इस मामले में हिंदी चैनलों को ज्यादा सजग होने की जरूरत है: डॉ. वेद प्रताप वैदिक

जहां तक टीवी चैनलों का प्रश्न है, उनका मुख्य लक्ष्य है, पैसा कमाना। पैसा आता है टीआरपी से। दर्शक संख्या बढ़ाने से! चैनलों को अखबारों के मुकाबले ज्यादा मजबूरी होती है।

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Monday, 30 May, 2022
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डॉ.वेद प्रताप वैदिक, वरिष्ठ पत्रकार।।

जहां तक टीवी चैनलों का प्रश्न है, उनका मुख्य लक्ष्य है, पैसा कमाना। पैसा आता है टीआरपी से। दर्शक संख्या बढ़ाने से! चैनलों को अखबारों के मुकाबले ज्यादा मजबूरी होती है। अखबार कम बिकें तो वे अपना खर्च भी कम कर सकते हैं, लेकिन चैनलों की मुश्किल जरा ज्यादा है। इसलिए चैनल अपनी दर्शक-संख्या बढ़ाने के लिए तरह-तरह के पैंतरे अख्तियार करते हैं। वे किसी भी मुद्दे पर गंभीर बहस चलाने की बजाय पार्टी-प्रवक्ताओं को बुलाकार शाब्दिक दंगल दिखाते हैं। इन दंगलों में उनकी कोशिश होती है कि वे ऐसे लोगों को बुलाएं और उन्हीं को ज्यादा महत्व दें, जो उनके अपने दृष्टिकोण को सबल बनाएं ताकि उन्हें सरकारी संरक्षण मिलने में आसानी हो। दूसरे शब्दों में विज्ञापन ज्यादा मिलें या मालिकों और एंकरों को तरह-तरह की कृपाएं मिलती रहें। मुझे इसका ठोस अनुभव है। मैंने कई चैनलों पर इसलिए हाजिर होना ही बंद कर दिया। ठकुरसुहाती बोलने से ज्यादा अच्छा नहीं बोलना है।

भारत के टीवी चैनलों में एक-दो चैनल अपवाद हैं। शेष सभी चैनल पक्षधरता के शिकार हैं। कुछ नामी-गिरामी लोग एंकर हैं या जोकर हैं, समझ में नहीं आता। उन पर आपराधिक मुकदमे भी चल रहे हैं। ऐसे लोगों के कारण ही टीवी का नया नामकरण अब से 50-60 साल पहले ही हो गया था। जब मैं न्यूयार्क की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा था तो वहां एक महिला से मैंने पूछा, यह बक्सा-जैसा क्या है तो उसने कहा, यह मूरख-बक्सा (इडियट बॉक्स) है। उससे न मैं तब सहमत था और न अब हूं लेकिन फिर भी उनके कथन में थोड़ी-बहुत सच्चाई तो अब भी दिखाई पड़ती है। इस मामले में हिंदी चैनलों को ज्यादा सजग होने की जरूरत है। उन्हें देखने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है।

भारत में जब ये चैनल नए-नए शुरू हुए थे, तब इनके कार्यक्रमों में खबरें, बहस, संगीत, नृत्य आदि कई रोचक चीजें एक साथ हुआ करती थीं। वही पद्धति आज भी अपनाई जाए तो बेहतर होगा। सिर्फ राजनीतिक खबरोंवाले चैनलों ने दर्शकों में टीवी के प्रति ऊब सी पैदा कर दी है।

जहां तक सरकारी हस्तक्षेप या दबाव का सवाल है, वह क्यों नहीं होगा? वह किस पर नहीं होता? नौकरशाहों, पुलिसवालों, अदालतों, पत्रकारों आदि सभी को यह दबाव झेलना पड़ता है। टीवी चैनलों की अर्थव्यवस्था काफी नाजुक होती है और उनका असर व्यापक होता है, इसलिए उन पर सरकारी दबाव ज्यादा पड़ता है। चैनलों के मालिक दबाव के सामने टिकने की कला में पारंगत होते हैं। लेकिन आजकल हिंदी चैनल इतने अधिक निष्पक्ष हो गए हैं कि वे निष्पक्षता से भी निष्पक्ष रहने लगे हैं। जैसे आजकल भारत की विधानपालिका कार्यपालिका के पालने में झूलने की आदी हो गई है, वैसे ही खबरपालिका भी हो गई है। बहुत कम अखबार और पत्रकार ऐसे रह गए हैं, जिनकी नीति में स्पष्टवादिता, निष्पक्षता और निर्भीकता देखने को मिलती है। सरकारों को दोष देने की बजाय हमें अपना दोष-दर्शन और उसका प्रक्षालन करना चाहिए।

सरकार की विज्ञापन-नीति आजकल इतनी अजीब हो गई है कि छोटे अखबार बंद होते जा रहे हैं। बहुत-से पत्रकार घर बैठने को मजबूर हो रहे हैं। आजकल पत्रकारों का हाल भी दिहाड़ी मजदूरों की तरह हो रहा है। वे कब निकाल दिए जाएंगे, उन्हें पता नहीं रहता। पत्रकार यूनियनें भी अशक्त होती जा रही हैं। उन्हें ताकतवर बनाना जरुरी है लेकिन मैं यह भी चाहता हूँ कि ये पत्रकार संगठन अपने सदस्यों की ईमानदारी और निष्पक्षता को भी प्राथमिकता दें। यदि हमारे पत्रकार निष्पक्ष और निर्भीक रहेंगे तो ही हमारा लोकतंत्र सुरक्षित रहेगा।

जहां तक मानहानि कानून का सवाल है, मैं यह मानता हूं कि वह काफी कठोर होना चाहिए। किसी की मानहानि उसकी हत्या से भी अधिक संगीन अपराध है। मानहानि हो जाने पर आदमी को जीते-जी मरना पड़ता है। इसलिए पत्रकारों को प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि वे बिना ठोस प्रमाण के कोई बात नहीं लिखेंगे और यदि लिखेंगे तो उसके लिए कठोरतम सजा भी भुगतने के लिए तैयार रहेंगे। मेरी राय में लोकतंत्र के तीन नहीं, चार स्तंभ हैं। विधानपालिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और खबरपालिका। खबरपालिका यानी पत्रकारिता! यह लोकतंत्र का हृदय है। यदि हृदयगति रुक जाए तो शरीर का जो हश्र होता है, वही पत्रकारिता गति रुकने पर लोकतंत्र का होता है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)

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डोनाल्ड ट्रंप और लोकतंत्र का संकट: समीर चौगांवकर

ट्रम्प को सिर्फ़ डॉलर दिखता है। जेलेंस्की में भी उन्हें परेशान मुल्क का मुखिया नहीं, एक सोने का अंडा देने वाली मुर्गी नजर आ रही है। जेलेंस्की का हलाल होना तय है।

Samachar4media Bureau by
Published - Tuesday, 30 December, 2025
Last Modified:
Tuesday, 30 December, 2025
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समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की रूस के साथ जारी युद्ध और इस समस्या के समाधान के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से फ्लोरिडा में मिले हैं। ट्रम्प किसी समस्या का समाधान नहीं है, बल्कि ख़ुद अमेरिका और दुनिया के लिए भी एक बड़ी समस्या बन गए हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक सनकी शख्स हैं। वह कब क्या करेंगे, वह ख़ुद भी नहीं जानते।

डोनाल्ड ट्रंप को यह बात समझ में नहीं आ रही है कि मनमानी करके और तुगलकी फरमान जारी करके वे अपनी ही नहीं, अमेरिका की भी जगहंसाई करवा रहे हैं। टैरिफ को दुनिया का सबसे खूबसूरत शब्द बताने वाले ट्रंप ने दुनिया को “टैरिफ टेरर” दिया है। ट्रम्प का व्यवहार याद दिला रहा है कि एक आत्ममुग्ध पूंजीवादी जब सर्वोच्च पद पर पहुंच जाता है तो वह किस हद तक तानाशाही भरा सलूक कर सकता है।

‘अमेरिका फर्स्ट’ कहने वाले ट्रंप के रहते-रहते अमेरिका में कई अमेरिका हो गए हैं, जो एक-दूसरे को हैरत से देख रहे हैं और यह सब सिर्फ डोनाल्ड ट्रंप के होने का नतीजा है। प्रश्न यह भी उठता है कि अमेरिकी लोकतंत्र के भीतर किसी सनकी तानाशाह को रोकने के जो तरीक़े थे, वे ट्रंप के मामले में नाकाम क्यों रहे? ट्रंप पहले पूंजीपति नहीं हैं, जिनके भीतर अमेरिका का राष्ट्रपति होने की इच्छा पैदा हुई।

फोर्ड से लेकर कई पैसे वालों ने राष्ट्रपति होने का सपना देखा, लेकिन उनके मामले में लोकतंत्र के चौकीदार कहीं ज़्यादा सतर्क साबित हुए। कई बार अमेरिकी संविधान और चुनाव की प्रक्रिया में संशोधन भी किए गए, मगर इस बार लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की वह छन्नी ठीक से काम नहीं कर सकी और ट्रंप दूसरी बार सत्ता के शिखर पर पहुंच गए।

डोनाल्ड ट्रंप अब अपने विरोधियों को दुश्मन की तरह देखते हैं, स्वतंत्र प्रेस को डराते हैं और तीसरी बार राष्ट्रपति बनने की अपनी सनक के लिए संविधान संशोधन का रास्ता तलाश कर रहे हैं। ट्रंप लोकतंत्र की उन हर संस्थाओं को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं, जो क्षरण रोकने के लिए हैं—अदालतों, ख़ुफ़िया एजेंसियों और एथिक्स ऑफिस तक को। लोकतंत्र के लिए जागरूक अमेरिकी जनता ने कैसे इतिहास में दूसरी बार, एक ऐसे आदमी को राष्ट्रपति चुना है, जिसके पास सार्वजनिक सेवा का कोई अनुभव नहीं है, संवैधानिक अधिकारों को लेकर कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखती, और जिसमें बहुत साफ़ अधिनायकवादी प्रवृतियां हैं।

