राजधानी में संभवतः ऐसे बहुत कम पत्रकार इस समय होंगे, जो 1972 से 1976 के दौरान गुजरात में संवाददाता के रूप में रहकर आए हों।
आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार।।
सत्ता, संपन्नता, शिखर-सफलता से अधिक महत्वपूर्ण है-संघर्ष की क्षमता और जीवन मूल्यों की दृढ़ता। इसलिए नरेंद्र भाई मोदी के प्रधानमंत्री पद और उनकी संगठन की सफलताओं से अधिक महत्ता उनकी संघर्ष यात्रा और हर पड़ाव पर विजय की चर्चा करना मुझे श्रेयस्कर लगता है। सत्ता और संबंधों को बनाने से अधिक महत्व उनकी निरंतरता का है। हर मोड़ पर उन्हें नई चुनौती का सामना करना पड़ा है।
गृह प्रदेश गुजरात से लेकर देश के विभिन्न क्षेत्रों में उनके समर्थक हैं और आलोचक विरोधी भी | अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, रूस व चीन के आपसी विरोध भी हैं, लेकिन भारत के लिए सबके सहयोग और संबंधों के रास्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने निकाल लिए | पाकिस्तान सरकार, सेना तथा आईएसआई अवश्य आतंकवादी हमलों से विचलित करते हैं, लेकिन दुनिया के अधिकांश देश पाकिस्तान को न केवल दोषी ठहरा रहे, वरन जम्मू-कश्मीर सहित भारत के विभिन्न राज्यों में बड़े पैमाने पर विकास के लिए पूंजी लगाने आ रहे हैं ।चंद्रयान, सूर्य अनुसंधान के आदित्य अभियान और जी-20 देशों के शिखर सम्मलेन की सफलता पर विश्व समुदाय भारत और नरेंद्र मोदी की सराहना करते जा रहे हैं |
राजधानी में संभवतः ऐसे बहुत कम पत्रकार इस समय होंगे, जो 1972 से 1976 के दौरान गुजरात में संवाददाता के रूप में रहकर आए हों। इसलिए मैं वहीं से बात शुरू करना चाहता हूं। हिन्दुस्तान समाचार (न्यूज एजेंसी) के संवाददाता के रूप में मुझे 1973-76 के दौरान कांग्रेस के एक अधिवेशन, फिर चिमन भाई पटेल के विरुद्ध हुए गुजरात छात्र आंदोलन और 1975 में इमरजेंसी रहते हुए लगभग 8 महीने अहमदाबाद में पूर्णकालिक रहकर काम करने का अवसर मिला था।
इमरजेंसी के दौरान नरेंद्र मोदी भूमिगत रूप से संघ-जनसंघ तथा विरोधी नेताओं के बीच संपर्क तथा सरकार के दमन संबंधी समाचार-विचार की सामग्री गोपनीय रूप से पहुंचाने का साहसिक काम कर रहे थे। प्रारंभिक दौर में वहां इमरजेंसी का दबाव अधिक नहीं दिख रहा था। उन्हीं दिनों ‘साधना’ के संपादक विष्णु पंडयाजी से भी उनके दफ्तर में जाकर राजनीति तथा साहित्य पर चर्चा के अवसर मिले। बाद में संपादक-साहित्यकार विष्णु पंडया के अलावा नरेंद्र मोदी ने इमरजेंसी पर गुजराती में पुस्तक भी लिखी।
इसलिए यह कहने का अधिकारी हूं कि सुरक्षित जेल (और बड़े नेताओं के लिए कुछ हद तक न्यून्तम सुविधा साथी भी) की अपेक्षा गुपचुप वेशभूषा बदलकर इमरजेंसी और सरकार के विरुद्ध संघर्ष की गतिविधयां चलाने में नरेंद्र मोदी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गिरफ्तारी से पहले सोशलिस्ट जार्ज फर्नांडीस भी वेश बदलकर गुजरात पहुंच थे और नरेंद्र भाई से सहायता ली थी। मूलतः कांग्रेसी लेकिन इमरजेंसी विरोधी रवीन्द्र वर्मा जैसे अन्य दलों के नेता भी उनके संपर्क से काम कर रहे थे।
संघर्ष के इस दौर ने संभवतः नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय राजनीति की कंटीली-पथरीली सीढ़ियों पर आगे बढ़ना सिखा दिया। लक्ष्य भले ही सत्ता नहीं रहा हो, लेकिन कठिन से कठिन स्थितियों में समाज और राष्ट्र के लिए निरंतर कार्य करने का संकल्प उनके जीवन में देखने को मिलता है। इस संकल्प का सबसे बड़ा प्रमाण भाजपा को पूर्ण बहुमत के साथ दूसरी बार सत्ता में आने के कुछ ही महीनों में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने बाकायदा संसद की स्वीकृति के साथ कश्मीर के लिए बनी अस्थायी व्यवस्था के अनुच्छेद 370 की दीवार को ध्वस्त कर लोकतांत्रिक इतिहास का नया अध्याय लिख दिया।
सामान्यतः लोगों को गलतफहमी है कि मोदी जी को यह विचार तात्कालिक राजनीतिक-आर्थिक स्थितियों के कारण आया। हम जैसे पत्रकारों को याद है कि 1995-96 से भारतीय जनता पार्टी के महासचिव के रूप में हरियाणा, पंजाब, हिमाचल के साथ जम्मू-कश्मीर में संगठन को सक्रिय करने के लिए पूरे सामर्थ्य के साथ जुट गए थे। हम लोगों से चर्चा के दौरान भी जम्मू-कश्मीर अधिक केंद्रित होता था, क्योंकि भाजपा को वहां राजनीतिक जमीन तैयार करनी थी।
संघ में रहते हुए भी वह जम्मू-कश्मीर की यात्राएं करते रहे थे। लेकिन नब्बे के दशक में आतंकवाद चरम पर था। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल किंलटन की भारत-यात्रा के दौरान कश्मीर के छत्तीसिंगपुरा में आतंकवादियों ने 36 सिखों की नृशंस हत्या कर दी। प्रदेश प्रभारी के नाते नरेंद्र मोदी तत्काल कश्मीर रवाना हो गए। बिना किसी सुरक्षाकर्मी या पुलिस सहायता के नरेंद्र मोदी सड़क मार्ग से प्रभावित क्षेत्र में पहुंच गए। तब फारूख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे। जब पता लगा तो उन्होंने फोन कर जानना चाहा कि ‘आप वहां कैसे पहुंच गए। आतंकवादियों द्वारा यहां वहां रास्तों में भी बारूद बिछाए जाने की सूचना है। आपके खतरा मोल लेने से मैं स्वयं मुश्किल में पड़ जाऊंगा।’
यही नहीं उन्होंने पार्टी प्रमुख लालकृष्ण आडवाणी जी से शिकायत की, 'आपका यह सहयोगी बिना बताए किसी भी समय सुरक्षा के बिना घूम रहा है। यह गलत है।' आडवाणी जी ने भी फोन किया। तब भी नरेंद्र भाई ने विनम्रता से उत्तर दिया कि मृतकों के अंतिम संस्कार के बाद ही वापस आऊंगा। असल में सबको उनका जवाब होता था कि ‘अपना कर्तव्य पालन करने के लिए मुझे जीवन-मृत्यु की परवाह नहीं होती’। जम्मू-कश्मीर के दुर्गम इलाकों-गांवों में निर्भीक यात्राओं के कारण वह जम्मू-कश्मीर की समस्याओं को समझते हुए उसे भारत के सुखी-संपन्न प्रदेशों की तरह विकसित करने का संकल्प संजोए हुए थे।
वैसे भी हिमालय की वादियां युवा काल से उनके दिल दिमाग पर छाई रही हैं। लेह-लद्दाख में जहां लोग ऑक्सीजन की कमी से विचलित हो जाते हैं, नरेंद्र मोदी को कोई समस्या नहीं होती। उन दिनों लद्दाख के अलावा वह तिब्बत, मानसरोवर और कैलाश पर्वत की यात्रा भी 2001 से पहले कर आए थे। तभी उन्होंने यह सपना भी देखा कि कभी लेह के रास्ते हजारों भारतीय कैलाश मानसरोवर जा सकेंगे। यह रास्ता सबसे सुगम होगा।
पिछले कुछ महीनों में दिख रहे बदलाव से विश्वास होने लगा है कि कि लद्दाख और कश्मीर आने वाले वर्षों में स्विटजरलैंड से अधिक सुगम, आकर्षक और सुविधा संपन्न हो जाएगा। अमेरिका और यूरोप ही नहीं, चीन के साथ भी संबंध सुधारने के प्रयास सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर लद्दाख को सुखी संपन्न बनाना रहा है | सारे तनाव के बावजूद जी-20 देशों के संगठन की अध्यक्षता मिलने से चीन और पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाने की सुविधा हो गई है। लद्दाख को केंद्र शासित बनाने की मांग को पूरी करने के साथ जम्मू-कश्मीर को भी फिलहाल केंद्र शासित रखा और नागरिकों को भी संपूर्ण भारत में लागू सुविधाओं-कानूनों का प्रावधान कर दिया |
तभी तो पाकिस्तान के साथ चीन भड़का | लेकिन सेना को पूरी छूट देकर मोदी सरकार ने सुनिश्चित किया कि भारत की एक इंच जमीन पर भी चीन के दानवी पैर न पड़ सकें। हिमालय की तरह नर्मदा उनके दिल से जुडी हुई है। असली खुशी यह रही कि विवादों से हटकर पचास वर्षों से लटका नर्मदा सरकार सरोवर बांध का निर्माण पूरा होने के बाद लाखों किसानों को खेती तथा गांवों को पीने का पानी भी पहुंच रहा है।
मोदी भारत के ही नहीं विश्व के चुनिंदा नेताओं में अग्रणी समझे जाने लगे हैं, लेकिन मुझे लगता है कि उन्हें अंतरिक्ष, मंगल, चंद्र यानों की सफलताओं से अधिक गांवों को पानी, बिजली, बेटियों को शिक्षा, गरीब परिवारों के लिए मकान, शौचालय और घरेलु गैस उपलब्ध कराने के अभियानों से अधिक संतोष मिलता है। इसलिये मैं इस धारणा से सहमत नहीं हूं कि गुजरात में हुए औद्योगिक विकास और संपन्नता को ध्यान में रखकर पहले उन्होंने उद्योगपतियों को महत्व दिया और ‘सूट-बूट की सरकार’ के आरोप लगने पर अजेंडा बदलकर गांवों की ओर ध्यान दिया। आखिरकार, उनका बचपन और 50 वर्ष तक की आयु तो अधिकांश गरीब बस्तियों, गांवों-जंगलों में घूमते हुए बीती है।
फिर गरीबों की चिंता क्या किसी राजनीतिक दल और विचारधारा तक सीमित रहती है? हाल ही में अमेरिकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट ने वैश्विक चिंताओं को दूर करने और सभी विकासात्मक और भू-राजनीतिक मुद्दों पर 100 फीसदी सहमति हासिल करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करते हुए लीड स्टोरी के शीर्षक में लिखा, 'भारत ने जी-20 शिखर सम्मेलन में विभाजित विश्व शक्तियों के बीच समझौता कराया, पीएम मोदी की बड़ी कूटनीतिक जीत।'
यह वही अखबार है जो भारत और मोदी विरोधी खबरों के लिए जाना जाता रहा है । अमेरिका ने भारत की अध्यक्षता में जी-20 नेताओं के शिखर सम्मेलन को पूरी तरह सफल बताया है। अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता मैथ्यू मिलर ने कहा कि यह एक बड़ी सफलता है। जी-20 एक बड़ा संगठन है। रूस और चीन इसके सदस्य हैं। हम इस तथ्य पर विश्वास करते हैं कि संगठन एक बयान जारी करने में सक्षम रहा, जो क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करने का आह्वान करता है। यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण बयान है, क्योंकि यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के मूल में यही है।'
मजेदार बात यह है कि चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने भी सम्मलेन और घोषणा पत्र के लिए भारत की प्रशंसा की। दुबई स्थित मीडिया संगठन गल्फ न्यूज ने इस पहलू पर जोर दिया कि कैसे 18वें जी-20 शिखर सम्मेलन ने सद्भाव और विविधता में दुनिया को आकार दिया। अखबार ने लिखा, '18वां जी-20 शिखर सम्मेलन ने विविधता और सद्भाव की दुनिया को आकार दिया। ब्रिटिश दैनिक द टेलीग्राफ ने नई विश्व व्यवस्था का मुख्य आकर्षण बनने के लिए भारत के कदम के बारे में बात की। अखबार ने शीर्षक में लिखा, क्यों भारत नई विश्व व्यवस्था का केंद्र बनने की ओर अग्रसर है। भारत की अध्यक्षता में जी-20 शिखर सम्मेलन में जलवायु संकट जैसी आम चुनौतियों से निपटने पर सार्थक चर्चा की गई। कतर के अल जजीरा ने इस बात पर प्रकाश डाला कि जी-20 शिखर सम्मेलन सफलतापूर्वक समाप्त हो गया है और रूस ने संतुलित घोषणा की सराहना की है। इससे कुछ सप्ताह पहले ब्रिक्स सम्मलेन के दौरान दक्षिण अफ्रीकी राष्ट्रपति रामफोसा ने मेहमानों के लिए राजकीय डिनर दिया, तब उनके भाषण में चंद्रयान 3 और भारत ही छाया रहा।
भोज में रामफोसा ने कहा, ‘आज की रात एक ऐसी रात है जब हमारे पास ब्रिक्स भागीदारों के रूप में जश्न मनाने का और भी अधिक कारण है। कुछ घंटे पहले भारत ने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सफलतापूर्वक चंद्र मॉड्यूल उतारकर इतिहास रच दिया और ऐसा करने वाला वह पहला देश बन गया।’ उन्होंने कहा, ‘हम चंद्रयान-3 मिशन की सफलता पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भारत सरकार और वहां के लोगों तथा भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) को बधाई देते हैं।’
दक्षिण अफ्रीका के एक अखबार में पीएम मोदी की शान में कसीदे पढ़े गए। जिसका अंदाजा हेडलाइंस से ही लग जाता है। हेडिंग है- इंडियाज मोदी ऑउट ऑफ दिस वर्ल्ड यानी भारत के मोदी इस दुनिया के बाहर की चीज हैं। दक्षिण अफ्रीकी अखबार में भारतीय प्रधानमंत्री का छाना सिर्फ एक राजनेता नहीं बल्कि 140 करोड़ भारतीयों का सम्मान है।' आज भारत, रक्षा और रणनीतिक मोर्चे पर अमेरिका को लेकर अपनी ऐतिहासिक हिचकिचाहट को न केवल खारिज कर रहा है बल्कि नए आयामों पर भी कार्य कर रहा है । स्पष्ट रूप से, मोदी प्रशासन इस बात पर साफ है कि भारत के लिए क्या महत्वपूर्ण है और भारत पारस्परिक रूप से लाभकारी सहयोग में उन्हें कैसे प्राप्त करना चाहता है, इस पर आवाज उठाने से बिलकुल भी हिचकिचा नहीं रहा है।
आज का भारत संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ संलग्नता पर सवालों को न ही टाल रहा है और न ही इस बात को जाहिर करने में कतरा रहा है कि आज का भारत शांति और शक्ति दोनों में समन्वय रखने में विश्वास रखता है।भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय रणनीतिक सहयोग पिछले लगभग दो दशकों में धीरे-धीरे बढ़ा है, लेकिन हाल के वर्षों में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। यह साफ है कि भारत ने एशिया में दोनों देशों के हितों के अभिसरण के बीच अमेरिका के साथ रक्षा और उच्च-प्रौद्योगिकी क्षेत्र में संबंधों को मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित करने के लिए परमाणु सहयोग जैसे मुद्दों पर हिचकिचाहट के युग से खुद को बदल दिया है जो अभूतपूर्व और सराहनीय है। प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिका की यात्रा के अवसर पर कहा था, 'हम मानते हैं कि भविष्य की वैश्विक अर्थव्यवस्था इस बात से निर्धारित होगी कि लोकतंत्र इन उभरती प्रौद्योगिकियों को हमारे पक्ष में काम करने के लिए तैयार कर सकता है या नहीं, चाहे वह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) या क्वांटम या 5G या 6G या सेमीकंडक्टर्स, बायोटेक्नोलॉजी और अन्य क्षेत्र।'
भारत की सॉफ्ट और हार्ड पावर क्षमताओं के मामले में भारत की कूटनीति के बदलते आयामों को प्रदर्शित करती है। प्रधानमंत्री 21 मई को संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस समारोह में शामिल हुए। यह भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा, स्वस्थ जीवन शैली और "वसुधैव कुटुंबकम" जिसका अर्थ 'विश्व एक परिवार है' की भारत की विचारधारा को प्रतिबिंबित करता है। यह भारत की कूटनीतिक सफलता और प्रधानमंत्री मोदी के प्रयासों का ही परिणाम था कि 21 मई को संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मान्यता दी गई। नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने के बाद से भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एवं बुनियादी सुविधाओं पर खर्च तेजी से बढ़ा। इसमें कोई शक नहीं कि नरेंद्र मोदी के विचार दर्शन का आधार ज्ञान शक्ति, जन शक्ति जल शक्ति, ऊर्जा शक्ति, आर्थिक शक्ति और रक्षा शक्ति है।
लगता है दिन-रात उनका ध्यान इसी तरफ रहता है। इसलिये भारत की ग्राम पंचायतों से लेकर दूर देशों में बैठे प्रवासी भारतीयों को अपने कार्यक्रमों, योजनाओं से जोड़ने मे उन्हें सुविधा रहती है। योग, स्वच्छ भारत, आयुष्मान भारत - स्वस्थ भारत , शिक्षित भारत जैसे अभियान सही अर्थों में भारत को शक्तिशाली और संपन्न बना सकते हैं। कोरोना महामारी से निपटने में भारत की स्थिति दुनिया के अधिकांश संपन्न विकसित देशों से बेहतर रहने कि बात विश्व समुदाय मान रहा है।
विशालतम आबादी के अनुपात में मृत्यु दर सबसे कम और कोरोना से प्रभावित होकर ठीक होने वालों की संख्या सर्वाधिक है। आतंकवाद से निपटने के लिए आतंकवादियों के खात्मे के साथ रचनात्मक रास्ता भी सामाजिक-आर्थिक विकास है। तभी तो नरेंद्र मोदी के प्रयासों से दुनिया भारत के साथ खड़ी है और इस्लामिक देश भी पाकिस्तान से दूर हो गए हैं। कश्मीर की तरह पूर्वोत्तर राज्यों को मोदी ने पिछले नौ वर्षों के दौरान अधिकाधिक महत्व दिया | मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद क्षेत्र का राजनीतिक वातावरण बदलता रहा है।
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पूर्वोत्तर को विशेष महत्व देने, निरंतर यात्रा करने, सांसदों, विधायकों और पार्टी के नेताओं को इन राज्यों में सक्रिय रखने से भाजपा का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। केवल मणिपुर किसी षड्यंत्र के कारण भारी हिंसा और तनाव से प्रभावित हो गया। आशा है शीघ्र स्थिति सुधरती जाएगी। पूर्वोत्तर जनतांत्रिक गठबंधन की छतरी के नीचे पार्टी उत्तर पूर्व के सभी आठ राज्यों में गठबंधन सरकारों का हिस्सा है। इसका लाभ 2024 के चुनाव और उसके बाद केंद्र में सहयोगी दलों को जोड़ने में मिल सकता है। इस समय कांग्रेस और प्रतिपक्ष के दल सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी पर साम्प्रदायिक भेदभाव और नफ़रत के गंभीर आरोप लगाकर मुस्लिम वोट पर कब्जे के प्रयास कर रहे हैं। कर्नाटक में कांग्रेस ने पिछड़ी जाति और मुस्लिम कार्ड खेलकर सफलता पाई।
लेकिन इसका दूसरा बड़ा कारण स्थानीय नेताओं की निष्क्रियता और भ्रष्टाचार था। बहरहाल, शायद अन्य राज्य इस पराजय से सबक लेंगे। मोदी सरकार की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सभी गरीब और जरूरतमंदों को समान रूप से मिल रहा है। इनमें शौचालय, घर, बिजली, सिलेंडर और फ्री राशन जैसी योजनाएं लाभार्थियों का बड़ा वर्ग तैयार किया है, जिनमें पसमांदा मुस्लिम भी शामिल हैं। इस दृष्टि से मोदी की कोशिश रही है कि विभिन्न राज्यों में मुस्लिम समुदाय का विश्वास जीतने के लिए अल्पसंख्यक मंत्रालय के अलावा अन्य मंत्रालयों की कल्याण योजनाओं का लाभ अधिकाधिक मुस्लिम लोगों को भी मिले। असल में हर वर्ग के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, ग्रामीण विकास, किसानों को उनकी खेती का सही लाभ और सामाजिक जागरुकता के निरंतर प्रयासों से केवल चुनावी सफलता मिल सकती है बल्कि देश और लोकतंत्र का भविष्य उज्जवल हो सकेगा। नई चुनौतियों और सफलताओं के साथ श्री नरेंद्र मोदी के शतायु होने की शुभकामनाएं |
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक आईटीवी नेटवर्क, इंडिया न्यूज के संपादकीय निदेशक हैं)
स्कॉट बेसेंट अमेरिका के ट्रैजरी सेक्रेटरी यानी वित्त मंत्री हैं। जबकि पीटर नवारो राष्ट्रपति ट्रंप के ट्रेड एडवाइज़र, इन दोनों ने नाम लिए बिना मुकेश अंबानी पर निशाना साधा है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
भारत और अमेरिका के बीच ट्रेड डील फँसी हुई है। अमेरिका अब तक भारत पर दो तरह से टार्गेट करता रहा है। पहली शिकायत यह है कि भारत ‘टैरिफ़ किंग’ है यानी भारत में अमेरिकी सामान पर बहुत ज़्यादा टैरिफ़ लगाया जाता है, और दूसरी शिकायत यह है कि भारत रूस से तेल ख़रीदकर यूक्रेन युद्ध लड़ने में उसकी मदद कर रहा है। इसी कारण अमेरिका ने भारत पर 25% अतिरिक्त टैरिफ़ लगाया है।
भारत का कहना है कि हम तो अमेरिका के कहने पर ही तेल ख़रीद रहे थे ताकि दुनिया के बाज़ार में दाम न बढ़े। भारत और अमेरिका के ट्रेड वॉर के बीच पिछले हफ़्ते से अमेरिकी अधिकारियों के निशाने पर अप्रत्यक्ष रूप से भारत के सबसे धनी व्यक्ति मुकेश अंबानी हैं। उनका आरोप है कि रूसी तेल से अंबानी की कंपनी रिलायंस को फ़ायदा हुआ है, हालांकि रिलायंस के सूत्र इन आरोपों को ग़लत बताते हैं।
अमेरिका के ट्रैजरी सेक्रेटरी स्कॉट बेसेंट और राष्ट्रपति ट्रंप के ट्रेड एडवाइज़र पीटर नवारो ने नाम लिए बिना अंबानी पर निशाना साधा। बेसेंट ने CNBC को कहा कि भारतीय रिफाइनरी कंपनियाँ रूस से सस्ता तेल ख़रीदकर उसे महंगे दाम पर पेट्रोल-डीज़ल बनाकर बेचती हैं, जिससे उन्हें 16 बिलियन डॉलर (करीब 1.32 लाख करोड़ रुपये) का अतिरिक्त मुनाफ़ा हुआ और इसका लाभ कुछ अमीर परिवारों को हुआ।
नवारो ने फ़ाइनेंशियल टाइम्स में लिखा कि रूस के तेल का मुनाफ़ा भारत के राजनीतिक रूप से जुड़े परिवारों को मिलता है, जो अंततः पुतिन को लड़ाई लड़ने में मदद करते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि रूस के सस्ते तेल से भारतीय जनता की गाड़ियाँ नहीं चल रहीं बल्कि कुछ बड़े लोग ही फ़ायदा उठा रहे हैं। हालाँकि दोनों अधिकारियों ने अंबानी का नाम नहीं लिया, लेकिन Bloomberg ने अपनी रिपोर्ट में इन बयानों को उनसे जोड़ते हुए हेडलाइन दी कि भारत-अमेरिका की लड़ाई में मुकेश अंबानी फँस गए हैं।
पहले से रिपोर्ट्स में लिखा था कि रूस के सस्ते तेल से भारत में जनता से ज़्यादा इंडियन ऑयल और रिलायंस जैसी कंपनियों को लाभ हुआ। 2021 तक भारत रूस से लगभग तेल नहीं ख़रीदता था, लेकिन अब इसका हिस्सा 35–40% तक पहुँच गया है और यह तेल 10–12 डॉलर प्रति बैरल सस्ता पड़ता था। जनता को इसका पूरा फ़ायदा नहीं मिला, क्योंकि सस्ते रूसी तेल के चलते पेट्रोल के दाम दिल्ली में ₹85 प्रति लीटर होने चाहिए थे जबकि अब भी ₹95 प्रति लीटर हैं, जबकि कच्चे तेल के दाम युद्ध की शुरुआत में 112 डॉलर प्रति बैरल से घटकर 71 डॉलर पर आ चुके हैं।
इसका फ़ायदा सरकारी और प्राइवेट तेल कंपनियों को हुआ। फ़ाइनेंशियल टाइम्स के मुताबिक़ 16 बिलियन डॉलर यानी 1.32 लाख करोड़ रुपये का मुनाफ़ा कंपनियों ने कमाया, जिसमें से 50 हज़ार करोड़ रुपये रिलायंस इंडस्ट्रीज़ के हिस्से में आए। रिलायंस का कहना है कि कमोडिटी का कारोबार साइकल में चलता है, कभी मार्जिन बढ़ता है तो कभी घटता है, किसी विशेष घटना से फ़ायदे को जोड़ना सही नहीं है।
मुकेश अंबानी पर अमेरिकी अधिकारियों का इस तरह से निशाना बनाना चौंकाने वाला है क्योंकि अल जज़ीरा की रिपोर्ट के मुताबिक़ रिलायंस ने रूस के तेल से बना 42% पेट्रोल-डीज़ल उन्हीं देशों को बेचा जिन्होंने रूस पर प्रतिबंध लगाए हुए थे। जिसमें अमेरिका भी शामिल है ,और अब वही अमेरिका शोर मचा रहा है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
देश भर के शहरों, कस्बों और गांवों में बेलगाम घूम रहे छह-सात करोड़ आवारा कुत्तों की हिफ़ाज़त करने के लिए भारतीय कुलीन वर्ग की संवेदनशीलता और एकजुटता देख कर मेरा तो, सच्ची, मन भर आया।
पंकज शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार।
देश भर के शहरों, कस्बों और गांवों में बेलगाम घूम रहे छह-सात करोड़ आवारा कुत्तों की हिफ़ाज़त करने के लिए भारतीय कुलीन वर्ग की संवेदनशीलता और एकजुटता देख कर मेरा तो, सच्ची, मन भर आया। ऐसा इत्तेहाद कि दस दिन में सुप्रीम कोर्ट के घुटने टिकवा लिए। मेरा दिल द्रवित है। मेरी आंखें भरी हुई हैं। मेरे होंठ सुबक रहे हैं। इस कलियुग में, और तिस पर पिछले ग्यारह बरस के घनघोर भोथरे माहौल के दरमियान, हमारे समाज के एक ख़ास तबके का बेठिकाना कुत्तों के प्रति ऐसा सहानुभूति-भाव देख कर क्या आप की छाती चौड़ी हो कर आज छप्पन इंच की नहीं हो गई है? मेरी तो हो गई है।
बच्चों के, बुजु़र्गों के, महिलाओं के पीछे लपक-लपक कर, उन्हें दौड़ा-दौड़ा कर, गिरा-गिरा कर, नोच-खसोट कर अधमरा कर देने वाले कुत्तों की आज़ादी सुनिश्चित करने के लिए दस दिन-रात जंतर-मंतर पर बैठे रहने वालों से अगर मैं यह पूछूं कि बेग़ुनाह मनुष्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर होते प्रहारों को नंगी आंखों से देखते रहने के बावजूद उन्होंने एक दिन भी जंतर-मंतर जाने की ज़हमत क्यों नहीं उठाई तो आप मुझे असामाजिक तत्व तो घोषित नहीं कर देंगे? अगर मैं सवाल उठाऊं कि 2024 में जब कुत्तों द्वारा मनुष्यों को काटने के 37 लाख मामले बाक़ायदा दर्ज़ हुए और इन में से सैकड़ों लोग हमेशा के लिए चल बसे – तब आप अपने वातानुकूलित ड्राइंग रूम से क्यों बाहर नहीं निकले तो आप मुझे मूक प्राणियों का दुश्मन तो करार नहीं दे देंगे?
11 साल पहले, 2014 में, देश में आवारा कुत्तों की तादाद सवा करोड़ के आसपास थी। 2016 में डेढ़ करोड़ पार कर गई। 2018 में 2 करोड़ से ऊपर हो गई। अब 6-7 करोड़ के बीच है। आवारा कुत्ते देश भर में हर रोज़ कम-से-कम दस हज़ार लोगों को काटते हैं। काटने के मामले बहुत तेज़ी से बढ़ते जा रहे हैं। 2021 में 17 लाख लोगों के कुत्तों द्वारा काटने के मामले दर्ज़ हुए थे। तीन साल में इन घटनाओं में 20 लाख का इजाफ़ा हो गया है। जो मामले दर्ज़ नहीं होते हैं, उन का तो कहना ही क्या?
यूं आवारा कुत्तों की गिनती के सभी आंकड़े अनुमानित ही हैं, मगर दुनिया भर में ख़ानाबदोश कुत्तों की तादाद 20 करोड़ से कुछ ज़्यादा है। दुनिया की मानव आबादी में भारत का हिस्सा तक़रीबन पौने अठारह प्रतिषत है, मगर संसार भर के आवारा कुत्तों की संख्या में भारतीय कुत्तों का हिस्सा तीस फ़ीसदी से ऊपर है। हमारे देश में प्रति एक हज़ार की आबादी पर क़रीब 35 आवारा कुत्ते सड़कों पर घूम रहे हैं। मज़े की बात यह है कि सरकार के पास इस का कोई निश्चित आंकड़ा है ही नहीं कि देश में कितने आवारा कुत्ते हैं और कितने पालतू? कितने पालतू कुत्तों का पंजीकरण है और कितनों का नहीं? पालतू कुत्तों में से कितनों को अनिवार्य टीके नियमित तौर पर लग रहे हैं और कितनों को नहीं? जब पालतू कुत्तों का ही कोई नियमन नहीं हो पा रहा है तो आवारा कुत्तों की कौन परवाह करे?
मैं हलके-फुलके ढंग से नहीं, पूरी संजीदगी के साथ, यह सवाल भी उठाना चाहता हूं कि अगर लोग अपने घरों में कुत्ते पाल सकते हैं तो वे गाय, भैंस, बकरी, भेड़, वग़ैरह क्यों नहीं पाल सकते? अगर कोई चाहे तो अपने फ्लैट में गधा क्यों नहीं पाल सकता है? ‘आवारा’ कुत्तों को ‘सामुदायिक’ कुत्ते मानने वाले भद्रलोकवासी बताएं कि क्या कोई आवासीय सोसाइटी अपने परिसर में सामुदायिक ऊंट-घोड़े पाल सकती है? सारा सामुदायिक प्रेम कुत्ते-बिल्लियों पर ही क्यों उंडे़ला जा रहा है? पक्षियों को पिंजरे में रखना अगर ज़ुर्म है तो पालतू कुत्ते-बिल्लियों को दड़बेनुमा फ्लैट के कारावास में रखना जु़र्म क्यों नहीं है? अगर यह मांग ले कर भी जंतर-मंतर पर धरने-प्रदर्शन होने लगें कि सारे कुत्ते-बिल्लियों को मानव समाज की क़ैद से मुक्त कर सड़कों पर छोड़ा जाए तो क्या सुप्रीम कोर्ट अपने घुटने टेक देगा?
पहले ऐसे घरों की कमी नहीं थी, जहां तोता पाला जाता था। हम में से बहुत-से लोग ‘मिट्ठू चिटरगोटी’ सुन-सुन कर बड़े हुए हैं। फिर सरकार को अहसास हुआ कि तोता तो वन्यजीव है, जैसे कि शेर, हाथी, हिरण और बाघ। तो फ़रमान ज़ारी हो गया कि अगर कोई घर में तोता रखेगा तो तीन साल के लिए जेल हो सकती है। कुत्ता क्या तोते से ज़्यादा मासूम प्राणी है?
आप ने कोई हिंसक तोता कभी देखा क्या? मगर हिंसक कुत्ता तो ज़रूर देखा होगा? हिंसक बिल्लियां भी देखी होंगी। सो, यह कैसे तय हुआ और किस ने किया कि कौन-कौन से पशु-पक्षी वन्यजीव हैं और कौन-कौन से घरेलू जीव? जब सर्कस वाले शेर, चीते, हाथी, भालू – सब पालते थे, तब उन में से कितनों ने मनुष्यों की जान ले ली? मगर आज सड़कों पर घूम रहे आवरा कुत्ते तो हर साल सैकड़ों की जान ले रहे हैं। फिर क्यों न कुत्ते को वन्यजीव घोषित कर दिया जाए?
सच तो यही है कि कुत्ता है तो मूलतः भेड़िए का ही वशंज। कुत्तों को पालतू बनाने का काम प्लीस्टोसीन युग से शुरू हुआ। भोजन की तलाश में जब भेड़िए मनुष्यों की बस्तियों के क़रीब आने लगे तो चतुर मनुष्यों ने उन में से कुछ दब्बू भेडियों को चुना और उन्हें चयनात्मक प्रजनन के तरीके अपना कर धीरे-धीरे पालतू कुत्तों में तब्दील करना शुरू कर दिया। मनुष्यों ने कुत्तों को शिकार के लिए इस्तेमाल करना आरंभ किया। फिर जब खेती शुरू हुई तो उन्हें खेतों की रखवाली में लगाया। बरस-दर-बरस बीतते कुत्ते कारों में घूमने लगे, कुलीनों के कालीनों पर विराजने लगे, उन के गुदगुदे बिस्तरों पर उन के साथ सोने लगे। लेकिन क्या इस से कुत्तों में मौजूद भेड़िया-अंश पूरी तरह समाप्त हो गया होगा?
मेरी अंतआर्त्मा गदगद है कि ईएमआई-युग में अपनी गुज़र-बसर कर रहे हमारे नौनिहाल अपने पालतू कुत्तों के सौंदर्य प्रसाधनों पर हज़ारों रुपए महीने खर्च कर देते हैं। अपने ‘सामुदायिक श्वान बच्चों’ के लिए उन की आंखों से आंसू उमड़ते हैं। बावजूद इस के कि मैं नहीं जानता कि उन में से कितने साल में एकाध बार किसी अनाथालय या वृद्धाश्रम जा कर किसी का हालचाल पूछते हैं, प्राणीमात्र के लिए उन की इतनी दया, इतनी करुणा मुझे भीतर तक भिगो देती है।
मुझे यह भी नहीं मालूम कि सर्दियों में रैनबसेरों में सोने वाले लोगों की इन कुलीन जंतरमंतरियों को कितनी फ़िक्र है, कूड़े के ढेर में से कबाड़ चुनते बच्चे उन की चिंताओं में शामिल हैं या नहीं और ज़िंदगी भर चीथड़ों में ऐड़ियां रगड-रगड़ कर मर जाने वाले कुपोषित स्त्री-पुरुष उन के सपनों में कभी आते हैं या नहीं। मगर क्या यह कोई कम बड़ी बात है कि बेघर कुत्ते-बिल्लियों का सहारा बनने के अपने कर्तव्य पथ पर चलने से उन्हें सुप्रीम कोर्ट की ताक़त भी नहीं रोक पा रही है।
मैं यह साफ़ कर देना चाहता हूं कि मैं कुत्ता-विरोधी नहीं हूं। आज के दौर में कुत्ता-विरोधी हो कर कोई जी सकता है क्या? कुत्ता तो हमारे वर्तमान जीवन दर्शन का प्रतिमान है। उस की पूंछ हमारे राष्ट्रीय आचरण का तेज़ी से प्रतीक बनती जा रही है। इसलिए कुत्ता मेरे लिए पूज्य है। उस की अवहेलना करने की बात तो मैं सोच भी नहीं सकता। कुत्ते हमारी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था की नींव हैं। वे हैं तो हम हैं। वे हमारे बावजूद हैं। कोई रहे-न-रहे, वे सदा के लिए हैं। सो, उन के साथ सार्वजनिक तौर पर रहना सीखिए।
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
कह सकते हैं कि वैश्विक स्तर पर भी 1975 में जो घटनाएं हुईं उसने भी भारत को प्रभावित किया। इस लिहाज से 1975 का स्वाधीन भारत में एक महत्वपूर्ण स्थान है।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
स्वाधीन भारत के इतिहास में वर्ष 1975 एक ऐसा वर्ष है जिस साल कई क्षेत्रों में अनेक तरह के बदलाव देखने को मिले। इंदिरा गांधी ने 1975 में देश की राजनीति और संविधान की आत्मा को बदलने का काम किया था। देश पर आपातकाल थोपा गया था। नागरिक अधिकारों पर पहरा लगा दिया था। राजनीति में ऐसा बदलाव देखने को मिला जो इसके पहले स्वाधीन भारत के इतिहास में लगभग नहीं के बराबर दिखता है।
कई नेता जो आपातकाल के दौरान राज्य के मुख्यमंत्री थे, इंदिरा जी के साथ थे, समय भांपकर कांग्रेस को छोड़ दिया। जनता पार्टी के नेता हो गए। इंदिरा के साथ रहकर आपातकाल के भागी बने, फिर पाला बदलकर जयप्रकाश जी के साथ हो गए। 1977 में जब जनता सरकार बनी तो उसमें केंद्रीय मंत्री बन गए। आपातकाल नें राजनीति को इस कदर बदल दिया कि राजनीति सत्ता में बने रहने का खेल हो गया।
स्वाधीनता के पूर्व जिस प्रकार की राजनीति होती थी और उसके कुछ अंश स्वाधीनता के बाद भी दिखते थे वो एक झटके में 1975 में समाप्त हो गए। स्वाधीनता के बाद पहली बार 1975 में देश ने अधिनायकवाद की आहट सुनी। संजय गांधी के रूप में सत्ता का एक ऐसा केंद्र बना जो बगैर किसी शक्ति के बेहद ताकतवर था। वो जो चाहता था देश में वही होता था। संजय गांधी के साथ कई युवा नेता जुड़े जिन्होंने बाद में देश की राजनीति को अलग अलग तरह से प्रभावित किया। अधिनायकवाद के साथ साथ देश का व्यापक रूप से अवसरवादी राजनीति से भी परिचय हुआ।
सत्ता के लालची नेताओं को भी देश ने देखा। प्रतिरोध की राजनीति ने दिरा जैसी ताकतवर नेता को हरा दिया लेकिन स्वार्थ और लालच के कारण ये प्रतिरोध ढह गया। आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के दामन पर एक ऐसा स्थायी दाग है जो किसी भी तरह से धोया नहीं जा सकता है।राजनीति के अलावा कला के क्षेत्र में भी 1975 को याद किया जाएगा। 1975 में एक ऐसी फिल्म आई जिसने हिंदी सिनेमा के लैंडस्केप को बदलकर रख दिया। 1975 के पहले हिंदी फिल्मों में पारिवारिक संबंधों पर आधारित कहानियों की धूम रहती थी।
समांतर रूप से रोमांटिक कहानियों पर बनी फिल्में जनता को पसंद आती थीं। 1973 में राज कपूर की फिल्म बाबी ने बाक्स आफिस के तमाम रिकार्ड ध्वस्त कर दिए थे। युवा प्रेम का रंग ऐसा बिखरा था कि बाबी में नायक और नायिकाओं के कपड़े पहनने का स्टाइल युवाओं के बीच बेहद लोकप्रिय हुआ था। एक खास तरह के डिजायन का नाम ही बाबी प्रिंट पड़ गया था। 1973 में ही अमिताभ बच्चन की फिल्म जंजीर आई थी। इस फिल्म ने हिंदी सिनेमा के दर्शकों के सामने एक नए प्रकार के नायक की छवि प्रस्तुत की थी। जिसको बाद में एंग्री यंगमैन कहा गया।
फिल्म जंजीर की सफलता की पृष्ठभूमि में दो वर्ष बाद शोले फिल्म रिलीज होती है। इसकी सफलता की कहानी तो बहुतों को मालूम है लेकिन इस फिल्म के साथ फिल्म समीक्षा या समीक्षकों के असफलता की कहानी की चर्चा कम होती है। इस स्तंभ में पहले भी इस बात की चर्चा हो चुकी है कि बिहार से प्रकाशित होनेवाले एक समाचारपत्र में शोले की समीक्षा प्रकाशित हुई थी, जिसका शीर्षक था- शोले जो भड़क ना सका। इसी तर्ज पर एक अन्य लोकप्रिय हिंदी पत्रिका ने फिल्म शोले को एक स्टार दिया था। समीक्षा भी बेहद मनोरंजक लिखी गई थी, कुछ पंक्तियां देखिए- इंटरवल तक फिल्म ठीकठाक है, कुछ हद तक मजेदार भी। फिर इस खिचड़ी फिल्म के निर्देशक और लेखकद्वय सलीम जावेद को लगता है मारपीट और खून खराबे का दौरा पड़ जाता है।
लेकिन सच्चाई यह है कि मार-पीट वाले दृष्यों में न तो कोई जान है और न ही उनमें से किसी तरह की उत्तेजना हो पाती है। समीक्षक महोदय इसके बाद अभिनेताओं की खबर लेते हैं। वो अमिताभ बच्चन,धर्मेंद्र और संजीव कुमार के अभिनय पर लिखते हैं- धर्मेंद्र या अमिताभ न तो गुंडे लगते हैं, न ही भाड़े के टट्टू। धर्मेंद्र की नंगी छाती या उसके बाजुओं को देख कर फूल और पत्थर वाला वह किरदार याद नहीं आता।
अब तो वह ‘फूलफूल’ होता हुआ सा हिंदी फिल्मों का एक्टर भर लगता है। संजीव तो कांफी रेंज का अभिनेता है लेकिन शोले में वह उमर शरीफ बनने की कशिश में बिल्कुल पिछड़ गया लगता है। उसके गले से आवाज इस तरह से निकलती है जैसे भूत बंगले वाली फिल्मों के चरित्र बोलते हैं।इमरजेंसी ने जिस तरह से राजनीति की दिशा बदली उसी तरह से शोले ने फिल्म और फिल्म निर्माण की दिशा भी बदल दी। मल्टीस्टारर फिल्मों अपेक्षाकृत अधिक संख्या में बनने लगीं। हिंदी सिनेमा के जो दर्शक प्रेम के मोहपाश में थे, जो राजेश खन्ना की अदायगी के दीवाने थे, जिनको प्यार भरे संवाद अच्छे लगते थे उनकी पसंद बदल गई।
अब उनका नायक जमाने से टकरा सकता था। वो प्रेम भी करता था लेकिन विद्रोही नायक की उसकी छवि उसके प्रेमी रूप पर भारी पड़ती थी। राजनीति में भी 1975 के बाद नेताओं की छवि बदलने लगी। उनको देश की जनता अवसरवादी जमात के तौर पर देखने लगी। वादे करके मुकर जानेवाली प्रजाति के रूप में देखने लगी। नेताओं की आयडियोलाजी ते प्रति लगवा उसी तरह से घटने लगा जैसे हिंदी सिनेमा के दर्शकों का प्रेम कहानियों के प्रति लगाव कम होने लगा था। ये समाजशास्त्रीय शोध और अनुसंधान का विषय हो सकता है कि क्या आपातकाल में जिस तरह से सिस्टम या संविधान से ऊपर व्यक्ति की आकांक्षा को तरजीह दी गई उसका परिणाम ये हुआ कि जनता एक विद्रोही नायक को ढूंढने लगी।
वो विद्रोही नायक जो सड़ते जा रहे सिस्टम से टक्कर ले सके, उसको ठीक कर सके। देश के राजनीतिक सिस्टम के प्रति जनता के मन में जो गुस्सा उमड़ रहा था वो गुस्सा तब ढंडा होता था जब वो पर्दे पर नायक को सिस्टम तोड़ता देखता था। इसी संतुष्टि के लिए दर्शक बार-बार सिनेमा हाल जाते थे। आम जनता के सिस्टम के विरुद्ध उठ खड़े होने जैसी कई फिल्में 1975 के बाद बनीं। उनमें से कई बेहद सफल रहीं।
1975 में ही अमिताभ बच्चन की एक और फिल्म रिलीज हुई थी दीवार। इसमें भी नायक सिस्टम में रहकर सिस्टम को चुनौती देता है। जब फिल्म रिलीज हुई थी तब कुछ उत्साही समीक्षकों ने इसके नायक की तुलना इंदिरा गांधी के 1969 के फैसलों से की थी। तब कहा गया था कि इंदिरा गांधी ने 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। वो सिस्टम में रहते हुए सिस्टम को ठीक करने का प्रयत्न कर रही थीं।
वही काम दीवार के नायक ने भी किया। ये पैरलल कुछ लोगों के गले नहीं उतर सकती है।वैश्विक स्तर पर भी 1975 में कई घटनाएं हुईं। वियतनाम युद्ध समाप्त हुआ। कुछ देशों को स्वाधीनता मिली और वहां लोकतंत्र स्थापित हुआ। कह सकते हैं कि वैश्विक स्तर पर भी 1975 में जो घटनाएं हुईं उसने भी भारत को प्रभावित किया। इस लिहाज से 1975 का स्वाधीन भारत में एक महत्वपूर्ण स्थान है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
राजनीति के अपराधीकरण का असली कारण यह है कि पहले पार्टियां और उनके नेता चुनावी सफलता के लिए कुछ दादा किस्म के दबंग अपराधियों का सहयोग लेते थे।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
राहुल गांधी ने बिहार में 'वोट चोर' के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चुनाव आयोग के खिलाफ एक घिनौना अभियान चलाया है, जो गरीब अशिक्षित लोगों की भीड़ इकट्ठा कर नक्सल-माओवादियों की तरह चुनाव और लोकतंत्र के प्रति विद्रोह पैदा करने की कोशिश जैसा है। इसे कहने को 'अधिकार यात्रा' कहा गया है, लेकिन जिस राज्य में खुलेआम बंदूकों के बल पर वोट और बूथ लूटने का पुराना इतिहास रहा हो, वहां वोटिंग मशीन, वोटर लिस्ट, सरकार, चुनाव आयोग, सीबीआई, पुलिस आदि पर भरोसा न करना कहां तक उचित है?
वैसे उन्हें मालूम नहीं है कि इसी 'चोर' जैसे नारों से उनके कितने मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री खुद फंसे रहे हैं, और लोगों को उनकी यादें अधिक खतरनाक साबित हो सकती हैं। चुनाव आयोग ने राहुल गांधी से कहा कि यदि मतदाता सूचियों में गड़बड़ियों के सबूत हैं तो उन्हें 7 दिनों में हलफनामा जमा करें, अन्यथा माफी मांगें। मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने राहुल गांधी पर “डेटा मैनिपुलेशन” का आरोप लगाया और स्पष्ट किया कि वोटर लिस्ट और वोट डालने की प्रक्रिया अलग-अलग कानूनों के तहत संचालित होती है।
इस बीच एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर हुई है, जिसमें आरोप लगाया गया कि कांग्रेस और राहुल गांधी ने चुनाव आयोग की संवैधानिक स्वतंत्रता को कमजोर करने के लिए यह अभियान चलाया है। वोटर इज किंग, इलेक्टेड मेन इज सर्वेंट ऑफ पब्लिक (मतदाता राजा है, चुने गए व्यक्ति सेवक हैं), लेकिन सारे चुनाव सुधारों और अदालती निर्णयों के बावजूद राजनीति में अपराधीकरण से मुक्ति नहीं मिल पाई है।
राजनीति के अपराधीकरण का असली कारण यह है कि पहले पार्टियां और उनके नेता चुनावी सफलता के लिए कुछ दादा किस्म के दबंग अपराधियों का सहयोग लेते थे, धीरे-धीरे दबंग लोगों को स्वयं सत्ता में आने का मोह हो गया और अधिकांश पार्टियों को यह मजबूरी महसूस होने लगी। पराकाष्ठा यहाँ तक हो गई कि कांग्रेस के सत्ता काल में बिहार के एक बहुत विवादस्पद दबंग नेता को राज्य सभा के नामजद सदस्य की तरह भेज दिया गया।
अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार संसद में पाँच साल की सजा वाले मामलों में तीस दिन से अधिक जेल में रहने वाले पीएम, सीएम, मंत्री को तत्काल पद से हटने का प्रावधान का कानून लाई तो कांग्रेस और उनके साथी विरोधी दलों ने संसद में अशोभनीय हंगामा कर दिया। संयुक्त संसदीय समिति इस कानून को और ध्यान से विचार करके पास करने के बाद संसद में लाएगी। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सितम्बर 2018 को एक फैसले में निर्देश दिया था कि दागी उम्मीदवार अपने आपराधिक रिकॉर्ड को प्रमुखता से सार्वजनिक करें, ताकि जनता को जानकारी रहे।
राजनीतिक दल जिन दागियों को जिताऊ उम्मीदवार बताकर चुनाव मैदान में उतार देते हैं, उनके बचाव में वे न्यायशास्त्र के इस सिद्धांत की आड़ लेते हैं कि आरोपित जब तक न्यायालय से दोषी न करार दिया जाए, तब तक वह निर्दोष ही माना जाए। यह दलील उन मामलों में भी दी जाती है जिनमें उम्मीदवार के संगीन अपराध में लिप्त होने का आरोप होता है।
अनेक गंभीर मामलों में सबूतों के साथ चार्जशीट होने पर तो नेता और पार्टियों को कोई शर्म महसूस होनी चाहिए। चुनाव आयोग ने तो बहुत पहले यही सिफारिश कांग्रेस राज के दौरान की थी कि चार्जशीट होने के बाद उम्मीदवार नहीं बन पाने का कानून बना दिया जाए, लेकिन ऐसी अनेक सिफारिशें सरकारों और संसदीय समितियों के समक्ष लटकी हुई हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सांसदों-मंत्रियों आदि पर विचाराधीन मामलों के लिए अलग से अदालतों के प्रावधान और फैसले का आग्रह भी किया, लेकिन अदालतों के पास पर्याप्त जज ही नहीं हैं।
जहाँ तक सरकारी खजाने से चोरी और भ्रष्टाचार के मामलों की बात है, बिहार में राहुल गांधी जिन लालू यादव परिवार के कंधों का सहारा ले रहे हैं, वे 'चारा चोर' के आरोपों वाले पशुपालन घोटाले में जेल की लंबी सजा भुगत चुके हैं और अब भी दामन बेदाग नहीं है। फिर कांग्रेस के इंदिरा राज से मनमोहन सिंह राज के दौरान अरबों रुपयों के भ्रष्टाचार के घोटालों की सूची लंबी होती गई है। हिमाचल के एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री रामलाल को 'लकड़ी चोर' के गंभीर आरोपों में हटाना पड़ा यानी जंगलों के पेड़ काटकर करोड़ों की लकड़ी के अवैध धंधे का मामला था।
बचाव के लिए उसे राज्यपाल तक बनाया गया, जिसने आंध्र की चुनी हुई रमा राव की सरकार को ही बर्खास्त कर दिया जिसे राष्ट्रपति के हस्तक्षेप से पुनः मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। कर्नाटक का तेलगी स्टाम्प पेपर घोटाला (2003), कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला (2010), 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला (2008–11), कोयला घोटाला (2012) की यादें ताजा हैं। वहीं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जिस तरह के शराब घोटाले में फंसे, ऐसे आरोपों के मामले मध्य प्रदेश में कांग्रेस के अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह तक पर रहे और अदालत पहुँचे थे।
इन सबसे गंभीर कांग्रेस सरकार बचाने के लिए हुआ सांसद रिश्वत कांड में सहयोगी दलों के नेताओं की सजा का रिकॉर्ड भी है। इसलिए राहुल गांधी और कर्नाटक में तेलगी और वीरप्पन कांडों के समय सत्ता में रहे पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को असली राजनीतिक नफा-नुकसान समझ लेना चाहिए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
ये कानून बनने के बाद अगर कोई ऑनलाइन मनी गेम खिलाता है, तो उसे तीन साल तक की कैद होगी और एक करोड़ रुपए तक का जुर्माना भरना पड़ेगा। प्रमोशन पर भी पाबंदी होगी।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
देश में ऑनलाइन मनी गेम्स पर प्रतिबंध लगाने का कानून पारित हो गया है। जिन ऑनलाइन खेलों में किसी भी प्रकार से पैसों का लेन-देन होता है, वे सभी अब प्रतिबंधित होंगे। इसका अर्थ है कि खेलों के नाम पर ऑनलाइन सट्टेबाज़ी और किसी भी प्रकार का धन लेन-देन पूरी तरह अवैध होगा। न कोई पैसा लगाएगा, न कोई जीतेगा, न कोई हारेगा और न कोई कमाएगा। जिन ऑनलाइन खेलों में लोग धन लगाते थे, वे सभी प्लेटफ़ॉर्म बंद कर दिए जाएंगे।
इससे सरकार को लगभग बीस हज़ार करोड़ रुपये के कर राजस्व का नुकसान होगा, जबकि FICCI की रिपोर्ट के अनुसार 2029 तक इन कंपनियों से सरकार को 78 हज़ार 500 करोड़ रुपये की आमदनी हो सकती थी। ऑनलाइन गेमिंग का दायरा कितना विशाल है, इसे समझने के लिए फैंटेसी क्रिकेट की कंपनी ड्रीम-11 का उदाहरण दिया जा सकता है, जिसमें टीम बनाने के लिए धन देना पड़ता है और जिसका मूल्यांकन 70 हज़ार करोड़ रुपये तक पहुँच चुका है। इसके ब्रांड एंबेसडर महेंद्र सिंह धोनी, ऋषभ पंत और जसप्रीत बुमराह जैसे खिलाड़ी हैं।
भारत में 15 करोड़ से अधिक लोग रियल मनी गेम्स खेलते हैं, जिनमें फैंटेसी स्पोर्ट्स, रमी, पोकर जैसे खेल शामिल हैं, और प्रतिदिन लगभग 11 करोड़ लोग इन खेलों में भाग लेते हैं। नए कानून के बाद ड्रीम-11, मोबाइल प्रीमियर लीग, माय 11 सर्किल, विन्ज़ो, एसजी-11 फैंटेसी, जंगली गेम्स और गेम्सक्राफ्ट जैसी कंपनियों के ऑनलाइन रियल मनी गेम्स बंद हो जाएंगे।
सरकार ने ई-स्पोर्ट्स और कौशल-आधारित खेलों को इस प्रतिबंध से छूट दी है तथा इन्हें प्रोत्साहन देने के लिए ई-स्पोर्ट्स प्राधिकरण गठित करने की घोषणा की है, जिससे रणनीतिक सोच, मानसिक चपलता और शारीरिक दक्षता को बढ़ावा मिलेगा। इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा कि ऑनलाइन मनी गेम्स का सबसे बुरा असर गरीब और मध्यम वर्ग पर पड़ रहा था। शीघ्र धन कमाने की लालसा में लोग इनकी लत के शिकार हो रहे थे, जिससे मानसिक विकार, आर्थिक संकट और आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ रही थी।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इसे गेमिंग विकार घोषित किया है। इसीलिए जिन ऑनलाइन खेलों में पैसों का लेन-देन होता है, उन सबको बंद करने का निर्णय लिया गया है। नए कानून के अंतर्गत यदि कोई ऑनलाइन मनी गेम खिलाता है, तो उसे तीन वर्ष तक की कारावास और एक करोड़ रुपये तक का दंड हो सकता है, जबकि इनका प्रचार-प्रसार करने पर दो वर्ष तक की कैद और पचास लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया जाएगा। जो लोग ऐसे खेल खेलते हुए पाए जाएंगे, उन्हें पीड़ित माना जाएगा और उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं होगी।
यह सत्य है कि ऑनलाइन गेमिंग का बाज़ार अत्यंत बड़ा है और इस प्रतिबंध से न केवल 20 हज़ार करोड़ रुपये का राजस्व घटेगा, बल्कि हज़ारों लोग बेरोज़गार भी होंगे, फिर भी सरकार ने युवाओं के भविष्य को ध्यान में रखते हुए यह जोखिम उठाया है। क्योंकि इन खेलों से होने वाला मानसिक और सामाजिक नुकसान धनहानि से कहीं अधिक गंभीर और खतरनाक है।
ये खेल युवाओं को आत्महत्या की ओर उकसाते हैं, उन्हें मानसिक रूप से बीमार बनाते हैं और उनकी ज़िंदगियाँ तबाह करते हैं। कई उदाहरण हमारे आस-पास मौजूद हैं, जहाँ कुछ लोगों को पैसा जीतता दिखाकर लाखों लोगों को गुमराह कर उनकी कमाई लूट ली जाती है। यदि देश के युवाओं को मानसिक बीमारियों और आत्मविनाश से बचाने के लिए सरकार 20 हज़ार करोड़ रुपये का त्याग करती है, तो उसकी सराहना होनी चाहिए। अश्विनी वैष्णव का यह कदम ऐतिहासिक है, जो युवाओं का भविष्य सुरक्षित करने, गरीबों की मेहनत की कमाई बचाने और अन्य देशों को भी ऑनलाइन गेमिंग के खतरे से बचाने का मार्ग दिखाता है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
विपक्षी दलों ने पूर्व जज रेड्डी को इसलिए उम्मीदवार बनाया है क्योंकि वह अविभाजित आंध्र प्रदेश से हैं और उनकी उम्मीदवारी को लेकर विपक्ष तेलुगु देशम पार्टी में दुविधा पैदा करना चाहता है।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
उपराष्ट्रपति पद के लिए 9 सितम्बर को एनडीए उम्मीदवार सी. पी. राधाकृष्णन और विपक्ष के उम्मीदवार पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज जी. सुदर्शन रेड्डी के बीच सीधा मुकाबला होगा। मंगलवार को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खर्गे ने रेड्डी की उम्मीदवारी का ऐलान किया और कहा कि विपक्षी खेमे ने सर्वसम्मति से यह चयन किया है। उधर, सी. पी. राधाकृष्णन की उम्मीदवारी पर बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए ने मुहर लगा दी है।
विपक्षी दलों ने पूर्व जज रेड्डी को इसलिए उम्मीदवार बनाया है क्योंकि वह अविभाजित आंध्र प्रदेश से हैं और उनकी उम्मीदवारी को लेकर विपक्ष तेलुगु देशम पार्टी में दुविधा पैदा करना चाहता है। लेकिन मंगलवार को ही टीडीपी अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडु के पुत्र एन. लोकेश ने सोशल मीडिया पर लिखा कि एनडीए एकजुट है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह विरोधी दलों के नेताओं से बात करके राधाकृष्णनन के नाम पर सहमति बनाने की कोशिश अब भी कर रहे हैं। लेकिन विपक्ष उपराष्ट्रपति चुनाव में सत्ता पक्ष को टक्कर देने के मूड में नज़र आ रहा है।
उपराष्ट्रपति चुनाव के आंकडों पर नज़र डालें तो सीपी राधाकृष्णन का उपराष्ट्रपति बनना तय है। बीजेपी और उसके साथी दलों के पास अच्छा खासा बहुमत है। कांग्रेस और उसके साथी दलों के लिए CPR का विरोध करना मुश्किल होगा क्योंकि एक तो उनका सार्वजनिक जीवन साफ सुथरा है। दूसरा, वो ओबीसी समाज से आते हैं, तमिलनाडु के हैं लेकिन उनकी जाति का प्रभाव आंध्र प्रदेश में भी है। विपक्ष का विरोध सांकेतिक होगा और CPR के उम्मीदवार होने की वजह से आक्रामक नहीं हो पाएगा।
CPR को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए जाने का एक और पहलू भी है। बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को यह एहसास हुआ है कि अपने पुराने लोगों को ही जिम्मेदारी के पद देने चाहिए। जगदीप धनखड़ और सत्यपाल मलिक जैसे एक्सपेरिमेंट फेल हुए हैं। ये एहसास आने वाली राजनीतिक नियुक्तिय़ों में भी दिखाई देगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
जेलेन्स्की का सूट आज के समय का एक बहुत बड़ा प्रतीक है। सूट पहनकर दुनिया को उपदेश देने वाली ये शक्तियां अपनी नीति और नीयत में कितनी नंगी हैं, ये समझना जरूरी है।
जयदीप कर्णिक, संपादक, अमर उजाला डिजिटल।
दृश्य एक -
तारीख – 22 फरवरी 2025, स्थान - अमेरिका, वॉशिंगटन डी. सी., राष्ट्रपति का कार्यालय, किरदार - अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप , यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेन्स्की, अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वैंस, कुछ पत्रकार और अन्य। इतनी बड़ी मुलाक़ात के लिए भी जेलेन्स्की अपने नियमित कपड़े ही पहन कर आए थे। टी-शर्ट और कार्गो पैंट। अपने ही अंदाज़ में वे पत्रकारों के सामने ही लाइव कैमरे पर डोनाल्ड ट्रम्प से भिड़ गए। अपने देश के लिए, उसके हितों के लिए। उस समय एक पत्रकार ने उनसे पूछ भी लिया था। आप इतनी बड़ी मुलाकात के लिए भी इतने साधारण कपड़े पहन कर आए हैं? जेलेन्स्की ने पलटकर पत्रकार से ही पूछ लिया था -आपको कोई तकलीफ है क्या?
दृश्य दो -
तारीख: 18 अगस्त 2025, स्थान – वही - अमेरिका, वॉशिंगटन डी. सी., राष्ट्रपति का कार्यालय, किरदार – ये भी वही - अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेन्स्की, अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वैंस, कुछ पत्रकार और अन्य।
अब सब कुछ बदला हुआ था। कपड़ों से लेकर व्यवहार तक। शिष्टाचार दोनों ओर से बह रहा था। ट्रंप और जेलेन्स्की दोनों ओर से। जेलेन्स्की इस बार सूट पहनकर आए थे। उसी पत्रकार ने फिर उनसे कहा कि आप इस सूट में अच्छे लग रहे हो ! ट्रंप भी तपाक से बोले -हां मैंने भी इनसे यही कहा। फिर जेलेन्स्की से बोले ये वही पत्रकार हैं जिन्होंने आपको पिछली बार टोका था। जेलेन्स्की बोले, हां मैं इनको पहचान गया। मैंने तो सूट पहन लिया है पर इन्होंने वही सूट पहना है जो उस दिन पहना था।
बहरहाल, इस वैश्विक घटनाक्रम की संक्षिप्त लेकिन अतिशय नाटकीय दृश्यावली में फरवरी 2025 से अगस्त 2025 के इन छह महीनों में बहुत कुछ बदल गया है। जेलेन्स्की के कपड़े ही नहीं बदले हैं बल्कि हावभाव भी बदल लिए हैं। फरवरी की मुलाक़ात तीखी नोंक-झोंक में बदल गई थी। जेलेन्स्की के लिए बना भोजन धरा रह गया था और उन्हें एक तरह से धकियाकर ओवल दफ्तर से बाहर कर दिया गया था।
इस मुलाक़ात के बाद ट्रम्प और जेलेन्स्की के कई मीम भी बने थे, जिसमें दोनों को हाथापाई तक करते हुए बताया गया था।अबकी दोनों बहुत सुकून से मिले। न केवल घंटों मुलाक़ात चली, बल्कि यूरोप के अन्य देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी वहीं बुला लिए गए थे। ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी सब। ये ही वो शक्तियां हैं, जिन्होंने यूक्रेन को कहा था कि चिंता मत करो हम तुम्हारे साथ हैंं, हम तुम्हें रूस के खिलाफ लड़ने में पूरी मदद करेंगे।
पूरी मदद करेंगे पर खुद नहीं लड़ेंगे। हमारा एक भी नागरिक या सैनिक नहीं मरेगा। नागरिक और सैनिक सब यूक्रेन के मरेंगे। आखिर क्या बदला इन छह महीनों में? फरवरी में ट्रंप उसी गुरूर में जी रहे थे कि एक फोन करुंगा और रूस-यूक्रेन युद्ध रुकवा दूंगा!! उनको लगा जेलेन्स्की घुटनों के बल आएंगे और जो कहा जाएगा मान जाएंगे। हुआ ठीक उलट।
पुतिन को समझाने गए तो उन्होंने भी झिड़क दिया।ट्रंप को समझ आया कि मामला पेचीदा है और यूं शेखी बघारने से कुछ नहीं होगा। तो टैरिफ का दांव खेला। उसमें भी अपने ही जाल में घिर गए। आखिर पुतिन अपनी ही शर्तों पर मिलने के लिए तैयार हुए। चंद रोज पहले अलास्का में मिले भी। आसमान में गुजरते बमवर्षक अमेरिकी जहाजों के बीच नीचे जमीन पर जब ट्रंप और पुतिन मिले तो दुनिया की राजनीति का एक नया अध्याय लिखा जा रहा था। दो बड़े ध्रुव, दो बड़ी ताकतें मिल रही थीं, और जिनको समझ नहीं है उन्हें समझा रही थीं कि अब न तो दुनिया दो ध्रुवीय रह गई है, न एक ध्रुवीय, न बहुध्रुवीय।
अब दरअसल ध्रुव तो है, पर वो कोई देश नहीं हैं। वो सिर्फ एक ही चीज़ है और वो है पैसा, वो है व्यापार। अब सारे बड़े राष्ट्राध्यक्ष एक क्रूर व्यापारी की तरह व्यापार कर रहे हैं। दांव पर यूक्रेन जैसे छोटे देश लगे हैं और बिसात पर इन्हें मोहरे की तरह उपयोग में लाया जा रहा है, इसीलिए तो ट्रम्प और जेलेन्स्की की ताज़ा मुलाकात के ठीक पहले अमेरिका का ये बयान आ जाता है कि इस बातचीत में यूक्रेन के लिए नाटो की सदस्यता और डोनाबास पर रूस का कब्जा एजेंडे में नहीं हैं।
ट्रंप और पुतिन के बीच क्या बात हुई होगी उसे समझने के लिए ये इशारा ही काफी है। कितने आश्चर्य की बात है कि जिस नाटो की सदस्यता को लेकर ये सारा बखेड़ा खड़ा हुआ, वही एजेंडे से बाहर हो गई। यूक्रेन तो पूरी तरह ठगा गया। ऐसे में जेलेन्स्की के पास सूट पहनकर आने और अपना अस्तित्व बचाने के लिए झुककर बात करने के अलावा विकल्प ही क्या रह गया है?
दुनिया के ये व्यापारी चौधरी आखिर मसखरे से राष्ट्रपति बने और अपनी शर्तों पर जीना चाहने वाले जेलेन्स्की को झुकाकर ही माने। इस पूरे मामले में इन व्यापारी शक्तियों का कैसा दोगलापन रहा। भारत सहित दुनिया के सब देशों को रूस से व्यापार रोकने के लिए धमकाते रहे और खुद उसी रूस से व्यापार करते रहे। इधर पुतिन इनकी टेबल पर आ गए तो अब जेलेन्स्की को भी सूट पहना दिया। यही समझने वाली बात है। जेलेन्स्की का सूट आज के समय का एक बहुत बड़ा प्रतीक है।
सूट पहनकर दुनिया को उपदेश देने वाली ये शक्तियां अपनी नीति और नीयत में कितनी नंगी हैं, ये समझना जरूरी है। अपने बदन पर स्वाभिमान का टी-शर्ट पहनकर घूमने वाला कोई देश इनको पसंद नहीं आएगा। सूट की इन महाशक्तियों के सामने दुनिया के टी-शर्ट, गमछे और बंडी को अपना स्वाभिमान और अस्तित्व बचाना ही इस वक्त की सबसे बड़ी चुनौती है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - अमर उजाला डिजिटल।
नए समय में पत्रकारिता को सिर्फ कौशल या तकनीक के सहारे चलाने की कोशिशें हो रही हैं। जबकि पत्रकारिता सिर्फ कौशल नहीं बहुत गहरी संवेदना के साथ चलने वाली विधा है।
प्रो.संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग में आचार्य और अध्यक्ष।
हिंदी पत्रकारिता के 200 साल की यात्रा का उत्सव मनाते हुए हमें बहुत से सवाल परेशान कर रहे हैं जिनमें सबसे खास है ‘संपादक का विस्थापन’। बड़े होते मीडिया संस्थान जो स्वयं में एक शक्ति में बदल चुके हैं, वहां संपादक की सत्ता और महत्ता दोनों कम हुई है। अखबारों से खबरें भी नदारद हैं और विचार की जगह भी सिकुड़ रही है। बहुत गहरे सौंदर्यबोध और तकनीकी दक्षता से भरी प्रस्तुति के बाद भी अखबार खुद को संवाद के लायक नहीं बना पा रहे हैं। यह ऐसा कठिन समय है जिसमें रंगीनियां तो हैं पर गहराई नहीं। हर तथ्य और कथ्य का बाजार पहले ढूंढा जा रहा है, लिखा बाद में जा रहा है।
नए समय में पत्रकारिता को सिर्फ कौशल या तकनीक के सहारे चलाने की कोशिशें हो रही हैं। जबकि पत्रकारिता सिर्फ कौशल नहीं बहुत गहरी संवेदना के साथ चलने वाली विधा है। जहां शब्द हैं, विचार हैं और उसका समाज पर पड़ने वाला प्रभाव है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या पत्रकारिता के पारंपरिक मूल्य और सिद्धांत अप्रासंगिक हो गए हैं या नए जमाने में ऐसा सोचना ठीक नहीं है। डिजीटल मीडिया की मोबाइल जनित व्यस्तता ने पढ़ने, गुनने और संवाद का सारा समय खा-पचा लिया है। जो मोबाइल पर आ रहा है,वही हमें उपलब्ध है। हम इसी से बन रहे हैं, इसी को सुन और गुन रहे हैं।
ऐसे खतरनाक समय में जब अखबार पढ़े नहीं, पलटे जाने की भी प्रतीक्षा में हैं। दूसरी ओर वाट्सअप में अखबारों के पीडीएफ तैर रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जो पीडीएफ पर ही छपते हैं। अखबारों को हाथ में लेकर पढ़ना और ई-पेपर की तरह पढ़ना दोनों के अलग अनुभव हैं। नई पीढ़ी मोबाइल सहज है। उसने मीडिया घरानों के एप मोबाइल पर ले रखे हैं। वे अपने काम की खबरें देखते हैं। ‘न्यूज यू कैन यूज’ का नारा अब सार्थक हुआ है। खबरें भी पाठकों को चुन रही हैं और पाठक भी खबरों को चुन रहे हैं। यह कहना कठिन है कि अखबारों की जिंदगी कितनी लंबी है। 2008 में ‘प्रिंट इज डेट किताब’ लिखकर जे. गोमेज इस अवधारणा को बता चुके हैं।
सवाल यह नहीं है कि अखबार बचेंगे या नहीं मुद्दा यह है कि पत्रकारिता बचेगी या नहीं। उसकी संवेदना, उसका कहन, उसकी जनपक्षधरता बचेगी या नहीं। संपादक की सत्ता पत्रकारिता की इन्हीं भावनाओं की संरक्षक थी। संपादक अखबार की संवेदना, भाषा, उसके वैचारिक नेतृत्व,समाजबोध का संरक्षण करता था। उसकी विदाई के साथ कई मूल्य भी विदा हो जाएंगें। गुमनाम संपादकों को अब लोग समाज में नहीं जानते हैं।
खासकर हिंदी इलाकों में अब पहचान विहीन और ‘ब्रांड’ वादी अखबार निकाले जा रहे हैं। अब संपादक के होने न होने से फर्क नहीं पड़ता। उसके लिखने न लिखने से भी फर्क नहीं पड़ता। न लिखे तो अच्छा ही है। पहचानविहीन चेहरों की तलाश है, जो अखबार के ब्रांड को चमका सकें। संपादक की यह विदाई अब उस तरह से याद भी नहीं की जाती। पाठकों ने ‘नए अखबार’ के साथ अनुकूलन कर लिया है।
‘नया अखबार’ पहले पन्ने पर भी किसी भी प्रोडक्ट का एड छाप सकता है, संपादकीय पन्ने को आधा कर विचार को हाशिए लगा सकता है। खबरों के नाम पर एजेंडा चला सकता है। ‘सत्य’ के बजाए यह ‘नरेटिव’ के साथ खड़ा है। यहां सत्य रचे और तथ्य गढ़े जा सकते हैं। उसे बीते हुए समय से मोह नहीं है वह नए जमाने का ‘नया अखबार’ है। वह विचार और समाचार नहीं कंटेट गढ़ रहा है। उसे बाजार में छा जाने की ललक है। उसके टारगेट पर खाये-अघाए पाठक हैं जो उपभोक्ता में तब्दील होने पर आमादा हैं।
उसके कंटेंट में लाइफ स्टाइल की प्रमुखता है। वह जिंदगी को जीना और मौज सिखाने में जुटा है। इसलिए उसका जोर फीचर पर है, अखबार को मैग्जीन बनाने पर है। अखबार बहुत पहले ‘रंगीन’ हो चुका है, उसका सारा ध्यान अब अपने सौंदर्यबोध पर है। वह ‘प्रजेंटेबल’ बनना चाहता है। अपनी समूची प्रस्तुति में ज्यादा रोचक और ज्यादा जवान। उसे लगता है कि उसे सिर्फ युवा ही पढ़ते हैं और वह यह भी मानकर चलता है कि युवा को गंभीर चीजें रास नहीं आतीं।
यह ‘नया अखबार’ अब संपादक की निगरानी से मुक्त है। मूल्यों से मुक्त। संवेदनाओं से मुक्त। भाषा के बंधनों से मुक्त। यह भाषा सिखाने नहीं बिगाड़ने का माध्यम बन रहा है। मिश्रित भाषा बोलता हुआ। संपादक की विदा के बहुत से दर्द हैं जो दर्ज नहीं है। नए अखबार ने मान लिया है कि उसे नए पाठक चुनने हैं। बनाना है उन्हें नागरिक नहीं, उपभोक्ता। ऐसे कठिन समय में अब सक्रिय पाठकों का इंतजार है। जो इस बदलते अखबार की गिरावट को रोक सकें। जो उसे बता सकें कि उसे दृश्य माध्यमों से होड़ नहीं करनी है। उसे शब्दों के साथ होना है। विचार के साथ होना है।
हिंदी के संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर ने कहा था, ‘‘पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े-बड़े धनियों अथवा सुसंगठित कंपनियों के लिए ही संभव होगा। पत्र सर्वांग सुंदर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गंभीर गवेषणा की झलक होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी।
यह सब कुछ होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त अथवा मानवता के उपासक महाप्राण संपादकों की नीति न होगी- इन गुणों से संपन्न लेखक विकृत मस्तिष्क समझे जाएंगे, संपादक की कुर्सी तक उनकी पहुंच भी न होगी। वेतनभोगी संपादक मालिक का काम करेंगे और बड़ी खूबी के साथ करेंगे। वे हम लोगों से अच्छे होंगे। पर आज भी हमें जो स्वतंत्रता प्राप्त है वह उन्हें न होगी। वस्तुतः पत्रों के जीवन में यही समय बहुमूल्य है।”
श्री पराड़कर की यह भविष्यवाणी आज सच होती हुई दिखती है। समानांतर प्रयासों से कुछ लोग विचार की अलख जगाए हुए हैं। लेकिन जरूरी है कि हम अपने पाठकों के सक्रिय सहभाग से मूल्य आधारित पत्रकारिता के लिए आगे आएं। तभी उसकी सार्थकता है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
पिछले तीन चुनाव से आपका प्रतिद्वंद्वी मोदी आपको धूल चाटने पर मजबूर करता रहा है और 2029 में फिर वह आपको चारों खाने चित करने के लिए अपनी कुल्हाड़ी की धार तेज़ कर रहा है।
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
पीएम मोदी के 15 अगस्त के भाषण से कांग्रेस को चिंतित होना चाहिए। 2024 में 240 सांसदों पर सिमटे मोदी ने 2029 में फिर से सरकार बनाने के अपने संकल्प को संकेतों में बताया है। मोदी का भाषण भविष्य की बलवती वापसी से भरा हुआ था। मोदी ने अभी से 2029 की तैयारी शुरू कर दी है, और वहीं कांग्रेस चुनावी जंग के लिए कितनी तैयार है? इसके जनरलों और पैदल सैनिकों में कितना जोश है? इसके जनरल कौन-कौन हैं? सिर्फ़ मोदी को ‘वोट चोर’ कहकर मोदी सरकार को ठिकाने लगाने की उम्मीद राहुल गांधी कर रहे हैं। कांग्रेस आज क्या है? क्या वह एक राजनीतिक दल है, जो अपने जीवन-मरण की लड़ाई में उतरने जा रही है? या वह एक एनजीओ है, जो सिर्फ़ अपना फ़र्ज़ निभा रही है और यह उम्मीद कर रही है कि इतने भर से दिल्ली की सत्ता बदल जाएगी?
मेरे इस आकलन से कांग्रेस-समर्थक नाराज़ हो सकते हैं मगर इस नश्तर को घाव के अंदर घुमाना ज़रूरी है। पिछले तीन चुनाव से आपका प्रतिद्वंद्वी मोदी आपको धूल चाटने पर मजबूर करता रहा है और 2029 में फिर वह आपको चारों खाने चित करने के लिए अपनी कुल्हाड़ी की धार तेज़ कर रहा है। राहुल गांधी को चिंतित होना चाहिए कि अगर इस बार फिर कांग्रेस की हार हुई तो इसके ‘मध्य’ से इसके कई हताश और पस्त सदस्य बाहर का रास्ता पकड़ लेंगे। लगातार 20 साल सत्ता से बाहर रहना कांग्रेस अफ़ोर्ड नहीं कर सकेगी। तब कांग्रेस का क्या बचा रहेगा?
संभावना यही है कि तब भी यह उन्हीं पुराने और जर्जर स्वयंभू चाणक्यों, मेकियावेलियों और दिग्गज बुद्धिजीवियों की जमात के रूप में बनी रहेगी, जिन सबकी एक ही विशेषता होगी। न कभी चुनाव लड़े और न कभी चुनाव जीते या उसे भी गंवा दिया जो कभी उनके ज़िम्मे सौंपा गया। किसी भी राजनीतिक दल का एक ही लक्ष्य और नारा होता है, ‘चुनाव जीतो’। इसके लिए कड़ी मेहनत और गहरी निष्ठा की ज़रूरत होती है। सफल रहे तो खूब इनाम पाओ, विफल रहे तो भारी कीमत चुकाओ।
संक्षेप में, सारा दारोमदार जवाबदेही पर है। अब आप बताइए कि आपके मुताबिक, क्या कांग्रेस में इधर ऐसा कुछ हो रहा है? इस सवाल का जवाब ‘ना’ में है। 2014 के बाद कांग्रेस ज़्यादा सामंतवादी हो गई है और योग्यता के प्रति उसका आग्रह घटता गया है। इसमें जुझारू, चुनावी प्रतिभा वाले नए नेता बहुत कम उभरे हैं। जो थे, वे पार्टी से जा चुके हैं। लेकिन चापलूस तत्व तमाम संकटों के बीच भी कांग्रेस में बचे और बने रहते हैं। गांधी परिवार सहित कुछ पुराने वंशज अपनी सिकुड़ती जागीर शायद ही बचा पाए हैं।
वे अपने क्षेत्र में अपनी पार्टी का विस्तार नहीं कर सकते, न ही वे नई प्रतिभाओं के लिए जगह खाली कर सकते हैं। कांग्रेस में ऐसे कई नेता हैं जिन्होंने निरंतरता बनाए रखी। बेशक नाकामियों की। कांग्रेस में ऐसे कई नेता हैं जिन्होंने प्रभारी के तौर पर जिस राज्य को छुआ उसे धूल बना दिया। कांग्रेस में राहुल टीम ऐसी है जो एक सिरे से पराजितों की परेड जैसी दिखती है।
राजनीति कड़ी मेहनत की मांग करती है, केवल ट्विटर के योद्धा बनकर कुछ नहीं होगा। कहीं ऐसा न हो कि 2029 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के कार्यकर्ता राहुल गांधी को लेकर आमिर खान की फ़िल्म ‘थ्री इडियट्स’ का यह गाना गुनगुनाते मिले,‘कहाँ से आया था वो, कहाँ गया उसे ढूँढ़ो’।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
संघ बीजेपी के बीच कथित मतभेद के क़यासों के बीच पीएम मोदी का लाल क़िले से दिया भाषण उनकी वैचारिक दृढ़ता को इंगित करता है। पूरे भाषण के दौरान एक साझा सूत्र है।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
स्वाधीनता दिवस के अवसर पर लाल किला की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो भाषण दिया उसमें देशवासियों की भावनाओं का प्रकटीकरण और उनका अपना सोच था। अपनी समृद्ध संस्कृति और वौचारिकी का समावेश तो था ही। हम उन विचारों पर नजर डालेंगे लेकिन पहले प्रधानमंत्री के संबोधन के कुछ अंश देखते हैं। अपने भाषण का आरंभ प्रधानमंत्री ने संविधान निर्माताओं के स्मरण से किया। इसके बाद उन्होंने डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी को याद किया।
अंश- हम आज डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी की 125वीं जयंती भी मना रहे हैं। डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत के संविधान के लिए बलिदान देनेवाले देश के पहले महापुरुष थे। संविधान के लिए बलिदान। अनुच्छेद 370 की दीवार को गिराकर एक देश एक संविधान के मंत्र को जब हमने साकार किया तो हमने डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सच्ची श्रद्धांजलि दी।
अंश- आज मैं बहुत गर्व के साथ एक बात का जिक्र करना चाहता हूं। आज से 100 साल पहले एक संगठन का जन्म हुआ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। सौ साल की राष्ट्र की सेवा एक ही बहुत ही गौरवपूर्ण स्वर्णिम पृष्ठ है। व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण के इस संकल्प को लेकर के सौ साल तक मां भारती के कल्याण का लक्ष्य लेकर लाखों स्वंसेवकों ने मातृभूमि के कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पित किया।
सेवा, समर्पण, संगठन और अप्रतिम अनुशासन जिसकी पहचान रही है, ऐसा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ है एक प्रकार से। सौ साल का उसका समर्पण का इतिहास है। आज लालकिले की प्राचीर से सौ साल की इस राष्ट्रसेवा की यात्रा में योगदान करनेवाले सभी स्वयंसेवकों का आदरपूर्वक स्मरण करता हूं। देश गर्व करता है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इस सौ साल की भव्य समर्पित यात्रा को जो हमें प्रेरणा देता रहेगा।
अंश- जब युद्ध के मैदान में तकनीक का विस्तार हो रहा है, तकनीक हावी हो रही है, तब राष्ट्र की रक्षा के लिए, देश के नागरिकों की सुरक्षा के लिए हमने जो महारथ पाई है उसको और विस्तार करने की जरूरत है।... मैंने एक संकल्प लिया है, उसके लिए आपका आशीर्वाद चाहिए। समृद्धि कितनी भी हो अगर सुरक्षा के प्रति उदासीनता बरतते हैं तो समृद्धि भी किसी काम की नहीं रहती। मैं लाल किले की प्राचीर से कह रहा हूं कि आने वाले 10 साल में 2035 तक राष्ट्र के सभी महत्वपूर्ण स्थलों, जिनमें सामरिक के साथ साथ सिविलियन क्षेत्र भी शामिल है, अस्पताल हो, रेलवे हो,आस्था के केंद्र हो, को तकनीक के नए प्लेटफार्म द्वारा पूरी तरह सुरक्षा का कवच दिया जाएगा।
इस सुरक्षा कवच का लगातार विस्तार होता जाए, देश का हर नागरिक सुरक्षित महसूस करे। किसी भी तरह का टेक्नोलाजी हम पर वार करने आ जाए हमारी तकनीक उससे बेहतर सिद्ध हो। इसलिए आनेवाले दस साल 2035 तक मैं राष्ट्रीय सुरक्षा कवच का विस्तार करना चाहता हूं।... भगवान श्रीकृष्ण से प्रेरणा पाकर हमने श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र की राह को चुना है। आपमें से बहुत लोगों को याद होगा कि जब महाभारत की लड़ाई चल रही थी तो श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से सूर्य के प्रकाश को रोक दिया था। दिन में ही अंधेरा कर दिया था। सूर्य प्रकाश को जब रोक दिया था तब अर्जुन ने जयद्रथ का वध की प्रतिज्ञा पूरी की थी। ये सुदर्शन चक्र की रणनीति का परिणाम था। अब देश सुदर्शन चक्र मिशन लांच करेगा। ये सुदर्शन चक्र मिशन मिशन दुश्मनों के हमले को न्यीट्रलाइज तो करेगा ही पर कई गुणा अधिक शक्ति से दुश्मन को हिट भी करेगा।
अगर हम उपरोक्त तीन अंशों को देखें तो प्रधानमंत्री के भाषण में वैचारिकी का एक साझा सूत्र दिखाई देता है। जिस विचार को लेकर वो चल रहे हैं या जिस विचार में वो दीक्षित हुए हैं उसपर ही कायम हैं। सबसे पहले उन्होंने अपने संगठन के वैचारिक योद्धा डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान को याद किया। उनके कश्मीर के भारत के साथ पूर्ण एकीकरण के स्वप्न को पूरा करने की बात की। प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से देश का बताया कि किस तरह से श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संविधान को भारत भूमि पर पूरी तरह से लागू करवाने में सर्वोच्च बलिदान दिया।
इसके बाद वो अन्य बातों पर गए लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चर्चा करके एक बार फिर से उन्होंने अपनी वैचारिकी को देश के सामने रखा। पूरी दुनिया को पता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रचारक रहे हैं। संघ के वैचारिक पथ पर चलते हुए ही वो राजनीति में आए और राष्ट्र सर्वप्रथम के सिद्धांत को अपनाया। यह अनायस नहीं था कि लाल किले पर जो सज्जा की गई थी उसमें एक फ्लावर वाल पर लिखा था – राष्ट्र प्रथम। पिछले दिनों संघ और प्रधानमंत्री के संबंधों को लेकर दिल्ली में खूब चर्चा रही।
लोग तरह तरह के कयास लगाने में जुटे हुए हैं कि संघ और प्रधानमंत्री मोदी के रिश्ते समान्य नहीं हैं। ऐसा करनेवाले ना तो संघ को जानते हैं और ना ही संघ के स्वयंसेवकों को। राष्ट्रीय स्वययंसेवक संघ और उनसे जुड़े व्यक्ति का आकलन उस प्रविधि से नहीं किया जा सकता है जिससे कांग्रेस या अन्य राजनीतिक दलों के नेता और उनके कार्यकर्ताओं के संबंधों का आकलन किया जाता रहा है।
तीसरे अंश में प्रधानमंत्री ने सुरक्षा को लेकर जिस तरह से महाभारत, श्रीकृष्ण और उनके सुदर्शन चक्र को देश के सामने रखा उससे एक बार फिर सिद्ध होता है कि प्रधानमंत्री की भारत की समृद्ध संस्कृति में कितना गहरा विश्वास है। पहलगाम के आतंकियों को मार गिराने के लिए सुरक्षा बलों ने आपरेशन महादेव चलाया था। इस नाम को लेकर भी विपक्षी दलों के कुछ नेताओं ने नाक-भौं सिकोड़ी थी। उसको भी धर्म से जोड़कर देखा गया था। एक बार फिर प्रधानमंत्री ने पूरे देश को बताया कि सुरक्षा कवच देने के मिशन का नाम भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र के नाम पर होगा।
भारतीय संस्कृति से जुड़े इस नाम को लेकर विपक्षी दलों की क्या प्रतिक्रिया होगी ये देखना होगा।सुरक्षा कवच में आस्था के केंद्रों को शामिल करके प्रधानमंत्री ने भारतीयों के मन को छूने का प्रयास किया है। इतना ही नहीं प्रधानमंत्री ने घुसपैठियों और डेमोग्राफी बदलने की समस्या पर जो बातें रखी उससे ये संकेत निकलता है कि ये सिर्फ अवैध तरीके से देश में घुसने का मसला नहीं है बल्कि ये सांस्कृतिक हमला है।
डेमोग्राफी बदलने से भारतीय संस्कृति प्रभावित हो रही है। जिसपर देशवासियों को विचार करना चाहिए। इस सांस्कृतिक हमले या संकट को सिर्फ भारत ही नहीं झेल रहा है बल्कि फ्रांस, इंगलैंड, जर्मनी जैसे कई देश डेमोग्राफी के बदलने से अपनी संस्कृति के बदल जाने का खतरा महसूस कर रहे हैं। इन देशों में भी घुसपैठ की समस्या को लेकर सरकार और वहां के मूल निवासी अपनी चिंता प्रकट करते रहते हैं। प्रकटीकरण का तरीका अलग अलग हो सकता है। हम प्रधानमंत्री के भाषण का विश्लेषण करें तो लगता है कि ये एक ऐसे स्टेट्समैन का भाषण है जो विचार समृद्ध तो है ही अपनी संस्कृति के प्रति समर्पित भी है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।