नक्सलियों का खतरा सिर्फ राज्यों के दूरदराज इलाकों तक सीमित नहीं है। नक्सली संगठनों की मौजूदगी शहरी इलाकों में भी हो गई है। नक्सली या तो मुठभेड़ में मारे गए या गिरफ्तार हुए।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
जम्मू कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों में विदेशी आतंकियों की घुसपैठ नियंत्रित करने के बाद अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार शहरों के नकाबपोश आतंकी और उनको पनाह देने वाले प्रभावशाली लोगों पर क़ानूनी शिकंजे से कठोर कार्रवाई की तैयारी कर रही है। बिहार , उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र जैसे राज्यों में माओवादी नक्सली आतंकी गतिविधियां पिछले वर्षों के दौरान न्यूनतम हो गई हैं।
वहीं केंद्रीय सुरक्षा बल और राज्यों की पुलिस के बेहतर तालमेल से झारखण्ड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना में बड़े पैमाने पर नक्सली या तो मुठभेड़ में मारे गए या गिरफ्तार हुए अथवा उन्होंने आत्म समर्पण किया। फिर भी कुछ दुर्गम क्षेत्रों में सक्रिय आतंकी माओवादी नक्सली को दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और विदेशों से हथियार, धन और साइबर आपराधिक तरीकों से सहायता मिलने पर अंकुश के लिए सरकार को अधिक सतर्कता से कार्रवाई की आवश्यकता है।
चुनाव की घोषणा से दो महीने पहले महाराष्ट्र सरकार ने 'अर्बन नक्सल' के खिलाफ कार्रवाई के लिए महाराष्ट्र विशेष सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक (MSPSA), 2024 पेश किया। लेकिन सत्र समाप्त होने से यह विधेयक पारित नहीं हो सका। सरकार चाहती तो अध्यादेश लाकर इसे कानून का रुप दे सकती थी लेकिन अकारण आलोचना और अदालती हस्तक्षेप की संभावना के कारण ऐसा नहीं किया गया।
मजेदार बात यह है कि ऐसा कानून छत्तीसगढ़, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और ओड़िसा में लागू है लेकिन महाराष्ट में कानून का प्रस्ताव आते ही एक वर्ग और कांग्रेस पार्टी सहित कुछ पार्टियों ने इसका विरोध शुरु कर दिया। क्या इसे ' चोर की दाढ़ी में तिनके ' की कहावत की तरह यह माना जा सकता है कि प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तरीकों से हिंसक नक्सली गतिविधियों से सरकार का विरोध और विकास कार्यों को रोकने वाले तत्वों को यह लॉबी समर्थन सहायता कर रही है ?
यह कानून लागू होने पर पुलिस को ऐसे लोगों के खिलाफ एक्शन लेने की शक्ति मिल जाएगी, जो नक्सलियों को लॉजिस्टिक के साथ शहरों में सुरक्षित ठिकाने मुहैया कराते हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि नक्सली संगठनों की गैरकानूनी गतिविधियों को प्रभावी कानूनी तरीकों से नियंत्रित करने की आवश्यकता है। अभी मौजूद कानून नक्सलवाद, इसके फ्रंटल संगठनों और व्यक्तिगत समर्थकों से निपटने के लिए अप्रभावी और अपर्याप्त हैं। नक्सलियों का खतरा सिर्फ राज्यों के दूरदराज इलाकों तक सीमित नहीं है।
नक्सली संगठनों की मौजूदगी शहरी इलाकों में भी हो गई है। 1999 में संगठित अपराध पर काबू करने के लिए महाराष्ट्र में मकोका लागू किया गया था। इस कानून की काफी आलोचना हुई थी, मगर सरकार और पुलिस को क्राइम कंट्रोल में फायदा मिला। अब शहरों में बैठकर नक्सली गतिविधि चलाने वालों के खिलाफ महाराष्ट्र सरकार नया कानून लागू करना चाहती है। शहरों में सक्रिय नक्सली संगठन अपनी विचारधारा का प्रचार कर अशांति पैदा कर रहे हैं। इन संगठनों का मकसद संवैधानिक जनादेश के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह को भड़काना है।
यह सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने के लिए अभियान चलाते हैं। महाराष्ट्र विशेष सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक (MSPSA) में 18 धाराएं हैं, जो सुरक्षा एजेंसियों को 'अर्बन नक्सल' के खिलाफ कार्रवाई की शक्ति देगी। इसका दुरुपयोग रोकने के लिए भी पर्याप्त प्रावधान हैं। लेकिन लगता है कि विधान सभा चुनाव के दौरान न केवल कुछ राजनैतिक पार्टियां बल्कि नक्सल तत्वों का समर्थन करने वाले देशी विदेशी संगठन भाजपा गठबंधन की विजय रोकने के लिए हर संभव प्रयास कर सकते हैं।
शायद इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरदार पटेल जयंती और राष्ट्रीय एकता दिवस पर अर्बन नक्सली के खतरों को विस्तार से बताया है। प्रधानमंत्री ने कहा है कि जैसे-जैसे जंगलों में नक्सलवाद खत्म हो रहा है, अर्बन नक्सलियों का एक नया मॉडल अपना सिर उठा रहा है। उन्होंने कहा, 'हमें ऐसे लोगों की पहचान करनी होगी जो देश को तोड़ने का सपना देख रहे हैं। हमें इन ताकतों से लड़ना होगा। आज अर्बन नक्सली उन लोगों को भी निशाना बनाते हैं जो कहते हैं कि अगर आप एकजुट रहेंगे तो आप सुरक्षित रहेंगे।हमें शहरी नक्सलियों की पहचान करके उनका पर्दाफाश करना होगा।
उन्होंने कहा कि पिछले 10 वर्षों में सरकार के प्रयासों के कारण, नक्सलवाद भारत में अंतिम सांसें गिन रहा है। जब 21वीं सदी का इतिहास लिखा जाएगा…तो उसमें एक स्वर्णिम अध्याय होगा कि कैसे भारत ने दूसरे और तीसरे दशक में नक्सलवाद जैसी भयानक बीमारी को जड़ से उखाड़कर दिखाया, उखाड़कर के फेंका। जनजातीय समाज में सोची-समझी साजिश के तहत नक्सलवाद के बीज बोये गए। नक्सलवाद की आग भड़काई गई।
ये नक्सलवाद, भारत की एकता और अखंडता के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन गया था। प्रधानमंत्री का यह तर्क बहुत महत्वपूर्ण है कि भारत के बढ़ते सामर्थ्य से भारत में बढ़ते एकता के भाव से कुछ ताकतें, कुछ विकृत विचार, कुछ विकृत मानसिकताएं, कुछ ऐसी ताकतें बहुत परेशान है। भारत के भीतर और भारत के बाहर भी ऐसे लोग भारत में अस्थिरता, भारत में अराजकता फैलाने की कोशिश कर रहे हैं।
वो भारत के आर्थिक हितों को चोट पहुंचाने में जुटी है। वो ताकतें चाहती हैं कि दुनियाभर के निवेशकों में गलत संदेश जाए, भारत की नेगेटिव छवि उभरे…ये लोग भारत की सेनाओं तक को टारगेट करने में लगे हैं, मिस इनफॉरमेशन कैंपेन चलाए जा रहे हैं। सेनाओं में अलगाव पैदा करना चाहते हैं…ये लोग भारत में जात-पात के नाम पर विभाजन करने में जुटे हैं। इनके हर प्रयास का एक ही मकसद है- भारत का समाज कमज़ोर हो…भारत की एकता कमजोर हो। ये लोग कभी नहीं चाहते की भारत विकसित हो…क्योंकि कमजोर भारत की राजनीति…गरीब भारत की राजनीति ऐसे लोगों को सूट करती है।
5-5 दशक तक इसी गंदी, घिनौनी राजनीति, देश को दुर्बल करते हुए चलाई गई। इसलिए…ये लोग संविधान और लोकतंत्र का नाम लेते हुए भारत के जन-जन के बीच में भारत को तोड़ने का काम कर रहे हैं। अर्बन नक्सलियों के इस गठजोड़ को, इनके गठजोड़ को हमें पहचानना ही होगा, और मेरे देशवासियों जंगलों में पनपा नक्सलवाद, बम-बंदूक से आदिवासी नौजवानों को गुमराह करने वाला नक्सलवाद जैसे-जैसे समाप्त होता गया…अर्बन नक्सल का नया मॉडल उभरता गया।
हमें देश को तोड़ने के सपने देखने वाले, देश को बर्बाद करने के विचार को लेकर के चलने वाले, मुंह पर झूठे नकाब पहने हुए लोगों को पहचानना होगा, उनसे मुकाबला करना ही होगा। 'अर्बन नक्सल' शब्द, जो 2018 से प्रचलन में आया है, का पहली बार इस्तेमाल महाराष्ट्र में एल्गार परिषद मामले में उलझे वामपंथियों और अन्य उदारवादियों पर कार्रवाई के मद्देनजर सत्ता-विरोधी प्रदर्शनकारियों और अन्य असंतुष्टों का वर्णन करने के लिए किया गया था।
यह 1 जनवरी, 2018 को भीमा कोरेगांव हिंसा से संबंधित दो चल रही जांचों में से एक है। यह पुणे में दर्ज एक प्राथमिकी पर आधारित है, जिसमें आरोप लगाया गया है कि प्रतिबंधित नक्सली समूहों ने भीमा कोरेगांव की लड़ाई की 200वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर 31 दिसंबर, 2017 की शाम को एल्गार परिषद का आयोजन किया था। पुलिस का दावा है कि एल्गार परिषद में दिए गए भाषण अगले दिन हिंसा भड़काने के लिए कम से कम आंशिक रूप से जिम्मेदार थे। इसके अलावा, पुणे पुलिस का दावा है कि जांच के दौरान उसे ऐसी सामग्री मिली थी, जिससे प्रतिबंधित नक्सली समूहों के एक बड़े भूमिगत नेटवर्क के संचालन के बारे में सुराग मिले थे।
बाद में, अदालतों में, पुणे पुलिस ने दावा किया कि गिरफ्तार कार्यकर्ताओं के प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) से सक्रिय संबंध थे, जो कथित तौर पर देश को अस्थिर करने और राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाफ काम करने में लगा हुआ था। इसने यहां तक दावा किया था कि गिरफ्तार किए गए लोग प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साजिश से जुड़े थे।
दशकों से, साजिश के आरोप का इस्तेमाल कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा संदिग्धों की लंबी कानूनी हिरासत के लिए किया जा रहा है - इस मामले में हाई-प्रोफाइल कार्यकर्ता और वकील जिन्हें सबसे पहले 'शहरी नक्सली' कहा गया था - जबकि जांचकर्ता आरोपों के समर्थन में महत्वपूर्ण सबूतों को एक साथ जोड़कर अपना मामला आगे बढ़ाते हैं।
देश के दुश्मन सिर्फ आतंकी, जिहादी और बंदूकधारी नक्सली ही नहीं हैं बल्कि इसे अंदर से खोखला करने का सपना देखने वाले अर्बन नक्सल सबसे बड़ा खतरा हैं। सरकार, पुलिस और सेना आतंकियों, नक्सलियों से तो निपट लेती है, लेकिन 'बुद्धिजीवी' की खाल में छिपे अर्बन नक्सल देश विरोधियों की नई फौज तैयार कर लेते हैं। इसलिए देश में शांति और प्रगति की नींव मजबूत करनी है तो अर्बन नक्सलों की जमात का समूल नष्ट करना होगा।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इसी मकसद से कानून लागू करने वाली एजेंसियों से कहा है कि वो 'शहरी नक्सलियों' के नाभि नाल पर चोट करें जो उनको देश के दुश्मनों से होने वाली फंडिंग है। शाह ने कानून प्रवर्तन एजेंसियों को निर्देश दिया कि वो वामपंथी उग्रवाद के समर्थकों 'अर्बन नक्सल' की पहचान करके उनकी फंडिंग की गहन छानबीन करें। वामपंथी उग्रवाद के इकोसिस्टम पर अंतिम प्रहार करने और माओवादी फंडिंग को रोकने की रणनीति के तौर पर शाह ने यह कड़ा संदेश दिया है।
सरकार का संकल्प है कि मार्च 2026 तक देश को वाम उग्रवाद से मुक्त करा दिया जाए। असल में सरकार के साथ अन्य सामाजिक संगठनों और कानूनविदों , अदालतों तथा शैक्षणिक और मीडिया संस्थानों को इस अभियान में सहयोग देना होगा। आतंकी और दूर दराज इलाकों से महानगरों तक सक्रिय खतरनाक लोगों अपराधियों के सबूत आसानी से नहीं मिलते हैं। फिर कथित मानव अधिकार संगठन और मीडिया का एक वर्ग क़ानूनी शरण लेकर बचाव का प्रयास करता है। अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क को भी नियंत्रित करने के लिए जांच एजेंसियों और कूटनीतिक प्रयासों की आवश्यकता होगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
रिज़र्व बैंक हर दो महीने में मॉनिटरी पॉलिसी कमेटी की मीटिंग करता है। इस कमेटी में 6 मेंबर होते हैं। तीन रिज़र्व बैंक के और तीन सरकार की तरफ़ से। रिज़र्व बैंक के गवर्नर चेयरमैन होते हैं।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