ट्रम्प राष्ट्रपति ऑफिस को अपनी निजी जायदाद की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं और इसलिए ट्रम्प को लगता है कि अमेरिका का यह सर्वोच्च पद उनकी जायदाद है। लोकतंत्र के नाम पर ही लोकतंत्र को ख़त्म करने का काम ट्रम्प अमेरिका में कर रहे हैं। दुनिया के छोटे देश जो अमेरिका से सुरक्षा पाते थे आज ट्रंप उन्हें ही निगलने का मंसूबा पाल रहे हैं।

ट्रम्प ने अमेरिका का कितना नुक़सान किया है, यह ट्रम्प के जाने के बाद ही अमेरिका को समझ में आएगा। ट्रम्प को सिर्फ़ डॉलर दिखता है। जेलेंस्की में भी उन्हें परेशान मुल्क का मुखिया नहीं, एक सोने का अंडा देने वाली मुर्गी नजर आ रही है। जेलेंस्की का हलाल होना तय है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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रिटेल निवेशक बाजार से क्यों भागे? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

अगले साल ब्रोकरेज हाउस Nifty के 28 हज़ार से 29 हज़ार की रेंज में जाने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। 10-12% रिटर्न मिलने की संभावना है। रिटर्न लार्ज कैप में ज़्यादा होने की संभावना है।

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Published - Monday, 29 December, 2025
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Monday, 29 December, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

साल के आख़िर में छोटी सी खबर पर नज़र पड़ी कि इस साल रिटेल यानी छोटे निवेशकों ने शेयर बाज़ार के सेकेंडरी सेग्मेंट में बिकवाली कर डाली। अब तक शुद्ध बिक्री 8 हज़ार करोड़ रुपये की हुई है। 2020 के बाद से वो लगातार ख़रीदारी कर रहे थे। विदेशी निवेशकों ने पहले ही मुँह मोड़ रखा है। बाज़ार सिर्फ म्यूचुअल फंड SIP के भरोसे चल रहा है। हिसाब-किताब में चर्चा करेंगे कि छोटे निवेशकों का मोहभंग क्यों हो रहा है?

2020 में कोरोनावायरस लॉकडाउन के दौरान रिटेल निवेशकों ने शेयर बाज़ार में डायरेक्ट पैसे लगाने शुरू किए। Zerodha और Groww जैसे ऐप ने इन्वेस्टमेंट आसान कर दिया था। पिछले पाँच साल में पाँच लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा निवेश छोटे निवेशकों ने किया। इस साल यह सिलसिला टूट गया। इसका कारण रहा शेयर बाज़ार में गिरावट। ज़्यादातर निवेशक गिरावट को झेल नहीं पाए। लार्ज कैप और मिड कैप में रिटर्न सिंगल डिजिट में रहा जबकि स्मॉलकैप में तो निगेटिव हो गया। बाज़ार में गिरावट के कारणों की चर्चा हम पहले भी कर चुके हैं। इसके तीन कारण हैं।

पहला, कंपनियों के मुनाफ़े में सुस्ती। दूसरा, शेयरों का महंगा होना और आखिरी कारण है अमेरिकी ट्रेड डील का फँसना। छोटे निवेशकों ने बाज़ार में बने रहने के बजाय मुनाफा कमाकर निकलना बेहतर समझा। शेयर बाज़ार में तीन बड़े खिलाड़ी हैं। पहला विदेशी निवेशक (FII), दूसरे म्यूचुअल फंड जैसे डोमेस्टिक इनवेस्टर्स (DII) और रिटेल निवेशक। इसमें से सिर्फ DII ख़रीददारी कर रहे हैं क्योंकि SIP के ज़रिए उनके पास पैसे आ रहे हैं। इस साल तीन लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा आ चुके हैं। यही पैसा बाज़ार को थामे हुए है। यह पैसा कम हो जाएगा तो बाज़ार मुश्किल में पड़ जाएगा।

अगले साल ब्रोकरेज हाउस Nifty के 28 हज़ार से 29 हज़ार की रेंज में जाने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। ऐसा होने पर 10-12% रिटर्न मिलने की संभावना है। रिटर्न स्मॉल कैप के मुक़ाबले लार्ज कैप में ज़्यादा होने की संभावना है। यही वजह है कि निवेशक शेयर बाज़ार के बजाय सोने-चाँदी पर दाँव लगा रहे हैं। पिछले साल सोने ने 78% जबकि चाँदी ने 144% का ज़बरदस्त रिटर्न दिया है। 2026 में सोने-चाँदी के दाम ऊपर जाने का अनुमान तो है लेकिन रफ़्तार धीमी हो सकती है। रिटर्न 10-20% की रेंज में रहने की उम्मीद है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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अमेरिका में धर्म और परंपरा की वापसी: अनंत विजय

धर्म और संस्कृति पर पूरी दुनिया आग्रही हो रही है। धर्म और परंपरा को प्रगतिशीलता का दुश्मन बतानेवाले इकोसिस्टम को अमेरिका को देखना चाहिए। धर्म, परिवार और बच्चों को लेकर वहां आकर्षण बढ़ा है।

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Published - Monday, 29 December, 2025
Last Modified:
Monday, 29 December, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत जब भी हिंदू धर्म या हिंदू राष्ट्र की बात करते हैं तो विपक्षी दल विशेषकर वामपंथी और उनका इकोसिस्टम उछलने लगता है। वो धर्म को राजनीति से दूर रखने की वकालत करने लग जाते हैं। इसी तरह से जब प्रधानमंत्री मोदी हिंदू धर्म की बात करते हैं या हिंदू या सनातन धर्म के प्रतीकों को रेखांकित करते हैं तो कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल के नेता इसको धर्म और राजनीति का घालमेल बताने लग जाते हैं।

संविधान और उसके अनुच्छेदों को उद्धृत करने लगते हैं। दुनिया के अन्य देशों का उदाहरण देने में प्राणपन से जुट जाते हैं। जहां तक मुझे स्मरण है कि कुछ वर्षों पूर्व जब बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति थे तो एक रिपोर्ट आई थी जिसमें भारत में धार्मिक असहिष्णुता की बात की गई थी। अब तो अमेरिका में भी बदलाव की बयार देखने को मिल रही है। वहां खुल कर ईसाई धर्म की और उसकी रक्षा की विस्तार से बातें की जा रही है।

पिछले दिनों अमेरिका में चार्ली किर्क की फ्रीडम टी शर्ट पहनने वाली एक महिला जेनी को जब सार्वजनिक रूप से प्रताड़ित किया गया तो पूरे अमेरिका में उसके समर्थन की लहर दौड़ गई। देखते देखते जेनी के समर्थन में ढाई लाख डालर से अधिक की क्राउड फंडिंग हो गई। उनका अमेरिका फेस्ट के मंच पर अभिनंदन किया गया। चार्ली किर्क अमेरिका का दक्षिणपंथी राजनीतिक कार्यकर्ता था जो अमेरिकी समाज की परंपराओं को लेकर निरंतर मुखर रहता था। इस वर्ष उनकी हत्या कर दी गई थी। अमेरिका में चार्ली किर्क को परंपरावादी माना जाता था। राष्ट्रपति ट्रंप से उनके करीबी रिश्ते थे।

अभी क्रिसमस बीता है। क्रिसमस के पहले अमेरिका में कमला हैरिस का एक वक्तव्य खूब वायरल हुआ। अमेरिकी राष्ट्रपति की चुनावी रैली में कमला ने कहा था ‘हाउ डेयर यू विश क्रिसमस’। करीब 15 दिनों तक कमला हैरिस के इस वीडियो को चलाकर उनकी आलोचना की गई। प्रतीत होता है कि इसका उद्देश्य कमला हैरिस और उनकी पार्टी को धर्म विरोधी बताने का था।

ऐसा इसलिए भी लगता है कि व्हाइट हाउस ने क्रिसमस के अवसर पर एक्स पर पोस्ट किया, वी आर सेइंग मेरी क्रिसमस अगेन। इसके बाद क्रिसमस ट्री की फोटो और अमेरिका का झंडा लगया गया है। इस पोस्ट में क्रिसमस ट्री के आगे डोनाल्ड ट्रंप की फोटो थी और उनके आफिशियल हैंडल को टैग किया गया। इस पोस्ट को कमला हैरिस के लिए संदेश के तौर पर देखा गया।

इतना ही नहीं डोनाल्ड ट्रंप ने अपने एक्स हैंडल से जो पोस्ट किया वो और भी मारक है- ‘सभी को मेरी क्रिसमस। उन नीच रैडिकल लेफ्ट को भी जो अमेरिका को ध्वस्त करने के हर संभव प्रयास से जुड़े हुए हैं लेकिन बुरी तरह असफल हो रहे हैं। अब हमारी कोई सीमा खुली हुई नहीं है, पुरुष महिलाओं के वस्त्र में नहीं हैं और कानून का पालन करवाने वाली एजेंसियां कमजोर नहीं हैं।

हमारा स्टाक मार्केट रिकार्ड स्तर पर है। महंगाई नहीं है। बीते कल हमारी जीडीपी 4.3 पर थी जो उम्मीद से दो प्वाइंट अधिक है। टैरिफ से खरबों डालर मिले जिससे हम समृद्ध हुए। हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा उच्चतम स्तर पर है। पूरी दुनिया में हमारा सम्मान बढ़ा है। भगवान! अमेरिका पर कृपा बनाए रखें।‘ ट्रंप का ये एक्स पोस्ट पूरी तौर पर राजनीतिक है और क्रिसमस और भगवान को केंद्र में रखकर लिखा गया है। कल्पना कीजिए अगर हमारे देश में प्रधानमंत्री मोदी या राष्ट्रपति इस तरह की पोस्ट लिख दें तो कैसा बवाल मचता।

