आजकल पत्रकारिता जगत में एक शब्द बेहद आम हो गया है- "वरिष्ठ पत्रकार"। हर दूसरा पत्रकार सोशल मीडिया प्रोफाइल से लेकर कॉलम बाइलाइन तक में खुद को "वरिष्ठ पत्रकार" कहता नजर आता है।
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Vikas Saxena
विकास सक्सेना, समाचार4मीडिया ।।
आजकल पत्रकारिता जगत में एक शब्द बेहद आम हो गया है- "वरिष्ठ पत्रकार"। हर दूसरा पत्रकार, चाहे वह टीवी चैनलों पर हो या डिजिटल मीडिया में, सोशल मीडिया प्रोफाइल से लेकर कॉलम बाइलाइन तक में खुद को "वरिष्ठ पत्रकार" कहता नजर आता है। सवाल यह है कि इस विशेषण का अर्थ वास्तव में क्या है? क्या यह उम्र से तय होता है, अनुभव से, या केवल आत्मघोषणा से?
सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि "वरिष्ठता" यानी Seniority शब्द अपने आप में उम्र से ज्यादा अनुभव से जुड़ा होता है। परंतु सिर्फ वर्षों का अनुभव होने से कोई पत्रकार "वरिष्ठ" कहलाए, ऐसा भी नहीं होना चाहिए। एक व्यक्ति 15-20 साल तक पत्रकारिता में रहते हुए भी केवल सामान्य रिपोर्टिंग या सतही लेखन करता रहा हो, तो क्या वह किसी गहन विश्लेषण, समझ और दृष्टिकोण में वरिष्ठ माना जा सकता है? दूसरी ओर कोई पत्रकार जिसने 10 साल के भीतर गंभीर खोजी पत्रकारिता की हो, सामाजिक प्रभाव डाला हो, पत्रकारिता की गरिमा बनाए रखी हो- वह वरिष्ठ कहलाने योग्य हो सकता है?
दरअसल, भारत में "वरिष्ठ पत्रकार" कोई संस्थागत रूप से मान्यता प्राप्त पद या उपाधि नहीं है। यह न तो किसी विश्वविद्यालय द्वारा दिया जाने वाली डिग्री है, न ही किसी पत्रकार संगठन की ओर से जारी किया गया प्रमाणपत्र। यह पूरी तरह एक सामाजिक और व्यावसायिक पहचान है, जो किसी व्यक्ति की पत्रकारिता में योगदान, दृष्टिकोण, संतुलन, और नैतिकता पर आधारित होनी चाहिए।
लेकिन आज स्थिति यह है कि कोई भी पत्रकार, चाहे वह 5 साल से पत्रकारिता कर रहा हो या 25 साल से, अपने नाम के आगे "वरिष्ठ पत्रकार" लिख देना उसका फैशन सा बन गया है। सोशल मीडिया प्रोफाइल पर यह एक ऐसा तमगा बन चुका है, जो बिना किसी सत्यापन के लगाया जा सकता है। यह ठीक वैसा ही है, जैसे कोई खुद को "संवेदनशील कवि" या "खोजी पत्रकार" घोषित कर दे।
आज जब मीडिया की साख पर सवाल उठ रहे हैं, तब पत्रकारिता संस्थानों और संगठनों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है कि वे "वरिष्ठ पत्रकार" जैसी शब्दावलियों को लेकर स्पष्टता पैदा करें। पत्रकारिता के छात्रों को यह सिखाया जाना चाहिए कि वरिष्ठता केवल समय की देन नहीं, बल्कि मूल्य आधारित पत्रकारिता, शोधपरक लेखन, और सामाजिक उत्तरदायित्व से अर्जित की जाती है। उन्हें यह भी समझाया जाना चाहिए कि पत्रकारिता में पद नहीं, प्रतिष्ठा मायने रखती है- जो जनता, पाठकों और सहकर्मियों द्वारा दी जाती है, खुद घोषित नहीं की जाती।
यह सही समय है जब मीडिया संगठनों और पत्रकार संघों को "वरिष्ठ पत्रकार" की स्वीकृति को लेकर कुछ मानदंड तय करने चाहिए। उदाहरण के लिए-
इनमें से कोई दो-तीन मानदंड भी किसी पत्रकार को "वरिष्ठ" की श्रेणी में रख सकते हैं, बशर्ते यह समाज और पत्रकारिता जगत भी उसे उसी नजर से देखे।
"वरिष्ठ पत्रकार" कोई सजावटी उपाधि नहीं, बल्कि जिम्मेदारी और गरिमा से जुड़ा एक सार्वजनिक विश्वास है। जब हर कोई खुद को वरिष्ठ कहने लगे, तो शब्द अपना अर्थ खो देता है। इसलिए जरूरी है कि पत्रकारिता में "वरिष्ठता" का मूल्य अनुभव, दृष्टिकोण, विवेक और निष्पक्षता से आंका जाए, ना कि महज प्रोफाइल पर लिखा हुआ एक आकर्षक विशेषण बनकर रह जाए। मीडिया की विश्वसनीयता तभी बचेगी, जब पदवी नहीं, पत्रकार का काम बोलेगा।
बिहार में बीजेपी की इस तूफानी जीत ने न सिर्फ भाजपा के आंतरिक समीकरणों को ओर भी दिलचस्प बनाया बल्कि भाजपा के कई दिग्गज नेताओं को अंदर से हिला दिया हैं।
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Samachar4media Bureau
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
यह कहने में अब कोई हिचक नहीं है कि अब हम मोदी गणतंत्र के वासी हैं और यह दौर सिर्फ और सिर्फ मोदी का है। प्रधानमंत्री मोदी का करिश्माई नेतृत्व और अमित शाह का संगठन कौशल ही है जिसने 2014 में मरी हुई भाजपा को जिंदा कर दिया और मोदी-शाह की नई भाजपा का जादू आज पूरे देश में सर चढ़कर बोल रहा है।
लगातार जीतने, अपना आकार बढ़ाने और भारत की राजनीति में अपने दबदबे की भूख और आग कभी मोदी और शाह को शांत नहीं बैठने देती। ‘बस बहुत हुआ अब थोड़ा आराम कर ले’, यह शब्द मोदी और शाह के लिए नहीं बने। मोदी और शाह की अगुवाई वाली भाजपा के लिए हर नाकामी भविष्य की कामयाबी की परियोजना बन जाती है। मतलब दिन दोगुनी और रात चौगुनी मशक्कत करने का आह्वान।
मोदी और शाह की उपस्थिति भाजपा को अजेय के भाव से भर देती है। बिहार बोल चुका है। मोदी और नीतीश का डबल इंजन का योग एनडीए के लिए सपनों से ज्यादा झोली भर के नतीजे ले आया। सरकार की नकारात्मकता मोदी के पैदा की गई सकारात्मकता की हवा में उड़ गई। मोदी राज में हुए विकास, हाईवे, कानून व्यवस्था और कल्याणकारी योजनाएं बिहार के हर वोटर के अपने निजी अनुभव के दायरे में हैं और महिलाओं में सुरक्षा का एहसास तो रोजमर्रा की जिंदगी का सबसे बुनियादी पहलू है ही, जिसमें सांप्रदायिक सीमा को छू लेने का तत्व भी है।
सिर्फ बिहार में ही नहीं पूरे भारत में हम वोटरों के एक नए वर्ग को जन्म लेता देख रहे हैं, जो कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थी हैं। बिहार में मोदी और नीतीश के तैयार किए गए इस वर्ग ने जातियों की सभी सीमाएं लांघी हैं। मोदी और शाह के चुनावी अभियान में हिंदुत्व की एक अंतर्धारा बहती है। खासकर युवा और महिलाएं इस नए वोट बैंक का हिस्सा हैं, जिसमें कल्याणकारी योजनाओं का तड़का भी है।
बिहार का यह अचंभित करने वाला चुनाव परिणाम निर्विवाद ब्रांड मोदी के कारण संभव हो सका है। मोदी और शाह ने मिलकर भाजपा को वह जादुई आभा दे दी है, जो वोट आकर्षित करती है। भारतीय राजनीति में अब दरअसल इसका कोई मतलब नहीं है कि मौजूदा चेहरा कमजोर है, या वाकई बोझ है। चेहरा कौन है, यह बेमानी सवाल है। हर चेहरे पर मोदी का चेहरा भारतीय राजनीति में वोटर देखने का आदी हो चुका है। मोदी है तो मुमकिन है। मोदी और भरोसा भारतीय राजनीति में समानार्थी शब्द बन गए हैं। जैसे पानी और दूध घुलमिल जाते हैं, वैसे ही वोटरों की नजर में मोदी और भरोसा घुलमिल गए हैं।
विपक्ष को इसे अलग करना फिलहाल संभव नहीं है। बिहार में मोदी के दम पर एनडीए की प्रचंड जीत ने अगले साल होने वाले पश्चिम बंगाल और उसके बाद 2027 में होने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव के मौसम का रुझान तय कर दिया है। बिहार में भाजपा के इस तूफानी जीत ने भाजपा के आंतरिक समीकरणों को और भी दिलचस्प बना दिया है। बिहार में मोदी और शाह के कमाल ने भाजपा के कई दिग्गज नेताओं को भी अंदर से हिला दिया है।
सिर्फ बिहार में विपक्ष की पार्टियों में सन्नाटा नहीं पसरा है। कई भाजपा शासित राज्यों और कई दिग्गज नेताओं को भी सांप सूंघ गया है। जो मोदी और शाह बीच बिहार के चुनाव में दिवाली के एक दिन पहले पूरे गुजरात के मंत्रिमंडल को बदल सकते हैं, वह मोदी और शाह बिहार की इस प्रचंड जीत के बाद क्या करेंगे कोई नहीं जानता। मोदी और शाह की इस अनमोल जोड़ी को बिहार जीत पर बहुत बहुत बधाई।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
दहशत फैलाने के लिए आठ डॉक्टर्स की चार टीमें बनाई गई थीं। चार गाड़ियां खरीदी गईं थी। बारूद का इंतज़ाम हो गया था। डेटोनेटर्स भी पहुंच गए थे। 26 जनवरी को दिल्ली में ब्लास्ट होना था।
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Samachar4media Bureau
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
अल फलाह यूनिवर्सिटी के डॉक्टर्स की साज़िश कितनी भयानक थी, इसे लेकर कई चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं। डॉक्टर मुजम्मिल की डायरी में तबाही का सीक्रेट प्लान मिला। उसकी गर्लफ्रेंड डॉक्टर शाहीन की डायरी में लड़कियों को रिक्रूट करने के लिए “ऑपरेशन हमदर्द” की डिटेल मिली। दहशत फैलाने के लिए आठ डॉक्टर्स की चार टीमें बनाई गई थीं। चार गाड़ियां खरीदी गईं थी।
