चुनाव को लेकर सोशल मीडिया पर भी क्रिएटिविटी की बहार
प्रमिला दीक्षित
वरिष्ठ पत्रकार
‘शुरू करो एक्ज़िट पोल, लेकर प्रभु का नाम, समय बिताने के लिए करना है कुछ काम....म...म से। म से मोदी.....द से दोबारा मोदी! कुछ भी कर लो, लेकिन आएगा तो मोदी ही! कुल मिलाकर इसी थीम पर हर एग्ज़िट पोल ने नतीजा दिखाया. अब चूंकि बात एक ही है और एक्सक्लूसिव या सबसे पहले भी कहलानी है, सो हर चैनल ने अपना-अपना कोडवर्ड अलग रखा। ‘आजतक’ ने उसे सबसे चौंकाने वाले नतीजे कहा, ये अलग बात है पिछले दिनों ‘आजतक’ के तेवर जो रहे हैं, वो खुद ही इससे चौंक गए होंगे। लेकिन भव्य सेट से एकदम संजय लीला भंसाली टाइप माहौल कैसे तानना है ‘आजतक’ जानता है, इसीलिए कभी मैदान में दौड़ते घोड़े और कभी सुपर मारियो की तर्ज़ पर कूदकर आते राहुल-मोदी के कार्टून, एग्ज़िट पोल में दिलचस्पी न रखने वालों को भी थोड़े समय तो बाँध ही रहे होंगे।
इलेक्शन मतलब ‘एबीपी न्यूज़’ कहने वाले ‘एबीपी’ ने भी विशेषज्ञों की अलग-अलग रेजींमेंट बुला रखी थी और काउंट डाउन चलाकर ठीक छह बजे दर्शकों के लिए कूच कर दिया। एबीपी ने चुनाव नतीजों और कवरेज में पिछले कई वर्षों में एक पहचान ज़रूर बनाई है, लेकिन हाल-फ़िलहाल उसका वही हमेशा वाला फ़ॉर्मैट अब थोड़ा उबाने लगा है।
‘एनडीटीवी’ को आप लाख बायस्ड समझें, लेकिन उन्होंने अपने अलावा हर चैनल का एग्ज़िट पोल दिखाया, बीच-बीच में-ये नतीजे नहीं हैं, कहकर मरहम भी लगातार लगाया। रवीश कुमार हमेशा की तरह मोदी के साथ गोदी पर पूरा ज़ोर दिए रहे, ये कहकर कि अगर नतीजे वैसे ही आते हैं, जैसे एग्ज़िट पोल हैं तो कुछ एंकर्स और मीडिया मालिकों को भी मंत्री पद दिया जाना चाहिए। अगर यही रवायत रहनी है तो तैयार रहिए, कुछ एंकर राहुल गांधी के बग़ल में बैठकर विपक्ष की प्रेस कांफ्रेंस भी करते दिखाई दिया करेंगे।
आज फिर ‘ज़ी’ ने की तमन्ना है। कहते हैं किसी नतीजे को दिल से चाहो तो सारे एग्ज़िट पोल उससे मिलाने में जुट जाते हैं, ‘जी’ देखकर कुछ ऐसा ही फ़ील आ रहा था, जहाँ चैनल का पूरा ज़ोर अपना एग्ज़िट पोल दिखाने से ज़्यादा दूसरों के एग्ज़िट पोल का DNA टेस्ट करने के प्रचार पर था।
‘आजतक’ के घोड़े जब तक दौड़ते, ‘रिपब्लिक भारत’ सरकार बना चुका था और शान से ‘तक वाले चैनल कहां रह गए’ कह-कहकर नंबर वन या गुप्त दौड़ के लिए अपना दावा पेश करता रहा। ‘न्यूज़ नेशन’ ने दीपक चौरसिया के आने के बाद एक बार फिर से मार्केट में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की कोशिश की है। वैसे भी प्रधानमंत्री का जो इंटरव्यू सबसे ज्यादा रडार पर रहा, वो दीपक चौरसिया ने ही लिया था।
बाकी रही राहुल गांधी के इंटरव्यू की बात, मेरा पर्सनल फेवरेट वो ‘आँखों की ग़ुस्ताख़ियां माफ हों’ वाला था। ख़ैर मोदी जी की माया मोदी जी ही जानें। हर चरण के लिए उनके तरकश में नया तीर था। आख़िरी में उन्होंने साधना से जो साधा है, उन्हें ‘ द मॉन्क हू ध्वस्त एवरीबडीज़ तैयारी’ का ख़िताब तो बनता ही है।
पूजा अर्चना की इन विधियों और प्रणालियों का इतिहास में भी महत्व रहा है, फ़ौरन सोशल मीडिया पर इसके सुबूत मिल गए। सुबूत से याद आया, सोशल मीडिया पर अरविंद केजरीवाल का ‘मौत से डर लगता है साहब’ टाइप बयान ‘मोदी जी मुझे मरवाना चाहते हैं’ बहुत चर्चा में रहा। ये अलग बात है कि इस बयान की मौज सबने ली, संज्ञान किसी ने नहीं लिया।
एग्ज़िट पोल से भक्तों में उत्साह है और उन पत्रकारों में रोष और दुख, जिन्हें राहुल गांधी अपनी ओर से नरेंद्र मोदी की प्रेस कांफ़्रेंस में भेजना चाहते थे। इंडिया शाइनिंग के जले इस एक्ज़िट पोल पर फूंक-फूंक के प्रतिक्रिया दे रहे हैं, हालांकि खुशी फिर भी छिपाए नहीं छुप रही।
सोशल मीडिया पर क्रिएटिविटी की बयार है। लोग कह रहे हैं हलवाई सौ प्रतिशत एडवांस पेमेंट पर ही कांग्रेसियों के लड्डू का आर्डर ले रहे हैं। मेरी तो सलाह है पार्टियां लड्डू की बजाय पटाखे ले लें। जीत गए तो कांफिडेंस के साथ कह सकते हैं ‘हम अपनी जीत के लिए आश्वस्त थे’ वरना वर्ल्ड कप तो नज़दीक है ही!