धर्म के नाम पर अमेरिका में इतना ही नहीं हो रहा है। व्हाइट हाउस ने 26 दिसंबर को राष्ट्रपति ट्रंप का एक वक्तव्य जारी किया जिसमें लिखा है कि आज रात को कमांडर इन चीफ के तौर पर मेरे निर्देश पर संयुक्त राज्य ने आई एस आई एस के नीच आतंकवादियों पर पूरी ताकत के साथ मारक हमला किया। ये वही आतंकवादी हैं जो पिछले कई दिनों से निर्दोष ईसाइयों पर हमला कर रहे हैं और उनकी जान ले रहे हैं।

इस संदेश से ये स्पष्ट है कि पूरी दुनिया में अगर ईसाइयों पर कहीं हमला होगा तो अमेरिका उसमें प्रभावी हस्तक्षेप करेगा। इसकी एक पृष्ठभूमि है। दो नवंबर को ट्रंप ने नाइजीरिया सरकार को चेतावनी दी थी कि अगर वहां की सरकार इस्लामिक आतंकवादियों को ईसाई जनता को मारने से नहीं रोकेगी तो हर तरह के प्रतिबंध लगाए जाएंगे। ट्रंप ने अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार रहने का निर्देश दिया था। अगर नाइजीरिया सरकार अपने देश में निर्दोष और मासूम ईसाइयों की हत्या नहीं रोकती है तो हमलावरों पर उससे अधिक त्वरा से हमला होगा जैसे आतंकवादी वारदात को अंजाम देते हैं।

ये वही दौर था जब ईसाई समुदाय के लोगों ने ट्रंप से नाइजीरिया में ईसाइयों की हत्या को रोकने की मांग की थी। अमेरिका के इस कदम को अगर कूटनीतिक स्तर पर देखा जाए तो जिस तरह से बंग्लादेश में हिंदूओं पर हमले हो रहे हैं वैसे में भारत को हिंदुओं की रक्षा का अधिकार मिलता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष में कुटुंब प्रबोधन की बात कर रहा है। परिवार को जोड़ने और और परिवार की महत्ता पर बल देने का उपक्रम जारी है। इस कार्यक्रम से संघ विरोधियों के पेट में दर्द हो रहा है। कुछ लोग इसको आधुनिक सोच के विपरीत बताने में जुटे हैं। वो व्यक्तिगत अधिकारों और अपना जीवन अपनी मर्जी से जीने के अधिकारों की बात करते हुए संविधान को बीच में लाते हैं।

जबकि संविधान कहीं से भी कुटुंब का विरोधी नहीं है। कुछ दिनों पहले सरसंघचालक मोहन भागवत ने हिंदू दंपति को तीन बच्चा पैदा करने की सलाह दी थी। उस समय इसको लेकर खूब हंगामा हुआ। खुद को प्रगतिशील समझने और घोषित करनेवाले राजनीतिक विश्लेषकों ने मोहन भागवत की आलोचना की थी। अनेक प्रकार के तर्क दिए गए थे जबकि मोहन भागवत ने विशेषज्ञों की राय के आधार पर कहा था कि जिस समुदाय में जन्म दर तीन से कम होते हैं वो विलुप्त हो जाते हैं।

प्रगतिशील और आधुनिकता का दंभ भरनेवालों को अमेरिका को देखना चाहिए। वहां परिवार, शादी, बच्चे की महत्ता पर खूब चर्चा हो रही है। एलान मस्क और अमेरिका के उफराष्ट्रपति जे डी वांस अपने बच्चों के साथ ओवल आफिस में देखे जाते हैं। गर्व से वो परिवार की बात करते हैं। प्रेस सेक्रेट्री कैरोलिन लेविट जब गर्भवती होती है तो इसकी घोषणा होती है।

वहां समलैंगिक अधिकारों या लिवइन का हो हल्ला अब नहीं मच रहा है। अपनी जड़ों की ओर लौटने की बात हो रही है। अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुओं से तीन बच्चा पैदा करने की अपेक्षा कर रहा है तो न तो ये पुरातन सोच है और ना ही आधुनिकता विरोधी। आज वैश्विक स्तर पर अपनी परंपराओं और धर्म से जुड़ने का आग्रह बढ़ा है। इसको जो नहीं समझ पा रहे हैं वो हाशिए पर जा रहे हैं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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साल 2026 में भारत का चेहरा अधिक चमकने का विश्वास: आलोक मेहता

आज का भारत न केवल दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश है, बल्कि एक उभरती वैश्विक शक्ति, एक तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और एक राजनीतिक रूप से सक्रिय लोकतंत्र भी है।

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Published - Monday, 29 December, 2025
Last Modified:
Monday, 29 December, 2025
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आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

सामान्यतः लोग बीते कल, यानी गुजर रहे साल की समीक्षा करते हैं। उससे सबक मिले हैं, लेकिन मुझे हमेशा लगा है कि आगे के रास्ते, चुनौतियों और क्षमताओं पर ध्यान देना चाहिए। 'बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले' इस सिद्धांत पर नए साल के बारे में विचार किया जाए। भारत आज एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। 2026 तक आते-आते यह स्पष्ट होगा कि क्या भारत अपनी तेज़ आर्थिक वृद्धि को सामाजिक संतुलन, राजनीतिक स्थिरता और आंतरिक सुरक्षा के साथ जोड़ पाया है या नहीं।

यदि विकास, लोकतंत्र और सुरक्षा एक-दूसरे के पूरक बनते हैं, तो भारत न केवल अपने नागरिकों के लिए बेहतर भविष्य बना पाएगा, बल्कि 21वीं सदी की वैश्विक व्यवस्था में एक निर्णायक शक्ति के रूप में भी उभरेगा। आज भारत केवल एक विकासशील देश नहीं, बल्कि वैश्विक नीति-निर्माण में सक्रिय भागीदार है। जी-20, क्वाड, ब्रिक्स जैसे संगठनों में वैश्विक दक्षिण की आवाज़ के रूप में भारत की भूमिका बढ़ी है।

आंतरिक सुरक्षा की लड़ाई केवल हथियारों की लड़ाई नहीं है। यह एक सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक पुनर्निर्माण का लक्ष्य भी है। चाहे वह नक्सलवाद हो या कश्मीर में आतंकवाद, दोनों में सफलता केवल हिंसा पर नियंत्रण से नहीं, बल्कि स्थिरता, विकास और बेहतर सामाजिक समावेशन से नापी जाएगी। यही वह आधार है, जिस पर भारत 2026 के लक्ष्य और उससे आगे की यात्रा को मापेगा।

इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में भारत एक ऐसे दौर से गुजर रहा है, जहाँ विकास, राजनीति और राष्ट्रीय सुरक्षा तीनों एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। आज का भारत न केवल दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश है, बल्कि एक उभरती वैश्विक शक्ति, एक तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और एक राजनीतिक रूप से सक्रिय लोकतंत्र भी है। वर्ष 2026 भारत के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह समय सरकार की कई दीर्घकालिक नीतियों, आंतरिक सुरक्षा लक्ष्यों और राजनीतिक रणनीतियों की परीक्षा का वर्ष है।

पिछले एक दशक में भारत की अर्थव्यवस्था ने उल्लेखनीय विस्तार किया है। आज भारत विश्व की शीर्ष पाँच अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है और सरकार का लक्ष्य अगले कुछ वर्षों में इसे तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाना है। बुनियादी ढाँचा, डिजिटल अर्थव्यवस्था, स्टार्ट-अप संस्कृति और घरेलू विनिर्माण (मेक इन इंडिया) इस विकास के प्रमुख स्तंभ रहे हैं।

सड़कें, एक्सप्रेसवे, रेलवे आधुनिकीकरण, बंदरगाह और हवाई अड्डे, इन सबने भारत की आंतरिक कनेक्टिविटी और निवेश आकर्षण को मजबूत किया है। डिजिटल भुगतान प्रणाली, आधार-जनधन-मोबाइल ट्रिनिटी और सरकारी सेवाओं का डिजिटलीकरण भारत की विकास कहानी को अलग पहचान देता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विकसित भारत के लक्ष्य से कहीं डगमगाए नहीं हैं।

आतंकवाद के खिलाफ सख्त रुख, आपूर्ति-श्रृंखला में भरोसेमंद भागीदार की छवि और डिजिटल सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे का मॉडल ये सब भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को मजबूत करते हैं। नक्सलवाद और कश्मीर जैसे मुद्दों पर नियंत्रण भारत को एक स्थिर निवेश गंतव्य और भरोसेमंद शक्ति बनाता है। वैश्विक मंच पर किसी देश की ताकत केवल सैन्य या आर्थिक नहीं होती, बल्कि उसकी आंतरिक एकजुटता और शासन क्षमता से भी तय होती है।

भारत की सुरक्षा नीति में अप्रैल 2025 से दिसंबर 2025 तक नक्सलवाद और कश्मीर में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई देश के आंतरिक सुरक्षा एजेंडा का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा रही है। गृह मंत्री अमित शाह ने लगातार दोहराया है कि 31 मार्च 2026 तक देश को नक्सलवाद से पूरी तरह मुक्त कर दिया जाएगा, जबकि कश्मीर में आतंकवाद को समाप्त करना भी सरकार की प्राथमिकताओं में शुमार है।

इन दोनों बड़ी चुनौतियों का प्रभाव न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा पर है, बल्कि चुनावों, राज्यों की राजनीति और भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा पर भी गहरा असर डालेगा। गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि नक्सलवाद पूरी तरह समाप्त होना चाहिए, ताकि कोई नागरिक नक्सलवाद के कारण अपनी जान न खोए। इस लक्ष्य का ऐलान किसी आकस्मिक घोषणा की तरह नहीं किया गया, बल्कि मोदी सरकार की आंतरिक सुरक्षा रणनीति का हिस्सा बताया गया है, जिसमें सुरक्षा बलों की कड़ी कार्रवाई, स्थानीय समुदायों के साथ संवाद, और विकास के कार्यक्रम शामिल हैं।