बारूद का इंतज़ाम हो गया था। डेटोनेटर्स भी पहुंच गए थे। ब्लास्ट की तारीखें भी तय कर दी गई थीं। 6 दिसंबर को अयोध्या में और 26 जनवरी को दिल्ली में ब्लास्ट होना था। वाराणसी और लखनऊ भी आतंकवादियों के निशाने पर थे लेकिन पुलिस इस गिरोह के 4 सदस्यों तक पहुंच गई, इसीलिए ‘व्हाइट कॉलर मॉड्यूल’ की सारी प्लानिंग फेल हो गई।
अब डॉक्टर्स की जांच जैसे जैसे आगे बढ़ रही है, एक एक करके सारे राज़ खुलने लगे हैं। एक-एक करके दहशतगर्दों के हमदर्द पकड़े जा रहे हैं। अब तक सात गिरफ्तारियां हो चुकी हैं। लखनऊ से डॉ। शाहीन का भाई डॉक्टर परवेज़ पकड़ा गया, कानपुर से डॉक्टर आरिफ को गिरफ्तार किया गया। पुलिस अब डॉ. मुजम्मिल के भाई डॉ. मुज़फ्फर को खोज रही है। उसके खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस जारी किया गया है।
डॉ. मुज़म्मिल और डॉ. उमर के साथ डॉ. मुज़फ्फर भी तुर्किए गया था और अगस्त में देश से भाग गया। उसकी लोकेशन फिलहाल अफगानिस्तान में मिली है। इधर फरीदाबाद में पुलिस ने डॉक्टरों के इस मॉड्यूल की वो चौथी कार भी बरामद कर ली है, जो डॉ. शाहीन ने खरीदी थी।
ये कार अल फलाह यूनिवर्सिटी में मिली। इसका इस्तेमाल भी ब्लास्ट में होना था। अल फलाह यूनिवर्सिटी को इस व्हाइट कॉलर मॉड्यूल के डॉक्टर्स ने आतंकवाद का अड्डा बना दिया। पुलिस को अल फलाह यूनिवर्सिटी के कैंपस से एक और कार मिली। ये वो चौथी कार है जिसका इस्तेमाल ब्लास्ट के लिए किया जाना था।
दहशतगर्दों के नेटवर्क में शामिल डॉक्टर्स चार कारों के जरिए चार शहरों में ब्लास्ट की प्लानिंग कर रहे थे। जो चार गाड़ियां खरीदी गईं थीं, उसमे सें दो कारें डॉ शाहीन सईद ने खरीदी थीं और दो डॉ। उमर ने। सबसे पहले शाहीन की गाड़ी पकड़ी गई जिसमें AK-47 और विस्फोटक बरामद हुआ। दूसरी आई-20 कार से उमर ने लाल किले के पास ब्लास्ट किया।
तीसरी इको स्पोर्ट्स गाड़ी जो उमर के नाम पर खरीदी गई थी, वो अल फलाह यूनिवर्सिटी के पास एक गांव से बरामद हुई। डॉ। शाहीन के नाम पर जो ब्रेज़ा कार सितंबर में खरीदी गई, वह भी मिल गई।
डॉ. शाहीन, डॉ. मुज़म्मिल, डॉ. उमर और उनके साथियों की प्लानिंग ये थी कि हर कार में विस्फोटक भरकर अलग अलग शहरों में ब्लास्ट करें। हर ब्लास्ट के लिए दो-दो डॉक्टर्स की चार टीमें भी बन गई थी, कब ब्लास्ट करना है, कहां ब्लास्ट करना है, उसकी प्लानिंग भी हो चुकी थी। डॉ. मुज़म्मिल ने पूछताछ में सब कुछ उगल दिया है। प्लानिंग के मुताबिक, 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद ध्वंस की बरसी पर अयोध्या, वाराणसी और लखनऊ में धमाके का प्लान था।
26 जनवरी को लाल किले में ब्लास्ट किया जाना था। नेटवर्क में शामिल ज्यादातर लोग पकड़े जा चुके हैं। अब पुलिस इनके मददगारों को खोज रही है। इसके लिए एक-एक कड़ी को जोड़ा जा रहा है।
पुलिस ने अल फलाह यूनिवर्सिटी में काम करने वाले फहीम को पकड़ा। फहीम ही वो शख्स है जिसने डॉ. उमर के नाम पर रजिस्टर्ड लाल रंग की EcoSport कार को फरीदाबाद के खंडावली गांव में पार्क किया था। जांच में पता लगा कि जिस घर के सामने ये गाड़ी पार्क की गई थी, वो घर फहीम की बहन का है। फहीम अल फलाह मेडिकल कॉलेज में उमर के असिस्टेंट के तौर पर काम करता था।
गांव वालों का कहना है कि जिस वक्त ये गाड़ी पार्क की गई, उस वक्त कार में एक महिला भी थी जिसने बुर्का पहन रखा था। पुलिस इस महिला के बारे में पता लगाने की कोशिश कर रही है।
अल फलाह मेडिकल कॉलेज में NIA और दूसरी जांच एजसियों के अफसर डेरा डाले हुए हैं। यूनिवर्सिटी के स्टाफ से पूछताछ हुई। जब पुलिस ने अल फलाह यूनिवर्सिटी की बिल्डिंग नंबर 17 के रूम नंबर 13 की तलाशी ली तो साफ हो गया कि यही कमरा आतंकवादियों का मीटिंग प्वाइंट था। इसी कमरे में सारी प्लानिंग हुई। कमरा नंबर 13 में डॉ. मुजम्मिल और रूम नंबर 4 में डॉ. उमर बैठते थे। रूम नंबर 13 में डॉ. मुजम्मिल की इजाज़त के बगैर किसी के भी घुसने की मनाही थी। यहां से कुछ केमिकल्स और डिजिटल डेटा, कई तरह के डिवाइसेज़ और पेन ड्राइव मिली हैं।
पुलिस को शक है कि डॉ. मुजम्मिल, डॉ. शाहीन और डॉ. उमर ने मेडिकल कॉलेज की लैब से वो केमिकल्स चुराए जिनका इस्तेमाल विस्फोटक तैयार करने में होता है। इन्हीं केमिकल्स के साथ अमोनियम नाइट्रेट और ऑक्साइड मिलाकर विस्फोटक तैयार किए गए। यूनिवर्सिटी के लैब से केमिकल किस तरह यूनिवर्सिटी से बाहर ले जाने हैं, ये भी इसी कमरे में तय होता था।
ये हैरान करने वाली बात है कि अल-फलाह यूनिवर्सिटी में आतंकी साज़िश रची जाती रही, वहां की फैकेल्टी इस काम में शामिल थी, लंबे वक्त से यूनिवर्सिटी के अंदर ये सब चल रहा था लेकिन किसी को कानों-कान खबर तक नहीं हुई। इसीलिए अल-फलाह यूनिवर्सिटी जांच एजेंसियों के शक के दायरे में है।
यूनिवर्सिटी की बिल्डिंग नंबर 17 के रूम नंबर 13 और कमरा नंबर 4 से जांच एजेंसियों को डॉ. उमर और डॉ. मुज़म्मिल की डायरियां मिली हैं। एक डायरी धौज गांव के उस कमरे से भी बरामद हुई है जहां डॉ. मुजम्मिल ने 360 किलो विस्फोटक छुपाकर रखा था। इस कमरे से मिली मुजम्मिल की डायरी में कोडवर्ड्स में काफी जानकारी लिखी है। इसमें 8 और 12 नवंबर की तारीख का जिक्र है।
डायरी में करीब दो दर्जन लोगों के नाम है। इनमें ज्यादातर जम्मू-कश्मीर और फरीदाबाद के लोग हैं। जांच में ये तो साफ हो गया है कि ब्लास्ट की साजिश कम से कम दो महीने से चल रही थी। आतंकवादी अल फलाह यूनिवर्सिटी में बैठकर ब्लास्ट की प्लानिंग कर रहे थे, लेकिन किसी को इतनी बड़ी साज़िश की कानों कान खबर न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? इसीलिए अब जांच एजेसियां अल फलाह यूनिवर्सिटी की पूरी कुंडली खंगाल रही है।
इस मामले में ED की एंट्री भी हो गई है। अब ED अल फलाह यूनिवर्सिटी के सारे ट्रांजैक्शन्स का रिकॉर्ड चैक कर रही है। इस यूनिवर्सिटी की फंडिंग की जांच हो रही है। ये भी पता लगाया जा रहा है कि हरियाणा की इस यूनिवर्सिटी में ज्यादातर प्रोफेसर्स, असिस्टेंट प्रोफेसर्स और मेडिकल छात्र जम्मू कश्मीर से ही क्यों आते थे। हालांकि अल फलाह यूनिवर्सिटी की तरफ से अब बार बार सफाई दी जा रही है।
ये कहा जा रहा है कि जो लोग आतंकवादी गतिविधियों में पकड़े गए हैं, उनका यूनिवर्सिटी के साथ प्रोफेशनल रिश्ता था। वो यूनिवर्सिटी के बाहर क्या कर रहे हैं, इससे यूनिवर्सिटी का कोई लेना-देना नहीं है।
अल-फलाह यूनिवर्सिटी को चलाने वाले चेरिटेबिल ट्रस्ट के एडवाइज़र मोहम्मद रज़ी ने कहा कि यूनिवर्सिटी जांच एजेंसियों की पूरी मदद कर रही है। ट्रस्ट के चेयरमैन जवाद अहमद सिद्दीकी भी जांच एजेंसियों के संपर्क में हैं। मोहम्मद रज़ी ने कहा कि जवाद अहमद सिद्दीकी की पृष्ठभूमि को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं लेकिन कोर्ट ने उन्हें पुराने सारे मामलों में क्लीन चिट दे दी है।
अल-फलाह यूनिवर्सिटी की सफाई अपनी जगह है लेकिन यूनीवर्सिटी की तरफ से इस सवाल का कोई जवाब नहीं मिला कि अल फलाह मेडिकल कॉलेज की लैब से विस्फोटक तैयार करने में इस्तेमाल होने वाले केमिकल कैंपस से बाहर कैसे गए। Association of Indian Universities ने अल फलाह की सदस्यता रद्द कर दी। अल-फलाह यूनिवर्सिटी से AIU का LOGO और नाम इस्तेमाल न करने को कहा गया है।
ये भी खुलासा हुआ कि अल फलाह यूनीवर्सिटी ये भी झूठा दावा कर रही थी कि नेशनल असेसमेंट एंड एक्रीडेशन काउंसिल यानि NAAC ने उसे A ग्रेड की रेटिंग दी है। NAAC ने साफ किया कि अल फलाह यूनीवर्सिटी ने न तो कभी रेटिंग के लिए अप्लाई किया और न ही उसे कभी रेटिंग दी गई।
NAAC ने अल फलाह यूनीवर्सिटी से जवाब मांगा है। NAAC का नोटिस मिलने के बाद यूनिवर्सिटी के वेबसाइट डाउन हो गई। अल फलाह यूनिवर्सिटी को इस पूरे मामले में क्लीन चिट कैसे दी जा सकती है? ऐसा कैसे हो सकता है कि कश्मीर से आतंकवादियों द्वारा भेजे गए डॉक्टर्स एक-एक करके यहां आते गए, नौकरी पाते गए और कोई पूछने वाला नहीं था?
जिन डॉक्टरों को बाकी जगहों से देशद्रोह या अनुशासनहीनता के लिए निकाला गया, उनकी नियुक्ति यहां बड़े आराम से हो गई। मौलाना इश्तियाक रोज अल फलाह के चक्कर काटते रहे, डॉक्टरों को जिहाद की सीख देते रहे और उन्हें रोकने वाला कोई नहीं था ?