हिसाब किताब में पिछले हफ़्ते लिखा था कि महंगाई के कारण मंदी आ रही है। रिज़र्व बैंक ने भी अब इस बात पर मुहर लगा दी है। रिज़र्व बैंक ने कहा है कि महंगाई के कारण शहरों में लोग सामान ख़रीद नहीं पा रहे हैं। खपत कम हो रही है, इसलिए ग्रोथ कम हो रही है। फिर भी अर्थव्यवस्था में तेज़ी में लाने का इलाज यानी रेट कट अभी बैंक नहीं कर रहा है। महंगाई कम होने का इंतज़ार है, इसलिए रेट कट फ़रवरी तक होने की संभावना है। कुछ जानकार तो अप्रैल की तारीख़ दे रहे हैं।
रिज़र्व बैंक हर दो महीने में मॉनिटरी पॉलिसी कमेटी की मीटिंग करता है। इस कमेटी में 6 मेंबर होते हैं। तीन रिज़र्व बैंक के और तीन सरकार की तरफ़ से। रिज़र्व बैंक के गवर्नर चेयरमैन होते हैं। टाई होने पर उनके वोट से फ़ैसला होता है। कमेटी तय करती है कि ब्याज दर घटाना है या बढ़ाना। इसका काम है कि ग्रोथ भी होती रहे और महंगाई क़ाबू में रहे। केंद्र सरकार और रिज़र्व बैंक के बीच 2016 में समझौता हुआ है उसके अनुसार महंगाई की दर 4% रहना चाहिए।
2% ऊपर नीचे जा सकती है। यह समझौता 2026 तक है। लगातार नौ महीने तक महंगाई दर इस बैंड से बाहर जाने पर रिज़र्व बैंक को सरकार को लिखित जवाब देना होता है। 2022 में ऐसा हो चुका है जब महंगाई की दर 6% से ज़्यादा रही। अभी अक्टूबर में भी यह दर 6% से ज़्यादा रही है। नवंबर का डेटा इस हफ़्ते आएगा।
पिछले हफ़्ते कमेटी की मीटिंग के बाद रिज़र्व बैंक ने माना कि उसका अनुमान गड़बड़ा गया है। इस वित्त वर्ष में महंगाई अनुमान से ज़्यादा रहेगी और ग्रोथ अनुमान से कम। पहले कहा था कि ग्रोथ 7.2% रहेगी और अब कह रहे हैं 6.6%. महंगाई पहले 4.5% रहने का अनुमान था और अब 4.8%. यही कारण है कि रिज़र्व बैंक ने ग्रोथ बढ़ाने के लिए रेट कट का फ़ैसला टाल दिया। सितंबर की तिमाही में ग्रोथ 5.4% थी। दो साल में सबसे कम ग्रोथ।
इस गणित के गड़बड़ाने का हमारी और आपकी ज़िंदगी पर असर यह होगा कि आमदनी नहीं बढ़ेगी लेकिन खर्चे बढ़ते रहेंगे। इसका असर कंपनियों पर भी पड़ रहा है। लोग ख़र्च नहीं करेंगे तो कंपनियों का माल नहीं बिकेगा। माल नहीं बिकेगा तो प्रॉफिट नहीं बढ़ेगा। इसका असर शेयरों की क़ीमत पर भी पड़ेगा जैसे हमने कंपनियों के ताज़ा रिज़ल्ट के बाद देखा है।
इसमें से निकलने के दो रास्ते हैं। एक तो सरकार अपने ख़र्चे बढ़ाए ताकि अर्थव्यवस्था का पहिया घूमें। वित्त मंत्री ने कहा कि 2019 में भी चुनाव के कारण सरकार के खर्च पर ब्रेक लग गया था। जीडीपी ग्रोथ कम हुई थी वही इस बार फिर हो रहा है। आगे ग्रोथ ठीक हो जाएगी। दूसरा रास्ता है कि रिज़र्व बैंक ब्याज दरों में कटौती करें। यह रास्ता महंगाई कम होने तक बंद है।
ब्याज दरों में कटौती से महंगाई बढ़ने की आशंका बनी रहती है। कुछ जानकार कह रहे हैं कि रेट कट फ़रवरी में होगा तो कुछ अप्रैल की बात कर रहे हैं। तब तक कुर्सी की पेटी बाँध कर रखिए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
प्रधानमंत्री और गृहमंत्री निरंतर पुस्तकालयों और पुस्तकों की महत्ता को रेखांकित कर रहे हैं, लेकिन संस्कृति मंत्रालय के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। सरकार तुम्हारी सिस्टम हमारा।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पुस्तकालयों की महत्ता को रेखांकित किया था। मन की बात कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने कहा कि माना जाता है कि पुस्तकें हमारी सबसे अच्छी दोस्त होती हैं। इस दोस्ती को मजबूत करने के लिए सबसे अच्छी जगह पुस्तकालय है। इस क्रम में उन्होंने चेन्नई से लेकर देश के अन्य हिस्सों में स्थापित पुस्तकालयों का ना केवल उल्लेख किया बल्कि उसको रचनात्मकता के केंद्र के रुप में विकसित करने पर बल भी दिया।
इसी क्रम में प्रधानमंत्री ने बिहार के गोपालगंज के प्रयोग पुस्तकालय की भी चर्चा की। इस पुस्तकालय की चर्चा से आसपास के जिलों में उत्सुकता का वातावरण बना है। प्रयोग पुस्तकालय जिले के 12 गावों के युवाओं को पढ़ने की सुविधा उपलब्ध करवा रहा है। प्रधानमंत्री ने पुस्तकालयों को ज्ञान के केंद्र में रूप में भी रेखांकित किया और लोगों को पुस्तकों से दोस्ती करने का आह्वान भी किया।
उनका मानना है कि पुस्तकों से दोस्ती करने पर आपकी जिंदगी बदल सकती है। इसके पहले अपने गुजरात के अपने लोकसभा चुनाव क्षेत्र गांधीनगर के एक कार्यक्रम में गृहमंत्री अमित शाह ने भी पुस्तकालयों को समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए महत्वपूर्ण बताया। उन्होंने पुस्तकालयों के प्रभारियों के साथ एक बैठक भी की। अमित शाह ने कहा कि देश के भविष्य को संवारने में पुस्तकालयों की बड़ी भूमिका है।
गृहमंत्री ने अपने लोकसभा क्षेत्र के सभी पुस्तकालों को दो -दो लाख रुपए देने की भी घोषणा की। उन्होंने पुस्तकालयों को आधुनिक बनाने पर बल देते हुए कहा कि तकनीक के उपयोग को बढ़ाकर व्यक्तिगत रुचियों के आधार पर पुस्तकें उपलब्ध करवाई जा सकती हैं। अमित शाह ने प्राचीन ग्रंथों को आनलाइन उपलब्ध करवाने का भी आग्रह किया। इसके पहले राष्ट्रपति ने भी पुस्तकालयों को लेकर अपनी अपेक्षा जाहिर की थी।
प्रधानमंत्री ने 24 नवंबर 2024 को मन की बात कार्यक्रम में पुस्तकालयों पर अपनी राय रखी और अगले ही दिन यानि 25 नवंबर को संस्कृति मंत्रालय ने अपने एक आदेश के जरिए कोलकाता स्थित राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में एक प्रभारी को मुक्त करके दूसरे प्रभारी की नियुक्ति का आदेश जारी कर दिया। नेशनल लाइब्रेरी के महानिदेशक ए पी सिंह को राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन का छह महीने या नियमित नियुक्ति जो भी पहले हो, तक प्रभार दे दिया गया।
ये आदेश संस्कृति मंत्री के अनुमोदन के बाद जारी किया गया। 24 नवंबर को प्रधानमंत्री का लाइब्रेरी पर बोलना और 25 नवंबर को राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के महानिदेशक के प्रबार संबंधित आदेश जारी होना एक संयोग हो सकता है, लेकिन संयोग सुखद है। फिर वही प्रश्न कि प्रभारियों के जरिए सांस्कृतिक संस्थाओं का काम कब तक चलता रहेगा। पता नहीं कब से राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के महानिदेशक पर नियमित अधिकारी नहीं हैं। राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन देश में पुस्तकालयों की नोडल संस्था है।
उसका ये हाल है तो प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की पुस्तकालयों को लेकर देखे जा रहे स्वप्न का क्या होगा इसका सहज अंदाज लगाया जा सकता है। प्रभारी तो बस संस्था को चलायमान रख सकते हैं। उनसे किसी नवाचार, किसी नए प्रकल्प की आशा व्यर्थ है। उनका प्राथमिक दायित्व तो अपनी मूल संस्था के प्रति होता है। पुस्तकालयों की नोडल संस्था में नियमित महानिदेशक का नहीं होना संस्कृति मंत्रालय के क्रियाकलापों पर बड़े प्रश्न खड़े करता है।
राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन को लेकर संस्कृति मंत्रालय कितनी गंभीर है इसको इस घटना से भी समझा जा सकता है। राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के सदस्यों की एक बैठक करीब दो वर्ष बाद 25 सितंबर 2024 को हुई। नवनियुक्त सदस्यों की ये पहली बैठक थी। इस बैठक में पिछले वर्ष के निर्णयों का अनुमोदन होना था। फाउंडेशन पुस्तकों की खरीद भी करता है। इस बैठक में पुस्तकों की सूची अनुमोदन के लिए आई तो कुछ सदस्यों ने उसपर आपत्ति जताई। संस्कृति मंत्री इस बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे।
उन्होंने इस मसले को देखने का आश्वासन दिया। आश्वासन तो इस बात का भी दिया गया था कि पुस्तकों की सरकारी खरीद के नियमों को पारदर्शी बनाया जाए। मजे की बात ये रही कि बैठक को दो महीने से अधिक समय बीत गया लेकिन इसका मिनट्स अबतक सदस्यों के पास नहीं पहुंचा है। जब मिनट्स ही नहीं बना तो बैठक में लिए गए निर्णयों का क्या हुआ होगा, इसकी जानकारी की अपेक्षा तो व्यर्थ ही है।
दरअसल फिल्म द कश्मीर फाइल्स का वो संवाद बेहद सटीक है, सरकार भले ही तुम्हारी है लेकिन सिस्टम तो हमारा ही चलता है। भारतीय जनता पार्टी की सरकार भले ही 11 वर्षों से चल रही है लेकिन सिस्टम में बहुत बदलाव आ गया हो ऐसा प्रतीत नहीं होता।
सिस्टम के नहीं बदलने का ही एक और उदाहरण है। कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (सीएसआर) के नियमों में सख्ती। बताया जा रहा है कि सख्ती के बाद कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम सीएसआर के अंतर्गत नहीं आ सकता। अगर कोई शास्त्रीय गायन या नृत्य के कार्यक्रम का आयोजन करता है तो उसको सीएसआर के अंतर्गत नहीं माना जाएगा। पहले साहित्य, कला और संस्कृति के आयोजन इस योजना के अंतर्गत आते थे। अब साहित्य को लेकर नियम इतने कड़े कर दिए गए हैं कि किसी कार्यक्रम में पुस्तकों का वितरण बेहद कठिन हो गया है। कल्पना कीजिए कि समाज के पढ़े लिखे लोगों के बीच एक पुस्तक चर्चा रखी गई।
लेखक से पुस्तक पर चर्चा करने के बाद आमंत्रित सदस्यों को उनकी पुस्तक भेंट की जाती थी। पहले ये पूरा कार्यक्रम सीएसआर के अंतर्गत आता था और खर्चे की औपचारिकताएं बिल आदि जमा कर पूरी कर ली जाती थीं। अब ये कर दिया गया है कि जो भी किसी वस्तु का एंड यूजर होगा यानि कि जिसको भी आयोजक संस्था की ओर पुस्तक भेंट की जाएगी उसका नाम और फोन नंबर आयोजक को संबंधित सरकारी विभाग के पास जमा करना होगा। सायकिल वितरण में तो इस तरह का प्रविधान उचित है लेकिन साहित्यिक कार्यक्रमों में पुस्तक वितरण में ये बाधा है।
स्कूलों में पुस्तक वितरण में तो ये दायित्व स्कूल उठा लेते हैं। ये सहजता के साथ संपन्न हो जाता है, लेकिन आयोजनों में एक किताब गिफ्ट देने पर फार्म भरवाना कठिन सा होता है। ये व्यावहारिक दिक्कतें हैं। पिछले 10 वर्षों में अधिक पुस्तकें तो भारतीय विचार और विचारधारा की प्रकाशित हो रही हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके कार्यों पर प्रकाशित हो रही हैं।
प्रश्न ये उठता है कि क्या ईकोसिस्टम भारतीय विचार के पुस्तकों के पाठकों तक पहुंच में नियमों के जरिए बाधा खड़ी कर रहा है। सीएसआर के नियमों में पुस्तकों को लेकर उदारता बरतनी चाहिए। नियम बनाने वालों को इस दिशा में काम करना चाहिए ताकि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के सोच को और विजन को अमली जामा पहनाया जा सके।
लोगों और पुस्तकालयों तक पुस्तकें पहुंचे इसके लिए आवश्यक है कि संस्कृति मंत्रालय पुस्तकालयों की नोडल संस्था राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन को सक्रिय करे। प्रतिवर्ष नए और उच्च स्तर की पुस्तकें खरीद कर पुस्तकालयों में भेजी जाएं। संस्थाओं को प्रभारियों से मुक्त करके नियमित नियुक्ति की जाए ताकि जो भी व्यक्ति वहां नियुक्त हो उसकी प्राथमिकता में पुस्तकालयों की बेहतरी हो।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
विधानसभा चुनाव में केजरीवाल के सामने चारो खाने चित्त होने वाली भाजपा इस बार क्या बेहद शर्मनाक हार का क्रम तोड़कर जीत का स्वाद चखेगी या फिर हार का स्वाद भाजपा का इंतजार कर रहा है?