आंतरिक सुरक्षा में नक्सलवाद लंबे समय तक सबसे बड़ी चुनौती रहा है। लेकिन हाल के वर्षों में नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या में उल्लेखनीय कमी आई है। सरकार का दावा है कि यह समस्या अब अंतिम चरण में है और 2026 तक इसका निर्णायक समाधान हो सकता है। नक्सलवाद की समस्या कई दशकों से चली आ रही है, विशेषकर पूर्वोत्तर तथा मध्य और दक्षिण भारत के संवेदनशील जंगलों और आदिवासी क्षेत्रों में। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में घटनाओं में कमी देखने को मिली है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के अनुसार, नक्सलवाद प्रभावित जिलों की संख्या 12 से घटकर लगभग 6 तक आ गई है।

कुछ क्षेत्रों में स्थानीय विकास की वजह से नक्सली गतिविधियाँ कमजोर हुई हैं, और कई नक्सली हथियार छोड़ चुके हैं या गिरफ्तार/मार गिराए गए हैं। छत्तीसगढ़, मलकानगिरी (ओडिशा) जैसे पुराने गढ़ों में सुरक्षा बलों ने ठोस प्रभावी अभियान चलाए हैं, जिससे कई शीर्ष नक्सली कमांडर भी ढेर किए गए हैं। 85% से अधिक नक्सलवादी कैडर पहले से बाहर किया जा चुका है और अब अंतिम चरण की कार्रवाई चल रही है।

इससे न केवल हिंसा में कमी आई है, बल्कि स्थानीय समर्थन तोड़ने में भी मदद मिल रही है। कई नक्सली हथियार डालकर लौट आए हैं और स्थानीय सुरक्षा संरचनाओं में शामिल हो रहे हैं, जिससे इलाके में स्थिरता आई है। सुरक्षा बलों की सख्त कार्रवाई के साथ-साथ सड़कों, स्कूलों, स्वास्थ्य केंद्रों और रोजगार योजनाओं ने उन क्षेत्रों में सरकार की उपस्थिति को मजबूत किया है, जहाँ पहले राज्य लगभग अनुपस्थित था। यह बदलाव केवल सैन्य नहीं, बल्कि प्रशासनिक और सामाजिक भी है।

जम्मू-कश्मीर में स्थिति पिछले दशक की तुलना में बदली है। बड़े पैमाने पर पत्थरबाज़ी, हड़तालें और खुले अलगाववादी आंदोलन कमजोर पड़े हैं। पर्यटन, निवेश और बुनियादी ढाँचे में सुधार देखने को मिला है। कश्मीर ने पिछले कई वर्षों में आतंकवाद, अलगाववादी हिंसा और सीमा पार आतंकवाद के साथ संघर्ष किया है। 5 अगस्त 2019 को विशेष राज्य व्यवस्था (अनुच्छेद 370) हटने के बाद से स्थिति में व्यापक बदलाव आया है और सरकार का दावा है कि कश्मीर में आतंकवाद लगभग समाप्ति के करीब है।

'सिंदूर ऑपरेशन' ने सीमा पार से आतंकी घुसपैठ लगभग रोक दी है। इसके अलावा, सुरक्षा बलों ने कई जम्मू-कश्मीर पुलिस तथा सेना संयुक्त अभियानों के तहत आतंकियों को पीछे धकेलने और नेटवर्क को तोड़ने में सफलता हासिल की है, जिनमें कई आतंकवादी खत्म हुए। इन गतिविधियों के बावजूद, सुरक्षा एजेंसियाँ सतर्कता बनाए रखे हुए हैं। सरकार की योजना है कि 2026 तक आतंकी गतिविधियों को न्यूनतम स्तर पर लाया जाए, जिससे पर्यटन, अर्थव्यवस्था और स्थानीय जीवन सामान्य रूप से चल सके।

भारत की प्रगति की कहानी केवल उपलब्धियों की सूची नहीं है; यह संभावनाओं और चुनौतियों का संगम है। आर्थिक विकास को समावेशी बनाना, सुरक्षा को स्थायी शांति में बदलना, राजनीति को संघर्ष से समाधान की ओर ले जाना, लोकतंत्र को मजबूत और संतुलित बनाए रखना—ये कसौटियाँ होंगी, जिन पर भारत की सफलता आँकी जाएगी।

भारत जब नक्सलवाद और कश्मीर आतंकवाद जैसे गहरे आंतरिक सुरक्षा जोखिमों को पार कर लेता है, तो इसका प्रभाव अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी गहरा पड़ेगा। यह भारत को एक सुरक्षित, स्थिर और निवेश के अनुकूल राष्ट्र के रूप में स्थापित करेगा। वैश्विक मंच पर भारत की आंतरिक सुरक्षा क्षमता, आतंकवाद से निपटने की नीति, और रणनीतिक गहनता को उच्च स्थान मिलेगा।

2026 भारत के लिए एक महत्वपूर्ण चुनावी वर्ष भी है। इस साल देश के पाँच राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में विधानसभा चुनाव होंगे जिनमें असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुदुचेरी शामिल हैं। ये चुनाव 2026 के पहले पखवाड़े से मई तक विभिन्न तिथियों में आयोजित होंगे। असम में मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा के नेतृत्व में सत्ता बचाने की तैयारी में है। कांग्रेस गौरव गोगोई जैसे युवा चेहरों के साथ भाजपा को टक्कर देने की योजना पर काम कर रही है।

भाजपा 126 में से 100+ सीटें जीतने का लक्ष्य लेकर तैयारी कर रही है। पार्टी संगठन, युवा-महिला उम्मीदवारों पर जोर दे रही है। असम एक ऐसा राज्य है, जहाँ भाजपा ने पिछले दशक में अपनी पकड़ मजबूत की, लेकिन कांग्रेस और अन्य स्थानीय दल अब फिर से गठबंधन बनाकर चुनौती देने की कोशिश करेंगे। रोजगार और विकास, शरणार्थी/नागरिकता कानून से जुड़ी पुरानी बहसे, स्थानीय पहचान और सामाजिक समीकरण प्रमुख मुद्दे होंगे।

पश्चिम बंगाल का चुनाव हमेशा ही तीव्र राजनीतिक प्रतिस्पर्धा वाला रहा है। पिछले चुनाव में टीएमसी ने बड़ी विजय हासिल की थी, लेकिन भाजपा बंगाल में अपनी जड़ें मजबूत करने की कोशिश में है। अवैध नागरिक, घुसपैठ, भ्रष्टाचार, विकास बनाम पहचान राजनीति, सामाजिक और आर्थिक चुनौतियाँ, स्थानीय प्रशासन की उपलब्धियाँ ये बड़े मुद्दे रह सकते हैं।

केरल की राजनीति में परंपरागत रूप से कम्युनिस्ट वाम मोर्चा और कांग्रेस गठबंधन के बीच कड़ा मुकाबला होता रहा है। वाम मोर्चा तीसरी बार सत्ता में आने का लक्ष्य रखता है जो केरल में प्रचलित वाद-विपक्ष शैली के विपरीत है। कांग्रेस में राहुल-प्रियंका गाँधी की अग्नि परीक्षा भी होगी। वहीं, भारतीय जनता पार्टी इस बार अधिक ताकत और लक्ष्य से मैदान में होगी।

तमिलनाडु में द्रमुक गठबंधन एम.के. स्टालिन के नेतृत्व में सत्ता बचाने में ताकत लगाएगा। अन्नाद्रमुक एडप्पाड़ी के. पलानीस्वामी और पार्टी गठबंधन के साथ मुकाबला करेगी। तमिलनाडु की चुनावी राजनीति में अन्नाद्रमुक और भाजपा मिलकर एनडीए रणनीति को मजबूत कर रहे हैं, खासकर सीटों का बंटवारा करके अपनी ताकत बढ़ाना चाहते हैं। भाजपा की राष्ट्रीय रणनीति 2026 में विशेष रूप से बंगाल, केरल और तमिलनाडु में अपनी पकड़ बढ़ाने की कोशिश पर केंद्रित है। अमित शाह और पार्टी नेतृत्व इन राज्यों को देशव्यापी लोकप्रियता का परीक्षण भूमि मान रहे हैं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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‘धुरंधर’ अच्छी फिल्म, तारीफ़ में क्या बुराई: मीनाक्षी जोशी

क्रेडिट रोल में आदित्य राज कौल का नाम देखना भी अच्छा लगा। समझ नहीं आता कि कुछ लोग इसे साल की सबसे बेहतरीन फ़िल्मों की सूची में शामिल करने से क्यों हिचकते हैं।

Samachar4media Bureau by
Published - Saturday, 27 December, 2025
Last Modified:
Saturday, 27 December, 2025
dhurandhar

मीनाक्षी जोशी, पत्रकार, इंडिया टीवी।

एक अच्छी फ़िल्म की तारीफ़ करने में भला क्या दिक्कत है। मैंने ‘धुरंधर’ देखी और सच कहूँ तो फ़िल्म का क्रेज़ वाकई ज़बरदस्त है। रणवीर सिंह से बेहतर हमज़ा का किरदार शायद कोई निभा ही नहीं सकता था। उनकी सबसे बड़ी खासियत यही है कि पर्दे पर सिर्फ़ किरदार दिखता है, रणवीर सिंह नहीं। रहमान बलोच विलन होने के बावजूद आपको आकर्षित करता है और यह कहने की ज़रूरत नहीं कि ‘शेर-ए-बलोच’ गाने का असर कितना गहरा है।

अक्षय खन्ना हर फ्रेम में कमाल लगते हैं। चाहे संवाद बोलते हुए हों या खामोशी से आंखों के ज़रिये अभिनय करते हुए। संजय दत्त के पर्दे पर आते ही सब छोटे लगने लगते हैं। उनका शरीर, उनका स्वैग बिल्कुल अलग स्तर का है। सफ़ेद पठानी कुर्ते में असॉल्ट राइफल के साथ जैसे ही वे स्क्रीन पर आते हैं, हॉल तालियों और सीटियों से गूंज उठता है। राकेश बेदी का किरदार ऐसा है कि आप उन्हें गाली दिए बिना नहीं रह पाएंगे, लेकिन गाली देते हुए भी हँस रहे होंगे।

“तू मेरा बच्चा है” जैसे संवाद सुनकर एहसास होता है कि राजनीति कितनी चालाक और निर्मम चीज़ है। आर. माधवन और अर्जुन रामपाल जैसे कलाकार फ़िल्म में जान डाल देते हैं और सभी कलाकार ऐसे घुल-मिल जाते हैं जैसे कोई फ़िल्म नहीं बल्कि असली ज़िंदगी चल रही हो। यह तारीफ़ तब भी है जब कई एक्शन सीन में मैं सिर्फ़ मार-काट की आवाज़ें ही सुन पा रही थी।

ब्रूटल सीन को पुराने बॉलीवुड गानों के बैकग्राउंड स्कोर के साथ जिस अंदाज़ में पेश किया गया है, वह देखने लायक है। एक शानदार फ़िल्म देने के लिए आदित्य धर का दिल से शुक्रिया। क्रेडिट रोल में आदित्य राज कौल का नाम देखना भी अच्छा लगा। समझ नहीं आता कि कुछ लोग इसे साल की सबसे बेहतरीन फ़िल्मों की सूची में शामिल करने से क्यों हिचकते हैं।

कोई फ़िल्म यूँ ही 1000 करोड़ से ज़्यादा का कारोबार नहीं कर लेती। यह वाकई कमाल है और हाँ, ट्रोल करने वालों को भी थोड़ा धन्यवाद कहा जा सकता है, क्योंकि उनकी आलोचना ने भी कई लोगों को फ़िल्म देखने के लिए मजबूर कर दिया।

(यह मीनाक्षी जोशी के निजी विचार हैं)

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क्या तारिक रहमान बांग्लादेश में अमन ला पाएंगे: रजत शर्मा

बांग्लादेश के अलग अलग हिस्सों में कट्टरपंथियों का हंगामा जारी है। ढाका में कट्टरपंथियों मे उस्मान हादी के हत्यारों को गिरफ़्तार करने की मांग को लेकर फिर हंगामा किया।

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Published - Saturday, 27 December, 2025
Last Modified:
Saturday, 27 December, 2025
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रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

बांग्लादेश में एक और हिन्दू नौजवान को कट्टरपंथियों ने पीट-पीटकर मार डाला। बांग्लादेश के राजबाड़ी जिले में 29 साल के अमृत मंडल को जिहादियों की भीड़ ने घेर कर बुरी तरह पीटा, उसे इतना मारा कि मौके पर ही उसकी मौत हो गई। इससे पहले मैमनसिंह में दीपू चंद्र दास को सरेआम चौराहे पर जिंदा जला दिया गया था। अमृत मंडल के साथ ये हैवानियत उस वक्त हुई जब 17 साल बाद लंदन से बांग्लादेश लौटे खालिदा जिया के बेटे तारिक रहमान ने कट्टरपंथियों से कानून हाथ में ने लेने की अपील की, सर्वधर्म सम भाव, शान्ति और सद्भाव बनाए रखने की अपील की।

तारिक रहमान के स्वागत में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के लाखों समर्थक ढाका पहुंचे थे। चूंकि पिछले कुछ दिनों से बांग्लादेश में लगातार हिन्दुओं पर हमले हो रहे हैं, हिन्दुओं को डराया-धमकाया जा रहा था, इसलिए तारिक रहमान ने बांग्लादेश पहुंचते ही कहा कि वो सबको साथ लेकर चलना चाहते हैं, बांग्लादेश में कट्टरपंथ नहीं, सभी धर्मों को बराबरी का दर्ज़ा देना चाहते हैं।

तारिक रहमान ने कहा कि बांग्लादेश को अगर तरक्की करनी है तो शान्ति और मेल-जोल जरूरी है। तारिक रहमान की ये बातें महत्वपूर्ण क्यों हैं क्योंकि खालिदा जिया के बेटे के बांग्लादेश आने से मोहम्मद युनूस परेशान हैं।

बांग्लादेश में 12 फरवरी को वोटिंग होनी है। पिछले साल शेख़ हसीना को देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था, वो भारत में हैं। कट्टरपंथियों के दबाव में आकर मोहम्मद युनूस ने हसीना की पार्टी अवामी लीग पर बैन लगा दिया। ख़ालिदा ज़िया अस्सी साल की हो गई हैं, बहुत ज्यादा बीमार हैं, बांग्लादेश में इस समय एक राजनीतिक शून्यता है। सारी जमातें सत्ता पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश में हैं। जमीयत-उलेमा-ए-इस्लाम और ख़ालिदा ज़िया की BNP ने गठबंधन किया है। ख़ालिदा के बेटे तारिक़ रहमान प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे।

तारिक़ रहमान भले ही कट्टरपंथियों से सदभाव की अपील कर रहे हों लेकिन बांग्लादेश के अलग अलग हिस्सों में कट्टरपंथियों का हंगामा जारी है। ढाका में कट्टरपंथियों मे उस्मान हादी के हत्यारों को गिरफ़्तार करने की मांग को लेकर फिर हंगामा किया। पुलिस ने उस्मान हादी के मर्डर केस में हिमोन रहमान सिकदार नाम के एक शख़्स को गिरफ़्तार करने का दावा किया लेकिन बाद में पता ये लगा कि हिमोन सिकदार का उस्मान हादी की हत्या से कोई सीधा ताल्लुक़ नहीं है। हिमोन उस आलमगीर शेख़ का क़रीबी है जो उस्मान हादी पर हमले के वक़्त मोटरसाइकिल चला रहा था।

अवामी लीग के नेताओं ने कहा कि पुलिस सिर्फ खानापूर्ति कर रही है, हकीकत यही है कि हादी के क़त्ल के लिए चीफ़ एडवाइज़र मुहम्मद यूनुस ज़िम्मेदार हैं क्योंकि यूनुस ने सत्ता में आने के बाद जिन आतंकियों और अपराधियों को जेल से छोड़ा था, अब वही अपराधी युनूस के इशारे पर पूरे देश में दंगा कर रहे हैं।

बांग्लादेश में ढाका पुलिस ने अताउर रहमान नाम के आतंकवादी को गिरफ्तार किया। अताउर रहमान ही कट्टरपंथियों को बांग्लादेश में हिंदुओं की हत्या करने के लिए उकसा रहा था। उसकी प्लानिंग बांग्लादेश में बड़ी संख्या में हिन्दुओं की हत्या की थी।

अताउर रहमान मुफ़्ती हारुन अज़हर का चेला है और हारुन अजहर के रिश्ते पाकिस्तान के लश्कर-ए-तैयबा से हैं। बांग्लादेश में एक और हिंदू की हत्या परेशान करने वाली है। इस्लाम के नाम पर बेरहमी से हत्या करने वाले सच्चे मुसलमान नहीं हो सकते और कोई कर भी क्या सकता है?

बांग्लादेश में कट्टरपंथी हावी हैं। मोहम्मद यूनुस की सरकार उनसे मिली हुई है। 17 साल बाद ढाका लौटे तारिक रहमान ने बातें तो अच्छी की हैं, सबको साथ लेकर चलने की बात कही है लेकिन उनकी पार्टी का जमीयत-उलेमा-ए-इस्लाम के साथ गठबंधन है। BNP पहले जमात-ए-इस्लामी के साथ सरकार भी बना चुकी है। ऐसे में तारिक़ रहमान राजनीतिक यथार्थ के सामने अपनी बातों पर कितना टिक पाएंगे।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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भारत से नफ़रत की आग में हिंदू बने आसान निशाना: नीरज बधवार

78 सालों का इतिहास बताता है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश ने अपने ही हिंदुओं को भारत से अपनी नफ़रत की प्यास बुझाने के लिए एक आसान शिकार के तौर पर देखा है।

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Published - Friday, 26 December, 2025
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Friday, 26 December, 2025
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नीरज बधवार, पत्रकार, लेखक।

हमारे घर पर पिछले पाँच सालों से बर्तन सफ़ाई के लिए एक बंगाली मुस्लिम महिला आती हैं। वो बताती तो खुद को पश्चिम बंगाल से हैं, मगर एक दिन उनकी ही किसी बात से ये साफ़ हो गया कि वो बांग्लादेशी हैं और काफी साल पहले भारत आईं थीं। वो काम में अच्छी हैं और मन में ऐसा कभी ख़याल आता भी नहीं कि उसकी इस पहचान (बांग्लादेशी मुस्लिम) के आधार पर उसे हटा दिया जाए।

उसके हसबैंड भी पास की ही एक सोसाइटी में मेंटेनेंस टीम में हैं। दोनों पति-पत्नी छोटे-छोटे काम करके घर चलाते हैं। बावजूद इसके बेटा जामिया में हॉस्टल में रहकर पढ़ता है और इस बात के लिए मम्मी ने हमेशा उनकी तारीफ़ की। अभी दो दिन पहले वो सुबह नहीं आईं, तो मम्मी ने उन्हें कॉल किया। पता लगा कि बीती रात उनके पति की तबीयत अचानक बहुत ज़्यादा खराब हो गई थी और उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा।

उन्होंने बताया कि डॉक्टर जिस सर्जरी के लिए बोल रहे हैं, उसमें एक लाख रुपए से ऊपर का ख़र्चा है। ये बात सुबह दस बजे के आसपास की होगी। बारह बजे पता चला कि जिन घरों में वो काम करती थीं, वहीं से उसे ये सारा पैसा मिल गया है। फिर शाम को उसने सर्जरी के बाद अस्पताल से अपने पति की फ़ोटो भी भेजी। ये सारी बात बताने का मक़सद ये है कि भारत जैसा है, उसने वैसा होने की क़ीमत भी चुकाई है, फिर भी वो वैसा होना छोड़ नहीं पाता।

