हंसमुख और काफी जिंदादिल व्यक्ति थे मोनजीत शर्मा: बी साई कुमार

‘Arre’ व ‘Arre Voice’ के फाउंडर और ‘नेटवर्क18’ के पूर्व ग्रुप सीईओ बी साई कुमार ने आईओएस स्पोर्ट्स एंड एंटरटेनमेंट के सीईओ मोनजीत शर्मा (अब दिवंगत) के साथ जुड़ी अपनी यादें शेयर की हैं।

Last Modified:
Wednesday, 24 July, 2024
B Sai Kumar


बी साई कुमार।।

मुझे यह तो अच्छे से याद नहीं है कि मोनजीत ने कब ‘नेटवर्क18’ को जॉइन किया था, लेकिन शायद वह वर्ष 2001 था। यह उस समय की बात है, जब हमने डिस्ट्रीब्यूशन और एडवर्टाइजिंग सेल्स को स्वयं करने का साहसी निर्णय लिया था, जो पहले सोनी से आउटसोर्स किया जाता था। यह सब उस समय से काफी पहले की बात है जब TV18 मीडिया मार्केट में एक मजबूत प्लेयर बन गया था, यहां तक कि CNN IBN, Forbes, Viacom18, या A&E18 से भी पहले। यह वह समय था जब हम TV18 चैनल, CNBC इंडिया चला रहे थे और कुछ समय पूर्व ही moneycontrol.com का अधिग्रहण किया था।

उन दिनों विज्ञापन बिजनेस में दिल्ली का महत्वपूर्ण योगदान था और मीडिया खरीदार उतने एकीकृत नहीं थे, जितने वे वर्तमान में हैं। वह समय काफी महत्वपूर्ण था और हम अपने ऐडवर्टाइजिंग सेल्स ऑपरेशंस को चलाने के लिए उत्तर-पूर्व में तमाम लोगों से मिल रहे थे। उसी समय ईएसपीएन से एक दृढ़ और हंसमुख व्यक्ति मोनजीत शर्मा का प्रवेश हुआ। वह यह जानते हुए आए कि केवल वही यह काम पूरा कर सकते थे और मुझे उन्हें मनाना पड़ा, जिसका मुझे बिल्कुल भी बुरा नहीं लगा।

एक बिजनेस न्यूज़ चैनल के लिए, दिल्ली वित्तीय राजधानी यानी मुंबई से लगभग हजार मील दूर थी और मोनजीत ने हमें ऑटो सेक्टर, कंज्यूमर ड्यूरेबल्स सेक्टर और कई अन्य सेक्टर्स के साथ मुख्यधारा में लाने में मदद की, जिससे हम अपनी विज्ञापन दरें लगभग तीन गुना बढ़ा सके। दिल्ली मार्केट में ये प्रमुख क्षेत्र थे। इतना ही नहीं कि सीएनबीसी इंडिया पर पहले बजट कार्यक्रम का मुख्य प्रायोजक एक ऑटो क्लाइंट था, न कि कोई बैंक या ब्रोकरेज।

वह और मैं दिल्ली, नोएडा, गुरुग्राम का सफर करते थे, कभी-कभी एक ही दिन में कई बार। फिर चाहे 48 डिग्री तापमान वाली भीषण गर्मी हो या 10 डिग्री वाली दिल्ली की सर्दी। जाहिर है, हम यह सब एक मजबूत टीम के बिना नहीं कर सकते थे।

जहां तक मुझे थोड़ा-थोड़ा याद है मोनजीत सीधे-सीधे या किसी तरह निमार, अल्पना, मानेक, पौरुष, विशाल श्रीवास्तव (जो अब कनाडा में एक रेस्टोरेंट चलाते हैं), विशाल भटनागर (अब बीबीसी में हैं और बेहतरीन गोल्फर हैं), पंकज चंद्रा, विवेक मल्होत्रा (अब आजतक/इंडिया टुडे में), सीमा (जिनसे मैं मुंबई के ओबेरॉय स्कूल में पेरेंट-टीचर कार्यक्रमों में मिलता रहता हूं) और कोलकाता में बसब से जुड़े हुए थे। यह एक बेहतरीन टीम थी और मोनजीत इस सब के केंद्र में थे।

एक असाधारण टीम और एक अच्छे, मजबूत लीडर द्वारा तीन साल की यह शानदार अवधि थी। मेरे दिल्ली के दौरे धीरे-धीरे कम हो गए और एक दिन मोनजीत ने घोषणा की कि वह कंपनी छोड़ने जा रहे हैं। उन्होंने मुझसे यह बताने के लिए अनिल उनियाल (जो अब NDTV में हैं) को बुलाया। उन्होंने MTV जॉइन किया और एक उम्मीद थी कि TV18 और MTV (Colors तब तक अस्तित्व में नहीं था) के मर्ज होने पर हमारे रास्ते फिर से मिल सकते हैं, लेकिन उन्होंने उस पद से भी जल्द ही इस्तीफा दे दिया।

जैसे-जैसे TV18 तेजी से विकसित हुआ और हमारी सेल्स, कंटेंट, डिस्ट्रीब्यूशन आदि की गतिविधियां न्यूज और एंटरटेनमेंट में काफी महत्वपूर्ण हो गईं। मोनजीत TV18 के लिए बहुत गर्वित बने रहे, लेकिन मेरे साथ उनके संपर्क शायद साल में एक मैसेज या संक्षिप्त कॉल तक सीमित हो गए। जब मुझे CEO नियुक्त किया गया था तो उन्होंने कहा, 'संभलकर रहो, तुम्हें बहुत मेहनत करनी पड़ेगी'... या कुछ ऐसा ही, जो मुझे बहुत ही अच्छा लगा।

समय लगातार तेजी से बीतता रहा। कोविड के बाद हम एक रात डिनर पर मिले। वह बहुत खुश थे कि उनकी टीम के बच्चे Arré को फॉलो कर रहे थे, लेकिन मैंने देखा कि उन्होंने अपनी सेहत को हल्के में ले लिया था। फिर कुछ महीनों बाद मुझे एक दोस्त का कॉल आया जो भारतीय ओलंपिक संघ के प्रमुख थे और मोनजीत उनकी एजेंसी के लिए काम कर रहे थे। मैंने सोचा कि खेल और ओलंपिक आदि के साथ नया उत्साह मोनजीत को फिर से फिट कर देगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मैंने आखिरी बार 17 जुलाई को अचानक से उन्हें कॉल किया, लेकिन जवाब नहीं मिला। अलविदा मेरे प्यारे दोस्त।

नोट: मैं कुमाऊं की अपनी यात्रा के लिए मोनजीत का हमेशा आभारी रहूंगा। तब मेरी नई-नई शादी हुई थी और मोनजीत ने फैसला किया कि हम सभी को बिनसर के करीब कसारदेवी के एक रिसॉर्ट में जाना चाहिए। उन्होंने हमें यह नहीं बताया कि कितनी ठंड होगी। उनके अनुसार, ऐसा कुछ भी नहीं जिसे कुछ वोदका हल नहीं कर सकती। और उस दोपहर जब मैं धुंध और शून्य से नीचे हिमालयी सर्दियों की हाड़ कंपा देने वाली ठंडक में लेटा हुआ था, बादलों ने अपनी पूरी महिमा में नंदादेवी और त्रिशूल की चोटियों की झलक देखने का रास्ता दे दिया। तब से मैं किसी भी वर्ष पहाड़ों पर जाना नहीं भूला और जब भी मैं कसारदेवी से गुजरता हूं, मुझे मोनजीत और वह रिसॉर्ट याद आता है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक Arre’ व ‘Arre Voice’ के फाउंडर और ‘नेटवर्क18’ के पूर्व ग्रुप सीईओ हैं)

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नए भारतीय उपभोक्ता की मानसिकता को समझने की जरूरत: शांतोमय रे ?>

इस बदलाव ने बाजार की स्थिति को पूरी तरह से नया रूप दिया है, जिससे कंपनियों को नए अवसरों का लाभ उठाने और नई चुनौतियों का सामना करने का मौका मिल रहा है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 09 December, 2024
Last Modified:
Monday, 09 December, 2024
ShantomoyRay87412

शांतोमय रे, फाउंडर व डायरेक्टर, K-फैक्टर कम्युनिकेशंस ।।

भारत में उपभोक्ता (consumers) की सोच, पसंद और व्यवहार में तेजी से बदलाव आ रहा है। परंपरा और आधुनिकता के मेल के कारण उपभोक्ता अब पर्यावरण के अनुकूल (sustainability), नैतिक मूल्यों (ethical practices), स्वास्थ्य (health), और तकनीक (technology) को अधिक महत्व दे रहे हैं। इस बदलाव ने बाजार की स्थिति को पूरी तरह से नया रूप दिया है, जिससे कंपनियों को नए अवसरों का लाभ उठाने और नई चुनौतियों का सामना करने का मौका मिल रहा है।

यह उभरती हुई मानसिकता बाजार की गतिशीलता को फिर से परिभाषित कर रही है, व्यवसायों को नए अवसर और चुनौतियां प्रदान कर रही है। इन परिवर्तनों को समझने और तेजी से बढ़ते प्रतिस्पर्धी माहौल में आगे रहने के लिए नए भारतीय उपभोक्ता मानसिकता को समझना आवश्यक है। जैसे-जैसे उपभोक्ता अधिक समझदार और जागरूक होते जा रहे हैं, वे जिम्मेदारी से तैयार किए गए, व्यक्तिगत और नवीन (innovative) उत्पादों की मांग कर रहे हैं। व्यवसायों को बदलती प्राथमिकताओं के साथ खुद को अनुकूलित करना होगा, ताकि वे इस बदलते और प्रतिस्पर्धी बाजार में टिके रह सकें

पर्यावरणीय स्थिरता (sustainability) भारतीय उपभोक्ताओं के व्यवहार में एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में उभर कर सामने आई है। NielsenIQ (2024) के अनुसार, 57% भारतीय उपभोक्ता पर्यावरण के अनुकूल उत्पादों के लिए अधिक पैसे देने को तैयार हैं, जो यह दर्शाता है कि पर्यावरणीय मुद्दों के प्रति जागरूकता बढ़ रही है। हालांकि, कीमतों को लेकर संवेदनशील वाली इस मार्केट में, किफायती (affordable) उत्पादों की कमी अब भी कई लोगों के लिए एक बड़ी चिंता बनी हुई है। इस अंतर को पाटने के लिए कुछ नवाचारी उपायों की जरूरत है, जैसे कि टिकाऊ वस्तुओं पर सरकारी सब्सिडी देना, उत्पादन को बड़े पैमाने पर बढ़ाकर लागत घटाना और व्यवसायों द्वारा पारदर्शी कार्बन लेबलिंग अपनाना ताकि उपभोक्ता सूचित विकल्प ले सकें। ये उपाय पर्यावरण-अनुकूल उत्पादों को व्यापक दर्शकों तक पहुंचा सकते हैं, वह भी गुणवत्ता से समझौता किए बिना।

स्वास्थ्य व कल्याण ने भी उपभोक्ता मूल्यों को आकार देने में प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया है। FSSAI (2024) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 72% भारतीय उपभोक्ता सक्रिय रूप से जैविक (ऑर्गेनिक) या प्राकृतिक खाद्य विकल्पों की तलाश करते हैं, जो पोषण संबंधी लाभों के प्रति बढ़ती जागरूकता को दर्शाता है। इस बदलाव के कारण लेबलिंग में स्पष्टता और दावों की प्रामाणिकता (authenticity) की मांग बढ़ गई है। इसे हल करने के लिए, नियामक संस्थाएं कड़े लेबलिंग मानकों को लागू कर सकती हैं और भ्रामक दावों पर दंड लगा सकती हैं। साथ ही, ब्रैंड्स शैक्षिक अभियानों की शुरुआत कर सकते हैं, जो उपभोक्ताओं को स्वस्थ विकल्पों के लाभों के बारे में ज्ञान प्रदान करें और उन्हें सूचित निर्णय लेने में सक्षम बनाएं, जिससे उनकी समग्र भलाई में सुधार हो सके।