अल फलाह का मेडिकल कॉलेज आतंकवाद का अड्डा बन गया। अल फलाह के पास गांव में बारूद का ढेर लग गया। ब्लास्ट के लिए तैयार कारें कैम्पस में सजकर खड़ी रहीं और किसी को पता नहीं चला? ये सब कैसे हो सकता है? साज़िश करने वाले डॉक्टर्स को अल फलाह ने पनाह दी, पैसे दिए, विस्फोटक तैयार करने के लिए labs दी और धीरे-धीरे अल फलाह एक बड़े आतंकवादी module का सेंटर बन गया। ये संयोग नहीं, प्रयोग लगता है।
अल फलाह यूनिवर्सिटी का सबसे सनसनीखेज़ किस्सा डॉ. शाहीन के आतंकवादी बनने का है। डॉ. शाहीन के भाई डॉक्टर परवेज को अरेस्ट किया जा चुका है। डॉ। परवेज लखनऊ की इंटीग्रल यूनीवर्सिटी में प्रोफेसर था। डॉ। परवेज ने दिल्ली ब्लास्ट से तीन दिन पहले सात नवंबर को यूनिवर्सिटी से इस्तीफा दे दिया था।
यूपी ATS ने गुरुवार को लखनऊ की इंटीग्रल यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले जम्मू कश्मीर के करीब 60 छात्रों का बैकग्राउंड चैक किया। परवेज के घर से पुलिस ने जो लैपटॉप, दस मोबाइल और दूसरे गैजेट्स बरामद किए गये, उससे ये साफ हो गया कि डॉ. परवेज भी अपनी बहन डॉ. शाहीन के साथ टेरर मॉड्यूल में शामिल था। वह कश्मीर के कुछ लोगों से लगातार संपर्क में था लेकिन वो टेरर नेटवर्क से जुड़े लोगों को जब भी कॉल करता था या कोई मैसेज करता था तो उसे तुंरत डिलीट कर देता था। अब पुलिस इसके गैजेट्स का सारा डेटा रिकवर करने की कोशिश कर रही है।
डॉ. परवेज से पूछताछ में पुलिस को कानपुर के डॉक्टर आरिफ मीर के बारे में पता लगा। डॉ. आरिफ कश्मीर का रहने वाला है। वह कानपुर के LPS इंस्टीट्यूट ऑफ कार्डियोलॉजी और कार्डिएक सर्जरी हॉस्पिटल में रेजीडेंट डॉक्टर के तौर पर काम कर रहा था। डॉ. आरिफ़ कानपुर के अशोक नगर में कमरा किराए पर लेकर रह रहा था। पुलिस ने डॉ. आरिफ को हिरासत में लिया है।
दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने यूपी के हापुड़ से डॉक्टर फारूख को डिटेन किया है। डॉ। फारूख कश्मीर का रहने वाला है। वह हापुड़ में GS हॉस्पिटल के gynaecology विभाग में काम करता है। डॉ। फारूख ने अल फलाह यूनिवर्सिटी से ही MBBS और MD किया था। डॉ. फारूख के बारे में जानकारी डॉक्टर मुज़म्मिल से पूछताछ के बाद सामने आई। मुजम्मिल ने अपने बयान में खुलासा किया कि दिल्ली विस्फोट की साजिश में डॉ। फारूख की अहम भूमिका थी। वह डॉक्टर शाहीन के संपर्क में भी था। इसके बाद पुलिस ने डॉ. फारूख को गिरफ्तार कर लिया।
डॉ. मुज़म्मिल की दोस्त डॉ. शाहीन की डायरी पुलिस ने बरामद की है जिससे कई राज सामने आए। जैश-ए-मोहम्मद के हैंडलर्स ने शाहीन को कोड वर्ड में ‘मैडम सर्जन’ का नाम दिया था, देशभर में ब्लास्ट की साजिश को नाम दिया गया था, ‘ऑपरेशन हमदर्द’ ‘मैडम सर्जन’ का काम था मुस्लिम लड़कियों का रिक्रूटमेंट करना। डॉ. शाहीन जैश-ए-मोहम्मद के कमांडर्स के साथ तालमेल का काम करती थी। जांच के दौरान सुरक्षा एजेंसियों को शाहीन के चैटबॉक्स में 'टीम D' का जिक्र मिला है।'टीम D' यानी आतंकी गतिविधियों में शामिल डॉक्टरों की टीम। इस टीम में शाहीन और उसके डॉक्टर साथी शामिल थे जिनको कोड वर्ड के ज़रिए टास्क दिया जाता था।
चैटिंग के दौरान Heart स्पेशलिस्ट, Eye स्पेशलिस्ट, Physician शब्दों का इस्तेमाल होता था। छोटे हथियार के लिए Medicine स्टॉक, रेकी वाली जगह को लेकर ऑपरेशन थिएटर शब्द का इस्तेमाल किया जाता था। पैसों का इंतज़ाम करने के लिए ऑपेरशन की तैयारी जैसे कोड़वर्ड का इस्तेमाल होता था। शाहीन की डायरी से ही पुलिस को पता चला कि आंतक की साजिश को अंजाम तक पहुंचाने के लिए टीम-D ने 26 लाख रुपये जुटाए थे। इसमें से 3 लाख रुपये से 26 क्विंटल NKP फर्टिलाइज़र, टाइमर और रिमोट समेत कुछ और सामान खरीदा गया।
डॉक्टर शाहीन की डायरी से आफिरा बीबी के बारे में भी पता चला। आफिरा बीबी जैश-ए-मोहम्मद की महिला विंग की कमांडर है। पुलवामा हमले के मास्टरमाइंड उमर फारूक की पत्नी है। डॉक्टर शाहीन को पाकिस्तान से सारे ऑर्डर आफिरा बीबी के ज़रिए मिलते थे। पुलिस को इस बात के भी सबूत मिले हैं कि डॉक्टर शाहीन जैश-ए-मोहम्मद के चीफ मसूद अज़हर की बहन सादिया अज़हर के साथ लगातार संपर्क में थी। आफिरा और सादिया ने ही ऑपरेशन हमदर्द की जिम्मेदारी डॉक्टर शाहीन को दी थी।
ये लोग पैसों के लेन-देन के लिए भी टेलीग्राम चैनल का ही इस्तेमाल कर रहे थे। इस बात में तो कोई शक नहीं कि अल फलाह को आतंक का अड्डा बनाने में पाकिस्तान का हाथ है। इस बात में भी कोई संदेह नहीं कि इस बार बड़ी चालाकी से डॉक्टरों को जिहादी बनाया गया। पढ़े-लिखे लोग जब दहशतगर्द बनते हैं तो ज्यादा खतरनाक होते हैं। उनसे सुराग निकालना मुश्किल होता है। पाकिस्तान का इस आतंकी नेटवर्क से कनेक्शन स्थापित न हो पाए, इसीलिए इस बार ISI ने तुर्किए का सहारा लिया। तुर्किए की सरकार भारत विरोधी है।
हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर वो पाकिस्तान का साथ देती है। ऑपरेशन सिंदूर के वक्त भी भारत पर हमले के लिए तुर्किए में बने ड्रोन्स मैदान में आए थे। लेकिन जिस तरह से हमारी पराक्रमी फौज ने एक एक ड्रोन्स को मार गिराया, उसी तरह आतंकवाद के एक एक एजेंट का सफाया होगा। हमें अपने सुरक्षा बलों पर भरोसा रखना चाहिए कि वो पाकिस्तान के कनेक्शन का पर्दाफाश करेंगे और दहशतगर्दों के आकाओं को सज़ा भी देंगे।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
आतंकियों के आकाओं को, जो इन बेगुनाहों की हत्या के लिए ज़िम्मेदार हैं, कभी माफ नहीं किया जा सकता, चाहे वे किसी भी देश में छिपे हुए हों। देश इन बेगुनाहों की हत्या का हिसाब मांग रहा है।
by
Samachar4media Bureau
रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
सोमवार को दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले के पास हुए बम धमाके में मरने वालों की संख्या बढ़कर 13 हो गई है। अभी 21 घायल लोगों का अस्पताल में इलाज चल रहा है। जांच कर रहे पुलिस अधिकारियों का कहना है कि यह एक आत्मघाती बम धमाका था, जिसे एक डॉक्टर डॉ. उमर उन नबी ने अंजाम दिया।
हुंडई i20 कार में बैठा यह डॉक्टर लाल किला मेट्रो स्टेशन के पास एक रेड लाइट पर रुका, और उसी वक्त शाम 6:52 पर धमाका हुआ। शुरुआती जांच से पता चला है कि डॉ. उमर का फरीदाबाद के एक आतंकी ग्रुप से संबंध था। इस आतंकी ग्रुप से सोमवार को जम्मू-कश्मीर और हरियाणा पुलिस ने 2,900 किलो अमोनियम नाइट्रेट ज़ब्त किया था।
उसी के कुछ घंटे बाद ही लाल किले के पास धमाका हुआ। पुलिस सूत्रों का कहना है कि डॉ. उमर जैश-ए-मुहम्मद के आतंकी मॉड्यूल का एक सदस्य था, जिसमें कई डॉक्टर डॉ. मुज़म्मिल और डॉ. अदील अहमद डार शामिल थे। डॉ. मुज़म्मिल को जम्मू-कश्मीर पुलिस ने 30 अक्टूबर को गिरफ्तार किया था और कुछ दिन बाद ही डॉ. अदील अहमद डार को हिरासत में लिया गया।
पूछताछ से मिली जानकारी के आधार पर फरीदाबाद के एक किराये के मकान की तलाशी ली गई और 2,900 किलो अमोनियम नाइट्रेट ज़ब्त किया गया। आतंकवादियों ने 2,900 किलो विस्फोटक इकट्ठा किया था। उनका इरादा दिल्ली को तबाह करने का था। इतना विस्फोटक पूरे शहर को उड़ा सकता था।
अल-फलाह यूनिवर्सिटी को आतंकवादियों ने एक आवरण (कवर) की तरह इस्तेमाल किया था। किसी को शक न हो, इसलिए डॉक्टरों को सदस्य बनाया गया और वो भी ऐसे डॉक्टर जो यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे। उनमें से एक ने अपनी प्रेमिका डॉक्टर को भी इस खूनी खेल में शामिल किया।
AK-47 राइफल और बाकी असलहा इसी लड़की की कार से बरामद हुआ। अगर ये डॉक्टर न पकड़े गए होते तो बड़ा नुकसान हो सकता था। पुलिस ने लखनऊ से एक महिला डॉक्टर शाहीन को हिरासत में लिया। उसकी कार में एक AK-47 राइफल मिली। डॉक्टर को पूछताछ के लिए विमान से श्रीनगर ले जाया गया। केंद्रीय गृह मंत्री ने मंगलवार को दिल्ली के पुलिस आयुक्त, इंटेलिजेंस ब्यूरो, राष्ट्रीय जांच एजेंसी और अन्य सुरक्षा एजेंसियों के साथ बैठक की। मंगलवार की रात अमित शाह लाल किले के पास घटनास्थल का मुआयना करने गए थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है -मैं हर किसी को आश्वस्त करता हूं कि हमारी जांच एजेंसियां इस षड्यंत्र की तह तक जाएंगी। जो भी लोग इसके लिए ज़िम्मेदार हैं, उन्हें किसी भी कीमत पर नहीं बख्शा जाएगा। आतंकियों के आकाओं को जो इन बेगुनाहों की हत्या के लिए ज़िम्मेदार हैं कभी माफ नहीं किया जा सकता, चाहे वे किसी भी देश में छिपे हों। देश इन बेगुनाहों की हत्या का हिसाब मांग रहा है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
अपने लेखन और प्रस्तुति से कहीं भी मीडिया को आतंकवाद के प्रति नरम रवैया नहीं अपनाना चाहिए ताकि जनता में आतंकी गतिविधियों के प्रति समर्थन का भाव न आने पाए।
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Samachar4media Bureau
प्रो.संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष।
दिल्ली में हुए बम धमाकों के बाद फिर से एक दशक पूर्व तक देश में होने वाली आतंकवाद की घटनाएं ताजा हो गयी हैं। टीवी मीडिया पर मचे हाहाकार को देखकर लोग हैरत में हैं। लगातार और निरंतर करवेज से मीडिया न सिर्फ भय का विस्तार करता है बल्कि आतंकवादियों को शक्ति देता हुआ नजर आता है। हम यह जानते हैं कि आतंकवाद का सारा काम भय का व्यापार ही है।
ऐसे में भारत जैसे वर्षों से आतंकवाद के शिकार देश में, मीडिया कवरेज की चुनौतियां बहुत कठिन हो जाती हैं। तेज और गतिमान कवरेज के बजाए सही और जिम्मेदार होना ही आतंकवाद विरोधी मीडिया की पहली शर्त है। मीडिया को खबरों की गेटकीपिंग (समाचार के चयन और नियंत्रण की प्रक्रिया) पर खास जोर देना चाहिए ताकि इसका दुरूपयोग रोका जा सके। दूसरा बड़ा काम जनमत निर्माण का है, अपने लेखन और प्रस्तुति से कहीं भी मीडिया को आतंकवाद के प्रति नरम रवैया नहीं अपनाना चाहिए ताकि जनता में आतंकी गतिविधियों के प्रति समर्थन का भाव न आने पाए।
आतंकवाद के खिलाफ मुंबई हमलों के बाद मीडिया ने जिस तरह की बहस की शुरूआत की थी, उसे साधारण नहीं कहा जा सकता। उसकी प्रशंसा होनी चाहिए। हमारी आतंरिक सुरक्षा से जुड़े प्रश्न जिस तरह से उठाए गए थे। वे शायद पहली बार इतनी प्रखरता से सामने आए थे। राजनीतिक नेतृत्व की विफलता को रेखांकित करने के अलावा हमारे गुप्तचर तंत्र और उससे जुड़ी तमाम खामियों पर एक सार्थक विमर्श सामने आया। आतंकवाद की खबर अन्य खबरों की तरह एक सामान्य खबर है, यह सोच भी बदलनी होगी।
भारत जैसे देश में जहां विविध भाषा-भाषी, जातियों, पंथों के लोग अपनी-अपनी सांस्कृतिक चेतना और परंपराओं के साथ सांस ले रहे हैं, आतंक को फलने- फूलने के अवसर मिल ही जाते हैं। हमारा उदार लोकतंत्र और वोट के आधार पर बननेवाली सरकारें भी जिस प्रामणिकता के साथ आतंकवाद के खिलाफ खड़ा होना चाहिए, खड़ी नहीं हो पातीं। जाहिर तौर पर ये लापरवाही, आतंकी ताकतों के लिए एक अवसर में बदल जाती है। ऐसे में भारतीय मीडिया की भूमिका पर विचार बहुत जरूरी हो जाता है कि क्या भारतीय मीडिया अपने आप में एक ऐसी ताकत बन चुका है, जिससे आतंकवाद जैसे मुद्दे पर कोई अपेक्षा पाली जानी चाहिए?