ऐसा तो नहीं है कि सोसाइटी के जिन लोगों ने उनकी मदद की, वो उसकी पहचान नहीं जानते। ऐसा भी नहीं है कि उन्हें ये नहीं पता कि बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ क्या हो रहा है। बावजूद इसके वो वैसा होना छोड़ नहीं पाते, जैसे वो हैं। लोग अक्सर एक-आध घटना को आगे रखकर उसे देश का असल चरित्र बताने की कोशिश करते हैं। घटना तो एक भी नहीं होनी चाहिए, लेकिन एक-आध या दो-चार घटनाएँ इस देश के चरित्र को डिफ़ाइन नहीं करतीं।

78 सालों का इतिहास बताता है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश ने अपने ही हिंदुओं को भारत से अपनी नफ़रत की प्यास बुझाने के लिए एक आसान शिकार के तौर पर देखा है। शेख़ हसीना का तख़्तापलट हुआ, तो हिंदुओं पर एक साल में ढाई हज़ार हमले कर दिए गए। कश्मीर में भारत-विरोधी आंदोलन हुए, तो वहाँ सबसे पहले कश्मीरी पंडितों को भारत का एजेंट बोलकर भगाया गया।

91 के दौर में जब भारत में राम मंदिर आंदोलन चल रहा था, तो उसके विरोध में पाकिस्तान में सरकारी देख-रेख में वहाँ दर्जनों मंदिर गिरा दिए गए। ये सारे उदाहरण बताते हैं कि भारत से अपनी नफ़रत में पाकिस्तान से लेकर बांग्लादेश और कश्मीर तक जिहादियों ने स्थानीय हिंदुओं को सिर्फ़ उनके हिंदू होने की वजह से टारगेट किया, बिना इसकी परवाह किए कि वो भी तो उसी ज़मीन के वासी हैं।

जैसे कश्मीर के लिए अक्सर मैं कहता हूँ कि कश्मीर में हुई हिंसा अगर कश्मीर की आज़ादी की लड़ाई थी, तो वहाँ के पंडित क्या कश्मीरी नहीं थे? ये कौन-सी आज़ादी थी, जो कश्मीरी मुसलमानों को बिना कश्मीरी पंडितों के चाहिए थी? अब ऐसा तो नहीं है कि भारत में खुद को हिंदू मानने वाला हर आदमी संयम और शांति की प्रतिमूर्ति है। अगर एक हमले के बाद ऑस्ट्रेलिया जैसे देश का मीडिया इस्लामिक आतंकियों के लिए Bastard शब्द इस्तेमाल कर देता है।

अगर यूरोप में इसी कट्टरपंथी इस्लामिक सोच से परेशान होकर वहाँ इस्लाम को लेकर हर तरह की बेहूदा बात की जा रही है, यूरोपीय देशों में इस्लाम को बैन करने की बात की जा रही है, तो ऐसा कैसे हो सकता है कि उसी कट्टरपंथी इस्लाम से परेशान होकर कोई भी प्रतिक्रिया नहीं होगी। राजनीतिक तौर पर तो वो प्रतिक्रिया साफ़ दिखती है, लेकिन आपसी व्यवहार में अभी भी हमारे समाज का व्यवहार अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर ज़्यादा है, न कि धार्मिक पहचान के आधार पर।

अगर कश्मीर से आए एक मुस्लिम डॉक्टर को नौकरी चाहिए, तो मुज़फ़्फ़रनगर का एक हिंदू डॉक्टर बिना सोचे उसे अपने अस्पताल में पाँच लाख की नौकरी दे देता है कि कश्मीर में हिंदुओं के साथ क्या हुआ। क्योंकि वो उसे काम देते वक्त उसकी क़ाबिलियत देखेगा, उसका व्यवहार देखेगा, न कि उसका फ़ैसला सिर्फ़ उसकी क्षेत्रीय और मज़हबी पहचान के आधार पर होगा।

तभी आप देखिए, पहलगाम जैसी घटना के बाद ऐसा नहीं होता कि लोग देशभर में कश्मीरी मुसलमानों की निशानदेही करके उन्हें इसलिए प्रताड़ित करने लगें कि किसी कश्मीरी मुसलमान ने पाकिस्तानी आतंकियों की मदद करके किसी पहलगाम को अंजाम दे दिया। या पश्चिम बंगाल में बंगाली हिंदू अपनी बस्ती में रह रहे किसी बंगाली मुसलमान को इसलिए सताने लगें क्योंकि बांग्लादेश में वहाँ के जिहादी हिंदुओं को सता रहे हैं। या नोएडा की किसी सोसाइटी में एक गरीब कामवाली की मदद करते वक्त उसकी ज़रूरत से पहले उसकी मज़हबी पहचान देखने लगें।

नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं हो रहा। अपवाद हो सकता है, लेकिन अपवाद को हादसे के तौर पर देखा जाना चाहिए, न कि समाज के चरित्र के रूप में। इसलिए जब कुछ लोग भारत में हुई दो-चार घटनाओं को आगे रखकर पूरे समाज को उसी रंग में रंगने की कोशिश करते हैं, तो वो दो गुनाह एक साथ करते हैं। पहला, वो घटना को घटना के रूप में देखने के बजाय उसका सामान्यीकरण करके पूरे समाज को बदनाम करने की कोशिश करते हैं। और दूसरा, जब आप ये कहते हैं कि भारत तो ऐसा ही है, तो आप दूसरे पक्ष को भी लाइसेंस दे देते हैं कि हाँ, भैया, तुम जो कर रहे हो, वो तो एकदम जायज़ है।

इसीलिए मैं मानता हूँ कि भारत में आरफ़ा जैसे लोग, जो खुद को मुसलमानों का हमदर्द बताकर तिल का ताड़ बनाते हैं और पूरी दुनिया में ये प्रचारित करते हैं कि भारत में तो ये आम हो गया है, तो ऐसे लोग ही पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों से उनका रत्तीभर अपराधबोध भी छीन लेते हैं। उल्टा, ऐसे लोगों के बयान इन देशों को अपने लाखों कुकर्मों को भारत में अपवाद स्वरूप हुई कुछ घटनाओं के बरक्स रखकर उसे रफ़ा-दफ़ा करने की बेशर्मी देते हैं, भारत को बदनाम करने का हौसला देते हैं।

लेकिन देश खुद से जुड़ी अफ़वाहों के आधार पर बर्ताव नहीं करते, वो अपने चरित्र के आधार पर बर्ताव करते हैं। असल भारत झारखंड में एक मुसलमान को उसके मुसलमान होने की वजह से पीटने वाला नहीं है। न ही वो किसी मॉल के बाहर क्रिसमस की तैयारी देखकर हल्ला मचाने वाला है। असल भारत वो है, जो बांग्लादेश से आई एक गरीब मुस्लिम महिला की मदद के लिए दो घंटे में एक लाख रुपए इकट्ठा कर लेता है। और जो लोग ऐसा कर रहे हैं, उनमें कोई किसी को नहीं जानता।

वो ऐसा करते वक्त ये भी नहीं सोच रहा कि वो कोई महान काम कर रहा है। वो ऐसा कर रहा है, तो इसलिए क्योंकि वो ऐसा है। ऐसा होना उसके लिए कोई विकल्प नहीं, बल्कि जीवन जीने का एकमात्र तरीका है। उसके जीवन संस्कार हैं। वो संस्कार, जो तमाम उत्तेजना के बीच भी इंसान की ज़रूरत पर उसकी मज़हबी पहचान को भारी नहीं पड़ने देते। और उससे वो करवाते हैं, जो उसका धर्म है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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भारत और बांग्लादेश के रिश्तों को किसकी नजर लग गई: प्रो. संजय द्विवेदी

एक समय में पाकिस्तान के अत्याचारों से कराह रहे लोगों को मुक्तिवाहिनी भेजकर उन्हें ‘अपना देश’ की खड़ा करने में मददगार रहा भारत आज बांग्लादेश की कुछ ताकतों की नजर में सबसे बड़ा दुश्मन है।

Samachar4media Bureau by
Published - Friday, 26 December, 2025
Last Modified:
Friday, 26 December, 2025
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प्रोफेसर संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष।

हिंदुस्तानी होना साधारण नहीं है। 1947 से हम अपनी पहचान से जूझते हुए लोग हैं। मुल्क के आजाद होते ही हम बंट गए। जमीन से भी, दिलों से भी। दुनिया के नक्शे पर नया देश उभरा जिसका नाम ‘पाकिस्तान’ था। भूगोल के बंटवारे और उसके बाद हुए कत्लेआम ने हमें पूरी तरह तोड़ दिया। उस हिस्से में रह गए लोग अचानक ‘पाकिस्तानी’ हो गए, जो कल तक हिंदुस्तानी थे।

संभव हो अपनी पहचान बदलना उनका शौक न रहा हो। किंतु वे भारतीय से पाकिस्तानी हो गए। फिर एक दिन अचानक इन्हीं पाकिस्तानियों में कुछ लोग ‘बांग्लादेशी’ हो गए। कई ऐसे लोग होगें जिन्होंने एक ही जनम में तीन मुल्क देखे। पैदा हिंदुस्तान में हुए, जवान पाकिस्तान में हुए तो बाकी जिंदगी बांग्लादेश में गुजरी। आज देखिए तो तीनों देशों के बीच रिश्ते कैसे हैं।

अपने ही लोग रिश्तों में कैसे पराए हो जाते हैं, पाकिस्तान इसका पहले दिन से उदाहरण है तो बांगलादेश अब हिंदुस्तान के विरूद्ध ही अभियानों का केंद्र बन गया है।वहीं बांग्लादेशियों की जान-माल, अस्मत लूटने वाले पाकिस्तान से फिर से प्यार की पेंगें बढ़ाई जा रही हैं। बांग्लादेश के विश्वविद्यालयों के छात्र नारे लगा रहे हैं –“तुम क्या, मैं क्या रजाकार...रजाकार”। आखिर ये रजाकार कौन हैं। बांग्लादेश में सन 1971 में जमात-ए-इस्लामी के वरिष्ठ सदस्य मौलाना अबुल कलाम मोहम्मद यूसुफ ने जमात के 96 सदस्यों की रजाकारों की पहली टीम बनाई थी।

