'एसपी की एक थपकी ने मुझे कितना कुछ दिया, शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता'

एसपी ने अपनी ढाई दशक की पत्रकारिता में हिंदी पत्रकारिता को नए तेवर, नए आयाम दिए। सच तो यह है कि उन्होंने हिंदी पत्रकारिता की दिशा भी बदली और दशा भी।

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Monday, 27 June, 2022
SPSingh8775

डॉ. वीरेन्द्र आजम ।।

'ये थी खबरें आज तक-इंतजार कीजिए कल तक’ यही वो वाक्य है जिसने हिंदी पत्रकारिता में क्रांति का सूत्रपात किया। यही वो वाक्य है जो टीवी समाचार सुनने वालों के दिल में कहीं गहरे तक उतर गया था। यही वो वाक्य है जिसने टीवी समाचारों के प्रति लोगों में आकर्षण पैदा किया। यही वो वाक्य है जिसने इलेक्ट्रिानिक मीडिया को लोकप्रियता दी। इस वाक्य के जन्मदाता थे, हिंदी पत्रकारिता के नायक सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी एसपी। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अपनी अमिट छाप छोड़ने और हिंदी पत्रकारिता को नई दिशा देने वाले इस मनीषी ने अपनी सशक्त लेखनी और प्रखर प्रतिभा के बल पर बहुत जल्द पत्रकारिता जगत में अपनी पहचान बना ली थी। व्यवहार से शिष्ट, कार्य से विशिष्ट।

एसपी ने अपनी करीब ढाई दशक की पत्रकारिता में हिंदी पत्रकारिता को नए तेवर, नए आयाम दिए। सच तो यह है कि उन्होंने हिंदी पत्रकारिता की दिशा भी बदली और दशा भी। भला ‘रविवार’ को कोई कैसे भूल सकता है? उनके सम्पादन में ‘रविवार’ ने हिंदी पत्रकारिता का उस समय जो इतिहास लिखा, वह आज भी गौरवपूर्ण है। 'स्कूप' और 'रिर्पोटिंग' में उन्होंने अंग्रेजी पत्रकारिता को बार-बार आईना दिखाया। ग्रामीण क्षेत्रों, विशेषकर महिलाओं व दलित अत्याचारों को ‘रविवार’ ने तथ्यों सहित प्रमुखता से प्रकाशित करके न केवल समाज का वास्तविक चेहरा देश के सामने रखा बल्कि लोकतंत्र के इस चतुर्थ स्तम्भ की शक्ति का भी अहसास कराया। बागपत का माया त्यागी काण्ड हो या देहुली हत्याकाण्ड, बीहड़ों की दस्यु सुंदरी फूलनदेवी का प्रथम साक्षात्कार हो या तराई के आदिवासियों का शोषण, सभी में ‘रविवार’ ने अंग्रेजी पत्रकारिता को पीछे छोड़ते हुए बाजी मारी।

साम्प्रदायिक दंगों की रिपोर्टिंग में तो ‘रविवार’ ने हिंदी पत्रकारिता का ट्रेंड ही बदल दिया था। उस समय के मेरठ, संभल, मुरादाबाद, अलीगढ़, वाराणसी, रांची और हैदराबाद दंगों की रिपोर्टिंग इसके प्रमाण हैं। दरअसल, एसपी अपने देहात और छोटे शहरों के रिपोर्टर्स पर पूरा भरोसा करते थे। अपने प्रशिक्षण काल में डॉ. धर्मवीर भारती, खुशवंत सिंह और कमलेश्वर जैसे दिग्गजों से जो दिशा, स्नेह, सहयोग और विश्वास उन्हें मिला, वह उन्होंने आगे बांटा भी। वह युवाओं को आगे बढ़ाने के लिए न केवल उन्हें प्रोत्साहित करते, बल्कि उनके साथ अपने अनुभव भी बांटते थे।

मुझे याद है वर्ष 1989 का लोकसभा चुनाव। मैं सहारनपुर जिला मुख्यालय पर 'नवभारत टाइम्स' का संवाददाता था। एक दिन नवभारत टाइम्स के तत्कालीन उत्तर प्रदेश संस्करण प्रभारी अरुण दीक्षित का मुझे टेलिग्राम मिला-‘तुम्हें कुछ दिन उत्तर प्रदेश डेस्क पर कार्य करना है, तुरन्त दिल्ली आओ, एसपी का निर्देश है।’ यह था उनका भरोसा। एक दिन जब मैं डेस्क पर बैठा एक खबर को  एडिट कर रहा था तो न जाने कब मेरे पीछे आकर खड़े हो गए और मुझे कार्य करते देखते रहे, बाद में मेरी पीठ थपथपाई और आगे बढ़ गए। यह था उनका प्रोत्साहन। तब की एक थपकी ने मुझे कितना कुछ दिया, मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता।

3 दिसम्बर 1948 को गाजीपुर जिले के पातेपुर गांव में जन्मे एसपी सिंह को गांव के एक स्कूल में चौथी कक्षा तक पढ़ाई करने के बाद आठ वर्ष की उम्र में कोलकता भेज दिया गया। वहीं उन्होंने बी.ए.किया और फिर वहीं से हिंदी में एम.ए. किया। एसपी सुरेंद्रनाथ कॉलेज में वामपंथी राजनीति में सक्रिय हो भाकपा के संगठन ए.आई.एस.एस से जुड़े और यूनियन की पत्रिका के संपादक बन गए। एम.ए.के बाद फैलोशिप मिला, पी.एच.डी. की और सुरेंद्रनाथ कॉलेज में ही लेक्चरर हो गए। एस.पी.का 1972 में पत्रकारिता में प्रवेश तब हुआ, जब उन्हें मुम्बई के नवभारत टाइम्स में प्रशिक्षु पत्रकार चुना गया।

‘माधुरी’ में कुछ समय के प्रशिक्षण के बाद उन्हें ‘धर्मयुग’ का संपादक बनाया गया। अपने लेखन, लगन व पत्रकारिता में प्रतिबद्धता के कारण शीघ्र ही उन्होंने अपनी पहचान कायम कर ली और जब मार्च 1977 में ‘रविवार’ का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ तो उन्हें उसके सम्पादन का दायित्व सौंपा गया। फरवरी 1985 में नवभारत टाइम्स के बम्बई (अब मुंबई) संस्करण के स्थानीय संपादक बनाए गए। लेकिन एक वर्ष बाद ही 1986 में नवभारत टाइम्स का कार्यकारी संपादक बनाकर दिल्ली बुला लिया गया। दिसम्बर 1991 में नवभारत टाइम्स छोड़कर 1994 तक उन्होंने स्वतंत्र पत्रकारिता की।

अक्टूबर 1994 में वे अंग्रेजी दैनिक ‘द टेलिग्राफ’ के राजनीतिक संपादक बने। जुलाई 1995 में वे ‘इंडिया टुडे’ से जुड़े। पहले वह पत्रकारिता के भाषाई संस्करणों के कार्यकारी संपादक और फिर ‘आजतक ’ के प्रारम्भ होने पर उन्हें उसका अस्थाई प्रभार दिया गया। एक वर्ष बाद ही ‘टीवी टुडे’ के कार्यकारी निर्माता बने और ‘आजतक’ का काम स्थाई रूप से देखने लगे।

सामाजिक पहलुओं पर एसपी की गहरी पकड़ थी। वह समाज के प्रत्येक व्यक्ति को सम दृष्टि से देखते और सम्मान देते थे। उनकी सहजता, सरलता, मृदु व्यवहार और आम आदमी के प्रति उनकी सोच को समझने के लिए एक उदाहरण पर्याप्त होगा। नवभारत टाइम्स में देहात के एक संवाददाता की खबर पर एक ग्रामीण ने मुकदमा दर्ज कर दिया। कार्यकारी संपादक होने के नाते उन्हें भी सहारनपुर न्यायालय में तारीख पर आना पड़ा। न्यायालय में उपस्थिति के बाद उन्होंने मुझसे उक्त मुकदमे की पूरी जानकारी ली और बोले- ‘मुझे उससे मिलवाओ जिसने मुकदमा किया है।’ नवभारत टाइम्स के वकील ने कहा- ‘अरे सर! वह तो गांव का साधारण सा ग्रामीण है।’ एसपी बात काट कर बीच में ही बोल पड़े, ‘आदमी साधारण हो या असाधारण, ग्रामीण हो या शहरी, सब की इज्जत और सम्मान होता है, यदि मेरे संवाददाता ने गलती की है तो हमें खेद छापना चाहिए था।’ बाद में जब वह उस ग्रामीण से मिले तो उन्होंने कहा- ‘भाई मुझे खेद है कि मेरे रिपोर्टर ने तुम्हें कष्ट पहुंचाया।’ यह सुनकर वह ग्रामीण हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और बाद में उसने अपना मुकदमा वापस ले लिया। यह थी एसपी के व्यक्तित्व की विशालता।

एसपी ने सिद्धांतों से भी समझौता नहीं किया और अपने पेशे के प्रति सदैव प्रतिबद्ध रहे। उन्होंने एक साक्षात्कार में एक अखबार से कहा भी था- ‘मैंने कभी किसी मिशन के तहत पत्रकारिता नहीं की, मेरी प्रतिबद्धता पत्रकारिता के प्रति है।’ लेकिन साथ ही बाजार की सच्चाई को भी समझा और उस पर कभी मुंह नहीं बिचकाया। हिंदी पत्रकारिता का अवसान मान उस पर रुदन करने वालों के तर्क से वह कभी सहमत नहीं हुए। वह यह मानने को तैयार नहीं थे कि हिंदी अखबार संकट के दौर से गुजर रहे हैं।

‘जनसत्ता’ को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा भी था-‘ऐसा मानना घोर अज्ञान की अभिव्यक्ति है, यह तो हिंदी पत्रकारिता का स्वर्ण युग है। हिंदी और भाषाई अखबारों की पाठक संख्या पूंजी विज्ञापन और मुनाफा लगातार बढ़ रहा है।’ शायद काल के कपाल पर लिखा हिंदी पत्रकारिता का भविष्य उन्होंने पढ़ लिया था और सचमुच आज हिंदी पत्रकारिता का विस्तार बहुत तीव्रता से हो रहा है। निरंतर नए भाषाई अखबारों का प्रकाशन हो रहा है और जो पहले से स्थापित हैं उनके नये संस्करण भी निकल रहे हैं।

‘आजतक’ की शुरुआत हुई तो वह हिंदी पत्रकारिता के एक नए नायक के रूप में उभरे। एसपी ने उस समय ‘आजतक’ में भाषा के स्तर पर सहज, सरल और मुहावरेदार हिंदी का प्रयोग किया, जिसे हर किसी ने न केवल स्वीकार किया बल्कि सराहा भी। यही वह भाषा थी, जिससे लोगों का टीवी की खबरों के प्रति रुझान बढ़ा। समाचारों के चयन में भी उन्होंने एहतियात बरती और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी खबरों को प्राथमिकता दी। ‘आजतक’ के उस समय के समाचारों को सुनना सुखद होता था। एसपी का समाचार वाचन और प्रस्तुतिकरण टीवी समाचारों के इतिहास में आज भी मील का पत्थर है।

16 जून 1997 को एसपी ब्रेन हेमरेज के कारण अस्पताल में भर्ती हुए और 27 जून 1997 की सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके निधन से हिंदी पत्रकारिता में जो स्थान रिक्त हुआ उसकी भरपाई आज भी नहीं हुई है। एसपी एक सशक्त लेखक, एक प्रखर पत्रकार, एक दमदार वाचक, एक मंजे हुए संचालक और एक कुशल संपादक के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ इंसान थे।

(लेखक सहारनपुर से प्रकाशित होने वाली हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका 'शीतलवाणी' के संपादक हैं )  

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