भारत में डिजिटल क्रांति ने उपभोक्ता की अपेक्षाओं को नया रूप दिया है, जिसमें शहरी आबादी ने प्रौद्योगिकी-आधारित अनुभवों को अपनाया है। KPMG (2024) के अनुसार, 80% शहरी भारतीय उपभोक्ता ब्रैंड्स के साथ व्यक्तिगत डिजिटल इंटरएक्शन को प्राथमिकता देते हैं। हालांकि, इस डिजिटल परिवर्तन के साथ डेटा गोपनीयता और नैतिक प्रथाओं को लेकर परेशानियां भी जुड़ी हुई हैं। व्यवसायों को भरोसा बनाने के लिए मजबूत डेटा सुरक्षा उपायों को लागू करना चाहिए और उपभोक्ताओं को उनकी जानकारी पर पारदर्शिता और नियंत्रण प्रदान करना चाहिए। यूजर्स को डेटा डैशबोर्ड और स्पष्ट गोपनीयता नीतियों के माध्यम से सशक्त बनाना एक बढ़ते हुए जुड़े हुए बाजार में विश्वास और निष्ठा को बढ़ा सकता है।

 नैतिक प्रथाएं, विशेष रूप से श्रमिक स्थितियों और समावेशन से संबंधित, भारतीय उपभोक्ता मूल्यों का अभिन्न हिस्सा बनती जा रही हैं। मिलेनियल्स और जनरेशन Z, जो उपभोक्ता आधार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, वे न्याय और समानता की अपनी अपेक्षाओं को लेकर मुखर हैं। LocalCircles (2024) की रिपोर्ट के अनुसार, 60% से अधिक भारतीय मिलेनियल्स ने अमानवीय श्रमिक प्रथाओं या पारदर्शिता की कमी के कारण ब्रैंड्स का बहिष्कार किया है। इन दृष्टिकोणों के अनुरूप आने के लिए, व्यवसायों को उचित वेतन, मानवाधिकारों की श्रमिक स्थितियाँ और हायरिंग में विविधता को प्राथमिकता देनी चाहिए। इन प्रयासों के बारे में वास्तविक कथाएं सोशल मीडिया या प्रत्यक्ष संचार के माध्यम से साझा करना ब्रैंड्स और उनके उपभोक्ताओं के बीच भावनात्मक संबंध को मजबूत कर सकता है।

हालांकि, उपभोक्ताओं की आकांक्षाओं और वास्तविकता के बीच तालमेल बैठाने में चुनौतियां बनी हुई हैं। विभिन्न क्षेत्रों और आय समूहों में आर्थिक विषमताओं के कारण सभी उपभोक्ता प्रीमियम स्थिरता या नैतिक उत्पादों को वहन नहीं कर सकते हैं। नीति निर्माता और व्यवसायों को मिलकर ऐसे उत्पादों को सस्ती कीमतों पर उपलब्ध कराने के लिए सहयोग करना चाहिए। स्थिर उत्पादन विधियों को बढ़ावा देना, आयात पर निर्भरता कम करना और स्थानीय निर्माण को बढ़ावा देना लागत को कम करने में मदद कर सकता है।सरकारी पहल जैसे स्थिरता व्यवसायों के लिए कर लाभ और जन जागरूकता अभियान भी उत्पादकों और उपभोक्ताओं दोनों को जिम्मेदार प्रथाओं को अपनाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

एक और चुनौती भारत में उपभोक्ताओं की पसंद और प्राथमिकताओं की विविधता को संबोधित करने में है। ग्रामीण और शहरी उपभोक्ता अक्सर अलग-अलग दृष्टिकोण और मूल्यों का प्रदर्शन करते हैं। जबकि शहरी उपभोक्ता तकनीकी और नवाचार को प्राथमिकता देते हैं, ग्रामीण बाजार अधिकतर किफायती और उपयोगिता पर जोर देते हैं। डेटा एनालिटिक्स व्यवसायों को इन विभिन्नताओं की पहचान करने में मदद कर सकता है, जिससे वे प्रत्येक खंड के लिए अनुकूलित रणनीतियाँ डिज़ाइन कर सकें। उदाहरण स्वरूप, ग्रामीण उत्पादों के लिए किफायती कीमतों पर पर्यावरणीय पैकेजिंग पेश करना या ग्रामीण उपभोक्ताओं के लिए डिजिटल साक्षरता कार्यक्रम बनाना बाजार की पहुंच को बढ़ा सकता है, साथ ही विशिष्ट जरूरतों को भी पूरा कर सकता है।

भारत की सांस्कृतिक समृद्धि उपभोक्ता मूल्यों को आकार देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पारंपरिक त्यौहार, रीति-रिवाज और समुदाय केंद्रित जीवनशैली खरीद निर्णयों को प्रभावित करती हैं। जो ब्रैंड इन सांस्कृतिक कथाओं के साथ मेल खाते हैं, वे उपभोक्ताओं के साथ गहरे संबंध बना सकते हैं। उदाहरण के लिए, त्यौहारों के दौरान पर्यावरणीय चेतना को बढ़ावा देना या त्योहारों के मौसम में स्थानीय कारीगरी को बढ़ावा देना सार्थक संबंध बना सकता है। साथ ही, कंपनियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे सांस्कृतिक गलतियां न करें, इसके लिए उन्हें स्थानीय समुदायों और विशेषज्ञों के साथ जुड़कर मार्केटिंग कैंपेंस की रचना करनी चाहिए।

नवाचार उपभोक्ताओं के बदलते दृष्टिकोणों को संबोधित करने के लिए एक प्रभावशाली उपकरण बना हुआ है। ब्लॉकचेन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी प्रौद्योगिकियां पारदर्शिता और दक्षता बढ़ाने की अपार क्षमता प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिए, ब्लॉकचेन उत्पादों के स्रोत का पता लगा सकता है, जिससे उपभोक्ताओं को नैतिक रूप से स्रोत प्राप्त और स्थिर प्रथाओं के बारे में सत्यापित जानकारी मिल सकती है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस उपभोक्ता व्यवहार का विश्लेषण करके पेशकशों को व्यक्तिगत बना सकता है, जिससे प्रासंगिकता सुनिश्चित होती है, जबकि गोपनीयता बनी रहती है। ये उन्नति व्यवसायों को प्रतिस्पर्धी बाजार में आगे रहने में मदद कर सकती हैं, जबकि उपभोक्ताओं की बढ़ती जिम्मेदारी की मांग को पूरा करती हैं।

भारत में, स्थिरता, डिजिटलीकरण, स्वास्थ्य और नैतिक विचार उपभोक्ताओं के दृष्टिकोण और मूल्यों को आकार देते रहेंगे। जैसे-जैसे ये बदलाव स्पष्ट होते जाएंगे, व्यवसायों को लचीला और प्रतिक्रियाशील बने रहना चाहिए, और इन बदलती प्राथमिकताओं के साथ मेल खाने वाली रणनीतियां बनानी चाहिए। सरकार, निजी क्षेत्र और उपभोक्ताओं के बीच सहयोग चुनौतियों को पार करने और एक ऐसे बाजार को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण होगा जो आधुनिक भारतीय समाज की आकांक्षाओं से मेल खाता हो।

इन रुझानों को पहचानकर और व्यावहारिक समाधान लागू करके, व्यवसाय न केवल आर्थिक सफलता के लिए बल्कि सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन के उत्प्रेरक के रूप में अपनी स्थिति बना सकते हैं, और एक ऐसा भविष्य बना सकते हैं जहां उपभोक्ता मूल्य स्थिर और नैतिक प्रथाओं के साथ मेल खाते हों, जिससे एक स्वस्थ और अधिक समान दुनिया में योगदान हो सके।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

 

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रिज़र्व बैंक हर दो महीने में मॉनिटरी पॉलिसी कमेटी की मीटिंग करता है। इस कमेटी में 6 मेंबर होते हैं। तीन रिज़र्व बैंक के और तीन सरकार की तरफ़ से। रिज़र्व बैंक के गवर्नर चेयरमैन होते हैं।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 09 December, 2024
Last Modified:
Monday, 09 December, 2024
milindkhandekar

मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

हिसाब किताब में पिछले हफ़्ते लिखा था कि महंगाई के कारण मंदी आ रही है। रिज़र्व बैंक ने भी अब इस बात पर मुहर लगा दी है। रिज़र्व बैंक ने कहा है कि महंगाई के कारण शहरों में लोग सामान ख़रीद नहीं पा रहे हैं। खपत कम हो रही है, इसलिए ग्रोथ कम हो रही है। फिर भी अर्थव्यवस्था में तेज़ी में लाने का इलाज यानी रेट कट अभी बैंक नहीं कर रहा है। महंगाई कम होने का इंतज़ार है, इसलिए रेट कट फ़रवरी तक होने की संभावना है। कुछ जानकार तो अप्रैल की तारीख़ दे रहे हैं।  

रिज़र्व बैंक हर दो महीने में मॉनिटरी पॉलिसी कमेटी की मीटिंग करता है। इस कमेटी में 6 मेंबर होते हैं। तीन रिज़र्व बैंक के और तीन सरकार की तरफ़ से। रिज़र्व बैंक के गवर्नर चेयरमैन होते हैं। टाई होने पर उनके वोट से फ़ैसला होता है। कमेटी तय करती है कि ब्याज दर घटाना है या बढ़ाना। इसका काम है कि ग्रोथ भी होती रहे और महंगाई क़ाबू में रहे। केंद्र सरकार और रिज़र्व बैंक के बीच 2016 में समझौता हुआ है उसके अनुसार महंगाई की दर 4% रहना चाहिए।

2% ऊपर नीचे जा सकती है। यह समझौता 2026 तक है। लगातार नौ महीने तक महंगाई दर इस बैंड से बाहर जाने पर रिज़र्व बैंक को सरकार को लिखित जवाब देना होता है। 2022 में ऐसा हो चुका है जब महंगाई की दर 6% से ज़्यादा रही। अभी अक्टूबर में भी यह दर 6% से ज़्यादा रही है। नवंबर का डेटा इस हफ़्ते आएगा।

पिछले हफ़्ते कमेटी की मीटिंग के बाद रिज़र्व बैंक ने माना कि उसका अनुमान गड़बड़ा गया है। इस वित्त वर्ष में महंगाई अनुमान से ज़्यादा रहेगी और ग्रोथ अनुमान से कम। पहले कहा था कि ग्रोथ 7.2% रहेगी और अब कह रहे हैं 6.6%. महंगाई पहले 4.5% रहने का अनुमान था और अब 4.8%. यही कारण है कि रिज़र्व बैंक ने ग्रोथ बढ़ाने के लिए रेट कट का फ़ैसला टाल दिया। सितंबर की तिमाही में ग्रोथ 5.4% थी। दो साल में सबसे कम ग्रोथ।

इस गणित के गड़बड़ाने का हमारी और आपकी ज़िंदगी पर असर यह होगा कि आमदनी नहीं बढ़ेगी लेकिन खर्चे बढ़ते रहेंगे। इसका असर कंपनियों पर भी पड़ रहा है। लोग ख़र्च नहीं करेंगे तो कंपनियों का माल नहीं बिकेगा। माल नहीं बिकेगा तो प्रॉफिट नहीं बढ़ेगा। इसका असर शेयरों की क़ीमत पर भी पड़ेगा जैसे हमने कंपनियों के ताज़ा रिज़ल्ट के बाद देखा है।

 इसमें से निकलने के दो रास्ते हैं। एक तो सरकार अपने ख़र्चे बढ़ाए ताकि अर्थव्यवस्था का पहिया घूमें। वित्त मंत्री ने कहा कि 2019 में भी चुनाव के कारण सरकार के खर्च पर ब्रेक लग गया था। जीडीपी ग्रोथ कम हुई थी वही इस बार फिर हो रहा है। आगे ग्रोथ ठीक हो जाएगी। दूसरा रास्ता है कि रिज़र्व बैंक ब्याज दरों में कटौती करें। यह रास्ता महंगाई कम होने तक बंद है।

ब्याज दरों में कटौती से महंगाई बढ़ने की आशंका बनी रहती है। कुछ जानकार कह रहे हैं कि रेट कट फ़रवरी में होगा तो कुछ अप्रैल की बात कर रहे हैं। तब तक कुर्सी की पेटी बाँध कर रखिए।

 ( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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सरकार तुम्हारी सिस्टम हमारा का सच: अनंत विजय ?>

प्रधानमंत्री और गृहमंत्री निरंतर पुस्तकालयों और पुस्तकों की महत्ता को रेखांकित कर रहे हैं, लेकिन संस्कृति मंत्रालय के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। सरकार तुम्हारी सिस्टम हमारा।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 09 December, 2024
Last Modified:
Monday, 09 December, 2024
pmmodi

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पुस्तकालयों की महत्ता को रेखांकित किया था। मन की बात कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने कहा कि माना जाता है कि पुस्तकें हमारी सबसे अच्छी दोस्त होती हैं। इस दोस्ती को मजबूत करने के लिए सबसे अच्छी जगह पुस्तकालय है। इस क्रम में उन्होंने चेन्नई से लेकर देश के अन्य हिस्सों में स्थापित पुस्तकालयों का ना केवल उल्लेख किया बल्कि उसको रचनात्मकता के केंद्र के रुप में विकसित करने पर बल भी दिया।

इसी क्रम में प्रधानमंत्री ने बिहार के गोपालगंज के प्रयोग पुस्तकालय की भी चर्चा की। इस पुस्तकालय की चर्चा से आसपास के जिलों में उत्सुकता का वातावरण बना है। प्रयोग पुस्तकालय जिले के 12 गावों के युवाओं को पढ़ने की सुविधा उपलब्ध करवा रहा है। प्रधानमंत्री ने पुस्तकालयों को ज्ञान के केंद्र में रूप में भी रेखांकित किया और लोगों को पुस्तकों से दोस्ती करने का आह्वान भी किया।

उनका मानना है कि पुस्तकों से दोस्ती करने पर आपकी जिंदगी बदल सकती है। इसके पहले अपने गुजरात के अपने लोकसभा चुनाव क्षेत्र गांधीनगर के एक कार्यक्रम में गृहमंत्री अमित शाह ने भी पुस्तकालयों को समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए महत्वपूर्ण बताया। उन्होंने पुस्तकालयों के प्रभारियों के साथ एक बैठक भी की। अमित शाह ने कहा कि देश के भविष्य को संवारने में पुस्तकालयों की बड़ी भूमिका है।

गृहमंत्री ने अपने लोकसभा क्षेत्र के सभी पुस्तकालों को दो -दो लाख रुपए देने की भी घोषणा की। उन्होंने पुस्तकालयों को आधुनिक बनाने पर बल देते हुए कहा कि तकनीक के उपयोग को बढ़ाकर व्यक्तिगत रुचियों के आधार पर पुस्तकें उपलब्ध करवाई जा सकती हैं। अमित शाह ने प्राचीन ग्रंथों को आनलाइन उपलब्ध करवाने का भी आग्रह किया। इसके पहले राष्ट्रपति ने भी पुस्तकालयों को लेकर अपनी अपेक्षा जाहिर की थी।

प्रधानमंत्री ने 24 नवंबर 2024 को मन की बात कार्यक्रम में पुस्तकालयों पर अपनी राय रखी और अगले ही दिन यानि 25 नवंबर को संस्कृति मंत्रालय ने अपने एक आदेश के जरिए कोलकाता स्थित राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में एक प्रभारी को मुक्त करके दूसरे प्रभारी की नियुक्ति का आदेश जारी कर दिया। नेशनल लाइब्रेरी के महानिदेशक ए पी सिंह को राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन का छह महीने या नियमित नियुक्ति जो भी पहले हो, तक प्रभार दे दिया गया।

ये आदेश संस्कृति मंत्री के अनुमोदन के बाद जारी किया गया। 24 नवंबर को प्रधानमंत्री का लाइब्रेरी पर बोलना और 25 नवंबर को राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के महानिदेशक के प्रबार संबंधित आदेश जारी होना एक संयोग हो सकता है, लेकिन संयोग सुखद है। फिर वही प्रश्न कि प्रभारियों के जरिए सांस्कृतिक संस्थाओं का काम कब तक चलता रहेगा। पता नहीं कब से राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के महानिदेशक पर नियमित अधिकारी नहीं हैं। राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन देश में पुस्तकालयों की नोडल संस्था है।

उसका ये हाल है तो प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की पुस्तकालयों को लेकर देखे जा रहे स्वप्न का क्या होगा इसका सहज अंदाज लगाया जा सकता है। प्रभारी तो बस संस्था को चलायमान रख सकते हैं। उनसे किसी नवाचार, किसी नए प्रकल्प की आशा व्यर्थ है। उनका प्राथमिक दायित्व तो अपनी मूल संस्था के प्रति होता है। पुस्तकालयों की नोडल संस्था में नियमित महानिदेशक का नहीं होना संस्कृति मंत्रालय के क्रियाकलापों पर बड़े प्रश्न खड़े करता है।

राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन को लेकर संस्कृति मंत्रालय कितनी गंभीर है इसको इस घटना से भी समझा जा सकता है। राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के सदस्यों की एक बैठक करीब दो वर्ष बाद 25 सितंबर 2024 को हुई। नवनियुक्त सदस्यों की ये पहली बैठक थी। इस बैठक में पिछले वर्ष के निर्णयों का अनुमोदन होना था। फाउंडेशन पुस्तकों की खरीद भी करता है। इस बैठक में पुस्तकों की सूची अनुमोदन के लिए आई तो कुछ सदस्यों ने उसपर आपत्ति जताई। संस्कृति मंत्री इस बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे।

उन्होंने इस मसले को देखने का आश्वासन दिया। आश्वासन तो इस बात का भी दिया गया था कि पुस्तकों की सरकारी खरीद के नियमों को पारदर्शी बनाया जाए। मजे की बात ये रही कि बैठक को दो महीने से अधिक समय बीत गया लेकिन इसका मिनट्स अबतक सदस्यों के पास नहीं पहुंचा है। जब मिनट्स ही नहीं बना तो बैठक में लिए गए निर्णयों का क्या हुआ होगा, इसकी जानकारी की अपेक्षा तो व्यर्थ ही है।

दरअसल फिल्म द कश्मीर फाइल्स का वो संवाद बेहद सटीक है, सरकार भले ही तुम्हारी है लेकिन सिस्टम तो हमारा ही चलता है। भारतीय जनता पार्टी की सरकार भले ही 11 वर्षों से चल रही है लेकिन सिस्टम में बहुत बदलाव आ गया हो ऐसा प्रतीत नहीं होता।

सिस्टम के नहीं बदलने का ही एक और उदाहरण है। कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (सीएसआर) के नियमों में सख्ती। बताया जा रहा है कि सख्ती के बाद कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम सीएसआर के अंतर्गत नहीं आ सकता। अगर कोई शास्त्रीय गायन या नृत्य के कार्यक्रम का आयोजन करता है तो उसको सीएसआर के अंतर्गत नहीं माना जाएगा। पहले साहित्य, कला और संस्कृति के आयोजन इस योजना के अंतर्गत आते थे। अब साहित्य को लेकर नियम इतने कड़े कर दिए गए हैं कि किसी कार्यक्रम में पुस्तकों का वितरण बेहद कठिन हो गया है। कल्पना कीजिए कि समाज के पढ़े लिखे लोगों के बीच एक पुस्तक चर्चा रखी गई।

लेखक से पुस्तक पर चर्चा करने के बाद आमंत्रित सदस्यों को उनकी पुस्तक भेंट की जाती थी। पहले ये पूरा कार्यक्रम सीएसआर के अंतर्गत आता था और खर्चे की औपचारिकताएं बिल आदि जमा कर पूरी कर ली जाती थीं। अब ये कर दिया गया है कि जो भी किसी वस्तु का एंड यूजर होगा यानि कि जिसको भी आयोजक संस्था की ओर पुस्तक भेंट की जाएगी उसका नाम और फोन नंबर आयोजक को संबंधित सरकारी विभाग के पास जमा करना होगा। सायकिल वितरण में तो इस तरह का प्रविधान उचित है लेकिन साहित्यिक कार्यक्रमों में पुस्तक वितरण में ये बाधा है।

स्कूलों में पुस्तक वितरण में तो ये दायित्व स्कूल उठा लेते हैं। ये सहजता के साथ संपन्न हो जाता है, लेकिन आयोजनों में एक किताब गिफ्ट देने पर फार्म भरवाना कठिन सा होता है। ये व्यावहारिक दिक्कतें हैं। पिछले 10 वर्षों में अधिक पुस्तकें तो भारतीय विचार और विचारधारा की प्रकाशित हो रही हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके कार्यों पर प्रकाशित हो रही हैं।

प्रश्न ये उठता है कि क्या ईकोसिस्टम भारतीय विचार के पुस्तकों के पाठकों तक पहुंच में नियमों के जरिए बाधा खड़ी कर रहा है। सीएसआर के नियमों में पुस्तकों को लेकर उदारता बरतनी चाहिए। नियम बनाने वालों को इस दिशा में काम करना चाहिए ताकि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के सोच को और विजन को अमली जामा पहनाया जा सके।

लोगों और पुस्तकालयों तक पुस्तकें पहुंचे इसके लिए आवश्यक है कि संस्कृति मंत्रालय पुस्तकालयों की नोडल संस्था राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन को सक्रिय करे। प्रतिवर्ष नए और उच्च स्तर की पुस्तकें खरीद कर पुस्तकालयों में भेजी जाएं। संस्थाओं को प्रभारियों से मुक्त करके नियमित नियुक्ति की जाए ताकि जो भी व्यक्ति वहां नियुक्त हो उसकी प्राथमिकता में पुस्तकालयों की बेहतरी हो।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )  साभार - दैनिक जागरण।

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महाराष्ट्र के बाद भाजपा की सबसे बड़ी परीक्षा दिल्ली में: समीर चौगांवकर ?>

विधानसभा चुनाव में केजरीवाल के सामने चारो खाने चित्त होने वाली भाजपा इस बार क्या बेहद शर्मनाक हार का क्रम तोड़कर जीत का स्वाद चखेगी या फिर हार का स्वाद भाजपा का इंतजार कर रहा है?

