प्रसाद मिलावट कांड से मंदिरों पर सरकारी कब्जे से मुक्ति की मांग अब तेज होगी: आलोक मेहता

जनता की आस्था ही नहीं उनके स्वास्थ्य और जीवन से जुड़ी बातों पर प्राथमिकता के साथ अभियान की आवश्यकता है। आंध्र में जून में सत्ता परिवर्तन हुआ था।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 23 September, 2024
Last Modified:
Monday, 23 September, 2024
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आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

आंध्र प्रदेश के तिरुपति मंदिर के लड्डूओं में मिलावट पर देश दुनिया में हंगामा हो गया है। आंध्र के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने स्वयं बाकायदा लेबोरटरी की प्रामाणिक रिपोर्ट के साथ यह भंडाफोड़ किया। उन्होंने बताया कि पिछली वाईएसआरसीपी के नेतृत्व वाली जगनमोहन रेड्डी सरकार के दौरान तिरुपति के श्रीवेंकटेश्वर मंदिर में पवित्र प्रसाद लड्डू बनाने में घटिया सामग्री और जानवरों की चर्बी, मछली के तेल आदि का उपयोग किया गया। स्वाभाविक है कि इस गंभीर मामले पर राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक संगठनों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की।

वही इस पूरे विवाद के बीच एक बार फिर से देशभर के मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किए जाने की मांग उठने लगी है। प्रसाद में मिलावट पर राजनीति से हटकर एक और गंभीर मुद्दा देश भर में दूध, घी, तेल, मसाले, सब्जी, फल सहित अनेक खाद्य वस्तुओं में मिलावट के मामलों पर कठोर सजा न होने , सरकारी खाद्य संरक्षण संस्थानों और नियम कानूनों की कमियों, मामलों के मामले लटके रहने का है। जनता की आस्था ही नहीं उनके स्वास्थ्य और जीवन से जुड़ी बातों पर प्राथमिकता के साथ अभियान की आवश्यकता है।

आंध्र में जून में सत्ता परिवर्तन हुआ था। जिसके बाद चंद्रबाबू नायडू की पार्टी सत्ता में वापस आई है। मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद चंद्रबाबू नायडू ने मंदिर के लड्डुओं में मिलावट की आशंका जाहिर की थी। जिसके बाद मंदिर प्रशासन ने सप्लाई किए गए घी के सैंपल लेकर जांच के लिए गुजरात स्थित डेयरी विकास बोर्ड  की लैब 'सेंटर ऑफ एनालिसिस एंड लर्निंग इन लाइव स्टॉक एंड फूड' ( भेजे थे। जिसके बाद लैब की रिपोर्ट में चौंकाने वाले खुलासे हुए। एनडीडीबी लैब की रिपोर्ट से पता चला कि शुद्ध घी में शुद्ध दूध में वसा की मात्रा 95.68 से लेकर 104.32 तक होना चाहिए था। लेकिन सैंपल्स में मिल्क फैट की वेल्यू 20 ही पाई गई थी। जिससे इस मिलावटी घी के बारे में खुलासा हुआ।

जिसके बाद बड़ा विवाद उठ खड़ा हुआ। लैब की रिपोर्ट के मुताबिक इन सैंपल में  सोयाबीन, सूरजमुखी, जैतून का तेल, गेंहू, मक्का, कॉटन सीड, मछली का तेल, नारियल, पाम ऑयल, बीफ टैलो, लार्ड जैसे तत्व पाए गए हैं। इस घी को चेन्नई की एक कंपनी की कंपनी ने सप्लाई किया था। आरोप यह भी आया कि उस कंपनी के प्रबंधन में पूर्व मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी के रिश्तेदार भी शामिल हैं। आंध्र के पूर्व सीएम जगन मोहने ने कहा कि घी की सप्लाई के लिए हर 6 महीने में टीटीडी टेंडर जारी करता है। रूटीन के तहत ही जो लोग चुने जाते हैं, उन्हें टेंडर दिया जाता है। ये मानदंड कोई आज तय नहीं हुए है। वे 10 साल से इसी तरह चले आ रहे हैं।

इस पूरे मामले पर मंदिर समिति तिरुमला तिरुपति देवस्थानम की ओर से भी बयान जारी किया गया है। तिरुमला तिरुपति देवस्थानम मंदिर के एक्जीक्यूटिव ऑफिसर श्यामला राव ने भी स्वीकार किया है कि हमारे मंदिर की पवित्रता भंग हुई है। पिछली सरकार ने मिलावट की जांच के लिए कोई कदम नहीं उठाए थे।जब मैंने टीटीडी की कार्यकारी अधिकारी का पदभार संभाला था, तो मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने खरीदे गए घी और लड्डू की गुणवत्ता पर चिंता व्यक्त की थी। राव ने कहा कि, वह चाहते थे कि मैं यह सुनिश्चित करने के लिए कड़े कदम उठाऊं। हमने इस पर मामले पर काम करना शुरू किया है।

तब हमने पाया कि हमारे पास घी में मिलावट की जांच करने के लिए कोई आंतरिक प्रयोगशाला नहीं है। बाहरी प्रयोगशालाओं में भी घी की गुणवत्ता की जांच करने की कोई व्यवस्था नहीं है। इसके अलावा भगवान को चढ़ने प्रयोग किए जा रहे शुद्ध घी कीमत 320 रुपये रखी गई थी। जो संदेह पैदा कर रही थीं। शुद्ध घी की कीमत कम से कम 500 रुपये प्रति किलो होने चाहिए थी। तिरुपति बालाजी के प्रसाद में मिलने वाले लड्डू पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं। इन्हें जीआई का टैग भी मिला है। मंदिर प्रशासन हर रोज शुद्ध देसी घी के 3.50 लाख लड्डू तैयार करता है।

इन लड्डुओं को बनाने में शुद्ध बेसन की बूंदी, चीनी, काजू और शुद्ध घी का इस्तेमाल किया जाता है। यहीं लड्डू तिरुपति मंदिर का मुख्य प्रसाद होते है। मंदिर के प्रसाद को बनाने के लिए मंदिर हर साल करीब 5 लाख किलो और हर महीने 42000 किलो घी तिरुमला तिरुपति देवस्थानम की ओर से खरीदता है। इस घी की खरीद के लिए मंदिर प्रशासन टेंडर जारी करता है। नए  मुख्यमंत्री ने कहा है कि इस भ्रष्टाचार में शामिल किसी भी व्यक्ति को बख्शा नहीं जाएगा। इस मामले में सरकार की ओर से कई लोगों के खिलाफ कार्रवाई शुरु हो गई है।

कंपनी को सरकार की ओर से प्रतिबंधित कर दिया गया है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू से इस मामले में विस्तृत रिपोर्ट मांगी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने कहा कि है  उन्होंने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू से बात की है और तिरुपति लड्डू मुद्दे पर रिपोर्ट मांगी है। उन्होंने कहा कि केंद्र इस मामले में खाद्य सुरक्षा नियमों के तहत कार्रवाई करेगा। भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) इसकी जांच करेगा, रिपोर्ट देगा और फिर हम कार्रवाई करेंगे।

सवाल यह है कि यह प्राधिकरण कितना सक्षम है। उसके प्रशासन, व्यवस्था , अधिकार आदि पर केंद्र सरकारों ने कितना ध्यान दिया। गड़बड़ियों और भ्र्ष्टाचार की शिकायतों पर कितनी कार्रवाई हुई? वहीँ मिलावट पर राज्य सरकारों और स्थानीय नगर निगम पालिका मिलावट रोकने के लिए क्या पर्याप्त कार्रवाई कर रही हैं?लचर प्रशासनिक कार्यप्रणाली के कारण मिलावटखोरों पर पूरी तरह से शिकंजा नहीं कस पाता है। मिलावट के लगभग सभी मामलों में जुर्माना लगता है, सजा नहीं हो पाती है।  

पिछले पांच साल में सजा का कोई बड़ा फैसला नहीं  हुआ है। हालांकि, भारतीय दंड संहिता में मिलावटखोरों पर कड़ी सजा का प्रावधान है, लेकिन मिलावट से संबंधित 90 फीसदी मामले प्रशासनिक कोर्ट में स्थानांतरित हो जाते हैं, जिस कारण वह न्यायालय की कार्रवाई से बच जाते हैं। भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकने के लिए सख्त सजा की सिफारिश की है। खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण द्वारा 2006 के खाद्य सुरक्षा एवं मानक कानून में प्रस्तावित संशोधनों के अनुसार खाद्य उत्पादों में मिलावट करने वालों को आजीवन कारावास और 10 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है।

खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम, 2006 के क्रियान्वयन और प्रवर्तन का दायित्व राज्य सरकारों का है। राज्य खाद्य सुरक्षा अधिकारियों द्वारा खाद्य पदार्थों के नमूने लिए जाते हैं और विश्लेषण के लिए द्वारा मान्यता प्राप्त प्रयोगशालाओं में भेजे जाते हैं। जिन मामलों में नमूनों में मिलावट पाई जाती है, वहां अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार कार्रवाई की जाती है।

मजेदार बात यह है कि यह प्राधिकरण केवल भारत की खाद्य बल्कि विश्व भर से आने वाली खाद्य वस्तुओं, सौंदर्य प्रसाधन की मान्यता स्वीकृति देने का अधिकार रखता है। विदेशी वस्तुओं के आयात की अनुमति में गड़बड़ी और भ्रष्टाचार पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है जबकि भारत कोडेक्स ( खाद्य पदार्थों के संरक्षण की संहिता का विश्व संगठन का सदस्य है। भारत के विशेषज्ञों को विदेशों में ज्ञान देने बुलाया जाता है। लेकिन भारत में अपनी ही सरकार उनकी लिखित सिफारिशों को समुचित महत्व देकर लागू नहीं कर पा रही है।

दूसरा मुद्दा देश के मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण का है। देशभर में मंदिरों पर से सरकार के नियंत्रण से मुक्त करने की मांग को लेकर पिछले एक दशक से आंदोलन हो रहे हैं। लोगों की मांग है कि सरकार इन मंदिरों को अपने नियंत्रण से मुक्त करे। इससे मंदिर बोर्ड में हो रहे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा। कई लोग मानते हैं, ‘हिंदू मंदिरों की स्वतंत्रता’ आंदोलन न तो 2014 के बाद शुरू हुआ कोई नया संघर्ष है और न ही यह सांप्रदायिक एजेंडे का हिस्सा है। सुधार के बाद के भारत में जहां राज्य अपनी अधिकांश संपत्तियों, कंपनियों और अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को उदार बना रहा है, मंदिर अभी भी उसके नियंत्रण में हैं।

मंदिरों को मुक्त करने के आंदोलन से जुड़े लोगों का कहना है कि हिंदू मंदिरों पर नियंत्रण धार्मिक क्षेत्र में ‘लाइसेंस परमिट राज’ का दर्श उदाहरण है। सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की मांग कर रहे लोगों का कहना है कि भारतीय लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष राज्य 1947 से अस्तित्व में है जबकि अधिकांश हिंदू मंदिर सदियों पुराने हैं। यह तथ्य कि वे अभी भी फल-फूल रहे हैं, इस बात का प्रमाण है कि दशकों तक स्थानीय भक्तों द्वारा उनका प्रबंधन कैसे किया गया था।

दूसरी तरफ सरकार की तरफ से नए-नए कानून के जरिये मंदिरों पर नियंत्रण का दायरा बढ़ाया जाता रहा है। मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुकी है। शीर्ष अदालत की तरफ से भी मंदिरों पर सरकार के नियंत्रण को अनुचित ठहराय जा चुका है। सुप्रीम कोर्ट में जज रहे रिटार्यड जस्टिस एसए बोबडे ने 2019 में पुरी के जगन्नाथ मंदिर से संदर्भ में कहा था कि मैं नहीं समझ पाता कि क्यों सरकारी अफसरों को मंदिर का संचालन करना चाहिए? एक अनुमान के अनुसार देशभर के करीब 4 लाख मंदिरों पर सरकार का नियंत्रण है। इससे पहले साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में तमिलनाडु के नटराज मंदिर को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने को लेकर फैसला भी सुनाया था। उत्तराखंड में यह चुनावी मुद्दा बन गया था।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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सोनम रघुवंशी मामला भारतीय मां-बाप के लिए सबक : नीरज बधवार

एक इंसान अगर इस उम्र तक अपने लिए सही जीवनसाथी चुनने की ज़िम्मेदारी नहीं उठा सकता या उसे ऐसा करने की छूट नहीं है तो ये उस बच्चे और मां-बाप दोनों के लिए सोचने की बात है।

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 11 June, 2025
Last Modified:
Wednesday, 11 June, 2025
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नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