बंगाली में 'रेजाकार' शब्द को 'रजाकार' कहा गया। इन रजाकारों में गरीब लोग शामिल थे। वे पाकिस्तानी सेना के मुखबिर बना दिए गए थे, उनको स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ लड़ने के लिए हथियार भी दिए गए थे। इनमें से ज्यादातर बिहार के उर्दू भाषी प्रवासी थे जो भारत की आजादी और बंटवारे के दौरान बांग्लादेश चले गए थे। ये सब लोग पाकिस्तान के समर्थक थे।

रजाकार बांग्लादेश की स्वतंत्रता के विरोधी थे, इन सबने बंगाली मुसलमानों के भाषा आंदोलन का भी विरोध किया था। कल तक बांग्लादेश में रजाकार शब्द बेहद अपमानजनक शब्द था, क्योंकि ये पाक समर्थक थे। आज यही शब्द इस आंदोलन का नारा बन गया है। कट्टरता कैसे किसी देश को निगलती है,यह उसका उदाहरण है। बांग्लादेश के विश्वविद्यालयों में मौलानाओं की बढ़ती दखल युवा पीढ़ी को हिंसक बना रही है।

यह इस देश को उसकी स्मृति से काटकर बांग्लादेशी संस्कृति को कमजोर करने का प्रयास है।भारत और बांग्लादेश के रिश्तों को किसकी नजर लग गई है? आखिर अपनी सारी सदाशयता के बाद भी भारत निशाने पर क्यों है? अगर सोचेंगे तो पाएंगें इसका एक बड़ा कारण पंथ भी है। कभी भाषा के नाम पर अलग हुए देश अगर एक सुर अलाप रहे हैं तो जोड़ने वाली कड़ी क्या है? क्या कट्टरता और पांथिक एकता इसका मुख्य कारण है या और कुछ। क्या कारण है बांग्लादेशी मुस्लिम अपने ही देश के हिंदुओं की जान के दुश्मन हो गए हैं?

वर्षों से हम जिनके साथ रहते आए, काम करते आए वे अचानक हमें दुश्मन क्यों लगने लगे? अमन पसंद और उदार आवाजों पर क्यों बन आई है? इन सालों में हमने पाकिस्तान को समाप्त होते देखा है। उसे लेकर मजाक बनते हैं। क्या बांग्लादेश उसी रास्ते पर जा रहा है? उसे पाकिस्तान बनने से रोकने के उपाय नदारद हैं। देश की अमनपसंद आवाजें या तो खामोश हैं या खामोश कर दी गयी हैं। तसलीमा नसरीन जैसे लेखक सच लिखने के कारण जलावतन हैं। अखबारों के दफ्तर जलाए जा रहे हैं। कलाकार, मीडिया के लोग निशान पर हैं।

‘डेली स्टार’ के संपादक श्री महफूज अनम ने साफ कहा है कि – “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अब मुद्दा नहीं हैं, मुद्दा है जीवित रहने का अधिकार।” जाहिर है बांग्लादेश जिस रास्ते पर चल पड़ा है उसके भविष्य का अंदाजा लगाया जा सकता है। पाकिस्तान और चीन का बढ़ता हस्तक्षेप उसे अराजक, बदहाल और भारतविरोधी बना रहा है। हाल में ही माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के विद्यार्थियों ने अपने प्रायोगिक पत्र ‘पहल’ का ‘बंगलादेश विजय विशेषांक’ प्रकाशित किया है। इसका मुख्य शीर्षक है, “जब दूसरे खत्म हो जाते हैं, तब आतंक अपनों को भी नहीं छोड़ता है।” यह अकेला वाक्य इस देश की त्रासदी बयां करने के लिए काफी है।

बांग्लादेश को देखें तो वह काफी अच्छा कर रहा था। लेकिन ताजा हालात में उसकी आर्थिक स्थिति बिगड़ रही है। जमात ए इस्लामी और इस्लामी उग्रवादी समूहों का उभार भारत और बांग्लादेश दोनों के लिए चिंता का कारण है। अब जो चुनाव होने जा रहे हैं, वह भी आतंक के साए में हो रहे हैं। युवा नेता उस्मान हादी की हत्या से देश का माहौल खराब है और उसकी गाज निरीह हिंदुओं पर गिर रही है।

एक हिंदू युवक को जिंदा जला देना इसकी ताजा मिसाल है। सड़कों पर भीड़ के द्वारा हो रही ऐसी निर्लज्ज बर्बरता बताती है कि हालात कैसे हैं। इस सबके बावजूद बांग्लादेश से भारत के रिश्ते अच्छे बने रहें यह जरूरी है। अपनी सीमा सुरक्षा को मजबूत करते हुए हमें कूटनीतिक स्तर पर संवाद बनाए रखना आवश्यक है।

भले ही शेख हसीना के युग जैसे अच्छे रिश्ते न हों किंतु संवाद, सहयोग से कट्टरपंथी प्रभावों को रोकना होगा। बेहतर होगा कि नई लोकप्रिय सरकार का गठन जल्द हो ताकि रिश्ते पटरी पर आ सकें। इसे हम इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि आज अफगानिस्तान से हमने कूटनीतिक प्रयासों से अपने संबंध सामान्य कर लिए हैं। हालात बदतर हैं लेकिन उम्मीद की जानी कि आने वाले समय में हम फिर कुछ रिश्तों को बहाल कर पाएंगें। अमरीका की वहां बढ़ती सक्रियता एक बड़ा खतरा है।

अवामी लीग समर्थकों की हत्याएं, उनको जेलों में ठूंसकर, हत्याआरोपियों और आतंकी तत्वों की रिहाई ने वहां हालात बिगाड़े हैं और युनुस ने अपने कार्यकाल से बहुत निराश किया है। किंतु बांग्लादेश की भारत पर निर्भरता बहुत है, हमें भी उनकी जरूरत है। ऐसे में रिश्तों को कूटनीतिक स्तर पर बेहतर किए जाने की जरूरत तो है ही। हमें किसी भी स्तर पर उन्हें पाकिस्तान की गोद में जाने से रोकना है।

भारत एक बड़ा और जिम्मेदार देश है, उसे बहुत संयम और गंभीरता से इस चुनौती का सामना करना होगा। निश्चित ही आज का बांग्लादेश आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकटों से जूझ रहा है। लेकिन पड़ोसी देश होने के नाते हम उसे उसके हाल पर नहीं छोड़ सकते। धर्मांधता की अंधी गली में उसका प्रवेश खतरनाक है। किंतु हम खामोश देखते रहें, यह विश्वमानवता के लिए ठीक नहीं होगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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मीडिया और सरकार: 2025 में कंटेंट से कंट्रोल तक बदलता परिदृश्य

साल 2025 भारत के मीडिया सेक्टर के लिए सिर्फ बदलावों का साल नहीं रहा, बल्कि यह वह दौर भी रहा जब सरकार ने मीडिया, डिजिटल प्लेटफॉर्म और कंटेंट क्रिएटर्स को लेकर अपनी नीतियों को और साफ व सख्त किया।

Vikas Saxena by
Published - Wednesday, 24 December, 2025
Last Modified:
Wednesday, 24 December, 2025
YearEnder2025

साल 2025 भारत के मीडिया सेक्टर के लिए सिर्फ बदलावों का साल नहीं रहा, बल्कि यह वह दौर भी रहा जब सरकार ने मीडिया, डिजिटल प्लेटफॉर्म और कंटेंट क्रिएटर्स को लेकर अपनी नीतियों को और साफ व सख्त किया। न्यूज चैनल हों, OTT प्लेटफॉर्म, सोशल मीडिया या इंफ्लुएंसर्स, हर सेक्टर पर सरकार की नजर इस साल और गहरी होती दिखी।

इस साल सरकार की मीडिया पॉलिसी का फोकस तीन बड़े मुद्दों पर साफ तौर पर दिखा- राष्ट्रीय सुरक्षा, गलत सूचना पर रोक और डिजिटल युग में जवाबदेही।

सबसे पहले बात राष्ट्रीय सुरक्षा की। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने मीडिया और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के लिए एडवाइजरी जारी की, जिसमें साफ कहा गया कि सैन्य या सुरक्षा अभियानों की रियल-टाइम लाइव कवरेज नहीं की जाए। सरकार का तर्क था कि ऐसी कवरेज से संवेदनशील जानकारी दुश्मन तक पहुंच सकती है। इस कदम का असर यह हुआ कि टीवी चैनलों और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स को ब्रेकिंग न्यूज की होड़ में अतिरिक्त सावधानी बरतनी पड़ी।

दूसरा बड़ा मुद्दा रहा फेक न्यूज और गलत सूचना। सरकार ने साफ संकेत दिए कि अब फेक न्यूज को सिर्फ नैतिक मुद्दा नहीं, बल्कि कानून-व्यवस्था का मामला माना जाएगा। इसी कड़ी में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया एक्ट में बदलाव का प्रस्ताव सामने आया, ताकि डिजिटल मीडिया, इंफ्लुएंसर्स और कंटेंट क्रिएटर्स को भी इसके दायरे में लाया जा सके। इसका मकसद यह है कि सोशल मीडिया पर खबर या जानकारी देने वाले लोग भी उसी तरह जवाबदेह हों, जैसे पारंपरिक मीडिया होता है।

डिजिटल और OTT प्लेटफॉर्म्स पर भी इस साल सरकार का रुख और सख्त दिखा। अश्लीलता, भ्रामक कंटेंट और साइबर अपराधों को लेकर IT नियमों के तहत प्लेटफॉर्म्स की जिम्मेदारी बढ़ाई गई। कंटेंट हटाने, शिकायत निवारण और यूजर सुरक्षा को लेकर प्लेटफॉर्म्स को ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाने के निर्देश दिए गए। इसका सीधा असर OTT कंटेंट, वेब सीरीज और डिजिटल न्यूज प्लेटफॉर्म्स पर पड़ा।

2025 की सबसे बड़ी नई बहस रही AI और डीपफेक कंटेंट को लेकर। सरकार ने ड्राफ्ट IT नियमों के जरिये यह संकेत दिया कि AI से बने फोटो, वीडियो और ऑडियो को लेकर अब सख्त पहचान और नियंत्रण की जरूरत है। डीपफेक से जुड़े मामलों में प्लेटफॉर्म्स और पब्लिशर्स की जिम्मेदारी तय करने की दिशा में यह एक बड़ा कदम माना गया। आने वाले समय में मीडिया और ऐडवर्टाइजिंग इंडस्ट्री को यह साफ बताना पड़ सकता है कि कौन सा कंटेंट AI-जनरेटेड है।

इंफ्लुएंसर मार्केटिंग भी सरकार की रडार पर रही। फेक प्रमोशन, भ्रामक विज्ञापन और गलत जानकारी फैलाने वाले सोशल मीडिया अकाउंट्स पर कार्रवाई के संकेत दिए गए। इससे डिजिटल मार्केटिंग इंडस्ट्री को यह संदेश मिला कि अब 'क्रिएटर' होना सिर्फ फॉलोअर्स का खेल नहीं, बल्कि जिम्मेदारी का भी मामला है।

इसके अलावा, राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था के नाम पर कुछ सोशल मीडिया अकाउंट्स और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर प्रतिबंध और कंटेंट ब्लॉकिंग भी देखने को मिली। इससे यह साफ हुआ कि सरकार इंटरनेट और मीडिया को पूरी तरह अनियंत्रित स्पेस के तौर पर नहीं देखती।

कुल मिलाकर, 2025 की मीडिया पॉलिसी यह बताती है कि सरकार अब 'फ्रीडम विद रिस्पॉन्सिबिलिटी' के मॉडल की ओर बढ़ रही है। एक तरफ डिजिटल विस्तार, AI और नए प्लेटफॉर्म्स हैं, तो दूसरी तरफ कंटेंट पर निगरानी और जवाबदेही। मीडिया, मार्केटिंग और ऐडवर्टाइजिंग इंडस्ट्री के लिए यह साल एक साफ संदेश छोड़ता है- अब सिर्फ रचनात्मकता नहीं, नियमों की समझ भी उतनी ही जरूरी है।

गुजरते हुए साल के लिहाज से देखें तो 2025 वह साल रहा जब सरकार और मीडिया का रिश्ता पहले से ज्यादा नियमों और जवाबदेही से बंधा नजर आया।

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कोडीन माफिया का आका कौन: रजत शर्मा

योगी ने विधानसभा में आरोपियों की तस्वीरें दिखाई, घोटाले में शामिल किरदारों के नाम बताए, केस में शामिल समाजवादी पार्टी के नेताओं का खुलासा किया। कार्रवाई करने की चेतावनी दी।

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 24 December, 2025
Last Modified:
Wednesday, 24 December, 2025
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रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कोडीन कफ सिरप मामले से जुड़े हर सवाल का जवाब दिया, विधानसभा में सबूत पेश किए और समाजवादी पार्टी को आड़े हाथों लिया। योगी ने बताया कि कफ सिरप घोटाले में अब तक 77 लोग पकड़े जा चुके हैं, किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा। इसके बाद योगी आदित्यनाथ ने यह कहकर चौंका दिया कि पकड़े गए आरोपियों की पृष्ठभूमि में जाने पर उनका कोई न कोई नाता समाजवादी पार्टी से जुड़ रहा है।योगी ने विधानसभा में आरोपियों की तस्वीरें दिखाई, घोटाले में शामिल किरदारों के नाम बताए, केस में शामिल समाजवादी पार्टी के नेताओं का खुलासा किया।

फिर योगी ने घोटाले में शामिल लोगों के खिलाफ बुलडोजर कार्रवाई करने की चेतावनी दी। योगी ने कहा कि जब सरकार की कार्रवाई अंतिम दौर में पहुंचेगी तो आपमें से कई लोग फातिहा पढ़ने आएंगे, लेकिन सरकार उन्हें फातिहा पढ़ने लायक भी नहीं छोड़ेगी। केस की जांच की आंच अब समाजवादी पार्टी के नेताओं तक पहुंच गई है। कुछ नए नाम सामने आए हैं। इसमें पहला नाम समाजवादी पार्टी से जुड़ी लोहिया वाहिनी के नेता मिलिंद यादव का है। पता चला है कि मिलिंद यादव के कफ सिरप केस के मुख्य आरोपी शुभम जायसवाल के साथ कारोबारी रिश्ते थे।

शुभम जायसवाल की शैली ट्रेडर्स फर्म के ड्रग लाइसेंस और जीएसटी रजिस्ट्रेशन के दस्तावेजों में मिलिंद यादव का ही मोबाइल नंबर दर्ज है। इसके अलावा आरोप है कि समाजवादी युवजन सभा के नेता अमित यादव जायसवाल का बिजनेस पार्टनर था। मिलिंद और अमित यादव के जायसवाल परिवार के खातों में अवैध लेनदेन के सबूत भी मिले हैं। कफ सिरप केस को लेकर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव लगातार योगी सरकार पर हमला कर रहे हैं। अब तक योगी इस मुद्दे पर चुप थे।

लेकिन योगी ने अकेले मोर्चा संभाला और समाजवादी पार्टी को बैकफुट पर भेज दिया। कफ सिरप मुद्दे को लेकर समाजवादी पार्टी के विधायकों ने विधानसभा परिसर में प्रदर्शन किया। सदन की कार्यवाही के दौरान समाजवादी पार्टी के नेताओं ने योगी से पूछा कि बुलडोजर कब बाहर आएगा और सरकार पर केस को दबाने का आरोप लगाया गया। विपक्ष के हर आरोप पर योगी मुस्कुराते रहे। योगी ने साफ कहा कि विपक्ष कफ सिरप से बच्चों की मौत का जो आरोप लगा रहा है, वह गलत है।

उत्तर प्रदेश में कफ सिरप की मैन्युफैक्चरिंग यूनिट ही नहीं है। यूपी में किसी बच्चे की मौत नहीं हुई है। यह मामला कफ सिरप की अवैध आपूर्ति का है। उन्होंने कहा कि दाग तो समाजवादी पार्टी के दामन पर है। कोडीन सिरप के सबसे बड़े थोक विक्रेता को अखिलेश सरकार ने लाइसेंस दिया था। अब सच सामने आ रहा है तो समाजवादी पार्टी के नेता बौखला रहे हैं। जिस कफ सिरप केस को लेकर यूपी की राजनीति गरम है, उसका कुछ ब्यौरा भी सामने आया है। असल में यह मामला नकली दवा का नहीं है।

यह गैरकानूनी तरीके से स्टॉक करने और सप्लाई का है। कोडीन कफ सिरप को अवैध तरीके से नशे के बाजार में पहुंचाया जा रहा था। असल में कफ सिरप में मिलाया जाने वाला कोडीन नशे के लिए इस्तेमाल किया जा रहा था। माफियाओं ने सुपर स्टॉकिस्ट से लेकर रिटेलर तक की पूरी सप्लाई चेन बना रखी थी। यह माफिया इसे देश के कई राज्यों और यहां तक कि विदेशों तक भेज रहे थे। इस मामले का मुख्य आरोपी वाराणसी का शुभम जायसवाल है। वह फर्जी फर्म बनाकर कफ सिरप कंपनियों से खरीद करता था, फर्जी खरीद-बिक्री के बिल बनाकर इसे तस्करों को बेच देता था और करोड़ों का मुनाफा कमाता था।

नोट करने वाली बात यह है कि ये फर्में देश के सात राज्यों में बनाई गई थीं। एसटीएफ से बर्खास्त सिपाही आलोक सिंह और अमित सिंह इस काम में शुभम के साझीदार थे। झारखंड में दो फर्मों का ड्रग लाइसेंस इन्हीं दोनों के नाम पर बना था। इन लोगों ने कभी मेडिकल फील्ड में काम नहीं किया था, फिर भी फर्जी सर्टिफिकेट लगाकर ड्रग लाइसेंस बनवाया गया। गौरतलब है कि यूपी के कई जिलों के मेडिकल स्टोर में कोडीन कफ सिरप की सप्लाई दिखाई गई, जबकि हकीकत में ये मेडिकल स्टोर थे ही नहीं। कफ सिरप को गाजियाबाद, सोनभद्र, वाराणसी और लखनऊ जैसे जिलों में बने गोदामों में स्टॉक किया जाता था और फिर अवैध तरीके से दूसरे राज्यों में भेज दिया जाता था।

यह कारोबार हजारों करोड़ रुपये का था। मामले का मुख्य आरोपी शुभम जायसवाल दुबई फरार हो गया, जबकि उसके पिता भोला जायसवाल, आलोक सिंह और अमित सिंह को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। कोडीन कफ सिरप खांसी के इलाज के लिए होता है, लेकिन इसमें नशा होता है। लगातार सेवन से इसकी लत लग जाती है। इसी कारण इसे नशीली दवा की श्रेणी में रखा गया है। नशे के कारण बाजार में कोडीन कफ सिरप की भारी मांग रहती है। माफिया पैसा कमाने का कोई मौका नहीं छोड़ते। यूपी में भी यही हुआ।

यहां कफ सिरप को गैरकानूनी तरीके से स्टोर किया गया और नशे के बाजार तक पहुंचाया गया। जिसने भी यह पाप किया है, उसे कड़ी सजा मिलनी चाहिए। इस बात की परवाह नहीं की जानी चाहिए कि इस माफिया के राजनीतिक संबंध क्या हैं, क्योंकि ऐसे लोग सियासत में कोई न कोई संबंध निकाल ही लेते हैं। योगी आदित्यनाथ पर कई दिनों से आरोप लगाए जा रहे थे और वह खामोश थे। कुछ लोगों ने इसका गलत मतलब निकाला। योगी आदित्यनाथ ने विधानसभा में सबूत दिखाकर पूरी बाज़ी पलट दी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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