मुंबई हमलों के समय मीडिया कवरेज को लेकर जैसे सवाल उठे थे, वे अपनी जगह सोचने के लिए विवश करते रहे। लेकिन हमें यह भी सोचना होगा कि आतंकवाद जैसे गंभीर विषय पर संघर्ष के लिए क्या हमारा राष्ट्र- राज्य तैयार है। भारत जैसा महादेश जहां दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी रहती है में ऐसी क्या कमजोरी है कि हम आतंकवादी ताकतों का सबसे कमजोर निशाना हैं। आतंकवाद का बढ़ता संजाल दरअसल एक वैश्विक संदर्भ है जिसे समझा जाना जरूरी है। दुनिया के तमाम देश इस समस्या से जूझ रहे हैं।
बात भारत और उसके पड़ोसी देशों की हो तो यह जानना भी दिलचस्प है कि आतंकवाद की एक बड़ी पैदावार इन्हीं देशों में तैयार हो रही है। भारतीय मीडिया के सामने यह बड़ा सवाल है कि वह आतंकवाद के प्रश्न पर किस तरह की प्रस्तुति करे। आप देखें तो ‘पाकिस्तान’ हिंदुस्तानी मीडिया का एक प्रिय विषय है वह शायद इसलिए क्योंकि दोनों देशों की राजनीति एक-दूसरे के खिलाफ माहौल बनाकर अपने चेहरों पर लगी कालिख से बचना चाहती है। पाकिस्तान में जिस तरह के हालात लगातार बने हुए हैं, उसमें लोकतंत्र की हवा दम तोड़ चुकी है। जिसके चलते वहां कभी अच्छे हालात बन ही नहीं पाए। ‘भारत घृणा’ पाकिस्तानी राजनीति का मूलमंत्र है, वहीं कश्मीर का सवाल इस भावना को खाद-पानी देता रहा है।
पर बात अब आगे जा चुकी है,बात अब सिर्फ पाक की नहीं है उन अतिवादी संगठनों की भी है जो दुनिया के तमाम देशों में बैठकर एक ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं जिसका अंत नजर नहीं आता। पाक की सरकार भी इनके आगे बेबस नजर आती है। आतंकवाद की तरफ देखने के मीडिया के रवैये पर बातचीत करने के बजाए हमें सोचना होगा कि क्या हम आतंकवाद को कोई समस्या वास्तव में मान रहे हैं या हमने इसे अपनी नियति मान लिया है? दूसरा सवाल यह उठता है कि अगर हम इसे समस्या मानते हैं तो क्या इसके ईमानदार हल के लिए सच्चे मन से तैयार हैं।
मीडिया के इस प्रभावशाली युग में मीडिया को तमाम उन चीजों का भी जिम्मेदार मान लिया जाता है, जिसके लिए वह जिम्मेदार होता नहीं हैं। मीडिया सही अर्थों में घटनाओं के होने के बाद उसकी प्रस्तुति या विश्लेषण की ही भूमिका में नजर आता है। आतंकवाद जैसे प्रश्न के समाधान में मीडिया एक बहुत सामान्य सहयोगी की ही भूमिका निभा सकता है। भारत जैसा देश आतंकवाद के अनेक रूपों से टकरा रहा है। एक तरफ पाक पोषित आतंकवाद है तो दूसरी ओर वैश्विक इस्लामी आतंकवाद है जिसे अलकायदा,जैस ए मोहम्मद जैसे संगठन पोषित कर रहे हैं। इसी तरह पूर्वोत्तर राज्यों में चल रहा आतंकवाद तथा अति वामरूझानों में रूचि रखने वाला माओवादी आतंकवाद जिसने वैचारिक खाल कुछ भी पहन रखी हो, पर हैं वे भारतीय लोकतंत्र के विरोधी।
ऐसे समय में जब आतंकवाद का खतरा इतने रूपों में सामने हो तो मीडिया के किसी भी माध्यम में काम करने वाले व्यक्ति की उलझनें बढ़ जाती हैं। एक तो समस्या की समझ और उसके समाधान की दिशा में सामाजिक दबाव बनाने की चुनौती सामने होती है तो दूसरी ओर मीडिया की लगातार यह चिंता बनी रहती है कहीं वह इन प्रयासों में जरा से विचलन से भारतीय राज्य या लोकतंत्र का विरोधी न मान लिया जाए। घटनाओं के कवरेज के समय उसके अतिरंजित होने के खतरे तो हैं पर साथ ही अपने पाठक और दर्शक से सच बचाने की जिम्मेदारी भी मीडिया की ही है। यह बात भी सही है कि आंतकवाद के कवरेज के नाम पर कुछ बेहद फूहड़ प्रस्तुतियां भी मीडिया में देखने को मिलीं, जिनकी आलोचना भी हुयी। किंतु यह कहने और स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए हर संकट के समय भारतीय मीडिया ने अपने देश गौरव तथा आतंकवाद के खिलाफ अपनी प्रतिबद्धता को प्रकट किया है।
मुंबई धमाकों के समय भारतीय मीडिया की भूमिका को काफी लांछित किया गया और उसके सीधे प्रसारण को कुछ लोगों की मौत का जिम्मेदार भी माना गया। किंतु ऐसे प्रसंगों पर सरकार की जबाबदेही भी सामने आती है। मीडिया अपनी क्षमता के साथ आपके साथ खड़ा है। किस प्रसंग का प्रसारण करना किसका नहीं इसका नियमन मीडिया स्वयं नहीं कर सकता। जब सीधे प्रसारण को रोकने की बात सेना की ओर से कही गयी तो मीडिया ने तत्काल इस पर अमल भी किया था।
यह बहुत जरूरी है कि आतंकवाद जैसे राष्ट्रीय प्रश्न पर मीडिया की भूमिका पर विचार जरूर हो। कवरेज की हदें और सरहदें जरूर तय हों। खासकर ऐसे मामलों में कि जब सेना या सुरक्षा बल कोई सीधी लड़ाई लड़ रहे हों। मीडिया पर सबसे बड़ा आरोप यही है कि वह अपराध या आतंकवाद के महिमामंडन का लोभ संवरण नहीं कर पाता। यही प्रचार आतंकवादियों के लिए मीडिया आक्सीजन का काम करता है। यह गंभीर चिंता का विषय है। इससे आतंकियों के हौसले तो बुलंद होते ही हैं आम जनता में भय का प्रसार भी होता है।
विचारक बौसीओऊनी लिखते हैं कि – “वास्तव में संवाददाता पूर्णतया सत्य खबरों का विवरण नहीं देते । परिणामतः वे इस प्रक्रिया में एक विषयगत भागीदार बन जाते हैं। ये मुख्यतया समाचार लेखक ही होते हैं। आतंकवादी इन स्थितियों का पूर्ण लाभ उठा लेते हैं और बड़ी ही दक्षतापूर्वक इन जनमाध्यमों का उपयोग अपने स्वार्थ एवं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कर लेते हैं।” देश जब एक बड़ी लड़ाई से मुखातिब है तो खास संदर्भ में मीडिया को भी अपनी भूमिका पर विचार करना चाहिए। आज असहमति के अधिकार के नाम पर देश के भीतर कई तरह के सशस्त्र संघर्ष खड़े किए जा रहे हैं, लोकतंत्र में भरोसा न करने वाली ताकतें इन्हें कई बार समर्थन भी करती नजर आती हैं। यह भी बड़ा गजब है कि लोकतंत्र में आस्था न रखने वाले, खून-खराबे के दर्शन में भरोसा करने वालों के प्रति भी सहानुभूति रखने वाले मिल जाते हैं, जिन्हें अरबन नक्सल कहकर भी संबोधित किया जा रहा है।
राज्य या पुलिस अथवा सैन्य बलों के अतिवाद पर तो विचार-जांच करने के लिए संगठन हैं, किंतु आतंकवादियों या माओवादियों के विरूद्ध आमजन किसका दरवाजा खटखटाएं। यह सवाल सोचने को विवश करता है। क्रांति या किसी कौम का राज लाना और उसके माध्यम से कोई बदलाव होगा ऐसा सोचने मूर्खों के स्वर्ग में रहने जैसा ही है। शासन की तमाम प्रणालियों में लोकतंत्र ही अपनी तमाम बुराइयों के बावजूद सबसे श्रेष्ठ प्रणाली मानी गयी है। ऐसे में मीडिया को यहां सावधान रहने की जरूरत है कि ये ताकतें कहीं उसका इस्तेमाल न कर ले जाएं।
सूचना देने के अपने अधिकार के साथ ही साथ हमारी एक बड़ी जिम्मेदारी अपने देश के प्रति भी है। अतएव किसी भी रूप में आतंकवादी हमारी ताकत से प्रचार या मीडिया आक्सीजन न पा सकें यह देखना जरूरी है। विद्वान विलियम कैटन लिखते हैं कि “आतंकवाद बुनियादी रूप से एक रंगमंच की तरह होता है। आतंकवादी गतिविधियों के द्वारा यह समूह जनता में अपनी भूमिकाएं अभिनीत करता है एवं जनमाध्यमों एवं मीडिया द्वारा इसे लोगों तक सुगमता से पहुंचाता है।”
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
अभी यह कन्फर्म नहीं हुआ है कि यह आतंकी हमला ही है या नहीं, लेकिन जिस हाई-इंटेंसिटी का यह ब्लास्ट है, उससे यह काफी हद तक आतंकी हमला ही लगता है।
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नीरज बधवार, पत्रकार, लेखक।
