंत्रण के सिद्धांत और बैंक बीमा कंपनियों के राष्ट्रीयकरण को अपने दस सूत्रीय कार्यक्रम में महत्व देती रहीं। क्या राहुल गाँधी उसी सिद्धांत पर दिल्ली या देश के अन्य हिस्सों में जनता का समर्थन लेने का अभियान चलाएंगे? यही नहीं प्रदेशों के कांग्रेसी कार्यकर्ता ही नहीं नेता तक वर्षों से राहुल गांधी से मिलने तक में बड़ी भारी बाधाएं होने से इंदिरा युग में नियमित रुप से सामान्य लोगों से मिलने की परम्परा को याद दिलाते हैं। अभी तो 24 अकबर रोड पर भी सोनिया राहुल गांधी के कमरे यदा कदा खुलते थे। क्या फाइव स्टार नए मुख्यालय में जनता आसानी से नेताओं से मिल सकेगी?

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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