सोनम रघुवंशी का मामला एक आपराधिक मामले से कहीं ज़्यादा एक सामाजिक समस्या का मामला है। ये मामला बताता है कि मोटे तौर पर भारतीय मां-बाप की परवरिश के साथ क्या दिक्कत है। और उस दिक्कत पर बात करने के बजाए अगर हमने इसे सिर्फ एक 'हत्यारिन दुल्हन' की चटखारेदार स्टोरी मानकर छोड़ दिया तो ऐसे मामले फिर होते रहेंगे।

अब जो मैं कहने वाला हूं वो बातें बहुत लोगों को अच्छी नहीं लगेंगी लेकिन अच्छा लगने की सोचकर अगर बात की गई तो फिर कुछ कहने का मतलब ही क्या है। तो पहली बात तो ये है कि भारतीय समाज अभी भी बुरी तरह से जातिवाद से जकड़ा हुआ है। ज़्यादातर भारतीय मां-बाप को पता ही नहीं बच्चों को बड़ा कैसे करना है। उन्हें ज़िम्मेदार कैसे बनाना है। उन्हें अपने फैसले कैसे लेने देने हैं और किस वक्त उनकी ज़िंदगी में दखल देना बंद कर देना है। और जो भी मां-बाप अपने बच्चों की ज़िंदगी को जकड़कर रखते हैं तो वहां बच्चे या तो कुंठित होकर बेहद आक्रामक हो जाते हैं या फिर एकदम ही दब्बू और डरपोक बन जाते हैं। और सोनम और राजा इसी अतिवाद के, इसी Extreme के दो उदाहरण हैं।

सोनम और राजा के केस में दोनों ही सम्पन्न परिवारों से आते हैं। दोनों अच्छे स्कूल-कॉलेजों में भी गए होंगे। दोनों के दोस्त भी रहे होंगे। फिर आखिर वो कौन सी मजबूरी आ जाती है कि 27-28 साल के बच्चों की शादी के वक्त आपके 'उचित रिश्ता' ढूंढने के लिए समाज के रजिस्टर में नाम लिखवाना पड़ता है। एक इंसान अगर इस उम्र तक अपने लिए सही जीवनसाथी चुनने की ज़िम्मेदारी नहीं उठा सकता या उसे ऐसा करने की छूट नहीं है तो ये उस बच्चे और मां-बाप दोनों के लिए सोचने की बात है।

अगर आपको एक शर्ट भी खरीदनी होती है तो आप ये चेक करते हैं कि शर्ट का साइज़, रंग और फैब्रिक आपकी पसंद हो। आप शर्ट खरीदने मां-बाप को नहीं भेजते खुद जाते हैं। तो फिर जिस इंसान के साथ आपको सारी ज़िंदगी निभानी है। उसकी तरबीयत आपके जैसी है या नहीं, उसके जीवन मूल्य आपसे मेल खाते हैं या नहीं। उसकी वेव लेंथ आपसे मिलती है या नहीं, ये आपके मां-बाप या समाज के रजिस्टर में नाम लिखवाने पर हुई एक-आध मुलाकात कैसे तय कर सकती है!
सोनम के पिता से जब एक रिपोर्टर ने पूछा कि क्या उसकी किसी लड़के से दोस्ती थी, तो उनका जवाब था कि नहीं 'हमारी बच्ची तो बड़ी सीधी है'। वो तो भाई के साथ ऑफिस जाती थी और वहीं से वापस आ जाती थी। वो ऐसे किसी 'फालतू काम' में नहीं थी।

उनका ये बयान बहुत कुछ बताता है। अगर मां-बाप की नज़र में 26-27 साल के लड़के या लड़की का किसी से दोस्ती करना फालतू चीज़ है, तो ऐसा बच्चा किसी से दोस्ती होने पर भी कभी घर पर बताने की हिम्मत नहीं करेगा और शादी करने की तो भूल ही जाओ। ऐसे में फिर होता ये है कि आप जिस भी पहले मर्द या औरत के साथ संपर्क में आते हैं, आपको उसमें ही आकर्षण लगने लगता है।

चूंकि आपके पास opposite gender के साथ एक सहज संवाद का कोई अनुभव नहीं है, आपकी किसी से दोस्ती नहीं रही इसलिए ऐसा पहला अनुभव ही आपको रोमांचित कर देता है। उस रोमांच की तीव्रता, उसकी शिद्दत इतनी ज़्यादा हो जाती है कि अगर उसकी नाक टेढ़ी है, तो दो-चार दिनों में वो सीधी हो जाती है। उसकी देह दुर्बल सुडौल हो जाती है। उसकी आवाज़ दबी हुई है तो उसमें एक बैरी टोन आ जाती है और देखते-देखते ही वो इंसान आपको अपने सपनों के राजकुमार या राजकुमारी जैसा लगने लग जाता है।

मतलब आप सामने वाले से नहीं, जीवन में पहली बार 'चुनाव करने की अपनी स्वतंत्रता' से प्यार करने लगते हो। और किसी भी इंसान को गुलामी का चयन भी थोपी हुई स्वतंत्रता से प्यारा लगता है।

इसी के उलट अगर आप पर कोई बंधन न हो। आपको पता हो कि मैं वयस्क हूं। मैं अपने हिसाब से किसी से भी दोस्ती कर या तोड़ सकता हूं। नए दोस्त बना सकता हूं और अपना जीवनसाथी खुद चुन सकता हूं। तो आप अपने फैसलों में उतने भावुक और जल्दबाज़ नहीं होते। लेकिन सोनम जैसे केस में जब इंसान पहली बार कोई रिश्ता बनाता है और उस पर भी आपको पता हो कि घरवाले इसके लिए तो नहीं मानेंगे, तो आप दिमाग से नहीं पूरी तरह दिल से सोचने लगते हो।

फिर आप अपनी कंपनी के औसत दिखने वाले एक छोटे कर्मचारी के लिए अपने करोड़पति अच्छे दिखने वाले पति तक को मरवाने के लिए तैयार हो जाते हो।
जिन भी लोगों ने ज़िंदगी में प्यार किया है वो जानते हैं कि पहला ब्रेकअप बहुत मुश्किल होता है। फिर चाहे वो किसी भी उम्र में क्यों न हो। आप अपने रिश्ते को बचाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार होते हैं। आप emotionally vulnerable होते हैं। अब इस emotional vulnerability की स्टेज में कौन आदमी कैसे रिएक्ट करेगा ये उसके मूल स्वभाव पर निर्भर करता है।

ज़्यादातर मामलों में लड़के-लड़कियां इसे अपनी नियति मानकर उससे समझौता कर लेते हैं। शादी के कुछ वक्त बाद तक सामने वाले को याद कर भावुक भी होते हैं। मगर फिर बच्चे होने पर धीरे-धीरे सामान्य जिंदगी में लौट जाते हैं और एक वक्त आता है जब आपको अपने उस प्यार की याद भी नहीं आती।

लेकिन कुछ केस सोनम जैसे भी होते हैं। जब लड़का और लड़की दोनों अपनी-अपनी वजहों से रिश्ते में बने रहने के लिए क्राइम तक करने के लिए तैयार हो जाते हैं। और वही इस केस में हुआ भी। लेकिन जैसा मैंने शुरू में कहा कि अगर इस मामले को हमने एक हत्यारिन बहू की कहानी भर बताकर पल्ला झाड़ लिया तो इससे कुछ बदलेगा नहीं। समस्या इससे बहुत गहरे बच्चों की परवरिश में है। जैसा कि खलील जिब्रान ने कहा था कि हर मां-बाप को ये समझना चाहिए कि बच्चे आपके माध्यम से इस दुनिया में आए हैं लेकिन वो आपके नहीं हैं! वो अपनी स्वतंत्र चेतना, स्वतंत्र आत्मा लेकर पैदा हुए हैं। लेकिन जब आप 28-30 के बच्चों को भी ऐसे ट्रीट करते हैं जैसे वो 10-12 साल के हों, तो आप बच्चों और अपनी दोनों की ज़िंदगी बर्बाद कर रहे हो।

हमने सोनम की बात की, उनके पिता की भी बात की। मगर राजा रघुवंशी की माताजी की मैंने जितनी बातें सुनी हैं वो भी इसी समस्या की तरफ इशारा करती हैं। फोन पर बेटे को इस बात पर डांट रही हैं कि मैंने तुझे कहा था कि सोने की चेन मत पहनकर जाना, फिर क्यों गया। अरे तुमने अभी तक अपने वीडियो नहीं भेजे, अब तुम्हारे वापसी को कितने दिन रह गए। घूमने गई बहू से पूछ रही हैं कि मुझे याद आया कि आज तो तुम्हारा व्रत होगा, तुमने कुछ खाया या नहीं। अब ये सब बातें बहुत सारे लोगों को मां का बच्चों के लिए प्यार लगेंगी लेकिन यकीन मानिए दोस्तों, इसे प्यार नहीं घुसपैठ कहते हैं।

अगर बहू ने कह दिया कि तुम सोने की चेन पहनकर चलना, तो बेटे को क्या करना है ये उस पर छोड़ दीजिए। अगर वो पहनकर चला जाता है तो उसे दस साल के बच्चे की तरह डांटिए मत। अगर हनीमून के दौरान कोई व्रत पड़ भी गया तो खुद बहू को कहिए कोई बात नहीं बेटा तुम व्रत मत रखना। हनीमून आदमी ज़िंदगी में एक बार जाता है। जब इंसान घूमने जाता है तो असली मज़ा खाने-पीने का ही होता है। ऐसे में तुम व्रत नहीं रखोगे तो कोई बात नहीं। तुमने वीडियो नहीं भेजे, तुम कब आओगे ,मैं जानता हूं ये सब सवाल भारतीय घरों में बहुत सामान्य हैं। लेकिन इसे ही रिश्तों में overlapping कहते हैं।

सामने वाले को स्पेस दीजिए। फिर चाहे वो आपके बच्चे हों या आपके मां-बाप। अपनी सारी भावनात्मक ऊर्जा बच्चों में मत खपा दीजिए। उम्र होने के बावजूद अपनी ही भी एक लाइफ रखिए। कुछ शौक रखिए। और बच्चों को भी क्लियरली पता हो कि मां-बाप की भी अपनी ज़िंदगी है। वो हर वक्त हमें बैकअप देने के लिए या हमारे बच्चों की रखवाली के लिए नहीं हैं। इस तरह के स्पेस से हर किसी की ज़िंदगी खुशहाल रहती है।

अगर आप 30 साल के शादीशुदा आदमी को भी हर चीज़ के लिए टोकेंगे तो उसमें कॉन्फिडेंस कहां से आएगा। मैं कुछ दिन पहले एक पेरेंटिंग कोच से पॉडकास्ट कर रहा था, उन्होंने कहा कि एक लेडी अपने 36 साल के लड़के को मेरे पास लेकर आई। साथ में उसके बेटे के बच्चे भी थे। कोच ने बताया कि उस 36 साल के बच्चों में उस आदमी से ज़्यादा कॉन्फिडेंस था और वो मां अपने 36 साल के लड़के के बारे में ऐसे बात कर रही थी जैसे वो 15 साल का हो।

राजा के एक करीबी दोस्त का मैं टीवी पर इंटरव्यू सुन रहा था। वो बता रहे थे कि वो तो बहुत शरीफ था। कुछ हद तक डरपोक भी था। और यही बात मैंने शुरू में कही थी कि अगर मां-बाप बहुत dominating होंगे तो या तो बच्चा कुंठित होकर बागी हो जाएगा या फिर वो दब्बू बन जाएगा। लेकिन वो सहज नहीं बन पाएगा। उसकी पर्सनैलिटी में खुलापन नहीं होगा।

अब ये सवाल किया जा सकता है कि लेकिन जिन घरों में मां-बाप बच्चों को छूट देते हैं वो भी तो एग्रेसिव बन जाते हैं या कुछ बच्चे तमाम छूट के बाद भी दब्बू रह जाते हैं। इस पर यही कहूंगा कि स्वतंत्रता ultimate चीज़ है। एक उम्र के बाद पूरी तरह आज़ाद होकर अपने लिए हर तरह के फैसले कर पाना हर इंसान का हक है। अब वो उस स्वतंत्रता के साथ क्या करता है, ये उसका चयन है। किसी के खराब चयन से स्वतंत्रता बदनाम नहीं हो जाती। उसी तरह अगर लोकतंत्र में कुछ खामियां हैं तो ये अपने आप में कोई दलील नहीं है कि तानाशाही या राजशाही ज़्यादा बेहतर व्यवस्था है।

असल चुनौती है राष्ट्रों या व्यक्तियों को मिली स्वतंत्रता का ज़िम्मेदार इस्तेमाल। और राष्ट्रों या व्यक्तियों को ये बात समझ एकदम से नहीं आती। अमेरिका जैसे दुनिया के सबसे आधुनिक देश को आज़ाद होने के 146 साल बाद समझ आया कि महिलाओं को भी वोटिंग का अधिकार देना चाहिए। अमेरिका को अपनी आज़ादी के 90 साल बाद समझ में आया कि दासप्रथा को ख़त्म करना चाहिए।