पहले सहारनपुर से कश्मीरी डॉक्टर मुजम्मिल शकील समेत 8 लोगों की गिरफ्तारी होती है। फिर फरीदाबाद में उसके घर से हथियार बरामद होते हैं। आज लखनऊ से महिला डॉक्टर शाहीन शाहिद को भी AK-47 के साथ गिरफ्तार किया जाता है। पिछले दो दिनों में गुजरात एटीएस ने गांधीनगर से तीन आतंकवादियों को पकड़ा था। ये लोग रिसिन नाम के केमिकल को प्रसाद में मिलाकर बड़े पैमाने पर लोगों को मारने की तैयारी कर रहे थे। और अभी ये सारी गिरफ्तारियाँ चल ही रही थीं कि शाम 7 बजे लाल किले मेट्रो स्टेशन के पास एक ईको वैन में ज़ोरदार धमाका होता है।
इसमें अब तक 10 लोगों की मौत हो चुकी है। अभी यह कन्फर्म नहीं हुआ है कि यह आतंकी हमला ही है या नहीं, लेकिन जिस हाई-इंटेंसिटी का यह ब्लास्ट है, उससे यह काफी हद तक आतंकी हमला ही लगता है। यह भी लगता है कि यूपी और गुजरात से हुई गिरफ्तारियों के बाद दिल्ली वाला धमाका जल्दबाज़ी में कर दिया गया। शायद ये लोग बाद में यह अटैक करने वाले हों, लेकिन हालिया गिरफ्तारियों के बाद पकड़े जाने के डर से इन्होंने पहले ही इस वारदात को अंजाम दे दिया।
वजह जो भी रही हो, मेरा बस इतना कहना है कि ऐसे हर हमले के बाद इस्लामिक आतंकी सबसे ज़्यादा नुकसान इस्लाम का ही करते हैं। अगर आपने यह हमला मोदी को कमज़ोर करने के लिए किया है तो ऐसे हमले उन्हें राजनीतिक तौर पर और मज़बूत कर देंगे। अगर आपको लगता है कि मुसलमानों को शक की निगाह से देखा जाता है, तो ऐसे हमलों के बाद वह शक और बढ़ेगा। अगर आपको लगता है कि देश में कट्टर हिंदुत्व बढ़ रहा है, तो ऐसे हमलों से वो कट्टरता और बढ़ेगी। बाकी दस-बीस लोगों की जान लेने से क्या होगा?
जब इज़राइल अपनी पूरी ताकत और अमेरिकी मदद के बावजूद दो साल में हमास को ख़त्म नहीं कर पाया, तो क्या आपको लगता है कि दो-चार धमाकों से सौ करोड़ हिंदू ख़त्म हो जाएंगे या घबरा जाएंगे? आप अमेरिका को देख लें, इटली को देख लें, नीदरलैंड्स को देख लें, जर्मनी को भी देख लें- पूरी दुनिया में इस्लामी कट्टरपंथ के विरोध में दक्षिणपंथ मज़बूत हुआ है। दक्षिणपंथ की बात करके उलजुलूल लोग भी चर्चा में आ गए हैं। कोई कौम या मुल्क कितना भी लिबरल क्यों न हो, वहाँ दूसरे विचारों के लिए कितना भी स्पेस क्यों न हो, लेकिन जब बात उसके अस्तित्व की आती है, तो वह भी किसी भी तरह के प्रतिशोध के लिए तैयार हो जाता है।
अगर किसी भी कौम या मज़हब को यह लगता है कि वही सुप्रीम है या उसका ऊपरवाला श्रेष्ठ है, तो यह सह-अस्तित्व के बुनियादी नियम के खिलाफ है। जब आप ऐसे आदमी से दोस्ती नहीं कर सकते जो खुद को Superior मानता हो, तो आप सोसाइटी से यह कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि वह आपके religious belief को इकलौता सच माने। अपने भगवान को आपके भगवान से श्रेष्ठ माने? जैसे आप डिफ़ॉल्ट रूप से किसी धर्म में पैदा होकर उसकी श्रेष्ठता का गुणगान करने को मजबूर होते हैं, वैसे ही सामने वाले की भी वही मजबूरी है।
इसलिए अपनी धार्मिक श्रेष्ठता दूसरों पर ठोपने की ज़िद सिर्फ अलगाव और हिंसा को जन्म देगी। और यह समझ लीजिए, दुनिया में सबसे बड़ी ख्वाहिश ज़िंदा रहने की होती है, और इस ख्वाहिश में इंसान कैसी भी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो जाता है। इसलिए कैसी भी हिंसा, चालाकी या होशियारी आपको जीत नहीं दिला सकती। और यह बात जितनी जल्दी समझ आ जाए, उतना बेहतर है। वरना यूँ ही खून बहता रहेगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
हम सब Google तो करते आए ही है, तो इसके सामने ChatGPT , Gemini या Perplexity अलग कैसे है? Google Search और ChatGPT ऐसी लाइब्रेरी है जिसमें हर छोटे बड़े विषयों की किताबें हैं।
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
पिछले हफ़्ते मैंने हिसाब किताब में लिखा था कि कंपनियाँ आपको AI का प्रीमियम प्लान फ्री में क्यों दे रही हैं? तो बहुत सारे पाठकों और दर्शकों ने पूछा कि हम AI का इस्तेमाल कैसे करें? आज का हिसाब किताब यह समझाने की कोशिश है कि रोजमर्रा की ज़िंदगी में हम AI यानी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं।
हम सब Google तो करते आए ही है, तो इसके सामने ChatGPT , Gemini या Perplexity अलग कैसे है? इस तरह से समझिए की Google Search और ChatGPT दोनों ऐसी लाइब्रेरी है जिसमें दुनिया भर के हर छोटे बड़े विषयों की किताबें है। Google पर आप सर्च करते हैं तो वो आपको उस विषय से संबंधित किताबों की सूची दे देता है। आप किताब यानी वेबसाइट की लिंक खोलिए और पढ़ लीजिए।
ChatGPT उस लाइब्रेरी में बैठे एक प्रोफेसर की तरह है जिन्होंने सारी किताबें पढ़ रखी हैं। आप सवाल ( AI की भाषा में Prompt ) पूछते हैं वो बोलचाल की भाषा में जवाब दे देते हैं। आपको गूगल की तरह किताब खोलने की ज़रूरत नहीं है तो पहली बात यह समझ लीजिए कि आपको किसी भी AI Chat bot पर अपना अकाउंट बनाना है।
हम पहले ही बता चुके हैं कि गूगल Gemini का प्रीमियम वर्जन Jio और Perplexity का Airtel यूज़र्स के लिए अभी फ्री कर दिया गया है। अकाउंट बनाने के बाद आपको बातचीत शुरू कर देनी है। आप उसे अपने बारे में बता सकते हैं। आप कौन हैं? आप क्या करते हैं? आपकी रुचि किन विषयों में है। आपके लिखने का कोई स्टाइल है तो उसे बताकर रख सकते है। यह सब याद कर लेगा।
सबसे महत्वपूर्ण है Prompt यानी आपका सवाल क्या है? यह साफ़ साफ़ लिखेंगे उतना ही सही जवाब मिलेगा जैसे आप उसे रोल दीजिए मेरे फिटनेस कोच/ मैथ्स टीचर/ बिज़नेस गुरु बनिए, आप जो रोल चाहे वो दे सकते है। मन की बात कहने के लिए दोस्त भी बना सकते है। अपने बारे में पहले नहीं बताया है तो अब बताइए कि आप कौन हो ? क्या करते हो? अब काम बताइए कि क्या चाहते हो? यहाँ लिखते - बोलते समय verb यानी क्रिया पद का उपयोग ज़रूर करें जैसे मुझे बच्चा समझकर सरल भाषा में बताइए कि AI काम कैसे करता है? ये डालकर देखिए आपको जवाब क्या मिलता है।
मुझे भी बताइएगा। अब मैं आपको तीन काम बता रहा हूँ जो आप रोज़ इस्तेमाल कर सकते हैं। पहला काम है लिखना। आप ई मेल, मेसेज, सोशल मीडिया के लिए पोस्ट लिखने में मदद ले सकते हैं। भाषा कोई भी हो सकती है। यह अनुवाद भी अच्छा करता है। दूसरा काम है आपका पर्सनल असिस्टेंट। आप रिसर्च करवा सकते हैं, कोई PDF डॉक्यूमेंट देकर पूछ सकते हैं कि इसका सार बताओ, Presentation बनवा सकते हैं आपने कुछ लिखा है या पढ़ा है तो उसे Fact Check करने का काम दे सकते है।
तीसरा काम है आपका कोच या गुरु। आप कोई फ़ैसला लेने में फंस रहे हैं तो आप पूछ सकते हैं कि क्या करूँ? आपको दोनों पहलुओं के साथ जवाब दे देगा। फ़ाइनेंशियल प्लानिंग कर सकते हैं जैसे मुझे एक करोड़ रुपये जमा करने में कितने साल लगेंगे? मैं कैसे जमा कर सकता हूँ? यह करते समय वैधानिक चेतावनी का ध्यान रखें कि AI की हर बात सही नहीं होती है। वो Hallucinate करता है यानी झूठ भी बोलता है। आपको अपने दिमाग़ भी लगाना पड़ेगा। दोबारा पूछना पड़ेगा कि इसका प्रमाण दो। तो देर किस बात की, फ़्री प्लान का फ़ायदा उठाइए और AI का इस्तेमाल शुरू कीजिए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
समग्र इतिहास लेखन को लेकर बनी योजना क्यों रफ्तार नहीं पकड़ रही है ? इतिहास लेखन की जिम्मेदारी भारत सरकार की जिस संस्था पर है उसके आलस का कारण क्या है?
