न्यूज इंडस्ट्री ने खुद को नहीं बदला, इसलिए दर्शक डिजिटल की ओर बढ़े: सुधीर चौधरी

सीनियर एंकर व पत्रकार सुधीर चौधरी ने कहा कि पिछले दो दशकों में न्यूज ब्रॉडकास्ट इंडस्ट्री ने खुद को नए तरीके से गढ़ने की कोशिश नहीं की, इसी वजह से दर्शकों का रुझान अन्य प्लेटफॉर्म्स की ओर बढ़ गया।

Last Modified:
Monday, 14 April, 2025
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जाने-माने एंकर व पत्रकार सुधीर चौधरी ने कहा है कि पिछले दो दशकों में न्यूज ब्रॉडकास्ट इंडस्ट्री ने खुद को नए तरीके से गढ़ने की कोशिश नहीं की, इसी वजह से दर्शकों का रुझान धीरे-धीरे अन्य प्लेटफॉर्म्स की ओर बढ़ गया। उन्होंने कहा कि जहां सोशल मीडिया पर करोड़ों फॉलोअर्स वाले इंफ्लुएंसर्स हैं, वहीं न्यूज इंडस्ट्री में ऐसा कोई स्टार नहीं बन पाया है।

उन्होंने कहा, “सबसे कम इनोवेशन न्यूज ब्रॉडकास्ट में ही हुआ है। हर नई तकनीक के साथ मौजूदा फॉर्मेट को खुद को बदलना पड़ता है। आज उपभोक्ता के पास अनगिनत विकल्प हैं- न्यूज अब वॉट्सऐप, इंस्टाग्राम, स्नैपचैट, टीवी, प्रिंट और सोशल मीडिया सभी पर उपलब्ध है। अब एक ही स्टोरी को अलग-अलग प्लेटफॉर्म्स पर, अलग-अलग फॉर्मेट और समय में पेश करना होता है। इससे दर्शकों को अधिक विकल्प मिले हैं और उन्हें सबसे ज्यादा फायदा हुआ है।”

वे श्री अधिकारी ब्रदर्स के मैनेजिंग डायरेक्टर कैलाशनाथ अधिकारी के साथ एक पॉडकास्ट में बातचीत कर रहे थे।

सुधीर चौधरी ने कहा कि आज देश में लगभग 400 न्यूज चैनल हैं, लेकिन इनमें से 10–15 प्रमुख चैनल एक ही फॉर्मेट पर चलते हैं—रेड टिकर, एक जैसे हेडलाइंस, एक जैसे स्टूडियोज और टेबल्स, एक जैसे पैनलिस्ट्स और एक जैसे मुद्दों पर बहस। न्यूजरूम में टीआरपी और रेटिंग को देखकर कंटेंट का सुझाव दिया जाता है, और इंडस्ट्री का 99% हिस्सा इसी ‘रिएक्टिव’ तरीके से चलता है।

उन्होंने कहा, “इंडस्ट्री रास्ता भटक गई है। एक ही फॉर्मूला बार-बार दोहराने के बजाय अच्छा कंटेंट तैयार किया जा सकता है। टीआरपी, रेटिंग्स और पैसा—ये सब अच्छे कंटेंट का परिणाम होते हैं। मैंने अपने शो में यही सिद्धांत अपनाया।”

अपनी रिसर्च पद्धति को लेकर उन्होंने बताया कि उनके समाचार रिपोर्ट्स आम लोगों की जिंदगी से जुड़ी होती थीं और शुरुआत में अन्य चैनल्स ने उनका मजाक उड़ाया, क्योंकि वे पारंपरिक राजनीतिक खबरों जैसे कैबिनेट मीटिंग और पार्टी अलायंस पर टिके थे। बाद में जब उनके समाचार विश्लेषण की शैली लोकप्रिय हुई, तब कई चैनलों ने उसे अपनाया, लेकिन केवल रेटिंग्स के लिए, आत्मसात करने के लिए नहीं।

उन्होंने कहा, “जब तक एंकर खुद अपनी स्टोरी को महसूस नहीं करेगा, तब तक वह दर्शकों से जुड़ नहीं पाएगा। न्यूज रिपोर्टर को छोटे अखबारों में छपी कहानियों को तलाशना चाहिए और उन्हें आम आदमी के लिहाज से प्रभावशाली बनाना चाहिए।”

डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर दर्शकों के बढ़ते झुकाव पर उन्होंने कहा, “रेडियो और प्रिंट के समय में टीवी आया, फिर डिजिटल और अब AI। सब साथ में चलते रहे हैं, लेकिन हर बार पुराने फॉर्मेट्स को खुद को बदलना पड़ा। पहले फिल्में तीन घंटे की होती थीं, अब डेढ़ घंटे की हैं। पहले टेस्ट क्रिकेट पांच दिन चलता था, अब टी20 हो गया है। सब कुछ वही है—क्रिकेटर, बैट, बॉल, रन, स्टेडियम, दर्शक—लेकिन क्रिकेट ने खुद को दोबारा परिभाषित किया है।”

उन्होंने बताया कि सोशल मीडिया कैसे इकोसिस्टम को बदल रहा है। “पहले लोग कहते थे, हमने आपको टीवी पर देखा। अब कहते हैं, हम आपको फॉलो करते हैं। यह बड़ा बदलाव है। यूट्यूब और रील्स जैसे प्लेटफॉर्म पर लोग बड़ी संख्या में आ रहे हैं, वहीं पारंपरिक मीडिया में वर्षों से काम कर रहे लोगों के उतने फॉलोअर्स नहीं हैं। आने वाले समय में चुनौती होगी—रफ्तार और सटीकता दोनों को बनाए रखना। रफ्तार के लिए सच्चाई की बलि नहीं दी जा सकती।”

फेक न्यूज की पहचान कैसे करें, इस पर उन्होंने कहा कि न्यूज चैनल्स के पास मल्टी-सोर्स होते हैं, जबकि सोशल मीडिया पर कंटेंट क्रिएटर्स के पास स्रोत तो ज्यादा होते हैं लेकिन प्रोसेस नहीं होता। “बड़ी एजेंसियां खबरों को जुटाने और उन्हें जांचने में बड़ा निवेश करती हैं। चैनलों के पास मल्टी-लेयर सिस्टम होता है, जहां खबरें जांची जाती हैं। लेकिन यूट्यूबर, जो अकेले काम करता है, उसके पास ऐसा कोई सिस्टम नहीं होता, जिससे कई बार गलत खबरें सामने आ जाती हैं।”

उन्होंने कहा कि खबरों को संख्याओं के जरिए समझाना और पेश करना बेहद जरूरी है। न्यूज निर्माण एक गंभीर काम है—इसमें अनुशासन चाहिए और कंटेंट क्रिएटर्स को लगातार खुद को अपग्रेड करते रहना चाहिए।

अपने भविष्य को लेकर उन्होंने कहा कि अब वे टीआरपी या नंबर के पीछे नहीं भागना चाहते, बल्कि स्वतंत्र रूप से कंटेंट बनाना चाहते हैं। उन्होंने सोशल मीडिया कंटेंट क्रिएटर्स से अपील की कि वे उनके काम को आगे बढ़ाने में सहयोग करें।

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‘कम्युनिकेटर ऑफ द ईयर’ बनीं Stryker India की गीतिका बांगिया, साझा की अपनी जर्नी

गीतिका बांगिया ने ‘कम्युनिकेटर ऑफ द ईयर’ अवॉर्ड जीतने के अनुभव, अपने करियर की यात्रा, इससे मिली अहम सीखों और कम्युनिकेशन इंडस्ट्री में अब तक सामने आई चुनौतियों के बारे में बात की।

Last Modified:
Saturday, 19 July, 2025
Geetika781

कम्युनिकेशन इंडस्ट्री के निर्माण में महिलाओं की भूमिका हमेशा महत्वपूर्ण रही है, भले ही उनकी कहानियां हमेशा सुर्खियों में न रही हों। इस क्षेत्र में कई ऐसी असाधारण महिलाएं हैं जिनकी प्रतिभा हमारी दुनिया को आकार देती है, वे सहानुभूति और नवाचार को ऐसे जोड़ती हैं जिससे संवाद अधिक मानवीय, समावेशी और प्रभावशाली बनता है।

आज की यह प्रस्तुति गीतिका बांगिया, हेड – कॉर्पोरेट कम्युनिकेशंस, स्ट्राइकर इंडिया की उपलब्धियों को समर्पित है। गीतिका को हाल ही में e4m PR & Corp Comm Women Achievers Awards 2024 में ‘कम्युनिकेटर ऑफ द ईयर (कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन प्रोफेशनल)’ का सम्मान मिला है। यहां पढ़िए उनकी सफलता की खूबियां-

कम्युनिकेशन इंडस्ट्री में आपकी यात्रा कैसी रही? एक महिला लीडर के रूप में अपने अनुभव और चुनौतियां साझा करें।

मेरा कम्युनिकेशन करियर करीब दो दशकों से अधिक का है। यह उस दौर से शुरू हुआ जब प्रेस रिलीज फिजिकली भेजी जाती थी और अब डिजिटल युग और व्यापक स्टेकहोल्डर एंगेजमेंट के जमाने तक पहुंच गया है।

एक महिला लीडर के तौर पर कई बार ऐसे अनुभव हुए जब मेरी बातें तब तक अनसुनी रहीं जब तक वही बातें किसी पुरुष सहयोगी ने नहीं दोहराईं। इन अनुभवों ने मुझे नेतृत्व के तौर-तरीके सिखाए और यह भी कि महिलाओं के लिए और खुद अपने लिए, मजबूती से खड़ा होना कितना जरूरी है।

महामारी के दौर ने यह साफ कर दिया कि इमोशनल इंटेलिजेंस एक अहम बिजनेस एसेट है। संकट प्रबंधन और ब्रैंड स्टोरीटेलिंग में सहानुभूति की रणनीतिक भूमिका को पहली बार इतने व्यापक रूप में पहचाना गया। आज की सबसे बड़ी चुनौती है, हमेशा जुड़े रहने वाले इस दौर में प्रोफेशनल जिम्मेदारियों और निजी जीवन के बीच संतुलन बनाना। मैंने पाया है कि प्रामाणिक नेतृत्व हमारे हाइब्रिड कार्य वातावरण में टीमों के बीच मजबूत जुड़ाव पैदा करता है और काम की प्रभावशीलता बढ़ाता है।

PR और कम्युनिकेशन इंडस्ट्री में सफलता पाने के लिए महिला लीडर्स में कौन-कौन सी स्किल्स और खूबियां होनी चाहिए?

किसी भी प्रभावशाली लीडर में तकनीकी जानकारी के साथ कुछ मूल क्षमताओं का संतुलन होना जरूरी है। सबसे पहले – स्टोरीटेलिंग की कला। यानी ऐसे नैरेटिव्स रचना जो सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में ब्रैंड की प्रासंगिकता को दर्शाएं। दूसरा – रणनीतिक लचीलापन। यानी फुर्तीले जवाबों और दीर्घकालिक दृष्टिकोण के बीच संतुलन। सफल लीडर्स आने वाले बदलावों की पहले से आहट लेते हैं और जब योजनाएं बदलती हैं तब भी शांत रहते हैं। और तीसरा – इमोशनल इंटेलिजेंस। यानी स्टेकहोल्डर्स के दृष्टिकोण को समझना और प्रामाणिक संबंध बनाना। आज के माहौल में, जब दर्शक नेतृत्व से सच्चे जुड़ाव की अपेक्षा रखते हैं, यह स्किल बेहद मूल्यवान बन गई है।

इन सभी क्षमताओं को एक साथ साधना ही उन कम्युनिकेशन लीडर्स को अलग करता है जो संबंध-निर्माण और प्रामाणिकता को प्राथमिकता देते हैं।

कम्युनिकेशन इंडस्ट्री में करियर की शुरुआत कर रही युवतियों को आप क्या सलाह देंगी?

मेरी सलाह है:

  • दूसरों की तरह बनने की कोशिश मत करो, अपनी बात कहने का खुद का तरीका अपनाओ। तुम्हारी सोच अलग है और वही तुम्हें खास बनाती है।

  • पारंपरिक लेखन कौशल के साथ-साथ नए डिजिटल प्लेटफॉर्म्स को भी समझें। आज के कामयाब कम्युनिकेटर वही हैं जो तकनीक और मूल कौशल का मेल जानते हैं।

  • ऐसे प्रोफेशनल रिश्ते बनाएं जो आपसी मूल्य पर आधारित हों। विविध अनुभवों वाले मेंटर्स से जुड़ें।

  • रचनात्मकता और विश्लेषणात्मकता दोनों को विकसित करें। आधुनिक कम्युनिकेशन में कहानी सुनाने की कला के साथ-साथ डाटा को समझने की क्षमता भी जरूरी है।

  • सीखने, पुराना छोड़ने और फिर से सीखने से कभी पीछे न हटें। इससे आप लगातार बेहतर बनते हैं।

e4m PR & Corp Comm Women Achievers Awards 2024 जीतने पर आपको कैसा लग रहा है?

यह अवॉर्ड मेरे लिए प्रोफेशनल मान्यता और व्यक्तिगत विनम्रता दोनों लेकर आया है। यह सिर्फ मेरे काम का नहीं, बल्कि इस इंडस्ट्री में महिलाओं के नेतृत्व की बढ़ती स्वीकार्यता का सम्मान है।

अपने करियर के शुरुआती दिनों को याद करती हूं तो महिलाओं की नेतृत्व भूमिकाएं बेहद कम थीं। ऐसे में आज यह सम्मान मेरी टीम के साथ साझा करना और युवा प्रोफेशनल्स के लिए प्रेरणा बनना मेरे लिए बहुत मायने रखता है। एक युवा सहयोगी ने मुझसे कहा कि इस तरह की पहचान देखकर उसे पहली बार महसूस हुआ कि उसका करियर भी असीमित संभावनाओं से भरा हो सकता है।

यह सम्मान उपलब्धि भी है और जिम्मेदारी भी। अगली पीढ़ी की महिलाओं के लिए और ज्यादा अवसरों का मार्ग प्रशस्त करने की प्रेरणा।

'एक्सचेंज4मीडिया' टीम का धन्यवाद, जिन्होंने इस तरह के मंचों की रचना की।

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जिस दिन इन्वेस्टर ने ये बात समझ ली, उस दिन उसे पैसा बनाना आ जाएगा: अनिल सिंघवी

‘जी बिजनेस’ के मैनेजिंग एडिटर अनिल सिंघवी ने समाचार4मीडिया से बातचीत में स्टॉक मार्केट, निवेश और मीडिया से जुड़े अहम मुद्दों पर बेबाकी से अपने विचार साझा किए।

Last Modified:
Saturday, 05 July, 2025
Anil Singhvi.