इसी तरह हाइवे में ज़मीन आने पर मिले पैसों से थार लेकर हुड़दंग करने वाली एक पूरी पीढ़ी को भी ये समझने में वक्त लगेगा कि पैसा आने के मतलब ये नहीं कि सड़क पर गंदे तरीके से गाड़ी चलाओ। बॉडी बनाकर किसी से लड़ने का बहाना ढूंढो। कॉरपोरेट में नौकरी कर मोटा पैसा कमाने वालों की भी एक पूरी पीढ़ी को ये पता लगने में वक्त लगेगा कि जीवन का मतलब सिर्फ उस पैसे के दम पर भौतिकता खरीदना नहीं है। स्टार्टअप के नाम पर सिर्फ फंडिंग उठाकर खुद की वैल्यूएशन 100 करोड़ दिखाने वालों की भी पूरी एक-दो पीढ़ी के बाद पता लगेगा कि धंधा बनाने और सोसाइटी के लिए वैल्यू क्रिएट करने में क्या फर्क है।

इसी तरह हमें अपने बच्चों को बिना घबराए एक दोस्त की तरह उनके साथ चलते-चलते, दुनिया के लिए उन्हें तैयार करते-करते, एक वक्त बाद उन्हें आज़ाद कर देना चाहिए। और यकीन मानिए इस देश की सारी आर्थिक तरक्की, सारा इनोवेशन, सारी क्रिएटिविटी और सारा नैतिक विकास उस आज़ादी से ही निकलेगा। और जब तक हम ऐसा नहीं करते तब तक सामाजिक समस्याओं को क्राइम थ्रिलर मानकर उसके चटखारे लेते रहेंगे। इससे हमें तो मज़ा तो बहुत आएगा मगर हकीकत वैसी ही बेस्वाद बनी रहेगी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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मस्क को राष्ट्रपति ट्रम्प से दुश्मनी बहुत महंगी पड़ सकती है : रजत शर्मा

उन्होंने आरोप लगाया कि बच्चों और कम उम्र की लड़कियों के यौन शोषण के आरोपी जेफरी एप्स्टीन की फाइल में ट्रंप का भी नाम है, इसीलिए ट्रंप ने एप्स्टीन फाइल्स को सार्वजनिक नहीं किया।

Samachar4media Bureau by
Published - Tuesday, 10 June, 2025
Last Modified:
Tuesday, 10 June, 2025
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रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

अमेरिका की राजनीति में एक बड़ा तूफान आया। राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और खरबपति एलन मस्क ने एक दूसरे के खिलाफ खुलेआम जंग का ऐलान कर दिया। दो दिन पहले तक जो दोस्त नंबर वन थे, वो अब दुश्मन नंबर वन हो गए। ट्रंप ने खुलेआम धमकी दी कि वो मस्क की कंपनियों को मिलने वाली सरकारी सहायता और ठेकों को रद्द कर देंगे। ट्रंप का कहना है कि अमेरिकी जनता के अरबों डॉलर बचाने का ये सबसे आसान तरीक़ा है। एलन मस्क ने जवाबी हमला करते हुए ट्रंप को अहसान फ़रामोश करार दिया।

ट्रंप को राष्ट्रपति के पद से हटाने के लिए उनके ख़िलाफ़ महाभियोग प्रस्ताव लाने की मांग की। यहां तक कह दिया कि ट्रंप पर यौन उत्पीड़न के इल्ज़ाम हैं। कुछ ही घंटों में मस्क ने अपने सोशल मीडिया पर ट्रंप के ख़िलाफ़ आरोपों की बौछार कर दी। मस्क ने X पर लिखा कि उन्होंने ट्रंप को चुनाव जितवाया, राष्ट्रपति बनवाया। मस्क ने ट्विटर पर लिखा कि उनकी मदद के बग़ैर ट्रंप चुनाव नहीं जीत सकते थे। इसके बाद ट्रंप ने खुलासा किया कि मस्क ने अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा को चलाने के लिए जिस उम्मीदवार के नाम की सिफारिश की थी, वो उन्हें ठीक नहीं लगा।

वो डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थक निकला। ये बात सुनकर मस्क और भड़क गए। जवाब में मस्क ने ट्वीट किया कि अब एक बड़ा बम फोड़ने का टाइम आ गया है। उन्होंने आरोप लगाया कि बच्चों और कम उम्र की लड़कियों के यौन शोषण के आरोपी जेफरी एप्स्टीन की फाइल में ट्रंप का भी नाम है, इसीलिए ट्रंप ने एप्स्टीन फाइल्स को सार्वजनिक नहीं किया। एपस्टीन फाइल्स का ज़िक्र बहुत सनसनीखेज़ है क्योंकि जेफरी एप्स्टीन सेक्सुअल pervert के तौर पर बहुत बदनाम थे।

उनका केस सामने आने के बाद अमेरिका और यूरोप में तहलका मच गया था। ब्रिटेन के राजा चार्ल्स के भाई, प्रिंस एंड्र्यू भी इसकी चपेट में आ गए थे। अब एलन मस्क ने एक वीडियो पोस्ट करके धमकी दी कि वो जेफरी एपस्टीन और डॉनल्ड ट्रंप के कनेक्शन को एक्सपोज़ करेंगे। ट्रंप के साथ दोस्ती में दरार का मस्क को भारी नुकसान हुआ है।

एक ही दिन में टेस्ला के शेयर में भारी गिरावट आई। कंपनी का नेटवर्थ 150 अरब डॉलर गिर गया। सवाल ये है कि जब अमेरिका के सबसे ताकतवर ट्रंप और सबसे अमीर मस्क के बीच लड़ाई होगी तो इसका असर क्या होगा? दोनों की ego है। दोनों hot headed हैं। दोनों पावरफुल हैं। एक दूसरे का जबरदस्त नुकसान कर सकते हैं। ट्रंप ने कॉन्ट्रैक्ट खत्म किए तो मस्क की कंपनियों को अरबों डालर का नुकसान होगा। Self driving cars का प्रोजेक्ट Roll-out करने के लिए मस्क को ट्रंप की परमिशन की जरूरत होगी।

व्हाइट हाउस ने emission rules बदले तो TESLA की millions of dollars की कमाई बंद हो जाएगी। दूसरी तरफ मस्क की स्पेस X कंपनी अमेरिका की इकलौती space firm है जो NASA को इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन जाने के लिए स्पेसक्राफ्ट उपलब्ध कराती है। मस्क ने धमकी दी है कि वो इसमें अड़ंगा डाल सकते हैं। इससे अमेरिका के स्पेस प्रोग्राम पर असर पड़ेगा।

मस्क ने ट्रंप को चुनाव जिताने के लिए 28.8 करोड डॉलर चंदा दिया था। अब वो Republicans को ट्रंप के बिल के खिलाफ वोट देने के लिए फायनेंस कर सकते हैं। मस्क अपनी एक नई पॉलिटिकल पार्टी बना सकते हैं। लेकिन मस्क का सबसे खतरनाक हथियार है, ट्रंप को यौन अपराधों से जूड़ें एप्स्टीन से जोड़ने की धमकी। लेकिन ट्रंप तो ट्रंप हैं। वो इससे भी खतरनाक रास्तों से गुजर चुके हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि अमेरिका में प्रेसिडेंट की ताकत असीमित होती है। किसी भी बिजनेसमैन को व्हाइट हाउस में दोस्त की जरूरत होती है। राष्ट्रपति से दुश्मनी बहुत महंगी पड़ सकती है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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कम्युनिस्ट नैरेटिव के नामवर आलोचक : अनंत विजय

नामवर सिंह और उन जैसे अन्य पार्टी लेखकों के कहने पर मान लिया गया कि प्रेमचंद ने अध्यक्षता की थी। नामवर को किसी दस्तावेज आदि के आधार पर ये कहना चाहिए था।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 09 June, 2025
Last Modified:
Monday, 09 June, 2025
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

हिंदी आलोचना में नामवर सिंह का नाम आदर के साथ लिया जाता रहा है। आरंभिक दिनों में उन्होंने विपुल लेखन किया। कालांतर में लेखन उनसे छूटा। वो भाषण और व्याख्यान की ओर मुड़ गए। दोनों स्थितियों में नामवर सिंह ने कम्युनिस्ट पार्टी के लिए कार्य किया। उनके निर्देशों के आधार पर नैरेटिव बनाने और बिगाड़ने का खेल खेला। आलोचना में भी उन्होंने नैरेटिव ही गढ़ा। उनके लेखों के विश्लेषण से ये स्पष्ट है।

नामवर सिंह के शिष्यों ने उनके व्याख्यानों का लिप्यांतरण करके पुस्तकें प्रकाशित करवाईं। पिछले दिनों नामवर सिंह के पुत्र विजय प्रकाश सिंह और उनके जीवनीकार अंकित नरवाल ने एक पुस्तक संकलित-संपादित की, जमाने के नायक। प्रकाशन वाणी प्रकाशन से हुआ है। पुस्तक की भूमिका में नरवाल ने नामवर सिंह के बनने और सुदृढ होने को रेखांकित किया। उनकी प्रशंसा की, जो स्वाभाविक ही है। इस पुस्तक के लेखों में नामवर सिंह की आलोचना में फांक दिखती है। आलोचक कम पार्टी कार्यकर्ता अधिक लगते हैं। जिन साहित्यिक घटनाओं और कथनों को उद्धृत करके स्थापना देते हैं वो उनकी आलोचकीय ईमानदारी और विवेकको संदिग्ध बनाती है।

राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित पुस्तक ‘लेनिन और भारतीय साहित्य’ से साभार नामवर सिंह का एक लेख इस पुस्तक में है। नामवरीय आलोचना का ऐसा उदाहरण जो उनकी छवि को धूमिल करता है। नामवर सिंह 1917 के बाद भारत की राजनीति को लेनिन से जोड़कर रूसी क्रांति के प्रभाव की पताका फहराते हैं। साहित्य में भी। वो लिखते हैं, साहित्य का इस वातावरण से सर्वथा अस्पृष्ट रहना असंभव था।

1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना आकस्मिक नहीं बल्कि इन घटनाओं की सहज परिणति थी जिसके संगठनकर्ता लेनिन के विचारों को मानने वाले नौजवान कम्युनिस्ट थे, किंतु जिसमें निराला और पंत जैसे हिंदी के कवियों ने सहर्ष भाग लिया और अखिल भारतीय ख्याति के कथाकार प्रेमचंद ने जिसके अधिवेशन की अध्यक्षता की।इसी पुस्तक में एक और लेख संकलित है, गोर्की और हिंदी साहित्य।

यहां वो जोर देकर कहते हैं कि, तथ्य है कि गोर्की की मृत्यु से तीन महीने पहले प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में योग देकर भारत में प्रगतिशील साहित्य के आंदोलन का सूत्रपात कर चुके थे। प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष पद से उन्होंने जो भाषण दिया था, वो गोर्की के विचारों का भारतीय भाष्य मात्र नहीं बल्कि भारत को अपने ऐतिहासिक संदर्भ में निर्मित साहित्य का सर्जनात्मक दस्तावेज है। यहां वो फिर से ये कहते हैं कि प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता की।

नामवर ऐसा कहते हुए कहीं भी किसी सोर्स का उल्लेख नहीं करते हैं। सुनी-सुनाई बातें बार-बार लिखते हैं। नामवर सिंह और उन जैसे अन्य पार्टी लेखकों के कहने पर मान लिया गया कि प्रेमचंद ने अध्यक्षता की थी। नामवर को किसी दस्तावेज आदि के आधार पर ये कहना चाहिए था। उल्लेख तो इस बात का भी मिलता है कि प्रेमचंद जैनेन्द्र के कहने पर अधिवेशन में शामिल होने चले गए थे। उनका भाषण देने का कार्यक्रम नहीं था। जब अधिवेशन में पहुंचे तो वहां उपस्थित साहित्यकारों ने उनसे आग्रह किया और वो मंच से बोले।

इसको प्रचारित करवा दिया गया कि प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापकों में से थे। बाद में संशोधन कर कहा जाने लगा कि वो पहले अधिवेशन के अध्यक्ष थे। अब प्रेमचंद के प्रगतिशील लेख संघ में दिए गए भाषण के अंश को देखते हैं, ‘प्रगतिशील लेखक संघ यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावत: प्रगतिशील होता है। अगर वो इसका स्वभाव न होता तो शायद वो साहित्कार ही नहीं होता। उसे अपने अंदर भी एक कमी महसूस होती है, इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है।‘