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्था है भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद (इंडियन काउंसिल आफ हिस्टोरिकल रिसर्च यानि आईसीएचआर)। इसकी वेबसाइट पर इस संस्था के उद्देश्य का वर्णन है- भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का प्राथमिक उद्देश्य ऐतिहासिक शोध को बढ़ावा देना और उसे दशा देना तथा इतिहास के वस्तुनिष्ठ एवं वैज्ञानिक लेखन को प्रोत्साहित और पोषित करना है।
चौबीस बिंदुओं में विस्तार से वर्णित इस संस्था के उद्देश्यों में अंतिम उद्देश्य है समान्यत: देश में ऐतिहासिक अनुसंधान और उसके उपयोग को बढ़ावा देने के लिए समय-समय पर आवश्यक समझे जानेवाले सभी उपाय करना। अंतिम उद्देश्य का दायरा बहुत विस्तृत है। इस संस्था के शीर्ष पर एक अध्यक्ष होते हैं और एक सदस्य सचिव। 2022 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर उमेश अशोक कदम को आईसीएचआर के सदस्य सतिव के तौर पर नियुक्त किया गया था।
वो अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। वित्तीय अनियमितताओं के आरोप में करीब नौ महीने तक ही इस पद पर बने रह सके। प्रकाशित खबरों के मुताबिक वित्तीय अनियमितता के आरोप इतने गंभीर थे कि मंत्रालय ने लंबे समय तक संस्था को आर्थिक मदद रोक दी थी। पता नहीं उन वित्तीय अनियमिततताओं की जांच हुई या जांच पूरी नहीं हो पाई है। कोई दोषी पाया जा सका या नहीं।
उमेश अशोक कदम जी के पद छोड़ने के बाद से ही आईसीएचआर में कार्यवाहक सदस्य-सचिव हैं। लंबे अंतराल के बाद शिक्षा मंत्रालय ने 1 मई 2025 को आईसीएचआर के अध्यक्ष को एक पत्र (एफ नंबर-3-15/2013-U.3) लिखकर सूचित किया कि प्रो अल्केश चतुर्वेदी को सदस्य सचिव के पद पर नियुक्त किया जा सकता है। पत्र के समय अल्केश चतुर्वेदी सांची विश्वविद्यालय में कुलसचिव थे।
इस पत्र में आईसीएचआर के अध्यक्ष के पत्र संख्या एफ-1.1/2024/सीएचएमएन/आईसीएचआर दिनांक 9.11.2024 का हवाला देते हुए कहा कि मंत्रालय के सक्षम अधिकारी ने प्रो अल्केश चतुर्वेदी के सदस्य सचिव पद पर नियुक्ति को मंजूरी दे दी है। पहली नजर में ये पत्र सामान्य नियुक्ति पत्र लगता है लेकिन इसके तीसरे बिंदु में एक पेंच है।
इस बिंदु में लिखा गया है कि आपसे अनुरोध किया जाता है कि नियुक्ति निर्देश जारी करें और इस क्रम में आईएचआर के नियमों का पालन करें। इसके बाद की पंक्ति को रेखांकित किया जाना चाहिए। इसमें कहा गया है कि नियुक्ति पत्र जारी करने के पहले संबंधित व्यक्ति के विजिलेंस क्लीयरेंस का ध्यान रखा जाए। पहली नजर में यह भी सामान्य बात लगती है, लेकिन इस पत्र में कहीं नहीं कहा गया है कि चयनित व्यक्ति के विजिलेंस क्लीयरेंस की प्रतीक्षा आईसीएचआर कब तक करे।
इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं कि गई। दूसरा प्रश्म उठता है कि क्या चयन समिति ने जब इनके नाम पर विचार किया था या जब आईसीएचआर के अध्यक्ष ने इनके नाम की संस्सतुति मंत्रालय से की थी तो विजिलेंस क्लीयरेंस नहीं लिया गया था?
यह तो निश्चित है कि मंत्रालय के 1 मई 2025 के सदस्य सचिव के पद पर प्रो अल्केश चतुर्वेदी को नियुक्त करने के आदेश को कार्यान्वयित करने के लिए अध्यक्ष ने कार्यवाही आरंभ की होगी। कार्यवाही के अंतर्गत ये माना जा सकता है कि अध्यक्ष ने अल्केश चतुर्वेदी से विजिलेंस क्लीयरेंस के लिए लिखा अवश्य होगा। परंतु छह महीने तक सदस्य सचिव के पद पर नियुक्ति नहीं होने से ऐसा प्रतीत होता है कि अल्केश चतुर्वेदी विजिलेंस क्लीयरेंस जमा नहीं करवा पाए हैं या उनके विजिलेंस क्लीयरेंस में कोई समस्या है।
दोनों ही स्थितियों में आईसीएचआर के अध्यक्ष प्रोफेसर रघुवेंद्र तंवर को नियुक्ति की स्थितियों पर पुनर्विचार करना चाहिए। या ये माना जाए कि इस पत्र की आड़ में अनंत काल तक अल्केश चतुर्वेदी के विजिलेंस क्लीयरेंस की प्रतीक्षा की जाएगी और तबतक संस्था कार्यवाहक सदस्य सचिव के भरोसे चलता रहेगा। जिस चयन समिति ने अल्केश चतुर्वेदी का चयन किया उसने तीन नाम का पैनल भेजा था।
अगर नियम अनुमति देते हों तो अध्यक्ष उस पैनल में से किसी अन्य व्यक्ति की नियुक्ति के लिए शिक्षा मंत्रालय को अनुरोध पत्र भेज सकते हैं। संभव है भेजा भी होगा लेकिन सदस्य सचिव के पद पर नियमित नियुक्ति में अनावश्यक देरी से संदेह उत्पन्न होता है। कहीं यथास्थिति बनाए रखने की कोशिश तो नहीं की जा रही है। सदस्य सचिव के पद पर नियमित नियुक्ति नहीं होने से संस्था का कामकाज भी सुचारू रूप से नहीं चल पा रहा है।
संस्था के उद्देश्य भी पूरे नहीं हो पा रहे हैं। पाठकों को याद होगा कि इस स्तंभ में ही मदर आफ डेमोक्रेसी नामक पुस्तक के प्रकाशन और उसके मूल्य निर्धारण पर पहले लिखा जा चुका है। कुछ लोग तो ये कहते हैं कि लाखों रुपए मूल्य की पुस्तकें अब भी आईसीएचआर के गोदाम में धूल फांक रही है। पता नहीं कभी इसकी जांच हुई या नहीं या होगी भी या नहीं। दरअसल जिम्मेदार पद पर नियमित नियुक्ति नहीं होने से गड़बड़ियों को फलने फूलने का मैदान तैयार होता है।
गड़बड़ियों से आगे जाकर अगर हम शोध कार्यों पर ध्यान दें तो एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। 2022 में आईसीएचआर ने एक महात्वाकांक्षी परियोजना बनाई थी भारत के समग्र इतिहास लेखन की। योजनानुसार आठ खंडों में ये पुस्तक तैयार होनी थी।
वरिष्ठ इतिहासकार सुष्मिता पांडे को इस परियोजना का जनरल एडीटर बनाया गया। प्रधानमंत्री मेमोरियल और संग्रहालय से एक व्यक्ति को प्रतिनियुक्ति पर आईसीएचआर लाया गया। करीब तीन वर्ष होने को आए अभी तक एक भी खंड पाठकों के लिए उपलब्ध नहीं हो पाया है। पहला खंड समग्र इतिहास की आवश्यकता को रेखांकित करनेवाला है।
उसको अभी विशेषज्ञ देख रहे हैं यानि रेफरिंग पूल में डूब उतरा रहा है। इस हिसाब से देखा जाए तो अगले 24 वर्ष में शायद इस परियोजना को पूरा किया जा सकेगा। समग्र इतिहास लेखन अगर इस अगंभीरता से लिया जाएगा तो फिर भगवान ही मालिक हैं। आईसीएचआर जैसी संस्था का वामपंथी इतिहासकारों ने जितना उपयोग अपने विचार को फैलाने या एकांगी दृष्टि से इतिहास लिखने में किया उसका निषेध करना भी इस रफ्तार में संभव नहीं लगता है।
आईसीएचआर जैसी संस्था को बेहद गंभीरता से चलाने की आवश्यकता है जिसमें निर्णय त्वरित हों, कार्य निर्धारित समय पर पूर्ण हों और प्रशासनिक बाधाओं से अकादमिक प्रक्रिया से मुक्त कराने की इच्छाशक्ति वाला कोई व्यक्ति संस्था में हो।
2014 में जब से मोदी सरकार बनी है तभी से इतिहास को समग्र दृष्टि देने की बात हो रही है। गृहमंत्री अमित शाह ने बनारस में कुछ वर्षों पहले कहा था कि इतिहास लेखन में किसी की गलती बताने से बेहतर है हम अपनी लकीर लंबी करें। प्रधानमंत्री ने लालकिला की प्राचीर से पांच प्रण गिनाए थे उसमें से विरासत वाले प्रण का सिरा इतिहास से जुड़ता है।
शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान भी कई बार राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर बात करते हुए इतिहास के समग्र लेखन की महत्ता को रेखांकित कर चुके हैं। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और शिक्षा मंत्री की चिंता के केंद्र में इतिहास का समग्र लेखन है लेकिन बावजूद इसके आईसीएचआर में ढिलाई दिखती है। समग्र इतिहास लेखन परियोजना को लेकर व्याप्त आलस पूरे सिस्टम पर सवाल खड़े कर रहा है। जरूरत है कि शिक्षा मंत्री अपने स्तर पर इसमें दखल दें और प्रसासनिक बाधों को दूर करने की राह संस्था को दिखाएं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
युवाओं को बाहर जाकर काम की तलाश करनी पड़ी है। एक अध्ययन में पाया गया कि प्रवासी परिवारों में लगभग 80% लोग भूमिहीन या 1 एकड़ से कम जमीन वाले थे।
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आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार, पद्मश्री, लेखक।
बिहार विधानसभा चुनाव में रोजगार और बिहारियों के पलायन का मुद्दा महत्वपूर्ण बन गया है। निश्चित रूप से यह किसी भी राज्य या देश के लिए जनता और सत्ता से जुड़ा मुद्दा है। अपेक्षा होती है कि सरकारें इस समस्या का समाधान करे। लेकिन क्या पलायन केवल मजबूरी में होता है? घर, गाँव, शहर, प्रदेश, देश से बाहर जाने के लिए हर व्यक्ति और परिवार की आवश्यकता, महत्वाकांक्षा और सपनों पर निर्भर होती है।