बिजनेस न्यूज चैनल ‘जी बिजनेस’ (Zee Business) और फाइनेंशियल ऐप ‘धन’ (Dhan) द्वारा संयुक्त रूप से 5 जुलाई 2025 को दिल्ली स्थित भारत मंडपम में विशेष कार्यक्रम ‘एक कदम Dhan की ओर’ (Ek Kadam Dhan Ki Ore) का आयोजन किया गया। इस अवसर पर ‘जी बिजनेस’ के मैनेजिंग एडिटर और देश के प्रमुख शेयर बाजार विश्लेषकों में से एक अनिल सिंघवी से समाचार4मीडिया ने खास बातचीत की। इस दौरान उन्होंने स्टॉक मार्केट, निवेश और मीडिया से जुड़े अहम मुद्दों पर बेबाकी से अपने विचार साझा किए। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:

 ‘एक कदम Dhan की ओर’ जैसे आयोजन आज के निवेशकों के लिए कितने जरूरी हैं? आप इस मंच की सबसे अहम बात क्या मानते हैं?

निवेशकों को दो ही वक्त सलाहकार की जरूरत होती है—जब बाजार तेज होता है और जब मंदी आती है। तेजी में अक्सर लोग खुद को एक्सपर्ट समझ बैठते हैं और बिना सोचे-समझे निवेश कर बैठते हैं। वहीं मंदी में डर सताता है। ऐसे में ‘एक कदम Dhan की ओर’ जैसे कार्यक्रमों का मकसद यह है कि लोगों को सही समय, सही जगह, और सही तरीके से निवेश करने के बारे में बताया जाए। यही वजह है कि हम देशभर में ये आयोजन कर रहे हैं।

इस कार्यक्रम में देशभर से फंड CEOs और मार्केट प्रोफेशनल्स जुटे हैं। आपको क्या लगता है, ऐसे संवादों से आम निवेशकों को क्या व्यावहारिक लाभ होता है?

टीवी पर लोग हमें देखते-सुनते हैं, लेकिन आमने-सामने सवाल पूछने का मौका कम ही मिलता है। ऐसे आयोजनों में पैनल डिस्कशन के अलावा हम जनता के लिए मंच खोल देते हैं, जहां वे पोर्टफोलियो से लेकर किसी खास स्टॉक तक के सवाल पूछ सकते हैं। इससे उनका भरोसा बढ़ता है और उन्हें सही मार्गदर्शन मिलता है।

आप वर्षों से निवेशकों के व्यवहार को समझते आए हैं। क्या आपको लगता है कि आज का निवेशक पहले की तुलना में ज्यादा सजग और शिक्षित हो गया है?

बिल्कुल! आज के निवेशकों में जितनी मैच्योरिटी है, उतनी शायद पहले नहीं थी। SIP के जरिये निवेश लगातार बढ़ रहा है। यंग इन्वेस्टर्स भी अब पहले की तुलना में कहीं ज्यादा समझदार हैं। डिजिटल क्रांति, मीडिया, ऐप्स और इन्फ्लुएंसर्स ने मिलकर एक ऐसा ईकोसिस्टम बनाया है जिससे लोग अब सोच-समझकर निवेश कर रहे हैं।

छोटे निवेशकों को आज सबसे बड़ी चुनौती क्या दिखती है – जानकारी की कमी, डर, या लालच?

सबसे बड़ी चुनौती है जानकारी की कमी और गलत धारणा कि शेयर बाजार से बिना मेहनत के बहुत जल्दी पैसा बनाया जा सकता है। निवेश को एक गंभीर प्रक्रिया के रूप में समझना जरूरी है। लालच और डर तभी नियंत्रित होंगे जब सही जानकारी होगी।

आज के बाजार को आप किस स्टेज में मानते हैं – अवसर का समय है या सतर्कता का?

ये समय अवसरों से भरा हुआ है। अगर आपका नजरिया 3-5 साल का है, तो मौजूदा स्तरों पर निवेश करना बिलकुल सही है। सतर्कता जरूरी है कि पैसा कहां लगाया जा रहा है, लेकिन पैसा लगाना चाहिए या नहीं—इस पर कोई संदेह नहीं होना चाहिए।

आप अक्सर कहते हैं कि ‘धैर्य सबसे बड़ा हथियार है’। क्या नए निवेशकों को यह बात समझ आती है? कोई उदाहरण देना चाहेंगे?

निवेशक नए हों या पुराने—धैर्य उम्र और अनुभव से आता है। मैं मानता हूं कि नए निवेशकों को शुरुआत में ही बाजार का झटका लगना चाहिए ताकि उन्हें समझ आए कि पैसा कैसे बनता है और कैसे जाता है। यही समझ उन्हें सच्चा निवेशक बनाएगी। मैं तो चाहता हूं जैसे ही कोई इन्वेस्टर बाजार में आए उसको तुरंत ही झटका लग जाना चाहिए। जिस दिन किसी इन्वेस्टर ने ये समझ लिया कि पैसा कैसे जाता है उस दिन उसको पैसा बनाना आ जाएगा।

आपके अनुभव में, फाइनेंशियल लिटरेसी को बढ़ाने में मीडिया की भूमिका कितनी निर्णायक रही है, खासकर पिछले कुछ वर्षों में?

बहुत बड़ी भूमिका रही है। सिर्फ खबर देना ही नहीं, लोगों को सिखाना और समझाना भी हमारा दायित्व है। सेविंग से लेकर वेल्थ क्रिएशन तक की यात्रा को सरल भाषा में समझाना जरूरी है। अगर कोई निवेशक बिजनेस चैनल की जरूरत महसूस न करे, तो समझिए कि हमने अपना काम सही किया।

क्या आपको लगता है कि हिंदी भाषा में फाइनेंशियल कंटेंट की मांग और पहुंच दोनों तेजी से बढ़ी है?

बिलकुल! अंग्रेजी मजबूरी थी, हिंदी पसंद है। हमने साबित किया कि बिजनेस की भाषा भी हिंदी हो सकती है और हम बाजार को सरलतम भाषा में समझा सकते हैं। जितना दोस्त बनकर सिखाएंगे, लोग उतना ही सीखेंगे।

आप खुद भी एक गाइड की तरह लाखों निवेशकों से जुड़े हैं। क्या अब भी कोई बात या प्रतिक्रिया है जो आपको व्यक्तिगत रूप से छू जाती है?

ऐसे कई किस्से हैं। मुंबई की एक 85 वर्षीय नेत्रहीन महिला जो मेरी आवाज से मुझे पहचानती थीं और अपने अंतिम समय तक अपने शेयर मेरे कहे बिना नहीं बेचना चाहती थीं। ऐसे अनुभव बताते हैं कि लोग मुझ पर कितना विश्वास करते हैं। मैं खुद को केवल एक माध्यम मानता हूं, भाग्य तो सबका ऊपरवाला लिखता है।

आपने लाखों निवेशकों से संवाद किया है—ऐसी एक सलाह जो हर निवेशक को जीवन भर याद रखनी चाहिए, वो क्या होगी?

इस बारे में मैं सिर्फ एक ही बात कहूंगा। ‘देयर इज़ नो सब्स्टीट्यूट टू हार्ड वर्क।‘ यानी कड़ी मेहनत का कोई विकल्प नहीं है। सफलता आसान नहीं होती। जितना ऊंचा जाना चाहते हैं, उतनी ही मेहनत करनी पड़ेगी। सफलता एक स्थायी जगह नहीं है, वहां टिके रहना असली चुनौती है।

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मीडिया में डॉ. अनुराग बत्रा के पूरे हुए 25 साल, इंडस्ट्री में बदलावों को लेकर कही ये बात

BW बिजनेसवर्ल्ड के चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ और एक्सचेंज4मीडिया ग्रुप के फाउंडर डॉ. अनुराग बत्रा ने ‘द गुड लाइफ पॉडकास्ट’ में बातचीत के दौरान अपने मीडिया सफर के 25 वर्षों पर विस्तार से चर्चा की।

Last Modified:
Friday, 04 July, 2025
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BW बिजनेसवर्ल्ड के चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ और एक्सचेंज4मीडिया ग्रुप के फाउंडर डॉ. अनुराग बत्रा ने ‘द गुड लाइफ पॉडकास्ट’ में एक प्रेरणादायक बातचीत के दौरान अपने मीडिया सफर के 25 वर्षों पर विस्तार से चर्चा की।

बातचीत की शुरुआत में उन्होंने ब्रायन क्लास की किताब Fluke से एक गहरी बात साझा की, “हम अपनी कामयाबी का सारा श्रेय खुद को देते हैं, जबकि उसका बहुत हिस्सा संयोग या ईश्वर की देन होता है।” डॉ. बत्रा ने बताया कि एक्सचेंज4मीडिया की स्थापना कोई सोचा-समझा बिजनेस प्लान नहीं था, बल्कि यह एक संयोग और समय की कृपा से हुआ।

एक बी2बी मार्केटप्लेस के तौर पर शुरू हुआ एक्सचेंज4मीडिया आज एक व्यापक मीडिया इकोसिस्टम बन चुका है। पिच, इम्पैक्ट, रिएल्टी+, समाचार4मीडिया जैसी ब्रैंड्स इस नेटवर्क के हिस्से हैं, जो मीडिया, रियल एस्टेट और मार्केटिंग इंडस्ट्री की अलग-अलग जरूरतों को पूरा करते हैं। वहीं 45 साल पुराना बिजनेसवर्ल्ड स्वतंत्र रूप से संचालित होता है। दोनों का उद्देश्य—विश्वसनीयता, विशेषज्ञता और सार्थक कहानी कहना।

मीडिया, मार्केटिंग और तकनीक का विलय

बीते दो दशकों में मीडिया और विज्ञापन इंडस्ट्री में आए बदलावों पर चर्चा करते हुए डॉ. बत्रा कहते हैं, “आज कंटेंट, कम्युनिटी और कॉमर्स—इन तीन शक्तिशाली ताकतों का संगम हो रहा है। मैडिसन एवेन्यू (विज्ञापन), हॉलीवुड (मनोरंजन), और सिलिकॉन वैली (टेक्नोलॉजी) अब अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि एक हो चुके हैं।”

वो बताते हैं कि दुनिया की $1 ट्रिलियन की विज्ञापन इंडस्ट्री में से $650 बिलियन डिजिटल पर खर्च हो रहा है, जिसमें से $460 बिलियन सिर्फ दो कंपनियों—गूगल और मेटा के पास है।

“YouTube ने भारतीय क्रिएटर्स को 21,000 करोड़ रुपये से ज्यादा का भुगतान किया है”

यह आंकड़ा दर्शाता है कि क्रिएटर इकोनॉमी अब सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि प्रभावशाली कमाई और ब्रैंड निर्माण का जरिया बन गई है। “क्रिएटर्स अब केवल इंफ्लुएंसर नहीं रहे, वे खुद में एक क्रिएटिव ब्रैंड बन चुके हैं,” डॉ. बत्रा कहते हैं।

AI से डरने की नहीं, उसे अपनाने की जरूरत

AI की बात करते हुए डॉ. बत्रा कहते हैं, “AI टेक्स्ट को वीडियो में बदल सकता है, ऑडियो बना सकता है, यहां तक कि AI एंकर भी तैयार कर सकता है। लेकिन पत्रकारों को यह समझना होगा कि AI उन्हें रिप्लेस नहीं करेगा—जब तक वे खुद इसका उपयोग करना न छोड़ दें।”

उनके अनुसार, पत्रकारों और न्यूजरूम को AI के साथ प्रयोग करने और उसे अपनाने की जरूरत है, ताकि उनकी प्रासंगिकता बनी रहे।

फेक न्यूज और ट्रस्ट का संकट

“हम आज नैरेटिव वॉरफेयर के युग में हैं। हम नहीं जानते कि कौन सी जानकारी सही है और कौन सी झूठ,” डॉ. बत्रा कहते हैं। उनका सुझाव है कि लोग WhatsApp और सोशल मीडिया पर दिख रही हर चीज पर यकीन न करें, बल्कि रक्षा मंत्रालय जैसी विश्वसनीय संस्थागत स्रोतों से जानकारी लें।

ग्राहक अब अनुभव चाहते हैं—और वे इसके लिए भुगतान करने को तैयार हैं

वो बताते हैं कि आज की पीढ़ी अनुभवों पर खर्च कर रही है। कॉन्सर्ट्स, समिट्स और लिटरेचर फेस्टिवल्स शहरों को हिला देते हैं। “अगर आप अच्छा, अलग और इमर्सिव कंटेंट देंगे तो लोग उसके लिए पैसे भी देंगे।” The Ken, Mint, Morning Context जैसी सब्सक्रिप्शन साइट्स इसका उदाहरण हैं।

डिजिटल का दौर, लेकिन परंपरागत मीडिया भी जिंदा है

“लोग कई सालों से कह रहे हैं कि अख़बार खत्म हो जाएंगे, लेकिन आज भी वे विश्वसनीयता के लिए सबसे ऊपर हैं,” डॉ. बत्रा कहते हैं। New York Times और Washington Post जैसे ब्रैंड्स ने यह साबित कर दिया है कि डिजिटल में भी गुणवत्ता और विश्वसनीयता बनाए रखी जा सकती है।

इंफ्लुएंसर fatigue और डिजिटल विज्ञापन में धोखाधड़ी

डॉ. बत्रा मानते हैं कि कुछ इंफ्लुएंसर बहुत महंगे हो गए हैं और उनके रिटर्न भी घटते जा रहे हैं। इसके अलावा, डिजिटल विज्ञापन में धोखाधड़ी—जैसे बॉट्स और क्लिक फ्रॉड—भी बढ़ रही है। “20-30%, कभी-कभी 40% तक डिजिटल खर्च बेकार चला जाता है,” वे चेताते हैं।

AI पत्रकारों को नहीं हटाएगा—लेकिन पत्रकारों को खुद को अपग्रेड करना होगा

“लोग आज भी इंसानों को फॉलो करते हैं। एक एंकर की सोच, उसका अंदाज, उसकी राय—ये चीजें AI नहीं बना सकता,” डॉ. बत्रा स्पष्ट करते हैं।

‘YOLO’ युग में अनुभव की भूख

डॉ. बत्रा मानते हैं कि महामारी के बाद लोग असली अनुभवों के लिए तरस गए हैं। “एक कॉन्सर्ट ने अहमदाबाद जैसे शहर को हिला दिया,” वे उदाहरण देते हैं। उनका मानना है कि ईवेंट्स अब कंटेंट, कम्युनिटी और कॉमर्स का विस्तार बन चुके हैं।

मीडिया का राष्ट्रीय संकट में रोल

हाल की भारत-पाकिस्तान घटनाओं का जिक्र करते हुए वे कहते हैं, “जब प्रधानमंत्री ने बयान दिया, उन्होंने स्पष्टता और आश्वासन दोनों दिए। यह बताया कि सीजफायर भारत की शर्तों पर हुआ।” उनका मानना है कि ऐसे समय में मीडिया की जिम्मेदारी बढ़ जाती है, गलत जानकारी पर आधारित राय जनता को भटका सकती है।

AI और Deepfakes के युग में जिम्मेदार पत्रकारिता की जरूरत

वे आश्वस्त करते हैं, “Deepfake बनाने के 10 तरीके हैं, लेकिन पकड़ने के 20 टूल्स भी हैं।”  उनका मानना है कि जैसे-जैसे डिजिटल इकोसिस्टम बढ़ेगा, फेक न्यूज को रोकने के उपाय भी मजबूत होंगे।

मीडिया संस्थानों की जिम्मेदारी

“फिल्टर किया हुआ ज्ञान ही उपयोगी होता है, जैसे आप सड़क का गंदा पानी नहीं पीते, वैसे ही अनफ़िल्टर्ड जानकारी भी नहीं पढ़नी चाहिए।” वे कहते हैं कि परंपरागत मीडिया संस्थानों को इस क्यूरेशन की भूमिका निभानी चाहिए।

‘गुड लाइफ’ क्या है?

डॉ. बत्रा के लिए अच्छी जिंदगी का मतलब है- रिश्तों की गहराई, सेहत और अपने काम में खुशी पाना। वे कहते हैं, “अगर आप वही काम कर रहे हैं जिससे आपको खुशी मिलती है और वह आपका व्यवसाय भी है तो आपने जीत हासिल कर ली है।”

और अंत में, वे अपने पसंदीदा लेखक रैंडी पॉश के शब्दों के साथ बातचीत खत्म करते हैं और कहते हैं, “अनुभव वही होता है, जो तब मिलता है जब हम वो नहीं पाते जो हम चाहते हैं।” 

यहां देखें वीडियो इंटरव्यू:

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"पिक्चर अभी बाकी है": मार्कंड अधिकारी ने मीडिया की बदली दुनिया पर रखे विचार

देश की मीडिया क्रांति के चश्मदीद और श्री अधिकारी ब्रदर्स ग्रुप के चेयरमैन व MD मार्कंड अधिकारी ने एक्सचेंज4मीडिया से एक खुली और बेबाक बातचीत में इंडस्ट्री में आए बुनियादी बदलावों पर विस्तार से बात की।

Last Modified:
Monday, 23 June, 2025
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भारत की मीडिया क्रांति के चश्मदीद और श्री अधिकारी ब्रदर्स ग्रुप के चेयरमैन व मैनेजिंग डायरेक्टर मार्कंड अधिकारी ने एक्सचेंज4मीडिया से एक खुली और बेबाक बातचीत में इंडस्ट्री में आए बुनियादी बदलावों पर विस्तार से बात की। भारत की पहली लिस्टेड मीडिया कंपनी खड़ी करने वाले मार्कंड अधिकारी ने डिजिटल बदलाव, साउथ की फिल्मों का बोलबाला, टूटते बिजनेस मॉडल और दूरदर्शन की संभावित वापसी तक हर पहलू पर अपनी बेबाक राय रखी।

आप पिछले चार दशकों से भारत की मीडिया क्रांति का हिस्सा रहे हैं। इन वर्षों में आपको सबसे बड़ा बदलाव क्या लगता है?

सच कहूं तो बीते दस सालों में सबसे ज्यादा बदलाव हुए हैं। डिजिटल ने पूरी दुनिया ही पलट दी है। पहले लोग अपने दिन का शेड्यूल टीवी के प्रोग्रामिंग हिसाब से बनाते थे। आज टीवी भी बस एक और स्क्रीन बन गया है। ओटीटी ने टाइम-बाउंड देखने का कॉन्सेप्ट ही खत्म कर दिया है। अब लोग जो चाहें, जब चाहें, जहां चाहें, देख सकते हैं।

लेकिन इतनी सहूलियत के साथ कंटेंट की बाढ़ भी आ गई है। क्या यह कंटेंट ओवरलोड नहीं बन गया?

बिल्कुल। जब किसी चीज का उत्पादन बहुत ज्यादा हो जाता है, तो उसकी गुणवत्ता पर असर पड़ता है। कुछ कंटेंट शानदार होता है, लेकिन बहुत सारा ऐसा है जो देखने लायक नहीं। दर्शकों के पास अब विकल्प इतने ज्यादा हैं कि समझ नहीं आता वो समय कैसे निकालते हैं। प्लेटफॉर्म्स प्रोडक्शन पर भारी खर्च कर रहे हैं, लेकिन उसमें से कितना टिकता है, ये सोचने की बात है।

आपने फिक्शन, नॉन-फिक्शन और फिल्मों जैसे कई फॉर्मेट्स में काम किया है। आज के दौर में किस तरह का कंटेंट चलता है?

अधिकारी: इसका कोई फिक्स फॉर्मूला नहीं है। आखिर में दर्शक ही तय करते हैं कि क्या चलेगा। इसमें किस्मत का भी रोल होता है। जैसे देखिए, पिछले साल बॉलीवुड की सिर्फ तीन फिल्में ही ठीक से चलीं। दूसरी तरफ ‘पुष्पा’ को लें, आज का सबसे बड़ा पैन-इंडिया हीरो अल्लू अर्जुन है, कोई बॉलीवुड स्टार नहीं। उसकी फिल्म ने दुनियाभर में ₹2000 करोड़ कमाए, जिसमें से ₹850 करोड़ तो हिंदी मार्केट से आए। यह कैश में टिकट कलेक्शन है- लोगों ने जेब से पैसे देकर देखा। यह असली कामयाबी है।

और वहीं दूसरी तरफ बॉलीवुड स्टार्स ₹100 करोड़ फीस मांगते हैं?

हां, और प्राइवेट चार्टर्ड फ्लाइट्स में उड़ते हैं, जिनका खर्च प्रड्यूसर उठाता है। पहले तो स्टार्स को कमर्शियल फ्लाइट्स में देखा जाता था, अब वो भी नहीं दिखते। और विडंबना देखिए, इन फिल्मों की P&A (प्रिंट और एडवर्टाइजिंग) लागत तक नहीं निकल पाती। हमें हॉलीवुड मॉडल अपनाना चाहिए, जहां एक्टर्स और डायरेक्टर्स को फिल्म की कमाई के प्रतिशत पर भुगतान होता है। फिल्म हिट तो सबका फायदा, फ्लॉप तो किसी का नहीं। आज तो फिल्म को ₹200 करोड़ प्रोजेक्ट बता कर अनाउंस करते हैं, और रिलीज के समय कहते हैं कि ₹100 करोड़ की फिल्म थी, ताकि शर्म बचाई जा सके। जबकि वो भी रिकवर नहीं होती।

तो आप कह रहे हैं कि इंडस्ट्री का पूरा इकोनॉमिक स्ट्रक्चर ही गड़बड़ है?

बिल्कुल। सारा पैसा एक्टर्स पर खर्च हो रहा है, जबकि दर्शकों की पसंद को समझा नहीं जा रहा। दूसरी तरफ, साउथ इंडस्ट्री आगे इसलिए है क्योंकि वो लोगों को सिनेमाघर तक खींच लाने लायक अनुभव दे रही है। हिंदी दर्शक अब परिपक्व हो गए हैं। उन्हें रियलिस्टिक चीजें चाहिए और ओटीटी उन्हें वही दे रहा है।

ओटीटी अब टीवी और सिनेमा दोनों की जगह ले रहा है। क्या आप इससे सहमत हैं?

पूरी तरह से। आज फिल्मों का वजूद ओटीटी पर निर्भर है। अगर ओटीटी उन्हें न खरीदे, तो फिल्म बनना ही बंद हो जाए। कई थिएटर रिलीज उतनी कमाई भी नहीं करती जितनी ओटीटी दे देता है—क्यों देते हैं, वो खुद ही जानें। ये प्लेटफॉर्म विदेशी कंपनियों के पास हैं, जैसे Amazon, Netflix—जिन्हें भारत की जमीनी हकीकत की पूरी समझ शायद नहीं है। एक फिल्म को ₹50 करोड़ में खरीद लिया, जो बॉक्स ऑफिस पर ₹20 करोड़ भी नहीं कमा सकी। अब फिल्में ओटीटी के लिए ही बन रही हैं।

लेकिन पिछले साल से ओटीटी बजट में भी कटौती हो रही है। इसकी वजह?

क्योंकि यह मॉडल टिकाऊ नहीं है। ओटीटी कंटेंट के लिए फिल्म जैसी क्वालिटी चाहिए होती है, लेकिन इनका बिजनेस सब्सक्रिप्शन पर चलता है। और भारत में लोग ₹150 महीने का सब्सक्रिप्शन लेने से पहले भी दस बार सोचते हैं। खर्च और आमदनी में तालमेल नहीं है। फिर भी प्लेटफॉर्म्स हिंदी फिल्मों के लिए बेहिसाब पैसे दे रहे थे। यही असली समस्या है।

आपने SAB TV और मस्ती जैसे चैनल लॉन्च किए। अच्छा कंटेंट बनाने का ‘सीक्रेट सॉस’ क्या है?

कोई तय फॉर्मूला नहीं होता। कंटेंट एक 'इंस्टिंक्ट' है। आपको जनता की नब्ज पकड़नी होती है, "जमीन से जुड़ा" होना जरूरी है। जो रचनाकार जनता की भावनाओं को समझता है, वही कुछ अर्थपूर्ण बना पाता है। आज भी वेब के लिए बहुत अच्छे क्रिएटर हैं—हालांकि वो टोटल का सिर्फ 10-15% हैं, लेकिन वही असल प्रभाव पैदा कर रहे हैं।

आपने कभी जनमत न्यूज चैनल शुरू किया था जो बाद में Live India बना। फिर न्यूज से बाहर निकल आए। क्या वो सही फैसला था?

अगर आज के न्यूज टीवी बिजनेस को देखें तो हां। इसमें ज्यादा कमाई नहीं है। लेकिन कभी-कभी लगता है कि शायद रुकना चाहिए था। न्यूज का अपना अलग जोश और स्पेस होता है। पर जैसा कहते हैं, जिंदगी में रीवाइंड बटन नहीं होता।

म्यूजिक ब्रॉडकास्टिंग में आप मस्ती चैनल लेकर आए। आज Spotify जैसे प्लेटफॉर्म्स के दौर में आपका चैनल कैसे टिक रहा है?

Spotify जैसे प्लेटफॉर्म मेट्रो शहरों तक सीमित हैं। लेकिन भारत बहुत बड़ा देश है। टियर 2, टियर 3 शहर और ग्रामीण भारत अभी भी पारंपरिक चैनल देखते हैं। DD Free Dish की पहुंच आज भी किसी भी DTH ऑपरेटर से ज्यादा है। बहुत सारे लोग आज भी टीवी पर म्यूजिक देखना पसंद करते हैं, यूट्यूब पर नहीं। मैं ऐसे परिवारों को जानता हूं जो हर रात वाइन के साथ मस्ती चैनल देखते हैं। नॉस्टैल्जिया की अपनी ताकत है।

दूरदर्शन दोबारा लौटने की कोशिश कर रहा है। क्या वो दोबारा अपनी पुरानी चमक हासिल कर सकता है?

क्यों नहीं? दूरदर्शन एक समय में दुनिया का सबसे बड़ा टेरेस्ट्रियल ब्रॉडकास्टर था। ज्यादातर प्रोडक्शन हाउसेज ने वहीं से शुरुआत की थी—हमने भी। अब DD Waves और डिजिटल पुश के साथ वो खुद को फिर से स्थापित कर रहा है। उसकी पहुंच आज भी सबसे ज्यादा है। अगर वो क्वालिटी कंटेंट और लोकल स्टोरीटेलिंग पर फोकस करे, तो कोई नहीं रोक सकता।

आपने भारत की पहली लिस्टेड मीडिया कंपनी बनाई। आज के मीडिया स्टॉक्स की वैल्यू को आप कैसे देखते हैं?

सच कहूं तो मीडिया को अब एनालिस्ट्स खास आकर्षक सेक्टर नहीं मानते। मार्जिन कम हो गए हैं। पहले जो विज्ञापन रेवेन्यू 50 ब्रॉडकास्टर्स में बंटता था, अब वो 200 प्लेयर्स में बंट रहा है, जिनमें यूट्यूब और फेसबुक जैसे टेक दिग्गज भी हैं। इनका सबसे बड़ा हिस्सा उन्हें ही मिल जाता है। सब्सक्रिप्शन मॉडल भी भारत में खास सफल नहीं हुआ, इसलिए बड़े ब्रॉडकास्टर्स भी DD Free Dish की तरफ लौट रहे हैं।

आज रीजनल कंटेंट का बोलबाला है, क्या आपको लगता है कि भविष्य वहीं है?

बिल्कुल। आज "रीजनल" असल में लोगों की मुख्य भाषा है। साउथ की फिल्में अब सिर्फ "रीजनल" नहीं हैं, अपने क्षेत्र में वे मुख्यधारा हैं। मराठी सिनेमा बढ़िया कर रहा है। गुजराती फिल्में ऑस्कर के लिए जा रही हैं। लोग अपनी भाषा में कंटेंट चाहते हैं—इससे निजी जुड़ाव बनता है।

जियो और रिलायंस जैसे बड़े प्लेयर्स की एंट्री से इंडस्ट्री कैसे बदल रही है?

ये "सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट" का दौर है। इंडस्ट्रियल हाउसेज के लिए मीडिया इन्वेस्टमेंट ज्यादा जोखिम नहीं है। उनके पास वो ताकत है जिससे कंटेंट का पूरा ईकोसिस्टम स्टेबल हो सकता है। इससे ज्यादा सिनेमा बनेगा, ज्यादा कंटेंट बनेगा और क्रिएटर्स पर वित्तीय दबाव कम होगा। कंसोलिडेशन तो होगा ही। Zee-Sony मर्जर नहीं हुआ, लेकिन आगे चलकर होगा। इतना फ्रैगमेंटेशन लंबे समय तक नहीं टिकेगा।

और यूट्यूब?

आज यूट्यूब दुनिया का सबसे बड़ा ओटीटी प्लेटफॉर्म है। यह ब्रॉडकास्ट विज्ञापनों पर गहरा असर डाल रहा है। विज्ञापनदाता अब कम खर्च में ज्यादा टार्गेटेड ऑडियंस चाहते हैं। इसका सीधा असर पारंपरिक ब्रॉडकास्टर्स की कमाई पर पड़ रहा है।

इस बदलते परिदृश्य में मीडिया उद्यमियों के लिए आगे का रास्ता क्या है?

कोई एक समाधान नहीं है। टेक्नोलॉजी बहुत तेजी से बदल रही है। हर एंटरप्रेन्योर को अपनी रणनीति खुद बनानी होगी। लेकिन इतना तय है कि भविष्य डिजिटल का है। मुनाफे वाले मॉडल मुश्किल हैं, लेकिन अनुकूलन ही कुंजी है।

कोई आखिरी पंचलाइन?

"पिक्चर अभी बाकी है!" बदलाव हमेशा अवसर लेकर आता है। मेरी अगली पीढ़ी अब मोर्चा संभाल चुकी है और वो नई स्क्रीन के लिए तैयार कर रही है। स्क्रीन का आकार जो भी हो, कंटेंट ही राजा रहेगा। इसलिए जुड़े रहिए। 

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‘इंडिया हैबिटेट सेंटर’ को इसके मूल उद्देश्य की ओर वापस ले जाना है विजन: प्रो. के.जी. सुरेश

समाचार4मीडिया से बातचीत में ‘प्रो (डॉ.) के. जी. सुरेश का कहना था कि पत्रकारिता सनसनी फैलाने या किसी एजेंडे का हिस्सा बनने का माध्यम नहीं है, यह सामाजिक बदलाव का मिशन है।

Last Modified:
Friday, 23 May, 2025
KG Suresh

देश के जाने-माने मीडिया शिक्षाविद्, संचार विशेषज्ञ और अब 'इंडिया हैबिटेट सेंटर' के निदेशक प्रो. (डॉ.) के.जी. सुरेश ने हाल ही में समाचार4मीडिया को एक विशेष साक्षात्कार दिया। दिल्ली स्थित इंडिया हैबिटेट सेंटर में हुई इस मुलाकात के दौरान उन्होंने अपनी नई जिम्मेदारी, मीडिया की बदलती दुनिया, सांस्कृतिक नेतृत्व और राष्ट्रबोध जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर बेबाकी से और दूरदृष्टि के साथ अपने विचार साझा किए। प्रस्तुत हैं इस विस्तृत बातचीत के प्रमुख अंश:

सबसे पहले, इंडिया हैबिटेट सेंटर के निदेशक के रूप में आपकी नई जिम्मेदारी के लिए बधाई। यह भूमिका आपकी पिछली जिम्मेदारियों से कितनी भिन्न है?

बहुत-बहुत धन्यवाद। यह भूमिका मेरी पिछली जिम्मेदारियों से काफी अलग है और यही इसकी खासियत है। मैंने अपने करियर में पत्रकारिता के साथ, भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) का नेतृत्व और माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में कुलपति के रूप में कार्य किया है और अब एक बौद्धिक व सांस्कृतिक केंद्र के संचालक जैसी भूमिका निभा रहा हूं। प्रत्येक भूमिका ने मुझे नए दृष्टिकोण और चुनौतियां प्रदान कीं, जिससे मेरा अनुभव समृद्ध हुआ। इंडिया हैबिटेट सेंटर एक ऐसा मंच है, जहां बौद्धिक विमर्श, सांस्कृतिक संरक्षण और सामाजिक बदलाव को एक साथ जोड़ा जा सकता है। यह मेरे लिए एक अनूठा अवसर है, जहां मैं अपने पत्रकारिता और शिक्षा के अनुभवों को मिलाकर कुछ नया और प्रभावी कर सकता हूं।

आपने इतनी विविध भूमिकाएं इतनी सहजता से कैसे निभाईं और ये अनुभव आपकी वर्तमान जिम्मेदारी में कैसे सहायक होंगे?

इसका पूरा श्रेय मेरी पत्रकारिता यात्रा को जाता है। एक पत्रकार के रूप में मैंने देश-विदेश की यात्राएं कीं और विभिन्न वर्गों-गरीब से लेकर अमीर, बुद्धिजीवियों से लेकर राजनेताओं, संपादकों और लेखकों तक से मुलाकात की। इस अनुभव ने मुझे समाज की जटिलताओं और विविधताओं को समझने की गहरी अंतर्दृष्टि दी, जो आज मुझे आत्मविश्वास और लचीलापन प्रदान करती है। मैंने क्राइम बीट से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक की रिपोर्टिंग की, जिसने मुझे जमीनी हकीकत और नीति निर्माण दोनों को समझने का अवसर दिया। साथ ही, पत्रकारिता के दौरान मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय, IIMC और माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में पढ़ाया, जिसने मुझे शिक्षा और प्रशासन के क्षेत्र में तैयार किया। ये अनुभव अब इंडिया हैबिटेट सेंटर में मेरे लिए एक मजबूत नींव हैं, जहां मुझे बौद्धिक विमर्श को बढ़ावा देना, सांस्कृतिक पहल शुरू करना और 9,000 सदस्यों की अपेक्षाओं को पूरा करना है।

आपकी शिक्षा और प्रशासन में रुचि कैसे विकसित हुई?

मेरी शुरुआत एक पत्रकार के रूप में हुई थी। पढ़ाना शुरू में केवल अतिरिक्त आय का साधन था। लेकिन धीरे-धीरे मुझे शिक्षण में गहरा रस आने लगा, क्योंकि यह मुझे नई पीढ़ी को प्रेरित करने और उनके विचारों को आकार देने का अवसर देता था। मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय, IIMC और माखनलाल जैसे संस्थानों में पढ़ाया, जहां मुझे छात्रों के साथ संवाद करने और उनके सपनों को समझने का मौका मिला। प्रशासनिक अनुभव मुझे दूरदर्शन में वरिष्ठ सलाहकार संपादक और फिर IIMC में महानिदेशक के रूप में मिला। मेरा मानना है कि एक अच्छा संवादक (कम्युनिकेटर) ही प्रभावी प्रशासक बन सकता है। संवाद चाहे वह व्यक्तियों, समुदायों या देशों के बीच हो, हर समस्या का समाधान है। यह विश्वास मेरे पत्रकारिता के अनुभवों से आया और मैंने इसे अपनी प्रशासनिक भूमिकाओं में लागू किया।

क्या आप आज भी खुद को मूल रूप से पत्रकार मानते हैं?

बिल्कुल, मेरी मूल पहचान आज भी एक पत्रकार की है। जब मुझे IIMC का महानिदेशक नियुक्त किया गया, तो तमाम अखबारों ने लिखा, ‘पूर्व पीटीआई पत्रकार को IIMC का महानिदेशक बनाया गया।’ यह मेरे लिए गर्व की बात है। पत्रकारिता ने मुझे समाज को समझने का नजरिया दिया और जटिल मुद्दों को सरलता से प्रस्तुत करने की कला सिखाई। चाहे मैं शिक्षा, प्रशासन या किसी अन्य क्षेत्र में रहूं, मेरे भीतर का पत्रकार हमेशा जागृत रहता है, जो सच्चाई की तलाश और समाज के प्रति जिम्मेदारी को प्राथमिकता देता है।

इतनी विविध भूमिकाओं में से आपको सबसे अधिक आनंद किसमें मिला?

यह कहना मुश्किल है, क्योंकि हर भूमिका में अलग-अलग आनंद था। पत्रकारिता में मैंने दुनिया घूमी, विभिन्न संस्कृतियों और लोगों को समझा और हर दिन कुछ नया सीखा। उस समय मैं युवा था, ऊर्जा से भरा हुआ और हर पल रोमांचक था। मेरे पिता चाहते थे कि मैं सरकारी नौकरी करूं, लेकिन मैंने स्थिरता के बजाय पत्रकारिता की अनिश्चितता और रोमांच को चुना। शिक्षण में मुझे नई पीढ़ी को प्रेरित करने का सुख मिला और प्रशासन में समाज के लिए बड़े बदलाव लाने का अवसर। इंडिया हैबिटेट सेंटर में अब मैं बौद्धिक और सांस्कृतिक नवाचार का हिस्सा हूं। हर भूमिका ने मुझे कुछ नया सिखाया और यही मेरे जीवन का सबसे बड़ा आकर्षण रहा है।

इंडिया हैबिटेट सेंटर, जो एक प्रतिष्ठित बौद्धिक केंद्र है, के लिए आपका विजन क्या है?

इंडिया हैबिटेट सेंटर (IHC) लुटियंस दिल्ली में बसी एक अनूठी संस्था है, जिसकी स्थापना 1993 में शहरी नियोजन, आवास, पर्यावरण और सतत विकास जैसे क्षेत्रों में बौद्धिक विमर्श के लिए एक थिंक टैंक के रूप में हुई थी। कुछ लोग इसे केवल रेस्तरां, कन्वेंशन सेंटर या ऑफिस कॉम्प्लेक्स मानते हैं, लेकिन यह उससे कहीं अधिक है। मेरा विजन इंडिया हैबिटेट सेंटर को इसके मूल उद्देश्य की ओर वापस ले जाना है, यानी एक ऐसा मंच, जो बौद्धिक और सांस्कृतिक नवाचार का केंद्र बने। मैं चाहता हूं कि यह न केवल नीति-निर्माताओं और बुद्धिजीवियों के लिए, बल्कि समाज के हर वर्ग के लिए प्रासंगिक हो। इसके लिए मैं इसे वैश्विक मंच पर भारत की बौद्धिक ताकत को प्रदर्शित करने वाला केंद्र बनाना चाहता हूं, जहां पर्यावरण, शहरी विकास और सांस्कृतिक संरक्षण जैसे विषयों पर गहन चर्चाएं हों और ये विचार समाज के निचले स्तर तक पहुंचें।

इस दिशा में आपने क्या पहल शुरू की?

मेरे कार्यभार ग्रहण करने के 15 दिनों के भीतर ही हमने ‘भारत बोध केंद्र’ की शुरुआत की। इसका उद्देश्य भारत की सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत को समझने और आत्मबोध को बढ़ावा देना है। यह केंद्र हैबिटेट की पुस्तकालय और शोध इकाई के अंतर्गत शुरू हुआ और इसका उद्घाटन केंद्रीय आवास मंत्री श्री मनोहर लाल खट्टर ने किया। इस पहल का लक्ष्य बौद्धिक विमर्श को प्रोत्साहित करना और भारत की समृद्ध परंपराओं व आधुनिक चुनौतियों के बीच संतुलन स्थापित करना है। हम इसे एक ऐसे मंच के रूप में देखते हैं, जो समाज को जोड़े और सकारात्मक बदलाव लाए।

इन विचारों को आम लोगों तक पहुंचाना कितना संभव है?

विचारों का समाज तक न पहुंचना बेमानी है। सकारात्मक बदलाव के लिए जरूरी है कि बौद्धिक विचार आम लोगों तक पहुंचें। इसके लिए संचार सबसे महत्वपूर्ण माध्यम है। इंडिया हैबिटेट सेंटर में इंडिया फाउंडेशन, RIS, TERI जैसे कई थिंक टैंक हैं, जिनके विचारों को सरल और प्रभावी भाषा में जन-जन तक ले जाना होगा। एक संचारक के रूप में, मैंने हमेशा संवाद की ताकत पर भरोसा किया है। चाहे वह सामाजिक मुद्दों पर चर्चा हो या सांस्कृतिक जागरूकता, संवाद के माध्यम से ही परिवर्तन संभव है। इसके लिए हम डिजिटल और परंपरागत दोनों माध्यमों का उपयोग करेंगे, ताकि समाज के हर वर्ग तक पहुंचा जा सके।

IIMC में आपके नेतृत्व के दौरान डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी का दर्जा प्राप्त करने की नींव रखी गई, जो 2024 में हासिल हुआ। हाल ही में IIMC ने पत्रकारिता और जनसंचार में पीएचडी पाठ्यक्रम शुरू करने की घोषणा की है। इस शैक्षणिक प्रगति को आप कैसे देखते हैं और यह विद्यार्थियों के करियर और संस्थान के भविष्य को कैसे प्रभावित करेगा?

यह मेरे लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा था। हमने इसके लिए न केवल मांग उठाई, बल्कि ठोस कदम भी उठाए। मेरे कार्यकाल में हमने UGC के साथ निरंतर संवाद किया और कठिन परिश्रम के बाद ‘लेटर ऑफ इंटेंट’ प्राप्त किया, जो डीम्ड यूनिवर्सिटी की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। इस प्रक्रिया में कई नीतिगत चर्चाएं, प्रस्ताव तैयार करना और शैक्षणिक ढांचे को मजबूत करना शामिल था। यह एक जटिल और लंबी प्रक्रिया थी, लेकिन मेरे कार्यकाल में इसकी नींव रखी गई और मुझे खुशी है कि इस दिशा में आगे का रास्ता तैयार हुआ।

अब आईआईएमसी में पीएचडी प्रोग्राम की शुरुआत होने जा रही है। यह आईआईएमसी के लिए एक स्वाभाविक और महत्वपूर्ण प्रगति है। मैं 1998 से IIMC में पढ़ा रहा हूं और हजारों विद्यार्थियों को प्रशिक्षित किया है। पहले हमारा ध्यान इंडस्ट्री के लिए पत्रकार तैयार करने पर था। एक वर्षीय पीजी डिप्लोमा पूरी तरह इंडस्ट्री-उन्मुख था। लेकिन डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा और पीएचडी प्रोग्राम की शुरुआत ने IIMC को मीडिया शिक्षा और शोध के क्षेत्र में एक नया आयाम दिया है। मेरे कार्यकाल में पांच पीजी प्रोग्राम को UGC से स्वीकृति मिली, पिछले साल पीजीबी शुरू हुआ और अब पीएचडी प्रोग्राम शुरू हो रहा है। इससे विद्यार्थियों को शैक्षणिक और शोध के क्षेत्र में अवसर मिलेंगे और शिक्षकों को भी अकादमिक रूप से सशक्त होने का मौका मिलेगा। यह संस्थान की वैश्विक प्रतिष्ठा को बढ़ाएगा और भारतीय मीडिया शिक्षा को नई ऊंचाइयों तक ले जाएगा।

IIMC में आपके द्वारा शुरू किए गए भारतीय भाषा पत्रकारिता पाठ्यक्रमों, जैसे मराठी, मलयालम, उर्दू और संस्कृत ने क्षेत्रीय मीडिया पर क्या प्रभाव डाला और इन पाठ्यक्रमों या क्षेत्रीय पत्रकारिता को भविष्य में और सशक्त करने के लिए आप क्या कदम सुझाएंगे?

IIMC पहले केवल अंग्रेजी और हिंदी में पाठ्यक्रम संचालित करता था। उड़ीसा के ढेंकनाल परिसर में उड़िया कोर्स था, लेकिन अन्य परिसरों में स्थानीय भाषाओं की कमी थी। मैंने महसूस किया कि क्षेत्रीय भाषाओं में पत्रकारिता शिक्षा न केवल स्थानीय समुदायों को जोड़ेगी, बल्कि क्षेत्रीय मीडिया को भी मजबूत करेगी। इसलिए हमने मराठी (अमरावती), मलयालम (केरल)  उर्दू और संस्कृत (दिल्ली) में पाठ्यक्रम शुरू किए। संस्कृत पत्रकारिता के लिए लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ के साथ समझौता किया गया और एक बैच को सुमित्रा महाजन जी ने प्रमाणपत्र प्रदान किए। हालांकि संस्कृत कोर्स बंद हो गया, अन्य तीन कोर्स सफलतापूर्वक चल रहे हैं। इन पाठ्यक्रमों ने क्षेत्रीय मीडिया में प्रशिक्षित पत्रकारों की संख्या बढ़ाई और स्थानीय मुद्दों को राष्ट्रीय मंच पर लाने में मदद की। मेरा सुझाव है कि और अधिक क्षेत्रीय भाषाओं में कोर्स शुरू किए जाएं और इन पाठ्यक्रमों को डिजिटल पत्रकारिता के साथ जोड़ा जाए, ताकि क्षेत्रीय मीडिया आधुनिक चुनौतियों का सामना कर सके।

माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में कुलपति के रूप में आपकी प्रमुख उपलब्धियां क्या रहीं?

माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में मेरा कार्यकाल नवाचारों से भरा रहा। हमने भोपाल, रीवा और दतिया में तीन नए परिसर स्थापित किए, जिनमें भोपाल में 50 एकड़ का अत्याधुनिक कैंपस शामिल है। हमने राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने में अग्रणी भूमिका निभाई और चार वर्षीय यूजी प्रोग्राम शुरू किया, जिसका पहला बैच इस वर्ष निकला। ‘रेडियो कर्मवीर’ कम्युनिटी रेडियो स्टेशन की स्थापना, 36 लंबित पीएचडी शोधों को पूरा करना और सभी रुके हुए दीक्षांत समारोह आयोजित करना मेरी प्रमुख उपलब्धियां रहीं। ‘चित्र भारती’ जैसे राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव आयोजित किए गए, जिनमें अक्षय कुमार और विवेक अग्निहोत्री जैसे कलाकार शामिल हुए। विद्यार्थियों की संख्या मेरे कार्यकाल में डेढ़ लाख के करीब पहुंची। भारतीय भाषाओं में सिनेमाई अध्ययन विभाग और सिंधी भाषा विभाग की शुरुआत भी महत्वपूर्ण कदम थे। ये पहलें विश्वविद्यालय को शैक्षणिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बनाने में सहायक रहीं।

क्या आपको लगता है कि कुछ अधूरा रह गया?

एक कर्मठ व्यक्ति को कभी पूर्ण संतुष्टि नहीं मिलती। मैंने जो भी पहल शुरू कीं, वे आज फल-फूल रही हैं और मुझे इसकी खुशी है। उदाहरण के लिए IIMC में शुरू किया गया ‘कम्युनिटी रेडियो एम्पावरमेंट एंड रिसोर्स सेंटर’ अब सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की राष्ट्रीय कार्यशालाओं का केंद्र बन गया है। लेकिन यदि और समय मिलता तो मैं कुछ और नवाचार शुरू करता। जैसे कि और अधिक क्षेत्रीय भाषा पाठ्यक्रम या डिजिटल मीडिया के लिए विशेष शोध केंद्र। फिर भी, मैं मानता हूं कि मेरे प्रयासों ने इन संस्थानों को एक मजबूत दिशा दी और यह मेरे लिए संतोष की बात है।

सोशल मीडिया, एआई और डिजिटल टूल्स के इस दौर में विद्यार्थियों के लिए कौन से नए पाठ्यक्रम और कौशल जरूरी हैं?

यह एक बहुत प्रासंगिक सवाल है। मीडिया का स्वरूप तेजी से बदल रहा है और इसके लिए पाठ्यक्रमों को निरंतर अपडेट करना जरूरी है। मैंने वर्षों पहले सुझाव दिया था कि जैसे इंडस्ट्री के लोग अकादमिक संस्थानों में पढ़ाते हैं, वैसे ही शिक्षकों (विशेषकर जो सीधे अकादमिक पृष्ठभूमि से हैं) को इंडस्ट्री में इंटर्नशिप दी जाए। इससे वे इंडस्ट्री की वास्तविक जरूरतों को समझ सकेंगे। दुर्भाग्य से, इस दिशा में ज्यादा प्रगति नहीं हुई। तकनीकी दृष्टि से, विश्वविद्यालयों में बुनियादी स्टूडियो सुविधाएं, डिजिटल संपादन सॉफ्टवेयर और डेटा पत्रकारिता जैसे संसाधन होने चाहिए। मैंने कई केंद्रीय विश्वविद्यालय देखे हैं, जहां ये बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं। छात्रों को डिजिटल पत्रकारिता, डेटा विश्लेषण और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) के उपयोग जैसे कौशलों में प्रशिक्षित करना होगा, ताकि वे आधुनिक मीडिया की मांगों को पूरा कर सकें।

क्या आपको लगता है कि मीडिया शिक्षा के लिए एक नियामक संस्था होनी चाहिए?

बिल्कुल, यह आज की सबसे बड़ी जरूरत है। जैसे मेडिकल शिक्षा के लिए नेशनल मेडिकल कमीशन और कानून के लिए बार काउंसिल है, वैसे ही मीडिया शिक्षा के लिए एक स्वतंत्र नियामक संस्था होनी चाहिए। आज कोई भी बिना गुणवत्ता और बुनियादी ढांचे के मीडिया कॉलेज खोल देता है, जिससे विद्यार्थियों का नुकसान होता है और साथ ही इंडस्ट्री की गुणवत्ता प्रभावित होती है। एक नियामक संस्था पाठ्यक्रमों की गुणवत्ता, बुनियादी सुविधाओं और शिक्षकों की योग्यता सुनिश्चित कर सकती है। इससे न केवल विद्यार्थियों को बेहतर शिक्षा मिलेगी, बल्कि भारतीय मीडिया की विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी।

आने वाले वर्षों में मीडिया, संस्कृति और शिक्षा में बदलावों के बीच आप अपनी भूमिका कैसे देखते हैं?

मैं खुद को आज भी एक मीडिया का विद्यार्थी मानता हूं। लोग मुझे ‘मीडिया गुरु’ कहते हैं, लेकिन मैं निरंतर सीखने वाला हूं। मैं सोशल मीडिया और एआई जैसे नए टूल्स को अपनाता हूं और खुद को अपडेट रखता हूं। चाहे वह नई पीढ़ी को प्रशिक्षित करना हो, रामनाथ गोयनका अवॉर्ड जैसे मंचों पर योगदान देना हो या इंडिया हैबिटेट सेंटर को बौद्धिक और सांस्कृतिक केंद्र बनाना हो, मैं हर भूमिका को पूरे समर्पण के साथ निभाने को तैयार हूं। मेरा लक्ष्य अपने अनुभवों का उपयोग समाज में सकारात्मक बदलाव लाने और भारत की सांस्कृतिक व बौद्धिक विरासत को बढ़ावा देने में करना है।

बदलते मीडिया और शिक्षा के स्वरूप को आप कैसे देखते हैं?

टेक्नोलॉजी की भूमिका निश्चित रूप से बढ़ रही है, लेकिन भारत जैसे देश में अखबार और टीवी की प्रासंगिकता अभी बनी रहेगी। यहां बुलेट ट्रेन और बैलगाड़ी साथ-साथ चलते हैं। मेरी सबसे बड़ी चिंता पत्रकारिता के मूल्यों को लेकर है। पत्रकारिता सनसनी फैलाने या किसी एजेंडे का हिस्सा बनने का माध्यम नहीं है, यह सामाजिक बदलाव का मिशन है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पत्रकारिता ने समाज को प्रेरित किया और आज भी हमें उस भूमिका को याद रखना चाहिए। पत्रकारों को न केवल तथ्य प्रस्तुत करने चाहिए, बल्कि समाज की मानसिकता और सोच में सकारात्मक बदलाव लाने की जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए।

इंडिया हैबिटेट सेंटर के निदेशक के रूप में आपकी प्राथमिकताएं क्या हैं?

मेरी पहली प्राथमिकता IHC को देश का प्रमुख बौद्धिक केंद्र बनाना है, जहां शहरी नियोजन, पर्यावरण और सतत विकास जैसे विषयों पर गहन विमर्श हो। दूसरी प्राथमिकता 9,000 सदस्यों के लिए बेहतर सुविधाएं और अनुभव प्रदान करना है, ताकि वे इस मंच का हिस्सा बनने पर गर्व महसूस करें। तीसरी, इसे एक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित करना है, जहां विलुप्त हो रही लोक कलाएं, लोकगीत और लोकसंगीत को पुनर्जन्म मिले। मैं चाहता हूं कि IHC एक ऐसा मंच बने, जो भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करे और आधुनिक बौद्धिक चर्चाओं को बढ़ावा दे।

नई पीढ़ी के पत्रकारों के लिए आपकी सबसे बड़ी सलाह क्या है?

मेरी सबसे बड़ी सलाह है कि वे भाषा पर ध्यान दें। चाहे वह हिंदी, अंग्रेजी या क्षेत्रीय भाषाएं हों। वर्तनी, उच्चारण और अभिव्यक्ति में आए क्षरण को लेकर मैं बहुत चिंतित हूं। एक पत्रकार के लिए भाषा उसका सबसे बड़ा हथियार है। दूसरा, शोध की कमी को दूर करें। पहले हम घंटों लाइब्रेरी और आर्काइव्स में बिताते थे, लेकिन अब टेक्नोलॉजी ने सब कुछ आसान बना दिया है। फिर भी, गहन शोध और जमीन से जुड़ाव के बिना पत्रकारिता अधूरी है। नई पीढ़ी को साहित्य, इतिहास और सामाजिक मुद्दों की गहरी समझ विकसित करनी चाहिए, ताकि उनकी पत्रकारिता प्रभावशाली और विश्वसनीय हो।

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सकाल के लिए मीडिया सिर्फ रीच नहीं, रिश्तों का माध्यम है: उदय जाधव

गोवा में हुए e4m बिजनेस लीडर्स रिट्रीट के मंच पर Sakal Media Group के CEO उदय जाधव ने बेहद खुलकर बातचीत की

Last Modified:
Monday, 19 May, 2025
UdayJadhav

चहनीत कौर, सीनियर कॉरेस्पोंडेंट, एक्सचेंज4मीडिया ।।

गोवा में हुए e4m बिजनेस लीडर्स रिट्रीट के मंच पर Sakal Media Group के CEO उदय जाधव ने बेहद खुलकर बातचीत की और महाराष्ट्र के सबसे भरोसेमंद मीडिया समूहों में से एक 'सकाल' की 93 साल की यात्रा पर अपने विचार साझा किए। उन्होंने बताया कि किस तरह ‘सकाल’ ने समय के साथ खुद को बदला है, लेकिन अपने मूल सिद्धांतों- भरोसे, प्रासंगिकता और सामाजिक जिम्मेदारी से कभी समझौता नहीं किया।

1932 में स्थापित Sakal Media Group ने प्रिंट, टेलीविजन, डिजिटल और ग्राउंड एक्टिवेशन हर माध्यम में अपनी मौजूदगी दर्ज की है। आज सिर्फ उसका प्रिंट संस्करण ही हर सुबह महाराष्ट्र के 15 लाख से ज्यादा घरों तक पहुंचता है। उदय जाधव ने कहा, “सकाल को उसकी विश्वसनीयता और समाज के प्रति उसकी प्रतिबद्धता के लिए जाना जाता है। हमारा मानना है कि मीडिया का काम सिर्फ सूचनाएं देना नहीं, बल्कि लोगों की समस्याओं को समझना और उनके समाधान में भागीदार बनना भी है।”

इस दौरान उन्होंने अपनी जिंदगी से जुड़ा एक निजी किस्सा भी साझा किया। उन्होंने बताया कि कैसे ‘सकाल’ में छपे एक छोटे से जॉब एड ने उनका पूरा करियर बदल दिया। “MBA के बाद मैं रोज 50 किलोमीटर दूर नौकरी के लिए सफर करता था। एक दिन ‘सकाल’ में मैंने मैनेजमेंट ट्रेनी की एक छोटी-सी वैकेंसी देखी। उसी विज्ञापन से मेरी 'सकाल' में एंट्री हुई और आज मैं इसी संस्था का नेतृत्व कर रहा हूं।”

चार घंटे की यात्रा से बचने की कोशिश में जो शुरुआत हुई, वही एक लंबे मीडिया करियर की नींव बन गई।

जमीन से जुड़ाव और बदलाव की पहल: 'सकाल' की मिशन वाली मीडिया रणनीति

उदय जाधव ने मंच पर विस्तार से बताया कि किस तरह 'सकाल मीडिया ग्रुप' ने पत्रकारिता से आगे बढ़कर समाज में ठोस बदलाव लाने की दिशा में काम किया है, खासतौर पर अपने कृषि-फोकस्ड वर्टिकल ‘Agrowon’ के जरिए, जो देश का इकलौता रोज प्रकाशित होने वाला किसान-समर्पित अखबार है।

उन्होंने बताया कि एक सरकारी सर्वे में यह बात सामने आई थी कि किसानों को तकनीकी जानकारी की सख्त जरूरत है। इस जरूरत को समझते हुए 'सकाल' ने एक नौ सप्ताह का प्रशिक्षण पाठ्यक्रम तैयार किया। जाधव ने कहा, “हमने महाराष्ट्र के हर गांव तक पहुंच बनाई और तीन लाख से ज्यादा किसानों को मिट्टी परीक्षण से लेकर मार्केट लिंकिंग तक की ट्रेनिंग दी। प्रतिक्रिया जबरदस्त रही, इससे साबित हुआ कि मीडिया सिर्फ सूचनाएं देने वाला नहीं, ज्ञान का सशक्त माध्यम भी बन सकता है।” 

उन्होंने यह भी बताया कि किस तरह राष्ट्रीय मीडिया अक्सर शहरी दर्शकों पर केंद्रित रहता है, जबकि क्षेत्रीय बाजारों में अपार संभावनाएं छिपी हैं। महाराष्ट्र में मौजूद शिक्षा संबंधी आँकड़ों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, “राज्य के 2.2 करोड़ स्कूली छात्रों में से 1.7 करोड़ से ज्यादा बच्चे मराठी माध्यम में पढ़ते हैं। अगर मुंबई और पुणे दो मेट्रो शहर हैं, तो बाकी पूरा महाराष्ट्र मिलकर एक तीसरा मेट्रो बनता है। इस हिस्से को नजरअंदाज करना किसी भी बाजार विशेषज्ञ के लिए चूक होगी।”

'सकाल' की सरकार के साथ की गई साझेदारियां भी इसके व्यापक सामाजिक योगदान को दर्शाती हैं। ग्रुप ने रियल एस्टेट में करियर बनाने के इच्छुक लोगों के लिए RERA सर्टिफिकेशन ट्रेनिंग और राज्यभर के 10 लाख से ज्यादा निर्माण श्रमिकों के लिए सुरक्षा प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित किए हैं। जाधव ने कहा, “हम डेवलपर्स, नगर निगमों और वेलफेयर बॉडीज के साथ मिलकर काम करते हैं। ये सिर्फ कैंपेन नहीं हैं, बल्कि स्टेकहोल्डर्स के लिए परिणामों को बेहतर बनाने की संस्थागत कोशिशें हैं।” 

“Fevicol जैसा जोड़ चाहिए”: ब्रांड साझेदारियों और क्षेत्रीय बाजार की ताकत पर बोले उदय जाधव

सेशन के आख़िरी हिस्से में उदय जाधव ने सकाल मीडिया ग्रुप की ब्रांड साझेदारियों की मिसालें साझा करते हुए बताया कि कैसे एक मजबूत रणनीति और लोकल समझ मिलकर बड़े असर पैदा कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि गार्नियर के लिए पूरे राज्य में 'वेट सैंपलिंग' कैंपेन, Google के लिए डिजिटल साक्षरता अभियान, Gillette के साथ युवा ग्रूमिंग सेशन्स और पुणे के FMCG ब्रांड सवाई मसाले के लिए एक प्रभावशाली मीडिया रणनीति 'सकाल' ने तैयार की।

उन्होंने बताया, “सवाई ने बेहद सीमित बजट से शुरुआत की थी, लेकिन जब उन्हें अच्छे नतीजे मिले तो उन्होंने 18 महीनों में अपना मीडिया बजट दस गुना तक बढ़ा दिया। तीन साल का टारगेट उन्होंने सिर्फ डेढ़ साल में हासिल कर लिया।”

जाधव ने जोर देकर कहा कि जब रणनीति लोकल बाजार की समझ के साथ बनाई जाती है, तो क्षेत्रीय मीडिया ठोस और मापने लायक परिणाम दे सकता है।

उन्होंने यह भी बताया कि सकाल के पास जमीनी स्तर पर 10,000 से अधिक लोगों की टीम है, जिसकी मौजूदगी महाराष्ट्र के 358 तालुकों और 28,000 गांवों में है। “हम सिर्फ रीच की बात नहीं करते, हमारे लिए मीडिया का मतलब रिश्तों से है। हमें अपने पाठकों, दर्शकों और क्लाइंट्स—सबके दिल की बात समझनी आती है।”

अपने संबोधन के अंत में उन्होंने मार्केटर्स और क्षेत्रीय मीडिया हाउसेज के बीच और गहरे सहयोग की अपील की। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, “लंबे समय में टिकाऊ सफलता वहीं मिलती है जहां मीडिया और ब्रांड्स के बीच भरोसे का रिश्ता हो। हमारा रिश्ता भी ‘Fevicol के जोड़’ जैसा मजबूत होना चाहिए।” 

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डैन रोथ ने खास बातचीत में साझा की LinkedIn की एडिटोरियल दुनिया की अंदरूनी कहानी

ग्लोबल प्रोफेशनल दुनिया में कंटेंट, संवाद और प्रभाव की दिशा किस ओर जा रही है? इस सवाल का उत्तर तलाशने के लिए हमें झांकना पड़ता है लिंक्डइन के एडिटर-इन-चीफ डेनियल रोथ की सोच में

Last Modified:
Wednesday, 14 May, 2025
DanRoth7845

ग्लोबल प्रोफेशनल दुनिया में कंटेंट, संवाद और प्रभाव की दिशा किस ओर जा रही है? इस सवाल का उत्तर तलाशने के लिए हमें झांकना पड़ता है लिंक्डइन के एडिटर-इन-चीफ डेनियल रोथ की सोच में, जो इस प्लेटफॉर्म को केवल एक नेटवर्किंग साइट नहीं, बल्कि एक जीवंत और सतत विकसित होती एडिटोरियल इकोसिस्टम में तब्दील कर रहे हैं।

एक्सचेंज4मीडिया में मार्टेक (MarTech) प्लेटफॉर्म के एडिटोरियल लीड बृज पहवा के साथ डेनियल रोथ ने विशेष बातचीत में विस्तार से बताया कि एल्गोरिदम आधारित इस दौर में एडिटोरियल जिम्मेदारी का क्या मतलब है, कैसे लिंक्डइन वैश्विक बिजनेस और वर्क ट्रेंड्स को दिशा दे रहा है और क्यों आज के CMO को कंटेंट का अगुआ भी बनना पड़ेगा। वह यह भी साझा करते हैं कि जनरेटिव AI के बढ़ते प्रभाव के बीच पत्रकारों और संपादकों की भूमिका कैसे बदल रही है, और लिंक्डइन किस तरह अपनी न्यूज टीम के जरिए न केवल प्रोफेशनल्स को जोड़ रहा है, बल्कि उन्हें आगे बढ़ने का रास्ता भी दिखा रहा है।

डेनियल रोथ का यह इंटरव्यू, आज की बदलती कार्य-संस्कृति, थॉट लीडरशिप की नई परिभाषा और डिजिटल संवाद के भविष्य की गहराई से पड़ताल करता है।

यहां पढ़िए पूरा इंटरव्यू-

आप एक ऐसे प्लेटफ़ॉर्म के एडिटर-इन-चीफ़ हैं जो सोशल मीडिया, प्रोफेशनल नेटवर्किंग और पत्रकारिता तीनों का मेल है। ऐसे में आज के एल्गोरिदम-आधारित (algorithm-driven) दौर में आप 'संपादकीय जिम्मेदारी' को कैसे परिभाषित करते हैं?

हमारी संपादकीय टीम का लक्ष्य प्रोफेशनल खबरें और जानकारियों पर होने वाली चर्चाओं को दिशा देना है और अपने सदस्यों को ऐसे उपकरण उपलब्ध कराना है जिससे वे दुनियाभर में विशेषज्ञता को खोज और साझा कर सकें। मेरी टीम के काम का एक बड़ा हिस्सा यह है कि हम अपने सदस्यों को ऐसा मौलिक कंटेंट तैयार करने के लिए प्रेरित करें जो पूरी कम्युनिटी के लिए अर्थपूर्ण और आकर्षक हो।

दिन के अंत में, संपादकीय जिम्मेदारी भरोसे से जुड़ी होती है। यह केवल लोगों तक खबर पहुंचाने का काम नहीं है। यह लोगों को ऐसे विचारों, प्रेरणा और जानकारी से जोड़ने का माध्यम है जो उनके प्रोफेशनल जीवन में उन्हें सफलता दिला सके। हमारा मानना है कि दुनियाभर का प्रोफेशनल ज्ञान लोगों के भीतर है — हमें केवल यह करना है कि उन्हें अपनी बात बाहर लाने और साझा करने में मदद करें। हमारी टीम दुनियाभर में काम कर रही है ताकि ऐसे इनसाइट्स सामने ला सकें जो लोगों को अपने कौशल बढ़ाने, अपडेटेड रहने और महत्वपूर्ण चर्चाओं में अपनी आवाज जोड़ने में मदद करें।

LinkedIn आज की वैश्विक कार्य-संस्कृति (global work culture) का एक अहम हिस्सा बन चुका है। ऐसे में आप कैसे तय करते हैं कि कौन-सी व्यावसायिक, आर्थिक और सामाजिक कहानियां वैश्विक स्तर पर संपादकीय ध्यान पाने लायक हैं? और जब किसी खबर को कवर करने या LinkedIn के ग्रोथ व प्रोडक्ट से जुड़ी सामग्री को प्राथमिकता देने की बात आती है, तो उसके बीच संतुलन कैसे बनाते हैं? आपके संपादकीय निर्णय लेने की प्रक्रिया क्या है?"

हमारी रणनीति सुनने और साझेदारी की है। ‘सुनने’ की बात करें तो हमें यह सौभाग्य प्राप्त है कि हम देख सकते हैं कि किस तरह की बातचीत चल रही है- लोग किन विषयों पर कमेंट कर रहे हैं, कैसे कर रहे हैं, कौन से टॉपिक किस देश या शहर में लोगों के साथ गूंज रहे हैं। फिर हम यह सुनिश्चित करते हैं कि इन विषयों पर सही आवाजें सामने आएं। इसका मतलब है कि हम क्रिएटर्स और पब्लिशर्स के साथ मिलकर काम करते हैं, उन्हें बताते हैं कि क्या ट्रेंड कर रहा है और उनकी बात कहां सबसे ज्यादा असर करेगी। यह सब हर दिन बदलता रहता है, इसलिए लगातार Teams, ईमेल, फोन, और आमने-सामने बातचीत होती रहती है। हम विषय विशेषज्ञों को वहां ले जाने की कोशिश करते हैं जहां उनकी सबसे ज्यादा जरूरत है।

लेकिन सबसे अच्छी बात यह है कि हमारी टीम की किसी भी भूमिका के बिना ज्यादातर चर्चाएं अपने आप होती हैं। प्रोफेशनल लोग कामकाज की दुनिया में जो बदलाव देख रहे हैं, उस पर व्यापक और विशिष्ट चर्चाएं करते हैं। हमारा काम बस इतना है कि हम नई आवाजें जोड़ते रहें और चर्चाओं को आगे बढ़ाते रहें।

जहां तक न्यूज कवरेज का सवाल है: कुछ ऐसे विषय होते हैं जो हर प्रोफेशनल को जानने चाहिए, चाहे वे किसी भी इंडस्ट्री में हों। हम उन पर ध्यान देते हैं: जैसे प्रमुख ट्रेंड्स या अधिग्रहण, अर्थव्यवस्था में बड़े बदलाव, नौकरी में अहम फेरबदल — कोई भी ऐसी बात जो कंपनियों या अर्थव्यवस्थाओं की प्रतिक्रिया को बदल सकती है। उदाहरण के लिए, अदानी एंटरप्राइजेज द्वारा अपने ऑपरेशनल टेक्नोलॉजी साइबरसिक्योरिटी बिजनेस के लिए बर्गेस कूपर की सीईओ के रूप में नियुक्ति या लार्सन एंड टुब्रो द्वारा गुजरात में अपनी इंजीनियरिंग सुविधाओं का विस्तार। हम उन इंडस्ट्रीज को भी कवर करते हैं जो किसी देश की जीडीपी में बड़ी भूमिका निभाती हैं या कई क्षेत्रों पर अधिक प्रभाव डालती हैं। हम अपने सदस्यों को यह दिखाकर अपडेटेड रखना चाहते हैं कि इंडस्ट्री का मूवमेंट कहां है और अगला अवसर कहां पैदा हो सकता है।

हमारा संपादकीय इकोसिस्टम भी अब इस तरह विकसित हुआ है कि हम अपने सदस्यों को वहीं मिलते हैं जहां वे हैं — न्यूज को फ़ीड में दिखाने से लेकर मूल पॉडकास्ट, लाइव कार्यक्रम, और The Path या This is Working जैसी सीरीज तैयार करने तक। हम नेतृत्व और व्यापार से जुड़ी खबरों पर भी नजर रखते हैं जो इनोवेशन, कार्यबल प्राथमिकताओं और आर्थिक परिवर्तन जैसे व्यापक संकेतों को दर्शाती हैं और हमारे सदस्यों को श्रम बाजार के बदलावों से जोड़े रखती हैं। 

जब आपकी एडिटोरियल टीम किसी विचारशील लीडर की बातों को आगे बढ़ाती है या उन्हें प्रमुखता देती है, तो आप यह कैसे सुनिश्चित करते हैं कि इसमें निष्पक्षता और संतुलन बना रहे?


हम शीर्षक पर नहीं, इनसाइट पर ध्यान देते हैं। हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई व्यक्ति ऐसा दृष्टिकोण दे रहा है या नहीं जो प्रोफेशनल समुदाय की मदद कर सके, न कि वह किस कंपनी से है या उसके कितने फॉलोअर्स हैं।

एक दिलचस्प ट्रेंड जो हम देख रहे हैं वह यह है कि लीडर्स अब लिंक्डइन पर वास्तविक कहानियां साझा कर रहे हैं — यह बताते हुए कि उन्होंने कौन-से फैसले क्यों लिए और कैसे लिए। चाहे वह कोई सीईओ हो जो नेतृत्व में किए बदलाव को समझा रहा हो, या कोई जनरेशन Z का कर्मचारी जो अपने काम का दिन दिखा रहा हो — जो बात लोगों तक पहुंचती है वह है ईमानदारी, विशेषज्ञता और प्रासंगिकता।

क्या LinkedIn की संपादकीय नेतृत्व (editorial leadership) वास्तव में असली दुनिया की आर्थिक परिस्थितियों को प्रभावित कर सकती है- जैसे कि नौकरियों के ट्रेंड्स बनाना, हायरिंग की नीतियों को दिशा देना या छंटनी को लेकर लोगों की सोच को प्रभावित करना? और आप LinkedIn News की क्या भूमिका देखते हैं वैश्विक वर्क कल्चर के भविष्य में, खासकर तब जब बड़े बदलाव हो रहे हैं जैसे कि रिमोट वर्क का चलन, फ्रीलांस इकॉनॉमी का बढ़ना, और जनरेटिव AI जैसे तकनीकी टूल्स का असर?

काम करने का तरीका बहुत तेजी से बदल रहा है। कहां से काम किया जा रहा है, कैसे किया जा रहा है और AI कैसे हमारी नौकरियों को बदल रहा है। कंपनियां तेजी से इनोवेशन और ग्रोथ के लिए आगे बढ़ रही हैं — और प्रोफेशनलों को भी उतनी ही तेजी से खुद को ढालना पड़ रहा है। ऐसे बदलावों के दौर में, भरोसेमंद मार्गदर्शन ही सबसे बड़ा अंतर लाएगा।

यह बात हमारे डेटा में भी दिखाई देती है — 90% प्रोफेशनलों को पहले से कहीं ज्यादा मार्गदर्शन की जरूरत है ताकि वे अपने करियर में आगे बने रह सकें, और लगभग 80% पहले ही लीडर्स और सहकर्मियों से सलाह ले रहे हैं। भारत में C-सूट एग्जीक्यूटिव्स अब AI लिटरेसी से जुड़ी स्किल्स जैसे कि प्रॉम्प्ट इंजीनियरिंग और जेनरेटिव AI को अपने प्रोफाइल में शामिल करने की संभावना दो साल पहले की तुलना में लगभग तीन गुना ज्यादा है। वे व्यापक कार्यबल की तुलना में 1.2 गुना अधिक AI fluency भी प्रदर्शित कर रहे हैं, हालांकि कई लोग इन टूल्स के साथ आत्मविश्वास अभी भी बना रहे हैं।

यहीं हमारी भूमिका सबसे खास बनती है। हम अपने प्लेटफॉर्म को एक ऐसे वर्कप्लेस की गलियारों की तरह देखते हैं — जहां ईमानदार, वास्तविक और प्रासंगिक प्रोफेशनल बातचीत होती है। आज जो कुछ भी कामकाज की दुनिया में घट रहा है, उसकी शुरुआत या तो लिंक्डइन पर होती है या वह यहां तक पहुंचता है। इस प्रोफेशनल इकोसिस्टम को ज्ञान साझा करने के लिए केंद्र में रखकर, हम लोगों को अधिक उत्पादक, सफल और प्रेरित बनने में मदद कर सकते हैं — और इसी के जरिए अधिक अवसरों के द्वार भी खुल सकते हैं।

क्या आपको लगता है कि आने वाले वक्त में मार्केटिंग प्रमुख (CMO) को अपने साथ कंटेंट की जिम्मेदारी भी संभालनी पड़ेगी, यानी उन्हें एक ‘चीफ कंटेंट ऑफिसर’ की भूमिका भी निभानी होगी? क्योंकि LinkedIn पर थॉट लीडरशिप का रास्ता साफ दिख रहा है, ऐसे में मार्केटिंग का काम और कैसे बदल रहा है?

हमें केवल CMO के ग्रोथ की बात नहीं करनी चाहिए — इससे कहीं बड़ी एक रचनात्मक और रणनीतिक बदलाव की लहर चल रही है कि C-सूट अब संवाद कैसे करता है। लिंक्डइन अब नेताओं के लिए सबसे पसंदीदा चैनल बन गया है — वे यहीं पर खबरें ब्रेक कर रहे हैं, फैसलों को समझा रहे हैं और सीधे तौर पर कर्मचारियों, ग्राहकों और निवेशकों से जुड़ रहे हैं।

हमने देखा है कि बीते दो वर्षों में लिंक्डइन पर मुख्य कार्यपालक अधिकारियों (chief executives) के पोस्ट्स में 52% की बढ़ोतरी हुई है। हमारे डेटा के मुताबिक, CEO द्वारा किए गए पोस्ट्स को 7 गुना ज्यादा इंप्रेशंस और 4 गुना ज्यादा एंगेजमेंट मिलता है — यह साबित करता है कि वास्तविक और प्रामाणिक विचार-नेतृत्व की जबरदस्त मांग है। यह ट्रेंड अब बाकी विभागों में भी फैल रहा है, और कई C-सूट लीडर्स अपने दर्शकों और उद्योग के साथ सीधे जुड़ रहे हैं।

CMOs इस बदलाव में निर्णायक और अत्यंत प्रभावशाली भूमिका निभाएंगे, अपने संगठनों के लिए विचार नेतृत्व की रणनीति को आकार देने में।

आज के समय में एक LinkedIn न्यूजलेटर को सफल क्या बनाता है? जब इतने सारे ब्रैंड इस न्यूजलेटर स्पेस में आ गए हैं, तो अब भी कौन सी चीज सबसे ज्यादा असर छोड़ती है?

न्यूजलेटर्स आज भी एक मूल्यवान माध्यम हैं, खासकर उनके लिए जो समुदाय बनाना चाहते हैं और लगातार मूल्यवान जानकारी साझा करना चाहते हैं। सदस्यों और लीडर्स द्वारा लिखी गई न्यूजलेटर्स के अलावा, हमारे कई एडिटर्स भी अपनी न्यूजलेटर्स से सब्सक्राइबर्स को लगातार जोड़कर रखते हैं। उदाहरण के लिए, LinkedIn एडिटर तान्या दुआ द्वारा लिखी गई Tech Stack नॉन-टेक्निकल पाठकों के लिए AI और टेक ट्रेंड्स को सरल बनाती है, वहीं Get Hired न्यूजलेटर (एंड्रयू सीमैन द्वारा) लोगों को अपनी अगली नौकरी पाने में मदद करता है।

हमारे प्लेटफॉर्म पर अब तक कुल 938 मिलियन से ज्यादा न्यूजलेटर सब्सक्रिप्शन हो चुके हैं।

आप हमारी Newsletter best practices को देख सकते हैं, जहां आपको स्वरूप और सुझावों से जुड़ी और जानकारी मिलेगी।

जब ChatGPT जैसे AI टूल बड़ी मात्रा में कंटेंट लिख पा रहे हैं, तो ऐसे में आप संपादकों और पत्रकारों की भूमिका को आगे कैसे बदलते हुए देखते हैं?

हम काम के हर क्षेत्र में AI के भविष्य को लेकर उत्साहित हैं, और हमने इसे अपनी संपादकीय प्रक्रिया में भी शामिल किया है — फिलहाल इसका इस्तेमाल मुख्यतः टीम के कामकाज को और कुशल बनाने के लिए हो रहा है। AI के एक शक्तिशाली सक्षमकर्ता के रूप में उभरने के साथ, अब एडिटर्स और पत्रकार प्रॉम्प्ट इंजीनियर्स की भूमिका निभा रहे हैं। हम AI का उपयोग इनसाइट्स खोजने, डेटा की पुष्टि करने और नए विचार उत्पन्न करने के लिए कर रहे हैं।

उदाहरण के लिए, हमारे LinkedIn Lists तैयार करने के लिए पहले 500 घंटे का रिसर्च करना पड़ता था, लेकिन अब AI की मदद से यही काम केवल 2 घंटे में हो जाता है। इसके बावजूद, मानवीय निर्णय, कहानी कहने की क्षमता और पत्रकारिता की सूझबूझ अभी भी हमारी प्रक्रिया में केंद्र में हैं और भविष्य में पत्रकारिता की भूमिका और भी महत्वपूर्ण होती जाएगी।

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डिजिटल दौर में बने रहने के लिए खुद को बदलना जरूरी: अनुज सिंघल, CNBC-Awaaz

अनुज सिंघल, जो CNBC-आवाज और CNBC-बाजार के मैनेजिंग एडिटर हैं, पिछले बीस साल से भारत में फाइनेंशियल जर्नलिज्म की जटिल दुनिया को समझते और समझाते आ रहे हैं।

Last Modified:
Wednesday, 30 April, 2025
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रुहैल अमीन, सीनियर स्पेशल कॉरेस्पोंडेंट, एक्सचेंज4मीडिया ग्रुप ।।

अनुज सिंघल, जो CNBC-आवाज और CNBC-बाजार के मैनेजिंग एडिटर हैं, पिछले बीस साल से भारत में फाइनेंशियल जर्नलिज्म की जटिल दुनिया को समझते और समझाते आ रहे हैं। "e4m Headline Makers" सीरीज में एक बेबाक बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि आज की तेज रफ्तार मीडिया में सटीकता और स्पीड के बीच संतुलन कैसे बनाए रखते हैं, अलग-अलग दर्शकों के लिए वित्तीय बाजारों को कैसे सरलता से समझाते हैं और डिजिटल मीडिया के बढ़ते प्रभाव को किस तरह देखते हैं। उनकी बातचीत इस बात पर गहराई से सोचने का मौका देती है कि पुरानी मीडिया संस्थाएं डिजिटल दौर में कैसे अपनी अहमियत बनाए रख सकती हैं।

पढ़िए, बातचीत के मुख्य अंश:

फाइनेंशियल जर्नलिज्म में सटीकता और तुरंत विश्लेषण- दोनों की जरूरत होती है। आज की तेज रफ्तार खबरों की दुनिया में आप इस संतुलन को कैसे बनाए रखते हैं?

यही हमारी सबसे बड़ी चुनौती है। जब मैंने 2003 में शुरुआत की थी, तब सिर्फ एक बिजनेस चैनल था और खबर दिखाने से पहले उसे अच्छे से जांचने का समय होता था। अब बहुत सारे बिजनेस और डिजिटल चैनल एक-दूसरे से पहले खबर देने की दौड़ में हैं, तो रफ्तार बेहद जरूरी हो गई है। फिर भी हमारे लिए सबसे अहम चीज है–सटीकता। हम हमेशा भरोसेमंद स्रोतों से मिली पुष्टि की गई खबर को ही प्राथमिकता देते हैं, खासकर एक्सचेंज से जुड़ी खबरों को, जिन्हें हम तुरंत और सही तरीके से दिखाने की कोशिश करते हैं। लेकिन यदि खबर WhatsApp या Twitter जैसे अनौपचारिक चैनलों से आती है, तो हम बहुत सतर्क रहते हैं–पहले पुष्टि करते हैं, चाहे हमें खबर दिखाने में देर ही क्यों न हो जाए।

CNBC Awaaz मुख्य रूप से हिंदी बोलने वाले रिटेल निवेशकों और व्यापारियों के लिए है। आप जटिल फाइनेंशियल कॉन्सेप्ट को कैसे आसान बनाते हैं, बिना उसकी गहराई खोए?

हमारा एक सीधा-सा सिद्धांत है- क्या हमारी मां यह समझ पाएंगी? यदि कोई चीज हमें खुद जटिल लगे, तो हम उसे दोबारा सोचते हैं। हम जानबूझकर तकनीकी शब्दों को सरल करते हैं और यह नहीं मानते कि दर्शक सब कुछ पहले से जानते हैं। जैसे CASA (करंट और सेविंग्स अकाउंट) जैसा शब्द भी हर कोई नहीं समझता, तो हम पूरी तरह से स्पष्टता रखते हैं। हमारा मकसद है हर किसी तक पहुंचना- न सिर्फ अनुभवी निवेशक, बल्कि नए लोग, महिला निवेशक और वो युवा जो अभी मार्केट में आ रहे हैं।

जब YouTube और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर का असर बढ़ रहा है, तब पुराने फाइनेंशियल न्यूज चैनल अपनी विश्वसनीयता और प्रासंगिकता कैसे बनाए रखते हैं?

लगातार खुद को नया करना बहुत जरूरी रहा है। डिजिटल बदलाव को समय पर समझते हुए हमने YouTube, Instagram, Twitter और Facebook पर अपनी मौजूदगी को तेजी से बढ़ाया। आज, सोशल मीडिया के ज्यादातर पैमानों पर CNBC Awaaz टॉप बिजनेस चैनल है। मेरी अपनी डिजिटल मौजूदगी, खासकर Instagram Reels के जरिए, काफ़ी बढ़ी है जिससे मैं सीधे युवा दर्शकों से जुड़ पाता हूं। यही डिजिटल रुख हमें छोटे-छोटे फॉर्मेट में आने वाले कंटेंट की भीड़ में भी प्रासंगिक और भरोसेमंद बनाए रखता है।

खासकर मोबाइल-फर्स्ट और युवा दर्शकों में आपने क्या बड़ा बदलाव देखा है?

सबसे बड़ा बदलाव निवेश की सोच में आया है। पहले लोग 'लॉन्ग टर्म' निवेश का मतलब कई साल मानते थे, अब वो एक ट्रेडिंग डे भी नहीं होता। इस बदलाव में 24x7 लाइव मार्केट कवरेज की बड़ी भूमिका है। इसी वजह से अब हमें दर्शकों को जिम्मेदारी के साथ निवेश करने के लिए प्रेरित करना पड़ता है। COVID-19 के बाद नए निवेशकों की बड़ी संख्या आई है, जिससे उनकी उम्मीदें भी बदल गई हैं—तेज, लेकिन सटीक विश्लेषण की जरूरत अब ज्यादा है।

बजट या RBI पॉलिसी जैसे बड़े वित्तीय इवेंट्स के लिए एडिटोरियल प्लानिंग कैसे होती है?

ऐसी कवरेज के लिए गहराई से तैयारी की जाती है। बजट के लिए प्लानिंग तीन महीने पहले से शुरू हो जाती है। हम एक्सपर्ट पैनल, जूरी डिस्कशन और खास प्रोग्रामिंग को बारीकी से प्लान करते हैं, ताकि बजट वाले दिन किसी भी स्थिति से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार रहें। RBI पॉलिसी कवरेज के लिए भी ऐसे ही तैयारियां होती हैं, जिसमें खास तौर पर ऐसे समय में लॉन्ग-टर्म इन्वेस्टमेंट की सोच को जोर दिया जाता है, जब मार्केट में हलचल हो।

जब कंटेंट एल्गोरिदम से तय हो रहा है, तब न्यूजरूम में एडिटोरियल जजमेंट की भूमिका को आप कैसे देखते हैं?

AI का आना अब टालना मुश्किल है। CNBC-Awaaz में हम इसे अपनाने में पीछे नहीं हैं—AI के जरिए कंटेंट डिलीवरी और एनालिसिस बेहतर किया जा रहा है। लेकिन एडिटोरियल जजमेंट अब भी बेहद अहम है। एडिटर का काम अब AI के साथ मिलकर काम करने का है, मुकाबला करने का नहीं। यदि AI को अपनाने में देरी करेंगे तो पीछे छूट सकते हैं, इसलिए बदलाव के साथ चलना और उसे अपनी ताकत बनाना जरूरी है।

क्या पारंपरिक पत्रकारिता की पढ़ाई और आज के फाइनेंशियल न्यूजरूम की जरूरतों के बीच कोई स्किल गैप है?

मेरे लिए फॉर्मल जर्नलिज्म की डिग्री कोई बड़ी प्राथमिकता नहीं है। मैं ऐसे लोगों को देखता हूं जो लाइव न्यूजरूम के दबाव में भी अच्छा काम कर सकें, टीम के साथ मिलकर चल सकें और बदलती स्थितियों के अनुसार खुद को ढाल सकें। आज की मीडिया की दुनिया में असली स्किल्स, डिग्री से ज्यादा मायने रखते हैं।

टीवी पत्रकारिता को हमेशा हाई-प्रेशर जॉब माना जाता है। इतने लंबे करियर में आपने बर्नआउट से कैसे बचाव किया?

मेरी दिनचर्या में साफ़ सीमाएं तय हैं—मैं दिन की शुरुआत जल्दी करता हूं, लेकिन वर्क-लाइफ बैलेंस पर पूरा ध्यान रहता है। मैं जिम्मेदारियां बांटता हूं, अपनी टीम पर भरोसा करता हूं, जिससे थकावट नहीं आती। मेरे लिए बर्नआउट की पहचान आसान है—यदि सुबह का अनुशासित रूटीन ढीला पड़ने लगे, तो समझ जाता हूं कि कुछ बदलने की जरूरत है। अभी तक ये संतुलन मुझे मोटिवेटेड बनाए रखता है।

फाइनेंशियल जर्नलिज्म को आगे प्रासंगिक और असरदार बने रहने के लिए कौन-सी रणनीतियां अपनानी चाहिए?

डिजिटल-फर्स्ट अप्रोच और लगातार इनोवेशन अब जरूरी हो गया है। पुराने फॉर्मेट अब काफी नहीं हैं। आज जर्नलिस्ट को एक साथ कई डिजिटल प्लेटफॉर्म पर दर्शकों से जुड़ना आता हो। इसके अलावा, AI को अपनाना भी जरूरी है ताकि कंटेंट और ऑपरेशंस दोनों में सुधार हो सके। फाइनेंशियल जर्नलिज्म को लगातार खुद को रीडिजाइन करते रहना होगा ताकि वो न सिर्फ दर्शकों की बदलती पसंद के साथ चले, बल्कि तकनीकी बदलावों से भी कदम से कदम मिला सके।

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बिजनेस जर्नलिज्म में करियर बनाना है, तो सीखें नंबरों की भाषा व संदर्भ: ए.के. भट्टाचार्य

वरिष्ठ पत्रकार व बिजनेस स्टैंडर्ड के एडिटोरियल डायरेक्टर ए.के. भट्टाचार्य से संपादक पंकज शर्मा ने उनके अनुभवों, बिजनेस पत्रकारिता में आ रहे परिवर्तनों, चुनौतियों पर विस्तार से चर्चा की।

Last Modified:
Tuesday, 29 April, 2025
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वरिष्ठ पत्रकार व बिजनेस स्टैंडर्ड के एडिटोरियल डायरेक्टर ए.के. भट्टाचार्य ने चार दशकों से अधिक के अपने पत्रकारिता अनुभव में भारतीय मीडिया, खासकर बिजनेस जर्नलिज्म में आए बड़े बदलावों को करीब से देखा और जिया है। समाचार4मीडिया के संपादक पंकज शर्मा ने उनके अनुभवों, बिजनेस पत्रकारिता में आ रहे परिवर्तनों, चुनौतियों और नए पत्रकारों के लिए जरूरी कौशल पर विस्तार से चर्चा की। यहां पढ़िए बातचीत के प्रमुख अंश

सबसे पहले आप अपने शुरुआती सफर के बारे में बताइए। पत्रकारिता में आने से पहले किन अनुभवों से आप गुजरे?

शुरुआत में मैंने एक साल अध्यापन का काम किया। उस समय 1977 के दशक में नौकरियों के विकल्प सीमित थे – या तो सिविल सर्विस, टीचिंग या फिर पत्रकारिता। चूंकि मेरी रुचि अध्यापन में ज्यादा नहीं थी, इसलिए मैंने इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप में पत्रकारिता शुरू की। फिर फाइनेंशियल एक्सप्रेस, इकोनॉमिक टाइम्स और पायनियर जैसे संस्थानों में काम किया और अब बिजनेस स्टैंडर्ड में हूं। इतने वर्षों में पत्रकारिता का आकर्षण कभी कम नहीं हुआ।

बिजनेस जर्नलिज्म में आपने इतने सालों में क्या बड़े बदलाव देखे हैं?

जब मैंने करियर शुरू किया था, बिजनेस पत्रकारों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था। उनके लिए छोटे कॉलम होते थे। लेकिन उदारीकरण के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था खुली और बिजनेस जर्नलिज्म का दायरा तेजी से बढ़ा। अब स्टॉक मार्केट, कॉरपोरेट्स और पॉलिसी कवरेज का महत्व बहुत बढ़ चुका है। साथ ही, आज के बिजनेस जर्नलिस्ट को ज्यादा टेक्निकल स्किल्स और गहरी समझ की जरूरत है।

आज कंटेंट की भरमार है। ऐसे में हाई-क्वालिटी और विश्वसनीय बिजनेस कंटेंट तैयार करने की क्या चुनौतियां हैं?

आज सबसे बड़ी चुनौती है कि पाठकों को साधारण खबरों से अलग कुछ ऐसा दिया जाए जो उनकी समझ को बेहतर बनाए। कंटेंट तो हर जगह उपलब्ध है, फर्क हमारी एनालिटिकल क्षमता से पड़ता है। एक बिजनेस जर्नलिस्ट को डाटा को समझना और उसे संदर्भ के साथ सरल भाषा में पेश करना आना चाहिए।

ऑटोमेशन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के आने से बिजनेस पत्रकारिता में क्या बदलाव आ रहे हैं?

मैं इसे चुनौती नहीं बल्कि अवसर मानता हूं। जैसे टाइपराइटर से कंप्यूटर आने पर मेंटल डिसिप्लिन बदली थी, वैसे ही एआई से एडिटिंग और बेसिक काम आसान होंगे। इसका सही इस्तेमाल कर हम और भी गुणवत्तापूर्ण एडिटिंग और एनालिसिस कर सकते हैं। हालांकि, चेक्स एंड बैलेंस बहुत जरूरी रहेंगे।

आप लंबे समय से "Raisina Hill" कॉलम लिख रहे हैं। इसके बारे में कुछ बताइए।

"Raisina Hill" कॉलम का मकसद सरकारी नीतियों और आर्थिक फैसलों का विश्लेषण करना है। इसकी शुरुआत मैंने करीब 1990 में की थी। तब से हर पखवाड़े मैं सरकार के निर्णयों और उनके असर पर लिखता हूं। इसका उद्देश्य नीतिगत फैसलों के पीछे के आर्थिक तर्क और उनके समाज पर प्रभाव को समझाना है। 

आपने 'The Rise of the Goliath' और 'India’s Finance Ministers' जैसी किताबें लिखी हैं। इनके पीछे क्या प्रेरणा रही?

'The Rise of the Goliath' में मैंने 1947 से लेकर 2016 तक भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था पर बड़े-बड़े डिसरप्शन (जैसे डिमोनेटाइजेशन, टेलीकॉम रेवोल्यूशन) का असर दिखाने की कोशिश की है। वहीं 'India’s Finance Ministers' श्रृंखला में वित्त मंत्रियों के नजरिए से भारतीय आर्थिक नीतियों के विकास का अध्ययन किया है। तीसरा वॉल्यूम जल्द आने वाला है।

2025 में मीडिया के लिए सबसे बड़ी चुनौती और अवसर क्या हैं?

सबसे बड़ी चुनौती है तेजी से बदलती टेक्नोलॉजी और दर्शकों के पास बढ़ते विकल्पों के बीच अपनी विश्वसनीयता और गुणवत्ता को बनाए रखना। पत्रकारों को अब सिर्फ खबर देना नहीं बल्कि पाठकों की समझ को भी समृद्ध करना होगा।

बिजनेस जर्नलिज्म में करियर बनाना चाहने वाले युवाओं को किन स्किल्स पर फोकस करना चाहिए?

सबसे पहले करंट अफेयर्स पर मजबूत पकड़ होनी चाहिए। इसके साथ ही, नंबरों से डरना नहीं चाहिए बल्कि उन्हें संदर्भ के साथ पेश करना आना चाहिए। आंकड़ों को समझना, उनका विश्लेषण करना और सरल भाषा में सही संदर्भ में पेश करना एक सफल बिजनेस पत्रकार बनने की कुंजी है।

जैसा कि ए.के. भट्टाचार्य जी ने बताया, बिजनेस जर्नलिज्म आज चुनौतियों और अवसरों का संगम है। नई तकनीकों को अपनाते हुए नंबरों की गहरी समझ और संदर्भात्मक विश्लेषण ही इस क्षेत्र में सफलता दिला सकता है।

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'पोलराइजेशन' सिर्फ मीडिया में नहीं, दर्शकों में भी है: जक्का जैकब, CNN-News18

एक ऐसे न्यूज माहौल में, जो अक्सर तेज-तर्रार बहसों और विभाजनकारी एजेंडों के लिए आलोचना का शिकार रहता है, CNN-News18 के मैनेजिंग एडिटर जक्का जैकब एक शांत बदलाव की दिशा में काम कर रहे हैं।

Last Modified:
Tuesday, 29 April, 2025
Zakka Jacob

एक ऐसे न्यूज माहौल में, जो अक्सर तेज-तर्रार बहसों और विभाजनकारी एजेंडों के लिए आलोचना का शिकार रहती है, CNN-News18 के मैनेजिंग एडिटर जक्का जैकब एक शांत बदलाव की दिशा में काम कर रहे हैं। उनकी अगुवाई में, नेटवर्क ने एक शांत व शालीन पत्रकारिता अपनाई है, जो इस समय के ''क्लिकबाइट'' और लगातार "ब्रेकिंग न्यूज" के दौर में अब कम ही देखने को मिलती है।

'हेडलाइन मेकर्स' शो में, जक्का जैकब नए स्क्रीन डिजाइन, संपादकीय मूल्यों, बढ़ती डिजिटल प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ यह बताते हैं कि उनके लिए खबरें ही सबसे अहम हैं, न कि सिर्फ शोर।

आपका शो शांत और समझाने वाली शैली में है, जो आमतौर पर दिखने वाले शोर-शराबे के न्यूज शोज से काफी अलग है। यह फॉर्मेट कहां से आया और आपने इसे क्यों अपनाया?

COVID-19 के दौरान हमे दर्शकों से यह प्रतिक्रिया मिल रही थी कि वे शोर-शराबे वाली बहसें नहीं चाहते। वे समझना चाहते थे कि क्या हुआ, क्यों यह महत्वपूर्ण है और यह उनके लिए कैसे असरदार है। इसलिए हमने पारंपरिक पैनल डिबेट को छोड़कर गहरे विश्लेषण और समझाने वाले कंटेंट पर ध्यान दिया। शुरुआत में यह बहुत कम था, जैसे हर घंटे में 5-10 मिनट, लेकिन अब हमारे शो का 90-95% हिस्सा इसी शैली का है। यह दर्शकों की मांग पर आधारित है, ट्रेंड्स पर नहीं।

आप किस तरह से संपादकीय सीमा तय करते हैं, जहां आप आकर्षक बनें लेकिन सनसनीखेज नहीं?

आपको आकर्षक होना चाहिए, क्योंकि कोई भी बोरिंग न्यूज नहीं देखना चाहता। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तथ्यों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करें। एक पत्रकार का काम सच के करीब रहना है। अगर खबर मजबूत है, तो उसे ज्यादा मसाले की जरूरत नहीं होती। जैसे फिल्मों में, अगर स्क्रिप्ट अच्छी है तो वह काम करती है, वही न्यूज पर भी लागू होता है।

यूट्यूब पत्रकारिता और डिजिटल-फर्स्ट मीडिया के बारे में आपकी क्या राय है? क्या यह प्रतिस्पर्धा है या सहयोग?

मैं इसे सहयोगात्मक मानता हूं। यूट्यूबर्स CNN-News18 जैसे बड़े ब्रांड की स्केल और इंफ्रास्ट्रक्चर से मुकाबला नहीं कर सकते। हालांकि, वे पारंपरिक मीडिया को ज्यादा लचीला और तेज बनाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। हम यूट्यूब, इंस्टाग्राम और शॉर्ट्स के लिए टीम्स बनाकर तेजी से काम कर पा रहे हैं और युवा दर्शकों से जुड़ने में सफल हो रहे हैं।

क्या आपको लगता है कि टीवी न्यूज, खासकर युवा दर्शकों के बीच, अब उतनी लोकप्रिय नहीं रही है?

दर्शकों के देखने का तरीका बदल चुका है। अब लोग पहले से तय वक्त पर न्यूज नहीं देखते। कंटेंट को अब मोबाइल, कनेक्टेड टीवी और सोशल मीडिया जैसे प्लेटफार्म्स पर पहुंचाना पड़ता है। दर्शक अब भी न्यूज चाहते हैं, लेकिन वे उसे ऐसे फॉर्मेट में चाहते हैं, जो वे समझ सकें। एक मिनट के एक्सप्लेनर्स, रील्स, वर्टिकल स्टोरीटेलिंग – यह सब अब की न्यूज का हिस्सा बन चुका है।

हाल में हुए आपके चैनल की दृश्यात्मक बदलावों के बारे में बताएं। नए स्क्रीन डिजाइन के पीछे क्या सोच थी?

यह भी दर्शकों की प्रतिक्रिया पर आधारित था। उन्हें स्पष्टता चाहिए थी, ना कि अव्यवस्था। हम अब सेलेब्रिटी विजुअल्स, शोर-शराबा और चटकीले रंगों से दूर हो गए हैं। यहां तक कि मोबाइल पर भी, दर्शक साफ और आसानी से समझने वाले विजुअल्स चाहते हैं। हम यह कहना चाहते हैं कि "CNN-News18 आपके दुनिया, आपके दिन और आपके हेडलाइंस को समझता है।" यही हमारे नए स्क्रीन दर्शन का आधार है।

क्या आपको लगता है कि टीवी न्यूज पिछले कुछ सालों में ज्यादा समझदार हो गई है?

मुझे लगता है, हां। अब दर्शक ज्यादा अर्थपूर्ण कंटेंट चाहते हैं। वे हमें और ज्यादा तेज और सोच-समझ कर न्यूज देने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। हम अब कम शोर-शराबे वाली बहसें करते हैं और गहरे विश्लेषण पर ध्यान केंद्रित करते हैं। यह शोर को कम करने और इसके बजाय प्रकाश डालने के बारे में है।

आज के टीवी न्यूज के बारे में सबसे बड़ी गलतफहमी क्या है?

यह है कि हम या तो बिके हुए हैं या बहुत लिबरल हैं। असलियत कहीं ज्यादा जटिल है। हम अपनी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश कर रहे हैं: सत्ता को जवाबदेह ठहराना, सच को सामने लाना और सीमाओं के भीतर काम करना। पोलराइजेशन (ध्रुवीकरण) केवल मीडिया में नहीं है, यह दर्शकों में भी है।

आज के समय में एक न्यूज रूम लीडर के रूप में आपकी सबसे बड़ी चुनौती क्या है?

प्रतिभा को आकर्षित करना और उसे बनाए रखना। युवा पत्रकार अक्सर दो या तीन साल के बाद छोड़ देते हैं, लेकिन असली ग्रोथ चार या पांच साल बाद होता है। हमें ऐसा माहौल बनाना होगा जहां वे खुद को मूल्यवान महसूस करें और भविष्य देख सकें।

क्या आपको लगता है कि भारतीय न्यूज चैनल्स वैश्विक स्तर पर प्रभाव बना रहे हैं?

हां, बढ़ते हुए। जैसे-जैसे भारत की वैश्विक स्थिति मजबूत हो रही है, वैसे-वैसे हमारी बातों में भी दिलचस्पी बढ़ रही है। रूस-यूक्रेन संघर्ष और गाजा युद्ध के दौरान, दुनिया ने भारत के दृष्टिकोण को सुना। हमारे जैसे चैनल्स इन दृष्टिकोणों को स्पष्ट करने और भारत की आवाज को वैश्विक स्तर पर पहुंचाने में मदद करते हैं।

आखिर में, आप टीवी न्यूज के भविष्य को कैसे देखते हैं? क्या लीनियर टीवी टिकेगा?

मीडिया में बदलाव आएगा, लेकिन जिज्ञासा कभी नहीं मरेगी। लोग हमेशा जानना चाहेंगे कि क्या हो रहा है, क्यों यह महत्वपूर्ण है। चाहे टीवी हो, मोबाइल हो, या सोशल मीडिया, काम वही रहेगा। दर्शक जहां हैं, वहीं जाइए। उन्हें मूल्य दीजिए। उनकी दुनिया को समझाइए।

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