सामान्य सी बात है कि अगर वो अध्यक्षता कर रहे होते तो ये प्रश्न नहीं उठाते। नामवर सिंह कहते हैं कि प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में उनका योगदान था। अगर योगदान होता तो प्रगतिशीलता के नाम पर प्रेमचंद संघ के संस्थापकों के साथ पहले चर्चा करते। मंच से आपत्ति क्यों करते। अजीब मनोरंजक बात है कि लेखक संघ का नाम तय हो रहा था और स्थापना में योगदान करनेवाले को पता नहीं था।नामवर सिंह कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े थे। पार्टी के बाहर के लेखकों को वो येन केन प्रकारेण कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित साबित करने में लगे रहते थे।

इसके लिए चाहे किसी भी शब्द की कैसी भी व्याख्या क्यों न करनी पड़े। इसके पीछे भी लेनिन की सीख थी। उक्त लेख में नामवर सिंह ने उल्लेख किया है, लेनिन का एक निबंध पार्टी साहित्य और पार्टी संगठन, जिसमें पार्टी लेखकों से पूरी पक्षधरता का आग्रह किया गया था। नामवर सिंह ने लेनिन की पक्षधरता वाली बात अपना ली। अब निराला को लेनिन के प्रभाव में बताने के लिए वो उनकी 1920 की एक कविता बादल राग की पंक्तियां लेकर आए। पंक्ति है- तुझे बुलाता कृषक अधीर/ऐ विप्लव के वीर। अब इस पंक्ति में चूंकि कृषक भी है और विप्लव भी तो निराला कम्युनिस्ट हो गए।

विप्लव शब्द का प्रयोग निराला बांग्ला के प्रभाव में करते रहे हैं। राम की शक्ति पूजा से लेकर तुलसीदास जैसी उनकी लंबी कविता में भी ये प्रभाव दिखता है। खेत-खलिहान, किसान-मजदूर को बहुत आसानी से नामवर सिंह जैसे नैरेटिव-मेकर्स ने सर्वाहारा बना दिया था। नामवर सिंह ने तो जयशंकर प्रसाद को भी लेनिन से प्रभावित बता दिया। दिनकर की कविता में लेनिन शब्द आया तो उसपर लेनिन के विचारों का प्रभाव। वो स्वाधीनता के आंदोलन और आंदोलनकर्ताओं की भावनाओं को नजरअंदाज करके उसपर लेनिन की छाप बताने में लगे रहे।

लेखकों को कम्युनिस्ट घोषित और स्थापित करते रहे, तथ्यों की व्याख्या से छल करते हुए। प्रेमचंद अगर कह रहे हैं कि आनेवाला जमाना अब किसानों मजदूरों का है तो उनको कम्युनिस्ट या लेनिन के प्रभाव वाले बताने में नामवर ने जरा भी विलंब नहीं किया। वो कम्युनिस्टों को लाभ पहुंचानेवाला नैरेटिव गढ़ रहे थे। नामवरी आलोचना का एक और उदाहरण देखिए, ‘निराला ने भी प्रेमचंद की तरह लेनिन पर स्पष्टत: कहीं कुछ नहीं लिखा पर उनकी विद्रोही प्रतिभा में लेनिन का प्रभाव बीज रूप में सुरक्षित अवश्य था।‘

ये विद्रोही प्रतिभा अंग्रेजों के खिलाफ उस दौर के सभी लेखकों कवियों में मिलता है। एक जगह कहते हैं कि प्रेमचंद समाजवादी यथार्थवाद से प्रभावित थे या नहीं, इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है लेकिन इतना निश्चित है कि...। यह वही प्रविधि है जिसका निर्वाह इतिहास लेखन में रोमिला थापर और बिपिन चंद्रा जैसे इतिहासकारों ने किया। वो अपनी स्थापना तो देते हैं लेकिन साथ ही लिख देते हैं, इट अपीयर्स टू बी, पासेबली, प्रोबैबिली आदि।

इस प्रविधि का लाभ ये होता है कि आम पाठक वही समझता है जो लेखक कहना चाहता है। कभी अगर स्थापना पर सवाल उठे तो इन शब्दों की आड़ लेकर बचकर निकल सके। आज इस बात की आवश्कता प्रबल होती जा रही है कि नामवर सिंह ने कम्युनिस्ट पार्टी के लिए जो नैरेटिव गढ़ा उसको उजागर किया जाए क्योंकि उस नैरेटिव से किसी भी रचनाकार का सही आकलन संभव नहीं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण। 

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एआई की चुनौतियों के बीच मीडिया शिक्षा का भविष्य : प्रो.संजय द्विवेदी

एक समय था जब माना जाता है कि पत्रकार पैदा होते हैं और पत्रकारिता पढ़ा कर सिखाई नहीं जा सकती। अब वक्त बदल गया है। जनसंचार का क्षेत्र आज शिक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है।

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Published - Monday, 09 June, 2025
Last Modified:
Monday, 09 June, 2025
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प्रो.संजय द्विवेदी, पूर्व महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान-आईआईएमसी।

कृत्रिम बुद्धिमता के दौर में मीडिया और जनसंचार शिक्षा फिर चुनौतियों से घिरी है। बहुत सारे सामान्य काम अब एआई के माध्यम से संभव हो रहे हैं, जिनके लिए विशेषज्ञता की जरूरत नहीं है। एआई की गति, त्वरा और शुद्धता ने सामान्य पत्रकारों के लिए संकट खड़ा कर दिया है। एक समय था जब माना जाता है कि पत्रकार पैदा होते हैं और पत्रकारिता पढ़ा कर सिखाई नहीं जा सकती। अब वक्त बदल गया है। जनसंचार का क्षेत्र आज शिक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। वर्ष 2020 में भारत में मीडिया शिक्षा के 100 वर्ष पूरे हुए थे। वर्ष 1920 में थियोसोफिकल सोसायटी के तत्वावधान में मद्रास राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में डॉक्टर एनी बेसेंट ने पत्रकारिता का पहला पाठ्यक्रम शुरू किया था।

लगभग एक दशक बाद वर्ष 1938 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के पाठ्यक्रम को एक सर्टिफिकेट कोर्स के रूप में शुरू किया गया। इस क्रम में पंजाब विश्वविद्यालय, जो उस वक्त के लाहौर में हुआ करता था, पहला विश्वविद्यालय था, जिसने अपने यहां पत्रकारिता विभाग की स्थापना की। भारत में पत्रकारिता शिक्षा के संस्थापक कहे जाने वाले प्रोफेसर पीपी सिंह ने वर्ष 1941 में इस विभाग की स्थापना की थी। अगर हम स्वतंत्र भारत की बात करें, तो सबसे पहले मद्रास विश्वविद्यालय ने वर्ष 1947 में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की स्थापना की।

इसके पश्चात कलकत्ता विश्वविद्यालय, मैसूर के महाराजा कॉलेज, उस्मानिया यूनिवर्सिटी एवं नागपुर यूनिवर्सिटी ने मीडिया शिक्षा से जुड़े कई कोर्स शुरू किए। 17 अगस्त, 1965 को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने भारतीय जन संचार संस्थान की स्थापना की, जो आज मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में पूरे एशिया में सबसे अग्रणी संस्थान है। आज भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, रायपुर में कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय एवं जयपुर में हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय पूर्ण रूप से मीडिया शिक्षण एवं प्रशिक्षण का कार्य कर रहे हैं।

भारत में मीडिया शिक्षा का इतिहास 100 वर्ष से ज्यादा हो चुके हैं, परंतु यह अभी तक इस उलझन से मुक्त नहीं हो पाया है कि यह तकनीकी है या वैचारिक। तकनीकी एवं वैचारिकी का द्वंद्व मीडिया शिक्षा की उपेक्षा के लिए जहां उत्तरदायी है, वहां सरकारी उपेक्षा और मीडिया संस्थानों का सक्रिय सहयोग न होना भी मीडिया शिक्षा के इतिहास की तस्वीर को धुंधली प्रस्तुत करने को विवश करता है।

भारत में जब भी मीडिया शिक्षा की बात होती है, तो प्रोफेसर के. ई. ईपन का नाम हमेशा याद किया जाता है। प्रोफेसर ईपन भारत में पत्रकारिता शिक्षा के तंत्र में व्यावहारिक प्रशिक्षण के पक्षधर थे। प्रोफेसर ईपन का मानना था कि मीडिया के शिक्षकों के पास पत्रकारिता की औपचारिक शिक्षा के साथ साथ मीडिया में काम करने का प्रत्यक्ष अनुभव भी होना चाहिए, तभी वे प्रभावी ढंग से बच्चों को पढ़ा पाएंगे। आज देश के अधिकांश पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षण संस्थान, मीडिया शिक्षक के तौर पर ऐसे लोगों को प्राथमिकता दे रहे हैं, जिन्हें अकादमिक के साथ साथ पत्रकारिता का भी अनुभव हो।

ताकि ये शिक्षक ऐसा शैक्षणिक माहौल तैयार कर सकें, ऐसा शैक्षिक पाठ्यक्रम तैयार कर सकें, जिसका उपयोग विद्यार्थी आगे चलकर अपने कार्यक्षेत्र में भी कर पाएं। पत्रकारिता के प्रशिक्षण के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैं, उनमें से एक दमदार तर्क यह है कि यदि डॉक्टरी करने के लिए कम से कम एम.बी.बी.एस. होना जरूरी है, वकालत की डिग्री लेने के बाद ही वकील बना जा सकता है तो पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे को किसी के लिए भी खुला कैसे छोड़ा जा सकता है?

दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छह स्तरों पर होती है। सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में, दूसरे, विश्वविद्यालयों से संबंद्ध संस्थानों में, तीसरे, भारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों में, चौथे, पूरी तरह से प्राइवेट संस्थान, पांचवे डीम्ड विश्वविद्यालय और छठे, किसी निजी चैनल या समाचार पत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान। इस पूरी प्रक्रिया में हमारे सामने जो एक सबसे बड़ी समस्या है, वो है किताबें। हमारे देश में मीडिया के विद्यार्थी विदेशी पुस्तकों पर ज्यादा निर्भर हैं। लेकिन अगर हम देखें तो भारत और अमेरिका के मीडिया उद्योगों की संरचना और कामकाज के तरीके में बहुत अंतर है। इसलिए मीडिया के शिक्षकों की ये जिम्मेदारी है, कि वे भारत की परिस्थितियों के हिसाब से किताबें लिखें।

मीडिया शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए आज मीडिया एजुकेशन काउंसिल की आवश्यकता है। इसकी मदद से न सिर्फ पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षा के पाठ्यक्रम में सुधार होगा, बल्कि मीडिया इंडस्ट्री की जरुरतों के अनुसार पत्रकार भी तैयार किये जा सकेंगे। आज मीडिया शिक्षण में एक स्पर्धा चल रही है। इसलिए मीडिया शिक्षकों को ये तय करना होगा कि उनका लक्ष्य स्पर्धा में शामिल होने का है, या फिर पत्रकारिता शिक्षण का बेहतर माहौल बनाने का है। न्यू मीडिया आज न्यू नॉर्मल है। हम सब जानते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के कारण लाखों नौकरियां गई हैं।

इसलिए हमें मीडिया शिक्षा के अलग अलग पहलुओं पर ध्यान देना होगा और बाजार के हिसाब से प्रोफेशनल तैयार करने होंगे। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं पर ध्यान देने की बात कही गई है। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें इस पर ध्यान देना होगा। मीडिया शिक्षण संस्थानों के लिए आज एक बड़ी आवश्यकता है क्षेत्रीय भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करना। भाषा वो ही जीवित रहती है, जिससे आप जीविकोपार्जन कर पाएं और भारत में एक सोची समझी साजिश के तहत अंग्रेजी को जीविकोपार्जन की भाषा बनाया जा रहा है।

ये उस वक्त में हो रहा है, जब पत्रकारिता अंग्रेजी बोलने वाले बड़े शहरों से हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के शहरों और गांवों की ओर मुड़ रही है। आज अंग्रेजी के समाचार चैनल भी हिंदी में डिबेट करते हैं। सीबीएससी बोर्ड को देखिए जहां पाठ्यक्रम में मीडिया को एक विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। क्या हम अन्य राज्यों के पाठ्यक्रमों में भी इस तरह की व्यवस्था कर सकते हैं, जिससे मीडिया शिक्षण को एक नई दिशा मिल सके।

एक वक्त था जब पत्रकारिता का मतलब प्रिंट मीडिया होता था। वर्ष 2008 में अमेरिकी लेखक जेफ गोमेज ने ‘प्रिंट इज डेड’ पुस्तक लिखकर प्रिंट मीडिया के खत्म होने की अवधारणा को जन्म दिया था। उस वक्त इस किताब का रिव्यू करते हुए एंटोनी चिथम ने लिखा था कि, “यह किताब उन सब लोगों के लिए ‘वेकअप कॉल’ की तरह है, जो प्रिंट मीडिया में हैं, किंतु उन्हें यह पता ही नहीं कि इंटरनेट के द्वारा डिजिटल दुनिया किस तरह की बन रही है।” वहीं एक अन्य लेखक रोस डावसन ने तो समाचारपत्रों के विलुप्त होने का, समय के अनुसार एक चार्ट ही बना डाला। इस चार्ट में जो बात मुख्य रूप से कही गई थी, उसके अनुसार वर्ष 2040 तक विश्व से अखबारों के प्रिंट संस्करण खत्म हो जाएंगे।