फिर यह कैसे भुलाया जा सकता है कि बाहर जाकर नौकरी, मजदूरी, शिक्षा, अपना काम-धंधा, तरक्की, सुख-सुविधा के साथ अपने परिजनों को भेजी जाने वाली धनराशि से न केवल परिवार बल्कि उस क्षेत्र और राज्य के सामाजिक-आर्थिक बदलाव का कितना लाभ मिलता है। यह सवाल केवल राजनीति और चुनाव के लिए नहीं है। बिहार में बंद उद्योग चालू हों, बाहरी निवेश आए, अपराध नियंत्रित हो, भ्रष्टाचार को रोकने के कदम उठाए जाएँ इससे कोई असहमत नहीं हो सकता।
लेकिन जो लोग अपने जीवन में सुधार के लिए बाहर जाते हैं, उन्हें कमजोर और मजबूर कहना कैसा न्याय है? वे नए स्थानों पर विकास में बड़ी भूमिका निभाते हैं, बिहार या जिस क्षेत्र के हों, उनका गौरव बढ़ाते हैं। भारत के डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक ही नहीं, बैंकर्स, प्रबंधक, व्यापारी और औद्योगिक समूह दूरगामी लाभ भारत को देते हैं। बिहार में माइग्रेशन यानी बाहर जाकर काम करने या बसने वालों की एक लंबी परंपरा रही है।
यह प्रवासन सिर्फ देश के अंदर नहीं, बल्कि विदेशों तक फैला है। यदि बाहर से आने वाली कुल धनराशि करीब 9,88,000 करोड़ रुपये है और बिहार का हिस्सा 14.8 हजार करोड़ रुपये बनता है, तो ग्रामीण बिहार में अधिकांश परिवार आज भी कृषि या सीमित स्वरूप की असंगठित मजदूरी पर निर्भर हैं। खेती का आकार बहुत छोटा-मोटा है और औद्योगिक अवसर काफी कम रहे हैं।
इससे युवाओं को बाहर जाकर काम की तलाश करनी पड़ी है। एक अध्ययन में पाया गया कि प्रवासी परिवारों में लगभग 80% लोग भूमिहीन या 1 एकड़ से कम जमीन वाले थे। अध्ययन से यह भी पता चला कि 85% प्रवासी कम-से-कम 10वीं पास थे—यह संकेत है कि युवा-शिक्षित लोगों ने भी बाहर जाकर अस्थायी या स्थायी रोजगार की ओर रुख किया।
काम के लिए वे पंजाब, महाराष्ट्र, दिल्ली, खाड़ी देशों तक जाते हैं, जहाँ निर्माण, सेवा-उद्योग, कारखाने इत्यादि में काम मिलता था। एक अध्ययन के अनुसार लगभग 50% से अधिक बिहार-ग्रामीण परिवारों में कम-से-कम एक सदस्य प्रवासी है। बिहार से बाहर जाकर काम कर रहे प्रवासी-कर्मी/पेशेवरों द्वारा भेजी गई रकम ने राज्य-अर्थव्यवस्था और घरेलू जीवन दोनों पर असर डाला है।
परिवारों ने इन रकमों का उपयोग मुख्यतः दैनिक खर्च (खाना-पीना, बिजली-पानी), शिक्षा-स्वास्थ्य में किया है। अध्ययन में यह भी पाया गया कि रेमिटेंस प्राप्त परिवारों में शिक्षा-उपस्थिति, पोषण-स्थिति और स्वास्थ्य-खर्च में सुधार देखने को मिला है। सर्वे में बताया गया कि प्रवासी के बाद परिवार की आर्थिक स्थिति, बच्चों की शिक्षा तथा सामाजिक स्थिति सुधरी है।
ग्रामीण श्रम-बाज़ार में भी बदलाव आए हैं—प्रवासी मजदूरों के बाहर जाने से स्थानीय मजदूरी थोड़ी-बहुत बढ़ी, काम करने वालों की समस्या-स्थिति बदली। सामाजिक संरचना और जीवनशैली में कई तरह के बदलाव देखने को मिले—जैसे रेमिटेंस आय मिलने से बच्चों की स्कूल शिक्षा का खर्च उठाना आसान हुआ, शिक्षा-उपस्थिति में सुधार हुआ, स्वास्थ्य-सेवाओं तक पहुँच बेहतर हुई, परिवारों ने अस्पताल-दवा के खर्च को वहन करने की क्षमता पाई।
रेमिटेंस की मदद से गाँवों में कच्चे मकानों से पक्का घर बनने लगे—जैसे गोपालगंज और सीवान में यह प्रवृत्ति स्पष्ट है; वहाँ 80% से अधिक स्थानीय अर्थव्यवस्था प्रवासी रेमिटेंस पर आधारित है। परिवारों की सामाजिक स्थिति और आत्मविश्वास बढ़ा, गृहिणियों को नए अवसर मिले। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि महिलाओं ने महसूस किया कि आर्थिक स्तर, जीवनशैली, बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार हुआ।
उपभोग-शैली में परिवर्तन हुआ—जैसे मोबाइल-फोन, बैंक-खाता, दूर काम कर रहे सदस्यों से मोबाइल संवाद, बैंकिंग का उपयोग बढ़ा; उदाहरण के तौर पर 80% महिलाओं ने बैंक खाता बना लिया था। प्रवासी होने के कारण परिवारों में “न्यूक्लियर” (एकल) परिवार की प्रवृत्ति बढ़ी। महिलाओं की निर्णय-क्षमता बढ़ी। कुछ प्रवासी बाहर से अनुभव लेकर लौटे और अपने गाँवों-शहरों में नए काम पर नियुक्त किए गए। भारत में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों तरह के प्रवासन का आर्थिक और सामाजिक प्रभाव गहरा है।
प्रवासी मजदूर, पेशेवर और व्यापारी न सिर्फ परिवारों का सहारा बनते हैं, बल्कि उनकी भेजी गई धनराशि भी संबंधित राज्यों की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है। रिज़र्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2023–24 में कुल 9,88,000 करोड़ रुपये की धनराशि विदेशों से आई। बिहार सरकार ने कहा है कि लगभग 57 लाख लोग राज्य के बाहर रह रहे/काम कर रहे हैं, जिनमें लगभग 52 लाख रोजगार-वश पलायन वाले बताए गए हैं।
अन्य राज्यों के उदाहरण देखें तो केरल में खाड़ी देशों सहित विदेशों में बसे प्रवासी हर साल लगभग 1.95 लाख करोड़ रुपये भेजते हैं; तमिलनाडु को लगभग 1,02,752 करोड़, महाराष्ट्र को करीब 2,02,540 करोड़ और गुजरात को लगभग 34,580 करोड़ रुपये का रेमिटेंस मिलता है। इस पृष्ठभूमि में पलायन को केवल अभिशाप कहना अनुचित है।
सामान्य रिक्शा वाला या टैक्सी चालक भी अपने घर-परिवार को सहयोग देता है, उन्हें समय आने पर साथ बुलाता है, बच्चों को शिक्षा और सुविधाएँ देता है और फिर कई बार वापस गाँव-शहर लौटकर नई शुरुआत भी करता है। बिहार में अब 22 मेडिकल कॉलेज, आधुनिक अस्पताल, बेहतर सड़कें और सुगम रेल-हवाई यात्रा उपलब्ध है। पटना, मुजफ्फरपुर, भागलपुर, गया में सुंदर बड़े घर, इमारतें और कारें दिखने लगी हैं—यह आर्थिक प्रगति सरकार के साथ-साथ बिहार के लोगों की मेहनत और प्रवासन से आई पूँजी का भी परिणाम है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
इस हादसे में अपने छोटे भाई को खोने का दुख हरदम उन्हें कचोटता रहता है, और उस दिन की यादें उनको हर वक्त परेशान करती हैं। मनोविज्ञान की भाषा में इसे Survivor Guilt कहा जाता है।
by
Samachar4media Bureau
नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
अहमदाबाद प्लेन हादसे में जब एक शख्स के ज़िंदा बचने की ख़बर सामने आई तो लोगों ने उसे दुनिया का सबसे खुशकिस्मत इंसान कहा। मगर अब पता चल रहा है कि हादसे में बचे विश्वास कुमार बेहद डिप्रेशन में हैं। उन्होंने खुद को कमरे में बंद कर लिया है। यहां तक कि वो अपनी बीवी और बच्चे से भी बात नहीं करते। कहीं काम पर भी नहीं जा रहे। इस हादसे में अपने छोटे भाई को खोने का दुख हरदम उन्हें कचोटता रहता है, और उस दिन की यादें उनको हर वक्त परेशान करती हैं। मनोविज्ञान की भाषा में इसे Survivor Guilt कहा जाता है।
अभी कुछ दिन पहले यूपी के एक शख्स का वीडियो सोशल मीडिया पर देखा। वो बता रहा था कि कुछ महीने पहले उसने अपनी बीवी को खोया था। उसके जाने के बाद वो सामान्य होने की कोशिश कर रहा था। वो लोग अपने ननिहाल एक कार्यक्रम में आए थे। उसके मामा के घर एक शादी थी, जो नदी के दूसरी तरफ थी। उसकी मां, मौसी और उसका इकलौता बेटा एक नाव में बैठकर दूसरी ओर चले गए।
उसे भी उसी नाव में जाना था, मगर नाव में जगह न होने के कारण उसने सोचा कि वो अगले चक्कर में चला जाएगा। लेकिन वो नाव रास्ते में पलट गई। हादसे में उसकी मां, मौसी और उसका इकलौता बेटा मर गए। मतलब, बीवी के जाने के बाद जिन मां और बेटे के सहारे वो ज़िंदा था, अब वो भी नहीं रहे। वो आदमी रोते हुए बस यही कह रहा था कि काश मैं भी उस नाव में होता। मैं इस दर्द को बर्दाश्त नहीं कर सकता।
याद आता है कि नेपाल में कुछ साल पहले आए भूकंप में एक अस्सी साल के बुज़ुर्ग बता रहे थे कि उनके परिवार के 18 लोग भूकंप में मारे गए। कोई नहीं बचा, बस वो बचे हैं और उन्हें इस बात का अफसोस है कि वो क्यों बच गए।
आप चाहें तो कह सकते हैं कि जिस प्लेन हादसे में ढाई सौ लोग मारे गए, अगर कोई एक आदमी उसमें बच गया है, तो वो खुशकिस्मत है। जिस नाव हादसे में 18 लोगों की जान चली गई, जो आदमी उसमें सवार नहीं हो पाया, वो भी खुशकिस्मत है। मगर जब हम ये देखते हैं कि किसी इंसान के होने का वजूद सिर्फ उसके ज़िंदा रहने से नहीं, बल्कि उन लोगों के साथ ज़िंदा होने से है जो उसके अपने हैं तो फिर आपको वो खुशकिस्मती सबसे बड़ी सज़ा लगने लगती है।
एक इंसान जो अस्सी साल की उम्र में अपनी बाकी ज़िंदगी इस अहसास के साथ जीने के लिए अभिशप्त है कि उसके परिवार का एक भी सदस्य ज़िंदा नहीं है, उससे ज़्यादा बदनसीब और कौन होगा? जिस शख्स ने कुछ महीनों में अपनी मां, बीवी और इकलौते बच्चे को खो दिया, उससे ज़्यादा दुखी और कौन होगा? और ढाई सौ लोगों के बीच जो शख्स जलते जहाज़ से ज़िंदा लौट आया हो, लेकिन उसका छोटा भाई उसमें मारा गया हो उससे ज़्यादा ग्लानि में और कौन होगा?