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 09 December, 2024
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Monday, 09 December, 2024
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समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार।

भारतीय जनता पार्टी के लिए कामयाबी के दरवाजे खोलने में नाकामी से बढ़कर कुछ भी मदद नहीं करती और कांग्रेस के लिए उसकी कामयाबी ही आगे जाकर उसे नाकाम कर देती है। पांच महीने पहले लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र मे भाजपा की बुरी हार के आधार पर विधानसभा चुनाव में भी भाजपा के हार की भविष्यवाणी कर दी गई थी। महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी इस सुखदाई भुलावे में था कि लोकसभा चुनाव में 48 में से 31 सीटों पर उसकी निर्णायक जीत, जिसमें 153 विधानसभा सीटें आती है, राज्य के विधानसभा चुनाव में अपने आप बहुमत दिला देगी।

लेकिन लोकसभा में बुरी तरह हारी भाजपा ने विधानसभा चुनाव में पासा पलट दिया। लोकसभा चुनाव में सबक ले चुकी भाजपा ने चतुराई से खेल खेला।  विचारधारा और व्यवहारवाद में गुथी भाजपा की दोहरी रणनीति महाराष्ट्र में पुष्पित पल्लवित हुई। महाराष्ट्र का चुनाव भाजपा के हिंदुत्व का लिटमस टेस्ट था। चुनाव परिणामों ने विपक्ष के सत्ता में वापसी के सपनों को चूर चूर कर दिया और भाजपा के मनोबल को जबरदस्त बढ़ा दिया।

हालांकि झारखंड में इंडिया गठबंधन की जीत से भाजपा के कवच में छेद जरूर हुआ है ,जिसने भाजपा के आक्रामक हिंदुत्व अभियान की हदें दिखा दी है, लेकिन महाराष्ट्र जीतने के राष्ट्रीय प्रभाव और भारत की अर्थव्यवस्था पर उसके भीमकाय असर ने झारखंड की हार को ढक दिया है। 2025 के शुरूआत मे दिल्ली में और 2025 के अंत में बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले है। महाराष्ट्र जीत के बाद भाजपा की सबसे बड़ी परीक्षा दिल्ली में होगी।

लोकसभा चुनाव में केजरीवाल को पटकनी देने वाली और विधानसभा चुनाव में केजरीवाल के सामने चारो खाने चित्त होने वाली भाजपा इस बार क्या बेहद शर्मनाक हार का क्रम तोड़कर जीत का स्वाद चखेगी या फिर हार का स्वाद भाजपा का इंतजार कर रहा है? दिल्ली की लड़ाई इस बार केजरीवाल के लिए मुश्किल हैं। संघ की पैदल सेना अपने काम पर लग चुकी है। महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों से विपक्ष को लगे भूकंप के झटके का कंपन दिल्ली में केजरीवाल को भी लगा है। केजरीवाल का शरीर कपकपा रहा है, दिल्ली के थंड से नहीं, महाराष्ट्र में भाजपा को मिलें हिंदुत्व के प्रचंड जनमत सें।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

 

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अब किसानों के नाम पर फिर राजनीति और सड़क की लड़ाई: आलोक मेहता ?>

किसानों के दिल्ली कूच में वह मरजीवड़ा जत्था है, जो शख्स किसी मकसद के लिए खुद को कुर्बान कर देता है। बताया जाता है कि श्री गुरु तेग बहादुर साहिब ने मरजीवड़ा जत्था (दल) बनाया था।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 09 December, 2024
Last Modified:
Monday, 09 December, 2024
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आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

कांग्रेस सहित कई राजनैतिक पार्टियां किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी, मुआवजे , मुफ्त बिजली इत्यादि की मांगों को लेकर नया तूफान खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। किसानों को उनके खेतों की उपज का उचित मूल्य मिलना निश्चित रूप से जरुरी है लेकिन देश की आवश्यकता के अनुसार अनाज , तिलहन के उत्पादन की प्राथमिकताएं तय होने पर ही सही दाम मिल सकते हैं। इसी तरह भारत के फल, सब्जी का निर्यात करने के लिए सड़क , रेल, हवाई सुविधाओं और आर्थिक संसाधन सरकार और प्राइवेट क्षेत्र को बड़े इंतजाम करने होंगे।

मांगों और अपेक्षाओं की फेहरिस्त लगातार बढ़ सकती है। एक बार फिर संयुक्त किसान मोर्चा (गैर राजनीतिक) एवं किसान मजदूर मोर्चा के बैनर तले किसानों ने 6 दिसंबर को अपनी मांगों के समर्थन में दिल्ली कूच आंदोलन तेज कर दिया। वे समर्थन मूल्य (एमएसपी) के अलावा, किसान कृषि कर्ज माफी, किसानों और खेत मजदूरों के लिए पेंशन, बिजली दरों में कोई बढ़ोतरी न करने, पुलिस मामलों की वापसी और 2021 लखीमपुर खीरी हिंसा के पीड़ितों के लिए ‘न्याय’ की मांग कर रहे हैं।

भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 की बहाली और 2020-21 में पिछले आंदोलन के दौरान मारे गए किसानों के परिवारों को मुआवजा देना भी उनकी मांगें हैं।
इस बार किसानों के दिल्ली कूच में वह मरजीवड़ा जत्था है, जो शख्स किसी मकसद के लिए खुद को कुर्बान कर देता है। बताया जाता है कि श्री गुरु तेग बहादुर साहिब ने मरजीवड़ा जत्था (दल) बनाया था और इसमें भाई मतीदास, सतीदास और भाई दयाला को भी शामिल किया था। मतलब राजनीति के साथ धार्मिक भावना जोड़ दी है।

101 किसानों का यह जत्था निहत्थे और पैदल ही चलेगा। जत्थे में शामिल किसानों से सहमति फॉर्म भी भरवाया गया है। किसानों का जो आंदोलन हो रहा है, उसके पीछे संयुक्त किसान मोर्चा और किसान मजदूर मोर्चा है। किसान 26 अक्टूबर को सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और समय पर धान खरीद सहित अपनी कई मांगों पर दबाव डालने के लिए संगरूर जिले के बदरुखा में बड़ी संख्या में जुटे हुए थे। शंभू बॉर्डर पर किसान नेता सरवन सिंह पंधेर ने कहा कि मोर्चे को चलते 297 दिन हो गए है और खनौरी बॉर्डर पर आमरण अनशन 11वें दिन में प्रवेश कर गया।

शंभु बॉर्डर पर किसान करीब 300 दिनों से धरने पर बैठे हुए हैं। दूसरी तरफ संसद में कांग्रेस और अन्य प्रतिपक्षी दल हमलावर हुए हैं। संगरूर के खनौरी बॉर्डर पर किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाला ने किसानों की मांगों को लेकर उपराष्ट्रपति धनखड़ को चिट्ठी भी लिखी। इस पर श्री धनकड़ इतने भावुक और उत्तेजित हो गए कि मुंबई में भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् के शताब्दी समारोह में कृषि मंत्री शिवराज सिंह को कहने लगे, एक-एक पल आपका भारी है। कृपया करके मुझे बताइये कि किसानों से क्या वादा किया गया था? उनसे किया गया वादा क्यों नहीं निभाया गया? वादा निभाने के लिए हम क्या कर रहे हैं?

गत वर्ष भी आंदोलन था, इस वर्ष भी आंदोलन हो रहा है. कालचक्र घूम रहा है, हम कुछ कर नहीं रहे हैं। पहली बार मैंने भारत को बदलते हुए देखा है। पहली बार मैं महसूस कर रहा हूं कि विकसित भारत हमारा सपना नहीं लक्ष्य है। दुनिया में भारत कभी इतनी बुलंदी पर नहीं था। जब ऐसा हो रहा है तो मेरा किसान परेशान और पीड़ित क्यों है? किसान अकेला है जो असहाय है। उप राष्ट्रपति ने अपने पद का उल्लेख करते हुए शिवराज सिंह चौहान पर सवालों की बौछार कर दी। बाद में शायद उन्हें इस रुख का अहसास हुआ या ध्यान दिलाया गया कि सरकार दो दिन पहले भी संसद में विस्तार से बता चुकी है कि सरकार कितना लाभ और फसल का अधिकाधिक मूल्य किसानों को दे रही है।

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राज्यसभा में कहा कि सभी कृषि उपज को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदा जाएगा, यह मोदी सरकार की गारंटी है। कृषि राज्य मंत्री भागीरथ चौधरी ने कहा कि सरकार किसानों के साथ बातचीत के लिए तैयार है। बातचीत के दरवाजे उनके लिए खुले हैं। किसानों के साथ अभी तक संपर्क नहीं हो पाया है। प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले 10 साल में किसान कल्याण के लिए कई बड़े फैसले किए हैं। शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि ढाई गुना और 3 गुना एमएसपी बढ़ाया है तो नरेंद्र मोदी जी की सरकार ने बढ़ाया है और जब उधर (विपक्ष) की सरकार थी तो ये खरीदते नहीं थे। केवल एमएसपी घोषित करते थे। इन्होंने दलहन की खरीदी 6 लाख 29 हजार मीट्रिक टन की थी।

पिछले साल करीब 250 मिलियन क्विंटल निर्यात से करीब 776 मिलियन डॉलर की आमदनी भारत को हुई है लेकिन असली समस्या किसानों के नेतृत्व की है। चौधरी चरण सिंह या चौधरी देवीलाल के किसान नेता होने पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगा पाया। हम, जैसे पत्रकार तो उनके उपप्रधान मंत्री रहते हुए सरकारी बंगले में गाय भैंस रखे जाने की खबर बना देते थे। जार्ज फर्नांडीज या मधु लिमये या दत्तोपंत ठेंगड़ी किसी भी राज्य में मजदूरों के लिए उनके साथ आंदोलन करने , जेल जाने लाठियां खाने में आगे रहते थे।

नम्बूदरीपाद ,ज्योति बसु या भूपेश गुप्त और हरकिशनसिंह सुरजीत सही अर्थों में कम्युनिस्ट विचारों और कार्यकर्ताओं के बल पर प्रभावशाली रहते थे। ऐसे सभी नेताओं को किराये पर भीड़ जुटाने की जरुरत नहीं होती थी। इस पृष्ठभूमि में सवाल उठता है कि गरीब किसान और मजदूरों का नेतृत्व क्या कोई एक या दो नेता इस समय बताया जा सकता है। देश भर में पार्टियों, जातियों ,देशी विदेशी चंदे से चलने वाले संगठनों के अनेकानेक नेता हैं।

तभी तो भारत सरकार दो महीने से किसानों के दावेदार नेताओं कई बैठक कर चुकी है और आज भी बातचीत को तैयार है। सिंधु बॉर्डर पर पुलिस से थोड़े टकराव के बाद प्रर्दशनकारी नेताओं ने तात्कालिक स्थगन कहकर बातचीत के लिए सहमति अवश्य दिखाई है ,लेकिन मांगों की लम्बी सूची होने के कारण क्या जल्दी समझौता संभव होगा या राजनीतिक दांव पेंच चलते रहेंगे?

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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सुखबीर बादल पर हमला गंभीर जुर्म है, पाप है: रजत शर्मा ?>

सुखबीर बादल पर हमले की जितनी निंदा की जाए, वह कम है। दरबार साहिब में, भगवान के घर में, सेवा करते व्यक्ति पर गोली चलाना गंभीर जुर्म है, पाप है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Saturday, 07 December, 2024
Last Modified:
Saturday, 07 December, 2024
rajatsharma

रजत शर्मा, चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ (इंडिया टीवी)।।

अमृतसर में एक बड़ी अनहोनी टल गई। पंजाब के पूर्व डिप्टी सीएम सुखबीर बादल को जान से मारने की कोशिश हुई लेकिन सुरक्षा कर्मियों की मुस्तैदी की वजह से बादल बाल-बाल बच गए। सुखबीर बादल श्री अकाल तख्त साहिब के हुक्म के मुताबिक स्वर्ण मंदिर के द्वार पर चौकीदारी कर रहे थे।

चूंकि बादल के पैर में फ्रैक्चर है, इसलिए वह व्हीलचेयर पर बैठकर दरबान की ड्यूटी दे रहे थे। इसी दौरान एक शख़्स श्रद्धालु के भेष में स्वर्ण मंदिर के गेट पर आया। वह सुखबीर बादल के क़रीब पहुंचा और उसने पिस्तौल निकालकर गोली चलाने की कोशिश की  लेकिन सादे लिबास में तैनात एक सुरक्षकर्मी ASI जसबीर सिंह  हमलावर को पिस्तौल निकालते हुए देखते ही उस पर टूट पड़ा। सुरक्षाकर्मियों ने हमलावर को वहीं दबोच लिया।

नारायण सिंह चौड़ा, गुरदासपुर ज़िले के डेरा बाबा नानक का रहने वाला है। उसके खालिस्तानी संगठनों से पुराने रिश्ते रहे हैं। नारायण सिंह चौड़ा खालिस्तान लिबरेशन फोर्स और अकाल फेडरेशन के साथ जुड़ा हुआ था।

सुखबीर बादल पर हमले की जितनी निंदा की जाए, वह कम है। दरबार साहिब में,  भगवान के घर में, सेवा करते व्यक्ति पर गोली चलाना गंभीर जुर्म है, पाप है। हमला करने वाले ने सिर्फ इस बात का फायदा उठाया कि दरबार साहिब की मर्यादा के मुताबिक वहां जाने वालों की चेकिंग नहीं की जाती। अगर सुखबीर के सिक्योरिटी वाले सावधान न होते, तो एक बड़ी दुर्घटना हो सकती थी।

जहां तक इस मामले में राजनीति का सवाल है, यह तो अपेक्षित था कि अकाली दल के नेता सीएम भगवंत सिंह मान को दोषी ठहराएंगे और कांग्रेस पर भी आरोप लगाएंगे। कांग्रेस से भी यही उम्मीद थी कि वो पंजाब सरकार को जिम्मेदार बताएगी। लेकिन अकाली दल के नेता विक्रमजीत सिंह मजीठिया ने इस हमले के पीछे कांग्रेस का हाथ बताया और कहा कि हमलावर कांग्रेस सांसद सुखजिंदर सिंह रंधावा का करीबी है। बीजेपी ने इस घटना के पीछे खालिस्तानियों का हाथ बताया।

अब जिम्मेदारी पंजाब पुलिस की है कि वह इस मामले की तह तक जाए, अपराधी के पीछे कौन है इसका पता लगाए और जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती, तब तक बाकी पार्टियां इधर-उधर की बयानबाज़ी न करें तो बेहतर होगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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बांग्लादेश के बहाने कट्टरपंथ पर जरूरी बात: नीरज बधवार ?>

1971 में वजूद में आने से पहले बांग्लादेश में आज़ादी का पूरा संघर्ष चल रहा था उस वक्त पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में 30 लाख हत्याएं करवाई थी।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Wednesday, 04 December, 2024
Last Modified:
Wednesday, 04 December, 2024
neerajbadhwar

नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

बांग्लादेश में 5 अगस्त को शेख हसीना के तख्तापलट के बाद से वहां पर हिंदुओं के खिलाफ लगातार हिंसा हो रही है। मोहम्मद यूनुस सरकार के 100 दिन पूरे होने पर ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल बांग्लादेश ने एक रिपोर्ट जारी करके बताया था कि यूनुस के सत्ता में आने के बाद बांग्लादेश मे हिंदुओं पर अब तक डेढ़ हज़ार से ज्यादा हमले हुए हैं। दो दर्जन से ज़्यादा हिंदू धार्मिक स्थलों या उनके कार्यक्रमों में हिंसा हुई है। महिलाओं के साथ ज़्यादती हुई है। एक दर्जन के करीब हिंदुओं की इस हिंसा में मौत भी हुई है।

बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा का लंबा इतिहास रहा है। 71 में वजूद में आने से पहले बांग्लादेश में आज़ादी का पूरा संघर्ष चल रहा था उस वक्त पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में 30 लाख हत्याएं करवाई थी तब भी मरने वालों में ज़्यादातर हिंदू थे।

अमेरिका सांसद एडवर्ड कैनेडी ने 1971 में अमेरिकी संसद में एक रिपोर्ट पेश की थी। उस रिपोर्ट में उन्होंने बताया कि 71 से पहले पूर्वी पाकिस्तान में हुई हिंसा में मरने वाले लोगों में सबसे ज़्यादा वहां के हिंदू थे। आज़ादी के आंदोलन को दबाने के लिए हिंदुओं की हत्याएं की गईं, उनके दुकानों को जलाया गया, उनके घर लूटे गए। हिंदुओं के घरों की पहचान हो सके इसके लिए हिंदू घरों के बाहर बाकायदा H लिखा गया ताकि भीड़ उन घरों में आग लगा सके। 71 में हुई इसी हिंसा पर Gary Bass नाम के लेखक की 2014 में एक किताब आई थी जिसका नाम था The Blood Telegram और डिटेल में जानना है तो ये किताब पढ़ सकते हैं।

हैरानी है कि आज हम जब 71 की बात करते हैं तो इस बात के लिए ताली पीटते हैं कि देखिए कैसे भारत की मदद से बांग्लादेश बन पाया या हमने उस वक्त पाकिस्तान के 90 हज़ार सैनिक बंदी बना लिए थे। मगर इस बात की चर्चा भारत में कोई नहीं करता कि बांग्लादेश बनने से पहले पाकिस्तानी फौजों ने पूर्वी पाकिस्तानी में लाखों हिंदुओं को मार डाला था।

बांग्लादेश बनने के बाद भी वहां रह रहे हिंदुओं के लिए हालात बदले नहीं। जिन शेख मुजीबुर्रहमान ने बांग्लादेश को संविधान में सेक्युलर राष्ट्र बनाया था, उन्हीं मुजीबुर्रहमान की 15 अगस्त 1975 में हत्या कर दी गई। बांग्लादेश के संविधान से सेक्युलर की जगह इस्लामिक राष्ट्र शब्द डाल दिया गया। बाद के सालों में हिंदुओं पर लगातार हमले होते रहे।

2001 में खालिदा जिया की सरकार बनने के बाद उनके समर्थकों ने systematic ढंग से हिंदुओं के खिलाफ हिंसा छेड़ दी। ये हिंसा पूरे 150 दिनों तक चली। हिंदुओं के खिलाफ 18 हज़ार से ज़्यादा अपराध किए गए। एक हज़ार हिंदू औरतों के साथ गलत काम हुआ। उस हिंसा के बाद एक साथ 5 लाख हिंदू बांग्लादेश छोड़कर भारत आ गए। इस सबके चलते इन सालों में बांग्लादेश में 12 लाख हिंदू घरों को या यूं कहें कि 44 परसेंट हिंदुओं को अपनी 20 लाख एकड़ ज़मीन गंवानी पड़ी है।

आज बांग्लादेश में जो हो रहा है उसे चाहे कुछ लोग इतना हल्का बताने की कोशिश करें, उसे चाहे किसी भी चाशनी में लपेटकर उसकी क्रूरता को कम आंकने की कोशिश करें मगर सीधी सी बात ये है कि जब भी आप मज़हब की बुनियाद पर किसी को खुद के कम आंकने की कोशिश करें, उसके धार्मिक विश्वासों को पाप मानें, उसे कंवर्ट करने को पुण्य मानें तो आप उसके वजूद को स्वीकार कर ही नहीं सकते। उल्टा वो आपको दूध में गिरी उस मक्खी की तरह लगेगा जिसे जब तक निकालकर बाहर न फेंक दिया जाए, तब तक आप दूध नहीं पी पाएंगे। और ये बात बिना अपवाद के बांग्लादेश से लेकर पाकिस्तान, कश्मीर, अफगानिस्तान हर जगह सही लगती है। और जैसा कि तारिक फतेह ने कहा था कि पूर्व की तरफ के कुछ मुस्लिम देश जैसे इंडोनेशिया और मलेशिया अगर आज भी कुछ हद तक अपने व्यवहार में सेक्युलर हैं तो इसकी वजह ये है कि वो अपनी बौद्ध और हिंदू अतीत से कटे नहीं है।

मगर समस्या ये है कि अगर कोई कट्टरपंथी मुस्लिम समाज सिर्फ गैर मुस्लिमों को वहां से हटा देने पर भी खुशहाल बनता हो, तो भी ये समझा जा सकता था कि ये प्रयोग कम से कम मुस्लिम समाज के लिए तो बुरा नहीं है। मगर दिक्कत, यहां ख़त्म नहीं होती बल्कि यहां से शुरू होती है।

मेरा मानना है कि किसी भी व्यक्ति या समाज में अगर जीवन को लेकर ही नकार है तो वो समाज अपनी ऊर्जा सिर्फ विधवंसक कामों में ही खपा सकता है। अगर आपको मज़हबी विश्वास आपको ज़्यादातर चीजों को हराम बताने पर मजबूर करते हैं तो फिर आप उस ऊर्जा का क्या करेंगे, जो ईश्वर ने आपको दी है। खुद को पाक और दूसरों को नीच मानते हुए आप सिर्फ और सिर्फ नफरत से भरते जाएंगे और यहां-वहां मार-काट करते फिरेंगे।

पाकिस्तान की तरह जब हिंदू और सिखों को मार चुके होंगे तो फिर शियाओं, अहमदियों, मुहाजिरों, पठानों, सिंधियों और बंगाली मुसमलानों पर ज़ुल्म करने शुरू कर देंगे।

अब्दुस सलाम का उदाहरण

1979 में पाकिस्तान के प्रोफेसर अब्दुस सलाम को जब भौतिकी का नोबेल मिला तो वो पाकिस्तान ही नहीं, पूरी दुनिया में नोबेल पाने वाले पहले मुस्लिम थे। मगर उनका कसूर बस ये था कि वो अहमदिया समुदाय से आते थे। पाकिस्तान ने 1974 में कानून बनाकर अहमदिया मुसलमानों को गैर मुस्लिम घोषित कर दिया था। जैसे-जैसे अब्दुस सलाम के अहमदिया होने की बात सामने आई तो पाकिस्तानी समाज ने उनका बहिष्कार शुरू कर दिया।

उन्हें 1979 में नोबेल मिला लेकिन पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जिया उल हक ने उन्हें एक साल बाद तब सम्मानित किया जब पूरी दुनिया में उनका काफी नाम हो चुका था। संसद के बंद दरवाज़ों में ये सम्मान दिया गया जहां किसी पत्रकार को जाने की इजाज़त नहीं थी। पाकिस्तान के विश्वविद्यालयों ने उन्हें बुलाना बंद कर दिया था, क्योंकि जमात-ए-इस्लामी ने खुलेआम ऐलान कर रखा था कि उन पर हमला किया जाएगा। यहां तक कि मरने के बाद भी कट्टरपंथियों ने उन्हें नहीं छोड़ा और उनकी कब्र पर लिखे परिचय में से ‘मुसमलान’ शब्द मिटा दिया। इस टॉपिक पर पाकिस्तानी के बेहतरीन जर्नलिस्ट syed muzammil shah ने कुछ टाइम पहले अपने यूट्यबू चैनल पर एक वीडियो बनाया था आप चाहें तो वहां डिटेल्ड स्टोरी देख सकते हैं।

क्या पूरी दुनिया में कोई कौम अपने ही एक नागरिक के साथ उसके धर्म भी नहीं, उसके सेक्ट की वजह से ऐसा भेदभाव कर सकती है? और कोई मुल्क जब अपने नोबेल पुरस्कार विजेता के साथ ऐसा सुलूक करता है, तो वो अपनी तकदीर खुद अपने हाथों से लिख लेता है। वो बता देता है कि उसके लिए उसके नागरिकों की बड़ी से बडी वैज्ञानिक उपलब्धि मायने नहीं रखती बल्कि उसका फेथ मायने रखता है।

भारत में शाहरुख खान, ए आर रहमान, मोहम्मद रफी जैसे कलाकार इतने मकबूल सिर्फ इसलिए नहीं हुए क्योंकि वो सिर्फ काबिल थे…वो इसलिए इतने मकबूल हुए क्योंकि जिस जनता के दम पर एक कलाकार इतना बड़ा कलाकार बनता है उस जनता ने उन्हें पसंद करने से पहले ये नहीं देखा कि उनका मज़हब क्या है। और ऐसा न करके भारत के समाज ने भी इन कलाकारों पर एहसान नहीं किया। हकीकत तो ये है कि जब भी कोई समाज ऐसा करता है तो वो खुद ही हर तरह के नागरिकों के हुनर से खुद को समृद्ध होेने का मौका देता है।
अब आप कट्टरपंथी से पूछें तो वो कहेगा कि मुझे इन बातों से कोई लेना देना नहीं…मुझे तो बस अपने दीन को फैलाना है…दुनिया के हर हिस्से पर अपनी हुकूमत कायम करनी है…मगर ऐसा सोचकर भी वो गलती करता है।

पाकिस्तान के वरिष्ठ लेखक हसन निसार साहब ने एक दफा कहा था कि पाकिस्तान ने भारत के साथ जो चार जंगे लड़ीं, खासतौर पर शुरू की तीन जंगे…वो सब पाकिस्तानी फौज ने शुरू की,क्योंकि उन्हें ये लगता था कि एक मुसलमान अकेला चार-चार हिंदू बनियों को नीचे लगा देगा….मगर पाकिस्तानी फौज ये भूल गई कि 1970 में लड़ाई कोई 1150 वाले तरीके से नहीं लड़ी जा रही थी…आज लड़ाई होती है तो विज्ञान लडता है न कि इंसान हाथ से लड़ाई करता है।

विज्ञान और कट्टरता का द्वंद

और यही आज के कट्टरपंथी की सबसे बड़ी समस्या है। अगर आपको मज़हबी कट्टरता के दम पर अपना मज़हब फैलाना भी है, दुनिया के सभी Non Believers को उनकी जगह से हटाना भी है तो आपके पास आर्थिक ताकत होनी चाहिए…बड़े-बड़े हथियार होने चाहिए। अब ये पैसा और हथियार उसी वैज्ञानिक समझ से बनेंगे जिसकी आप कद्र नहीं करते। क्योंकि विज्ञान के रास्ते पर चलने का मतलब है कि हर चीज़ पर सवाल पैदा करना…बिना प्रमाण के चीज़ों को न मानना और Irony ये है कि जैसे ही वैज्ञानिक सोच पर चलने लगते हैं, तो आपका दिमाग सबसे पहला सवाल आपके ही मज़हबी विश्वासों पर उठाता है। दिमाग जैसे ही ऐसा करता है तो कट्टरपंथी घबराकर खुद विज्ञान से खुद को अलग कर लेता है। कुछ-एक अपवादों को छोड़कर वैज्ञानिक सोच से जुड़ा शख्स हर तरह के धार्मिक पूर्वग्रहों से दूर हो जाता है।

चारों तरफ से मुस्लिम देशों से घिरा इज़राइल आज आठ-आठ देशों पर क्यों भारी पड़ता है क्योंकि उसने उस वैज्ञानिक सोच को ऐसा अपनाया जैसा दुनियाभर में कोई क्या ही अपनाएगा…यही वजह है कि आज सिलिकॉन वैली से बाद सबसे ज़्यादा स्टार्टअप अकेले तेलअवीव में है…एक करोड के करीब आबादी वाले इज़राइल की अर्थव्यवस्था 550 अरब डॉलर की है….वो सेमीकंडक्टर से लेकर, सॉफ्टवेयर, साइबर सुरक्षा तकनीक, मेडिकल उपकरण, डिफेंस टेक्नोलॉजी, एग्रीटेक, केमिकल्स, फर्टिलाइजर, सोलर और रिन्यूएबल एनर्जी तक सब बेचता है। और तो और दुनिया के सबसे बड़े हीरा कटिंग और पॉलिशिंग सेंटर भी इज़राइल में ही हैं।

उसने अपने एजुकेशन सिस्टम के थ्रू ये तकनीकी विकास किया। उस तकनीकी विकास के थ्रू उसने ऐसे प्रोडक्ट तैयार किए जो दुनिया के काम के थे। उन्हीं को बेचकर उसने पैसे कमाए। बाद में उसी पैसे को उसी तकनीकी विकास में लगाकर और विकास किया। आज अपना मज़हबी या राजनीतिक एजेंडा भी तो तब लागू कर पाओगे जब आप आर्थिक तौर पर ताकतवर होंगे।

दुबई से क्या सीखें?

जिस ‘इस्लामिक दुबई’ की हमारे यहां कुछ लोग बडी दुहाई देते हैं कि देखो उन्होने भी तो तरक्की की है…भाई उनकी तरक्की भी उस मज़हबी कट्टरता पर चलकर नहीं हुई बल्कि उससे समझौता करके हुई है।

उसे बेशक संयोग से तेल मिला मगर वहां की हुकूमत को जल्द ही ये बात समझ आ गई कि ये तेल तो ज़्यादा दिन नहीं रहेगा इसलिए उसने दुबई को टूरिस्ट और बिज़नेस डेस्टिनेशन के तौर पर डेवलप करना शुरू कर दिया। उसे पता था कि ऐसा करने के लिए हमें इस्लामिक तौर तरीकों से समझौता करके लोगों को छूट देनी होगी तभी बाहरी लोग यहां काम करने आएँगे। घूमने-फिरने आएँगे। निवेश के लिए आएंगे।

और आज आज देखिए, दुबई ने हर फील्ड में क्या चमत्कार किया है। आपने वक्त की नज़ाकत को समझा, अपनी ढिठाई छोड़ी तो दुनिया ने भी खुले दिल से आपका स्वागत किया। जो बात दुबई को तीस साल पहले समझ आई थी। वही बात सऊदी अरब को अब समझ आ रही है। और देर-सवेर जहां भी पैसा आएगा। लोगों से डर निकलेगा तो उन्हें यही बात समझ में आएगी कि दुनिया अपने मज़हबी विश्वासों को दूसरों पर थोपने से नहीं चलती। दुनिया सबको साथ लेने पर चलती है।

2020 में हुए सर्वे के हिसाब से ईरान में सख्त कानूनों के बावजूद 40 परसेंट ईरानी खुद को Non Religious मानते हैं, ट्यूनिशिया में 30 परसेंट से ज़्यादा मुस्लिम, तुर्की में 11 परसेंट और सऊदी जैसे कट्टर इस्लामी देश में भी 5 परसेंट लोग खुद को अधार्मिक मानते हैं। इसके अलावा मोरक्को और अल्जीरिया में भी बड़े पैमाने पर युवा लोग खुद को सेक्युलर या Non Religious मानते हैं।

अफगानिस्तान का हश्र

मुझे याद है तीन साल पहले जब अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों ने जाने का ऐलान किया था तो भारत में बहुत सारे लोगों ने इसको सेलिब्रेट किया था। इसे तालिबान और मुसमलानों की जीत के तौर पर देखा गया। कहा गया कि इन तालिबानियों ने पहले रूसियों को भगाया और अब अमेरिकियों को।
लेकिन 2021 के बाद अफगानिस्तान में लोगों के साथ क्या हुआ…संगीत पर रोक, बच्चियों के स्कूल जाने पर, बिना मर्द के घर से निकलने पर रोक, औरतों के काम पर रोक...2022 तक तालिबानियों को अफीम की खेती करके देश चलाना पड़ रहा था…क्या शरिया कानून लागू होने के बाद ये वो आदर्श समाज था जिसमें लोग रहना चाह रहे थे। कोई जानकार मुझे बताएगा कि कौनसे शरिया सम्मत समाज में अफीम की खेती से पैसा कमाना हलाल है?

अगर ये वो आदर्श समाज है तो फिर क्यों भारत-पाकिस्तान से लोग दुबई भागना चाहते हैं…मैंने तो कभी नहीं सुना कि इस आदर्श शरिया सम्मत समाज में जाकर बसने के लिए कोई भारत से अफगानिस्तान जाकर बस गया हो?
हम किसको बेवकूफ बना रहे हैं और बड़ा सवाल ये है कि कब तक बनाते रहेंगे…ईश्वर ने जब तक आपको जो ये जीवन दिया है आप उसको स्वीकार नहीं करेंगे…जब तक आप ये पता नहीं लगाएंगे कि मैं ऐसा क्या कर सकता हूं कि अपने और दूसरों के जीवन को बेहतर बना पाऊं तब तक आप यूं ही नफरत में उलझे रहेंगे।

हम क्या दे सकते हैं?

मैंने पहले भी कहा था एक बार फिर कह रहा हूं कि दुनिया आपको इस बात के लिए याद नहीं रखती कि आपने दिन में कितनी बार नमाज़ पढ़ी या कितनी बार मंदिर गए…दुनिया आपको सिर्फ इसलिए याद रखेगी कि आप उनकी ज़िंदगी में क्या वैल्यू एडिशन कर पाए…

शाहरुख भले ही मूर्ति पूजक होकर एक आदर्श मुसलमान न रह गए हों लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि वे एशिया के सबसे बड़े मुस्लिम आइकन हैं। हो सकता है कोई मौलाना शबाना आज़मी को नाचने-गाने वाली कहकर उनकी तौहीन करता हो लेकिन इसमें क्या दो राय है कि वे हिंदुस्तानी सिनेमा की सबसे बेहतरीन एक्ट्रेस हैं। और ये भी सच है कि जब आपको आपके काम की वजह से जाना जाता है तो आपका ही समाज सबसे पहले आप पर, आपके धर्म पर दावेदारी ठोकने आ जाता है। ठीक उन रिश्तेदारों की तरह जो सारी उम्र आपके परिवार की बुराई करते रहे हों लेकिन आपके कामयाब होने पर अपने दोस्तों में बड़ी ऐंठ से बताते हो कि ये मेरा भतीजा है!

मगर दिक्कत ये है कि पूरा पाकिस्तान जो शाहरुख खान के मुसलमान होने पर फक्र करता है क्या वो शाहरुख की तरह अपने घर पर अपनी हिन्दू बीवी को देवी-देवताओं की पूजा करने देगा, अपनी हिन्दू बीवी को शादी के बाद उसका धर्म मानने देगा…अपने बच्चों के नाम आर्यन और सुहाना रखने देगा…कभी नहीं…और यही शाहरुख को पसंद करने का विरोधाभास है…मतलब इन लोगों को उसकी मुस्लिम पहचान पर गर्व तो करना है, उसकी उपलब्धियों को एक मुसलमान की उपलब्धि मानकर उस पर खुश भी होना है मगर शाहरुख जिस तरीके का मुसलमान है वैसा मुसलमान नहीं होना है।

शेन वार्न के एक मित्र ने एक बार कहा था कि वार्न ने आज तक जितने विकेट लिए हैं, उससे ज़्यादा उसने महिलाओं के साथ सम्बन्ध बनाए हैं। वार्न थे भी ऐसे ही...उन्होंने कभी छिपाया भी नहीं। ईसाइयत में शादीशुदा होने के बाद दूसरी महिला से सम्बन्ध बनाना बहुत बड़ा पाप भी है। लेकिन क्या इससे बतौर गेंदबाज़ वार्न की महानता कम हो गई? बिल्कुल नहीं। वो विश्व इतिहास के सबसे महानतम स्पिनर रहेंगे ही रहेंगे। क्योंकि वो अपनी फील्ड के सबसे बड़े contributor हैं और उनके इसी Contribution की वजह से दुनिया और ऑस्ट्रेलिया उन्हें याद रखेगा, फिर चाहे धर्म गुरू उन्हें मान्यता दें या न दें। फिर चाहे शुद्धतावादी उन्हें आदर्श मानें या नहीं!

अध्यात्म की खोज में भारत आए स्टीव जॉब्स वापिस अमेरिका क्यों चले गए थे...जॉब्स ने बताया था कि एक वक्त आया जब मैंने महसूस किया कि दुनिया में बहुत सी अच्छी बातें, अच्छे विचार कहे जा चुके हैं...बहुत से लोगों ने ईश्वर को अनुभव किया है...मगर दुनिया को और अच्छे विचारों की नहीं, अच्छी चीज़ों की ज़रूरत है....ऐसे योगदान की ज़रूरत है जिससे मैं लोगों की ज़िंदगी को बेहतर बना सकूं...यही वो विचार था जिसने जॉब्स को अपनी ‘आध्यात्मिक यात्रा’ बीच में छोड़कर ‘असल ज़िंदगी’ में कुछ करने के लिए प्रेरित किया… यही जॉब्स आगे चलकर दुनिया के सबसे बेहतरीन आविष्कारक बने...जिन्होंने हमें Apple जैसे बेहतरीन प्रॉडक्ट दिए और अपने उसी जीवन दर्शन को एपल का हर प्रोडक्ट बनाने में ध्यान रखा...जैसे अध्यात्म हमें अपने अलावा दूसरों के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करता है उसी तरह जॉब्स ने हर कदम पर User Experience को ध्यान रखा!

दुनिया की सबसे ताकतवर टीम ऑस्ट्रेलिया विराट कोहली की इसलिए इज्ज़त नहीं करती कि उसके इंस्टाग्राम पर ढाई सौ मिलियन फॉलोअर्स हैं या हज़ार करोड़ रुपए का मालिक वो इसलिए इज्ज़त करते हैं कि पिछले दस सालो में उसने अकेले ने ऑस्ट्रेलिया में इतनी हंड्रेड लगाई हैं जितनी कोई एक टीम भी मिलकर नहीं लगा पाई। भारत की भी इसलिए इज्ज़त नहीं हो रही कि बीसीसीआई दुनिया की सबसे बड़ी लीग चलाती है वो इसलिए हमें इज्ज़त दे रहे हैं क्योंकि हमने उन्हें छह सालों में इतने टेस्ट हराया है जितना बाकी टीमें मिलकर भी ऑस्ट्रेलिया को ऑस्ट्रेलिया में नहीं हरा पाई।

अपना कर्म ऊंचा करो, आपका धर्म खुद ब खुद ऊंचा हो जाएगा। किसी विधर्मी का होना तुम्हारे वजूद के लिए खतरा नहीं हैं। तुम्हारा खतरा ये न जान पाने में है कि तुम्हारा वजूद किसके लिए है...तुम्हें करना क्या है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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क्या अब पुराने संस्कारों को छोड़ने का वक्त सचमुच आ गया हैं: समीर चौगांवकर ?>

हिंसा, युद्ध, नरसंहार, दमन, यातना व गैर धर्मो के प्रति पूरी तरह अमानवीय होना, धार्मिक राष्ट्र की स्थापना, प्रसार व स्थायित्व के लिए आवश्यक होते हैं। हिंन्दू धर्म में इसे सदैव घृणा से देखा गया।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Wednesday, 04 December, 2024
Last Modified:
Wednesday, 04 December, 2024
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समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार।

अपने आधारभूत रूप में हिन्दू धर्म न एक पुस्तक का धर्म रहा न एक ईश्वर का धर्म रहा। किसी भी धार्मिक राष्ट्र की स्थापना के लिए पहला बुनियादी तत्व है एक पुस्तक और एक ईश्वर पर 'अकम्पित निष्ठा', ईसाई और इस्लामी साम्राज्यों के बनने और विस्तार पाने के पीछे मूल तत्व यही था, जो हिन्दू धर्म में कभी नहीं रहा।

धर्म के प्रसार के लिए विश्वविजय जैसी आकांक्षाए इस धर्म में पूरी तरह अवांछित थी। हिंदू धर्म की उत्कृष्टता उसे आत्मिक ऐकांतिकता की ओर ढकेलती थी जिसका चरम लक्ष्य संसार का त्याग होता था। इसी कारण कई महान राजा सारा राजपाट छोड़कर संन्यासी, महान त्यागी और पूजनीय बनें। हिन्दू धर्म के वाहक भी अपनी आंतरिक बुनावट में वीतरागी व संन्यासी थे। इस जगत की माया से मुक्ति चाहते थे।

जनक से लेकर हर्ष तक यही पंरपरा रही। ऐसे व्यक्ति भारत की भूमि पर जन्में ही नहीं जिन्होंने अपने देश की सीमाएं अपनी सेना के साथ अतिक्रमित की हो, जो देश या धर्म या नस्ल के गौरव, धन या व्यक्तिगत महत्वकांक्षा के कारण किसी देश को जीतना चाहते हों। हिंसा, रक्तपात, युद्ध, नरसंहार, दमन, यातना व गैर धर्मो के प्रति पूरी तरह अमानवीय होना, धार्मिक राष्ट्र की स्थापना, प्रसार व स्थायित्व के लिए आवश्यक होते हैं।

हिंन्दू धर्म में इसे सदैव तिरस्कार, उपेक्षा और घृणा से देखा गया। धर्म और राष्ट्र, हिन्दुओ में दो पृथक व बहुधा समानान्तर सत्ताओं के रूप में ही व्यक्त होते रहे।  ईसाई और इस्लामी साम्राज्यों की तरह, हिंदू राज्यों का कोई निश्चित, घोषित राज्य धर्म नहीं रहा जहॉ राष्ट्रवाद व धर्मयुद्ध एकरूप हो जाते थे। किसी भी शासक ने जनता पर शक्ति से अपना धर्म थोपने की कोशिश नहीं की।

धार्मिक राष्ट्र की अवधारणा हिन्दू संस्कृति व पॉलिटी में सामान्यत उस तरह कभी नहीं रही, जैसे कि ईसाई और इस्लामी दो बड़े धर्मो और साम्राज्यों में रही। ईसाई और इस्लाम में धर्मयुद्धों का लम्बा इतिहास रहा है, जो भारत में सदैव अनुपस्थित रहा है।

कालांतर में हिंदू धर्म की इसी ख़ासियत और ख़ूबसूरती को उसकी कमजोरी के रूप में देखा गया। हिंदू धर्म के त्याग और धेर्य की परीक्षा हर समय होने लगी।  बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों के लिए बड़ा मन दिखाने और सदियों से चली आ रहीं त्याग की परंपराओं का निर्वाह करने की सलाह दी जाने लगीं। संयम, त्याग, धेर्य कि पुरातन आदत को पुरखों के संस्कार बता कर उस पर अडिग रहने को कहा जाता हैं। क्या अब पुराने संस्कारों को छोड़ने का वक्त सचमुच आ गया हैं?

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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IFFI गोवा 2024: दुनियाभर के कहानीकारों का घर ?>

1952 में स्थापित, भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव एशिया के महत्वपूर्ण फिल्म समारोहों में से एक है, जो फिल्म निर्माताओं को अपने काम को प्रस्तुत करने के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 02 December, 2024
Last Modified:
Monday, 02 December, 2024
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डॉ. भुवन लाल, प्रसिद्ध भारतीय लेखक ।।

छह महीने से भी कम समय पहले सिनेमा से संबंधित मीडिया में एक बड़ी घोषणा ने अंतरराष्ट्रीय फिल्म जगत को आश्चर्यचकित कर दिया। भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव को आखिरकार एक नया फेस्टिवल डायरेक्टर मिल गया। यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध भारतीय फिल्म निर्माता और निर्देशक शेखर कपूर थे। एक प्रेरित विकल्प, कपूर चार महाद्वीपों पर काम करने वाले एकमात्र भारतीय फिल्म निर्देशक हैं। उनके अविश्वसनीय काम में आर्टहाउस सिनेमा और कमर्शियल हिंदी फिल्मों से लेकर अंतरराष्ट्रीय सिनेमा और यहां तक कि ऑस्कर-नामांकित फिल्म - एलिजाबेथ तक शामिल है। भारतीय सिनेमा और टेलीविजन में एक अभिनेता के रूप में उनका कार्यकाल, साथ ही एक टीवी शो के होस्ट के रूप में, अच्छी तरह से जाना जाता है। वह 2010 में फेस्टिवल डे कान्स में जूरी के सदस्य भी थे और सिनेमा की दुनिया में उनका बेजोड़ अनुभव है।

1952 में स्थापित, भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव एशिया के सबसे महत्वपूर्ण फिल्म समारोहों में से एक है, जो दुनिया भर के फिल्म निर्माताओं को अपने काम को प्रस्तुत करने के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है। पिछले बीस वर्षों से गोआ में हर साल आयोजित होने वाला IFFI विश्व सिनेमा की बेहतरीन फिल्मों का जश्न मनाने के लिए निर्देशकों, निर्माताओं, अभिनेताओं और फिल्म प्रेमियों को आकर्षित करता है। पूर्णकालिक महोत्सव निदेशक के बिना कुछ वर्षों तक लड़खड़ाने के बाद, हाल के वर्षों में IFFI ने अंतरराष्ट्रीय फिल्म निर्माताओं, भारतीय फिल्म उद्योग और फिल्म प्रेमियों को निराश किया है, जिन्होंने दशकों तक इसका वफ़ादारी से समर्थन किया था। इसमें कोई संदेह नहीं था कि गोआ में आयोजित होने वाला भारत का अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का 55वां संस्करण प्रतिभाशाली फेस्टिवल डायरेक्टर शेखर कपूर की कमान में एक गेम-चेंजर साबित होने वाला था और ऐसा ही हुआ।

गोआ फिल्म महोत्सव भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक और आयोजन मात्र नहीं था, बल्कि एक सुनियोजित और कुशलतापूर्वक निष्पादित शो था, जिसमें वैश्विक मानक महोत्सव की सभी विशेषताएं थीं। सिनेमा में उत्कृष्टता के लिए प्रतिष्ठित सत्यजीत रे लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड गोआ के मुख्यमंत्री डॉ. प्रमोद सावंत द्वारा अनुभवी ऑस्ट्रेलियाई फिल्म निर्माता फिलिप नॉयस को प्रदान किया गया, जो क्लियर एंड प्रेजेंट डेंजर, पैट्रियट गेम्स और साल्ट जैसी फिल्मों के लिए जाने जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय जूरी का नेतृत्व अकादमी पुरस्कार के लिए नामांकित और अत्यधिक सम्मानित भारतीय फिल्म निर्माता आशुतोष गोवारिकर ने किया। इसमें सिंगापुर के जाने-माने लेखक, निर्देशक और निर्माता एंथनी चेन, बाफ्टा पुरस्कार विजेता निर्माता एलिजाबेथ कार्लसन, गोल्डन लेपर्ड विजेता फिल्म निर्माता फ्रैन बोर्गिया और फिल्म संपादक जिल बिलकॉक शामिल थे, जो स्ट्रिक्टली बॉलरूम, रोमियो एंड जूलियट, मौलिन रूज, एलिजाबेथ और रोड टू परडिशन के संपादन के लिए प्रसिद्ध हैं। हॉलीवुड फिल्म निर्माता चक रसेल, जो द मास्क और द स्कॉर्पियन किंग जैसी हॉलीवुड हिट फिल्मों के लिए जाने जाते हैं, ने फिल्म बाजार में शैली फिल्म निर्माण पर एक मास्टरक्लास का आयोजन किया। उन्होंने भारत में काम करने और आमिर खान और शाहरुख खान के साथ सहयोग करने की अपनी इच्छा भी व्यक्त की।

विश्व सिनेमा की कुछ बेहतरीन फिल्मों की स्क्रीनिंग करते हुए, IFFI ने गोआ में होली काउ, टॉक्सिक, वेव्स, शेफर्ड्स, आर्टिकल 370, और आदुजीविथम सहित कई अन्य रत्न प्रस्तुत किए। इस महोत्सव में जीरो से रीस्टार्ट, द मेहता बॉयज, हिसाब बराबर और जब खुली किताब का प्रीमियर भी हुआ। IFFI में एक विशेष कार्यक्रम में, राज कपूर के जीवन और कार्यों को रणबीर कपूर और निर्देशक-संपादक राहुल रवैल द्वारा श्रद्धांजलि के साथ मनाया गया। IFFI ने तेलुगु सिनेमा के दिग्गज अक्किनेनी नागेश्वर राव (ANR) को उनके बेटे नागार्जुन के साथ एक सत्र में श्रद्धांजलि दी। सोनू निगम और शाहिद रफी ने प्रसिद्ध भारतीय गायक मोहम्मद रफी के शताब्दी सत्र में मंच संभाला और एक अविस्मरणीय क्षण में दर्शकों को आनंदित करने के लिए सुभाष घई की कर्ज़ की धुनें गाई ।

IFFI गोआ में भारतीय सिनेमा के जाने-माने नाम मौजूद थे, जिन्होंने फ़िल्में पेश कीं और मास्टरक्लास, कार्यशालाएँ और पैनल आयोजित किए, जिनमें मणि रत्नम, विधु विनोद चोपड़ा, निखिल आडवाणी, बोमन ईरानी, नील नितिन मुकेश, वाणी त्रिपाठी और बॉबी बेदी शामिल थे। गोआ में रमेश सिप्पी की मौजूदगी भी एक आकर्षण थी, जिनकी महान कृति शोले 2025 में 50 साल पूरे करेगी और अगले साल महोत्सव का मुख्य आकर्षण होगी। सबसे सफल भारतीय फ़िल्म निर्माताओं में से एक और जीवित किंवदंती, सुभाष घई महात्मा गांधी पर अपनी लघु फ़िल्म दिखाने के साथ-साथ अपनी क्लासिक फ़िल्म ताल को अंतर्राष्ट्रीय प्रतिनिधियों के सामने पेश करने के लिए गोआ में थे।

ताल 1997 में यूएसए में वैराइटी की शीर्ष 20 में जगह बनाने वाली पहली भारतीय फिल्म थी और सुभाष घई ने खुलासा किया कि उन्होंने ए.आर. रहमान को संगीत रचना के लिए यह कहकर राजी किया था, “मैं यह संगीतमय फिल्म बनाना चाहता हूं और इसका मतलब है कि आप मेरी फिल्म के नायक हैं”। प्रसिद्ध गायिका कविता कृष्णमूर्ति जिन्होंने फिल्म के सुपरहिट गाने गाए, ने याद किया, “मैंने इस तरह से गाने की कोशिश की जो न केवल भारतीय श्रोताओं को बल्कि दुनिया भर के श्रोताओं को पसंद आए।” उस दिन बाद में, बंगाल के माननीय राज्यपाल डॉ. सी.वी. आनंद बोस ने अभिनेता आर. माधवन के साथ मिलकर सुभाष घई की पुस्तक कर्मा चाइल्ड का विमोचन एक कार्यक्रम में किया, जिसमें फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे के पहले पांच बैच एक साथ आए थे।

इससे पहले महोत्सव के पहले दिन गोआ के मुख्यमंत्री डॉ. प्रमोद सावंत ने राष्ट्रीय सार्वजनिक प्रसारक प्रसार भारती के प्लेटफॉर्म ‘वेव्स’ ओवर-द-टॉप (ओटीटी) का शुभारंभ किया। जियो स्टूडियोज और यूट्यूब द्वारा आयोजित फिल्म बाजार 2025 में अभूतपूर्व रूप से रिकॉर्ड भागीदारी रही और सिनेमा व्यवसाय और कंटेंट निर्माण पर पैनल चर्चाएं हुईं। फिल्म बाज़ार का एक मुख्य आकर्षण बिक्री बनाम वितरण पर एक जानकारीपूर्ण ज्ञान श्रृंखला सत्र था जिसमें ग्लोबल गेट, लॉस एंजिल्स के अध्यक्ष विलियम फ़िफ़र, शिलादित्य बोरा, डेनिस रूह और अरनॉड गोडार्ट शामिल थे, जिसका कुशल संचालन कैरी साहनी ने किया था। एक और दिलचस्प पैनल मनोरंजन उद्योग पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के प्रभाव पर था जहाँ अदानी समूह के सीटीओ सुदीप्त भट्टाचार्य ने फिल्म निर्माता महावीर जैन के साथ बात की। IFFI गोआ में ऑस्ट्रेलिया फोकस का देश था और स्क्रीन ऑस्ट्रेलिया, राज्य स्क्रीन आयोगों और ऑस्ट्रेलिया को फिल्मांकन गंतव्य के रूप में बढ़ावा देने वाली एजेंसी ऑसफिल्म के एक मजबूत प्रतिनिधिमंडल के साथ एक बड़ी ऑस्ट्रेलियाई भागीदारी थी। भारतीय उद्योग परिसंघ और भारतीय मोशन पिक्चर प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन ने मंडोवी नदी पर एक नौका पर यादगार कार्यक्रम आयोजित किए।

55वां IFFI वैश्विक सिनेमा का एक रोमांचक उत्सव था, जिसमें दुनिया के सभी कोनों से फिल्मों का एक विविध मिश्रण, विचार-विमर्श, आकर्षक मास्टरक्लास और विशेष स्क्रीनिंग एक साथ लाई गई। IFFI गोआ में 45,000 से अधिक फिल्म प्रेमियों और पेशेवरों के साथ नौ दिनों के सिनेमाई उत्सव के बाद, समापन की रात भारतीय संगीत और नृत्य प्रदर्शनों के एक शानदार मंच प्रदर्शन के साथ महोत्सव का समापन हुआ। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम, दूरदर्शन, सूचना और प्रसारण मंत्रालय और गोआ सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले सैकड़ों लोगों के दल का अथक परिश्रम IFFI गोआ 2024 के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के 55वें संस्करण में स्पष्ट दिखाई दिया। IFFI के कलात्मक निदेशक पंकज सक्सेना, NFDC के प्रबंध निदेशक प्रीतुल कुमार और फिल्म बाजार के नवनियुक्त सलाहकार जेरोम पैलार्ड ने महोत्सव में आने वाले दर्शकों के अनुभव को अनुकूलित किया और IFFI गोआ 2024 और फिल्म बाजार को एक बड़ी सफलता बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने और सीमाओं से परे सिनेमाई कला को बढ़ावा देने का IFFI का मिशन सिर्फ़ गोआ में होने वाला एक वार्षिक कार्यक्रम नहीं है, बल्कि दुनिया भर में साल भर चलने वाली गतिविधि है। इस साल फेस्टिवल डायरेक्टर कपूर ने IFFI गोआ में युवा भारतीय फिल्म जगत को विश्व सिनेमा के जादू में सफलतापूर्वक डुबो दिया है और नवोदित फिल्म निर्माताओं के जुनून को बढ़ावा देने में मदद की है ताकि वे भारतीय सिनेमा को वैश्विक स्तर पर पहचान दिला सकें। दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म और कंटेंट प्रोडक्शन उद्योग अब गोआ में सबसे बड़े सिनेमाई कला महोत्सव का हकदार है। जैसा कि फेस्टिवल डायरेक्टर कपूर ने सही कहा, "एक अत्यधिक ध्रुवीकृत दुनिया में... हमें एक-दूसरे को अपनी कहानियाँ बताने की ज़रूरत है..." IFFI गोआ दुनिया के कहानीकारों के लिए आदर्श घर है।

(डॉ. भुवन लाल सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल और हर दयाल के जीवनी लेखक और विश्व मंच पर भारतीय लेखक हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है)

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क्या बांग्लादेश की यूनुस सरकार जिहादियों से डरती है: रजत शर्मा ?>

ढाका की बैतुल मुकर्रम मस्जिद में जुमे की नमाज़ के बाद, हिफ़ाज़ते इस्लाम संगठन के हज़ारों कार्यकर्ताओं ने इस्कॉन के ख़िलाफ़ मार्च किया। इस्कॉन पर पाबंदी लगाने की मांग की।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 02 December, 2024
Last Modified:
Monday, 02 December, 2024
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ जम कर हिंसा हुई। बांग्लादेश के दूसरे सबसे बड़े शहर चटगांव में इस्लामिक कट्टरपंथियों ने ख़ूब उत्पात मचाया। जुमे की नमाज़ के बाद हिज़्बुत तहरीर, हिफ़ाज़ते इस्लाम और जमाते इस्लामी के कार्यकर्ता चटगांव के हिन्दू बहुल ठाकुरगांव, कोतवाली और टाइगर पास  मुहल्लों में घुस गए।

कट्टरपंथियों ने पहले इस्कॉन के ख़िलाफ़ जमकर नारेबाज़ी की, इसके बाद इस्लामिक संगठनों के कार्यकर्ताओं ने हिंदुओं की दुकानों और घरों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। हिंदुओं के साथ मार-पीट शुरू कर दी। तीन बड़े मंदिरों में तोड़फोड़ की। मौक़े पर पुलिस मौजूद थी लेकिन पुलिस ने कुछ नहीं किया। पुलिस तमाशा देखती रही। इसके बाद जब हालात बेक़ाबू हो गए तो, चटगांव में  फौज को तैनात कर दिया गया।

राजधानी ढाका में इस्कॉन के ख़िलाफ़ प्रदर्शन हुए। ढाका की बैतुल मुकर्रम मस्जिद में जुमे की नमाज़ के बाद, हिफ़ाज़ते इस्लाम संगठन के हज़ारों कार्यकर्ताओं ने इस्कॉन के ख़िलाफ़ मार्च किया। इस्कॉन पर पाबंदी लगाने की मांग की।

प्रदर्शनकारियों ने कहा कि इस्कॉन एक आतंकवादी हिंदू संगठन है, उस पर बैन लगना चाहिए और इस्कॉन के कार्यकर्ताओं को जेल में डाल देना चाहिए। बांग्लादेश सरकार ने इस्कॉन के 17 सदस्यों के बैंक खाते 30 दिन तक फ्रीज़ कर दिए हैं। इनमें इस्कॉन के गिरफ़्तार  चिन्मय दास का भी बैंक खाता है। कोलकाता में इस्कॉन के उपाध्यक्ष राधारमण दास ने कहा कि खाते फ्रीज़ होने से इस्कॉन के सदस्यों के भूखों मरने की नौबत आ जाएगी।

बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार के ख़िलाफ कोलकाता में प्रदर्शन हुए। इंडियन सेक्यूलर फ्रंट के वर्कर्स ने बांग्लादेश के डिप्टी हाई कमिशन के बाहर प्रोटेस्ट किया। इंडियन सेक्यूलर फ्रंट, फुरफुरा शरीफ़ के मौलाना अब्बास सिद्दीक़ी की पार्टी है। विश्व हिंदू परिषद के सदस्यों ने भी बंगाल में प्रदर्शन किया। ब्रिटेन की संसद में कंज़रवेटिव पार्टी के सांसद, बॉब ब्लैकमैन ने सरकार से इस मामले में दख़ल देने की मांग की।

बॉब ब्लैकमैन ने कहा कि इस्कॉन जैसे शांतिप्रिय संगठन को आतंकवादी संगठन बताकर लोगों को मारा जा रहा है, हिन्दुओं पर अत्याचार हो रहा है, उनकी जायदाद लूटी जा रही है।

लोकसभा में विदेश मंत्री जयशंकर ने एक लिखित उत्तर में बताया कि भारत सरकार ने हिन्दुओं की स्थिति पर बांग्लादेश की सरकार से बात की है और हिंदुओं को पूरी सुरक्षा देने को कहा है। जयशंकर ने कहा कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिन्दुओं के जान-माल की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी वहां की अंतरिम सरकार की है और सरकार को उम्मीद है कि बांग्लादेश की सरकार अपनी जिम्मेदारी निभाएगी।

शनिवार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने एक बयान में भारत सरकार से अपील की कि वह बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों को रोकने के लिए विश्व जनमत बनाना शुरू कर दे। होसबाले ने इस्कॉन के गिरफ्तार साधु चिन्मय दास को जेल से तुरंत रिहा करने की मांग की।

ये बात सही है कि बांग्लादेश में हिंदुओं के हालात पर भारत सरकार चिंतित है। गुरुवार को गृह मंत्री अमित शाह, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और विदेश मंत्री एस जयशंकर की बैठक हुई। लेकिन मामला पड़ोसी मुल्क का है। इसलिए सिर्फ डिप्लोमेटिक चैनल्स का सहारा लिया जा सकता है। सिर्फ बांग्लादेश की सरकार पर दबाव बनाया जा सकता है।

समस्या यह है कि बांग्लादेश में मोहम्मद युनूस की अंतरिम सरकार कट्टरपंथियों के दबाव में है, उनसे डरती है।  जिस तरह से हिंसा पर उतारू भीड़ ने शेख हसीना को हटाया, उसके बाद सब भीड़ से डरते हैं। अब सरकार पर नियंत्रण होने के बाद जमात-ए-इस्लामी और हिफाज़त-ए-इस्लाम जैसे संगठन हिंसा पर उतारू हैं। उन्हें न पुलिस का डर है, न फौज का, न ही उन्हें बांग्लादेश की छवि की परवाह है। इसलिए बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे जुल्म को रोकने में वक्त लगेगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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