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक, वरिष्ठ पत्रकार ।।
प्लास्टिक पर 1 जुलाई से सरकार ने प्रतिबंध तो लागू कर दिया है, लेकिन उसका असर कितना है? फिलहाल तो वह नाम मात्र का ही है। वह भी इसके बावजूद कि 19 तरह की प्लास्टिक की चीजों में से यदि किसी के पास एक भी पकड़ी गई तो उस पर एक लाख रु. का जुर्माना और पांच साल की सजा हो सकती है। इतनी सख्त धमकी का कोई ठोस असर दिल्ली के बाजारों में कहीं दिखाई नहीं पड़ा है।
अब भी छोटे-मोटे दुकानदार प्लास्टिक की थैलियां, गिलास, चम्मच, काड़िया, तश्तरियां आदि हमेशा की तरह बेच रहे हैं। ये सब चीजें खुले-आम खरीदी जा रही हैं। इसका कारण क्या है? यही है कि लोगों को अभी तक पता ही नहीं है कि प्रतिबंध की घोषणा हो चुकी है। सारे नेता लोग अपने राजनीतिक विज्ञापनों पर करोड़ों रुपया रोज खर्च करते हैं। सारे अखबार और टीवी चैनल हमारे इन जन-सेवकों को महानायक बनाकर पेश करने में संकोच नहीं करते लेकिन प्लास्टिक जैसी जानलेवा चीज पर प्रतिबंध का प्रचार उन्हें महत्वपूर्ण ही नहीं लगता।
नेताओं ने कानून बनाया, यह तो बहुत अच्छा किया, लेकिन ऐसे सैकड़ों कानून ताक पर रखे रह जाते हैं। उन कानूनों की उपयोगिता का भली-भांति प्रचार करने की जिम्मेदारी जितनी सरकार की है, उससे ज्यादा हमारे राजनीतिक दलों और समाजसेवी संगठनों की है। हमारे साधु-संत, मौलाना, पादरी वगैरह भी यदि मुखर हो जाएं तो करोड़ों लोग उनकी बात को कानून से भी ज्यादा मानेंगे।
प्लास्टिक का इस्तेमाल एक ऐसा अपराध है, जिसे हम ‘सामूहिक हत्या’ की संज्ञा दे सकते हैं। इसे रोकना आज कठिन जरूर है, लेकिन असंभव नहीं है। सरकार को चाहिए था कि इस प्रतिबंध का प्रचार वह जमकर करती और प्रतिबंध-दिवस के दो-तीन माह पहले से ही 19 प्रकार के प्रतिबंधित प्लास्टिक बनानेवाले कारखानों को बंद करवा देती। उन्हें कुछ विकल्प भी सुझाती ताकि बेकारी नहीं फैलती। ऐसा नहीं है कि लोग प्लास्टिक के बिना नहीं रह पाएंगे। अब से 70-75 साल पहले तक प्लास्टिक की जगह कागज, पत्ते, कपड़े, लकड़ी और मिट्टी के बने सामान सभी लोग इस्तेमाल करते थे। पत्तों और कागजी चीजों के अलावा सभी चीजों का इस्तेमाल बार-बार और लंबे समय तक किया जा सकता है। ये चीजें सस्ती और सुलभ होती हैं और स्वास्थ्य पर इनका उल्टा असर भी नहीं पड़ता है। लेकिन स्वतंत्र भारत में चलनेवाली पश्चिम की अंधी नकल को अब रोकना बहुत जरुरी है। भारत चाहे तो अपने बृहद अभियान के जरिए सारे विश्व को रास्ता दिखा सकता है।
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक, वरिष्ठ पत्रकार ।।
इस्लाम के दुश्मन हैं ये हत्यारे
उदयपुर में जिस तरह एक हिंदू दर्जी कन्हैया की दो मुसलमानों ने हत्या की है, उससे अधिक लोमहर्षक घटना क्या हो सकती है? इस घटना की खबर टीवी चैनलों पर देखकर सारे देश के रोंगटे खड़े हो गए। इसके पहले भी सांप्रदायिक मूढ़ता के चलते कई इसी तरह की छोटी-मोटी घटनाएं कई मजहबी लोग एक-दूसरे के खिलाफ करते रहे हैं, लेकिन यहां असली सवाल यही है कि ऐसा घृणित काम करके ये लोग क्या अपने धर्म या मजहब या संप्रदाय की इज्जत बढ़ाते हैं? बिल्कुल नहीं। ये लोग अपने कुकृत्य के कारण अपने धर्म और अपने धार्मिक महापुरुषों को कलंकित करते हैं।
जिन दो मुसलमान युवकों ने उदयपुर के उस निहत्थे हिंदू दर्जी की हत्या की है, वे इस्लाम और पैगंबर मोहम्मद के भक्त नहीं, पक्के दुश्मन हैं। दर्जी का दोष यही है कि उसने भाजपा प्रवक्ता के पैगंबर संबंधी बयान का समर्थन कर दिया था। अभी तक लोगों को यह पता नहीं है कि प्रवक्ता ने वह बयान क्यों दिया था और उसमें किन शब्दों का प्रयोग किया गया था? सिर्फ कुप्रचार और अफवाहों पर भरोसा करके कोई हत्या-जैसा संगीन अपराध कर दे, इससे क्या संकेत मिलता है?
यदि किसी व्यक्ति ने किसी मजहब या उसके महापुरुष पर उंगली उठाई है तो भी क्या उस व्यक्ति की हत्या उसका सही जवाब है? नहीं। इसका उल्टा है। यदि उस व्यक्ति के गलत तथ्यों को मजबूत तर्कों से काटा जाता तो वह सही जवाब होता। उसकी हत्या करके तो आप उसके द्वारा बोली गई अनर्गल बात को करोड़ों लोगों तक पहुंचाने का काम कर रहे हैं। यह संतोष का विषय है कि अनेक मुस्लिम संगठनों और मुस्लिम नेताओं ने कन्हैया के हत्यारों की दो-टूक भर्त्सना की है और उन्हें कठोरतम दंड देने की अपील की है। इन हत्यारों को हफ्ते-दो-हफ्ते में ऐसी भयंकर सजा मिलनी चाहिए कि जो सारी दुनिया के लिए सबक बन जाए। यदि कन्हैया को राजस्थान पुलिस की सुरक्षा कुछ दिन और मिली होती तो इस भयानक हादसे से शायद बचा जा सकता था, लेकिन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने हत्यारों को तुरंत पकड़ने और शांति बनाए रखने के लिए काफी मुस्तैदी दिखाई है।
क्या संयोग है कि इधर कन्हैया की हत्या हुई और उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संयुक्त अरब अमीरात की यात्रा पर पहुंचे। मुझे आश्चर्य है कि जिन अरब देशों ने भाजपा प्रवक्ता के पैगंबर संबंधी बयान को लेकर तूफान खड़ा किया था, अभी तक इस हत्याकांड पर उनकी कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं आई? यह संतोष का विषय है कि इस हत्याकांड को लेकर भारत का हिंदू समुदाय भयंकर दुखी तो है, लेकिन उसने अभी तक कोई हिंसक प्रतिक्रिया नहीं की है। देश के लगभग सभी मुसलमान इस क्रूर हत्याकांड को निदंनीय मानते हैं। यह ऐसा नाजुक मौका है, जब भारत के सभी लोगों को सैकड़ों-हजारों वर्ष पहले उनके धर्मग्रंथों में कही गई पोगापंथी बातों की उपेक्षा करनी चाहिए और अपने सार्वजनिक जीवन में भारतीय संविधान को सर्वोपरि मानना चाहिए।
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राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार
‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ (Editors Guild of India) और ‘प्रेस क्लब ऑफ इंडिया’ (Press Club of India) ने ‘ऑल्ट न्यूज’ (Alt News) के मोहम्मद जुबैर के साथ दिल्ली पुलिस के रवैये का विरोध किया है और उसकी तत्काल रिहाई की मांग की है। ‘ऑल्ट न्यूज‘ फर्जी खबरों को पहचानने और उनकी पड़ताल का काम करती है। इस संस्था ने बीते दिनों ऐसी अनेक सूचनाओं की कलई खोली, जो सच नहीं थीं और सामाजिक विद्वेष बढ़ाने वाली थीं। इन दिनों सोशल और डिजिटल मीडिया के मंचों पर नकली और वैचारिक छेड़छाड़ करने वाली सूचनाओं की बाढ़ सी आ गई है। इन सूचनाओं के पीछे किसी न किसी वर्ग विशेष के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हित छिपे रहते हैं। इनसे राष्ट्र और समाज का भला नहीं होता।
इस नजरिये से ‘ऑल्ट न्यूज’ के काम को शाबाशी मिलनी चाहिए थी। पर, ऐसा नहीं हुआ। उल्टे उसके सह संस्थापक को चार बरस पुराने एक ट्वीट को उत्तेजक मानते हुए गिरफ्तार कर लिया गया। यह निश्चित रूप से निंदनीय है। यह ट्वीट एक वीडियो का टुकड़ा था, जो किसी हास्य फिल्म से लिया गया था। आश्चर्य है कि फिल्म का टुकड़ा यदि भड़काऊ था तो सेंसर बोर्ड ने मंजूरी क्यों दी? सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने और आस्थाओं पर चोट पहुंचाने वाले कंटेंट के बारे में ‘सूचना प्रसारण मंत्रालय’ और ‘सेंसर बोर्ड’ के नियम सख्त हैं।
अव्वल तो उसमें कुछ भी ऐसा नहीं है। फिर भी, यदि कोई कार्रवाई होनी चाहिए थी तो मंत्रालय और बोर्ड के अफसरों के खिलाफ होनी चाहिए थी। उसने फ़िल्म को प्रमाणपत्र ही क्यों दिया?
भारतीय पत्रकारिता की दोनों शीर्षस्थ संस्थाओं का ऐतराज जायज है। आम नागरिक को संविधान में प्राप्त अभिव्यक्ति की आजादी को संरक्षण मिलना चाहिए। यह आपत्ति इसी भावना को ध्यान में रखकर की गई है। पत्रकारिता को इस संबंध में कोई अतिरिक्त अधिकार प्राप्त नहीं है, मगर संविधान प्रदत्त बुनियादी हक तो मिलना ही चाहिए। भारत ऐसे ही गुलदस्ते का नाम है, जिससे सभी फूलों की खुशबू आती है। अगर इस गुलदस्ते से एक ही फूल की सुगंध आएगी तो फिर गुलदस्ते की पहचान ही समाप्त हो जाएगी। उसे गुलदस्ता कहेगा कौन? यह माली को कुसूरवार ठहराती है, जो अन्य फूलों की सुगंध समाज को नहीं लेने देना चाहता। बगिया में लगे सारे पुष्प एक दूसरे की संगत में ही पनपते और प्रसन्न रहते हैं।
पत्रकारिता ही नहीं, हमारे समूचे सामाजिक ढांचे के लिए यह गंभीर चेतावनी है और इशारा करती है कि समय रहते हमें संभल जाना चाहिए। हिन्दुस्तान की स्थिति न तो इस्लामी देशों जैसी है और न ही ईसाई धर्मों को मानने वाले पश्चिमी और यूरोप के राष्ट्रों की तरह। यह सबसे विशिष्ट देश है, जिसे कुदरत ने इंसानियत और आध्यात्म की अनमोल दौलत बख्शी है। इस दौलत की हिफाजत हर भारतीय का फर्ज है। हमारा कानून इसकी गारंटी देता है। इसके बाद भी सावधान नहीं हुए तो गर्व करने लायक कुछ भी नहीं रह जाएगा मिस्टर मीडिया!
न समझोगे तो मिट जाओगे, ऐ! हिन्दोस्तां वालो/तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में।।
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल की 'मिस्टर मीडिया' सीरीज के अन्य कॉलम्स आप नीचे दी गई हेडलाइन्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं-
पत्रकारिता अपने आचरण से अपमानित हो तो यह गंभीर चेतावनी है मिस्टर मीडिया!
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया: चुनाव ऐतिहासिक तो चुनौतियां भी अभी पहाड़ जैसी हैं मिस्टर मीडिया!
हिंदी भाषा की 'गंगोत्री' सूखने से आखिर किसका नुकसान मिस्टर मीडिया!
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राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।
इन दिनों राजनीति में परिवारवाद को हतोत्साहित करने की प्रथा सी चल पड़ी है। सदियों तक यह देश राजाओं और राजकुमारों को राजा बनते देखता रहा है। उनके जुल्म-ओ-सितम भोगते हुए लोग इतने आदी हो गए हैं कि आम जनता आज भी बहुत तकलीफ नहीं महसूस करती, जब वह इस परंपरा में लोकतांत्रिक राजाओं के उत्तराधिकारियों को उनकी विरासत संभालते हुए देखती है। वैसे तो इसमें कुछ अनुचित भी नहीं है। यह राष्ट्र प्रत्येक वयस्क नागरिक को रोजगार, कारोबार और मौलिक अधिकारों की छूट देता है। आप सिर्फ इस आधार पर उसे राजनीति में जाने से रोक नहीं सकते कि वह किसी विधायक, सांसद, मंत्री या मुख्यमंत्री का बेटा है।
गौर कीजिए कि जब एक सेना अधिकारी की पीढ़ियां देश की सीमाओं की रक्षा करने के काबिल मानी जा सकती हैं, एक डॉक्टर के वंश में कई डॉक्टरों की फसल लहलहाती है तो हम यह कहते हुए मानक तय करते हैं कि वह खानदानी डॉक्टर है। एक वकील के वंशजों को लगातार अदालत में जाते देखते हैं, एक किराना या कपड़ा व्यापारी की पीढ़ियां गद्दी संभालती हैं तो हमें परेशानी नहीं होती। यहां तक कि मोची, बढ़ई, दूधवाला या सब्जी वाला बच्चों को अपने कारोबार में अवसर देता है तो हमें बुरा नहीं लगता। बड़े औद्योगिक घरानों का उत्तराधिकार उनके वंशजों के हाथ में चला आता है तो भी समाज उसे आपत्तिजनक नहीं मानता। इसके उलट आपसी चर्चाओं में यह बात कही जाने लगी है कि अमुक परिचित के बेटे ने अपने पिता के स्थापित कारोबार को ही छोड़ दिया, यह गलत किया। इस विरोधाभासी मानसिकता पर समाज में सवाल नहीं उठते, मगर एक लोकतांत्रिक अनुष्ठान में जनसेवा और राष्ट्रहित में काम करने के लिए यदि किसी नेता का पुत्र भी उसी राह पर चल पड़ता है तो हायतौबा होने लगती है। जनसेवा एक अनुष्ठान की तरह है, जिसमें प्रत्येक को अपनी हिस्सेदारी निभाना चाहिए।
कोई भी बच्चा हो, वह परिवार के संस्कार लेकर आगे बढ़ता है। पारिवारिक पेशे के हुनर भी उसमें शामिल होते हैं। यह उसका बुनियादी प्रशिक्षण होता है। इसीलिए हम पाते हैं कि जो नई नस्लें पूर्वजों के कारोबार को आगे बढ़ाती हैं, ज्यादातर मामलों में वे कामयाब रहती हैं। कुछ अपवाद हो सकते हैं, जब बेटों से पिता का कारोबार नहीं संभला हो अन्यथा बहुतायत ऐसे पुत्रों की होती है, जो पेशे में मुनाफा बढ़ाना जारी रखते हैं। राजनीतिक मामलों में भी ऐसा ही है। यह स्थिति तब तक बेहतर थी, जब राजनीति धंधा नहीं बनी थी। जैसे ही सियासत के साथ धन-बल और बाहु-बल का गठजोड़ हुआ तो यह भी एक उद्योग बन गया। आधुनिक नेता अपने बच्चों को विरासत तो सौंपते हैं, लेकिन उन्हें सेवाभाव के साथ काम करने का प्रशिक्षण नहीं देते।
मौजूदा दौर में आप किसी भी राजनेता के बेटे-बेटियों से बात कीजिए, अधिकांश को न भारत की आजादी का इतिहास पता होगा, न ही वे संविधान की विकास गाथा जानते होंगे और न ही निर्वाचित जनप्रतिनिधि के रूप में अपने कर्तव्यों से वे परिचित होंगे। हां उनसे आप चुनाव जीतने की तिकड़में पूछेंगे तो वे तुरंत बता देंगे। वे इस पर भी ज्ञानवर्धन करेंगे कि चुनाव के दिनों में कालेधन का इस्तेमाल कैसे किया जाए या नकद बांटने का तरीका क्या हो या फिर शराब और साड़ियों को मतदाताओं के बीच कैसे पहुंचाया जाए। जो मतदाता खुलकर विरोध कर रहे हों, उन्हें अपराधी तत्वों की मदद से कैसे सबक सिखाया जाए। चुनाव जीतने के बाद यह तंत्र अन्य स्तंभों को भी कमजोर करने का काम बेशर्मी से करने लगता है। वह तबादला उद्योग शुरू कर देता है। निलंबन और बहाली की दुकान खोल लेता है। ठेकों और परियोजनाओं में कमीशन की दरें निर्धारित करता है, सांसद और विधायक निधि का हिस्सा अग्रिम धरा लेता है। विरोधियों को निपटाने के लिए पुलिस की मदद से फर्जी मामले दर्ज करवाता है और अपने या अपने पिता के मार्ग की सियासी बाधाओं को दूर करता है।
लोकतंत्र की इस कुरूपता को स्वीकार करने में इस नए वर्ग को कोई झिझक नहीं होती न ही उनके अभिभावकों को। इस तरह एक गैरजिम्मेदार पीढ़ी इस लोकतंत्र की कमान संभालने के लिए तैयार हो जाती है। उनका आचरण सामंती होता है। भारतीय लोकतंत्र को यह दीमक लग चुकी है और इसे खत्म करने में किसी की दिलचस्पी नहीं दिखती।
तो यक्ष प्रश्न है कि यह कौन तय करे कि नई नस्ल को सच्चे और ईमानदार लोकतंत्र का पाठ पढ़ाया जाए? संविधान सभा के अध्यक्ष रहे पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि आप कितना ही अच्छा और निर्दोष संविधान बना लें, अगर उसको अमल में लाने वाले लोग ठीक नहीं हैं तो उस सर्वोत्तम संविधान की कोई उपयोगिता नहीं है। इसका संदेश है कि परिवार परंपरा से निकले सियासतदान लोकतंत्र के विरोधी नहीं माने जाने चाहिए। आवश्यकता उनके परिपक्व प्रशिक्षण की है, जिसमें वे सामूहिक नेतृत्व की भावना को समझें और सियासी कुटेवों से दूर रहें। यह काम तो राजनेताओं को अपने घर में ही करना पड़ेगा। यह तनिक पेचीदा और कठिन काम है।
(साभार: लोकमत)
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निर्मलेंदु साहा, वरिष्ठ पत्रकार ।।
संयम सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी कि एसपी का बहुत बड़ा गुण था। उनको इस बात का अहसास था कि बदला लेने की भावना से या किसी को कटु सत्य शब्द कहकर अंततः कुछ प्राप्त नहीं होता। इसलिए हमेशा वे मुझे यही समझाते रहते थे कि मुख से कभी ऐसा शब्द हमें नहीं निकालना चाहिए, जिससे दूसरों का दिल दुखे। शायद यही कारण था कि बड़ी-बड़ी गलतियों को भी वे हंसते हुए नजरअंदाज कर दिया करते थे। माफ कर देना उनके स्वभाव का एक अभिन्न अंग था। शायद उसी में उनको आत्मसंतोष होता था। लेकिन डांट नहीं मिलने के कारण कुछ ऐसे लोग भी हुआ करते थे ‘रविवार’ में, जो बहुत ज्यादा दुखी हुआ करते थे। इस बात को लेकर परेशान रहते कि एसपी ने इतनी बड़ी गलती पर कुछ कहा क्यों नहीं! ऐसा क्यों करते थे एसपी। एक बार मैंने पूछा था कि भैया आप गलतियों को माफ क्यों कर देते हैं। उन्होंने मुझसे कहा- निर्मल, जान-बूझकर कोई गलती नहीं करता। गलतियां हो जाती हैं कभी नासमझी की वजह से, तो कभी ‘असतर्कता’ के कारण। कोई कभी जान-बूझकर डांट खाना नहीं चाहेगा और यदि ऐसा आदमी कोई है। मैं समझता हूं कि वह पागल होगा।’ मैंने कई बार बड़ी-बड़ी गलतियां की हैं ‘रविवार’ में, लेकिन उन्होंने मुझे कभी नहीं डांटा। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो क्रोध और कठोर वाणी को नियंत्रण में रखना नहीं जानते। जो सदा दूसरों की भूलों को तलाशने की कोशिश में लगे रहते हैं, बहाने खोजते रहते हैं क्रोध निकालने का। ताकि दूसरों को समझ में आ जाए कि वे बड़े हैं और जब ऐसे लोगों को बहाने नहीं मिलते, तो वे अपने-अपने तरीके से बहाने बना भी लेते हैं, लेकिन एसपी ने कभी ऐसा नहीं किया।
एसपी को शायद इस बात का एहसास था कि मान-सम्मान और प्यार-मोहब्बत से बड़ी कमाई कुछ और है ही नहीं। यही वह जीवन भर कमाते रहे। वैसे तो अनगिनत ऐसी-ऐसी घटनाएं हैं, जहां एसपी मुझे डांट सकते थे। लेकिन उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया। इसी सिलसिले में कुछ घटनाओं का जिक्र करना यहां उचित हो जाता है।
घटना नं. 1- उन दिनों ‘रविवार’ का कवर पृष्ठ अमूमन मैं ही बनवाया करता था। यानी कवर डिजाइन कैसी होगी। टीपी कौन-सी जाएगी और उसका डिजाइन कैसे बनेगा। इन सभी बिंदुओं पर मैं आर्टिस्ट से बातें करके कवर बनवाया करता था। उस अंक में राजस्थान की राजनीति पर कवर स्टोरी थी, इसीलिए एसपी जयपुर गए हुए थे। जाने से पहले उन्होंने कहा- ‘निर्मल, मैं जयपुर से फोन करके तुम्हें बता दूंगा कि कवर स्टोरी कौन सी होगी और कवर कैसे बनाना है। दो दिन बाद वहां से फोन आया और उन्होंने कवर स्टोरी तथा कवर कैसे बनाया जाए, उसकी एक रूपरेखा बता दी। तत्पश्चात मैंने कवर बना कर भेज दिया। अंक छप करके निकल गया। एसपी तब तक जयपुर से लौटकर आ भी गए थे। अमूमन गुरुवार को कवर छपकर आ जाया करता था।
उस दिन भी गुरुवार था। मैं अपने काम में व्यस्त था। शायद अगले अंक के फाइनल पेजेज चेक कर रहा था। मैं अपने कामों में इतना मगन था कि मैंने देखा ही नहीं कि एसपी मेरे पीछे खड़े हैं। फिर जब ध्यान गया, तो उन्होंने मुझसे कहा- निर्मल, जरा अंदर (केबिन में) आओ। केबिन के अंदर प्रवेश करते वक्त मैंने देखा कि उनके हाथ में ‘रविवार’ का कवर है। मैंने उत्सुक्तता जताई कि भैया कैसा है। उत्तर में उन्होंने कवर पृष्ठ को मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा। मैंने जैसा कहा था, तुमने ठीक उल्टा कर दिया। मैंने जिसे ‘कवर स्टोरी’ बनाने के लिए कहा था, तुमने उसे विशेष रिपोर्ट बना दिया और ‘विशेष रिपोर्ट’ को... ! सुनते ही मैं परेशान हो गया। उनको पता था कि मैं छोटी-छोटी चीजों से परेशान हो जाता हूं। शायद इसीलिए उन्होंने तुरंत कहा- कोई बात नहीं, ऐसा हो जाता है। मैं बाहर आया। इतनी बड़ी बात हो गई। उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। मेरी आंखों में आंसू आ गए। मुझे लगा कि अभी सबको पता चल जाएगा कि निर्मल से कोई गलती हुई है।
इसीलिए मैं तुरंत विभाग से बाहर निकल गया। थोड़ी देर बाद जब मन शांत हुआ, तो मैं अपनी सीट पर लौट आया। काफी देर तक इसी उधेड़बुन में फंसा रहा कि उन्होंने मुझे डांटा क्यों नहीं। मैं बहुत भावुक इंसान हूं। उस दिन। मुझे याद है, मैं रातभर सो नहीं सका। पत्नी मुझसे पूछती रही कि तुम्हें हुआ क्या है, मैंने उससे कुछ भी नहीं कहा। दूसरे दिन सीधे मैं एसपी के घर गया और कहा- ‘भैया, मुझे माफ कर दीजिए। वे हंसने लगे। कहा, तुम बेवकूफ हो। तुम काम करते हो, इसलिए तुमसे गलती होती है और भविष्य में भी गलतियां होती रहेंगी। उन्होंने मुझे समझाया। अगर इसी तरह सिर्फ एक गलती पर हम किसी को बुरा-भला कहना शुरू कर देंगे। तो वह और ज्यादा गलती करेगा, लेकिन कुछ नहीं कहने पर वह भविष्य में हमेशा उसी तरह का काम दोबारा करते वक्त सचेत रहेगा। इस तरह उन्होंने मुझे वहां से समझा-बुझाकर और खाना खिलाकर तुरंत ऑफिस जाने के लिए कहा। अम्मी ने उस दिन बहुत ही स्वादिष्ट खाना बनाया था।
घटना नं. 2 - गलतियां हर पत्रिका में होती हैं, इसलिए एक बार फिर मुझसे एक गलती हो गई। हुआ यूं कि एक दिन ‘रविवार’ के हम सभी साथी बाहर लॉन में बैठे शाम की चाय पी रहे थे। चूंकि मैगजीन एक दिन पहले पैकअप कर दी थी, इसलिए रिलैक्स मूड में थे। हम लोग बैठे-बैठे हंसी-मजाक कर रहे थे कि इतने में एसपी अंदर आए और हंसते हुए मुझसे पूछा कि निर्मल, तुम्हारी राशि कौन-सी है। मैंने कहा। मेरी दो राशियां हैं। नाम के अनुसार वृश्चिक और जन्म-समय के अनुसार ‘सिंह’। उनके हाथ में ‘रविवार’ का नया अंक था। उन्होंने तुरंत अंक को आगे बढ़ाया और हंसते हुए कहा कि देखो जरा, तुम्हारी राशि में क्या है। मैंने शुरू से आखिर तक अच्छी तरह देखा तो बात समझ में आ गई। उसमें ‘सिंह’ राशि गायब थी। फिर उन्होंने कहा- मैं सबसे पहले अपनी राशि देखता हूं। इसलिए पलटते ही जब देखा कि मेरी राशि नहीं है, तो पहले मैं चौंका। फिर समझ में आ गया कि एक राशि कम है। इस वाकये के बाद उन्होंने केवल इतना ही कहा कि हमेशा बारह राशियां गिन लिया करो और यह कहते हुए वे अंदर चले गए।
घटना नं. 3 - उस दिन हम लोग रिलैक्स मूड में बैठे थे। बल्कि यह कहना उचित होगा कि हम लोग भी सब शाम को भेल (बांगला भाषा में इसे मूड़ कहते हैं) खा रहे थे। हंसी-मजाक में एक-दूसरे पर टीका-टिप्पणी भी कर रहे थे। तभी एसपी हंसते हुए आए। उस दिन भी उनके हाथ में ‘रविवार’ का ताजा अंक था। मेरी नजर उनके चेहरे पर पड़ी, तो वे मुस्कुराने लगे। फिर उन्होंने राजकिशोर जी की ओर मुड़कर उनसे पूछा कि राजकिशोर जी। सुना है, आपके यहां कोई नया एडिटर आ रहा है। पहले तो राजकिशोर जी चौंक गए, फिर उन्होंने पूछा, ‘क्या! क्या कह रहे हैं सुरेंद्र जी!’ एसपी ने मैगजीन आगे बढ़ाते हुए व्यंग्य करते हुए टिप्पणी की, लगता है मैनेजमेंट ने मुझे निकाल दिया है। इस बार राजकिशोर जी की ओर मुखातिब होकर कहा कि अब आपके ‘सपने’ साकार हो जाएंगे, क्योंकि मेरे बाद तो आप ही संपादक बनने के ‘हकदार’ हैं! हम सभी यह सुनकर परेशान हो गए, क्योंकि हमें समझ में नहीं आ रहा था कि एसपी ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं! खैर, थोड़ी देर बाद उन्होंने मैगजीन का पहला पन्ना खोला और हम सभी को दिखाते हुए कहा, अब सुरेंद्र प्रताप सिंह इस ‘रविवार’ के संपादक नहीं रहे। आप लोग अपना-अपना बायोडाटा मैनेजमेंट को भेज सकते हैं और यह कहकर वे खूब ठहाके मार-मार करके हंसने लगे। मैंने उनके हाथ से मैगजीन ले ली। पहला पन्ना पल्टा, देखा कि वहां संपादक के तौर पर एसपी का नाम नहीं है, लेकिन एक स्पेस जरूर छूट गया है। मुझे बात समझ में आ गई। उन दिनों पेस्टिंग का जमाना था। नाम हर बार पेस्टिंग करके लगाया जाता था। छूटा हुआ स्पेस देखकर यह समझने में कहीं कोई दिक्कत नहीं हुई कि नाम कहीं गिर गया है। हालांकि आश्चर्य की बात तो यह है कि एसपी ने इस बड़ी बात को भी बिल्कुल नजरअंदाज कर दिया। इस तरह से मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। वे चाहते, तो इस बात पर पेस्टिंग विभाग से लेकर सभी को लाइनहाजिर करवा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि उन्हें पता था कि इससे नाम तो प्रिंट नहीं हो सकता।
घटना नं. 4 - घटनाएं तो कई हैं। इसलिए सभी घटनाओं का जिक्र करना यहां संभव नहीं है। हां, एक घटना जरूर ऐसी है, जिसका जिक्र करना यहां बहुत ही आवश्यक है, एसपी के व्यक्तित्व को समझने के लिए। यह वाकया सन 1982 का है। तब ‘रविवार’ में विज्ञापन परिशिष्ट का सारा काम मैं ही देखता था। उन्हीं दिनों मध्य प्रदेश पर 40 पेज के विज्ञापन परिशिष्ट का काम चल रहा था। तब मुझे दमे की भयानक शिकायत थी। अमूमन परिशिष्ट के काम में दो और सहयोगी मेरे साथ होते थे। परिशिष्ट का काम चल रहा था, तभी मेरी तबियत खराब होनी शुरू हो गई। धीरे-धीरे मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि मुझे अंततः छुट्टी लेनी पड़ी। ऐसी स्थिति में मैं अपना काम अपने दोनों साथियों (राजेश त्रिपाठी और हरिनारायण सिंह) को समझा-बुझाकर घर चला गया। मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि मुझे 15 दिनों की छुट्टी लेनी पड़ी। छुट्टी से लौटकर आया, तो मैंने परिशिष्ट के एवज में बिल बनाकर विज्ञापन विभाग के सीनियर मैनेजर आलोक कुमार को भेज दिया और उसके बाद मैं अपने दैनिक काम में लग गया। अचानक एक दिन राजेश ने मुझसे पूछा कि निर्मल विज्ञापन का पैसा अभी तक नहीं आया क्या। मुझे लगा कि काफी देर हो चुकी है। अब तक तो चेक आ जाने चाहिए थे।
मैं तुरंत आलोक कुमार से मिला और उनसे पूछा- आलोक दा, इस बार हमें अभी तक मध्य प्रदेश विज्ञापन परिशिष्ट के पैसे नहीं मिले। पहले उनको शायद समझ में नहीं आया। इसलिए उन्होंने पूछा। ह्वाट, मैंने कहा- ‘मध्य प्रदेश विज्ञापन परिशिष्ट का पैसा...’ मैं अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि उन्होंने जवाब में कहा- पैसा तो आत्मानंद सिंह (विज्ञापन प्रबंधक) के नाम पर लग गया है। मैंने पूछा, क्यों? आप तो जानते ही हैं कि यह सारा काम मैं करता हूं। ‘लेकिन तुम तो बीमार थे’ -उन्होंने पूछा। मैंने कहा- बीमार जरूर था, लेकिन मैं स्वयं साठ प्रतिशत काम करके गया हूं और फिर बाकी काम अपने दो साथियों में बांटकर गया था। फिर मैंने विनम्रतापूर्वक कहा कि बिल में मैंने तीन लोगों के बीच पूरे पैसे बांटकर चेक बनाने के लिए आग्रह किया है। ऐसा करिए, आप मेरे उन दोनों सहयोगियों को पैसे दे दो, क्योंकि दोनों ने मेहनत की है। अन्यथा वे भविष्य में हमारा साथ नहीं देंगे और वैसे भी मैंने वादा किया है। इस पर उन्होंने कहा। चेक बन चुका है, इसलिए अब यह संभव नहीं है। उनकी बातों से लगा कि वे खुद नहीं चाहते। इसलिए मैंने उनसे पूछा कि क्या आत्मानंद सिंह पेज बनवा सकते हैं। संपादन कर सकते हैं। प्रूफ पढ़ सकते हैं। अनुवाद कर सकते हैं? वे ये सब नहीं कर सकते! यह सब जान-बूझकर किया गया है। मुझे गुस्सा आ गया और गुस्से में मैंने कहा कि आप ‘गलत’ लोगों को ‘शह’ देते हैं। इस पर उन्होंने मुझे कहा कि तुम्हारे कहने का मतलब है कि मैं ‘बायस्ड’ हूं! मैंने कहा- ‘मैंने आपको ‘बायस्ड’ नहीं कहा। इस पर वे खड़े हो गए और चिल्लाने लगे कि जानते हो, तुम किससे बात कर रहे हो? इस पर मैंने कहा- ‘हां। जानता हूं कि आप विज्ञापन विभाग के सीनियर मैनेजर हैं। इससे क्या होता है। तब तक गुस्सा मेरे सिर पर चढ़ चुका था और मैंने उन्हें फिर चिल्लाते हुए कहा कि यदि आपके पिताजी के पास दौलत नहीं होती। तो न ही आप पढ़-लिख पाते और न ही आज आप यहां होते! हो सकता है। आप भी रिक्शा चला रहे होते या स्टेशन में कुली का काम कर रहे होते! ‘गेट आउट’ कहकर उन्होंने मुझे अपने केबिन से निकाल दिया।
मैं अपने विभाग में पहुंचा। तो भक्तो दा, हमारे सेवा संपादक, ने इशारे से मुझसे कहा कि आपको साहब बुला रहे हैं। मैं एसपी के केबिन में गया, तो देखा कि वे फोन पर कह रहे हैं कि निर्मल से तुमने कुछ उल्टी-सीधी बात जरूर की होगी। वैसे भी उसने और उसकी टीम ने ही सारा काम किया है, यहां का रजिस्टर गवाह है। फिर तुम्हारे कहने पर मैं उसे क्यों डांट दूं। यह कहकर उन्होंने फोन रख दिया। फिर मुझे बैठने के लिए कहा। मैं बैठ गया। उन्होंने कहा- ‘निर्मल, अभी-अभी आलोक का ही फोन आया था। वह बहुत गुस्से में है। अरूप बाबू (उन दिनों आनंद बाजार पत्रिका के जनरल मैनेजर थे, वैसे वे मालिक हैं) से शिकायत करने वाला था, लेकिन मैंने उसे कह दिया कि इसमें तुम्हारे विभाग की ही गलती है। तुम ऊपर जाओ। आलोक से अच्छी तरह बातकर लो।’ मैं ऊपर गया, तो इस क्षण आलोक कुमार का तेवर ही बदला हुआ था। मेरे पहुंचते ही उन्होंने मुझसे उल्टा कहा- निर्मल। जो हो गया, उसे भूल जाओ। दोबारा बिल बना कर के दो। पैसे मिल जाएंगे।’ फिर हाथ मिलाया और कोकाकोला भी पिलायी। वैसे, यहां यह बता दूं कि बाद के दिनों में आलोक कुमार और मेरे बहुत अच्छे संबंध बन गए थे। उन्होंने मेरे कहने पर मेरे एक दोस्त को नौकरी दी थी, विज्ञापन विभाग में।
यह घटना इस बात का सबूत है कि एसपी सच्चाई का साथ देने में कभी पीछे नहीं हटते थे, जबकि हम यह भलीभांति जानते थे कि एसपी और आलोक कुमार में बहुत अच्छी दोस्ती थी। दोनों एक-दूसरे के घर में दिन-रात पड़े रहते थे। लेकिन बात जब सच्चाई की होती थी, तो एसपी हमेशा सच्चाई का ही साथ देते थे, भले ही इससे उनका बहुत बड़ा नुकसान ही क्यों न हो जाए!
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।क्या न्यूज टीवी नफरतियों की आवाज बन रही है? इसका संक्षिप्त जवाब है, हां। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज साम्प्रदायिक जहर उगलने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है।
प्राइम टाइम का एजेंडा भी अब वर्चुअल दुनिया के हो-हल्ले से ही तय होने लगा
‘क्या न्यूज टीवी नफरतियों की आवाज बन रही है? इसका संक्षिप्त जवाब है, हां। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज साम्प्रदायिक जहर उगलने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है।‘ ये कहना है कि वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई का। उनका ये आर्टिकल हाल ही में हिंदी दैनिक अखबार ‘दैनिक भास्कर’ में प्रकाशित हुआ है, जिसे आप ज्यों का त्यों यहां पढ़ सकते हैं-
नूपुर शर्मा विवाद के बाद से भारतीय टीवी न्यूज मीडिया की सर्वत्र आलोचना की जा रही है। लेफ्ट-लिबरलों का कहना है कि न्यूज टीवी नफरतियों के लिए बोलने का मंच बन रही है। वहीं दक्षिणपंथियों और विशेषकर हिंदुत्ववादियों का कहना है कि न्यूज टीवी पर सिलेक्टिव रोष जताया जाता है और उस पर मुस्लिम कट्टरपंथी कुछ भी बोलने के बावजूद बच निकलते हैं। तो आखिर सच्चाई क्या है?
सबसे पहले लेफ्ट-लिबरलों का तर्क लेते हैं। क्या न्यूज टीवी नफरतियों की आवाज बन रही है? इसका संक्षिप्त जवाब है, हां। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज साम्प्रदायिक जहर उगलने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। 1990 के दशक में सरकारी तंत्र द्वारा संचालित दूरदर्शन के एकाधिकार से मुक्त होने के बाद जब निजी न्यूज चैनल सामने आई थीं, तब उनमें वैसी गलाकाट स्पर्धा नहीं थी, जैसी आज दिखलाई देती है।
जब टीवी न्यूज इंडस्ट्री नई थी तो सम्पादकों और पत्रकारों पर बाजार का दबाव नहीं था और वे जर्नलिज्म-फर्स्ट की नीति से काम कर सकते थे। लेकिन आज देश में 24 घंटे चलने वाली कोई चार सौ न्यूज चैनल हैं और अधिक से अधिक दर्शकों को अपने खेमे में लाने की मारामारी है, जिससे सनसनी रचने की होड़ मची हुई है। यही कारण है कि आज न्यूज टीवी पर जो डिबेट-फॉर्मेट प्रचलित है, उसमें होने वाली बहसें बहुत ध्रुवीकृत हो जाती हैं।
पहले जमीनी रिपोर्ट ही न्यूज का स्रोत होती थीं, लेकिन अब टीवी स्टूडियो में बैठे लार्जर-दैन-लाइफ एंकर्स खबर के बजाय शोरगुल की संस्कृति रचने में व्यस्त हो चुके हैं। अब तो बहस का स्वरूप भी आमूलचूल बदल गया है। मुझे याद आता है कि 1990 के दशक में एक बार मैंने वरिष्ठ कांग्रेस नेता वी.एन.गाडगिल को सेकुलरिज्म पर लिखे उनके एक निबंध पर चर्चा के लिए आमंत्रित किया था।
मेरी योजना थी कि दूसरा पहलू अरुण शौरी रखेंगे, जो कि गाडगिल जितने ही प्रखर बौद्धिक थे। लेकिन गाडगिल ने यह कहते हुए मना कर दिया कि मैं एक गम्भीर विषय को तू-तू-मैं-मैं में नहीं बदलना चाहता। उस जमाने में किसी विषय पर चर्चा या बहस के लिए दो या तीन मेहमानों को ला पाना कठिन था, लेकिन आज टीवी चैनल पर दस-दस विश्लेषक होते हैं और वे एक-दूसरे पर चीखते-चिल्लाते रहते हैं।
यह केवल भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में हो रहा है, जिससे समाचार-संकलन की परम्परागत पत्रकारिता खत्म होती जा रही है। टीआरपी नामक दोषपूर्ण रेटिंग सिस्टम के प्रभाव में आकर अनेक न्यूज चैनल यह मान बैठे हैं कि धार्मिक मसलों पर शोरगुल वाली बहसें करने से ही दर्शक मिलेंगे। वैसे में महंगाई या अर्थव्यवस्था जैसे नीरस समझे जाने वाले विषयों पर कोई चैनल क्यों डिबेट करेगा।
अमेरिका में फॉक्स न्यूज नफरत से मुनाफा कमाने के लिए बदनाम है। जबकि भारत की न्यूज-चैनल तो अब फॉक्स से भी आगे चली गई हैं। लेकिन जब समाज में ही हेट-स्पीच आम हो गई हो तो अकेले न्यूज-टीवी को दोष देने से क्या होगा? इस साल की शुरुआत में एक हेट स्पीच ट्रैकर ने बताया था कि 2014 के बाद से मीडिया में असंसदीय भाषा के इस्तेमाल की सुनामी आ गई है। अब जरा दक्षिणपंथियों की दलील पर बात कर लें।
याद करें कि लगभग एक दशक पूर्व अमेरिका में फॉक्स न्यूज का उदय ही इसलिए हुआ था, क्योंकि दक्षिणपंथी राजनेताओं को आपत्ति थी कि मुख्यधारा के अमेरिकी न्यूज-मीडिया पर लेफ्ट-लिबरलों का दबदबा है। शुरू में फॉक्स न्यूज भी फेयर एंड बैलेंस्ड की बात करती थी। धीरे-धीरे दक्षिणपंथियों और उनकी बातों को मीडिया में अधिक स्पेस मिलने लगा।
अगर भारत के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो इस आरोप से इनकार नहीं किया जा सकता कि एक जमाने में हमारे मीडिया में हिंदुत्ववादियों के विचारों को कोई जगह नहीं दी जाती थी। लेकिन 1992 के बाद जब भाजपा भारतीय राजनीति की धुरी बन गई, तो बदलाव नजर आने लगा।
पहले लेफ्ट-लिबरल्स नैरेटिव बनाते और चलाते थे, लेकिन अब बहुतेरे न्यूजरूम में दक्षिणपंथियों की तूती बोलती है। यह बात भी एक भ्रम ही है कि न्यूज टीवी में अल्पसंख्यक समुदाय के कट्टरपंथियों को बढ़ावा दिया जाता है। अधिकतर समय तो टीवी बहसों में टोपीधारी मुस्लिम प्रवक्ताओं का मखौल ही उड़ाया जाता है और उनका एक बुरा चेहरा सामने रखा जाता है। इनमें से कुछ टीवी-मौलानाओं की तो प्रामाणिकता भी संदिग्ध है।
नूपुर शर्मा विवाद न्यूज-टीवी के लिए भले खतरे की घंटी हो, लेकिन अब सोशल मीडिया ही सार्वजनिक चर्चाओं की दशा-दिशा तय करने लगा है। आज अनेक न्यूज चैनल ट्विटर ट्रेंड्स को फॉलो करती हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
(साभार: दैनिक भास्कर)
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।मालदीव की राजधानी माले में एक अजीब-सा हादसा हुआ। 21 जून को योग-दिवस मनाते हुए लोगों पर हमला हो गया। काफी तोड़-फोड़ हो गई।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक, वरिष्ठ पत्रकार ।।
माले में योग का विरोध क्यों ?
मालदीव की राजधानी माले में एक अजीब-सा हादसा हुआ। 21 जून को योग-दिवस मनाते हुए लोगों पर हमला हो गया। काफी तोड़-फोड़ हो गई। कुछ लोगों को गिरफ्तार भी किया गया। मालदीव में यह योग-दिवस पहली बार नहीं मनाया गया था। 2015 से वहां बराबर योग-दिवस मनाया जाता है। उसमें विदेशी कूटनीतिज्ञ, स्थानीय नेतागण और जन-सामान्य लोग होते हैं।
इन योग-शिविरों में देसी-विदेशी या हिंदू-मुसलमान का कोई भेद-भाव नहीं किया जाता है। इसके दरवाजे सभी के लिए खुले होते हैं। यह योग-दिवस सिर्फ भारत में ही नहीं मनाया जाता है। यह दुनिया के सभी देशों में प्रचलित है, क्योंकि संयुक्तराष्ट्र संघ ने इस योग-दिवस को मान्यता दी है।
मालदीव में इसका विरोध कट्टर इस्लामी तत्वों ने किया है। उनका कहना है कि योग इस्लाम-विरोधी है। उनका यह कहना यदि ठीक होता तो संयुक्तराष्ट्र संघ के दर्जनों इस्लामी देशों ने इस पर अपनी मोहर क्यों लगाई है? उन्होंने इसका विरोध क्यों नहीं किया? क्या मालदीव के कुछ उग्रवादी इस्लामी लोग सारी इस्लामी दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं?
सच्चाई तो यह है कि मालदीव के ये विघ्नसंतोषी लोग इस्लाम को बदनाम करने का काम कर रहे हैं। इस्लाम का योग से क्या विरोध हो सकता है? क्या योग बुतपरस्ती सिखाता है? क्या योगाभ्यास करने वालों से यह कहा जाता है कि तुम नमाज़ मत पढ़ा करो या रोजे मत रखा करो? वास्तव में नमाज और रोज़े, एक तरह से योगासन के ही सरल रूप हैं। यह ठीक है कि योगासन करने वालों से यह कहा जाता है कि वे शाकाहारी बनें। शाकाहारी होने का अर्थ हिंदू या काफिर होना नहीं है। कुरान शरीफ की कौनसी आयत कहती है कि जो शाकाहारी होंगे, वे घटिया मुसलमान माने जाएंगे? जो कोई मांसाहार नहीं छोड़ सकता है, उसके लिए भी योगासन के द्वार खुले हुए हैं।
योग का ताल्लुक किसी मजहब से नहीं है। यह तो उत्तम प्रकार की मानसिक और शारीरिक जीवन और चिकित्सा पद्धति है, जिसे कोई भी मनुष्य अपना सकता है। क्या मुसलमानों के लिए सिर्फ वही यूनानी चिकित्सा काफी है, जो डेढ़-दो हजार साल पहले अरब देशों में चलती थी? क्या उन्हें एलोपेथी, होमियोपेथी और नेचरोपेथी का बहिष्कार कर देना चाहिए? बिल्कुल नहीं! आधुनिक मनुष्य को सभी नई और पुरानी पेथियों को अपनाने में कोई एतराज क्यों होना चाहिए? इसीलिए यूरोप और अमेरिका में एलोपेथी चिकित्सा इतनी विकसित होने के बावजूद वहां के लोग बड़े पैमाने पर योग सीख रहे हैं, क्योंकि योग सिर्फ चिकित्सा ही नहीं है, यह शारीरिक और मानसिक रोगों के लिए चीन की दीवार की तरह सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम भी है।
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक, वरिष्ठ पत्रकार ।।
सैन्यपथ बन गया अग्निपथ!
जैसा कि मैंने पहले भी लिखा था, अग्निपथ योजना के विरुद्ध चला आंदोलन पिछले सभी आंदोलन से भयंकर सिद्ध होगा। वही अब सारे देश में हो रहा है। पहले उत्तर भारत के कुछ शहरों में हुए प्रदर्शनों में नौजवानों ने थोड़ी-बहुत तोड़-फोड़ की थी, लेकिन अब पिछले दो दिनों में हम जो दृश्य देख रहे हैं, वैसे भयानक दृश्य मेरी याददाश्त में पहले कभी नहीं देखे गए। दर्जनों रेलगाड़ियों, स्टेशनों और पेट्रोल पंपों में आग लगा दी गई, कई बाजार लूट लिए गए, कई कारों, बसों और अन्य वाहनों को जला दिया गया और घरों व सरकारी दफ्तरों को भी नहीं छोड़ा गया। अभी तक पुलिस इन प्रदर्शनकारियों का मुकाबला बंदूकों से नहीं कर रही है, लेकिन यही हिंसा विकराल होती गई तो पुलिस ही नहीं, सेना को भी बुलाना पड़ जाएगा।
कोई आश्चर्य नहीं कि अगर सरकार का पारा गर्म हो गया तो भारत में चीन के त्येन आन मान स्कवेयर की तरह भयंकर हत्याकांड शुरू हो सकता है। मुझे विश्वास है कि मोदी सरकार इस तरह का कोई बर्बर और हिंसक कदम नहीं उठाएगी। ऐसा कदम उठाते समय हो सकता है कि छात्रों और नौजवानों को भड़काने का दोष विपक्षी नेताओं के मत्थे मढ़ा जाए, लेकिन मैं पहले ही कह चुका हूं कि नौजवानों का यह आंदोलन स्वतः स्फूर्त है। इसका कोई नेता नहीं है। यह किसी के उकसाने पर शुरू नहीं हुआ है। यह अलग बात है कि विरोधी दल अब इस आंदोलन का फायदा उठाने के लिए इसका डटकर समर्थन करने लगें, जैसा कि उन्होंने करना शुरू कर दिया है। इस आंदोलन से डरकर सरकार ने कई नई रियायतों की घोषणाएं जरूर की हैं और वे अच्छी हैं।
रक्षामंत्री राजनाथ सिंह का रवैया काफी रचनात्मक है और भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने तो यहां तक कह दिया है कि चार साल तक फौज में रहने वाले जवान को वे अपने दफ्तर में सबसे पहले मौका देंगे। चार साल का फौजी अनुभव रखने वाले जवानों को कहीं भी उपयुक्त रोजगार मिलना ज्यादा आसान होगा। इसके अलावा इस अग्निपथ योजना का लक्ष्य भारतीय सेना को आधुनिक और शक्तिशाली बनाना है और पेंशन पर खर्च होने वाले पैसे को बचाकर उसे आधुनिक शास्त्रास्त्रों की खरीद में लगाना है।
अमेरिका, इस्राइल तथा कई अन्य शक्तिशाली देशों में भी कमोबेश इसी प्रणाली को लागू किया जा रहा है लेकिन मोदी सरकार की यह स्थायी कमजोरी बन गई है कि वह कोई भी बड़ा देशहितकारी कदम उठाने के पहले उससे सीधे प्रभावित होने वाले लोगों की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश नहीं करती। जो गलती उसने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाने, नोटबंदी करने और नागरिकता कानून लागू करते वक्त की वही गलती उसने अग्निपथ पर चलने की कर दी! यह सैन्य-पथ स्वयं सरकार का अग्निपथ बन गया है। अब वह भावी फौजियों के लिए कितनी ही रियायतें घोषित करती रहे, इस आंदोलन के रुकने के आसार दिखाई नहीं पड़ते। यह अत्यंत दुखद है कि जो नौजवान फौज में अपने लिए लंबी नौकरी चाहते हैं, उनके व्यवहार में आज हम घोर अनुशासनहीनता और अराजकता देख रहे हैं। क्या ये लोग फौज में भर्ती होकर भारत के लिए यश अर्जित कर सकेंगे? सच्चाई तो यह है कि हमारी सरकार और ये नौजवान, दोनों ही अपनी-अपनी मर्यादा का पालन नहीं कर रहे हैं।
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सैयद तारिक अहमद,
सीनियर सेल्स पर्सन।।
अभय ओझा, सिर्फ मीडिया इंडस्ट्री ही नहीं, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर भी एक लीजेंड व्यक्तित्व थे। ये ‘थे’ लिखना मेरे लिए कितना कठिन होगा, इससे महसूस कर सकते हैं कि एक रोज पहले ही हमारी उनसे बात हुई थी और भविष्य को लेकर कई ताने-बाने हम दोनों ने बुने थे और आज सुबह चार बजे वह ‘थे’ हो गए।
जब से मैं मीडिया वर्ल्ड में आया, तभी से उनकी काबिलियत और इंसानियत को लेकर उनके साथ मेरे बहुत अच्छे संबंध हो गए थे। मगर साथ जुड़ने का मौका ‘न्यूज नेशन’ में मिला। महज छह महीने के उस साथ में वो मेरे लीजेंड से कब बड़े भाई बन गए, पता ही नहीं चला। आज मेरे ऊपर से अभय ओझा यानी मेरे लीजेंड का साया उठ गया।
अब ऐसा लग रहा है कि मेरे गुरूर, मेरे गुरु ओझा जी को अपने जीवन का अनमोल समय इस दुनिया को देना था। ऊपर वाले ने उन्हें बुलाकर हम लोगों को तन्हा कर दिया है। पर लगता है कि अच्छे लोगों की जरूरत सिर्फ हमें ही नहीं, बल्कि ऊपर वाले को भी होती है। कहने को तो बहुत कुछ है, पर लिख नहीं पा रहा हूं। कोरोना के समय जब मेरा पूरा परिवार कोरोना की चपेट में था तो फोन करना और मेरी जरूरत को जानने की कोशिश करना, उनका रोजाना का नियम था।
और आज ऐसा है कि वो चुपचाप चले गए और हम कुछ कर नहीं सके। ये मुझे पूरी जिंदगी सालता रहेगा। मेरे गुरु, मेरे लीजेंड, आपको मेरी तरफ से विनम्र श्रद्धांजलि। अल्लाह आपकी आत्मा को शांति दे। खुदा हाफिज अभय ओझा सर।
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पूरन डावर, चिंतक एवं विश्लेषक।।
हम आजादी के बाद सोवियत गुट में रहे। ऐसे में बड़ी योजनाएं रूस के साथ, सारा आयुध रूस से...स्वाभाविक है। इसे रूस की आपके कठिन समय पर सहायता कहें या अपना उद्देश्य, मेरा मानना है कि कोई भी साम्यवादी देश या अप्रजातांत्रिक देश किसी का सगा नहीं हो सकता। अमेरिका के सहयोग से भारत की स्थिति बेहतर रहती।
परमाणु अविस्तार नीति विश्व शांति के लिए सदैव आवश्यक है। भारत ने जब परमाणु परीक्षण किया, केवल यूक्रेन ने ही नहीं, जापान, ऑस्ट्रेलिया, यूके व यूरोप सहित लगभग सबने प्रतिबंध लगाए। मेरा मानना है कि जब तक देश पूरी तरह परिपक्व न हो जाए और परमाणु हथियार का इस्तेमाल अंतिम उपाय के रूप में यदि जरूरी न हो, तब तक उसका प्रयोग रोकना आवश्यक है। यह बात अलग है कि हमारी सीमा के असुरक्षित होने और पाकिस्तान के भी परमाणु संपन्न होने के कारण अपनी रक्षा के लिए और एक बड़े लोकतंत्र के नाते हमें इनकी आवश्यकता थी, लेकिन हमने पहले इनका इस्तेमाल न करने पर अपनी प्रतिबद्धता रखी।
समय आने पर बुश ने स्वयं भारत के साथ परमाणु संधि की, उसके पीछे का उद्देश्य स्पष्ट था। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और हमें इसे हर हाल में बचाना होगा। यह अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा के अनुरूप है। नाटो विश्व शांति के लिए कभी खतरा नहीं, बल्कि शांति के लिए आवश्यक है। इराक, लीबिया, सीरिया और अफगानिस्तान में जंगलराज था। यह अपने देशवासियों के उत्पीड़न सहित पूरे विश्व के लिए खतरा थे। इन देशों को दुरुस्त करना और प्रजातंत्र के लिए प्रयास करना अमेरिका के मूल उद्देश्यों में है।
भारत के आगे पाक एक कमजोर देश था। यदि भारत की आक्रामकता कहीं अमेरिका ने समझी तो बचाव का प्रयास किया। यद्यपि भारतीय के नाते हम इसका समर्थन नहीं कर सकते। अमेरिका एवं रूस में हमेशा शीत युद्ध रहा है। साम्यवादी देश क्यूबा उस महाद्वीप में है और अमेरिका का उद्देश्य हर देश को स्वतंत्र और हर देश में प्रजातंत्र है। (refer to Jefferson Declaration of Independence)
नाटो का सदस्य बनने मात्र से रूस को खतरा हो सकता है, इसलिए यूक्रेन को समाप्त कर दिया जाए, बजाय इसके अपनी शक्ति को बड़ा कर संभावित खतरे से लड़ने की क्षमता बनाए। रूस से सटे अनेक देश नाटो के सदस्य हैं। रूस पर कब हमला हो गया जो यूक्रेन के नाटो सदस्य बनने के बाद हो जाता। वास्तविकता यह है कि यूक्रेन, रूस के खतरे से अपने आपको बचाने और सुरक्षित करने के लिए ही नाटो की सदस्यता चाहता था। उसे रूस से खतरा था, यह इस युद्ध ने सिद्ध कर दिया।
यूक्रेन को बलि का बकरा नहीं बनाया, बल्कि अमेरिका न युद्ध को टालने के हर संभव प्रयास किए। धमकी भी दीं, लेकिन रूस नहीं माना और यूक्रेन अभी नाटो का सदस्य बना नहीं। ऐसे में अमेरिका यदि बीच में सीधे कूदता तो विश्वयुद्ध उसी दिन शुरू हो जाना था। वह यूक्रेन की यथासंभव मदद कर रहा है और जब तक विश्व युद्ध टल सके, टाल रहा है।
मैं निर्यातक हूं। सोवियत ट्रेड को नजदीक से देखा है। बंद अर्थव्यवस्था के कारण पूरा दोहन भारत का हुआ है। भारत के व्यापारिक संतुलन बिगड़ने का बड़ा कारण यह रहा है। अनेक उदाहरण और संस्मरण हैं, पूरा एक अलग लेख लिखा जा सकता है। यह मेरे निजी विचार और सोच है। विचारधाराओं में भिन्नता समाज का एक भाग है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
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