मीडिया शिक्षण संस्थानों को अपने पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव करने चाहिए, कि वे न्यू मीडिया के लिए छात्रों को तैयार कर सकें। आज तकनीक किसी भी पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मीडिया में दो तरह के प्रारूप होते हैं। एक है पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार और पत्रिकाएं और और दूसरा है डिजिटल मीडिया। अगर हम वर्तमान संदर्भ में बात करें तो सबसे अच्छी बात ये है कि आज ये दोनों प्रारूप मिलकर चलते हैं। आज पारंपरिक मीडिया स्वयं को डिजिटल मीडिया में परिवर्तित कर रहा है। जरूरी है कि मीडिया शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्म' के लिए पहले से तैयार करें।

देश में प्रादेशिक भाषा यानी भारतीय भाषाओं के बाजार का महत्व भी लगातार बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी भाषा के उपभोक्ताओं का डिजिटल की तरफ मुड़ना लगभग पूरा हो चुका है। ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक भारतीय भाषाओं के बाजार में उपयोगकर्ताओं की संख्या 500 मिलियन तक पहुंच जाएगी और लोग इंटरनेट का इस्तेमाल स्थानीय भाषा में करेंगे। जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनजर तैयार करें, यह एक बड़ी जिम्मेदारी है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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मोदी सत्ता के 25 साल में ऊंचाइयों पर पहुंचा भारत : आलोक मेहता

शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और उद्योग व्यापार जैसे हर क्षेत्र में जन कल्याण के लिए आने वाली कठिनाइयों से निपटने के प्रयासों का लाभ करोड़ों लोगों को मिल रहा है।

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Published - Monday, 09 June, 2025
Last Modified:
Monday, 09 June, 2025
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आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की केंद्र में तीसरी बार सरकार बनने का एक साल 9 जून को पूरा हो रहा है। भारतीय जनता पार्टी ही नहीं विरोधी और दुनिया भर के नेता लगातार सफलताओं का श्रेय नरेंद्र मोदी के करिश्माई राजनीतिक सामाजिक व्यक्तित्व को देते हैं लेकिन इसे सत्ता के 11 वर्ष की उपलब्धि के बजाय मोदी की सत्ता के 25 वर्षों के कामकाज, सामाजिक आर्थिक विकास की दूरदर्शिता के परिणामों के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। मेरी नजर में सन 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी जी ने पुराने सरकारी ढर्रे में बदलाव के साथ विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिए नई योजनाएं, कार्यक्रमों का जो सिलसिला शुरु किया वह 2014 में प्रधान मंत्री का दायित्व सँभालने के बाद व्यापक रुप लेता चला गया।

शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, सड़क, पानी, बिजली, खेती और उद्योग व्यापार जैसे हर क्षेत्र में जन कल्याण के लिए आने वाली कठिनाइयों से निपटने और विकास की गति तेज करने के प्रयासों का लाभ न केवल करोड़ों लोगों को मिल रहा है बल्कि विश्व आर्थिक दौड़ में भारत चौथे स्थान पर पहुँच गया है और विकसित भारत 2047 के लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ने के हर संभव प्रयास हो रहे हैं। दूसरी तरफ इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि दुनिया के शक्ति संपन्न देश अमेरिका रुस, चीन के शीर्ष नेता डोनाल्ड ट्रम्प, व्लादिमीर पुतिन और शी जिन पिंग को भी लगातार 25 वर्षों तक लगातार सत्ता के कार्यों का अनुभव नहीं है और न ही भारत जैसी चुनौतियां है।

आतंकवाद से लड़ने में भी हाल के सिंदूर आपरेशन में आतंकी अड्डों को नष्ट करने और पाकिस्तान के सैन्य हवाई अड्डों आदि को निशाना बनाकर विश्व में भारत की सुरक्षा व्यवस्था और क्षमता का डंका बजा दिया गया है। पहलगाम में पाकिस्तानी आतंकियों द्वारा पर्यटकों पर धार्मिक आधार पर किए गए हमले का दूसरा जवाब विश्व के सबसे ऊँचे चिनाब रेल ब्रिज के उद्घाटन के साथ जम्मू कश्मीर और देश को रेल मार्ग से जोड़कर लाखों भारतीयों के जाने की सुविधा से दिया है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं इस बात से प्रसन्न हैं कि बीते 11 साल में उनकी सरकार का हर कदम सेवा, सुशासन और गरीब कल्याण को समर्पित रहा है।

उन्होंने पिछले दिनों एक सन्देश में कहा कि, इस दौरान हमारी उपलब्धियां ना सिर्फ अभूतपूर्व हैं, बल्कि 140 करोड़ देशवासियों के जीवन को आसान बनाने वाली हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि देश को आगे ले जाने के अपने इन प्रयासों के साथ हम विकसित और आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य को जरूर हासिल करेंगे। पहले घर का चूल्हा ठंडा पड़ जाता था, दो वक्त के खाने के लिए सोचना पड़ता था। अब हर महीने पीएम गरीब कल्याण योजना के तहत मुफ्त राशन मिल रहा है। वीडियो में पिछली सरकारों पर निशाना साधते हुए बताया गया कि पहले सरकारी योजना के पैसे लोगों तक नहीं पहुंचते थे, बिचौलिये पैसे खा जाते थे, लेकिन अब सीधे जनता के अकाउंट में पैसे भेजे जा रहे हैं।

पहले कोई बीमार पड़ता था, तो इलाज के खर्चे के बारे में सोचकर ही जान पर बन आती थी, लेकिन अब आयुष्मान भारत योजना से अस्पतालों में मुफ्त इलाज होता है। इस दौरान देश प्रगति के साथ नया इतिहास भी रचा गया है। इन 11 सालों में 'डिजिटल इंडिया' और 'मेक इन इंडिया' जैसे अभियानों के माध्यम से भारत ने तकनीकी क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति की है, जिससे देश की वैश्विक पहचान मजबूत हुई है। इसके साथ ही देश की सुरक्षा में मजबूती आई है। मेरा मानना है कि भारत की प्रगति के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य को सर्वोच्च प्राथमिकता देना आवश्यक है। इसके बिना किसी अन्य क्षेत्र में विकास संभव नहीं है।

इस दृष्टि से नई शिक्षा नीति लाने के बाद मोदी सरकार ने कुछ महत्वपूर्ण कदम बढ़ाए हैं। पिछले दशक में देश ने उच्च शिक्षा के बुनियादी ढांचे में अभूतपूर्व वृद्धि देखी है। उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार, उच्च शिक्षा संस्थानों की संख्या में 13.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो 2014-15 में 51,534 से बढ़कर मई 2025 तक 70,683 से अधिक हो गई है। इसी अवधि के दौरान विश्वविद्यालयों की संख्या 760 से बढ़कर 1,334 हो गई और कॉलेजों की संख्या 38,498 से बढ़कर 51,959 हो गई।

यह उछाल सभी के लिए सुलभ और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) जैसे प्रमुख संस्थानों का भी काफी विस्तार किया गया है। 2014 से, इन संस्थानों की संख्या में वृद्धि हुई है। आईआईटी 16 से बढ़कर 23 हो गए, जबकि आईआईएम 13 से बढ़कर 21 हो गए। एम्स संस्थानों की संख्या तीन गुनी से अधिक बढ़कर 7 से 23 हो गई है। मेडिकल कॉलेजों की संख्या भी 387 से बढ़कर 2,045 से अधिक हो गई है, जो सामूहिक रूप से 2024 तक 1.9 लाख से अधिक मेडिकल सीटें प्रदान करते हैं।

स्कूली शिक्षा को और मजबूत करने के लिए, पीएम श्री (पीएम स्कूल फॉर राइजिंग इंडिया) योजना सितंबर 2022 में शुरू की गई थी। पांच वर्षों में 27,360 करोड़ रुपये के केंद्रीय परिव्यय के साथ, इस योजना का लक्ष्य 14,500 स्कूलों को मॉडल संस्थानों में अपग्रेड करना है जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के दृष्टिकोण को दर्शाते हैं। अकादमिक शिक्षा से परे, कौशल विकास भारत की युवा सशक्तिकरण रणनीति के केंद्र में रहा है। 2015 में कौशल भारत मिशन के शुभारंभ के बाद से, 1.63 करोड़ से अधिक युवाओं ने विभिन्न कौशल क्षेत्रों में प्रशिक्षण प्राप्त किया है। दूसरी तरफ दस करोड़ से अधिक लोग आयुष्मान भारत और जन औषधि योजना से करोड़ों लाभान्वित हो रहे हैं।

शिक्षित स्वस्थ नागरिक ही विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति के लिए निरंतर काम कर सकते हैं। अयोध्या , सोमनाथ , काशी , मथुरा , उज्जैन सहित धार्मिक सांस्कृतिक नगरों को सुन्दर और पर्यटन के आकर्षण केंद्र बनाए जाने से भावनात्मक एकता बढ़ाने का पुनीत कार्य जारी है। धर्म के साथ राष्ट्र सुरक्षा के लिए तीनों सेनाओं के आधुनिकीकरण और स्वदेशी हथियारों के निर्माण की दिशा में रिकॉर्ड उपलब्धियां हो रही है। अब तो देश की आवश्यकता के अलावा हथियारों के निर्यात में विकसित देशों से प्रतियोगिता के लिए भारत तैयार है। भारत ने फ्रांस से राफेल फाइटर जेट खरीदे। अब राफेल बनाने वाली कंपनी दसॉ एविएशन हैदराबाद में अपना प्लांट लगाने जा रही है।

इस संयंत्र में टाटा एडवांस्ड सिस्टम के साथ राफेल युद्धक विमान की बॉडी बनाएगी जिसे एविएशन की भाषा में फ्यूजलेज कहते हैं। दसॉ ने इसकी जानकारी देते हुए कहा कि यह एयरोस्पेस सेक्टर में मैन्युफैक्चरिंग की भारत की क्षमता बढ़ाने और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला को सुचारू रखने की दिशा में बड़ा कदम है। दसॉ ने कहा कि हैदराबाद प्लांट के जरिए भारत एयरोस्पेस इन्फ्रास्ट्रक्चर में अहम निवेश कर रहा है और यह प्लांट हाई-प्रेसिजन मैन्युफैक्चरिंग का महत्वपूर्ण केंद्र बनेगा। राफेल फाइटर जेट की पहली बॉडी वित्त वर्ष 2028 में बनकर तैयार हो जाएगी। तभी तो यह दावा किया जाता है कि मोदी के नेतृत्व में हर मोर्चे पर विजय की पताका फहराना मुमकिन है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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संघर्ष से जूझ रही इंडस्ट्री का जश्न क्यों मना रहे हैं हम? -अनूप चंद्रशेखरन

काफी समय हो गया, मैंने कुछ नहीं लिखा। वजह यह नहीं कि कहने को कुछ था नहीं, बल्कि इसलिए कि जो कुछ हो रहा था, वह रास्ते से भटका हुआ लग रहा था।

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Published - Saturday, 07 June, 2025
Last Modified:
Saturday, 07 June, 2025
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अनूप चंद्रशेखरन, COO  (रीजनल कंटेंट) -IN10 मीडिया नेटवर्क ।।

यह लेख मेरे उन विचारों को सामने लाता है कि किस तरह बढ़ते टैक्स, बेलगाम पायरेसी और एल्गोरिदम से पैदा हुई कंटेंट अराजकता ने देश के एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का दम घोंटना शुरू कर दिया है और यह सवाल उठाता है कि कहीं हम सिर्फ ग्रोथ का जश्न तो नहीं मना रहे, जबकि असली क्रिएटिविटी चुपचाप गायब होती जा रही है।

काफी समय हो गया, मैंने कुछ नहीं लिखा। वजह यह नहीं कि कहने को कुछ था नहीं, बल्कि इसलिए कि जो कुछ हो रहा था, वह रास्ते से भटका हुआ लग रहा था। बीते कुछ महीनों में, हमारे क्रिएटिव स्पेस में होने वाली बातचीत का स्वर ही बदल गया है। अब हम कहानियां गढ़ने में कम और उन फैसलों के असर को संभालने में ज्यादा वक्त बिता रहे हैं, जो उन जगहों पर लिए गए हैं जहां असल में कंटेंट बनाया ही नहीं जाता।

WAVES ऐसा ही एक पल था- एक भव्य रूप से आयोजित समिट, जिसने एंटरटेनमेंट के भविष्य को समझने का वादा किया था। लेकिन जैसे ही पैनल खत्म हुए और तालियां थमीं, बहुत कम लोगों ने उन दरारों की बात की जो जमीन के नीचे पनप रही थीं। उसी हफ्ते, सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने केंद्र और राज्यों- दोनों को ब्रॉडकास्टिंग पर एंटरटेनमेंट टैक्स लगाने की इजाजत दे दी। जो प्लेटफॉर्म पहले से GST चुका रहे हैं, उन्हें अब एक और टैक्स की परत में घसीटा जा सकता है। बड़े खिलाड़ियों के लिए यह जटिल जरूर है, लेकिन क्षेत्रीय और स्वतंत्र संस्थाओं के लिए यह दम घोंटने जैसा है।

आज यह बोझ प्लेटफॉर्म्स पर है, लेकिन अगली बारी क्रिएटर्स और इंफ्लुएंसर्स की है। जैसे ही राजस्व पर असर पड़ेगा और खर्चे बढ़ेंगे, दबाव नीचे तक पहुंचेगा ही। यह कोई सीधा सेंसरशिप नहीं है। यह नियंत्रण का धीमा तरीका है, जो आर्थिक दबाव के जरिये काम करता है। अगर आप किसी आवाज को सीधे चुप नहीं करा सकते, तो उसे बोलने में इतना महंगा बना दीजिए कि वह खुद चुप हो जाए।

इस बीच, पायरेसी चौंकाने वाली सहजता से जारी है। बड़ी फिल्में रिलीज से पहले ही फुल HD में ऑनलाइन लीक हो जाती हैं। अक्सर यह लीक अंदर से ही होता है। और इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं ली जाती। मैं ऐसे क्रिएटर्स को जानता हूं जो अब अपनी मार्केटिंग शुक्रवार की रिलीज के इर्द-गिर्द प्लान ही नहीं करते, क्योंकि असली नुकसान गुरुवार रात को हो जाता है।

इसके साथ ही, कंटेंट का माहौल देखिए। अब एल्गोरिदम उन चीजों को पुरस्कृत करती हैं, जो चौंकाती हैं, न कि उन बातों को जो दिल से जुड़ती हैं। अश्लीलता ट्रेंड करती है, जबकि सोच-समझकर बनाई गई रचनाएं दबा दी जाती हैं। ब्रैंड्स अब भी सिर्फ व्यूज के पीछे भागते हैं, यह बात अपनी सुविधा के अनुसार नजरअंदाज करते हुए कि उनके कैंपेन असल में किस चीज का समर्थन कर रहे हैं। प्लेटफॉर्म्स का जवाब हमेशा टेम्पलेटेड होता है। असल बदलाव तो कभी आता ही नहीं।

यह सिस्टम बड़े खिलाड़ियों को कुचलता नहीं है, बल्कि उन्हें सुरक्षा देता है। जो वाकई निचोड़े जा रहे हैं, वे हैं- स्थानीय क्रिएटर्स, क्षेत्रीय कहानीकार और स्वतंत्र इंफ्लुएंसर्स। वही लोग, जो नई कहानियां लेकर आते हैं, नए नजरिए लेकर आते हैं।

तो सवाल यह है- हम वास्तव में किस चीज का जश्न मना रहे हैं? नंबरों की ग्रोथ का या फिर अंतर और गुणवत्ता की गिरावट का? क्रिएटिविटी की कोई कमी नहीं है। लेकिन यदि सिस्टम इसे बार-बार सजा देता रहेगा, तो कब तक यह कोशिश करती रहेगी?

डिस्क्लेमर: यहां व्यक्त विचार पूरी तरह लेखक के निजी हैं और अंग्रेजी की मूल कॉपी से अनुवादित हैं जिसे आप नीचे दिए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं-

Why are we celebrating an industry that’s struggling?

 

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ये जीडीपी क्या है: पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

सरकार दावा करती है कि भारत की अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन डॉलर हो जाएगी तो इसका मतलब यह होता है कि GDP को जोड़ 5 ट्रिलियन डॉलर होगा। अभी यह जोड़ क़रीब 4 ट्रिलियन डॉलर है।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 02 June, 2025
Last Modified:
Monday, 02 June, 2025
hisabkitab

मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

भारत सरकार ने शुक्रवार को पिछले पूरे वित्त वर्ष और मार्च को ख़त्म तिमाही के आँकड़े जारी किए हैं। इन आँकड़ों को लेकर सरकार और विपक्ष दोनों ने दावे किए हैं। हिसाब किताब करेंगे इन आँकड़ों का। GDP को आप अर्थव्यवस्था का परीक्षा परिणाम कह सकते है। अर्थव्यवस्था की स्थिति का अंदाज़ा GDP के आँकड़ों से पता चलता है। अच्छी है या ख़राब।

पूरे वर्ष में हम सबके, सब कंपनियों और सरकार के खर्च का जोड़ मिलकर मोटे तौर पर बनता है GDP, यह जोड़ मान लीजिए पिछले साल ( 2023-24) ₹100 था और इस साल (2024-25) ₹106.5 हो गया तो GDP ग्रोथ रेट 6.5% रहा। सरकार दावा करती है कि भारत की अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन डॉलर हो जाएगी तो इसका मतलब यह होता है कि GDP को जोड़ 5 ट्रिलियन डॉलर हो जाएगा। अभी यह जोड़ क़रीब 4 ट्रिलियन डॉलर है। GDP के इस जोड़ में अमेरिका और चीन हमसे बहुत आगे है मतलब नंबर एक और दो पर, फिर बारी आती है जर्मनी और जापान की।

नीति आयोग के CEO ने यह कहने में जल्दबाज़ी कर दी कि भारत चौथे स्थान पर पर आ गया है। अब सरकार के वित्तीय सलाहकार कह रहे हैं कि हम साल के अंत तक जापान से आगे निकल जाएँगे। GDP को खाने की थाली मान लें तो चीन की थाली हमसे पाँच गुना बड़ी है। खाने वाले लोग लगभग उतने ही है तो किसके हिस्से में ज़्यादा खाना (पैसा) आएगा। अमेरिका की थाली हमसे आठ गुना बड़ी है जबकि वहाँ खाने वाले हैं हमसे क़रीब पाँच गुना कम।

यही कारण है कि अमेरिकी लोग हमारी तुलना में 30 गुना अधिक समृद्ध है। हम जापान, जर्मनी या ब्रिटेन जैसे देशों को थाली के आकार (GDP) में पीछे छोड़ कर खुश हो सकते है लेकिन यह नहीं भूलें कि उनके देश में खाने वालों की आबादी महाराष्ट्र जैसे राज्य से भी कम है। यही कारण है कि IMF के मुताबिक़ प्रति व्यक्ति आय में हमारी रैंकिंग 142 नंबर है। वित्त मंत्री ने कहा कि भारत इस साल भी दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। यह सही है लेकिन वित्त मंत्री ने यह नहीं बताया कि चार साल में भारत की सबसे कम ग्रोथ है।

ऊपर लिखे बिंदु से आप समझ ही गए होंगे कि चीन भले ही 5% से बढ़े तब भी वो हर साल ज़्यादा GDP जोड़ रहा है या अमेरिका 2% से बढ़े क्योंकि उनकी थाली हमसे कई गुना ज़्यादा बड़ी है। GDP के आँकड़े अर्थव्यवस्था का रिज़ल्ट मानें तो यह अच्छी ख़बर है। साल के पहले 6 महीनों में अर्थव्यवस्था की स्थिति ख़राब थी। आख़िरी 6 महीनों में रफ़्तार पकड़ी। यह रफ़्तार बनी रहीं तो आपकी आमदनी बढ़ेगी, नौकरियों के अवसर बढ़ेंगे। इसके साथ महंगाई कम हुई है। इस कारण आपके हाथ में पैसा ज़्यादा रहेगा।

रिज़र्व बैंक इस हफ़्ते मीटिंग करेगी और बहुत संभव है कि रेट कट होगा। इससे आपकी EMI कम होने की उम्मीद है। शेयर बाज़ार के लिए भी अच्छी ख़बर है क्योंकि लोगों की खपत बढ़ेगी तो कंपनियों का माल बिकेगा। माल बिकने से फ़ायदा बढ़ेगा। शेयर बाज़ार यही चाहता है कि कंपनियों का मुनाफ़ा बढ़ता रहें। प्रधानमंत्री बार बार 2047 विकसित भारत बनाने की बात कर रहे हैं तो फिर क्या भारत अगले 20-22 साल में वहाँ पहुँच जाएगा।

वहाँ पहुँचने के लिए हमारी प्रति व्यक्ति आय को पाँच से छह गुना बढ़ाना पड़ेगा। नीति आयोग, रिज़र्व बैंक की अलग अलग रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया है कि हर साल 7% से ज़्यादा ग्रोथ के साथ यह संभव है। इस साल तो हम उससे नीचे है और जैसे जैसे अर्थव्यवस्था यानी थाली का आकार बढ़ता जाएगा इस रफ़्तार को बनाने में अड़चनें आ सकती है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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खेला जा रहा भाषाई तुष्टीकरण का खतरनाक खेल: अनंत विजय

इस बीच एक ऐसी खबर आई जिसको सुनकर चौंका। पता चला कि तमिलनाडु की सत्ताधारी पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) ने कमल हासन की राज्यसभा की उम्मीदवारी को समर्थन देने का निर्णय लिया है।

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Published - Monday, 02 June, 2025
Last Modified:
Monday, 02 June, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध और उसके बाद की राजनीति के घमासान के बीच एक मुद्दे पर चर्चा नहीं हो पाई। ये मुद्दा देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। मुद्दा है भारतीय भाषाओं के बीच परस्पर सामंजस्य बढ़ाने का। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के कार्यान्वयन में इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य हो रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गैर-हिंदी प्रदेश की जनसभाओं में जनता के अनुमति लेकर हिंदी में बोलते हैं। हाल ही में गुजरात की एक जनसभा में उन्होंने गुजराती में बोलना आरंभ किया। सभा में उपस्थित लोगों से गुजराती में पूछा कि क्या वो हिंदी में भाषण दे सकते हैं।

जब सभा में सकारात्मक स्वर गूंजा तब प्रधानमंत्री मोदी ने हिंदी में भाषण दिया। एक सरफ सरकार के स्तर पर भारतीय भाषाओं के बीच मतभेद कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ बीच-बीच में कुछ ऐसा घटित हो जाता है जो भारतीय भाषाओं के बीच वैमनस्यता बढ़ाने वाला होता है। हाल ही में अपनी फिल्म के प्रमोशन के सिलसिले में अभिनेता कमल हासन ने एक ऐसा बयान दे दिया जिसके बाद दक्षिण भारत की दो भाषाओं के समर्थकों के बीच तनाव हो गया है। कमल हासन ने कहा कि कन्नड भाषा तमिल से पैदा हुई है।

इसके बाद कर्नाटक में कमल हासन का विरोध आरंभ हो गया। उनकी फिल्म के पोस्टर जलाए गए। कहा जा रहा है कि उनकी फिल्म का प्रदर्शन भी कर्नाटक में नहीं होगा। हर रोज कमल हासन का विरोध हो रहा है लेकिन वो निरंतर अपनी बात पर डटे हुए हैं। कह रहे हैं कि अपने बयान के लिए क्षमा नहीं मांगेगे। अब पता नहीं इस विवाद से उनकी फिल्म को लाभ होगा या नहीं। जो भी हो वो तो समय बताएगा। इस बीच एक ऐसी खबर आई जिसको सुनकर चौंका। पता चला कि तमिलनाडु की सत्ताधारी पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) ने कमल हासन की राज्यसभा की उम्मीदवारी को समर्थन देने का निर्णय लिया है।

उनके समर्थन के बाद मक्कल निधि माय्यम पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर कमल हासन की जीत तय है। मक्कल निधि माय्यम कमल हासन की ही पार्टी है। तमिलनाडू में अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होनेवाले हैं। ऐसे में ये देखना दिलचस्प होगा कि कमल हासन के राज्यसभा में जाने के बाद वहां की राजनीति में क्या बदलाव आते हैं। कमल हासन अभिनेता के तौर पर तो तमिलनाडू में लोकप्रिय हैं लेकिन राजनीति में बहुत दिनों से हाथ पैर मारने के बावजूद कुछ विशेष कर नहीं पाए।

कमल हासन ने 2018 में मक्कल निधि मायय्म नाम से एक पार्टी बनाई थी। उसके बैनर तले 2019 का लोकसभा चुनाव भी लड़ा था। उस चुनाव में भी उनकी पार्टी का खाता नहीं खुल पाया था। कुछ चुनावी विशेषज्ञों और वामपंथी उदारवादी राजनीतिज्ञों को उम्मीद थी कि कमल हासन और उनकी पार्टी विधानसभा चुनाव में बेहतर करेगी। चुनाव को त्रिकोणीय कर देगी पर ऐसा हो नहीं सका था। जब तमिलनाडु विधानसभा चुनाव के परिणाम आए थे तो कमल हासन कोयंबटूर दक्षिण सीट से भारतीय जनता पार्टी महिला मोर्चा की अध्यक्ष वनाथी श्रीनिवासन से पराजित हो गए।

उनकी पार्टी का भी बुरा हाल रहा। तमिल-कन्नड़ विवाद के बीच कमल हासन को डीएमके ने राज्यसभा में भेजने का निर्णयय लिया है, पता नहीं ये संयोग है या प्रयोग। अगर संयोग है तो राजनीति में इस तरह के संयोग बिरले होते हैं। अगर ये प्रयोग है तो खतरनाक है। क्योंकि इसकी बुनियाद में भाषाई वैमनस्यता है। दो राज्यों के बीच तनाव बढ़ाने वाले को पुरस्कृत करने का प्रयोग उचित नहीं कहा जा सकता है।

एक तरफ तमिल और तेलुगु के बीच विवाद खड़ा किया जा रहा है तो दूसरी ओर 22 मई को केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने अपने से संबद्ध सभी स्कूलों को एक 2023 के राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा के आलोक में आरंभिक शिक्षा की भाषा को लेकर एक दिशानिर्देश जारी किया है। स्कूली शिक्षा के लिए तैयार किए गए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा में आरंभिक शिक्षा मातृभाषा में करवाने की अनुशंसा की गई थी।

प्री प्राइमरी से लेकर ग्रेड दो तक को आर 1 और आर 2 की भाषा पढ़ाने की सलाह दी गई है। अबतक चले आ रहे त्रिभाषा फार्मूले में बदलाव किया गया है। पहले त्रिभाषा फार्मूला का मतलब होता था कि मातृभाषा, अंग्रेजी और तीसरी भाषा के तौर पर अहिंदी भाषी राज्य में हिंदी। लेकिन आर-1 और आर 2 में इसको पलट दिया गया है। इसमें अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त की गई है। उसके स्थान पर भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता दी गई है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा में किसी भाषा विशेष का उल्लेख न करते हुए उसे समभाव से परिभाषित किया गया।

एक नए सोच को सामने रखते हुए पहली, दूसरी और तीसरी भाषा की जगह आर-1, आर-2 और आर-3 शब्द का प्रयोग किया गया। आर-1 में मातृभाषा या राज्य की भाषा को स्थान दिया गया। इसमें मातृभाषा और राज्य दोनों को रखा गया क्योंकि यह जरूरी नहीं कि मातृभाषा और राज्य भाषा एक हो। आर-2 में आर-1 के अलावा कोई भी भाषा, आर-3 में आर-1 और आर-2 के अलावा कोई भी भारतीय भाषा। इसका परिणाम ये हो रहा है कि अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त हो गई। सीबीएसई ने अपने स्कूलों को इसी फार्मूले को लागू करने का दिशा निर्देश जारी किया है।

सीबीएसई के इस नए दिशा निर्देश के पीछे के उद्देश्यों को समझने की आवश्यकता है। बच्चों को जब आरंभिक शिक्षा दी जी है तो वो मौखिक होती है। मौखिक शिक्षा जब मातृभाषा में दी जाएगी तो वो ना केवल पनी भाषा से परिचित होंगे बल्कि उनके घर परिवार का जो वातावरण होगा उसको समझने में भी मदद होगी। कुछ लोग महानगरीय स्कूलों का हवाला देकर इस फार्मूले में मीनमेख निकालने का प्रयास कर रहे हैं।

उनका कहना है कि महानगरों के स्कूलों में विभिन्न मातृभाषा वाले बच्चे आते हैं। ऐसे में उनकी मातृभाषा के अनुसार पढ़ाई का माध्यम तय करने में कठिनाई होगी। कठिनाई तो हर नए काम में आती है लेकिन फिर रास्ता भी उन्हीं कठिनाइयों के बीच से निकलता है। जब मानस में अंग्रेजी अटकी होगी तो इस कठिनाई को दूर करने में बाधाएं आएंगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति इस बाधा को दूर करने का उपाय ढूंढती है।

कुछ लोगों का कहना है कि ऐसा करके हिंदी थोपी जा रही है। इस तरह की बातें भी वही लोग कर रहे हैं जिनको भारतीय भाषाओं के उन्नयन से परेशानी है। वो चाहते हैं कि अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहे। आर 1 को व्यावहारिक नहीं मानने वालों का तर्क है कि अगर एक ही स्कूल में गुजराती, मराठी और कन्नड़ भाषी परिवार के बच्चे पहुंचते हैं तो वो क्या पढ़ेंगे।

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा में इस बात का ध्यान रखा गया है और उनके लिए राज्य भाषा का विकल्प उपलब्ध करवाया गया है। अब समय आ गया है कि भाषा के नाम पर जो विभाजनकारी खेल खेला जा रहा है उसको रोका जाए क्योंकि उससे किसी हितधारक का लाभ नहीं है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने से हमारी शिक्षा पद्धति औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त होगी जो अकादमिक क्षेत्र के लिए अति आवश्यक है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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ऑपरेशन सिंदूर के साथ सुरक्षा तंत्र में रोजगार के नए द्वार खुले: आलोक मेहता

रक्षा मंत्रालय ने 2025 को 'सुधारों का वर्ष' घोषित किया है, जिसमें संयुक्त अभियानों को बढ़ावा देने और एकीकृत थिएटर कमांड की स्थापना सहित सशस्त्र बलों को एकीकृत करने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा।

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Published - Monday, 02 June, 2025
Last Modified:
Monday, 02 June, 2025
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आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

ऑपरेशन सिंदूर की प्रारंभिक सफलता और उसे जारी रखने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संकल्प के साथ भारत की रक्षा आवश्यकताएं सशस्त्र बलों की संयुक्तता और एकीकरण को मजबूत करने, परिचालन आवश्यकताओं की साझा समझ विकसित करने और तकनीकी क्षमताओं को बढ़ाने पर काम शुरु हो गया है। इससे पहले भी रक्षा मंत्रालय ने 2025 को "सुधारों का वर्ष" घोषित किया है, जिसमें संयुक्त अभियानों को बढ़ावा देने और एकीकृत थिएटर कमांड की स्थापना सहित सशस्त्र बलों को एकीकृत करने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा।

अत्याधुनिक भारतीय हथियारों, वायु और नौसेना के लिए आवश्यक लड़ाकू विमानों, जहाजों, पनडुब्बियों के निर्माण आयात और ड्रोन सहित डिजिटल संचार सुरक्षा तंत्र को समीक्षा के साथ मजबूत किया जा रहा है। दूसरी तरफ सैन्य शक्ति बढ़ाने के लिए सेना के विभिन्न अंगों में बड़े पैमाने पर युवाओं की भर्ती, शिक्षा, प्रशिक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। नागरिक सुरक्षा बल में भी राज्यों में हजारों लोगों को जोड़ा जा रहा है। प्रधानमंत्री सैन्य शक्ति में आधुनिक टेक्नोलॉजी के साथ श्रेष्ठ मानवीय शक्ति की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं। इस तरह भारत के सुरक्षा तंत्र में रोजगार की नई अपार संभावनाओं के साथ भारत की सामाजिक आर्थिक प्रगति के द्वार खुलने वाले हैं।

भारत का रक्षा बजट 81 बिलियन अमेरिकी डॉलर का है, जो निरंतर आधुनिकीकरण और उन्नयन की अनुमति देता है। 2025 में भारत के रक्षा और अर्धसैनिक बल मजबूत और विविधतापूर्ण ताकत का प्रदर्शन कर रहे हैं जो इसे दुनिया की शीर्ष सैन्य शक्तियों में शामिल कर देगा। भारत के सक्रिय सैन्यकर्मियों की संख्या लगभग 1.46 मिलियन है, तथा इसके अतिरिक्त 1.15 मिलियन रिजर्व सैन्यकर्मी हैं। अर्धसैनिक बलों में 2.5 मिलियन अतिरिक्त कार्मिक जुड़ते हैं, जो आंतरिक सुरक्षा और सीमा प्रबंधन में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।

सक्रिय बल को बढ़ाने के लिए अतिरिक्त 1.15 मिलियन रिजर्व कार्मिक उपलब्ध हैं। वायु सेना 2,229 से अधिक विमानों का संचालन करती है, जिनमें उन्नत लड़ाकू जेट और सहायक विमान शामिल हैं। नौसेना 293 जहाजों का संचालन करती है, जिनमें दो विमान वाहक पोत और विध्वंसक, फ्रिगेट और पनडुब्बियों का एक बड़ा बेड़ा शामिल है। 2.5 मिलियन की संख्या वाले अर्धसैनिक बल आंतरिक सुरक्षा, सीमा प्रबंधन और आतंकवाद विरोधी अभियानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन बलों में केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल, सीमा सुरक्षा बल और असम राइफल्स जैसे विभिन्न संगठन शामिल हैं।

रक्षा अनुसन्धान संसथान हाइब्रिड, काइनेटिक, नॉन-काइनेटिक में आरडी युद्ध में उत्कृष्टता हासिल करने की तैयारियां कर रहा है। गृह मंत्री अमित शाह के अनुसार भारत सीमा सुरक्षा के लिए नई ड्रोन रोधी इकाई बनाएगा। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने तो जनवरी की बैठक में ही निर्देश दिया था कि रक्षा सुधार कार्यक्रम को साइबर व अंतरिक्ष जैसे नए क्षेत्रों तथा कृत्रिम बुद्धिमत्ता, मशीन लर्निंग, हाइपरसोनिक्स और रोबोटिक्स जैसी उभरती प्रौद्योगिकियों पर केंद्रित होना चाहिए। अंतर-सेवा सहयोग एवं प्रशिक्षण के माध्यम से परिचालन आवश्यकताओं और संयुक्त परिचालन क्षमताओं की साझा समझ विकसित करना।

भारत के सशस्त्र बल कई विश्वस्तरीय कैडेट प्रशिक्षण अकादमियों के साथ-साथ विशेषज्ञ व्यावसायिक स्कूलों की मेजबानी के साथ-साथ भावी परिचालन कमांडरों को तैयार करने के लिए बेहतरीन शैक्षणिक संस्थान भी चलाते हैं। राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय (आरआरयू) गृह मंत्रालय द्वारा स्थापित भारत का एक राष्ट्रीय सुरक्षा और पुलिस विश्वविद्यालय है। इस वर्ष राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय (आरआरयू) के भारत में कई परिसर होंगे, जिनमें लावड-गांधीनगर (गुजरात), पासीघाट (अरुणाचल प्रदेश), लखनऊ (उत्तर प्रदेश), और शिवमोग्गा (कर्नाटक) शामिल हैं।

शैक्षणिक वर्ष 2025-26 के लिए प्रवेश आरआरयू कॉमन एंट्रेंस टेस्ट (आरसीईटी) के माध्यम से खुले हैं। विश्वविद्यालय राष्ट्रीय सुरक्षा, पुलिस प्रौद्योगिकी और संबंधित क्षेत्रों में विभिन्न कार्यक्रम प्रदान करता है। शैक्षणिक वर्ष 2025-26 के लिए स्नातक और स्नातकोत्तर दोनों कार्यक्रमों के लिए आरआरयू कॉमन एंट्रेंस टेस्ट (आरसीईटी) के माध्यम से प्रवेश खुले हैं। आरआरयू राष्ट्रीय सुरक्षा, पुलिस प्रौद्योगिकी और संबंधित क्षेत्रों में कार्यक्रम प्रदान करता है। यह संस्थान अब 10+2 सीबीएसई पैटर्न पर 8वीं से 12वीं तक की स्कूली कक्षाएं चलाता है और राष्ट्रीय रक्षा अकादमी खडकवासला ( पुणे ) के लिए एक फीडर संस्थान के रूप में कार्य करता है, जहाँ स्कूल की 12वीं कक्षा उत्तीर्ण करने वाले पुरुषों को सेना, नौसेना और वायु सेना के लिए अपना प्रारंभिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए कैडेट के रूप में लिया जाता है।

शिक्षा के लिए सैन्य स्कूल विभिन्न स्थानों पर हैं। सैनिक स्कूल भारत में स्कूलों की एक प्रणाली है जिसकी स्थापना और प्रबंधन रक्षा मंत्रालय के तहत सैनिक स्कूल सोसायटी द्वारा कितैयार करने के लिए की थी। देश में करीब 33 ऐसे स्कूल चल रहे हैं और भविष्य के लिए प्रस्तावित हैं। इन्फैंट्री स्कूल : इन्फैंट्री स्कूल, महू भारतीय सेना का सबसे बड़ा और सबसे पुराना सैन्य प्रशिक्षण केंद्र है। यह संस्थान विभिन्न भूभागों और वातावरण में पैदल सेना के संचालन से संबंधित सामरिक अभ्यास और अवधारणाओं के पूरे स्पेक्ट्रम को विकसित करने और समय-समय पर उन्हें पेश करने के लिए जिम्मेदार है।

मोदी सरकार द्वारा लाई गई भर्ती योजना भारतीय सशस्त्र बलों में अल्पकालिक सेवा है, जिसमें भर्ती होने वाले व्यक्ति चार वर्ष तक सेवा करते हैं। भारतीय सेना, नौसेना और वायु सेना सभी अग्निवीर भर्ती प्रक्रिया में भाग लेते हैं। 2025 में, अग्निवीर में सैनिक, क्लर्क/स्टोर कीपर तकनीकी, ट्रेड्समैन और नाविक (एमआर) सहित विभिन्न भूमिकाओं के लिए भर्ती जारी है। इस अभिनव योजना का राजनीतिक विरोध हुआ, जबकि यह योजना सेना प्रमुखों तथा रक्षा मंत्रालय द्वारा लम्बे विचार विमर्श के बाद लाई गई और इसमें कुछ संशोधन सुधार भी हुए हैं। सेना में नए खून को प्रारम्भ से शिक्षित प्रशिक्षित करने और उनमें से ही लोग देश की अन्य सेवाओं में जाने से भारत में विभिन्न स्तरों पर सैन्य प्रशिक्षण के व्यक्ति रहने का लाभ भी होगा।

भारतीय थल सेना प्रमुख जनरल उपेन्द्र द्विवेदी ने हाल ही में अग्निपथ भर्ती योजना को "बड़ी सफलता" बताया तथा कहा कि अग्निवीरों ने सीखने की तीव्र इच्छा दिखाई है तथा वे प्रभावी ढंग से कार्य कर रहे हैं। यह योजना (अग्निपथ) बहुत सफल साबित हो रही है और जो लोग हमारे पास आ रहे हैं उनमें सीखने की ललक तुलनात्मक रूप से बहुत अधिक है। जहां तक ​​उनकी क्षमता का सवाल है कि हम उनसे तीन से चार साल में जो कुछ भी चाहते हैं, उसे पूरा कर सकते हैं। वर्तमान में, केवल 25% अग्निवीरों को ही दीर्घकालिक सेवा के लिए रखा जाता है, यह एक ऐसा आंकड़ा है जिसे सैन्य विशेषज्ञ बहुत कम मानते हैं।

रक्षा मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों के अनुसार, सेना ने युद्ध शक्ति को बनाए रखने और प्रशिक्षण में निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए प्रतिधारण को बढ़ाकर 50% करने की सिफारिश की है। भारतीय थल शस्त्र बलों के लिए अग्निवीरों की नियोजित भर्ती प्रतिवर्ष लगभग 46,000 है। थलसेना के लिए 40,000 तथा नौसेना और वायुसेना के लिए संयुक्त रूप से शेष 6,000। उम्मीद करना चाहिए कि आने वाले वर्षों में भारत की सेना सुरक्षा तंत्र विश्व में सबसे शीर्ष स्थान पर हो।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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आरएसएस के रचना, सृजन और संघर्ष के सौ साल: प्रो. संजय द्विवेदी

सौ वर्षों की इस साधना में संघ और इसके स्वयंसेवकों ने देश की चेतना को जाग्रत किया है। उन्होंने दिखाया कि न तो किसी सरकारी सहयोग की आवश्यकता होती है और न ही प्रचार के माध्यम से प्रसिद्धि की।

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Published - Monday, 02 June, 2025
Last Modified:
Monday, 02 June, 2025
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प्रो. संजय द्विवेदी, भारतीय जन संचार संस्थान, आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व महानिदेशक।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) भारतीय समाज के पुनर्गठन की वह प्रयोगशाला है, जो विचार, सेवा और अनुशासन के आधार पर एक सांस्कृतिक राष्ट्र का निर्माण कर रही है। 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की अनोखी भारतीय दृष्टि से उपजा यह संगठन आज अपनी शताब्दी के द्वार पर खड़ा है। यह केवल संगठन विस्तार की नहीं, बल्कि भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक पुनरुत्थान की एक अनवरत यात्रा है। सौ वर्षों की इस साधना में संघ और इसके स्वयंसेवकों ने देश की चेतना को जाग्रत किया है। उन्होंने दिखाया कि न तो किसी सरकारी सहयोग की आवश्यकता होती है और न ही प्रचार के माध्यम से प्रसिद्धि की। यदि लक्ष्य पवित्र हो, मार्ग अनुशासित हो और कार्यकर्ता समर्पित हों।

सेवा: राष्ट्र के हृदय को स्पर्श करती संवेदना

संघ के स्वयंसेवकों की सेवा-भावना समाज के सबसे वंचित वर्गों तक पहुंचती है। गिरिजनों और वनवासियों से लेकर महानगरों की झुग्गी बस्तियों तक, संघ प्रेरित संगठन—जैसे सेवा भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, एकल विद्यालय, राष्ट्र सेविका समिति और आरोग्य भारती—अखंड सेवा के भाव से कार्यरत हैं।

इन संस्थाओं का उद्देश्य केवल राहत पहुंचाना नहीं, बल्कि लोगों को आत्मनिर्भर, शिक्षित और संस्कारित बनाना है। सेवा, संघ के लिए कर्मकांड नहीं, जीवनधर्म है—जो मानवता को जोड़ता है, पोषित करता है और राष्ट्र के लिए भावनात्मक एकता निर्मित करता है।

शिक्षा: मूल्यबोध से युक्त राष्ट्रनिर्माण

संघ ने प्रारंभ से ही यह अनुभव किया कि एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता है, जो केवल ज्ञान नहीं, बल्कि संस्कार दे। इस विचार की परिणति विद्या भारती के रूप में हुई। देश भर में फैले इसके विद्यालयों में लाखों छात्र न केवल आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति, नैतिकता और राष्ट्रबोध की गंगोत्री में स्नान भी कर रहे हैं। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) ने छात्र राजनीति में एक नई संस्कृति का प्रारंभ किया। ‘शिक्षक अध्यक्ष’ की परंपरा, ‘शैक्षिक परिवार’ का विचार और संगठन के कार्यों में राष्ट्र के प्रति समर्पण—ये सब अभाविप को विशिष्ट बनाते हैं।

शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, भारतीय शिक्षण मंडल और अखिल भारतीय शैक्षिक महासंघ जैसे संगठनों ने शिक्षा नीति निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाई। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 संघ प्रेरित वैचारिक चेतना का मूर्त रूप मानी जा सकती है।

विविध क्षेत्रों में राष्ट्र की पुनर्रचना

संघ का कार्यक्षेत्र अत्यंत व्यापक है। समाज जीवन के प्रत्येक आयाम में उसकी सृजनात्मक उपस्थिति देखी जा सकती है। उपभोक्ता हितों की रक्षा हेतु अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत, साहित्यिक जगत में हस्तक्षेप करती अखिल भारतीय साहित्य परिषद, और कला-संस्कृति को संवारती संस्कार भारती—संघ की इस बहुआयामी दृष्टि की प्रतीक हैं।

भारत विकास परिषद, लघु उद्योग भारती, भारतीय किसान संघ, सहकार भारती, स्वदेशी जागरण मंच भारत के सशक्तिकरण, स्वदेशी चेतना और किसान कल्याण को समर्पित हैं। ये सभी संगठन संघ की उस मूल भावना को मूर्त करते हैं, जो कहती है कि परिवर्तन केवल सरकार से नहीं, समाज से होता है। राम मंदिर निर्माण के माध्यम से विश्व हिन्दू परिषद ने अभूतपूर्व लोक जागरण किया।

इस ऐतिहासिक जनांदोलन ने भविष्य के भारत की आधारशिला रखी। जाति,पंथ, भाषा से ऊपर उठकर चले इस महाभियान ने स्व.अशोक सिंहल जैसा नायक दिया, जिसने समाज और संत शक्ति के समन्वय से समरसता की धारा को तेज गति से प्रवाहित किया। एक तरफ जहां राजनीतिक दल समाज को तोड़ने में जुटे हैं विहिप समाज के एकीकरण और एकात्म भाव को लेकर सक्रिय है।

श्रमिक और छात्र आंदोलनों का नया विमर्श

संघ ने श्रमिक आंदोलन को संघर्ष की नहीं, संवाद और संगठन की दिशा दी। भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) इसकी जीवंत मिसाल है। दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे विचारकों के मार्गदर्शन में बीएमएस देश का सबसे बड़ा श्रमिक संगठन बना, जिसने मज़दूरों को राष्ट्र निर्माण का सहभागी बनाने का कार्य किया।

अभाविप ने भी छात्र आंदोलनों में अनुशासन, विचार और सकारात्मक हस्तक्षेप की एक नई परंपरा शुरू की। छात्र और शिक्षक का परस्पर सहयोग, शिक्षा में नवाचार और राष्ट्रवादी चिंतन अभाविप ने इसे एक आंदोलन का रूप दिया।

समावेशी दृष्टिकोण: भारत के विविध समाज का एकीकरण

संघ को प्रायः अल्पसंख्यक विरोधी कहा गया, किंतु इसके विपरीत संघ ने राष्ट्र को धर्म और जाति की संकीर्णताओं से ऊपर रखकर देखा है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के भाव के साथ संघ ने मुस्लिम समाज के साथ संवाद और समरसता को बल दिया।

राष्ट्रीय मुस्लिम मंच इसका मूर्त उदाहरण है, जहां मुस्लिम समुदाय के कई जागरूक सदस्य देश और संस्कृति के साथ जुड़कर रचनात्मक कार्य कर रहे हैं। इसी प्रकार राष्ट्रीय सिख संगत ने सिख और हिंदू समाज के बीच भेद बनाने के लिए खींची गई रेखाओं को मिटाने का कार्य किया है। संघ की दृष्टि में भारत केवल एक भूखंड नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक जीवित सत्ता है, जिसमें प्रत्येक नागरिक का स्थान है। चाहे उसकी जाति, पंथ या भाषा कोई भी हो।

राजनीति से ऊपर, राष्ट्रनीति की प्रेरणा

संघ का मूल कार्यक्षेत्र राजनीति नहीं है, परंतु उसके स्वयंसेवकों ने राजनीति में प्रवेश कर उसे मूल्यनिष्ठा, सेवा और राष्ट्रधर्म से जोड़ा है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी जैसे नायक संघ की विचारभूमि से निकले तपस्वी हैं, जिन्होंने राजनीति को राष्ट्रसेवा का माध्यम बनाया। भारतीय जनता पार्टी के माध्यम से संघ की राष्ट्रवादी विचारधारा को राजनीतिक मंच मिला, जिसने भारत की राजनीतिक संस्कृति को स्थायित्व, उद्देश्य और राष्ट्रबोध प्रदान किया।

शाखा: संगठन का मूल बीज

संघ की सबसे विशिष्ट विशेषता उसकी ‘शाखा’ है। यह केवल दिनचर्या का अनुशासन नहीं, बल्कि व्यक्तित्व निर्माण और समाज संगठन की पाठशाला है। यहां खेल, योग, गीत, व्याख्यान और अभ्यास के माध्यम से राष्ट्रप्रेम, सेवा और अनुशासन के बीज रोपे जाते हैं। शाखा का वातावरण सामाजिक समरसता का भी प्रतीक है ,जहां जाति, वर्ग, भाषा और आयु का भेद नहीं होता। सभी स्वयंसेवक एक समान भाव से भारतमाता की सेवा के लिए कटिबद्ध होते हैं।

भारत की आत्मा का जागरण

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक वैचारिक आंदोलन है। उसने दिखाया है कि संगठन, विचार और समर्पण के बल पर समाज को बदला जा सकता है, और राष्ट्र का नव निर्माण संभव है। संघ की यात्रा सेवा से समरसता तक, अनुशासन से राष्ट्रधर्म तक और शाखा से संसद तक—हर पड़ाव पर भारत की आत्मा को जागृत करती है। वह भारत को केवल एक राजनीतिक राष्ट्र नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक चेतना के रूप में स्थापित करना चाहता है।

संघ के कार्य को कोई चाहे जितना विरोध करे, किंतु उसकी राष्ट्रनिष्ठा, सेवा भावना और समर्पण को नकारा नहीं जा सकता। यही कारण है कि विरोधी भी व्यक्तिगत रूप से संघ के कार्यों की प्रशंसा करते हैं, और कहीं-न-कहीं उससे प्रेरित भी होते हैं।

संघ की शताब्दी यात्रा भारत की उस यात्रा का प्रतीक है, जो हजारों वर्षों की सभ्यता, संस्कृति और साधना का प्रतिफल है। यह यात्रा निरंतर चल रही है। भारत के निर्माण, उत्थान और पुनः विश्वगुरु बनने की दिशा में।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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