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार।
भारतीय जनता पार्टी के लिए कामयाबी के दरवाजे खोलने में नाकामी से बढ़कर कुछ भी मदद नहीं करती और कांग्रेस के लिए उसकी कामयाबी ही आगे जाकर उसे नाकाम कर देती है। पांच महीने पहले लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र मे भाजपा की बुरी हार के आधार पर विधानसभा चुनाव में भी भाजपा के हार की भविष्यवाणी कर दी गई थी। महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी इस सुखदाई भुलावे में था कि लोकसभा चुनाव में 48 में से 31 सीटों पर उसकी निर्णायक जीत, जिसमें 153 विधानसभा सीटें आती है, राज्य के विधानसभा चुनाव में अपने आप बहुमत दिला देगी।
लेकिन लोकसभा में बुरी तरह हारी भाजपा ने विधानसभा चुनाव में पासा पलट दिया। लोकसभा चुनाव में सबक ले चुकी भाजपा ने चतुराई से खेल खेला। विचारधारा और व्यवहारवाद में गुथी भाजपा की दोहरी रणनीति महाराष्ट्र में पुष्पित पल्लवित हुई। महाराष्ट्र का चुनाव भाजपा के हिंदुत्व का लिटमस टेस्ट था। चुनाव परिणामों ने विपक्ष के सत्ता में वापसी के सपनों को चूर चूर कर दिया और भाजपा के मनोबल को जबरदस्त बढ़ा दिया।
हालांकि झारखंड में इंडिया गठबंधन की जीत से भाजपा के कवच में छेद जरूर हुआ है ,जिसने भाजपा के आक्रामक हिंदुत्व अभियान की हदें दिखा दी है, लेकिन महाराष्ट्र जीतने के राष्ट्रीय प्रभाव और भारत की अर्थव्यवस्था पर उसके भीमकाय असर ने झारखंड की हार को ढक दिया है। 2025 के शुरूआत मे दिल्ली में और 2025 के अंत में बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले है। महाराष्ट्र जीत के बाद भाजपा की सबसे बड़ी परीक्षा दिल्ली में होगी।
लोकसभा चुनाव में केजरीवाल को पटकनी देने वाली और विधानसभा चुनाव में केजरीवाल के सामने चारो खाने चित्त होने वाली भाजपा इस बार क्या बेहद शर्मनाक हार का क्रम तोड़कर जीत का स्वाद चखेगी या फिर हार का स्वाद भाजपा का इंतजार कर रहा है? दिल्ली की लड़ाई इस बार केजरीवाल के लिए मुश्किल हैं। संघ की पैदल सेना अपने काम पर लग चुकी है। महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों से विपक्ष को लगे भूकंप के झटके का कंपन दिल्ली में केजरीवाल को भी लगा है। केजरीवाल का शरीर कपकपा रहा है, दिल्ली के थंड से नहीं, महाराष्ट्र में भाजपा को मिलें हिंदुत्व के प्रचंड जनमत सें।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
किसानों के दिल्ली कूच में वह मरजीवड़ा जत्था है, जो शख्स किसी मकसद के लिए खुद को कुर्बान कर देता है। बताया जाता है कि श्री गुरु तेग बहादुर साहिब ने मरजीवड़ा जत्था (दल) बनाया था।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।
कांग्रेस सहित कई राजनैतिक पार्टियां किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी, मुआवजे , मुफ्त बिजली इत्यादि की मांगों को लेकर नया तूफान खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। किसानों को उनके खेतों की उपज का उचित मूल्य मिलना निश्चित रूप से जरुरी है लेकिन देश की आवश्यकता के अनुसार अनाज , तिलहन के उत्पादन की प्राथमिकताएं तय होने पर ही सही दाम मिल सकते हैं। इसी तरह भारत के फल, सब्जी का निर्यात करने के लिए सड़क , रेल, हवाई सुविधाओं और आर्थिक संसाधन सरकार और प्राइवेट क्षेत्र को बड़े इंतजाम करने होंगे।
मांगों और अपेक्षाओं की फेहरिस्त लगातार बढ़ सकती है। एक बार फिर संयुक्त किसान मोर्चा (गैर राजनीतिक) एवं किसान मजदूर मोर्चा के बैनर तले किसानों ने 6 दिसंबर को अपनी मांगों के समर्थन में दिल्ली कूच आंदोलन तेज कर दिया। वे समर्थन मूल्य (एमएसपी) के अलावा, किसान कृषि कर्ज माफी, किसानों और खेत मजदूरों के लिए पेंशन, बिजली दरों में कोई बढ़ोतरी न करने, पुलिस मामलों की वापसी और 2021 लखीमपुर खीरी हिंसा के पीड़ितों के लिए ‘न्याय’ की मांग कर रहे हैं।
भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 की बहाली और 2020-21 में पिछले आंदोलन के दौरान मारे गए किसानों के परिवारों को मुआवजा देना भी उनकी मांगें हैं।
इस बार किसानों के दिल्ली कूच में वह मरजीवड़ा जत्था है, जो शख्स किसी मकसद के लिए खुद को कुर्बान कर देता है। बताया जाता है कि श्री गुरु तेग बहादुर साहिब ने मरजीवड़ा जत्था (दल) बनाया था और इसमें भाई मतीदास, सतीदास और भाई दयाला को भी शामिल किया था। मतलब राजनीति के साथ धार्मिक भावना जोड़ दी है।
101 किसानों का यह जत्था निहत्थे और पैदल ही चलेगा। जत्थे में शामिल किसानों से सहमति फॉर्म भी भरवाया गया है। किसानों का जो आंदोलन हो रहा है, उसके पीछे संयुक्त किसान मोर्चा और किसान मजदूर मोर्चा है। किसान 26 अक्टूबर को सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और समय पर धान खरीद सहित अपनी कई मांगों पर दबाव डालने के लिए संगरूर जिले के बदरुखा में बड़ी संख्या में जुटे हुए थे। शंभू बॉर्डर पर किसान नेता सरवन सिंह पंधेर ने कहा कि मोर्चे को चलते 297 दिन हो गए है और खनौरी बॉर्डर पर आमरण अनशन 11वें दिन में प्रवेश कर गया।
शंभु बॉर्डर पर किसान करीब 300 दिनों से धरने पर बैठे हुए हैं। दूसरी तरफ संसद में कांग्रेस और अन्य प्रतिपक्षी दल हमलावर हुए हैं। संगरूर के खनौरी बॉर्डर पर किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाला ने किसानों की मांगों को लेकर उपराष्ट्रपति धनखड़ को चिट्ठी भी लिखी। इस पर श्री धनकड़ इतने भावुक और उत्तेजित हो गए कि मुंबई में भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् के शताब्दी समारोह में कृषि मंत्री शिवराज सिंह को कहने लगे, एक-एक पल आपका भारी है। कृपया करके मुझे बताइये कि किसानों से क्या वादा किया गया था? उनसे किया गया वादा क्यों नहीं निभाया गया? वादा निभाने के लिए हम क्या कर रहे हैं?
गत वर्ष भी आंदोलन था, इस वर्ष भी आंदोलन हो रहा है. कालचक्र घूम रहा है, हम कुछ कर नहीं रहे हैं। पहली बार मैंने भारत को बदलते हुए देखा है। पहली बार मैं महसूस कर रहा हूं कि विकसित भारत हमारा सपना नहीं लक्ष्य है। दुनिया में भारत कभी इतनी बुलंदी पर नहीं था। जब ऐसा हो रहा है तो मेरा किसान परेशान और पीड़ित क्यों है? किसान अकेला है जो असहाय है। उप राष्ट्रपति ने अपने पद का उल्लेख करते हुए शिवराज सिंह चौहान पर सवालों की बौछार कर दी। बाद में शायद उन्हें इस रुख का अहसास हुआ या ध्यान दिलाया गया कि सरकार दो दिन पहले भी संसद में विस्तार से बता चुकी है कि सरकार कितना लाभ और फसल का अधिकाधिक मूल्य किसानों को दे रही है।
कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राज्यसभा में कहा कि सभी कृषि उपज को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदा जाएगा, यह मोदी सरकार की गारंटी है। कृषि राज्य मंत्री भागीरथ चौधरी ने कहा कि सरकार किसानों के साथ बातचीत के लिए तैयार है। बातचीत के दरवाजे उनके लिए खुले हैं। किसानों के साथ अभी तक संपर्क नहीं हो पाया है। प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले 10 साल में किसान कल्याण के लिए कई बड़े फैसले किए हैं। शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि ढाई गुना और 3 गुना एमएसपी बढ़ाया है तो नरेंद्र मोदी जी की सरकार ने बढ़ाया है और जब उधर (विपक्ष) की सरकार थी तो ये खरीदते नहीं थे। केवल एमएसपी घोषित करते थे। इन्होंने दलहन की खरीदी 6 लाख 29 हजार मीट्रिक टन की थी।
पिछले साल करीब 250 मिलियन क्विंटल निर्यात से करीब 776 मिलियन डॉलर की आमदनी भारत को हुई है लेकिन असली समस्या किसानों के नेतृत्व की है। चौधरी चरण सिंह या चौधरी देवीलाल के किसान नेता होने पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगा पाया। हम, जैसे पत्रकार तो उनके उपप्रधान मंत्री रहते हुए सरकारी बंगले में गाय भैंस रखे जाने की खबर बना देते थे। जार्ज फर्नांडीज या मधु लिमये या दत्तोपंत ठेंगड़ी किसी भी राज्य में मजदूरों के लिए उनके साथ आंदोलन करने , जेल जाने लाठियां खाने में आगे रहते थे।
नम्बूदरीपाद ,ज्योति बसु या भूपेश गुप्त और हरकिशनसिंह सुरजीत सही अर्थों में कम्युनिस्ट विचारों और कार्यकर्ताओं के बल पर प्रभावशाली रहते थे। ऐसे सभी नेताओं को किराये पर भीड़ जुटाने की जरुरत नहीं होती थी। इस पृष्ठभूमि में सवाल उठता है कि गरीब किसान और मजदूरों का नेतृत्व क्या कोई एक या दो नेता इस समय बताया जा सकता है। देश भर में पार्टियों, जातियों ,देशी विदेशी चंदे से चलने वाले संगठनों के अनेकानेक नेता हैं।
तभी तो भारत सरकार दो महीने से किसानों के दावेदार नेताओं कई बैठक कर चुकी है और आज भी बातचीत को तैयार है। सिंधु बॉर्डर पर पुलिस से थोड़े टकराव के बाद प्रर्दशनकारी नेताओं ने तात्कालिक स्थगन कहकर बातचीत के लिए सहमति अवश्य दिखाई है ,लेकिन मांगों की लम्बी सूची होने के कारण क्या जल्दी समझौता संभव होगा या राजनीतिक दांव पेंच चलते रहेंगे?