कभी-कभी हम सारा जीवन ये नहीं समझ पाते कि हमारा दुर्भाग्य क्या है और सौभाग्य क्या। क्या हमारा सौभाग्य भविष्य की भौतिक कल्पनाओं में है, दूसरों की सोशल मीडिया पर दिखाई Selected ज़िंदगी को जीने में है, या हमारा सौभाग्य उन लोगों के साथ जीवन जीने में है जो हमारे अपने हैं? फिर चाहे हालात कैसे भी क्यों न हों। शायद ये फर्क समझने में ही ज़िंदगी बीत जाती है और हम अपना सौभाग्य देख नहीं पाते।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
जाति, उसकी चेतना, सामाजिक न्याय से जुड़ी राजनैतिक शक्ति अपनी जगह कायम है किंतु वह अब अपमानित और पददलित नहीं रहना चाहती। अपने जातीय सम्मान के साथ वह राज्य का सम्मान और विकास भी चाहती है।
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Samachar4media Bureau
प्रो.संजय द्विवेदी, राजनीतिक विश्लेषक और टिप्पणीकार।
बिहार चुनाव हमेशा की तरह फिर जाति, बाहुबल और विकास के त्रिकोण में उलझा दिखता है। सामाजिक न्याय की ताकतों की लीलाभूमि रहे इस प्रदेश ने नीतीश कुमार पर लगातार भरोसा जताकर यह दिखाया है कि बिहार अपने सपनों में रंग भरना चाहता है। नीतीश कुमार बिहार की राजनीति के ऐसे नायक की तरह सामने आए हैं, जिन्होंने विकास और सुशासन को बिहार की राजनीति का केंद्रीय विषय बना दिया। उनकी बढ़ती आयु के मुद्दों को छोड़ दें तो आज सारे दल बिहार में विकास की बात करने लगे हैं।
नौकरियों,सुशासन की बात करते हैं- यही नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी की राजनीति की देन है । लालूप्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी यादव की सबसे बड़ी चुनौती अपने माता-पिता के मुख्यमंत्रित्व काल की छाया से मुक्त होना है। कभी बिहार में जातीय चेतना और परिवर्तन के पैरोकार रहे लालूप्रसाद यादव के शासनकाल की कड़वी यादों से प्रदेश मुक्त नहीं हो सका। इस पीड़ा को ही उन दिनों नीतीश कुमार ने समझा और वे सामाजिक न्याय की ताकतों के नए और विश्वसनीय नायक बन गए। भाजपा के सहयोग ने उनके सामाजिक विस्तार में मदद की।
अब नीतीश कुमार बिहार की सामूहिक चेतना के प्रतीक के बन गए हैं। वे असाधारण नायक हैं, जिसके बीज लालू प्रसाद यादव की विफलताओं में छिपे हैं। किंतु इसे इस तरह से मत देखिए कि बिहार में अब जाति कोई हकीकत नहीं रही। जाति, उसकी चेतना, सामाजिक न्याय से जुड़ी राजनैतिक शक्ति अपनी जगह कायम है किंतु वह अब अपमानित और पददलित नहीं रहना चाहती।
अपने जातीय सम्मान के साथ वह राज्य का सम्मान और विकास भी चाहती है। लालू प्रसाद यादव, अपनी सामाजिक न्याय की मुहिम को जागृति तक ले जाते हैं, आकांक्षांएं जगाते हैं, लोगों को सड़कों पर ले आते हैं( उनकी रैलियों में उमड़ने वाली भीड़ को याद कीजिए)- किंतु सपनों को हकीकत में बदलने का कौशल नहीं जानते। वे सामाजिक जागृति के नारेबाज हैं, वे उसका रचनात्मक इस्तेमाल नहीं जानते। वे सोते हुए को जगा सकते हैं किंतु उसे दिशा देकर किसी परिणाम केंद्रित अभियान में लगा देना उनकी आदत का हिस्सा नहीं है।
इसीलिए सामाजिक न्याय की शक्ति के जागरण और सर्वणों से सत्ता हस्तांतरण तक उनकी राजनीति उफान पर चलती दिखती है। किंतु यह काम समाप्त होते ही जब पिछड़ों, दलितों, मुसलमानों की आकांक्षांएं एक नई चेतना के साथ उनकी तरफ देखती हैं तो उनके पास कहने को कुछ नहीं बचता। वे एक ऐसे नेता साबित होते हैं, जिसकी समस्त क्षमताएं प्रकट हो चुकी हैं और उसके पास अब देने लिए कुछ भी नहीं है।
नीतीश यहीं बाजी मार ले जाते हैं। वे सपनों के सौदागर की तरह सामने आते हैं। उनकी जमीन वही है जो लालू प्रसाद यादव की जमीन है। वे भी जेपी आंदोलन के बरास्ते 1989 के दौर में अचानक महत्वपूर्ण हो उठते हैं, जब वे बिहार जनता दल के महासचिव बनाए जाते हैं। दोनों ओबीसी से हैं। दोनों का गुरूकुल और रास्ता एक है। लंबे समय तक दोनों साथ चलते भी हैं। किंतु तारीख एक को नायक और दूसरे को खलनायक बना देती है। जटिल जातीय संरचना आज भी बिहार में एक ऐसा सच है, जिससे आप इनकार नहीं कर सकते।
किंतु इस चेतना से समानांतर एक चेतना भी है, जिसे आप बिहार की अस्मिता कह सकते हैं। नीतीश कुमार ने बिहार की जटिल जातीय संरचना और बिहारी अस्मिता की अंर्तधारा को एक साथ स्पर्श किया। देश का यह असाधारण प्रांत भी है। शायद इसीलिए इस जमीन से निकलने वाली आवाजें, ललकार बन जाती हैं। सालों बाद नीतीश कुमार इसी परिवर्तन के प्रतीक बन गए हैं। इस सफलता के पीछे अपनी पढ़ाई से सिविल इंजीनियर नीतीश कुमार ने विकास के साथ सोशल इंजीनियरिंग का जो तड़का लगाया है, उस पर ध्यान देना जरूरी है।
नीतीश कुमार की सफलताएं मीडिया की नजर में भले ही विकास के सर्वग्राही नारे की बदौलत हासिल हुयी है, किंतु सच्चाई यह है कि नीतीश कुमार ने जैसी शानदार सोशल इंजीनियरिंग के साथ विकास का मंत्र फूंका है, वह उनके विरोधियों को चारों खाने चित्त करता रहा है। उप्र और बिहार दोनों राज्य मंदिर और मंडल आंदोलन से सर्वाधिक प्रभावित राज्य रहे हैं। मंडल की राजनीति यहीं फली-फूली और यही जमीन सामाजिक न्याय की ताकतों की लीलाभूमि भी बनी।
इसे भी मत भूलिए कि बिहार का आज का नेतृत्व वह पक्ष में हो या विपक्ष में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की उपज है। कांग्रेस विरोध इसके रक्त में है और सामाजिक न्याय इसका मूलमंत्र। इस आंदोलन के नेता ही 1990 में सत्ता के केंद्र बिंदु बने और लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने। आप ध्यान दें यह समय ही उत्तर भारत में सामाजिक न्याय के सवाल और उसके नेताओं के उभार का समय है। लालू प्रसाद यादव इसी सामाजिक अभियांत्रिकी की उपज थे और नीतीश कुमार जैसे तमाम लोग तब उनके साथ थे।
लालू प्रसाद यादव अपनी सीमित क्षमताओं और अराजकताओं के बावजूद सिर्फ इस सोशल इंजीनियरिंग के बूते पर पंद्रह साल तक राबड़ी देवी सहित राज करते रहे। इसी के समानांतर परिघटना उप्र में घट रही थी जहां मुलायम सिंह यादव, कांशीराम, मायावती और कल्याण सिंह इस सोशल इंजीनियरिंग का लाभ पाकर महत्वपूर्ण हो उठे। आप देखें तो बिहार की परिघटना में लालू यादव का उभार और उनका लगभग डेढ़ दशक तक सत्ता में बने रहना साधारण नहीं था, जबकि उन पर चारा घोटाला सहित अनेक आरोप थे, साथी उनका साथ छोड़कर जा रहे थे और जनता परिवार बिखर चुका था।
इसी जनता परिवार से निकली समता पार्टी जिसके नायक स्व.जार्ज फर्नांडीज, स्व.शरद यादव, स्व.दिग्विजय सिंह और नीतीश कुमार जैसे लोग थे, जिनकी भी लीलाभूमि बिहार ही था। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ होने के नाते सामाजिक न्याय का यह कुनबा बिखर चुका था और उक्त चारों नेताओं सहित रामविलास पासवान भी अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री बन चुके थे। यह वह समय है जिसमें लालू के पराभव की शुरूआत होती है।
अपने ही जनता परिवार से निकले लोग लालू राज के अंत की कसमें खा रहे थे और एक अलग तरह की सामाजिक अभियांत्रिकी परिदृश्य में आ रही थी। लालू के माई कार्ड के खिलाफ नीतीश कुमार के नेतृत्व में एक ऐसा ओबीसी चेहरा सामने था, जिसके पास कुछ करने की ललक थी।
ऐसे में नीतीश कुमार ने एक ऐसी सामाजिक अभियांत्रिकी की रचना तैयार की जिसमें लालू विरोधी पिछड़ा वर्ग और लालू राज से आतंकित सर्वण वोटों का पूरा कुनबा उनके पीछे खड़ा था। भाजपा का साथ नीतीश की इस ताकत के साथ उनके कवरेज एरिया का भी विस्तार कर रहा था।
अब अगर आपको सामाजिक न्याय और विकास का पैकेज साथ मिले तो जाहिर तौर पर आपकी पसंद नीतिश कुमार ही होंगे। लालू ने अपना ऐसा हाल किया था कि उनके साले भी एक समय उनका साथ छोड़ गए और उनका बहुप्रचारित परिवारवाद उन पर भारी पड़ा। वह जगह भरी थी ओबीसी(कुर्मी) जाति से आने वाले नीतीश कुमार ने। नीतीश ने लालू की संकुचित सोशल इंजीनियरिंग का विस्तार किया, उसे वे अतिपिछड़ों, महादलितों, पिछड़े मुसलमानों और महिलाओं तक ले गए।
बिहार जैसे परंपरागत समाज में पंचायतों में महिलाओं में पचास प्रतिशत आरक्षण देना और शराब बंदी का फैसला साधारण नहीं था। जबकि लालू प्रसाद यादव जैसे लोग संसद में महिला आरक्षण के खिलाफ गला फाड़ रहे थे। तय मानिए हर समय अपने नायक तलाश लेता है। नीतीश कुमार इस निरंतर अपमानित और लांछित हो रही चेतना के प्रतीक बन गए। वे बिहारियों की मुक्ति के नायक बन गए। बिहारी अस्मिता के प्रतीक बन गए।
यह वैसा ही था कि जैसे कभी गुजरात में नरेंद्र मोदी वहां गुजराती अस्मिता के प्रतीक बनकर उभरे और उसी तरह नीतीश कुमार में बिहार में रहने वाला ही नहीं हर प्रवासी बिहारी एक मुक्तिदाता की छवि देखने लगा था। यह बिहार का भाग्य है उसे आज एक ऐसी राजनीति मिली है, जिसके लिए उसकी जाति से बड़ा बिहार है। बिहार को जाति की इसी प्रभुताई से मुक्त करने में नीतीश सफल रहे हैं, वे हर वर्ग का विश्वास पाकर जातीय राजनीति के विषधरों को सबक सिखा चुके हैं।
उनकी सोशल इंजीनियरिंग इसीलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वह विस्तारवादी है, बहुलतावादी है, उसमें किसी का तिरस्कार नहीं है। उनकी राजनीति में विकास की धारा में पीछे छूट चुके महादलितों और पसमांदा (सबसे पिछड़े) मुसलमानों की अलग से गणना से अपनी पहचान मिली है। इस चुनाव में भी केंद्र लालू और नीतीश ही हैं। उनकी राजनीति ही है।
जाति, बाहुबल के अंतविर्रोधों के बीच भी बिहार सुशासन, विकास और पलायन से मुक्ति चाहता है। यही अकेली बात ‘नीतीश कुमार मार्का राजनीति’ के लिए खाद-पानी बन जाती है, परंपरागत तटबंध टूट जाते हैं। देखना है चुनाव परिणाम क्या कहते हैं, बिहार के सजग और चैतन्य मतदाता का जनादेश क्या होता है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )