पत्रकार के लिए दिखने, बिकने और लिखने से भी ज्यादा जरूरी है ये बात: दीपक चौरसिया

बहुप्रतिष्ठित ‘एक्स1चेंज4मीडिया न्यूतज ब्रॉडकास्टिंग अवॉर्ड्स’ (enba) 16 फरवरी को दिए...

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Tuesday, 19 February, 2019
Last Modified:
Tuesday, 19 February, 2019
Deepak Chaurasia

समाचार4मीडिया ब्यूरो।।

बहुप्रतिष्ठित ‘एक्‍सचेंज4मीडिया न्‍यूज ब्रॉडकास्टिंग अवॉर्ड्स’ (enba) 16 फरवरी को दिए गए। इनबा के 11वां एडिशन के तहत नोएडा के होटल रेडिसन ब्लू में एक समारोह में ये अवॉर्ड्स दिए गए। कार्यक्रम से पहले आयोजित NewsNextConference के अंतगर्त कई पैनल डिस्कशन भी हुए, जिसके द्वारा लोगों को मीडिया के दिग्गजों के विचारों को सुनने का मौका मिला।

‘इंडियन ब्रॉडकास्टिंग फाउंडेशन’ के पूर्व जनरल सेक्रेटरी और फिल्म प्रड्यूसर भुवन लाल ने बतौर सेशन चेयर ‘Ratings, Propaganda& Perspective in front of editors while telling compelling stories’ विषय पर हुए एक पैनल डिस्कशन को मॉडरेट किया, इस पैनल डिस्कशन ‘इंडिया न्यूज’ के एडिटर-इन-चीफ दीपक चौरसिया, बीबीसी (इंडिया) के डिजिटल एडिटर मिलिंद खांडेकर, जी बिजनेस के मैनेजिंग एडिटर अनिल सिंघवी और न्यूज 24 के मैनेजिंग एडिटर दीप उपाध्याय शामिल हुए।

पैनल डिस्कशन की शुरुआत में दीपक चौरसिया  का कहना था कि जो घटना कश्मीर में घटी, उसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। उन्होंने कहा, ‘अभी भी जब मैं पैनल डिस्कशन के लिए आ रहा था, तब भी लोग सड़कों पर निकले हुए थे। उन लोगों ने हाथों में तिरंगा ले रखा था और वे इंसाफ के लिए नारे लगा रहे थे। सवाल ये है कि आप तटस्थ रहना चाहते हैं, लेकिन आपका दिल आपको तटस्थ नहीं रहने देता है। दिल ये कहता है कि आपको भी इस खबर के साथ इनवॉल्व होना है। लेकिन एक एडिटर के तौर पर एक ठीक खबर देना, उसके तमाम पक्षों को समझाना और प्रोपेगेंडा में न पड़ना मेरी नजर में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है।’

दीपक चौरसिया ने कहा, ‘बतौर एडिटर मैं ये कहना चाहूंगा कि पुलवामा हमले के बाद हमारे न्यूज रूम में इस बात को लेकर चर्चा हुई कि कश्मीर के लोगों को हमें अपने पैनल में जगह देनी चाहिए या नहीं और मुझे ये जानकर बहुत ही सुखद आश्चर्य हुआ कि देश के ज्यादातर टीवी चैनलों ने पाकिस्तान के लोगों को बतौर एक्सपर्ट उस दिन अपने यहां जगह नहीं दी। क्योंकि हमें लगा कि वे जो भी बात कहेंगे, वो प्रोपेगेंडा के तहत होगी। हमने पाकिस्तान वालों की टोन हमेशा देखी है कि जब भी हिन्दुस्तान के अंदर कुछ ऐसा होता है और पाकिस्तान पर आरोप लगाए जाते हैं तो वे इसी बात से शुरुआत करते हैं कि आपने ही ऐसा करवा दिया होगा और आपके कारण ही ऐसा हुआ है, क्योंकि आपका काम ही पाकिस्तान पर बार-बार आरोप लगाना है। आपके पास कोई ऐसी छड़ी है जो सीधे पाकिस्तान को लगती है।’

दीपक चौरसिया का कहना था कि उस दिन तय किया गया कि किसी भी पाकिस्तानी पत्रकार को जगह नहीं दी जाएगी। जिन लोगों ने ऐसा किया भी था, उन्होंने भी अपने कदम वापस खींच लिए और किसी भी पाकिस्तानी पत्रकार अथवा पैनलिस्ट को जगह नहीं दी गई, क्योंकि हमें ये लगता था कि ये हमारा खुद का मामला है और चूंकि इतनी बड़ी शहादत हुई है और फोर्स पर इतना बड़ा हमला हुआ है, तो हमें किसी भी प्रोपेगेंडा में नहीं पड़ना है। हमें अपनी क्रेडिबिलिटी बनाकर रखनी है। किसी भी पत्रकार के लिए दिखना, बिकना और लिखना तो जरूरी है ही, लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी उसकी क्रेडिबिलिटी मायने रखती है। ऐसे में अपनी क्रेडिबिलिटी को बचाए रखने के लिए हम सभी को समय-समय पर उसी के अनुसार निर्णय लेने होंगे।’

उनका कहना था कि दर्शक काफी समझदार हैं और वे चैनल खोलते ही पता लगा लेते हैं कि चैनल किस बात का प्रोपेगेंडा कर रहा है। हम जब भी जनता के बीच जाते हैं तो हमें बताया जाता है कि फलां चैनल तो सरकार के पक्ष में है और फलां चैनल उसका विरोधी है। दीपक चौरसिया का कहना था, ‘जनता के पास विभिन्न मीडिया प्लेटफॉर्म्स के द्वारा इंफॉर्मेशन का फ्लो बहुत ज्यादा है और यदि कोई चैनल ये सोचकर चलता है कि उसके प्रोपेगेंडा को दर्शक समझ नहीं पाएंगे और दर्शक उनके प्रोपेगेंडा पर चलकर काम करने लगेंगे तो यह बिल्कुल गलत है। हां, ये चैनल अपने ख्याली पुलावों में तो रह सकते हैं, लेकिन दर्शकों को मूर्ख समझने की भूल कतई नहीं करनी चाहिए। क्योंकि दर्शकों को सब कुछ पता है। दर्शक बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि कब आप खबर चला रहे हैं और कब प्रोपेगेंडा चला रहे हैं। कई चैनलों के बारे में तो दर्शक साफ बोलने लगे हैं कि अमुक चैनल उस पार्टी का तो दूसरा अमुक पार्टी का है। यह देखकर मुझे लगता है कि इस बारे में जनता बहुत अच्छी तरह जानती है।’

दीपक चौरसिया का यह भी कहना था, ‘हो सकता है कि किसी चैनल ने किसी पार्टी की विचारधारा अपना रखी हो, लेकिन आजकल के जर्नलिज्म की बात करें तो खुला खेल फर्रुखाबादी हो गया है। आज आप सामने वाले आदमी को देखते हैं, उसका चेहरा पढ़ते हैं और ये समझ लेते हैं कि अगला वाक्य उसके मुंह से क्या निकलेगा। मुझे लगता है कि हम पत्रकारों को इस तरह की स्थिति से भी बचना चाहिए। हालांकि मैं किसी को राय देना नहीं चाहता, लेकिन मैं ये जानता हूं कि ये हकीकत है और इसे हम चाहें तो भी नहीं बदल सकते हैं। आइडियलिज्म से हम बहुत आगे निकल चुके हैं।’  

भुवन लाला द्वारा यह पूछे जाने पर कि पत्रकारिता में उनके करियर का सबसे गौरवपूर्ण क्षण कौन सा था?, दीपक चौरसिया ने कहा,’मुझे लगता है कि ऐसा क्षण मेरी जिंदगी में आना अभी बाकी है, जिसके बारे में मैं ये कह सकूं कि ये मेरा गौरवमयी पल था। लेकिन 2004-05 में आई सुनामी का एक किस्सा मुझे याद है, जब हमने अंडमान-निकोबार द्वीप समूह से छह साल की एक बच्ची को बचाया था। उसके लिए हमने एक कैंपेन भी चलाया, जो सफल रहा था। उसके बाद जब मैं बच्ची से मिला तो माता-पिता और भाई को खोने के बावजूद वह छह साल की बच्ची कैमरे के सामने बोलना चाहती थी। उसने टूटी-फूटी हिंदी में मुझे एक लाइन भी बोली थी, उसने कहा था कि हिम्मत मत हारना। मुझे लगता है कि वह सीख मुझे आज भी याद है और जब आप अपनी पत्रकारिता के जरिये वाकई किसी की मदद करते हैं, तो वह क्षण काफी गौरवशाली लगता है कि हम जो कहते हैं, करते हैं अथवा लोगों को दिखाते हैं, उसका एक सार्थक परिणाम हमारे सामने आया है।’

उनका कहना था, ‘मुंबई में हुए आतंकी हमले से लेकर अब तक देश का मीडिया काफी मैच्योर हो चुका है। मैंने मुंबई में हुए उस हमले को कवर किया था, वहां से जो-जो रिपोर्ट हुआ है और जो-जो गलतियां हुई हैं, उसके बाद कई तरह के कमिटमेंट किए गए। सबसे बड़ा कमिटमेंट तो ये था कि यदि कहीं आतंकी हमला हुआ है और उसके खिलाफ कार्रवाई की जा रही है तो उससे जुड़े किसी भी दृश्य का लाइव प्रसारण नहीं होगा। उसके ऊपर फाइल फुटेज लिखा जाएगा और यह बताया जाएगा कि इसका लाइव प्रसारण नहीं हो रहा है। किसी भी तरह से इस तरह की बातें नहीं होंगी, जिससे समाज में किसी भी तरह का वैननस्य बढ़े। किसी भी तरह से ऐसी बातें नहीं होंगी, जिससे सुरक्षा बलों अथवा शहीद हुए लोगों की क्रेडिबिलिटी पर सवाल उठे। इसके साथ ही मैं ये भी कहना चाहूंगा कि मीडिया ने अपने लिए कई बेंचमार्क तय किए हैं और कई लक्ष्मणरेखाएं भी खींची हैं। और मैं ऐसी कई लक्ष्मणरेखाएं बता सकता हूं। ऐश्वर्या राय बच्चन के यहां जब बेटी हुई थी, तो हम लोगों ने बैठकर तय किया था कि इस तरह की कवरेज को अब टीवी से दूर रखना होगा। कहने का मतलब है कि समय के साथ मैच्योरिटी का लेवल बढ़ा है। 1995 में हमारा पहला न्यूज बुलेटिन आया था, उसके बाद 1996-97 में हमारा 24 घंटे का चैनल आया और आज मैं आपको कह सकता हूं कि ये पूरी तरह से बालिग हो चुका है। हां, इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी, क्योंकि अगर किसी सिस्टम में कुछ पॉजिटिव होते हैं तो कुछ निगेटिव भी होते हैं।’

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