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
सुखबीर बादल पर हमले की जितनी निंदा की जाए, वह कम है। दरबार साहिब में, भगवान के घर में, सेवा करते व्यक्ति पर गोली चलाना गंभीर जुर्म है, पाप है।
रजत शर्मा, चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ (इंडिया टीवी)।।
अमृतसर में एक बड़ी अनहोनी टल गई। पंजाब के पूर्व डिप्टी सीएम सुखबीर बादल को जान से मारने की कोशिश हुई लेकिन सुरक्षा कर्मियों की मुस्तैदी की वजह से बादल बाल-बाल बच गए। सुखबीर बादल श्री अकाल तख्त साहिब के हुक्म के मुताबिक स्वर्ण मंदिर के द्वार पर चौकीदारी कर रहे थे।
चूंकि बादल के पैर में फ्रैक्चर है, इसलिए वह व्हीलचेयर पर बैठकर दरबान की ड्यूटी दे रहे थे। इसी दौरान एक शख़्स श्रद्धालु के भेष में स्वर्ण मंदिर के गेट पर आया। वह सुखबीर बादल के क़रीब पहुंचा और उसने पिस्तौल निकालकर गोली चलाने की कोशिश की लेकिन सादे लिबास में तैनात एक सुरक्षकर्मी ASI जसबीर सिंह हमलावर को पिस्तौल निकालते हुए देखते ही उस पर टूट पड़ा। सुरक्षाकर्मियों ने हमलावर को वहीं दबोच लिया।
नारायण सिंह चौड़ा, गुरदासपुर ज़िले के डेरा बाबा नानक का रहने वाला है। उसके खालिस्तानी संगठनों से पुराने रिश्ते रहे हैं। नारायण सिंह चौड़ा खालिस्तान लिबरेशन फोर्स और अकाल फेडरेशन के साथ जुड़ा हुआ था।
सुखबीर बादल पर हमले की जितनी निंदा की जाए, वह कम है। दरबार साहिब में, भगवान के घर में, सेवा करते व्यक्ति पर गोली चलाना गंभीर जुर्म है, पाप है। हमला करने वाले ने सिर्फ इस बात का फायदा उठाया कि दरबार साहिब की मर्यादा के मुताबिक वहां जाने वालों की चेकिंग नहीं की जाती। अगर सुखबीर के सिक्योरिटी वाले सावधान न होते, तो एक बड़ी दुर्घटना हो सकती थी।
जहां तक इस मामले में राजनीति का सवाल है, यह तो अपेक्षित था कि अकाली दल के नेता सीएम भगवंत सिंह मान को दोषी ठहराएंगे और कांग्रेस पर भी आरोप लगाएंगे। कांग्रेस से भी यही उम्मीद थी कि वो पंजाब सरकार को जिम्मेदार बताएगी। लेकिन अकाली दल के नेता विक्रमजीत सिंह मजीठिया ने इस हमले के पीछे कांग्रेस का हाथ बताया और कहा कि हमलावर कांग्रेस सांसद सुखजिंदर सिंह रंधावा का करीबी है। बीजेपी ने इस घटना के पीछे खालिस्तानियों का हाथ बताया।
अब जिम्मेदारी पंजाब पुलिस की है कि वह इस मामले की तह तक जाए, अपराधी के पीछे कौन है इसका पता लगाए और जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती, तब तक बाकी पार्टियां इधर-उधर की बयानबाज़ी न करें तो बेहतर होगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
1971 में वजूद में आने से पहले बांग्लादेश में आज़ादी का पूरा संघर्ष चल रहा था उस वक्त पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में 30 लाख हत्याएं करवाई थी।
नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
बांग्लादेश में 5 अगस्त को शेख हसीना के तख्तापलट के बाद से वहां पर हिंदुओं के खिलाफ लगातार हिंसा हो रही है। मोहम्मद यूनुस सरकार के 100 दिन पूरे होने पर ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल बांग्लादेश ने एक रिपोर्ट जारी करके बताया था कि यूनुस के सत्ता में आने के बाद बांग्लादेश मे हिंदुओं पर अब तक डेढ़ हज़ार से ज्यादा हमले हुए हैं। दो दर्जन से ज़्यादा हिंदू धार्मिक स्थलों या उनके कार्यक्रमों में हिंसा हुई है। महिलाओं के साथ ज़्यादती हुई है। एक दर्जन के करीब हिंदुओं की इस हिंसा में मौत भी हुई है।
बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा का लंबा इतिहास रहा है। 71 में वजूद में आने से पहले बांग्लादेश में आज़ादी का पूरा संघर्ष चल रहा था उस वक्त पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में 30 लाख हत्याएं करवाई थी तब भी मरने वालों में ज़्यादातर हिंदू थे।
अमेरिका सांसद एडवर्ड कैनेडी ने 1971 में अमेरिकी संसद में एक रिपोर्ट पेश की थी। उस रिपोर्ट में उन्होंने बताया कि 71 से पहले पूर्वी पाकिस्तान में हुई हिंसा में मरने वाले लोगों में सबसे ज़्यादा वहां के हिंदू थे। आज़ादी के आंदोलन को दबाने के लिए हिंदुओं की हत्याएं की गईं, उनके दुकानों को जलाया गया, उनके घर लूटे गए। हिंदुओं के घरों की पहचान हो सके इसके लिए हिंदू घरों के बाहर बाकायदा H लिखा गया ताकि भीड़ उन घरों में आग लगा सके। 71 में हुई इसी हिंसा पर Gary Bass नाम के लेखक की 2014 में एक किताब आई थी जिसका नाम था The Blood Telegram और डिटेल में जानना है तो ये किताब पढ़ सकते हैं।
हैरानी है कि आज हम जब 71 की बात करते हैं तो इस बात के लिए ताली पीटते हैं कि देखिए कैसे भारत की मदद से बांग्लादेश बन पाया या हमने उस वक्त पाकिस्तान के 90 हज़ार सैनिक बंदी बना लिए थे। मगर इस बात की चर्चा भारत में कोई नहीं करता कि बांग्लादेश बनने से पहले पाकिस्तानी फौजों ने पूर्वी पाकिस्तानी में लाखों हिंदुओं को मार डाला था।
बांग्लादेश बनने के बाद भी वहां रह रहे हिंदुओं के लिए हालात बदले नहीं। जिन शेख मुजीबुर्रहमान ने बांग्लादेश को संविधान में सेक्युलर राष्ट्र बनाया था, उन्हीं मुजीबुर्रहमान की 15 अगस्त 1975 में हत्या कर दी गई। बांग्लादेश के संविधान से सेक्युलर की जगह इस्लामिक राष्ट्र शब्द डाल दिया गया। बाद के सालों में हिंदुओं पर लगातार हमले होते रहे।
2001 में खालिदा जिया की सरकार बनने के बाद उनके समर्थकों ने systematic ढंग से हिंदुओं के खिलाफ हिंसा छेड़ दी। ये हिंसा पूरे 150 दिनों तक चली। हिंदुओं के खिलाफ 18 हज़ार से ज़्यादा अपराध किए गए। एक हज़ार हिंदू औरतों के साथ गलत काम हुआ। उस हिंसा के बाद एक साथ 5 लाख हिंदू बांग्लादेश छोड़कर भारत आ गए। इस सबके चलते इन सालों में बांग्लादेश में 12 लाख हिंदू घरों को या यूं कहें कि 44 परसेंट हिंदुओं को अपनी 20 लाख एकड़ ज़मीन गंवानी पड़ी है।
आज बांग्लादेश में जो हो रहा है उसे चाहे कुछ लोग इतना हल्का बताने की कोशिश करें, उसे चाहे किसी भी चाशनी में लपेटकर उसकी क्रूरता को कम आंकने की कोशिश करें मगर सीधी सी बात ये है कि जब भी आप मज़हब की बुनियाद पर किसी को खुद के कम आंकने की कोशिश करें, उसके धार्मिक विश्वासों को पाप मानें, उसे कंवर्ट करने को पुण्य मानें तो आप उसके वजूद को स्वीकार कर ही नहीं सकते। उल्टा वो आपको दूध में गिरी उस मक्खी की तरह लगेगा जिसे जब तक निकालकर बाहर न फेंक दिया जाए, तब तक आप दूध नहीं पी पाएंगे। और ये बात बिना अपवाद के बांग्लादेश से लेकर पाकिस्तान, कश्मीर, अफगानिस्तान हर जगह सही लगती है। और जैसा कि तारिक फतेह ने कहा था कि पूर्व की तरफ के कुछ मुस्लिम देश जैसे इंडोनेशिया और मलेशिया अगर आज भी कुछ हद तक अपने व्यवहार में सेक्युलर हैं तो इसकी वजह ये है कि वो अपनी बौद्ध और हिंदू अतीत से कटे नहीं है।
मगर समस्या ये है कि अगर कोई कट्टरपंथी मुस्लिम समाज सिर्फ गैर मुस्लिमों को वहां से हटा देने पर भी खुशहाल बनता हो, तो भी ये समझा जा सकता था कि ये प्रयोग कम से कम मुस्लिम समाज के लिए तो बुरा नहीं है। मगर दिक्कत, यहां ख़त्म नहीं होती बल्कि यहां से शुरू होती है।
मेरा मानना है कि किसी भी व्यक्ति या समाज में अगर जीवन को लेकर ही नकार है तो वो समाज अपनी ऊर्जा सिर्फ विधवंसक कामों में ही खपा सकता है। अगर आपको मज़हबी विश्वास आपको ज़्यादातर चीजों को हराम बताने पर मजबूर करते हैं तो फिर आप उस ऊर्जा का क्या करेंगे, जो ईश्वर ने आपको दी है। खुद को पाक और दूसरों को नीच मानते हुए आप सिर्फ और सिर्फ नफरत से भरते जाएंगे और यहां-वहां मार-काट करते फिरेंगे।
पाकिस्तान की तरह जब हिंदू और सिखों को मार चुके होंगे तो फिर शियाओं, अहमदियों, मुहाजिरों, पठानों, सिंधियों और बंगाली मुसमलानों पर ज़ुल्म करने शुरू कर देंगे।
अब्दुस सलाम का उदाहरण
1979 में पाकिस्तान के प्रोफेसर अब्दुस सलाम को जब भौतिकी का नोबेल मिला तो वो पाकिस्तान ही नहीं, पूरी दुनिया में नोबेल पाने वाले पहले मुस्लिम थे। मगर उनका कसूर बस ये था कि वो अहमदिया समुदाय से आते थे। पाकिस्तान ने 1974 में कानून बनाकर अहमदिया मुसलमानों को गैर मुस्लिम घोषित कर दिया था। जैसे-जैसे अब्दुस सलाम के अहमदिया होने की बात सामने आई तो पाकिस्तानी समाज ने उनका बहिष्कार शुरू कर दिया।
उन्हें 1979 में नोबेल मिला लेकिन पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जिया उल हक ने उन्हें एक साल बाद तब सम्मानित किया जब पूरी दुनिया में उनका काफी नाम हो चुका था। संसद के बंद दरवाज़ों में ये सम्मान दिया गया जहां किसी पत्रकार को जाने की इजाज़त नहीं थी। पाकिस्तान के विश्वविद्यालयों ने उन्हें बुलाना बंद कर दिया था, क्योंकि जमात-ए-इस्लामी ने खुलेआम ऐलान कर रखा था कि उन पर हमला किया जाएगा। यहां तक कि मरने के बाद भी कट्टरपंथियों ने उन्हें नहीं छोड़ा और उनकी कब्र पर लिखे परिचय में से ‘मुसमलान’ शब्द मिटा दिया। इस टॉपिक पर पाकिस्तानी के बेहतरीन जर्नलिस्ट syed muzammil shah ने कुछ टाइम पहले अपने यूट्यबू चैनल पर एक वीडियो बनाया था आप चाहें तो वहां डिटेल्ड स्टोरी देख सकते हैं।
क्या पूरी दुनिया में कोई कौम अपने ही एक नागरिक के साथ उसके धर्म भी नहीं, उसके सेक्ट की वजह से ऐसा भेदभाव कर सकती है? और कोई मुल्क जब अपने नोबेल पुरस्कार विजेता के साथ ऐसा सुलूक करता है, तो वो अपनी तकदीर खुद अपने हाथों से लिख लेता है। वो बता देता है कि उसके लिए उसके नागरिकों की बड़ी से बडी वैज्ञानिक उपलब्धि मायने नहीं रखती बल्कि उसका फेथ मायने रखता है।
भारत में शाहरुख खान, ए आर रहमान, मोहम्मद रफी जैसे कलाकार इतने मकबूल सिर्फ इसलिए नहीं हुए क्योंकि वो सिर्फ काबिल थे…वो इसलिए इतने मकबूल हुए क्योंकि जिस जनता के दम पर एक कलाकार इतना बड़ा कलाकार बनता है उस जनता ने उन्हें पसंद करने से पहले ये नहीं देखा कि उनका मज़हब क्या है। और ऐसा न करके भारत के समाज ने भी इन कलाकारों पर एहसान नहीं किया। हकीकत तो ये है कि जब भी कोई समाज ऐसा करता है तो वो खुद ही हर तरह के नागरिकों के हुनर से खुद को समृद्ध होेने का मौका देता है।
अब आप कट्टरपंथी से पूछें तो वो कहेगा कि मुझे इन बातों से कोई लेना देना नहीं…मुझे तो बस अपने दीन को फैलाना है…दुनिया के हर हिस्से पर अपनी हुकूमत कायम करनी है…मगर ऐसा सोचकर भी वो गलती करता है।
पाकिस्तान के वरिष्ठ लेखक हसन निसार साहब ने एक दफा कहा था कि पाकिस्तान ने भारत के साथ जो चार जंगे लड़ीं, खासतौर पर शुरू की तीन जंगे…वो सब पाकिस्तानी फौज ने शुरू की,क्योंकि उन्हें ये लगता था कि एक मुसलमान अकेला चार-चार हिंदू बनियों को नीचे लगा देगा….मगर पाकिस्तानी फौज ये भूल गई कि 1970 में लड़ाई कोई 1150 वाले तरीके से नहीं लड़ी जा रही थी…आज लड़ाई होती है तो विज्ञान लडता है न कि इंसान हाथ से लड़ाई करता है।
विज्ञान और कट्टरता का द्वंद
और यही आज के कट्टरपंथी की सबसे बड़ी समस्या है। अगर आपको मज़हबी कट्टरता के दम पर अपना मज़हब फैलाना भी है, दुनिया के सभी Non Believers को उनकी जगह से हटाना भी है तो आपके पास आर्थिक ताकत होनी चाहिए…बड़े-बड़े हथियार होने चाहिए। अब ये पैसा और हथियार उसी वैज्ञानिक समझ से बनेंगे जिसकी आप कद्र नहीं करते। क्योंकि विज्ञान के रास्ते पर चलने का मतलब है कि हर चीज़ पर सवाल पैदा करना…बिना प्रमाण के चीज़ों को न मानना और Irony ये है कि जैसे ही वैज्ञानिक सोच पर चलने लगते हैं, तो आपका दिमाग सबसे पहला सवाल आपके ही मज़हबी विश्वासों पर उठाता है। दिमाग जैसे ही ऐसा करता है तो कट्टरपंथी घबराकर खुद विज्ञान से खुद को अलग कर लेता है। कुछ-एक अपवादों को छोड़कर वैज्ञानिक सोच से जुड़ा शख्स हर तरह के धार्मिक पूर्वग्रहों से दूर हो जाता है।
चारों तरफ से मुस्लिम देशों से घिरा इज़राइल आज आठ-आठ देशों पर क्यों भारी पड़ता है क्योंकि उसने उस वैज्ञानिक सोच को ऐसा अपनाया जैसा दुनियाभर में कोई क्या ही अपनाएगा…यही वजह है कि आज सिलिकॉन वैली से बाद सबसे ज़्यादा स्टार्टअप अकेले तेलअवीव में है…एक करोड के करीब आबादी वाले इज़राइल की अर्थव्यवस्था 550 अरब डॉलर की है….वो सेमीकंडक्टर से लेकर, सॉफ्टवेयर, साइबर सुरक्षा तकनीक, मेडिकल उपकरण, डिफेंस टेक्नोलॉजी, एग्रीटेक, केमिकल्स, फर्टिलाइजर, सोलर और रिन्यूएबल एनर्जी तक सब बेचता है। और तो और दुनिया के सबसे बड़े हीरा कटिंग और पॉलिशिंग सेंटर भी इज़राइल में ही हैं।
उसने अपने एजुकेशन सिस्टम के थ्रू ये तकनीकी विकास किया। उस तकनीकी विकास के थ्रू उसने ऐसे प्रोडक्ट तैयार किए जो दुनिया के काम के थे। उन्हीं को बेचकर उसने पैसे कमाए। बाद में उसी पैसे को उसी तकनीकी विकास में लगाकर और विकास किया। आज अपना मज़हबी या राजनीतिक एजेंडा भी तो तब लागू कर पाओगे जब आप आर्थिक तौर पर ताकतवर होंगे।
दुबई से क्या सीखें?
जिस ‘इस्लामिक दुबई’ की हमारे यहां कुछ लोग बडी दुहाई देते हैं कि देखो उन्होने भी तो तरक्की की है…भाई उनकी तरक्की भी उस मज़हबी कट्टरता पर चलकर नहीं हुई बल्कि उससे समझौता करके हुई है।
उसे बेशक संयोग से तेल मिला मगर वहां की हुकूमत को जल्द ही ये बात समझ आ गई कि ये तेल तो ज़्यादा दिन नहीं रहेगा इसलिए उसने दुबई को टूरिस्ट और बिज़नेस डेस्टिनेशन के तौर पर डेवलप करना शुरू कर दिया। उसे पता था कि ऐसा करने के लिए हमें इस्लामिक तौर तरीकों से समझौता करके लोगों को छूट देनी होगी तभी बाहरी लोग यहां काम करने आएँगे। घूमने-फिरने आएँगे। निवेश के लिए आएंगे।
और आज आज देखिए, दुबई ने हर फील्ड में क्या चमत्कार किया है। आपने वक्त की नज़ाकत को समझा, अपनी ढिठाई छोड़ी तो दुनिया ने भी खुले दिल से आपका स्वागत किया। जो बात दुबई को तीस साल पहले समझ आई थी। वही बात सऊदी अरब को अब समझ आ रही है। और देर-सवेर जहां भी पैसा आएगा। लोगों से डर निकलेगा तो उन्हें यही बात समझ में आएगी कि दुनिया अपने मज़हबी विश्वासों को दूसरों पर थोपने से नहीं चलती। दुनिया सबको साथ लेने पर चलती है।
2020 में हुए सर्वे के हिसाब से ईरान में सख्त कानूनों के बावजूद 40 परसेंट ईरानी खुद को Non Religious मानते हैं, ट्यूनिशिया में 30 परसेंट से ज़्यादा मुस्लिम, तुर्की में 11 परसेंट और सऊदी जैसे कट्टर इस्लामी देश में भी 5 परसेंट लोग खुद को अधार्मिक मानते हैं। इसके अलावा मोरक्को और अल्जीरिया में भी बड़े पैमाने पर युवा लोग खुद को सेक्युलर या Non Religious मानते हैं।
अफगानिस्तान का हश्र
मुझे याद है तीन साल पहले जब अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों ने जाने का ऐलान किया था तो भारत में बहुत सारे लोगों ने इसको सेलिब्रेट किया था। इसे तालिबान और मुसमलानों की जीत के तौर पर देखा गया। कहा गया कि इन तालिबानियों ने पहले रूसियों को भगाया और अब अमेरिकियों को।
लेकिन 2021 के बाद अफगानिस्तान में लोगों के साथ क्या हुआ…संगीत पर रोक, बच्चियों के स्कूल जाने पर, बिना मर्द के घर से निकलने पर रोक, औरतों के काम पर रोक...2022 तक तालिबानियों को अफीम की खेती करके देश चलाना पड़ रहा था…क्या शरिया कानून लागू होने के बाद ये वो आदर्श समाज था जिसमें लोग रहना चाह रहे थे। कोई जानकार मुझे बताएगा कि कौनसे शरिया सम्मत समाज में अफीम की खेती से पैसा कमाना हलाल है?
अगर ये वो आदर्श समाज है तो फिर क्यों भारत-पाकिस्तान से लोग दुबई भागना चाहते हैं…मैंने तो कभी नहीं सुना कि इस आदर्श शरिया सम्मत समाज में जाकर बसने के लिए कोई भारत से अफगानिस्तान जाकर बस गया हो?
हम किसको बेवकूफ बना रहे हैं और बड़ा सवाल ये है कि कब तक बनाते रहेंगे…ईश्वर ने जब तक आपको जो ये जीवन दिया है आप उसको स्वीकार नहीं करेंगे…जब तक आप ये पता नहीं लगाएंगे कि मैं ऐसा क्या कर सकता हूं कि अपने और दूसरों के जीवन को बेहतर बना पाऊं तब तक आप यूं ही नफरत में उलझे रहेंगे।
हम क्या दे सकते हैं?
मैंने पहले भी कहा था एक बार फिर कह रहा हूं कि दुनिया आपको इस बात के लिए याद नहीं रखती कि आपने दिन में कितनी बार नमाज़ पढ़ी या कितनी बार मंदिर गए…दुनिया आपको सिर्फ इसलिए याद रखेगी कि आप उनकी ज़िंदगी में क्या वैल्यू एडिशन कर पाए…
शाहरुख भले ही मूर्ति पूजक होकर एक आदर्श मुसलमान न रह गए हों लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि वे एशिया के सबसे बड़े मुस्लिम आइकन हैं। हो सकता है कोई मौलाना शबाना आज़मी को नाचने-गाने वाली कहकर उनकी तौहीन करता हो लेकिन इसमें क्या दो राय है कि वे हिंदुस्तानी सिनेमा की सबसे बेहतरीन एक्ट्रेस हैं। और ये भी सच है कि जब आपको आपके काम की वजह से जाना जाता है तो आपका ही समाज सबसे पहले आप पर, आपके धर्म पर दावेदारी ठोकने आ जाता है। ठीक उन रिश्तेदारों की तरह जो सारी उम्र आपके परिवार की बुराई करते रहे हों लेकिन आपके कामयाब होने पर अपने दोस्तों में बड़ी ऐंठ से बताते हो कि ये मेरा भतीजा है!
मगर दिक्कत ये है कि पूरा पाकिस्तान जो शाहरुख खान के मुसलमान होने पर फक्र करता है क्या वो शाहरुख की तरह अपने घर पर अपनी हिन्दू बीवी को देवी-देवताओं की पूजा करने देगा, अपनी हिन्दू बीवी को शादी के बाद उसका धर्म मानने देगा…अपने बच्चों के नाम आर्यन और सुहाना रखने देगा…कभी नहीं…और यही शाहरुख को पसंद करने का विरोधाभास है…मतलब इन लोगों को उसकी मुस्लिम पहचान पर गर्व तो करना है, उसकी उपलब्धियों को एक मुसलमान की उपलब्धि मानकर उस पर खुश भी होना है मगर शाहरुख जिस तरीके का मुसलमान है वैसा मुसलमान नहीं होना है।
शेन वार्न के एक मित्र ने एक बार कहा था कि वार्न ने आज तक जितने विकेट लिए हैं, उससे ज़्यादा उसने महिलाओं के साथ सम्बन्ध बनाए हैं। वार्न थे भी ऐसे ही...उन्होंने कभी छिपाया भी नहीं। ईसाइयत में शादीशुदा होने के बाद दूसरी महिला से सम्बन्ध बनाना बहुत बड़ा पाप भी है। लेकिन क्या इससे बतौर गेंदबाज़ वार्न की महानता कम हो गई? बिल्कुल नहीं। वो विश्व इतिहास के सबसे महानतम स्पिनर रहेंगे ही रहेंगे। क्योंकि वो अपनी फील्ड के सबसे बड़े contributor हैं और उनके इसी Contribution की वजह से दुनिया और ऑस्ट्रेलिया उन्हें याद रखेगा, फिर चाहे धर्म गुरू उन्हें मान्यता दें या न दें। फिर चाहे शुद्धतावादी उन्हें आदर्श मानें या नहीं!
अध्यात्म की खोज में भारत आए स्टीव जॉब्स वापिस अमेरिका क्यों चले गए थे...जॉब्स ने बताया था कि एक वक्त आया जब मैंने महसूस किया कि दुनिया में बहुत सी अच्छी बातें, अच्छे विचार कहे जा चुके हैं...बहुत से लोगों ने ईश्वर को अनुभव किया है...मगर दुनिया को और अच्छे विचारों की नहीं, अच्छी चीज़ों की ज़रूरत है....ऐसे योगदान की ज़रूरत है जिससे मैं लोगों की ज़िंदगी को बेहतर बना सकूं...यही वो विचार था जिसने जॉब्स को अपनी ‘आध्यात्मिक यात्रा’ बीच में छोड़कर ‘असल ज़िंदगी’ में कुछ करने के लिए प्रेरित किया… यही जॉब्स आगे चलकर दुनिया के सबसे बेहतरीन आविष्कारक बने...जिन्होंने हमें Apple जैसे बेहतरीन प्रॉडक्ट दिए और अपने उसी जीवन दर्शन को एपल का हर प्रोडक्ट बनाने में ध्यान रखा...जैसे अध्यात्म हमें अपने अलावा दूसरों के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करता है उसी तरह जॉब्स ने हर कदम पर User Experience को ध्यान रखा!
दुनिया की सबसे ताकतवर टीम ऑस्ट्रेलिया विराट कोहली की इसलिए इज्ज़त नहीं करती कि उसके इंस्टाग्राम पर ढाई सौ मिलियन फॉलोअर्स हैं या हज़ार करोड़ रुपए का मालिक वो इसलिए इज्ज़त करते हैं कि पिछले दस सालो में उसने अकेले ने ऑस्ट्रेलिया में इतनी हंड्रेड लगाई हैं जितनी कोई एक टीम भी मिलकर नहीं लगा पाई। भारत की भी इसलिए इज्ज़त नहीं हो रही कि बीसीसीआई दुनिया की सबसे बड़ी लीग चलाती है वो इसलिए हमें इज्ज़त दे रहे हैं क्योंकि हमने उन्हें छह सालों में इतने टेस्ट हराया है जितना बाकी टीमें मिलकर भी ऑस्ट्रेलिया को ऑस्ट्रेलिया में नहीं हरा पाई।
अपना कर्म ऊंचा करो, आपका धर्म खुद ब खुद ऊंचा हो जाएगा। किसी विधर्मी का होना तुम्हारे वजूद के लिए खतरा नहीं हैं। तुम्हारा खतरा ये न जान पाने में है कि तुम्हारा वजूद किसके लिए है...तुम्हें करना क्या है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
हिंसा, युद्ध, नरसंहार, दमन, यातना व गैर धर्मो के प्रति पूरी तरह अमानवीय होना, धार्मिक राष्ट्र की स्थापना, प्रसार व स्थायित्व के लिए आवश्यक होते हैं। हिंन्दू धर्म में इसे सदैव घृणा से देखा गया।
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार।
अपने आधारभूत रूप में हिन्दू धर्म न एक पुस्तक का धर्म रहा न एक ईश्वर का धर्म रहा। किसी भी धार्मिक राष्ट्र की स्थापना के लिए पहला बुनियादी तत्व है एक पुस्तक और एक ईश्वर पर 'अकम्पित निष्ठा', ईसाई और इस्लामी साम्राज्यों के बनने और विस्तार पाने के पीछे मूल तत्व यही था, जो हिन्दू धर्म में कभी नहीं रहा।
धर्म के प्रसार के लिए विश्वविजय जैसी आकांक्षाए इस धर्म में पूरी तरह अवांछित थी। हिंदू धर्म की उत्कृष्टता उसे आत्मिक ऐकांतिकता की ओर ढकेलती थी जिसका चरम लक्ष्य संसार का त्याग होता था। इसी कारण कई महान राजा सारा राजपाट छोड़कर संन्यासी, महान त्यागी और पूजनीय बनें। हिन्दू धर्म के वाहक भी अपनी आंतरिक बुनावट में वीतरागी व संन्यासी थे। इस जगत की माया से मुक्ति चाहते थे।
जनक से लेकर हर्ष तक यही पंरपरा रही। ऐसे व्यक्ति भारत की भूमि पर जन्में ही नहीं जिन्होंने अपने देश की सीमाएं अपनी सेना के साथ अतिक्रमित की हो, जो देश या धर्म या नस्ल के गौरव, धन या व्यक्तिगत महत्वकांक्षा के कारण किसी देश को जीतना चाहते हों। हिंसा, रक्तपात, युद्ध, नरसंहार, दमन, यातना व गैर धर्मो के प्रति पूरी तरह अमानवीय होना, धार्मिक राष्ट्र की स्थापना, प्रसार व स्थायित्व के लिए आवश्यक होते हैं।
हिंन्दू धर्म में इसे सदैव तिरस्कार, उपेक्षा और घृणा से देखा गया। धर्म और राष्ट्र, हिन्दुओ में दो पृथक व बहुधा समानान्तर सत्ताओं के रूप में ही व्यक्त होते रहे। ईसाई और इस्लामी साम्राज्यों की तरह, हिंदू राज्यों का कोई निश्चित, घोषित राज्य धर्म नहीं रहा जहॉ राष्ट्रवाद व धर्मयुद्ध एकरूप हो जाते थे। किसी भी शासक ने जनता पर शक्ति से अपना धर्म थोपने की कोशिश नहीं की।
धार्मिक राष्ट्र की अवधारणा हिन्दू संस्कृति व पॉलिटी में सामान्यत उस तरह कभी नहीं रही, जैसे कि ईसाई और इस्लामी दो बड़े धर्मो और साम्राज्यों में रही। ईसाई और इस्लाम में धर्मयुद्धों का लम्बा इतिहास रहा है, जो भारत में सदैव अनुपस्थित रहा है।
कालांतर में हिंदू धर्म की इसी ख़ासियत और ख़ूबसूरती को उसकी कमजोरी के रूप में देखा गया। हिंदू धर्म के त्याग और धेर्य की परीक्षा हर समय होने लगी। बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों के लिए बड़ा मन दिखाने और सदियों से चली आ रहीं त्याग की परंपराओं का निर्वाह करने की सलाह दी जाने लगीं। संयम, त्याग, धेर्य कि पुरातन आदत को पुरखों के संस्कार बता कर उस पर अडिग रहने को कहा जाता हैं। क्या अब पुराने संस्कारों को छोड़ने का वक्त सचमुच आ गया हैं?
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
1952 में स्थापित, भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव एशिया के महत्वपूर्ण फिल्म समारोहों में से एक है, जो फिल्म निर्माताओं को अपने काम को प्रस्तुत करने के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है।
डॉ. भुवन लाल, प्रसिद्ध भारतीय लेखक ।।
छह महीने से भी कम समय पहले सिनेमा से संबंधित मीडिया में एक बड़ी घोषणा ने अंतरराष्ट्रीय फिल्म जगत को आश्चर्यचकित कर दिया। भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव को आखिरकार एक नया फेस्टिवल डायरेक्टर मिल गया। यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध भारतीय फिल्म निर्माता और निर्देशक शेखर कपूर थे। एक प्रेरित विकल्प, कपूर चार महाद्वीपों पर काम करने वाले एकमात्र भारतीय फिल्म निर्देशक हैं। उनके अविश्वसनीय काम में आर्टहाउस सिनेमा और कमर्शियल हिंदी फिल्मों से लेकर अंतरराष्ट्रीय सिनेमा और यहां तक कि ऑस्कर-नामांकित फिल्म - एलिजाबेथ तक शामिल है। भारतीय सिनेमा और टेलीविजन में एक अभिनेता के रूप में उनका कार्यकाल, साथ ही एक टीवी शो के होस्ट के रूप में, अच्छी तरह से जाना जाता है। वह 2010 में फेस्टिवल डे कान्स में जूरी के सदस्य भी थे और सिनेमा की दुनिया में उनका बेजोड़ अनुभव है।
1952 में स्थापित, भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव एशिया के सबसे महत्वपूर्ण फिल्म समारोहों में से एक है, जो दुनिया भर के फिल्म निर्माताओं को अपने काम को प्रस्तुत करने के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है। पिछले बीस वर्षों से गोआ में हर साल आयोजित होने वाला IFFI विश्व सिनेमा की बेहतरीन फिल्मों का जश्न मनाने के लिए निर्देशकों, निर्माताओं, अभिनेताओं और फिल्म प्रेमियों को आकर्षित करता है। पूर्णकालिक महोत्सव निदेशक के बिना कुछ वर्षों तक लड़खड़ाने के बाद, हाल के वर्षों में IFFI ने अंतरराष्ट्रीय फिल्म निर्माताओं, भारतीय फिल्म उद्योग और फिल्म प्रेमियों को निराश किया है, जिन्होंने दशकों तक इसका वफ़ादारी से समर्थन किया था। इसमें कोई संदेह नहीं था कि गोआ में आयोजित होने वाला भारत का अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का 55वां संस्करण प्रतिभाशाली फेस्टिवल डायरेक्टर शेखर कपूर की कमान में एक गेम-चेंजर साबित होने वाला था और ऐसा ही हुआ।
गोआ फिल्म महोत्सव भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक और आयोजन मात्र नहीं था, बल्कि एक सुनियोजित और कुशलतापूर्वक निष्पादित शो था, जिसमें वैश्विक मानक महोत्सव की सभी विशेषताएं थीं। सिनेमा में उत्कृष्टता के लिए प्रतिष्ठित सत्यजीत रे लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड गोआ के मुख्यमंत्री डॉ. प्रमोद सावंत द्वारा अनुभवी ऑस्ट्रेलियाई फिल्म निर्माता फिलिप नॉयस को प्रदान किया गया, जो क्लियर एंड प्रेजेंट डेंजर, पैट्रियट गेम्स और साल्ट जैसी फिल्मों के लिए जाने जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय जूरी का नेतृत्व अकादमी पुरस्कार के लिए नामांकित और अत्यधिक सम्मानित भारतीय फिल्म निर्माता आशुतोष गोवारिकर ने किया। इसमें सिंगापुर के जाने-माने लेखक, निर्देशक और निर्माता एंथनी चेन, बाफ्टा पुरस्कार विजेता निर्माता एलिजाबेथ कार्लसन, गोल्डन लेपर्ड विजेता फिल्म निर्माता फ्रैन बोर्गिया और फिल्म संपादक जिल बिलकॉक शामिल थे, जो स्ट्रिक्टली बॉलरूम, रोमियो एंड जूलियट, मौलिन रूज, एलिजाबेथ और रोड टू परडिशन के संपादन के लिए प्रसिद्ध हैं। हॉलीवुड फिल्म निर्माता चक रसेल, जो द मास्क और द स्कॉर्पियन किंग जैसी हॉलीवुड हिट फिल्मों के लिए जाने जाते हैं, ने फिल्म बाजार में शैली फिल्म निर्माण पर एक मास्टरक्लास का आयोजन किया। उन्होंने भारत में काम करने और आमिर खान और शाहरुख खान के साथ सहयोग करने की अपनी इच्छा भी व्यक्त की।
विश्व सिनेमा की कुछ बेहतरीन फिल्मों की स्क्रीनिंग करते हुए, IFFI ने गोआ में होली काउ, टॉक्सिक, वेव्स, शेफर्ड्स, आर्टिकल 370, और आदुजीविथम सहित कई अन्य रत्न प्रस्तुत किए। इस महोत्सव में जीरो से रीस्टार्ट, द मेहता बॉयज, हिसाब बराबर और जब खुली किताब का प्रीमियर भी हुआ। IFFI में एक विशेष कार्यक्रम में, राज कपूर के जीवन और कार्यों को रणबीर कपूर और निर्देशक-संपादक राहुल रवैल द्वारा श्रद्धांजलि के साथ मनाया गया। IFFI ने तेलुगु सिनेमा के दिग्गज अक्किनेनी नागेश्वर राव (ANR) को उनके बेटे नागार्जुन के साथ एक सत्र में श्रद्धांजलि दी। सोनू निगम और शाहिद रफी ने प्रसिद्ध भारतीय गायक मोहम्मद रफी के शताब्दी सत्र में मंच संभाला और एक अविस्मरणीय क्षण में दर्शकों को आनंदित करने के लिए सुभाष घई की कर्ज़ की धुनें गाई ।
IFFI गोआ में भारतीय सिनेमा के जाने-माने नाम मौजूद थे, जिन्होंने फ़िल्में पेश कीं और मास्टरक्लास, कार्यशालाएँ और पैनल आयोजित किए, जिनमें मणि रत्नम, विधु विनोद चोपड़ा, निखिल आडवाणी, बोमन ईरानी, नील नितिन मुकेश, वाणी त्रिपाठी और बॉबी बेदी शामिल थे। गोआ में रमेश सिप्पी की मौजूदगी भी एक आकर्षण थी, जिनकी महान कृति शोले 2025 में 50 साल पूरे करेगी और अगले साल महोत्सव का मुख्य आकर्षण होगी। सबसे सफल भारतीय फ़िल्म निर्माताओं में से एक और जीवित किंवदंती, सुभाष घई महात्मा गांधी पर अपनी लघु फ़िल्म दिखाने के साथ-साथ अपनी क्लासिक फ़िल्म ताल को अंतर्राष्ट्रीय प्रतिनिधियों के सामने पेश करने के लिए गोआ में थे।
ताल 1997 में यूएसए में वैराइटी की शीर्ष 20 में जगह बनाने वाली पहली भारतीय फिल्म थी और सुभाष घई ने खुलासा किया कि उन्होंने ए.आर. रहमान को संगीत रचना के लिए यह कहकर राजी किया था, “मैं यह संगीतमय फिल्म बनाना चाहता हूं और इसका मतलब है कि आप मेरी फिल्म के नायक हैं”। प्रसिद्ध गायिका कविता कृष्णमूर्ति जिन्होंने फिल्म के सुपरहिट गाने गाए, ने याद किया, “मैंने इस तरह से गाने की कोशिश की जो न केवल भारतीय श्रोताओं को बल्कि दुनिया भर के श्रोताओं को पसंद आए।” उस दिन बाद में, बंगाल के माननीय राज्यपाल डॉ. सी.वी. आनंद बोस ने अभिनेता आर. माधवन के साथ मिलकर सुभाष घई की पुस्तक कर्मा चाइल्ड का विमोचन एक कार्यक्रम में किया, जिसमें फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे के पहले पांच बैच एक साथ आए थे।
इससे पहले महोत्सव के पहले दिन गोआ के मुख्यमंत्री डॉ. प्रमोद सावंत ने राष्ट्रीय सार्वजनिक प्रसारक प्रसार भारती के प्लेटफॉर्म ‘वेव्स’ ओवर-द-टॉप (ओटीटी) का शुभारंभ किया। जियो स्टूडियोज और यूट्यूब द्वारा आयोजित फिल्म बाजार 2025 में अभूतपूर्व रूप से रिकॉर्ड भागीदारी रही और सिनेमा व्यवसाय और कंटेंट निर्माण पर पैनल चर्चाएं हुईं। फिल्म बाज़ार का एक मुख्य आकर्षण बिक्री बनाम वितरण पर एक जानकारीपूर्ण ज्ञान श्रृंखला सत्र था जिसमें ग्लोबल गेट, लॉस एंजिल्स के अध्यक्ष विलियम फ़िफ़र, शिलादित्य बोरा, डेनिस रूह और अरनॉड गोडार्ट शामिल थे, जिसका कुशल संचालन कैरी साहनी ने किया था। एक और दिलचस्प पैनल मनोरंजन उद्योग पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के प्रभाव पर था जहाँ अदानी समूह के सीटीओ सुदीप्त भट्टाचार्य ने फिल्म निर्माता महावीर जैन के साथ बात की। IFFI गोआ में ऑस्ट्रेलिया फोकस का देश था और स्क्रीन ऑस्ट्रेलिया, राज्य स्क्रीन आयोगों और ऑस्ट्रेलिया को फिल्मांकन गंतव्य के रूप में बढ़ावा देने वाली एजेंसी ऑसफिल्म के एक मजबूत प्रतिनिधिमंडल के साथ एक बड़ी ऑस्ट्रेलियाई भागीदारी थी। भारतीय उद्योग परिसंघ और भारतीय मोशन पिक्चर प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन ने मंडोवी नदी पर एक नौका पर यादगार कार्यक्रम आयोजित किए।
55वां IFFI वैश्विक सिनेमा का एक रोमांचक उत्सव था, जिसमें दुनिया के सभी कोनों से फिल्मों का एक विविध मिश्रण, विचार-विमर्श, आकर्षक मास्टरक्लास और विशेष स्क्रीनिंग एक साथ लाई गई। IFFI गोआ में 45,000 से अधिक फिल्म प्रेमियों और पेशेवरों के साथ नौ दिनों के सिनेमाई उत्सव के बाद, समापन की रात भारतीय संगीत और नृत्य प्रदर्शनों के एक शानदार मंच प्रदर्शन के साथ महोत्सव का समापन हुआ। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम, दूरदर्शन, सूचना और प्रसारण मंत्रालय और गोआ सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले सैकड़ों लोगों के दल का अथक परिश्रम IFFI गोआ 2024 के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के 55वें संस्करण में स्पष्ट दिखाई दिया। IFFI के कलात्मक निदेशक पंकज सक्सेना, NFDC के प्रबंध निदेशक प्रीतुल कुमार और फिल्म बाजार के नवनियुक्त सलाहकार जेरोम पैलार्ड ने महोत्सव में आने वाले दर्शकों के अनुभव को अनुकूलित किया और IFFI गोआ 2024 और फिल्म बाजार को एक बड़ी सफलता बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने और सीमाओं से परे सिनेमाई कला को बढ़ावा देने का IFFI का मिशन सिर्फ़ गोआ में होने वाला एक वार्षिक कार्यक्रम नहीं है, बल्कि दुनिया भर में साल भर चलने वाली गतिविधि है। इस साल फेस्टिवल डायरेक्टर कपूर ने IFFI गोआ में युवा भारतीय फिल्म जगत को विश्व सिनेमा के जादू में सफलतापूर्वक डुबो दिया है और नवोदित फिल्म निर्माताओं के जुनून को बढ़ावा देने में मदद की है ताकि वे भारतीय सिनेमा को वैश्विक स्तर पर पहचान दिला सकें। दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म और कंटेंट प्रोडक्शन उद्योग अब गोआ में सबसे बड़े सिनेमाई कला महोत्सव का हकदार है। जैसा कि फेस्टिवल डायरेक्टर कपूर ने सही कहा, "एक अत्यधिक ध्रुवीकृत दुनिया में... हमें एक-दूसरे को अपनी कहानियाँ बताने की ज़रूरत है..." IFFI गोआ दुनिया के कहानीकारों के लिए आदर्श घर है।
(डॉ. भुवन लाल सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल और हर दयाल के जीवनी लेखक और विश्व मंच पर भारतीय लेखक हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है)
ढाका की बैतुल मुकर्रम मस्जिद में जुमे की नमाज़ के बाद, हिफ़ाज़ते इस्लाम संगठन के हज़ारों कार्यकर्ताओं ने इस्कॉन के ख़िलाफ़ मार्च किया। इस्कॉन पर पाबंदी लगाने की मांग की।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ जम कर हिंसा हुई। बांग्लादेश के दूसरे सबसे बड़े शहर चटगांव में इस्लामिक कट्टरपंथियों ने ख़ूब उत्पात मचाया। जुमे की नमाज़ के बाद हिज़्बुत तहरीर, हिफ़ाज़ते इस्लाम और जमाते इस्लामी के कार्यकर्ता चटगांव के हिन्दू बहुल ठाकुरगांव, कोतवाली और टाइगर पास मुहल्लों में घुस गए।
कट्टरपंथियों ने पहले इस्कॉन के ख़िलाफ़ जमकर नारेबाज़ी की, इसके बाद इस्लामिक संगठनों के कार्यकर्ताओं ने हिंदुओं की दुकानों और घरों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। हिंदुओं के साथ मार-पीट शुरू कर दी। तीन बड़े मंदिरों में तोड़फोड़ की। मौक़े पर पुलिस मौजूद थी लेकिन पुलिस ने कुछ नहीं किया। पुलिस तमाशा देखती रही। इसके बाद जब हालात बेक़ाबू हो गए तो, चटगांव में फौज को तैनात कर दिया गया।
राजधानी ढाका में इस्कॉन के ख़िलाफ़ प्रदर्शन हुए। ढाका की बैतुल मुकर्रम मस्जिद में जुमे की नमाज़ के बाद, हिफ़ाज़ते इस्लाम संगठन के हज़ारों कार्यकर्ताओं ने इस्कॉन के ख़िलाफ़ मार्च किया। इस्कॉन पर पाबंदी लगाने की मांग की।
प्रदर्शनकारियों ने कहा कि इस्कॉन एक आतंकवादी हिंदू संगठन है, उस पर बैन लगना चाहिए और इस्कॉन के कार्यकर्ताओं को जेल में डाल देना चाहिए। बांग्लादेश सरकार ने इस्कॉन के 17 सदस्यों के बैंक खाते 30 दिन तक फ्रीज़ कर दिए हैं। इनमें इस्कॉन के गिरफ़्तार चिन्मय दास का भी बैंक खाता है। कोलकाता में इस्कॉन के उपाध्यक्ष राधारमण दास ने कहा कि खाते फ्रीज़ होने से इस्कॉन के सदस्यों के भूखों मरने की नौबत आ जाएगी।
बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार के ख़िलाफ कोलकाता में प्रदर्शन हुए। इंडियन सेक्यूलर फ्रंट के वर्कर्स ने बांग्लादेश के डिप्टी हाई कमिशन के बाहर प्रोटेस्ट किया। इंडियन सेक्यूलर फ्रंट, फुरफुरा शरीफ़ के मौलाना अब्बास सिद्दीक़ी की पार्टी है। विश्व हिंदू परिषद के सदस्यों ने भी बंगाल में प्रदर्शन किया। ब्रिटेन की संसद में कंज़रवेटिव पार्टी के सांसद, बॉब ब्लैकमैन ने सरकार से इस मामले में दख़ल देने की मांग की।
बॉब ब्लैकमैन ने कहा कि इस्कॉन जैसे शांतिप्रिय संगठन को आतंकवादी संगठन बताकर लोगों को मारा जा रहा है, हिन्दुओं पर अत्याचार हो रहा है, उनकी जायदाद लूटी जा रही है।
लोकसभा में विदेश मंत्री जयशंकर ने एक लिखित उत्तर में बताया कि भारत सरकार ने हिन्दुओं की स्थिति पर बांग्लादेश की सरकार से बात की है और हिंदुओं को पूरी सुरक्षा देने को कहा है। जयशंकर ने कहा कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिन्दुओं के जान-माल की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी वहां की अंतरिम सरकार की है और सरकार को उम्मीद है कि बांग्लादेश की सरकार अपनी जिम्मेदारी निभाएगी।
शनिवार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने एक बयान में भारत सरकार से अपील की कि वह बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों को रोकने के लिए विश्व जनमत बनाना शुरू कर दे। होसबाले ने इस्कॉन के गिरफ्तार साधु चिन्मय दास को जेल से तुरंत रिहा करने की मांग की।
ये बात सही है कि बांग्लादेश में हिंदुओं के हालात पर भारत सरकार चिंतित है। गुरुवार को गृह मंत्री अमित शाह, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और विदेश मंत्री एस जयशंकर की बैठक हुई। लेकिन मामला पड़ोसी मुल्क का है। इसलिए सिर्फ डिप्लोमेटिक चैनल्स का सहारा लिया जा सकता है। सिर्फ बांग्लादेश की सरकार पर दबाव बनाया जा सकता है।
समस्या यह है कि बांग्लादेश में मोहम्मद युनूस की अंतरिम सरकार कट्टरपंथियों के दबाव में है, उनसे डरती है। जिस तरह से हिंसा पर उतारू भीड़ ने शेख हसीना को हटाया, उसके बाद सब भीड़ से डरते हैं। अब सरकार पर नियंत्रण होने के बाद जमात-ए-इस्लामी और हिफाज़त-ए-इस्लाम जैसे संगठन हिंसा पर उतारू हैं। उन्हें न पुलिस का डर है, न फौज का, न ही उन्हें बांग्लादेश की छवि की परवाह है। इसलिए बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे जुल्म को रोकने में वक्त लगेगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ़ इंडिया में मूक फिल्म कालिया मर्दन के प्रदर्शन से भारतीय सिनेमा का गौरवशाली अतीत जीवंत हो उठा था। आरंभिक फिल्में रीस्टोर होती हैं तो संभव है कि इतिहास बदल जाए।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
गोवा में आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में जानेवालों की अपेक्षा होती है कि उनको कुछ बेहतरीन विदेशी फिल्में देखने को मिल जाएं। वहां पहुंचने वाले सिनेमाप्रेमी फेस्टिवल के शेड्यूल में से अपनी पसंद की फिल्में तलाशते और उसपर चर्चा करते नजर आते हैं। हाल ही में गोवा में समाप्त हुए फिल्म फेस्टिवल में सात भारतीय क्लासिक फिल्मों को भी नेशनल फिल्म आर्काइव आफ इंडिया ने रिस्टोर (मूल जैसा बनाया) किया।
इन फिल्मों का प्रदर्शन फेस्टिवल के दौरान हुआ। इन फिल्मों को दर्शकों ने पसंद किया लेकिन सबसे अधिक रोमांच तो दादा साहब फाल्के की 1919 में बनाई गई फिल्म कालिया मर्दन को देखते समय हुआ। दादा साहब फाल्के ने 1919 में जब इस फिल्म का निर्माण किया था तो बाल कृष्ण की भूमिका उनकी बेटी मंदाकिनी फाल्के ने की थी।
ये मूक फिल्म थी। करीब 50 मिनट की इस फिल्म को लाइव संगीत के साथ प्रदर्शित किया गया। उन 50 मिनट में दर्शक मूक फिल्मों के दौर में चले गए थे। जहां पर्दे पर पात्र अपने हाव भाव से दृष्य को जीवंत करते थे और पर्दे के नीचे या साथ बैठे साजिंदे अपने वाद्ययंत्रों से संगीत देकर उन दृष्यों में रोचकता पैदा करते थे। कालिया मर्दन फिल्म में जब नदी में खेल रहे बाल कृष्ण को महिलाएं गोद में लेकर ऊपर उठातीं तो हाल में बैठे आर्केस्ट्रा से निकलने वाला संगीत गजब का प्रभाव पैदा करता था। पर्दे पर जब बाल कृष्ण बांसुरी बजाते तो हाल में बैठा बांसुरी वादक वैसे ही धुन निकालता।
एक बेहद ही मजेदार दृष्य है इस फिल्म है। कृष्ण और उनके बाल सखा को गांव की एक महिला अपमानित करती है। उन शरारती बच्चों पर पानी फेंक देती है। इससे कृष्ण जी क्षुब्ध हो जाते हैं। अपने साथियों के साथ उस महिला के घर में घुसकर माखन चोरी कर लेते हैं। माखन चोरी से क्रोधित वो महिला कृष्ण के साथियों को पीट देती है। अपमानित बालकों ने महिला से बदला देने की ठानी। एक रात कृष्ण जी उनके घर में घुस जाते हैं। महिला अपने पति के साथ सो रही होती है।
नटखट कृष्ण ने सोते हुए पुरुष की दाढ़ी और महिला के बाल आपस में बांध दिए। बाद में जब वो उस कमरे से निकलने का प्रयास करते हैं तो असफल हो जाते हैं। बाल कृष्ण की बदमाशियों को दादा साहब फाल्के ने जिस खूबसूरती के साथ दिखाया है कि आज भी दर्शक आनंदित हो उठते हैं। उनको ये याद ही नहीं रहता है कि इस लंबे दृष्य में किसी तरह का कोई संवाद नहीं है। है तो सिर्फ पार्श्व संगीत।
फेस्टिवल के समापन समारोह में रमेश सिप्पी ने इस बात को रेखांकित किया कि आज से 105 वर्ष पहले बनी फिल्म कितनी सुंदर थी और किस तरह से उसमें कहानी को आगे बढ़ाया गया है। उन्होंने फिल्म के कैमरा वर्क की प्रशंसा भी की। यह अनायस नहीं है कि दादा साहब फाल्के को भारतीय फिल्म जगत का पितामह कहा जाता है।
इसके अलावा राज कपूर की मास्टरपीस फिल्म आवारा, देवानंद कि हम दोनों, तपन सिन्हा की हारमोनियम, ए नागेश्वर राव की तेलुगु फिल्म देवदासु और सत्यजित राय की सीमाबद्ध और ख्वाजा अहमद अब्बास की सात हिन्दुस्तानी को भी रिस्टोर करके दिखाया गया। नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन के अंतर्गत इन फिल्मों पर काम हुआ। यह कार्य महत्वपूर्ण है।
हम वापस लौटते हैं फिल्म कालिया मर्दन की ओर। आज से 105 वर्ष पहले बनी इस फिल्म के केंद्र में श्रीकृष्ण का बाल स्वरूप है। उस दौर में जितनी भी फिल्में बन रही थीं सभी भारतीय पौराणिक कथाओं और पात्रों पर आधारित थीं। दादा साहब फाल्के की पत्नी ने उनको कृष्ण के व्यक्तित्व के अलग अलग शेड्स पर फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। इसके लिए उनकी पत्नी ने अपने गहने गिरवी रखे। उससे मिले पैसे को लेकर फाल्के लंदन गए और वहां से सिनेमैटोग्राफी सीखकर वापस लौटे। अब उनके सामने अपने सपने को साकार करने की चुनौती थी।
उन्होंने पहले कृष्ण और फिर राम पर फिल्म बनाने की कोशिश की लेकिन संसाधन के अभाव में उसको छोड़ना पड़ा। फिर राजा हरिश्चंद्र की कहानी पर काम आरंभ किया। विज्ञापन के बावजूद कोई महिला इस फिल्म में अभिनय के लिए तैयार नहीं हो रही थी। निराशा बढ़ती जा रही थी। पास की दुकान में चाय पीने गए। वहां चायवाले लड़के, सालुंके, पर उनकी नजर पड़ी और उस लड़के को तारामती के रोल के लिए तैयार किया गया।
इस तरह भारतीय फिल्म में एक पुरुष ने पहली अभिनेत्री का रोल किया। ‘राजा हरिश्चंद्र’ फिल्म बन गई। 3 मई 1913 को बांबे के कोरोनेशन हॉल में उसका प्रदर्शन हुआ। फिल्म लगातार 12 दिन चली। 1914 में लंदन में प्रदर्शित हुई। इनकी दूसरी फिल्म ‘भस्मासुर मोहिनी’ में नाटकों में काम करनेवाली कमलाबाई गोखले ने अभिनय किया। कमला बाई को फिल्म में अभिनय के लिए उस वक्त फाल्के साहब ने आठ तोला सोना, दो हजार रुपए और चार साड़ियां दी थीं। इसके बाद इन्होंने ‘कृष्ण जन्म’ बनाई।
कहते हैं कि इस फिल्म ने इतनी कमाई की कि टिकटों की बिक्री से जमा होनेवाले सिक्कों को बोरियों में भरकर ले जाना पड़ता था। सफलता के बाद इनको फाइनेंसर मिल गया। उन्होंने हिंदुस्तान फिल्म कंपनी बनाई। इसी फिल्म कंपनी से दादा साहब फाल्के ने कालिया मर्दन फिल्म का निर्माण किया। फाल्के साहब ने अपने जीवन काल में करीब 900 लघु फिल्में और 20 फीचर फिल्में बनाईं। भारतीय सिनेमा के शोधार्थियों को इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि दादा साहब फाल्के भारतीय पौऱाणिक पात्रो को लेकर ही फिल्में क्यों बनाते रहे।
जिस तरह से नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन के अंतर्गत पुरानी भारतीय फिल्मों को रिस्टोर करने का कार्य हो रहा है, उसको और बढ़ाने और भारतीय दर्शकों तक पहुंचाने की आवश्यकता है। स्वाधीनता के बाद फिल्मी दुनिया में कई ऐसे निर्माता निर्देशक आए जिन्होंने जो वामपंथी विचार के प्रभाव वाले थे। स्वाधीनता के बाद तत्कालीन भारत सरकार फिल्मी जगत के लोगों को सोवियत रूस भेजकर उनके प्रभाव में आने का रास्ता खोल रही थी।
अनके पुस्तकों और दस्तावेजों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि किस तरह से सोवियत रूस ने अपने विचारों को भारत में फैलाने के लिए फिल्म और साहित्य जगत का उपयोग किया और सफलता भी प्राप्त की। रूस को सफलता इस कारण मिली क्योंकि उस समय भारत सरकार का सहयोग उनको प्राप्त था। गीतों से लेकर संवाद में पूंजी और पूंजीपतियों पर परोक्ष रूप से हमले शुरु हो गए थे। जमींदारों से लेकर पैसेवालों को बुरा आदमी दिखाने की प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगी थी। पूंजीवादी व्यवस्था के कथित दुर्गुणों को फिल्मों में प्रमुखता से दिखाकर भारतीय जनमानस पर साम्यवादी विचारधारा को थोपने का प्रयास हुआ।
कहा जाता है कि उस समय से प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का भी परोक्ष समर्थन इस कार्य के लिए था। अगर नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन अपने काम में तेजी लाती है, इसको सरकार की तरफ से उचित संसाधन उपलब्ध होता है तो संभव है कि आनेवाले दिनों में भारतीय फिल्मों के इतिहास को फिर से लिखने की आवश्यकता पड़े। इसके साथ ही विश्वविद्यालयों में भारतीय फिल्मों की प्रवृत्तियों पर जो कार्य हो रहे हैं उनकी भी दिशा बदल सकती है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )