Exclusive: वरिष्‍ठ पत्रकार ब्रज खंडेलवाल का बेबाक इंटरव्‍यू...

जाने-माने वरिष्‍ठ पत्रकार ब्रज खंडेलवाल इन दिनों पत्रकारिता के साथ समाजसेवा के कामों में जुटे हुए हैं...

Last Modified:
Monday, 30 July, 2018


समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।

जाने-माने वरिष्‍ठ पत्रकार ब्रज खंडेलवाल इन दिनों पत्रकारिता के साथ समाजसेवा के कामों में जुटे हुए हैं। वे दिल्ली, आगरा, भोपाल समेत देश के कई भागों में कार्य कर रहे वरिष्ठ पत्रकारों के गुरु हैं।

बहुआयामी प्रतिभा के धनी ब्रज खंडेलवाल आगरा में यमुना की सफाई से लेकर बढ़‍ते प्रदूषण के प्रति भी लोगों को जागरूक कर रहे हैं। उनकी पहचान न सिर्फ पत्रकार, बल्कि एक शिक्षक, पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी है। इनके अलावा और भी कई विशेषताएं उनमें, हैं जो उनके कार्यों और आचरण में दिखाई देती हैं। ब्रज खंडेलवाल हिंदी और अंग्रेजी भाषा, दोनों में समान रूप से मजबूत पकड़ रखते हैं और उनकी धारदार कलम हर विषय पर चलती रहती है।

'समाचार4मीडिया' के डिप्‍टी एडिटर अभिषेक मेहरोत्रा ने ब्रज खंडेलवाल से उनके परिवार से लेकर करियर के शुरुआती दिनों के अलावा विभिन्‍न विषयों पर बेबाकी से चर्चा की... 

न्‍यूज को लेकर ब्रज खंडेलवाल का मानना है कि आजकल तो ये हो गया है कि न्‍यूज खुद चलकर आपके पास आ रही है। आपको उसमें से छांटना है कि कौन सी न्‍यूज लेनी है अथवा कौन सी नहीं।

प्रस्‍तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश :

आपने अपने करियर की शुरुआत दिल्‍ली में रिपोर्टिंग से की है और काफी समय तक वहां पत्रकारिता की। इसके बाद आप आगरा शिफ्ट हो गए। आमतौर पर तो लोग छोटे से बड़े शहर की ओर जाते हैं लेकिन आप बड़े से छोटे शहर की ओर आए हैं। क्‍या आपको इस पर कभी अफसोस होता है कि जो निर्णय लिया वो समय के हिसाब से सही था?

ब्रज खंडेलवाल: यह सवाल काफी लोग मुझसे पूछा करते हैं, क्‍योंकि ट्रेंड यही है कि छोटे शहर से बड़े की तरफ जाना। इसका जवाब यही है कि पत्रकारिता को मैंने एक प्रफेशन के रूप में कभी नहीं लिया है। शुरुआत में यह मेरे लिए लड़ाई का एक हथियार थी। समाज को सुधारना, बदलना, कुछ नया करना, समाजवाद लाना आदि काफी बड़े-बड़े सपने थे। उसमें पत्रकारिता को एक हथियार के रूप में इस्‍तेमाल किया। यह काम दिल्‍ली में बैठकर हो नहीं सकता था।

इसके लिए पूरे देश में, गांव में, छोटी जगह में घूमना और वहां के लोगों से बातचीत करना, पढ़ना-लिखना, कार्यक्रमों का हिस्‍सा बनना आदि करना होता था तो छोटा-बड़ा शहर आदि मेरे लिए कोई मुद्दा नहीं था। वैसे दिल्‍ली की लाइफ स्‍टाइल भी मेरे मुताबिक नहीं थी और न ही में वहां के कल्‍चर को आत्‍मसात कर पाया। इसलिए काफी महत्‍वाकांक्षाएं लेकर वापस आए और अपना अखबार शुरू किया। मुझे न तो इसमें कुछ गलत लगा और न ही शिकायत है। अपने जीवन का भरपूर आनंद उठाया है।

दिल्‍ली में आपका सफर कैसा रहा। आपने पत्रकारिता को क्‍यों चुना? दिल्‍ली में कितने साल रहे और क्‍या किया। दिल्‍ली में आपके शुरुआती दिन कैसे रहे, इस बारे में कुछ बताएं ?

ब्रज खंडेलवाल: मुझे स्‍कूल के दिनों से ही लिखने का शौक था। इसके बाद आगरा के सेंट जॉन्‍स कॉलेज में दाखिला लिया। यहां भी लिखते रहे और 'द विंक' (The Wink)  नाम से एक पत्रिका भी लॉन्‍च की, जो काफी लोकप्रिय रही। इसके बाद हमें लगा कि शायद यही हमारी मंजिल है। आज भी उस पत्रिका का प्रकाशन कर रहा हूं।

अभी आपने सेंट जॉन्‍स कॉलेज की पत्रिका 'द विंक' के बारे में बात की। इसके बारे में थोड़ा और विस्‍तार से बताएं ?

ब्रज खंडेलवाल: कॉलेज के दिनों से ही पत्रकारिता में रुचि जागृत हो चुकी थी। अखबार में लिखना, कार्यक्रम-रैलियों की कवरेज करना शुरू कर दिया था और उसके बाद 'द विंक' नाम से 1969-70 में पत्रिका निकाली जो शुरू से ही कैंपस में काफी लोकप्रिय रही। उसके बाद अंग्रेजी से एमए कर लिया। इसके बाद लोगों ने कहा कि पत्रकारिता की भी कुछ पढ़ाई कर लो। हालांकि उन दिनों पत्रकारिता का डिप्‍लोमा या कोर्स आदि कोई करता नहीं था। उस समय मान्‍यता थी कि साहित्‍यकार की तरह पत्रकार भी जन्‍मजात होते हैं और इसमें सीखने की कोई बात नहीं होती है।लेकिन मैंने सोचा कि इसकी पढ़ाई जरूर करनी चाहिए और इसकी गहराई में जाना चाहिए और पूरी तैयारी के साथ इस प्रफेशन में उतरना चाहिए। उन दिनों दिल्‍ली के आईआईएमसी में पढ़ाई करना काफी मुश्किल था क्‍योंकि ज्‍यादातर विदेशी छात्र ही वहां प्रवेश लेते थे। सिर्फ दो-तीन लोग ही हिन्‍दुस्‍तानी होते थे। शुक्र था कि वहां दाखिला मिल गया। साल भर वहां पढ़ाई-लिखाई की और कम्‍युनिकेशन वगैहरा समझा।

उन दिनों हमें 'यूएनआई' के हेड ट्रेवर ट्यूबक एडिटिंग पढ़ाते थे, जिन्‍होंने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पहली बायोग्राफी लिखी थी। उनकी कॉ‍पी एडिटिंग काफी कमाल की थी। बड़े-बड़े लोगों की किताबें उन्‍होंने एडिट की थीं। उन्‍होंने हमारी भी काफी ग्रूमिंग की और एडिटिंग की काफी बारीकियां सिखाईं। सबसे बड़ी बात थी कि बड़ी बातें सरल शब्‍दों में कैसे लिखीं जाए। छोटे-छोटे वाक्‍य बनाए जाएं और उसमें कम्‍युनिकेशन एंगल रहना चाहिए ताकि लोगों को समझ आए। वो बहुत अच्‍छी ट्रेनिंग थी। इसके बाद फिर 1972 में एशिया कप हुआ। उस दौरान एक दैनिक अखबार निकलता था, वहां से काम शुरू किया। उसके बाद तो यूएनआई समेत काफी लंबी लिस्‍ट है एजेंसी-अखबारों की। जब देश में आपातकाल लग गया तो उस समय भी कई अखबारों में काम करते रहे। उस समय अंडरग्राउंड रहकर उदयन शर्मा के साथ काफी लिखा। उसे बांटने के लिए काफी भागदौड़ करते थे। कभी वॉरंट निकल गए तो कभी इधर-उधर भागते रहे। कह सकते हैं कि काफी एडवेंचर था उस समय। आपातकाल जब समाप्‍त हुआ तो राजनारायण का वीकली 'जनसाप्‍ताहिक' के नाम से निकला, जिसके प्रॉडक्‍शन का काम मैंने लिया था। ढाई-तीन साल वह चला। एडिटिंग और छपाई आदि मेरे जिम्‍मे ही थी। वह काफी बेहतरीन व उपयोगी अनुभव था। एक तो हिंदी पत्रकारिता के तौर पर हिंदी को समझने के लिए और डॉक्‍टर लोहिया के विचारों को कायदे से पढ़कर जानने-समझने के लिए बहुत उपयोगी रहा। इसके बाद तो इधर से उधर और उधर से इधर आने-जाने का क्रम चलता रहा। कभी 'पॉय‍नियर', कभी 'दैनिक भास्‍कर', 'स्‍वतंत्र भारत', 'इंडिया टुडे' कभी हिंदी तो कभी अंग्रेजी। कहने का मतलब बहुत लंबी लिस्‍ट है। इतना सफर तय करने के बाद लगा कि वापस अपने शहर में चलना चाहिए। तब तक शादी भी हो गई थी। इसके बाद हमने सोचा कि आगरा वापस चलते हैं और अपना अखबार शुरू करेंगे। इसके बाद अपना प्रिंटिंग प्रेस लगाया। हम दोनों मिलकर रात में छपाई करते थे और सुबह बांटने जाते थे। करीब ढाई-तीन साल तक ऐसा ही चलता रहा। पहले यह 'समीक्षा भारती' नाम से हिंदी में था, फिर इसे अंग्रेजी में किया। इसके बाद अंग्रेजी के साप्ताहिक अखबार 'न्यूजप्रेस' (NewsPress) का प्रकाशन किया, जो अच्छा खासा चला हालांकि बाद में बंद हो गया।

आप अपनी निजी जिंदगी के बारे में कुछ बताएं, जैसे आपने दक्षिण भारतीय परिवार में शादी की। इसके बाद आप पत्नी को दिल्‍ली से आगरा ले आए, कैसा रहा ये सफर? 

ब्रज खंडेलवाल: मैं और मेरी पत्नी पद्मिनी हम दोनों एक ही एजेंसी 'नेशनल प्रेस एजेंसी' (NPA) में काम करते थे। उन दिनों भारद्वाज जी उसके मालिक थे। वह 'पीआईबी' से रिटायर हुए थे। वह इंदिरा गांधी के काफी करीब थे। वहां लंबे समय तक काम किया। उस समय दो ही बड़ी एजेंसी 'इन्‍फा' और 'एनपीए' चला करती थीं। एनपीए में काफी बड़े-बड़े लोग जैसे कुलदीप नायर आदि लिखा करते थे। इनके लिखे हुए आर्टिकल्‍स वगैरह की एडिटिंग हम ही किया करते थे। इसके बाद कॉमनवेल्‍थ लंदन की 'जेमिनी न्‍यूज सर्विस' (Gemini news service) के साथ मैं काफी समय तक जुड़ा रहा। मैं उनके लिए फीचर्स आदि लिखा करता था और वह मुझे पूरे भारत में घुमाते रहते थे।

आईआईएमसी को लेकर दिल्‍ली में आपका सफर कितने साल रहा, उसके बाद आप आगरा कब आए?

ब्रज खंडेलवाल : करीब 12-14 साल हम दिल्‍ली में रहे। इसके बाद आगरा आए और फिर दिल्‍ली चले गए और फिर आगरा आ गए। ऐसा काफी समय तक चलता रहा। इसके बाद फाइनली 1990 के आसपास आगरा आ गए। 

आगरा लौटने के बाद किस तरह पत्रकारिता की शुरुआत की?

ब्रज खंडेलवाल: आगरा लौटकर हमने 'समीक्षा भारती' के नाम से जो अखबार लॉन्‍च किया था, वह तो फेल हो गया। कंपोजीटर्स ने हड़ताल कर दी, उस समय पैसे थे नहीं और ये प्रयोग फेल हो गया। अंग्रेजी अखबार शुरू करने का वह समय भी नहीं था और उसका मार्केट भी नहीं था। पहले वह अखबार हिंदी में था लेकिन बाद में उसी नाम से अखबार को अंग्रेजी में कर दिया गया था। हिंदी अखबार साप्‍ताहिक कर दिया था और अंग्रेजी में इसे दैनिक कर दिया था। अब इसे उस समय की मूर्खता कहें या एडवेंचर कि रोजाना चार पेज का अंग्रेजी का अखबार निकालना शुरू किया। उस समय अंग्रेजी का इतना पाठक वर्ग भी यहां नहीं था। हमें लगा था कि अपने शहर में कुछ नया करेंगे। हमें लगा था कि टूरिज्‍म इंडस्‍ट्री इसे सपोर्ट करेगी। हालांकि उन्‍होंने सपोर्ट भी किया। काफी कॉपी खरीदी भी जाती थीं। हर होटल कॉपी खरीदता था क्‍योंकि उसमें डेली इवेंट्स की कवरेज होती थी। उस समय ऑफसेट मशीन गिनती की थीं और यह अखबार लेटरप्रेस पर छपता था। छोटी मशीन थी, उसी पर छापा करते थे कंपोज कराके। दिन भर कंपोजिंग चलती थी। 10-12 लोग रखे गए थे कंपोजिंग के लिए। हालां‍कि नुकसान तो हुआ लेकिन उसका अपना मजा था। इसके बाद 'पॉयनियर' अखबार जॉइन कर लिया। कुछ दिन डेस्‍क पर काम किया फिर लखनऊ से अटैच्‍ड हो गए और वहां चले गए। फिर आगरा आकर ब्‍यूरो संभाला। पहले यह जयपुरिया समूह का था, फिर थापर्स ने खरीद लिया। उस समय विनोद मेहता एडिटर हुआ करते थे। फिर ए.के.भट्टाचार्य आए और उसके बाद चंदन मित्रा ने उसे खरीद लिया। इसके बाद हम दैनिक भास्‍कर में काम करते रहे। फिर तीन-चार साल यहां से 'हिन्‍दुस्‍तान टाइम्‍स' में काम किया। इस तरह कभी ये और कभी वो का क्रम लगातार चलता रहा। 1995 में यूनिवर्सिटी में पढ़ाना शुरू कर दिया था। उसी साल अंग्रेजी वीकली 'न्‍यूजप्रेस' जो उस समय काफी लोकप्रिय था, में जुड़ गए। हालांकि अखबार काफी छोटा था लेकिन टीम बहुत एक्टिव थी।

उस अखबार पर आरोप था कि वह शहर की ब‍ड़ी-बड़ी शख्सियतों का काफी मजाक उड़ाया करता था?

ब्रज खंडेलवाल: वह अखबार टैब्‍लॉयड रूप में था और टैब्‍लॉयड का जो स्‍वरूप होता है, वो उसी स्टाइल में होता था। उसमें काफी खोजपरक रिपोर्ट्स रहती थीं। उस अखबार ने अपनी रिपोर्ट्स से कई लोगों को मुश्किल में भी डाल दिया था। आगरा के बड़े पत्रकार जैसे रामकुमार शर्मा, जमशेद खान व प्रवीण तालान वगैरह जो आज काफी बड़ा नाम हो गए हैं, सब उसी में काम करते थे। हालांकि उस अखबार में मिलता कुछ नहीं था पर पैशन था सभी में। मैं तो उसमें मुफ्त काम करता था। वह अखबार लगभग पांच-छह साल चला और काफी अच्‍छा चला। फिर कुछ गलतफहमी हो गईं और अखबार बंद ही हो गया। हालांकि उसे दोबारा शुरू करने की कोशिश भी की गई लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। लेकिन वह काफी मजेदार और कामयाब प्रयोग था। 'डीएवीपी' से उसे मान्‍यता भी मिल गई थी और विज्ञापन आदि भी मिलने शुरू हो गए थे। उस समय अखबार का सर्कुलेशन दस हजार था। यह 1995 की बात है। यह अखबार मथुरा से छपकर आता था क्‍योंकि वहां की प्रिंटिंग सस्‍ती और अच्‍छी थी। उस दौरान ऑफसेट की ज्‍यादातर मशीनें मथुरा में ही थीं। मथुरा प्रिंटिंग की बहुत बड़ी मंडी है। इस बीच 2002 और 2003 के बीच में देश की बड़ी न्यूज एजेंसी 'आईएएनएस' (IANS) के लिए काम करने लगा। हालांकि आईएएनएस से मैं इमरजेंसी के दिनों से ही जुड़ा हुआ था। उन दिनों गोपाल राजू का साप्‍ताहिक अखबार 'इंडिया एब्रोड' न्‍यूयॉर्क से निकलता था, बाद में उन्‍होंने इसे 'रेडिफ' को बेच दिया। उसके बाद किसी और ने ले लिया। इसके बाद 'इंडिया एब्रोड न्‍यूज सर्विस' बदलकर 'इंडो-एशियन न्‍यूज सर्विस' हो गई। तब से मैं आईएएनएस से जुड़कर पश्चिमी यूपी को कवर करता हूं।

आज यदि आप देखते हैं कि क्‍या खोया और क्‍या पाया। हालांकि लोग कहते हैं कि आपने क्‍या खोया और क्‍या पाया ये समझना मुश्किल है क्‍योंकि न आपने अपना मकान बनाया और न गाड़ी खरीदी। हालांकि ये सही बात है कि आपने सम्‍मान बहुत पाया है लेकिन आर्थिक दृष्टि से देखें तो उतनी कामयाबी नहीं मिली। आने वाली पीढ़ी यदि आपको देखे तो वह तो कंफ्यूज रहती है कि सम्‍मान तो ठीक है लेकिन पैसा भी बहुत जरूरी है क्‍योंकि संत जीवन जीना बहुत मुश्किल होता है, इस बारे में क्‍या कहेंगे ?

ब्रज खंडेलवाल: मैंने कभी यह सोचकर काम ही नहीं किया कि क्‍या खोना है और क्‍या पाना है। मैं तो बस इसमें खुश रहता हूं कि चलो एक अच्‍छी स्‍टोरी हो गई। बस मेरे लिए बहुत है और यही मेरा पुरस्‍कार है। क्‍या होगा और क्‍या नहीं होगा, मैं इस बारे में ज्‍यादा नहीं सोचता क्‍योंकि मैंने पत्रकारिता को इस रूप में कभी देखा ही नहीं है कि पैसा कमाना है या गलत काम करना है। मैंने जैसा शुरू में कहा था कि यह तो लड़ाई का हथियार है। एक अच्‍छी स्‍टोरी करना समाज को बदलने के यज्ञ में आहुति देने जैसा है। इस यज्ञ में हम जो कर सकते हैं, वह यह है कि अच्‍छे विचार फेंकें। अच्‍छे लोगों से मिलें अैर उन्‍हें हाईलाइट करें। जो चीजें हाईलाइट करने के लिए जरूरी हैं, उन्‍हें उठाएं। इस हिसाब से देखें तो काफी संतोष है और इतना तो मिल ही जाता है, जिससे दाल-रोटी चल रही है। बिना बात के क्‍यों अपने सिद्धांतों से समझौता करें।   

आपने पिछले पांच दशकों से सक्रिय पत्रकारिता की है और देखी है। वर्तमान में पत्रकारिता के सामने क्रेडिबिलिटी की समस्या है, हालांकि यह हर बार रहता है लेकिन पिछले पांच-सात साल से इस पर सवाल ज्‍यादा उठ रहे हैं और तो और सोशल मीडिया को आए हुए अभी कुछ ही समय हुआ है लेकिन उसकी क्रेडिबिलिटी पर भी सवाल उठ रहे हैं। ऐसे में एक पत्रकार के रूप में मीडिया की क्रेडिबिलिटी को आप किस रूप में देखते हैं ?

ब्रज खंडेलवाल: पहली बात तो यह है कि प्रकृति को बदलाव चाहिए। चीजें अपनी जगह रुकी नहीं रहेंगी। समय और परि‍स्थिति बदलती रहती हैं। लोगों की पसंद-नापसंद बदलती है, उनका नजरिया बदलता है। हमें यह स्‍वीकार करना पड़ेगा। बदलाव हमेशा पॉजीटिव हो, ये भी जरूरी नहीं है। टेक्‍नोलॉजी के कारण पत्रकारिता में तमाम तरह के तत्‍व घुस आए हैं, जिनके संस्‍कार नहीं थे पत्रकारिता के, जिनकी पृष्‍ठभूमि पत्रकारिता की नहीं थी और जिनकी पढ़ाई-लिखाई पत्रकारिता की नहीं हुई, वे भी इसमें आ गए। जिन्‍हें सिर्फ कैमरा पकड़ना आता है, वे भी मैदान में कूद गए। ऐसे लोगों के अंदर पत्रकारिता की बुनियादी बातें भी नहीं हैं। पुराने जमाने में होता था कि पत्रकारिता के लिए कम से कम लिखना तो आना चाहिए लेकिन आज के समय में ये जरूरी नहीं है कि आपको लिखना आता है या नहीं। आजकल कई सारे फ्री प्‍लेटफॉर्म उपलब्‍ध हैं। बस कैमरा घुमाइए और कोई भी चीज हाईलाइट कर लीजिए। यदि आपका आइडिया हिट हो गया तो आपको पहचान मिलेगी और यदि फेल हो गया तो आप उसे दूसरे तरीके से इस्‍तेमाल कर सकते हैं। यदि आजकल की और पुराने समय की पत्रकारिता में बुनियादी अंतर की बात करें तो खास बात ये है कि आजकल के लोग रीडिंग नहीं कर रहे हैं। पढ़ाई-लिखाई नहीं कर रहे हैं। हमें याद है कि हम काफी पढ़ते थे। काफी साहित्‍य और राजनीति विज्ञान पढ़ते थे। तमाम तरह की किताबें पढ़ते थे और फिर पत्रकारिता की भाषा में कहें कि अखबार को चाटते यानी गहराई से पढ़ते ही थे।

क्‍या आपको लगता है कि आज में समय में कोई ऐसा अखबार बचा है कि जिसे इतनी गहराई से पढ़ा जा सके ?

ब्रज खंडेलवाल : आजकल सभी तरह के अखबार हैं। ऐसा भी नहीं हैं कि सारे अखबार खराब ही हैं। बहुत अच्‍छे अखबार भी हैं। आजकल के दैनिक अखबारों की बात करें तो ज्‍यादातर अच्‍छे ही हैं। प्रजेंटेशन भले ही अलग और आधुनिक हो लेकिन कंटेंट तो ठीक है। संपादकीय पेज भी सभी के बढ़िया ही हैं। भाषा भी अच्‍छी है। दैनिक 'हिन्‍दुस्‍तान' भी काफी अच्‍छे एडिटोरियल दे रहा है। पिछले दिनों नदियों पर उनके संपादक शशि शेखर ने बहुत अच्छा लिखा था। मुझे नहीं लगता कि अखबारों की इतनी गिरावट हुई है। इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया में फर्क दिखाई दे सकता है क्‍योंकि वो शायद बाजार से जुड़ा हुआ है। वो टेक्‍नोलॉजी अलग तरह की है। ये भी कह सकते हैं कि वो मेनस्‍ट्रीम मीडिया का हिस्‍सा माना जाए या न भी माना जाए क्‍योंकि वे सामान्‍यत: एजेंडा आधारित सिद्धांत पर चलते हैं। सुबह ही एक मुद्दा पकड़ लिया और दिन भर उसे खींचते रहो। अब वो समय आ गया है जब प्रिंट का कैरेक्‍टर अलग है, इलेक्‍ट्रॉनिक का अलग है। दोनों में कोई समानता ही नहीं दिखाई दे रही है।  

आप वर्तमान के अखबारों की चर्चा कर रहे हैं। लेकिन एक बड़ा इश्‍यू भी है कि पहले अखबारों के मुखपृष्‍ठ को काफी महत्‍वपूर्ण माना जाता था। पहली हेडलाइन भी बहुत खास मानी जाती थी। कहा जाता था कि उसे देखकर अखबार भी बिकता था। लेकिन अब जैकेट का कल्‍चर आ गया है। इसमें न तो पहला पेज और न ही हेडलाइन का पता चलता है। कई बार तीन पेज के  जैकेट विज्ञापन होते हैं और उसके बाद चौथा पेज पहला पेज होता है। इस बारे में आपका क्‍या कहना है ?

ब्रज खंडेलवाल : ये एक इश्‍यू तो है लेकिन इस ट्रेंड को सही साबित करने के लिए उनके पास अपने तर्क हैं। उनका तर्क है कि पहले के पत्रकारों को आखिर मिलता ही क्‍या था। आजकल के पत्रकारों को अच्‍छे अखबारों में अच्‍छी सैलरी समेत कई सुविधाएं मिलती हैं। यानी पहले की तुलना में पत्रकारों के लिए चीजें काफी बेहतर हुई हैं। पहले तनख्‍वाह वगैरह तो कुछ मिलती नहीं थी। ज्‍यादातर लोग तो पैशन के लिए मुफ्त में काम करते थे। उनका हुलिया देखकर ही लग जाता था कि बिल्‍कुल फटेहाल हैं। आज का पत्रकार टेक्‍नोलॉजी में भी काफी आगे है। उसके कपड़े और रहन-सहन भी पहले से बेहतर है। ऐसे में अर्थशास्‍त्र के हिसाब से उसकी जरूरतें कुछ अलग हो गई हैं। इन्‍हीं सब को पूरा करने के लिए इस तरह करना पड़ता है। 

ऐसे में यह सवाल जरूर उठता है कि ये सब करते-करते पाठकों के साथ तो अन्‍याय नहीं हो जाता है, जब चौथा पन्‍ना पहला पेज बन जाता है ?

ब्रज खंडेलवाल : अब इसका कोई कानून तो है नहीं। ये एक परंपरा है। परंपराएं टूट भी सकती हैं, बदल भी सकती हैं और मॉडीफाई भी हो सकती हैं। अभी हमें अटपटा लग रहा है, कुछ दिनों में शायद आदत पड़ जाएगी। दूसरी वजह यह है कि अखबार वालों को भी पता है कि मुखपृष्‍ठ पर जो छप रहा है, वह पहले से ही बासी यानी पुराना हो चुका है और पाठक उस पर निर्भर नहीं है। 

कुल मिलाकर क्या अखबारों से निराश हैंखासकर उनके कंटेंट से। क्‍योंकि अमूमन एक धारणा भी लोगों के बीच बनी हुई है कि अखबार में जो  कुछ अब छप रहा है, वह टीवी सेट करता है या अखबार अब टीवी को फॉलो करते हैं ?

ब्रज खंडेलवाल : मैं निराश नहीं हूं, बस इस बदलाव को स्‍वीकार कर रहा हूं। ये तो ट्रेंड है जो बदलते रहते हैं और समय के साथ बदलना ही चाहिए। पुरानी मान्‍यताएं टूटती या बदलती हैं तो कुछ मिनट झटका लग सकता है लेकिन हमें इन्‍हें स्‍वीकार कर आगे बढ़ना होगा। आप कैसे इस बात को नजरअंदाज कर सकते हैं कि आज का पत्रकार कितने पैसे कमा रहा है। हिंदी अखबारों में काम कर रहे पत्रकारों की सैलरी देख लीजिए, पुराने वालों से तुलना कर लीजिए। मेरे ख्‍याल से इसका तो हमें स्‍वागत करना चाहिए। पहले एक स्‍टोरी का क्‍या मिलता था, महज पांच रुपए। पहले पांच-दस रुपए का मनीऑर्डर आता था, जिस पर हम हंसते थे। मेरा जो विदेशी मीडिया हाउस से पेमेंट आता था वह सामान्‍यत: 50 पाउंड का होता था, जो हजार-1500 रुपए होते थे एक आर्टिकल के, लोग चौंकते थे कि यार हमारी तो एक महीने की सैलरी के बराबर तेरे एक आर्टिकल से ही कमाई हो गई।

हमारे देश में हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता में अंतर रहा है। इकनॉमिक्स के मामले में अंग्रेजी हमेशा हिंदी से बेहतर मानी गई है। आप भी कह रहे हैं कि अंग्रेजी अच्‍छे पैसे भी देती थी। क्‍या आपको लग रहा है कि समय के साथ बदलाव आया है या आज भी अंग्रेजी पत्रकारिता ही देश की पॉलिसी तय करती है और अंग्रेजी में ही पत्रकारिता करने वाले इस देश के बड़े पत्रकार माने जाते हैं ?

ब्रज खंडेलवाल : हां, ये एक कड़वी सच्‍चाई है कि हम दोहरी मानसिकता से जूझ रहे हैं। हम हिंदी के गुणगान गाते हैं लेकिन इंडस्‍ट्री की भाषा और कॉमर्स की भाषा, जहां से पैसा आता है, वह अंग्रेजी ही है। आईटी के आने के बाद तो अंग्रेजी और तेजी से बढ़ी है। हालांकि अब ट्रांसलेशन वगैरह मौजूद हैं, लेकिन मानसिकता तो अंग्रेजी की ही बनी हुई है। एक इंडिया है और एक भारत है। इसमें पत्रकारिता ही क्या करे, यह तो पूरे समाज की समस्‍या है। आजकल कौन अपने बच्‍चों को हिंदी स्‍कूल में पढ़ाना चाहता है। हिंदी के पत्रकार हों अथवा संपादक, उनके बच्‍चे भी अंग्रेजी स्‍कूलों के ही पढ़े हुए हैं और पढ़ते भी हैं।

इंडस्‍ट्री इस देश में सबसे ज्‍यादा पैसा देती है, टैक्‍स देती है। बॉलिवुड इंडस्‍ट्री पूरी हिंदी में चलती है लेकिन जब स्क्रिप्‍ट पढ़ते हैं तो अंग्रेजी में पढ़ते हैं। टीवी इंडस्‍ट्री भी पूरी हिंदी बेस है लेकिन इंटरव्‍यू वगैरह सब अंग्रेजी में देते हैं। इस बारे में आपका क्‍या कहना है ?

ब्रज खंडेलवाल : हमारे लिए तो न अंग्रेजी विदेशी भाषा है और न हिंदी। हमारे लिए दोनों भाषाएं बराबर हैं। हिंदी ही कौन सी ज्‍यादा पुरानी भाषा है। आज के समय में दोनों भाषाओं का ज्ञान होना बहुत जरूरी है और हर पढ़े-लिखे व्‍यक्ति को द्विभाषी होना ही चाहिए। जितनी ज्‍यादा भाषाएं सीखेंगे, उतना अच्‍छा है। कभी लगता है कि हमें तमिल आदि भाषाएं भी सीख लेनी चाहिए थीं। हालांकि इसकी जरूरत नहीं है लेकिन मुझे लगता है कि यदि सीख जाते तो अच्‍छा लगता।

आप वर्तमान में एक पत्रकार भी हैं, आंदोलनकारी भी हैं, समाजशास्त्री भी हैं और पर्यावरणविद् भी हैं। राजनीति में भी आपका दखल रहता है। ऐसे में एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि जब एक पत्रकार ये सब बन जाता है तो वह निष्‍पक्ष नहीं रह पाता है ?  

ब्रज खंडेलवाल : निष्‍पक्षता की बात तो यह है कि जिसके लिए हम काम करते हैं वह अपनी शर्तें रखता है। जो हमें सैलरी देता है वह हमारी स्‍वतंत्रता की सीमाएं तय करता है। हमें कितनी आजादी मिलेगी, हमारी कलम को कितनी आजादी मिलेगी, यह वो तय करेगा जो पैसा देता है। हमारा इसमें व्‍यक्तिगत कुछ नहीं होता है क्‍योंकि न तो हम कॉलम लिखते हैं और न ही एडिटोरियल लिखते हैं। हम तो सिर्फ रिपोर्टर हैं। जीरो ग्राउंड से रिपोर्ट करते हैं और जो आंखों देखा हाल है, वह लिखते हैं। लेकिन यह आपके ऊपर है कि आप किस चीज को हाईलाइट करते हैं। ये भी हो सकता है कि आप रीडर्स के हिसाब से काम करें, क्‍योंकि हिंदी के रीडर्स अलग हैं और अंग्रेजी के अलग, तो उस हिसाब से भी स्‍टोरी हो जाती है।          

जब कोई पत्रकार पत्रकारिता के साथ अन्‍य तमाम चीजें करता है तो कहीं न कहीं उसकी विचारधारा उस तरह की हो जाती है। फिर चाहे वह राजनीति में ही क्यों न हो, कहीं न कहीं उसका प्रभाव पत्रकार की खबरों पर दिखता है। क्‍या एक पत्रकार को ये सब करना चाहिए या सिर्फ पत्रकारिता करनी चाहिए ?

ब्रज खंडेलवाल : यह तो पत्रकार की पसंद की बात है और परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। जिस तरह से एक पत्रकार को निचोड़कर रख दिया जाता है, उसके बाद न तो उसमें शक्ति बचती है और न इतना दिमाग बचता है कि वह कुछ और कर पाए। वो अपने घर का ही ख्‍याल रख ले, यही बहुत है। पहली बात तो यह है कि हम इस मामले में इसलिए भाग्‍यशाली हैं कि हमारे पास समय ज्‍यादा है। दूसरी बात ये है कि हम शुरू से ही अन्‍य गतिविधियों में भी शामिल रहे हैं। जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा था कि मेरे एजेंडे में पत्रकारिता एक हथियार है अपने विचारों को फैलाने का। मेरे आदर्श, मेरे सपने आदि जो भी हैं, उनको प्रचारित करने के लिए यह मेरा एक हथियार है। तो मैं इस तरह की बातों का बचाव नहीं करता और पत्रकारिता में अपनी बात कहने का मुझे जो भी अवसर मिलेगा, फिर चाहे वह यमुना का मामला हो, पर्यावरण का हो अथवा अत्‍याचार का हो, मैं पत्रकारिता का पूरा इस्‍तेमाल करता हूं। यानी जब भी इंसानियत के खिलाफ कुछ गलत होगा, मैं उसे नमक-मिर्च लगाकर पूरा बवाल खड़ा करूंगा। यानी यूं कह सकते हैं कि पूरा मसाला बनाकर पेश करूंगा। मुझे इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता है, क्‍योंकि मैं एक पेशेवर पत्रकार नहीं हूं, इसलिए मुझे इन चीजों से कोई फर्क नहीं पड़ता है। यह मेरा पैशन है और इसके लिए कई विकल्‍पों का त्‍याग भी किया है कि मुझे गलत काम नहीं करना है या इस पर स्‍टोरी नहीं करनी है। मुझे कोई आदेशित नहीं कर पाया कि इसे हाईलाइट करना है, जबकि बाकियों के साथ ऐसा नहीं है। इस बात से मुझे नुकसान भी हुआ और मैंने झेल लिया। ऐसी परिस्थितियों में मैं चुपचाप रहा और बीच का रास्‍ता निकाल लिया लेकिन अपने मन के विपरीत जाकर नहीं किया। ऐसा एक बार नहीं बल्कि कई बार होता है।

 देश के कई बड़े संपादकों और पत्रकारों का कहना है कि सोशल मीडिया ही ऐसा मीडिया है जिसका प्रिंट और टेलिविजन मीडिया पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ता है। कहा जाता है कि यह उसी तरह से है जिस तरह से बंदर के हाथ में उस्‍तरा है, जिसकी कोई क्रेडिबिलिटी नहीं है। ऐसे में यह स्‍थापित मीडिया संस्‍थानों के लिए कोई चुनौती भी नहीं हैं। लेकिन आप एक ऐसे पत्रकार हैं जो लगातार सोशल मीडिया पर एक्टिव रहते हैं। कहा जाता है कि सोशल मीडिया पर हर आदमी संपादक और पत्रकार है। ऐसे में सोशल मीडिया और इसकी क्रेडिबिलिटी के बारे में आपका क्‍या कहना है ? 

ब्रज खंडेलवाल : मैंने अपने विचारों के लिए सोशल मीडिया का भरपूर इस्‍तेमाल किया है। आजकल तो प्रत्‍येक मीडिया की क्रेडिबिलिटी सवालों के घेरे में है। सोशल मीडिया के आने से बहुत सी चीजें बदली हैं। पहले नियंत्रण मालिकों के हाथ में रहता था। वनवे ट्रैफिक रहता था। एक एडिटर ने जो परोस दिया वह आपको स्‍वीकार करना है। रीडर को न कोई सुविधा थी और न अधिकार कि वह उस पर प्रतिक्रिया दे लेकिन अब सब एक ही मैदान में है। सामने से कुछ आता है तो हम भी अपनी तरह से शुरू हो जाते हैं, यानी चीजें बराबर कर देते हैं। किसी ने गलत खबर लिख दी है तो उसे बैलेंस करने का यह अच्‍छा तरीका है। सोशल मीडिया पर स्‍टोरी भी ब्रेक हो रही हैं। अब सारा नियंत्रण पाठकों के हाथों में है। ऐसे में जो एकाधिकार बना हुआ था और मठाधीशी थी, वह खत्‍म हो रही है, जो मेरी नजर में अच्‍छी बात है यह जरूरी भी था।

वामपंथी होने के बावजूद आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ भी करते हैं?

ब्रज खंडेलवाल : ऐसा नहीं हैं। मै मोदी की तारीफ नहीं बल्कि नीतियों की तारीफ करता हूं और देशहित में नीतियों की तारीफ करनी भी चाहिए। कभी-कभी इन नीतियों का लाभ किसी व्‍यक्ति को भी मिल जाता है, इसलिए मोदी को इनका लाभ मिलता है। जहां पर जरूरी है तो मैं मोदी की खिंचाई भी करता हूं।

सुना है एक बार आप चुनाव भी लड़े हैं?

ब्रज खंडेलवाल : यह सही बात है। वर्ष 1993 में मैंने विधानसभा चुनाव भी लड़ा था। हालंकि मैं उसमें हार गया था, मुझे सिर्फ तीन-चार सौ वोट मिले थे। 

क्‍या आपको लग रहा था कि यदि आप चुनाव जीत जाते हैं तो राजनेता हो जाएंगे?

ब्रज खंडेलवाल : ऐसी बात नहीं है। दरअसल मुझे एक प्रोजेक्‍ट करना था भारतीय निर्वाचन प्रणाली के बारे में। मैंने सोचा कि जगह-जगह जाकर पूछूं कि क्‍या होता है और कैसे होता है, इससे अच्‍छा तो यह है कि खुद ही चुनाव लड़ लो। पूरी प्रक्रिया को समझने के लिए कि कागजात कैसे तैयार होते हैं और जमा होते हैं। कैसे शपथ ली जाती है आदि के बारे में जानने के लिए ही मैंने चुनाव लड़ा और काफी अच्‍छी समझ हो गई।

आपने काफी सहजता से स्‍वीकार किया है कि आप वामपंथी हैं लेकिन आप देख रहे हैं कि देश में वामपंथ खत्‍म होता जा रहा है। ऐसे में आपको क्‍या लगता है कि ऐसा क्‍यों होता जा रहा है?

ब्रज खंडेलवाल : लेफ्ट यानी वामपंथ काफी व्‍यापक है। लोगों के दिमाग में सिर्फ कम्‍युनिस्‍टों के बारे में सोच है। पार्टी अथवा संगठन भले ही खत्‍म हो जाएं लेकिन विचारधारा के स्‍तर पर वैचारिक स्‍वतंत्रता और समानता की जो मूल भावना है, वह बुनियादी है। यानी कोई बड़ा-छोटा नहीं है, कोई अमीर-गरीब नहीं है और सब बराबर हैं। ये सब मुद्दे खत्‍म होने वाले नहीं हैं।  

आप जिन मुद्दों की बात कर रहे हैं, वे तो दक्षिणपंथी भी उठाते हैं?

ब्रज खंडेलवाल : मेरी नजर में दक्षिणपंथी (राइट) का मतलब पूंजीवादी प्रक्रिया है। वे बोलते क्‍या हैं, ये सब छोड़ो। वे लोग यथास्थितिवादी के पुजारी हैं। वे बदलाव के विरोधी हैं और किसी तरह का बदलाव नहीं चाहते हैं। वे तो जातिवाद के भी हिमायती हैं, भले ही वे कुछ भी बोल लें। उनमें सामंतवाद विचारधारा भी है, भेदभाव भी है और छुआछूत भी है। लेकिन हम इन सबके खिलाफ हैं। शायद यही कारण रहा कि मैंने अपनी जाति बिरादरी में शादी भी नहीं की। वामपंथ से प्रभावित होने के कारण हमने समाज में फैली कई रुढि़वादियों का विरोध किया। 

प्रिंट मीडिया की बात करें तो कई वर्षों से सिर्फ आठ या दस बड़े अखबार ही हैं और वे ही चलते हैं। अब हर एक-दो साल में अखबार शुरू होते हैं और थोड़े समय बाद ही बंद हो जाते हैं। ऐसे में आपको क्‍या लगता है कि देश में यही गिने चुने आठ-दस अखबार ही हैं और बाकियों के लिए कोई स्‍कोप नहीं?   

ब्रज खंडेलवाल : सिर्फ अपने देश की बात ही नहीं है, यह तो पश्चिमी देशों में भी हुआ है। तमाम पत्रिकाएं बंद हो गईं और अखबारों का सर्कुलेशन कम हो गया। अखबारों का सर्कुलेशन कम हो जाए या बंद हो जाए, यह कोई चिंता की बात नहीं है।

कहने का मतलब यह है कि हमारे यहां प्रतिष्ठित अखबार बंद नहीं होते बल्कि जो नया वेंचर आता है, वह थोड़े समय में बंद हो जाता है। पिछले दस साल की बात करें तो शहर में आठ-दस नए वेंचर शुरू हुए लेकिन सब बंद हो गए। इसके बारे में आपका क्‍या सोचते हैं ?

ब्रज खंडेलवाल : यह तो एक प्रक्रिया है कि अखबार खुलते हैं और बंद होते हैं। पांच-छह अखबारों से ज्‍यादा की जरूरत ही क्‍या है।  

ऐसे में सवाल उठता है कि जब पांच-छह अखबारों से ज्‍यादा की जरूरत नहीं है तो आजकल प्रदेश में 400 से ज्‍यादा जर्नलिज्‍म इंस्‍टीट्यूट खुल गए हैं, जिनसे पढ़कर हजारों छात्र-छात्राएं बाहर निकलते हैं तो फिर वे कहां जाएंगे और उन्‍हें कहां नौकरी मिलेगी?

ब्रज खंडेलवाल : बाकी मीडिया को आप क्‍यों भूल जाते हैं, जो काफी आगे बढ़ रहा है। आजकल तमाम चैनल भी तो हैं।  

लेकिन इतने चैनल भी कहां हैं। दस साल पहले मुख्‍य तौर पर जो चैनल थे, वही आठ-दस चैनल आज भी सही चल रहे हैं जबकि बाकी खुलते हैं और कुछ समय बाद ही बंद हो जाते हैं। बाकी जो चल भी रहे हैं, उनकी आर्थिक स्थिति भी बेहतर नहीं है। वहां पता ही नहीं रहता है कि सैलरी मिलेगी भी अथवा नहीं। जबकि आईटी और मैनेजमेंट के साथ ऐसा नहीं हैं। इनकी हजारों कंपनियां हैं, जिनमें पता है कि नए छात्र-छात्राएं पढ़ाई पूरी कर खप जाएंगे। आप तो मीडिया को काफी समय से देख रहे हैं। इस दौरान मीडिया उस तेजी से आगे नहीं बढ़ा है, जितना बढ़ना चाहिए था? 

ब्रज खंडेलवाल : ऐसी बात नहीं है। इतने वर्षों में मीडिया काफी बढ़ा है। कई नए प्‍लेटफॉर्म्‍स आ गए हैं। सूचना का प्रवाह भी काफी बढ़ा है। आजकल स्‍मार्टफोन के रूप में मीडिया में एक बड़ा हथियार आ गया है। न्‍यूज का इस्‍तेमाल ओर उसका प्रवाह काफी तेजी से बढ़ा है। रही बात छात्रों की संख्‍या और रोजगार के अवसरों की तो इसमें पढ़ाई-लिखाई करना काफी आसान है। आप साधारण तरीके से एक डिप्‍लोमा या डिग्री पूरी कर लेते हैं और अखबार में लग जाते हैं जबकि अन्‍य कोर्सों जैसे वकालत की ही बात करें तो वहां कितनी ज्‍यादा पढ़ाई करनी होती है। डॉक्‍टर की ही बात करें तो पढ़ाई के साथ इंटर्नशिप में भी कितनी कड़ी मेहनत लगती है लेकिन अखबारों में तो इस तरह का कुछ होता नहीं है। करेसपॉडेंस कोर्स करके भी आप इसमें आ सकते हैं। इसमें सबसे ज्‍यादा मुश्किल पढ़ाई लिखाई यानी सेल्‍फ स्‍टडी बहुत मायने रखती है, जो आजकल अधिकार छात्र-छात्राएं करते नहीं हैं। जो इस प्रफेशन के प्रति बहुत ज्‍यादा गंभीर होते हैं, वे वास्‍तव में पढ़ाई-लिखाई बहुत करते हैं। उनका सामान्‍य ज्ञान भी बहुत बेहतर होता है। इन लोगों की भाषा भी काफी अच्‍छी होती है। हालांकि ऐसे लोग चुनिंदा होते हैं और देर-सवेर वे कहीं न कहीं नौकरी पा ही जाते हैं। बाकी जो भीड़ बचती है, वह कैमरा लेकर घूम रही है। आजकल तो काफी यूट्यूब चैनल खुल गए हैं। पहले जिस तरह ग‍ली-मोहल्‍लों में कुकरमुत्‍तों की तरह अखबार खुले होते थे, आज उनकी जगह यूट्यूब चैनल खुल गए हैं। ऐसे कई लोग खुद को पत्रकार कहते तो हैं, लेकिन इनमें पत्रकारिता के कितने गुण हैं, यह देखने की बात है।  

आजकल डिजिटल मीडिया का दौर है और इस नई सरकार में डिजिटल मीडिया पर काफी कुछ हुआ है लेकिन हम डिजिटल मीडिया के रेगुलेशन की बात करें तो कई नई वेबसाइट खुलीं लेकिन तमाम बंद हो रहीं हैं क्‍योंकि इसमें रेवेन्‍यू का कोई मॉडल तय नहीं है। आज भी उस हिसाब से पैसा नहीं आ रहा है, जिस हिसाब से आना चाहिए। 'एनडीटीवी' को छोड़ दें तो कोई भी बड़ा ऑर्गनाइजेशन डिजिटल से उतना रेवेन्‍यू नहीं जुटा पाता है, जितना जुटना चाहिए। हालांकि एनडीटीवी का प्रॉफिट टीवी के मुकाबले डिजिटल से ज्‍यादा रहता है क्‍योंकि उसका टीवी नुकसान में रहता है। ऐसे में आपको क्‍या दिखता है यह बुलबुला टाइप है जो एक दिन फूट जाएगा। क्‍योंकि अभी इसमें सिर्फ इंवेस्‍टर है, जबकि इसमें आ क्‍या रहा है यह अभी तय नहीं है। आखिर इंडस्‍ट्री में रेवेन्‍यू मॉडल तो होना ही चाहिए। इस बारे में आपका क्‍या कहना है ? 

ब्रज खंडेलवाल : यदि बुलबुले फूट जाएंगे तो फूट जाएं, इसमें आखिर मुश्किल क्‍या है। दरअसल, टेक्‍नोलॉजी इतनी तेजी से बढ़ रही है कि इस बारे में बहुत ज्‍यादा अनुमान लगाना मुश्किल है कि कल क्‍या होगा।  

कहने का मतलब है कि आपने प्रिंट, टीवी और रेडियो इंडस्‍ट्री देखी है। वहां एक रेवेन्‍यू मॉडल है। वहां पैसे का टर्नओवर होता है और पैसा आता भी है। आपका इस बारे में क्‍या कहना है कि क्‍या डिजिटल ऐसा हो पाएगा ? 

ब्रज खंडेलवाल : मुझे इसकी ज्यादा जानकारी नहीं है। मैं सिर्फ इतना कहूंगा कि इंफॉर्मेशन के लिए जबरदस्‍त भूख है और इसे तैयार करने की ग्रोथ हजारों गुना हुई है। जब इंफॉर्मेशन तैयार हो रही है तो उसके लिए नेटवर्क भी होगा और सप्‍लायर्स भी होंगे यानी सब चीजें होंगी। पत्रकारिता के लिए यह महत्वपूर्ण है कि लोगों में जानने की इच्‍छा है या नहीं है। वो इंफॉर्मेशन चाहते हैं अथवा नहीं। अब कौन आएगा, कौन जाएगा और कितना कमाएगा, यह सब बहुत कारणों पर निर्भर करता है।    

बतौर शिक्षक आप 'केएमआई' में पढ़ाते थे, अब केंद्रीय हिंदी संस्‍थान में पढ़ाते हैं। ऐसे में एक शिक्षक के तौर पर आप पत्रकारिता के उन नए छात्रों के बारे में क्‍या देखते हैं कि वे क्‍यों आ रहे हैं, किस पृष्‍ठभूमि से आ रहे हैं। हमें लगता है कि इसमें तमाम लोग वे भी आ जाते हैं जिन्‍हें पत्रकार नहीं भी बनना होता है, बस उन्हें डिग्री चाहिए होती है। दूसरा सवाल ये है कि जब वे पढ़ाई पूरी कर जाते हैं तो उनकी नियुक्ति किस प्रकार होती है। इसमें कितना प्रतिशत होता है और तीसरा ये कि जब आपके पुराने शिष्‍य आपको मिलते हैं तो आप कैसा महसूस करते हैं ? 

ब्रज खंडेलवाल : पहली बात तो यह है कि हम जो डिप्‍लोमा आदि करा रहे हैं, उसका सीमि‍त उद्देश्‍य नहीं है कि वह सिर्फ मीडिया में जाएं। वे अच्‍छे इंसान बनें, उनके कम्‍युनिकेशन स्किल्‍स अच्‍छे हों। आजकल बहुत सारे लोग आ रहे हैं, जो पहले से ही कहीं काम कर रहे हैं। ऐसे लोग सिर्फ अपने कम्‍युनिकेशन में धार देने के लिए जर्नलिज्‍म का डिप्‍लोमा कर रहे हैं। पब्लिक रिलेशन में उनके लिए काफी संभावनाएं हैं और वे लोग हो भी रहे हैं। बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं जो कंप्‍टीशन की तैयारी में लगे हुए हैं। उन्‍होंने बताया है कि यह डिप्‍लोमा करने के बाद उनकी लेखन शैली बहुत अच्‍छी हुई है। इंटरव्‍यू का सामना करने में भी आसानी हुई है। तो इसे सिर्फ मीडिया में रोजगार से ही जोड़कर नहीं देख सकते हैं। ऐसा ही एक वाक्‍या मुझे याद है कि जब मैंने अपनी एक छात्रा से पूछा कि तुम्‍हारी तो शादी हो जाएगी तुम इस डिप्‍लोमा का क्‍या करोगी तो उसका खुलकर कहना था कि हम तो इसे फ्रेम करके लगाएंगे, सास इससे ही बहुत डर जाएगी। एक और लड़की का कहना है कि हमारे ससुराल वाले तो बहुत डरे रहते हैं कि उनकी बहू पत्रकार बनकर आ रही है, पता नहीं क्‍या करेगी। यह पुराने जमाने में होता था जब मैं केएमआई में था कि हर किसी को मीडिया में ही जाना है लेकिन अब यह फोकस बिल्‍कुल बदल गया है। केंद्रीय हिंदी संस्‍थान का तो बिल्‍कुल ही बदला हुआ है। वहां कई सारे शिक्षक हैं, शिक्षामित्र हैं और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले भी हैं। हर तरह के छात्र-छात्राएं हैं। कई तो शुरू में ही बता देते हैं कि हमें मीडिया में नहीं जाना है। सिर्फ दो-चार ही होते हैं जो कैमरा लेकर इधर-उधर घूमने के लिए तैयार हैं। नौकरी न लगे तो कुछ दिन करने के बाद वे भी खिसक जाते हैं। कहने का मतलब है कि यह अब सामान्‍य तौर पर वैल्‍यू एडिशन वाला कोर्स बन चुका है। किसी और कोर्स जैसे एमबीए आदि के साथ यह कोर्स कर लिया तो आपको आगे तरक्‍की में काफी संभावनाएं हो जाती हैं।    

आजकल एक नया कॉन्‍सेप्‍ट ईवेंट जर्नलिज्‍म का चल रहा है। इसमें तमाम पत्रकार पब्लिक रिलेशन कर रहे हैं। ईवेंट कर रहे हैं। उस पर तीखे कमेंट भी होते हैं। आपको क्‍या लगता है कि ईवेंट जर्नलिज्‍म ठीक नहीं है या पत्रकार अगर नौकरी छोड़कर पीआर बन रहा है तो आपको क्‍या आपत्ति है। क्‍या आपका मानना है कि ईवेंट जर्नलिज्‍म की वजह से जर्नलिज्‍म को खास नुकसान नहीं हो रहा है ? 

ब्रज खंडेलवाल : यह तो उसकी स्‍वतंत्रता है कि वह जो मन में आए, करे। ईवेंट्स अब मीडिया का हिस्‍सा बन चुके हैं। ऐसे में यदि वह नहीं करेगा तो कोई और करेगा। यह पीआर, प्रमोशन और बिजनेस स्‍ट्रेटजी का हिस्‍सा है। इसमें मुझे कोई बुराई नजर नहीं आती है। अगर यह सार्वजनिक रूप से हो रहा है तो कोई दिक्‍कत नहीं है। यह पारदर्शी होना चाहिए, इसमें कुछ छिपा नहीं होना चाहिए। सभी लोग कोई भी काम करने के लिए स्‍वतंत्र हैं।  

इसमें एक समस्‍या यह होती है कि तमाम ईवेंट्स में जो मंचासीन लोग होते हैं, इनमें से कर्इ लोग ऐसे होते हैं जो कहीं पर भी मंच पर बैठने लायक नहीं होते हैं। इस बारे में आपका क्‍या कहना है? 

ब्रज खंडेलवाल : यह मीडिया का प्रॉब्‍लम नहीं है, यह तो समाज का प्रॉब्लम है। समाज में घटिया लोग भी होते हैं।  

हमारा मानना है कि मीडिया बहुत स्‍ट्रॉंग है, वह इन सब चीजों को चेक करेगा। मीडिया छापता भी है और मीडिया के लोग पीआर बनकर वह ईवेंट भी करते हैं। इस बारे में कुछ बताएं? 

ब्रज खंडेलवाल : चूंकि इस तरह के लोग फाइनेंस करते हैं तो एक तरह से वह उस मीडिया में स्‍पेस खरीद लेते हैं। आखिर पीआर क्‍या होता है, अनपेड पब्लिसिटी। आमतौर पर होता यही है कि यदि सीधे विज्ञापन के पैसे नहीं दे रहे हो तो घुमाकर दे दो इस तरह प्रेस कॉन्‍फ्रेंस करके।

पिछले दो दशक से आप पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ा रहे हैं। क्‍या आपके छात्र किसी जगह पर पहुंचे हैं या आगरा से बाहर सेट हो गए हैं। आज जब आपको अपने पुराने छात्र मिलते हैं तो आपको कैसा लगता है कि आपने शिक्षक के तौर पर जो यह शुरुआत की है, उसमें भी आपने कामयाबी पाई है? 

ब्रज खंडेलवाल : मुझे ऐसे बहुत सारे लोग मिलते रहते हैं। इनमें जो पत्रकार बन गए, वे अच्‍छा कर रहे हैं। जो पत्रकार नहीं बन पाए, वे जिस फील्‍ड में भी हैं अच्‍छा कर रहे हैं। इनमें से कई डॉक्‍टर्स भी हैं, जिन्‍होंने पत्रकारिता भी की है और अब अच्‍छे डॉक्‍टर के रूप में काम कर रहे हैं। इनमें एक पुलकित है, दूसरा राजकुमार है। ये दोनों नाम तो मुझे याद हैं। एक लेखपाल बन गया है जौनपुर में कहीं पर। कहने का मतलब है कि हम सिर्फ मीडिया टेक्‍निक ही नहीं सिखाते हैं, बल्कि छात्र के सर्वांगीण विकास पर ध्‍यान देते हैं। 

सुना है कि आपके एक पुराने स्‍टूडेंट पत्रकारिता के बाद रेलवे में चले गए लेकिन सरकारी नौकरी छोड़कर फिर वे पत्रकारिता में आ गए। जबकि आजकल ज्‍यादातर पत्रकार पीआरओ बनना चाहते हैं। इस बारे में आपका क्‍या कहना है? 

ब्रज खंडेलवाल : यह बात सही है। दरअसल, उसे लगा कि रेलवे की नौकरी में उसे वह संतुष्टि नहीं मिलेगी। हालांकि मैंने उसे समझाया भी था कि यहां तनाव और अनिश्चितता रहेगी लेकिन उसका कहना था कि मैं ये सब झेल लूंगा। इसके बाद फिर मैंने कहा कि यदि तुम यही चाहते हो तो ठीक है, आ जाओ। 

 

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विज्ञापन प्रणाली की जटिलता को नहीं समझता CCI: श्रीनिवासन के. स्वामी

'एक्सचेंज4मीडिया' से एक्सक्लूसिव बातचीत में आर. के. स्वामी लिमिटेड के एग्जिक्यूटिव ग्रुप चेयरमैन श्रीनिवासन के. स्वामी ने अपना विजन साझा किया और कड़े सवालों का जवाब दिया

Samachar4media Bureau by
Published - Tuesday, 19 August, 2025
Last Modified:
Tuesday, 19 August, 2025
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कंचन श्रीवास्तव, सीनियर एडिटर, एक्सचेंज4मीडिया ।।

आर. के. स्वामी लिमिटेड के एग्जिक्यूटिव ग्रुप चेयरमैन श्रीनिवासन के. स्वामी ने हाल ही में 2025-26 के लिए ऐडवर्टाइजिंग एजेंसीज एसोसिएशन ऑफ इंडिया (AAAI) के अध्यक्ष का पदभार संभाला। भारतीय ऐडवर्टाइजिंग इंडस्ट्री की सबसे प्रभावशाली आवाजों में से एक माने जाने वाले स्वामी एक ऐसे इकोसिस्टम की बागडोर संभाल रहे हैं जो नियामक जांच, रुके हुए दर्शक माप सर्वेक्षणों और नए प्रतिभाओं को आकर्षित करने की तात्कालिक आवश्यकता से जूझ रहा है।

'एक्सचेंज4मीडिया' से एक्सक्लूसिव बातचीत में स्वामी ने अपना विजन साझा किया और कड़े सवालों का जवाब दिया, जिनमें शामिल थे CCI की जांच, BARC की विश्वसनीयता और इंडियन रीडरशिप सर्वे (IRS) की स्थिति। साथ ही यह भी रेखांकित किया कि इंडस्ट्री की असली चुनौती मानव संसाधन (human capital) है।

अध्यक्ष के रूप में प्राथमिकताएं

स्वामी उन लीडर्स की तरह नहीं हैं जो शीर्ष पद पर चुने जाने के बाद बड़े बदलावों का ऐलान करते हैं। वे इस स्थिर जहाज को हिलाने में सावधानी बरतना चाहते हैं। उन्होंने कहा, “यह जहाज पहले से ही अच्छी तरह चल रहा है। मेरा काम यह सुनिश्चित करना है कि हम कोई भी अनावश्यक या बाधक काम न करें। साथ ही यह मानना भी जरूरी है कि जैसे-जैसे तकनीक विकसित हो रही है, इंडस्ट्री जटिल चुनौतियों का सामना कर रहा है। हमें लोगों को इन जटिलताओं को समझने और समझदारी से उन्हें पार करने में मदद करनी होगी।”

सबसे बड़ी चुनौती

स्वामी के अनुसार विज्ञापन इंडस्ट्री की सबसे बड़ी समस्या है- लोग। उन्होंने साफ तौर पर कहा, “प्रतिभा को आकर्षित करना और बनाए रखना सबसे बड़ी चुनौती है। किसी कारणवश, नई पीढ़ी अब विज्ञापन को पसंदीदा करियर नहीं मानती। हमें मास कम्युनिकेशन संस्थानों और उससे आगे तक आउटरीच अभियान चलाकर प्रतिभा की मजबूत पाइपलाइन तैयार करनी होगी।”

उन्होंने एजेंसियों की जिम्मेदारी भी साफ की और कहा, “यदि हमें उच्च-स्तरीय प्रतिभाशाली लोग चाहिए, तो हमें उन्हें उचित पारिश्रमिक देने और जोड़े रखने के लिए तैयार रहना होगा। अक्सर इंडस्ट्री के लीडर इस सच्चाई को नजरअंदाज कर देते हैं। लेकिन भविष्य स्मार्ट निवेशों पर निर्भर है और ये निवेश प्रतिभा में होने चाहिए।”

CCI जांच: ‘कीमत मुख्य मुद्दा नहीं है’

भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (CCI) द्वारा शीर्ष मीडिया एजेंसियों के खिलाफ कथित गठजोड़ की चल रही जांच पर स्वामी ने दो टूक कहा, “एजेंसी रेट्स एक बेहद जटिल प्रक्रिया से तय होते हैं- रणनीति, टीमें, तकनीक। लेकिन कीमत का महत्व बहुत ज्यादा नहीं है। कीमत में 0.2% या 0.5% का फर्क बड़ी तस्वीर में मायने नहीं रखता।”

उन्होंने यह भी जोड़ा, “दुर्भाग्यवश, CCI विज्ञापन प्रणाली की जटिलता को पूरी तरह नहीं समझता। अब तक जो हुआ है, वह सिर्फ प्रारंभिक जांच है। अब एक विस्तृत जांच चल रही है और मुझे उम्मीद है कि यह स्पष्टता लाएगी।”

बताया जाता है कि यह केस व्हिसलब्लोअर्स के आरोपों से शुरू हुआ, जिनका कहना था कि बड़ी एजेंसियों ने विज्ञापनदाताओं को टीवी विज्ञापन इन्वेंटरी सस्ती दरों पर देने का वादा करके बड़े खातों का एकीकरण किया, जबकि प्रसारकों से अधिक निवेश के लिए सौदे किए। इस बीच, वॉचडॉग इंडियन सोसायटी ऑफ एडवर्टाइजर्स (ISA) के मॉडल एजेंसी एग्रीमेंट की भी जांच कर रहा है, जिसे अगस्त 2023 में लॉन्च किया गया था। शिकायतकर्ताओं का कहना है कि इससे विज्ञापनदाता-एजेंसी की बातचीत सीमित हुई और एजेंसियों की आय पर असर पड़ा।

एक TRP सिस्टम या कई?

मीजरमेंट सिस्टम पर उठ रहे सवालों के बीच, स्वामी ने ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (BARC) का बचाव किया, जो देश की एकमात्र टेलीविजन रेटिंग प्रणाली है। उन्होंने कहा, “मेरा मानना है कि BARC अच्छा काम कर रहा है। AAAI, ISA और IBDF सभी BARC में साझेदार हैं। वैश्विक स्तर पर ज्यादातर बाजारों में एक ही सिस्टम होता है और वह ठीक काम करता है। मुझे दूसरा सिस्टम शुरू करने का कोई औचित्य नहीं दिखता। हमें मौजूदा सिस्टम को मजबूत बनाने पर ध्यान देना चाहिए, न कि कई सिस्टम्स पर पैसा खर्च करने पर।”

जब उनसे BARC पर आलोचनाओं के बारे में पूछा गया, जिसमें बेसलाइन सर्वे और कनेक्टेड टीवी स्टडी जैसी पहलों में देरी शामिल है, तो उन्होंने भरोसा दिलाया कि हां, मैं उन चिंताओं को समझता हूं। लेकिन मैं आश्वस्त करना चाहता हूं कि BARC बोर्ड का सदस्य होने के नाते, ये मुद्दे पूरी तरह हमारे एजेंडे में हैं। नीयत साफ है और सभी लंबित पहलें आगे की योजना का हिस्सा हैं।

IRS को पुनर्जीवित करना

लंबे समय से रुका हुआ इंडियन रीडरशिप सर्वे (IRS) भी स्वामी की प्राथमिकताओं में है। उन्होंने कहा, “IRS को पुनर्जीवित करना जरूरी है। फंडिंग अब तक की सबसे बड़ी रुकावट रही है। मुझे बताया गया है कि अब एक प्रस्ताव है जिसके तहत छोटे सैंपल साइज के साथ सर्वे किया जाएगा ताकि लागत कम की जा सके और इसके लिए जल्द ही एक RFP जारी होना चाहिए।”

प्रकाशक पद्धति को लेकर विभाजित हैं। कई लोगों को लगता है कि कोविड के बाद हाउसिंग सोसाइटियों में भौतिक सर्वे करना अब संभव नहीं होगा, गोपनीयता और प्रतिबंधों की वजह से। लेकिन स्वामी ने आगे बढ़ने की तात्कालिकता पर जोर दिया।

तकनीक और विश्वसनीयता की विरासत

भविष्य की ओर देखते हुए, स्वामी ने अपने लक्ष्य को सरल शब्दों में बताया, “मेरे लिए यह सुनिश्चित करना अहम है कि इंडस्ट्री पूरी तरह तकनीक को अपनाए और उसे हमारे हित में इस्तेमाल करे। अगर हम यह बदलाव कर सके और साथ ही विश्वसनीयता व रचनात्मकता के मूलभूत तत्वों को कायम रख सके, तो मैं अपने कार्यकाल को सार्थक मानूंगा।” 

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ऑफलाइन रिटेल व ई-कॉमर्स की तरह ही टीवी और डिजिटल भी बढ़ेंगे साथ: आलोक जैन, जियोस्टार

जियोस्टार के एंटरटेनमेंट बिजनेस के क्लस्टर हेड्स में से एक आलोक जैन का मानना है कि टेलीविजन न सिर्फ अपनी पकड़ बनाए हुए है, बल्कि नए माध्यमों के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ रहा है।

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 13 August, 2025
Last Modified:
Wednesday, 13 August, 2025
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अदिति गुप्ता, असिसटेंट एडिटर, एक्सचेंज4मीडिया ।।

एंटरटेनमेंट की दुनिया पहले से कहीं तेजी से बदल रही है, लेकिन जियोस्टार के एंटरटेनमेंट बिजनेस के क्लस्टर हेड्स में से एक आलोक जैन का मानना है कि टेलीविजन न सिर्फ अपनी पकड़ बनाए हुए है, बल्कि नए माध्यमों के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ रहा है।

जैन के पोर्टफोलियो में कलर्स, डिजिटल हिंदी ओरिजिनल्स, यूथ, म्यूजिक व इंग्लिश, किड्स व इंफोटेनमेंट, हिंदी मूवीज और स्टूडियो बिजनेस शामिल हैं। उनका कहना है, “भारत जैसे विशाल और विविधता भरे देश में टीवी आज भी बेहद प्रासंगिक है और निकट भविष्य में भी रहेगा।”

उन्होंने कहा, “आज भारत में 90 करोड़ लोग टीवी देखते हैं और रोजाना लगभग तीन घंटे का कंटेंट देखते हैं। डिजिटल निश्चित रूप से बढ़ेगा, लेकिन टीवी की पहुंच और जुड़ाव मजबूत है। हम खुद को प्लेटफॉर्म-एग्नॉस्टिक मानते हैं- टीवी, मोबाइल, ओटीटी और सीटीवी सभी पर दर्शकों को सहज अनुभव देना हमारा लक्ष्य है। भारत की खपत की कहानी बहुत बड़ी है और जैसे ऑफलाइन रिटेल ई-कॉमर्स के साथ मौजूद है, वैसे ही टीवी, डिजिटल और मोबाइल जैसे सभी माध्यम साथ-साथ रहेंगे और बढ़ेंगे।”

इंडस्ट्री रिपोर्ट्स भी इस बात की पुष्टि करती हैं। FICCI-EY रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में टीवी अब भी 90 करोड़ से अधिक दर्शकों तक पहुंचता है, जो इसे बेमिसाल पैमाने और गहराई वाला सबसे बड़ा मीडिया प्लेटफॉर्म बनाता है।

जैन का कहना है, “दुनिया के नैरेटिव के उलट, भारत में टीवी गिरावट में नहीं है, बल्कि विकसित हो रहा है और फल-फूल रहा है।”

टीवी का सुकून और विशाल पहुंच कायम 

जैन के अनुसार, ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है जो यह दिखाता हो कि टीवी की अहमियत घट रही है। वे आगे कहते हैं, “मैदान पर का अनुभव भी इसे साबित करता है,”  “टीवी में ऐसे फायदे हैं—परिवार के साथ देखना, आराम और ‘एस्केपिज्म मोड’, जिन्हें डिजिटल हमेशा दोहरा नहीं सकता। भारत में इंडस्ट्रीज आसानी से खत्म नहीं होतीं; वे खुद को ढाल लेती हैं।”

जैन के मुताबिक, ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है जो यह दिखाए कि टीवी की अहमियत घट रही है। वे कहते हैं, “ग्राउंड एक्सपीरियंस भी इसे साबित करते हैं। टीवी में कुछ ऐसे फायदे हैं- परिवार के साथ देखना, आराम और ‘एस्केपिज़्म मोड’—जिन्हें डिजिटल हमेशा नहीं दोहरा सकता। भारत में इंडस्ट्री आसानी से खत्म नहीं होती, बल्कि समय के साथ खुद को ढाल लेतीं हैं।” 

कलर्स और जियोस्टार के एंटरटेनमेंट बिजनेस के लिए उनकी रणनीति साफ है- ऐसे आईपी में निवेश करना जो पीढ़ियों, प्लेटफॉर्म्स और फॉर्मैट्स से परे जाएं, पारिवारिक दर्शकों को वापस लाना और ये संदेश मजबूती से देना कि भारत में टीवी अपनी ताकत फिर से खोज रहा है। 

नॉस्टेल्जिया और नए फॉर्मैट्स का संतुलन

बीते दिनों के लोकप्रिय शो फिर से दर्शकों के बीच आ रहे हैं और प्रोग्रामिंग ट्रेंड में नॉस्टेल्जिया अहम भूमिका निभा रहा है। जैन इसे अपनाते हैं, लेकिन सतर्कता के साथ। “मामला संतुलन का है। भविष्य अतीत के बराबर नहीं होता, इसलिए हम जहां सफल पुराने फॉर्मैट्स का लाभ उठाते हैं, वहीं नए प्रयोगों का जोखिम भी लेते हैं। उदाहरण के लिए, अगस्त में हम बिग बॉस के साथ-साथ ‘पति पत्नी और पंगा’ चला रहे हैं, जहां स्थापित फैनबेस और नए फॉर्मैट्स का मेल है। नॉस्टेल्जिया मूल्यवान है, लेकिन इनोवेशन जरूरी है।”

यह पुराने और नए का मेल हर जॉनर में दिखता है। कलर्स ने नॉन-फिक्शन में अपनी मजबूत पहचान बनाई है, लेकिन फिक्शन भी इसका मुख्य आधार है।

जैन आगे कहते हैं, “नॉन-फिक्शन ज्यादातर वीकेंड पर होता है, सिवाय बिग बॉस के समय के। हमारी नॉन-फिक्शन में अलग पहचान है क्योंकि टीवी और डिजिटल दोनों में इतने मजबूत फ्रैंचाइजी बहुत कम हैं। लेकिन फिक्शन अब भी बड़ा फोकस है- सालाना 8 से 10 गुना ज्यादा घंटे फिक्शन को मिलते हैं।”

विज्ञापन परिदृश्य और त्योहारी रफ्तार

विज्ञापन खर्च अब टीवी और ओटीटी में बंट रहा है, फिर भी जैन आशावादी हैं। उन्होंने कहा, “टीवी अब भी मजबूत है और सबसे बड़ा ब्रैंड-बिल्डिंग माध्यम है, इसलिए हम विज्ञापनदाताओं को डिजिटल के साथ इसका इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं। पहली तिमाही में टीवी विज्ञापन राजस्व में थोड़ी नरमी थी, लेकिन त्योहारी सीजन में टीवी और डिजिटल दोनों पर तेजी दिख रही है। निविया और लोरियल जैसे एफएमसीजी ब्रैंंड वापस आ रहे हैं। नए दौर के ब्रैंंड भी मेट्रो शहरों के शुरुआती उपभोक्ताओं से आगे पहुंचने के लिए टीवी जैसे व्यापक माध्यमों की जरूरत महसूस करेंगे।”  

मापदंड की चुनौती

जब दर्शक स्क्रीन-एग्नॉस्टिक हो रहे हैं, तो मापने की व्यवस्था को भी बदलना होगा। जैन कहते हैं, “मापन बेहद जरूरी है और इसे उपभोक्ता के व्यवहार के साथ विकसित होना चाहिए। एक बड़ा अवसर इस बात में है कि एक ही व्यक्ति द्वारा टीवी और डिजिटल पर देखे गए एक ही शो की संयुक्त व्यूअरशिप को मापा जाए।”

‘पति पत्नी और पंगा’ का विचार

कलर्स का नया फॉर्मैट ‘पति पत्नी और पंगा’ इस चैनल के घरेलू, रिश्तों से जुड़े और दर्शकों के करीब के आइडियाज पर फोकस को दर्शाता है। जैन कहते हैं, “हम लगातार नए आइडियाज की तलाश करते हैं। ‘पति पत्नी और पंगा’ की प्रेरणा शादीशुदा जोड़ों के रोजमर्रा के मजाक और अनोखेपन से मिली, जो हर किसी से जुड़ता है। हम एक पारिवारिक, मनोरंजक शो बनाना चाहते थे, जो अब तक अनछुए स्पेस में हो।”

इस शो में सिर्फ शादीशुदा जोड़े हिस्सा लेते हैं- सिवाय अविका गोर के, जो सगाईशुदा हैं और इसके होस्ट अलग-अलग रंगत लाते हैं: सोनाली बेंद्रे अपने गरिमामय अंदाज और नॉस्टेल्जिया के साथ, तो मुनव्वर फारूकी अपने हास्य और धार के साथ।

शो पहले ही 11 स्पॉन्सर्स जुटा चुका है, जो इसकी अपील पर भरोसा दर्शाता है।

जैन कहते हैं, “यह एक घरेलू फॉर्मैट है, देसी ड्रामा में रचा-बसा, भारतीय घरों की संवेदनाओं से प्रेरित और आज के दर्शकों के साथ जुड़ने के लिए तैयार किया गया। इसका मकसद है कि ‘पति पत्नी और पंगा’ टीवी और डिजिटल दोनों पर चमके, और सोशल मीडिया एक्सटेंशन्स, छोटे रील्स और शॉर्ट-फॉर्म स्पिन-ऑफ के लिए भी बड़ा स्कोप है।”

कलर्स का 17 साल का सफर

 जैन कहते हैं, '2008 में लॉन्च होने के बाद से कलर्स सिर्फ एक ब्रॉडकास्टर नहीं, बल्कि भारतीय समाज का आईना रहा है। ‘बालिका वधू’, ‘उतरन’ और ‘ना आना इस देस लाडो’ जैसे शो ने प्राइमटाइम में सामाजिक मुद्दों- बाल विवाह से लेकर लैंगिक असमानता तक को कहानी का केंद्र बनाया।

जैन याद करते हैं, “बालिका वधू के साथ, कलर्स ने बाल विवाह के मुद्दे को प्राइमटाइम में सिर्फ पृष्ठभूमि के तौर पर नहीं, बल्कि मुख्य कथा के रूप में पेश किया, जिससे मनोरंजन सामाजिक चेतना में बदल गया। आज कलर्स सामाजिक बदलाव को छूती फिक्शन कहानियों (जैसे ‘धाकड़ बीरा’, ‘मनपसंद की शादी’) और दमदार नॉन-फिक्शन शो, दोनों का मेल प्रस्तुत करता है।”

जैन गर्व से कहते हैं, “‘लाफ्टर शेफ्स’ ने कॉमेडी-आधारित रियलिटी टीवी की परिभाषा बदल दी। कॉमेडी और कुकिंग का इसका अनोखा संगम दर्शकों को ‘डिनरटेनमेंट’ का मजा दे रहा है।”

जैन को भविष्य को लेकर पूरा भरोसा है। वे कहते हैं, “हमारी कंटेंट रणनीति के केंद्र में दर्शक हैं। हर कहानी उन्हीं से शुरू होती है- उनकी पसंद, संस्कृति और बदलती जिंदगियों से। हमारा वादा है कि हम दिल और ईमानदारी के साथ कहानियां सुनाते रहेंगे।”

उनके लिए टीवी, ओटीटी और सीटीवी का साथ रहना सिर्फ निश्चित ही नहीं, बल्कि यह पहले से ही हकीकत है। जैन दोहराते हैं, “भारत की खपत की कहानी बहुत बड़ी है। सभी माध्यम साथ रहेंगे और साथ बढ़ेंगे।” 

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SEBI का काम खुद चमकना नहीं, सिस्टम में विश्वास जगाना है: तुहिन कांत पांडे

यह SEBI के चेयरमैन तुहिन कांत पांडे का पहला बड़ा इंटरव्यू है। उन्होंने BW बिजनेसवर्ल्ड के चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ डॉ. अनुराग बत्रा व मैनेजिंग एडिटर पलक शाह से प्रमुख चिंताओं पर खुलकर बात की।

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 30 July, 2025
Last Modified:
Wednesday, 30 July, 2025
TuhinKantaPandey

जेन स्ट्रीट प्रकरण और उसके बाद भारत के वित्तीय बाजारों में मचे हलचल के बीच यह SEBI के चेयरमैन तुहिन कांत पांडे का पहला बड़ा इंटरव्यू है। उन्होंने BW बिजनेसवर्ल्ड के चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ डॉ. अनुराग बत्रा और मैनेजिंग एडिटर पलक शाह से प्रमुख चिंताओं पर खुलकर बात की। एक नियामक के रूप में अपनी सोच साझा करते हुए उन्होंने बाजार में हेरफेर, पारदर्शिता और निवेशकों की सुरक्षा जैसे अहम मुद्दों पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किया। ईमानदारी के लिए चर्चित और कई ऐतिहासिक वित्तीय सुधारों के मार्गदर्शक रहे तुहिन कांत पांडे ने इस तेजी से बदलते परिदृश्य में SEBI की भूमिका, हाई-फ्रीक्वेंसी ट्रेडिंग (HFT) से निपटने की चुनौती और भारतीय पूंजी बाजार में निवेशकों का भरोसा वापस लाने की अपनी योजनाओं पर विस्तार से चर्चा की।

मिस्टर पांडे, SEBI के चेयरमैन पद की जिम्मेदारी संभालने पर आपको बधाई। जेन स्ट्रीट प्रकरण के बाद आपसे कई उम्मीदें जुड़ी हैं। SEBI ने इस मामले में महज दस दिनों के भीतर 600 मिलियन डॉलर की रकम सुरक्षित करते हुए एक असाधारण अंतरिम आदेश जारी किया। लेकिन आपने गंभीर बाजार हेरफेर की आशंकाओं के बावजूद जेन स्ट्रीट को दोबारा ट्रेडिंग की इजाजत क्यों दी? कृपया इस फैसले के पीछे की सोच समझाइए।

SEBI एक संस्थागत संरचना पर आधारित संगठन है और मैं सामूहिक निर्णय और वैधानिक प्रक्रिया में विश्वास करता हूं। जेन स्ट्रीट मामला अभी एक अंतरिम आदेश है, अंतिम निर्णय नहीं। हमारी न्याय व्यवस्था ‘प्राकृतिक न्याय’ के सिद्धांत पर टिकी है, जो यह कहती है कि स्थायी कार्रवाई से पहले नोटिस देना और पक्ष सुनना जरूरी है। सामने आए उल्लंघन इतने गंभीर थे कि पूरी जांच पूरी होने तक इंतजार करना संभव नहीं था, इसलिए हमने तुरंत कार्रवाई करते हुए 597 मिलियन डॉलर की रकम सुरक्षित की और कई प्रतिबंध लगाए, जिनमें मैनिपुलेटिव ट्रेडिंग पर रोक भी शामिल है। तब से जेन स्ट्रीट ने F&O बाजार में कोई ट्रेडिंग नहीं की है और SEBI तथा एक्सचेंज दोनों ही उनकी गतिविधियों पर कड़ी नजर रखे हुए हैं। यह किसी तरह की ढील नहीं है, बल्कि एक संतुलित दृष्टिकोण है, जिसमें बाजार की सुरक्षा और निष्पक्षता दोनों का ध्यान रखा गया है।

लेकिन क्या यह मिसाल अपने आप में असामान्य नहीं है? SEBI के 35 साल के इतिहास में ऐसा कोई आदेश नहीं आया जिसमें जांच के दायरे में होने के बावजूद किसी इकाई को फंड जमा करने के बाद फिर से ट्रेडिंग की अनुमति दी गई हो। क्या यह एक खतरनाक उदाहरण नहीं बनाता?

मैं इस चिंता को समझता हूं, लेकिन जरूरी है कि हम इस स्थिति की गलत व्याख्या न करें। अंतरिम आदेश में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जेन स्ट्रीट किसी भी तरह की मैनिपुलेटिव ट्रेडिंग से दूर रहेगी, और हमने सख्त निगरानी के जरिये इस अनुपालन को सुनिश्चित किया है। बिना कारण बताओ नोटिस या अंतिम आदेश के स्थायी रूप से प्रतिबंध लगाना मनमाना होता और कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं। निर्धारित शर्तों के तहत ट्रेडिंग की अनुमति देना ‘नरमी’ नहीं, बल्कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन है। हमारे न्यायशास्त्र में बिना उचित प्रक्रिया के किसी को दोषी ठहराने की अनुमति नहीं है। 597 मिलियन डॉलर की जमा रकम खुद एक मजबूत संकेत है कि SEBI इस पर कितना गंभीर है। हमारा उद्देश्य ‘हीरो’ बनना नहीं है, बल्कि न्यायपूर्ण और निरंतर नियमन के जरिये भरोसा कायम करना है।

जेन स्ट्रीट मामला मैनहट्टन कोर्ट में दायर एक फाइलिंग से सामने आया, न कि SEBI की अपनी निगरानी प्रणाली से। क्या यह आपके निगरानी तंत्र की कमजोरी को उजागर करता है? और आप इसे दुरुस्त करने के लिए क्या कदम उठा रहे हैं?

मैनहट्टन में की गई फाइलिंग ने हमें सतर्क किया, लेकिन हमारी अपनी जांच में भी डेटा एनालिसिस के जरिए हेरफेर के पैटर्न सामने आए। हमने जेन स्ट्रीट की विभिन्न संस्थाओं के बीच समन्वित ट्रेडिंग की पहचान की, जो न तो हेजिंग का हिस्सा थीं और न ही लिक्विडिटी-संबंधी, बल्कि शुद्ध रूप से हेरफेर थीं। टेक्नोलॉजी लगातार बदल रही है, और कोई भी नियामक यह दावा नहीं कर सकता कि वह सर्वज्ञ है। इस केस ने हमारी निगरानी प्रणालियों को और बेहतर बनाने की जरूरत को रेखांकित किया। हम नए पैरामीटर अपना रहे हैं, AI आधारित टूल्स की संभावनाएं देख रहे हैं, जैसे कि असामान्य डेल्टा एक्सपोजर या अचानक हुए ऑप्शन ट्रेडिंग स्पाइक्स। हम विशेषज्ञता को अपनाने और मैनिपुलेटिव रणनीतियों से आगे रहने के लिए तैयार हैं। हमने F&O ट्रेडिंग की विसंगतियों पर निगरानी कड़ी की है, डेल्टा आधारित विश्लेषण शुरू किया है, और पोजीशन लिमिट्स को सख्त किया है। हमारे सुपटेक प्रयासों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहा जा रहा है- मलेशिया और स्विट्जरलैंड जैसे देश SEBI से सीख रहे हैं। लेकिन मैं साफ कहूं तो: HFT के साथ मुकाबला एक निरंतर बिल्ली और चूहे का खेल है, और हम इस चुनौती से उभरते रहने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

जब हम अंतरराष्ट्रीय नियामकों की बात करते हैं, तो SEBI ने अडानी मामले में विदेशी एजेंसियों से अंतिम लाभकारी मालिकों (UBOs) की जानकारी मांगी थी। क्या जेन स्ट्रीट के लिए भी ऐसा ही किया गया है? क्योंकि उनकी ओनरशिप संरचना काफी जटिल मानी जाती है।

जेन स्ट्रीट मामला मुख्यतः बाजार आचरण से संबंधित है, स्वामित्व से नहीं। FPI नियम सभी पर समान रूप से लागू होते हैं, जिसमें UBO डिस्क्लोजर भी शामिल है, और जेन स्ट्रीट इसके अपवाद नहीं हैं। हम किसी साजिश की तलाश में नहीं हैं, बल्कि हमारा पूरा ध्यान उन ट्रेड्स पर है जिन्हें अंतरिम आदेश में मैनिपुलेटिव पाया गया। इसे UBO से जोड़ना अलग मुद्दा है। हमारे लिए प्राथमिकता यह है कि ऐसा व्यवहार दोबारा न दोहराया जाए- चाहे फंड के पीछे कोई भी हो। UBO प्रकटीकरण की आवश्यकता 10% या उससे अधिक हिस्सेदारी पर होती है, और जेन स्ट्रीट भी अन्य FPI की तरह इसका पालन करता है। उनके F&O ट्रेड्स में इक्विटी स्वामित्व शामिल नहीं था।

BSE की भूमिका को लेकर सवाल उठते रहे हैं। जानकारी है कि BSE ने जेन स्ट्रीट की ट्रेड्स से जुड़े अहम डेटा SEBI के अनुरोध पर लगभग डेढ़ साल तक साझा नहीं किए। फिर भी आपके आदेश में इसका उल्लेख क्यों नहीं है?

मुझे BSE द्वारा डेटा साझा करने में किसी विशिष्ट देरी की जानकारी नहीं है, लेकिन मैं इसे जरूर जांचूंगा। हमारा अंतरिम आदेश उन हेरफेर गतिविधियों पर केंद्रित था जिनके लिए हमारे पास पर्याप्त सबूत पहले से मौजूद थे- मुख्यतः SEBI की अपनी निगरानी प्रणाली और NSE के डेटा के आधार पर, जो अंतरिम कार्रवाई के लिए पर्याप्त था।

बीते कुछ वर्षों में कई रिटेल निवेशकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है, खासकर हाई PE वाले IPOs में निवेश के चलते, जो लिस्टिंग के तुरंत बाद गिर जाते हैं- Paytm इसका उदाहरण है। क्या SEBI यह देखता है कि म्यूचुअल फंड्स इन IPOs में कैसे निवेश करते हैं, जो अक्सर प्राइवेट इक्विटी निवेशकों को निकासी का मौका देते हैं?

एकल मामले (जैसे Paytm) के आधार पर सामान्यीकरण करना उचित नहीं होगा। IPOs भविष्य की संभावनाओं पर आधारित होते हैं, केवल मौजूदा परिसंपत्तियों पर नहीं। उदाहरण के लिए Nvidia को देखिए, 25 साल पहले वह एक स्टार्टअप थी, आज वह ट्रिलियन-डॉलर कंपनी है। प्राइवेट इक्विटी से निकासी पूंजी निर्माण का एक वैध तरीका है, जो भारत की आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक है। SEBI की भूमिका मूल्य निर्धारण करना नहीं है, बल्कि पारदर्शी और निष्पक्ष प्रक्रिया सुनिश्चित करना है। हम डिस्क्लोजर और निगरानी को मजबूत कर रहे हैं ताकि खुदरा निवेशकों की सुरक्षा हो सके, लेकिन बाजार की स्वाभाविक गति को बाधित नहीं कर सकते। निवेशकों को खुद जोखिम का मूल्यांकन करना चाहिए, और हम उन्हें बेहतर जानकारी देकर सशक्त बना रहे हैं।

NSE के IPO में हो रही देरी और SEBI के अंदर गुटबाजी की खबरें भी सामने आई हैं। इस प्रक्रिया में क्या अड़चनें हैं और कोई समयसीमा तय की गई है?

सबसे पहले तो मैं SEBI के भीतर “गुटबाजी” जैसी किसी बात से इनकार करता हूं- ऐसी कोई बात नहीं है। यह एक सख्त प्रक्रिया है जिसमें यह सुनिश्चित किया जाता है कि अनुपालन, गवर्नेंस और जोखिम प्रबंधन के सभी मानक पूरे हों। मुझे भरोसा है कि हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। NOC प्रक्रिया जल्द ही अंतिम रूप ले सकती है, संभवतः अगले कुछ महीनों में।

पारदर्शिता के संदर्भ में बात करें तो, SEBI के हालिया परिपत्र में ट्रेडमार्क से जुड़ी रॉयल्टी भुगतानों के लिए डिस्क्लोजर अनिवार्य कर दिए गए हैं। कई सूचीबद्ध कंपनियाँ ब्रैंड निर्माण का खर्च उठाती हैं, जबकि प्रमोटर की निजी इकाइयां ट्रेडमार्क का स्वामित्व रखती हैं और भारी रॉयल्टी वसूलती हैं। क्या SEBI यह सुनिश्चित करेगा कि रॉयल्टी केवल कानूनी स्वामित्व के आधार पर नहीं, बल्कि आर्थिक योगदान के संदर्भ में भी न्यायसंगत हो?

इस चुनौती से निपटने के लिए हमने 1 सितंबर से एक मानकीकृत डिस्क्लोजर व्यवस्था लागू की है। अब शेयरधारकों और स्वतंत्र निदेशकों को संबंधित पक्षों के बीच लेन-देन (जिसमें रॉयल्टी भुगतान भी शामिल हैं) की स्पष्ट जानकारी प्राप्त होगी। इससे वे किसी भी असमान शुल्क पर प्रश्न उठा सकते हैं। प्रॉक्सी सलाहकार और शेयरधारक ऐसे प्रस्तावों को स्वीकृति या अस्वीकृति दे सकते हैं, जिससे जवाबदेही सुनिश्चित होती है। हमारा उद्देश्य है ऐसा नियमन तैयार करना जो अल्पसंख्यक निवेशकों की रक्षा करे, लेकिन व्यवसायों पर अनावश्यक बोझ न डाले।

होल्डिंग कंपनियां अक्सर अपनी सहायक इकाइयों की गवर्नेंस में पारदर्शिता की कमी के चलते वैल्यूएशन डिस्काउंट का सामना करती हैं। KK मिस्त्री समिति के डिमर्जर्स पर काम कर रहे होने के मद्देनजर, क्या SEBI ऐसी संरचना पर विचार कर रहा है जो होल्डिंग कंपनियों को बेहतर दृश्यता और नकदी प्रवाह की पहुंच दे सके?

इस विषय को मुझे और गहराई से देखना होगा, लेकिन मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि पारदर्शिता और गवर्नेंस को लेकर हमारी प्रतिबद्धता अडिग है। KK मिस्त्री समिति डिमर्जर के मानदंडों पर विचार कर रही है और हम उन संरचनाओं पर ध्यान देंगे जो दृश्यता और उत्तरदायित्व को बढ़ावा दें, बगैर कारोबारी दक्षता पर असर डाले। इस दिशा में हम सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं, बने रहिए।

आपके पूर्ववर्ती कार्यकाल में SEBI के कर्मचारियों के मनोबल में गिरावट और विरोध प्रदर्शन जैसी खबरें सामने आई थीं। आप वर्तमान में मनोबल बढ़ाने और SEBI को एक स्मार्ट रेगुलेटर बनाने के लिए क्या उपाय कर रहे हैं?

जवाब: मैं अतीत की घटनाओं पर टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा, लेकिन आज की स्थिति यह है कि हमारी टीम का मनोबल उच्च स्तर पर है। SEBI की सबसे बड़ी ताकत उसकी मानव पूंजी है, यही हमारी असली “फैक्ट्री” है। हम क्षमता निर्माण में निवेश कर रहे हैं, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी तकनीकों को नियमन में एकीकृत कर रहे हैं और एक पेशेवर कार्य संस्कृति को प्रोत्साहित कर रहे हैं। भारत के पूंजी बाजारों को वैश्विक मंच पर स्थापित करने का बेहतरीन अवसर मिला है, और इसके लिए प्रेरित SEBI सबसे बड़ी कुंजी है।

अंततः, खुदरा निवेशकों का विश्वास दोबारा कायम करने और जेन स्ट्रीट जैसे मामलों की पुनरावृत्ति रोकने के लिए SEBI की व्यापक रणनीति क्या है?

मेरी दृष्टि चार मुख्य स्तंभों पर आधारित है: विश्वास, पारदर्शिता, सहयोग और तकनीक। हम नियमों को सरल बना रहे हैं ताकि अनुपालन की प्रक्रिया अधिक सहज हो, निगरानी प्रणालियों को सशक्त बना रहे हैं ताकि अनियमितताओं का त्वरित पता चल सके, और डिस्क्लोजर की गुणवत्ता को इस प्रकार सुधार रहे हैं कि निवेशक अधिक जागरूक और सशक्त बनें। जेन स्ट्रीट प्रकरण में 597 मिलियन डॉलर की राशि सुरक्षित करना और संदिग्ध ट्रेड्स पर रोक लगाना हमारी संकल्पबद्धता का प्रमाण है। हमारा उद्देश्य अति-नियमन करना नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक निवेशकों की रक्षा करना, पूंजी निर्माण को बढ़ावा देना और भारतीय बाजारों को वैश्विक मानकों तक पहुंचाना है। SEBI एक उत्तरदायी, सक्रिय और संतुलित नियामक के रूप में बना रहेगा- विकास और निवेशक सुरक्षा के बीच उपयुक्त संतुलन के साथ।

SEBI किस तरह सूचीबद्ध कंपनियों और अपनी स्वयं की प्रक्रिया में अनुपालन का बोझ घटाते हुए प्रभावी नियमन सुनिश्चित करता है?

हम नियमों की प्रासंगिकता की लगातार समीक्षा कर रहे हैं और उन्हें सरल बना रहे हैं, विशेषकर वहां जहां प्रौद्योगिकी मैनुअल रिपोर्टिंग की जगह ले सकती है, जैसे कि API के जरिए। हम supervisory technology (SupTech) का उपयोग कर रहे हैं और कंपनियों को regulatory technology (RegTech) को अपनाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं, ताकि प्रक्रियाएं अधिक सुव्यवस्थित हों और हम उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित कर सकें। उदाहरण के तौर पर, हमने कंपनियों को अलग-अलग संस्थाओं में विभाजित करने की पूर्व अनिवार्यता को निलंबित किया है, इससे साझा संसाधनों का पारदर्शी उपयोग संभव हो पाया है, जटिलताएँ घटी हैं और नियामकीय स्पष्टता बनी है।

SEBI अनुपालन के सरलीकरण, निवेशक संरक्षण और बाजार विकास के बीच संतुलन किस तरह बनाए रखता है?

हम जोखिम-आधारित नियमन के सिद्धांत को अपनाते हैं, इससे अनुपालक संस्थाओं पर अनावश्यक बोझ नहीं पड़ता और दोषियों पर कठोर प्रवर्तन कार्रवाई की जाती है। निगरानी के लिए हम AI और SupTech जैसे आधुनिक साधनों का उपयोग करते हैं, जैसे कि IPO दस्तावेजों की स्वतः जांच, जिससे हमारी दक्षता बढ़ती है और हम गंभीर जोखिमों पर फोकस कर सकते हैं। यह दृष्टिकोण न केवल अनुपालन के बोझ को घटाता है, बल्कि पूंजी निर्माण को बढ़ावा देता है और यह सुनिश्चित करता है कि व्यवसाय नियामकीय जटिलताओं से मुक्त होकर सुचारू रूप से कार्य कर सकें- SEBI के निवेशक-अनुकूल और गतिशील बाजार के लक्ष्य के अनुरूप। 

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बदलते हिंदुस्तान की कहानी है ‘डैला बैला’, हमने बस उसे पर्दे पर उतारा है: नीलेश कुमार जैन

यह पहली ऐसी फिल्म है, जिसका प्रीमियर WAVES OTT पर हुआ। इस फिल्म का डायरेक्शन नीलेश कुमार जैन ने किया है। उन्होंने ही इस फिल्म के डायलॉग्स और गीत लिखे हैं।

pankaj sharma by
Published - Friday, 25 July, 2025
Last Modified:
Friday, 25 July, 2025
Neelesh Jain Della Bella

नई दिल्ली स्थित आकाशवाणी भवन के रंग भवन ऑडिटोरियम में हाल ही में प्रसार भारती के OTT प्लेटफॉर्म WAVES OTT पर स्ट्रीमिंग के लिए उपलब्ध फीचर फिल्म Della Bella: Badlegi Kahaani का प्रीमियर हुआ। यह पहली ऐसी फिल्म है, जिसका प्रीमियर WAVES OTT पर हुआ। इस फिल्म का डायरेक्शन नीलेश कुमार जैन ने किया है। उन्होंने ही इस फिल्म के डायलॉग्स और गीत लिखे हैं। इस प्रीमियर के दौरान समाचार4मीडिया ने नीलेश जैन से इस फिल्म से जुड़े तमाम पहलुओं पर विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:    

सबसे पहले तो आप अपने बारे में बताएं कि आपका अब तक का सफर क्या व कैसा रहा है?

बहुत छोटी सी मेरी कहानी है, बदल जाती है जब तक आती रवानी है। लखीमपुर खीरी में जन्मा मैनपुरी, इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में पला-बढ़ा, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शताब्दी वर्ष में सचिव रहा, अंग्रेजी पत्रकारिता को… ये कहकर छोड़ दिया कि ‘मेरा लिखा बिका नहीं क्योंकि मैं बिका नहीं’ फिर अचानक सिविल सेवा का अध्यापक बन गया, फिर पीयूष पाण्डे जी और अभिजित अवस्थी जी की प्रेरणा से एडमेकर बना और फिर निर्देशक महेश भट्ट जी के प्रोत्साहन से फिल्म मेकर।

इस तरह के सामाजिक मुद्दे पर फिल्म बनाने की प्रेरणा कहां से मिली और इसकी शुरुआत कैसे हुई?

प्रेरणा अपने समाज में घटित हो रही घटनाओं से ही मिली। आसपास जो बदलाव समाज से सोच तक में देखा जा रहा है, बस उसी को कहानी में पिरोया है। हम तो बस समेटकर दिखा रहे हैं, कहानी तो समाज की ही है।

इस फिल्म को बनने में कितना समय लगा, इसकी शूटिंग किन लोकेशंस पर हुई?

पूरा प्रोसेस तो कई महीनों का था। अधिकांश शूटिंग उप्र के बाराबंकी व लखनऊ में ही हुई। थोड़ा शूट मुंबई के पास पनवेल में भी किया।

‘डैला बैला : बदलेगी कहानी’ ये शीर्षक काफी रोचक है। इसका ख्याल कैसे आया, इस बारे में बताएं?

शीर्षक का सबसे बड़ा गुण ध्यान खींचना होता है और उत्सुकता पैदा करना भी।  बॉलीवुड के एक दिग्गज आशीष सिंह ने जब इस शीर्षक को पहली बार सुना तो उन्होंने इसके पीछे की सोच को सराहा। इंटरनेट पर फिल्म का नाम अनाउंस होते  ही ‘डैला बैला’ का सर्च शुरू हो गया था और लोग समझ गए थे कि इस साधारण-सरल कहानी में कुछ न कुछ ज़रूर बदलेगा, उत्सुकता की उसी डोर को पकड़कर दर्शक बैठा रहा और हंसी के आंसुओं ने आखिरकार अपना रूप बदल ही लिया। वैसे ‘डैला बैला’ का समेकित अर्थ एक ऐसी लड़की से है जिसका व्यक्तित्व आकर्षक होता है, जो अपने फैसले खुद लेने की ताक़त रखती है। वो समझदार भी होती है और रचनात्मक होने के साथ-साथ एक अच्छी दोस्त भी।

फिल्म में आप 'कहानी बदलने' की बात करते हैं।  आप किस सामाजिक या मानसिक बदलाव को दर्शकों तक पहुंचाना चाहते हैं?

दरअसल, ये आज के बदलते हिंदुस्तान की कहानी है। ये समाज में आ रहे भौतिक परिवर्तनों से लेकर भाविक परिवर्तनों तक की कहानी है। इसे मैंने जीएसटी की कहानी कहा है, वो जीएसटी नहीं बल्कि ‘ग्रेट सोशल ट्रांसफॉर्मेशन’ की कहानी कहा है।

फिल्म की कहानी क्या किसी सच्ची घटना से प्रेरित है या यह पूर्ण रूप से काल्पनिक है?

एक बड़े मकसद को सामने रखकर युवा लेखिका सान्या ने इस कहानी का खांचा खींचा है। इसलिए कल्पना तो है ही लेकिन कहीं न कहीं सच्ची घटना भी पीछे से दरवाजा खटखटा रही है। उसके साथ वरिष्ठ लेखक रूप जी व नीरज ने भी स्क्रीनप्ले को सहज गति का रखा है। पटकथा में कोई भगदड़ नहीं है। न कैमरा वर्क या एडिटिंग में। 

फिल्म की शूटिंग के दौरान कलाकारों और निर्देशक को किन सबसे बड़े चैलेंजों का सामना करना पड़ा?

यूपी की ठंड का और उस भोलेपन को बनाए रखने का चैलेंज था जो आज भी छोटे शहरों में अपना घोंसला बनाकर रहता है। वैसे उप्र की जनता और फिल्म बंधु के सहयोग ने हर चैलेंज को आसान बना दिया।

फिल्म की शूटिंग या स्क्रिप्टिंग के दौरान कोई ऐसा लम्हा या अनुभव रहा जो टीम के लिए हमेशा यादगार रहेगा?

टाइटल गीत की शूटिंग के दौरान फिल्म की लीड आशिमा वर्द्धन जैन के पैरों में छाले पड़ गए थे क्योंकि बेलीज पहनकर डांस करना था और कोरियोग्राफ़र मुदस्सर खान के लिए ये पहला मौका था जब किसी डायरेक्टर ने उनसे कहा था कि परफेक्शन नहीं चाहिए क्योंकि कहानी के हिसाब से डैला-बैला के पैर में चोट लगने के बाद का डांस है। इसीलिए सहज बनाने के लिए जरूरत से ज्यादा टेक लेने पड़े और आशिमा के पैरों में छाले पड़ गए।

क्या यह फिल्म स्कूल, कॉलेज या सरकारी संस्थानों में भी दिखाई जाएगी ताकि इसका सामाजिक संदेश अधिक लोगों तक पहुंचे?

बिजनौर के एक कॉलेज में ये रिलीज के दूसरे दिन ही दिखाई गई। मुंबई के एक बड़े स्कूल के मुख्य संचालक ने दिल्ली में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा आयोजित प्रीमियर में इस फिल्म को देखकर मुझसे इस फ़िल्म को अपने सभी स्कूलों कॉलेजों में स्मार्ट टीवी पर दिखाने की बात कही है। बड़ी विनम्रता से कहना चाहता हूं, ये स्वस्थ मनोरंजन और ‘सिंपल सिनेमा’ की मेरी अवधारणा की जीत है।

इस फिल्म से समाज में लड़कियों के प्रति सोच बदलने की कितनी उम्मीद है?

समाज तो बाद में आता है पहले लड़कियों को ख़ुद इस बदलाव की मशाल उठानी होगी और इसका ये संदेश समझना होगा कि ‘ख़ुद की तलाश किसी और के साथ नहीं हो सकती’, ‘ज़िंदगी के छोटे दायरों से बाहर आना ही होता है’ और ये भी कि ‘कुछ सफ़र अकेले ही तय करने होते हैं, अपना स्ट्रगल खुद ही करना होता है।

आज की तेजी से बदलती डिजिटल दुनिया में जब व्यावसायिक कंटेंट हावी है, ऐसे में सामाजिक और संवेदनशील विषयों पर आधारित फिल्मों के लिए दर्शक कितने तैयार हैं, इस बारे में आपका क्या मानना है?

दर्शक पूरी तरह तैयार हैं पूरी दुनिया में ये फ़िल्म देखी जा रही है। सबसे ज़्यादा आश्चर्य तो तब हुआ जब ये पता चला कि विदेशों में लोग एक-दूसरे को इस फिल्म को दिखा रहे हैं। खुद वेव्स ओटीटी डाउनलोड कर रहे हैं। अगर अमेरिका में इसे सराहा जा रहा है तो आस्ट्रेलिया में भी। ओमान, बहरीन, दुबई, सिंगापुर, जर्मनी, इंग्लैंड, साउथ अफ़्रीका व अन्य जगहों पर भी लोग इंग्लिश सबटाइटल के साथ इसे देख रहे हैं। फ़िल्म के गाने भी मिलियन व्यूज क्रास कर गये हैं। राज आशू के गीत-संगीत का ये एक नया दौर है और शान, हंसिका अय्यर, स्वाती शर्मा और सीपी झा की आवाज का भी। ये फिल्म वर्ड ऑफ माउथ से पूरी दुनिया में फैलती जा रही है। आप ख़ुद एआई के माध्यम से टाइप करें ‘ग्लोबल रिस्पांस ऑफ़ डैला बैला बदलेगी कहानी’ और स्वयं पढ़ लें कि दर्शकों की प्रतिक्रिया क्या है और वो ऐसी फिल्मों के लिए कितना तैयार हैं?

क्या भविष्य में इसी तरह के किसी अन्य सामाजिक मुद्दे पर फिल्म बनाने की योजना है?

मैं हमेशा ही मनोरंजन की ऊपरी परत के नीचे किसी न किसी सामाजिक संदेश की परत लेकर ही फ़िल्में बनाऊंगा, क्योंकि मैं मानता हूं मनोरंजन फ़िल्म के साथ खत्म नहीं होना चाहिए, उसे अपने अनकहे संदेश से हमेशा मन-मानस का रंजन करना चाहिए। आगे आनेवाली फिल्म में भी एक बेहद गंभीर मुद्दा है पर वो फिल्म भी गुदगुदाते हुए ही अपनी बात कहेगी।

यह फिल्म दर्शकों को कहां देखने को मिलेगी?

सबसे अच्छी बात ये है कि ये फ़िल्म WAVES OTT पर उपलब्ध है जिसे कोई भी अपने मोबाइल फोन, स्मार्ट टीवी, लैपटॉप या कम्प्यूटर पर फ़्री डाउनलोड कर सकता है और फ़्री में देख भी सकता है। WAVES OTT को प्ले स्टोर या ऐप स्टोर से बहुत आसानी से डाउनलोड कर सकते हैं। वहां WAVES OTT या WAVES PB लिखने से ऑप्शन दिखने लगेगा। उसको डाउनलोड करके अपनी भाषा चुनिए और फिर फोन नंबर भरकर ओटीपी डालकर फ़िल्म का नाम सर्च करके मुफ़्त में इस फ़िल्म का आनंद लीजिए। यह फिल्म दूरदर्शन पर भी दिखाई जाएगी।

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'यही विविधता हमें जटिल मुद्दों को समझदारी व संवेदनशीलता के साथ दिखाने में मदद करती है'

‘i24NEWS’ के चेयरमैन फ्रैंक मेलौल ने ‘एक्सचेंज4मीडिया’ के सीनियर एडिटर रुहैल अमीन के साथ बातचीत में फेक न्यूज की चुनौती, मीडिया में भरोसे की बहाली और टीवी पत्रकारिता के भविष्य पर बेबाक राय साझा की है।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 21 July, 2025
Last Modified:
Monday, 21 July, 2025
Frank Melloul

‘i24NEWS’ के चेयरमैन फ्रैंक मेलौल (Frank Melloul) ने इस इजरायली अंतरराष्ट्रीय न्यूज नेटवर्क को वैश्विक मीडिया में एक अलग पहचान दी है। उनका उद्देश्य था-मध्य पूर्व की स्टोरीज को दुनिया के सामने एक बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक दृष्टिकोण से रखना, जो सिर्फ संघर्षों तक सीमित न हों, बल्कि टेक्नोलॉजी, संस्कृति और मानवीय प्रयासों को भी दर्शाएं।

डिप्लोमेसी, मीडिया स्ट्रैटेजी और इंटरनेशनल ब्रॉडकास्टिंग के तीनों क्षेत्रों में उनके अनुभव ने उन्हें इस बात की गहरी समझ दी है कि पत्रकारिता किस तरह वैश्विक छवि और भू-राजनीतिक विमर्श को प्रभावित करती है। ‘एक्सचेंज4मीडिया’ के सीनियर एडिटर रुहैल अमीन के साथ एक विस्तृत बातचीत में फ्रैंक मेलौल ने संघर्ष क्षेत्रों में पत्रकारिता की भूमिका, फेक न्यूज़ की चुनौती, न्यूज मीडिया में भरोसे की बहाली और टीवी पत्रकारिता के भविष्य पर अपनी बेबाक राय साझा की। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:

वैश्विक मीडिया परिदृश्य में आपने क्या कमी देखी जिसके कारण आपने इजराइल से i24NEWS की शुरुआत की?

जब मैंने i24NEWS की शुरुआत की, तब ये साफ था कि इजराइल के पास ऐसा कोई अंतरराष्ट्रीय मंच नहीं था जो इसकी कहानी दुनिया तक निष्पक्षता के साथ पहुंचा सके। इजराइल एक जीवंत लोकतंत्र और इनोवेशन हब है, लेकिन इसकी छवि अकसर अधूरी या पक्षपाती रूप में सामने आती थी। मैंने ऐसा प्लेटफॉर्म बनाना चाहा जो अंग्रेजी, हिब्रू, फ्रेंच और अरबी में बात कर सके और सिर्फ टकराव नहीं, बल्कि इनोवेशन, संस्कृति और मानवीय जिजीविषा की कहानियों को भी सामने लाए।

जब मैंने मीडिया की वैश्विक तस्वीर देखी, तो मुझे यह महसूस हुआ कि इजराइल या पूरे मध्य पूर्व को लेकर एकतरफा नैरेटिव चलाया जाता है। इसी असंतुलन को दूर करने के लिए हमने i24NEWS की शुरुआत की, ताकि यहां से पूरी दुनिया को तथ्यपरक, संतुलित और विविध दृष्टिकोणों से खबरें मिल सकें। यह चैनल अंग्रेज़ी, फ्रेंच और अरबी तीन भाषाओं में काम करता है ताकि अधिक से अधिक दर्शकों तक पहुंचा जा सके।

अन्य ग्लोबल मीडिया आउटलेट्स से i24NEWS किस तरह अलग है?

हम सिर्फ इजराइल पर रिपोर्टिंग नहीं करते,बल्कि यहीं से प्रसारण भी करते हैं। इस क्षेत्र को हम अच्छी तरह समझते हैं, इसलिए हमारी नजरिया भी अलग होता है। हमारी टीमों में 35 देशों के लोग शामिल हैं, जो हमारे न्यूजरूम को विविधता और संतुलन देते हैं। यही विविधता हमें जटिल मुद्दों को समझदारी और संवेदनशीलता के साथ दिखाने में मदद करती है। सबसे ज़रूरी बात यह है कि हम तथ्यों पर भरोसा करते हैं, न कि किसी राय पर। हम अपनी तरफ से स्टोरी को मोड़ते नहीं, बल्कि जैसी घटना होती है, वैसी ही रिपोर्ट करते हैं—ताकि दर्शक अपनी राय खुद बना सकें।

आप अक्सर यह कहते हैं कि पत्रकारिता में लोगों का भरोसा लौटाना बहुत जरूरी है। i24NEWS इस भरोसे के संकट को कैसे दूर करता है?

आज मीडिया पर लोगों का भरोसा कम हो गया है। क्योंकि कई बार खबरों में पक्षपात, भ्रामक बातें और सनसनी होती है। लेकिन i24NEWS में हम खबर दिखाने से पहले हर तथ्य की पूरी जांच करते हैं, राय और खबर को अलग रखते हैं। मैं मानता हूं कि भरोसा एक दिन में नहीं बनता। हर दिन, हर खबर के साथ उसे कमाना पड़ता है।

आप कहते हैं कि मीडिया इजराइल के साथ पक्षपाती व्यवहार करता है। क्या आप इसकी वजह बता सकते हैं?

हां। मेरा मानना है कि इजराइल एक खुला लोकतांत्रिक देश होने के बावजूद कई बार दोहरे मापदंडों का शिकार होता है। दुनिया भर में इजराइल से जुड़ी खबरों को जिस तरह दिखाया जाता है, उसमें अक्सर संतुलन की कमी होती है। हमें आलोचना से परेशानी नहीं है, लेकिन हम चाहते हैं कि रिपोर्टिंग निष्पक्ष हो। जब भी इजराइल की खबरें दिखाई जाती हैं, तो उस समय का पूरा संदर्भ समझना जरूरी होता है  और अक्सर वही संदर्भ नहीं दिखाया जाता। इसलिए मैं मानता हूँ कि मीडिया की रिपोर्टिंग में इजराइल के साथ भेदभाव हुआ है, सिर्फ खबरें दिखाने के तरीके से नहीं, बल्कि उस एकतरफा नजरिए और चुनिंदा जांच के कारण जो बार-बार सामने आता है।

युद्ध और अशांति के समय, मीडिया को क्या भूमिका निभानी चाहिए, विशेषकर इजरायल-गाजा संघर्ष जैसी घटनाओं के दौरान?

मीडिया का काम जानकारी देना है, लोगों की भावनाएं भड़काना नहीं। संघर्ष के समय सच्चाई सबसे पहले शिकार बनती है। ऐसे में हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि हम शांत रहें, हर तथ्य की पुष्टि करें और हर पक्ष की बात सामने लाएं, चाहे वह हमारे लिए असहज ही क्यों न हो। i24NEWS ने इज़राइल-गाजा जैसे संघर्षों के दौरान भी बिना सनसनी फैलाए रिपोर्टिंग की। यह सिर्फ हेडलाइन की बात नहीं है,  यह मानव जीवन, भू‑राजनीति और दीर्घकालिक परिणामों की बात है।

 तकनीकी में तेजी से हो रहे बदलावों के दौर में न्यूजरूम खुद को कैसे अपडेट रखें ताकि पीछे न छूटें?

यह बहुत जरूरी है, क्योंकि आज का दर्शक डिजिटल, मोबाइल और दुनियाभर से जुड़ा है। हमने नए स्टूडियो, आधुनिक तकनीक और सोशल मीडिया से जुड़ाव पर ध्यान दिया है। लेकिन बदलाव सिर्फ मशीनों से नहीं होता, सोच से होता है। इसका मतलब है नए तरीके अपनाना, दर्शकों से जुड़ना और ऐसी स्टोरीज कहना जो उन्हें गहराई से छू सकें।

क्या आपका नेटवर्क इजराइल से संचालित होने से आपकी पत्रकारिता पर किसी तरह का दबाव या निगरानी बढ़ जाती है?

बिल्कुल, इजराइल में रहते हुए हमारी पत्रकारिता पर हर वक्त नजर रखी जाती है, खासकर जब हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ कहते हैं। लेकिन यही बात हमें और मजबूत बनाती है। हम हर खबर को पूरी सटीकता, पारदर्शिता और जिम्मेदारी से बताते हैं। इस दबाव ने हमें बेहतर काम करना सिखाया है, क्योंकि यहां गलती की कोई गुंजाइश नहीं होती।

आपके मुताबिक, एआई जैसी नई तकनीकें पत्रकारिता को कैसे बदल रही हैं, खासकर फेक न्यूज से लड़ने में?

एआई एक ताकतवर टूल है, लेकिन यह फायदे के साथ-साथ नुकसान भी पहुंचा सकता है। इससे न्यूज़रूम तेजी से काम कर सकते हैं और ज़्यादा असरदार बन सकते हैं, लेकिन अगर ठीक से इस्तेमाल न हो तो यह गलत जानकारी भी बहुत फैला सकता है। पत्रकारिता का भविष्य सच की जांच, इंसानी समझ और नैतिक मूल्यों पर टिका है। हम i24NEWS में एआई का इस्तेमाल करने के तरीके ढूंढ रहे हैं, लेकिन साथ ही यह भी सुनिश्चित कर रहे हैं कि संपादकीय नैतिकता बनी रहे।

i24NEWS की अब संयुक्त अरब अमीरात और उसके बाहर भी मौजूदगी बढ़ रही है। आप इस विस्तार को कैसे देखते हैं?

यह दिखाता है कि मध्य पूर्व अब कैसे बदल रहा है। दुबई में हमारा दफ्तर सिर्फ़ दिखावे के लिए नहीं है, बल्कि एक सोच-समझकर उठाया गया कदम है। अब्राहम समझौते ने कई नए मौके पैदा किए हैं, और हम उस बातचीत का अहम हिस्सा बनना चाहते हैं। हमारा मकसद लोगों को जोड़ना है, दूर करना नहीं।

लोगों को आप i24NEWS के बारे में सबसे ज़्यादा क्या बात समझाना चाहते हैं?

हम यहां पूरी बात तथ्यात्मक रूप से बताने के लिए हैं।  चाहे वह राजनीति से जुड़ी हो, तकनीक से या किसी लोगों के अनुभव से। हमारा मकसद लोगों के सामने सच्ची बातें लाना है। हम इजराइल का प्रचार नहीं करते। हम सच्चाई के साथ हैं, बातचीत के पक्ष में हैं और सच्ची पत्रकारिता का समर्थन करते हैं। 

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‘कम्युनिकेटर ऑफ द ईयर’ बनीं Stryker India की गीतिका बांगिया, साझा की अपनी जर्नी

गीतिका बांगिया ने ‘कम्युनिकेटर ऑफ द ईयर’ अवॉर्ड जीतने के अनुभव, अपने करियर की यात्रा, इससे मिली अहम सीखों और कम्युनिकेशन इंडस्ट्री में अब तक सामने आई चुनौतियों के बारे में बात की।

Samachar4media Bureau by
Published - Saturday, 19 July, 2025
Last Modified:
Saturday, 19 July, 2025
Geetika781

कम्युनिकेशन इंडस्ट्री के निर्माण में महिलाओं की भूमिका हमेशा महत्वपूर्ण रही है, भले ही उनकी कहानियां हमेशा सुर्खियों में न रही हों। इस क्षेत्र में कई ऐसी असाधारण महिलाएं हैं जिनकी प्रतिभा हमारी दुनिया को आकार देती है, वे सहानुभूति और नवाचार को ऐसे जोड़ती हैं जिससे संवाद अधिक मानवीय, समावेशी और प्रभावशाली बनता है।

आज की यह प्रस्तुति गीतिका बांगिया, हेड – कॉर्पोरेट कम्युनिकेशंस, स्ट्राइकर इंडिया की उपलब्धियों को समर्पित है। गीतिका को हाल ही में e4m PR & Corp Comm Women Achievers Awards 2024 में ‘कम्युनिकेटर ऑफ द ईयर (कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन प्रोफेशनल)’ का सम्मान मिला है। यहां पढ़िए उनकी सफलता की खूबियां-

कम्युनिकेशन इंडस्ट्री में आपकी यात्रा कैसी रही? एक महिला लीडर के रूप में अपने अनुभव और चुनौतियां साझा करें।

मेरा कम्युनिकेशन करियर करीब दो दशकों से अधिक का है। यह उस दौर से शुरू हुआ जब प्रेस रिलीज फिजिकली भेजी जाती थी और अब डिजिटल युग और व्यापक स्टेकहोल्डर एंगेजमेंट के जमाने तक पहुंच गया है।

एक महिला लीडर के तौर पर कई बार ऐसे अनुभव हुए जब मेरी बातें तब तक अनसुनी रहीं जब तक वही बातें किसी पुरुष सहयोगी ने नहीं दोहराईं। इन अनुभवों ने मुझे नेतृत्व के तौर-तरीके सिखाए और यह भी कि महिलाओं के लिए और खुद अपने लिए, मजबूती से खड़ा होना कितना जरूरी है।

महामारी के दौर ने यह साफ कर दिया कि इमोशनल इंटेलिजेंस एक अहम बिजनेस एसेट है। संकट प्रबंधन और ब्रैंड स्टोरीटेलिंग में सहानुभूति की रणनीतिक भूमिका को पहली बार इतने व्यापक रूप में पहचाना गया। आज की सबसे बड़ी चुनौती है, हमेशा जुड़े रहने वाले इस दौर में प्रोफेशनल जिम्मेदारियों और निजी जीवन के बीच संतुलन बनाना। मैंने पाया है कि प्रामाणिक नेतृत्व हमारे हाइब्रिड कार्य वातावरण में टीमों के बीच मजबूत जुड़ाव पैदा करता है और काम की प्रभावशीलता बढ़ाता है।

PR और कम्युनिकेशन इंडस्ट्री में सफलता पाने के लिए महिला लीडर्स में कौन-कौन सी स्किल्स और खूबियां होनी चाहिए?

किसी भी प्रभावशाली लीडर में तकनीकी जानकारी के साथ कुछ मूल क्षमताओं का संतुलन होना जरूरी है। सबसे पहले – स्टोरीटेलिंग की कला। यानी ऐसे नैरेटिव्स रचना जो सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में ब्रैंड की प्रासंगिकता को दर्शाएं। दूसरा – रणनीतिक लचीलापन। यानी फुर्तीले जवाबों और दीर्घकालिक दृष्टिकोण के बीच संतुलन। सफल लीडर्स आने वाले बदलावों की पहले से आहट लेते हैं और जब योजनाएं बदलती हैं तब भी शांत रहते हैं। और तीसरा – इमोशनल इंटेलिजेंस। यानी स्टेकहोल्डर्स के दृष्टिकोण को समझना और प्रामाणिक संबंध बनाना। आज के माहौल में, जब दर्शक नेतृत्व से सच्चे जुड़ाव की अपेक्षा रखते हैं, यह स्किल बेहद मूल्यवान बन गई है।

इन सभी क्षमताओं को एक साथ साधना ही उन कम्युनिकेशन लीडर्स को अलग करता है जो संबंध-निर्माण और प्रामाणिकता को प्राथमिकता देते हैं।

कम्युनिकेशन इंडस्ट्री में करियर की शुरुआत कर रही युवतियों को आप क्या सलाह देंगी?

मेरी सलाह है:

  • दूसरों की तरह बनने की कोशिश मत करो, अपनी बात कहने का खुद का तरीका अपनाओ। तुम्हारी सोच अलग है और वही तुम्हें खास बनाती है।

  • पारंपरिक लेखन कौशल के साथ-साथ नए डिजिटल प्लेटफॉर्म्स को भी समझें। आज के कामयाब कम्युनिकेटर वही हैं जो तकनीक और मूल कौशल का मेल जानते हैं।

  • ऐसे प्रोफेशनल रिश्ते बनाएं जो आपसी मूल्य पर आधारित हों। विविध अनुभवों वाले मेंटर्स से जुड़ें।

  • रचनात्मकता और विश्लेषणात्मकता दोनों को विकसित करें। आधुनिक कम्युनिकेशन में कहानी सुनाने की कला के साथ-साथ डाटा को समझने की क्षमता भी जरूरी है।

  • सीखने, पुराना छोड़ने और फिर से सीखने से कभी पीछे न हटें। इससे आप लगातार बेहतर बनते हैं।

e4m PR & Corp Comm Women Achievers Awards 2024 जीतने पर आपको कैसा लग रहा है?

यह अवॉर्ड मेरे लिए प्रोफेशनल मान्यता और व्यक्तिगत विनम्रता दोनों लेकर आया है। यह सिर्फ मेरे काम का नहीं, बल्कि इस इंडस्ट्री में महिलाओं के नेतृत्व की बढ़ती स्वीकार्यता का सम्मान है।

अपने करियर के शुरुआती दिनों को याद करती हूं तो महिलाओं की नेतृत्व भूमिकाएं बेहद कम थीं। ऐसे में आज यह सम्मान मेरी टीम के साथ साझा करना और युवा प्रोफेशनल्स के लिए प्रेरणा बनना मेरे लिए बहुत मायने रखता है। एक युवा सहयोगी ने मुझसे कहा कि इस तरह की पहचान देखकर उसे पहली बार महसूस हुआ कि उसका करियर भी असीमित संभावनाओं से भरा हो सकता है।

यह सम्मान उपलब्धि भी है और जिम्मेदारी भी। अगली पीढ़ी की महिलाओं के लिए और ज्यादा अवसरों का मार्ग प्रशस्त करने की प्रेरणा।

'एक्सचेंज4मीडिया' टीम का धन्यवाद, जिन्होंने इस तरह के मंचों की रचना की।

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जिस दिन इन्वेस्टर ने ये बात समझ ली, उस दिन उसे पैसा बनाना आ जाएगा: अनिल सिंघवी

‘जी बिजनेस’ के मैनेजिंग एडिटर अनिल सिंघवी ने समाचार4मीडिया से बातचीत में स्टॉक मार्केट, निवेश और मीडिया से जुड़े अहम मुद्दों पर बेबाकी से अपने विचार साझा किए।

pankaj sharma by
Published - Saturday, 05 July, 2025
Last Modified:
Saturday, 05 July, 2025
Anil Singhvi.

बिजनेस न्यूज चैनल ‘जी बिजनेस’ (Zee Business) और फाइनेंशियल ऐप ‘धन’ (Dhan) द्वारा संयुक्त रूप से 5 जुलाई 2025 को दिल्ली स्थित भारत मंडपम में विशेष कार्यक्रम ‘एक कदम Dhan की ओर’ (Ek Kadam Dhan Ki Ore) का आयोजन किया गया। इस अवसर पर ‘जी बिजनेस’ के मैनेजिंग एडिटर और देश के प्रमुख शेयर बाजार विश्लेषकों में से एक अनिल सिंघवी से समाचार4मीडिया ने खास बातचीत की। इस दौरान उन्होंने स्टॉक मार्केट, निवेश और मीडिया से जुड़े अहम मुद्दों पर बेबाकी से अपने विचार साझा किए। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:

 ‘एक कदम Dhan की ओर’ जैसे आयोजन आज के निवेशकों के लिए कितने जरूरी हैं? आप इस मंच की सबसे अहम बात क्या मानते हैं?

निवेशकों को दो ही वक्त सलाहकार की जरूरत होती है—जब बाजार तेज होता है और जब मंदी आती है। तेजी में अक्सर लोग खुद को एक्सपर्ट समझ बैठते हैं और बिना सोचे-समझे निवेश कर बैठते हैं। वहीं मंदी में डर सताता है। ऐसे में ‘एक कदम Dhan की ओर’ जैसे कार्यक्रमों का मकसद यह है कि लोगों को सही समय, सही जगह, और सही तरीके से निवेश करने के बारे में बताया जाए। यही वजह है कि हम देशभर में ये आयोजन कर रहे हैं।

इस कार्यक्रम में देशभर से फंड CEOs और मार्केट प्रोफेशनल्स जुटे हैं। आपको क्या लगता है, ऐसे संवादों से आम निवेशकों को क्या व्यावहारिक लाभ होता है?

टीवी पर लोग हमें देखते-सुनते हैं, लेकिन आमने-सामने सवाल पूछने का मौका कम ही मिलता है। ऐसे आयोजनों में पैनल डिस्कशन के अलावा हम जनता के लिए मंच खोल देते हैं, जहां वे पोर्टफोलियो से लेकर किसी खास स्टॉक तक के सवाल पूछ सकते हैं। इससे उनका भरोसा बढ़ता है और उन्हें सही मार्गदर्शन मिलता है।

आप वर्षों से निवेशकों के व्यवहार को समझते आए हैं। क्या आपको लगता है कि आज का निवेशक पहले की तुलना में ज्यादा सजग और शिक्षित हो गया है?

बिल्कुल! आज के निवेशकों में जितनी मैच्योरिटी है, उतनी शायद पहले नहीं थी। SIP के जरिये निवेश लगातार बढ़ रहा है। यंग इन्वेस्टर्स भी अब पहले की तुलना में कहीं ज्यादा समझदार हैं। डिजिटल क्रांति, मीडिया, ऐप्स और इन्फ्लुएंसर्स ने मिलकर एक ऐसा ईकोसिस्टम बनाया है जिससे लोग अब सोच-समझकर निवेश कर रहे हैं।

छोटे निवेशकों को आज सबसे बड़ी चुनौती क्या दिखती है – जानकारी की कमी, डर, या लालच?

सबसे बड़ी चुनौती है जानकारी की कमी और गलत धारणा कि शेयर बाजार से बिना मेहनत के बहुत जल्दी पैसा बनाया जा सकता है। निवेश को एक गंभीर प्रक्रिया के रूप में समझना जरूरी है। लालच और डर तभी नियंत्रित होंगे जब सही जानकारी होगी।

आज के बाजार को आप किस स्टेज में मानते हैं – अवसर का समय है या सतर्कता का?

ये समय अवसरों से भरा हुआ है। अगर आपका नजरिया 3-5 साल का है, तो मौजूदा स्तरों पर निवेश करना बिलकुल सही है। सतर्कता जरूरी है कि पैसा कहां लगाया जा रहा है, लेकिन पैसा लगाना चाहिए या नहीं—इस पर कोई संदेह नहीं होना चाहिए।

आप अक्सर कहते हैं कि ‘धैर्य सबसे बड़ा हथियार है’। क्या नए निवेशकों को यह बात समझ आती है? कोई उदाहरण देना चाहेंगे?

निवेशक नए हों या पुराने—धैर्य उम्र और अनुभव से आता है। मैं मानता हूं कि नए निवेशकों को शुरुआत में ही बाजार का झटका लगना चाहिए ताकि उन्हें समझ आए कि पैसा कैसे बनता है और कैसे जाता है। यही समझ उन्हें सच्चा निवेशक बनाएगी। मैं तो चाहता हूं जैसे ही कोई इन्वेस्टर बाजार में आए उसको तुरंत ही झटका लग जाना चाहिए। जिस दिन किसी इन्वेस्टर ने ये समझ लिया कि पैसा कैसे जाता है उस दिन उसको पैसा बनाना आ जाएगा।

आपके अनुभव में, फाइनेंशियल लिटरेसी को बढ़ाने में मीडिया की भूमिका कितनी निर्णायक रही है, खासकर पिछले कुछ वर्षों में?

बहुत बड़ी भूमिका रही है। सिर्फ खबर देना ही नहीं, लोगों को सिखाना और समझाना भी हमारा दायित्व है। सेविंग से लेकर वेल्थ क्रिएशन तक की यात्रा को सरल भाषा में समझाना जरूरी है। अगर कोई निवेशक बिजनेस चैनल की जरूरत महसूस न करे, तो समझिए कि हमने अपना काम सही किया।

क्या आपको लगता है कि हिंदी भाषा में फाइनेंशियल कंटेंट की मांग और पहुंच दोनों तेजी से बढ़ी है?

बिलकुल! अंग्रेजी मजबूरी थी, हिंदी पसंद है। हमने साबित किया कि बिजनेस की भाषा भी हिंदी हो सकती है और हम बाजार को सरलतम भाषा में समझा सकते हैं। जितना दोस्त बनकर सिखाएंगे, लोग उतना ही सीखेंगे।

आप खुद भी एक गाइड की तरह लाखों निवेशकों से जुड़े हैं। क्या अब भी कोई बात या प्रतिक्रिया है जो आपको व्यक्तिगत रूप से छू जाती है?

ऐसे कई किस्से हैं। मुंबई की एक 85 वर्षीय नेत्रहीन महिला जो मेरी आवाज से मुझे पहचानती थीं और अपने अंतिम समय तक अपने शेयर मेरे कहे बिना नहीं बेचना चाहती थीं। ऐसे अनुभव बताते हैं कि लोग मुझ पर कितना विश्वास करते हैं। मैं खुद को केवल एक माध्यम मानता हूं, भाग्य तो सबका ऊपरवाला लिखता है।

आपने लाखों निवेशकों से संवाद किया है—ऐसी एक सलाह जो हर निवेशक को जीवन भर याद रखनी चाहिए, वो क्या होगी?

इस बारे में मैं सिर्फ एक ही बात कहूंगा। ‘देयर इज़ नो सब्स्टीट्यूट टू हार्ड वर्क।‘ यानी कड़ी मेहनत का कोई विकल्प नहीं है। सफलता आसान नहीं होती। जितना ऊंचा जाना चाहते हैं, उतनी ही मेहनत करनी पड़ेगी। सफलता एक स्थायी जगह नहीं है, वहां टिके रहना असली चुनौती है।

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मीडिया में डॉ. अनुराग बत्रा के पूरे हुए 25 साल, इंडस्ट्री में बदलावों को लेकर कही ये बात

BW बिजनेसवर्ल्ड के चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ और एक्सचेंज4मीडिया ग्रुप के फाउंडर डॉ. अनुराग बत्रा ने ‘द गुड लाइफ पॉडकास्ट’ में बातचीत के दौरान अपने मीडिया सफर के 25 वर्षों पर विस्तार से चर्चा की।

Samachar4media Bureau by
Published - Friday, 04 July, 2025
Last Modified:
Friday, 04 July, 2025
DrAnnuragBatra87

BW बिजनेसवर्ल्ड के चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ और एक्सचेंज4मीडिया ग्रुप के फाउंडर डॉ. अनुराग बत्रा ने ‘द गुड लाइफ पॉडकास्ट’ में एक प्रेरणादायक बातचीत के दौरान अपने मीडिया सफर के 25 वर्षों पर विस्तार से चर्चा की।

बातचीत की शुरुआत में उन्होंने ब्रायन क्लास की किताब Fluke से एक गहरी बात साझा की, “हम अपनी कामयाबी का सारा श्रेय खुद को देते हैं, जबकि उसका बहुत हिस्सा संयोग या ईश्वर की देन होता है।” डॉ. बत्रा ने बताया कि एक्सचेंज4मीडिया की स्थापना कोई सोचा-समझा बिजनेस प्लान नहीं था, बल्कि यह एक संयोग और समय की कृपा से हुआ।

एक बी2बी मार्केटप्लेस के तौर पर शुरू हुआ एक्सचेंज4मीडिया आज एक व्यापक मीडिया इकोसिस्टम बन चुका है। पिच, इम्पैक्ट, रिएल्टी+, समाचार4मीडिया जैसी ब्रैंड्स इस नेटवर्क के हिस्से हैं, जो मीडिया, रियल एस्टेट और मार्केटिंग इंडस्ट्री की अलग-अलग जरूरतों को पूरा करते हैं। वहीं 45 साल पुराना बिजनेसवर्ल्ड स्वतंत्र रूप से संचालित होता है। दोनों का उद्देश्य—विश्वसनीयता, विशेषज्ञता और सार्थक कहानी कहना।

मीडिया, मार्केटिंग और तकनीक का विलय

बीते दो दशकों में मीडिया और विज्ञापन इंडस्ट्री में आए बदलावों पर चर्चा करते हुए डॉ. बत्रा कहते हैं, “आज कंटेंट, कम्युनिटी और कॉमर्स—इन तीन शक्तिशाली ताकतों का संगम हो रहा है। मैडिसन एवेन्यू (विज्ञापन), हॉलीवुड (मनोरंजन), और सिलिकॉन वैली (टेक्नोलॉजी) अब अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि एक हो चुके हैं।”

वो बताते हैं कि दुनिया की $1 ट्रिलियन की विज्ञापन इंडस्ट्री में से $650 बिलियन डिजिटल पर खर्च हो रहा है, जिसमें से $460 बिलियन सिर्फ दो कंपनियों—गूगल और मेटा के पास है।

“YouTube ने भारतीय क्रिएटर्स को 21,000 करोड़ रुपये से ज्यादा का भुगतान किया है”

यह आंकड़ा दर्शाता है कि क्रिएटर इकोनॉमी अब सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि प्रभावशाली कमाई और ब्रैंड निर्माण का जरिया बन गई है। “क्रिएटर्स अब केवल इंफ्लुएंसर नहीं रहे, वे खुद में एक क्रिएटिव ब्रैंड बन चुके हैं,” डॉ. बत्रा कहते हैं।

AI से डरने की नहीं, उसे अपनाने की जरूरत

AI की बात करते हुए डॉ. बत्रा कहते हैं, “AI टेक्स्ट को वीडियो में बदल सकता है, ऑडियो बना सकता है, यहां तक कि AI एंकर भी तैयार कर सकता है। लेकिन पत्रकारों को यह समझना होगा कि AI उन्हें रिप्लेस नहीं करेगा—जब तक वे खुद इसका उपयोग करना न छोड़ दें।”

उनके अनुसार, पत्रकारों और न्यूजरूम को AI के साथ प्रयोग करने और उसे अपनाने की जरूरत है, ताकि उनकी प्रासंगिकता बनी रहे।

फेक न्यूज और ट्रस्ट का संकट

“हम आज नैरेटिव वॉरफेयर के युग में हैं। हम नहीं जानते कि कौन सी जानकारी सही है और कौन सी झूठ,” डॉ. बत्रा कहते हैं। उनका सुझाव है कि लोग WhatsApp और सोशल मीडिया पर दिख रही हर चीज पर यकीन न करें, बल्कि रक्षा मंत्रालय जैसी विश्वसनीय संस्थागत स्रोतों से जानकारी लें।

ग्राहक अब अनुभव चाहते हैं—और वे इसके लिए भुगतान करने को तैयार हैं

वो बताते हैं कि आज की पीढ़ी अनुभवों पर खर्च कर रही है। कॉन्सर्ट्स, समिट्स और लिटरेचर फेस्टिवल्स शहरों को हिला देते हैं। “अगर आप अच्छा, अलग और इमर्सिव कंटेंट देंगे तो लोग उसके लिए पैसे भी देंगे।” The Ken, Mint, Morning Context जैसी सब्सक्रिप्शन साइट्स इसका उदाहरण हैं।

डिजिटल का दौर, लेकिन परंपरागत मीडिया भी जिंदा है

“लोग कई सालों से कह रहे हैं कि अख़बार खत्म हो जाएंगे, लेकिन आज भी वे विश्वसनीयता के लिए सबसे ऊपर हैं,” डॉ. बत्रा कहते हैं। New York Times और Washington Post जैसे ब्रैंड्स ने यह साबित कर दिया है कि डिजिटल में भी गुणवत्ता और विश्वसनीयता बनाए रखी जा सकती है।

इंफ्लुएंसर fatigue और डिजिटल विज्ञापन में धोखाधड़ी

डॉ. बत्रा मानते हैं कि कुछ इंफ्लुएंसर बहुत महंगे हो गए हैं और उनके रिटर्न भी घटते जा रहे हैं। इसके अलावा, डिजिटल विज्ञापन में धोखाधड़ी—जैसे बॉट्स और क्लिक फ्रॉड—भी बढ़ रही है। “20-30%, कभी-कभी 40% तक डिजिटल खर्च बेकार चला जाता है,” वे चेताते हैं।

AI पत्रकारों को नहीं हटाएगा—लेकिन पत्रकारों को खुद को अपग्रेड करना होगा

“लोग आज भी इंसानों को फॉलो करते हैं। एक एंकर की सोच, उसका अंदाज, उसकी राय—ये चीजें AI नहीं बना सकता,” डॉ. बत्रा स्पष्ट करते हैं।

‘YOLO’ युग में अनुभव की भूख

डॉ. बत्रा मानते हैं कि महामारी के बाद लोग असली अनुभवों के लिए तरस गए हैं। “एक कॉन्सर्ट ने अहमदाबाद जैसे शहर को हिला दिया,” वे उदाहरण देते हैं। उनका मानना है कि ईवेंट्स अब कंटेंट, कम्युनिटी और कॉमर्स का विस्तार बन चुके हैं।

मीडिया का राष्ट्रीय संकट में रोल

हाल की भारत-पाकिस्तान घटनाओं का जिक्र करते हुए वे कहते हैं, “जब प्रधानमंत्री ने बयान दिया, उन्होंने स्पष्टता और आश्वासन दोनों दिए। यह बताया कि सीजफायर भारत की शर्तों पर हुआ।” उनका मानना है कि ऐसे समय में मीडिया की जिम्मेदारी बढ़ जाती है, गलत जानकारी पर आधारित राय जनता को भटका सकती है।

AI और Deepfakes के युग में जिम्मेदार पत्रकारिता की जरूरत

वे आश्वस्त करते हैं, “Deepfake बनाने के 10 तरीके हैं, लेकिन पकड़ने के 20 टूल्स भी हैं।”  उनका मानना है कि जैसे-जैसे डिजिटल इकोसिस्टम बढ़ेगा, फेक न्यूज को रोकने के उपाय भी मजबूत होंगे।

मीडिया संस्थानों की जिम्मेदारी

“फिल्टर किया हुआ ज्ञान ही उपयोगी होता है, जैसे आप सड़क का गंदा पानी नहीं पीते, वैसे ही अनफ़िल्टर्ड जानकारी भी नहीं पढ़नी चाहिए।” वे कहते हैं कि परंपरागत मीडिया संस्थानों को इस क्यूरेशन की भूमिका निभानी चाहिए।

‘गुड लाइफ’ क्या है?

डॉ. बत्रा के लिए अच्छी जिंदगी का मतलब है- रिश्तों की गहराई, सेहत और अपने काम में खुशी पाना। वे कहते हैं, “अगर आप वही काम कर रहे हैं जिससे आपको खुशी मिलती है और वह आपका व्यवसाय भी है तो आपने जीत हासिल कर ली है।”

और अंत में, वे अपने पसंदीदा लेखक रैंडी पॉश के शब्दों के साथ बातचीत खत्म करते हैं और कहते हैं, “अनुभव वही होता है, जो तब मिलता है जब हम वो नहीं पाते जो हम चाहते हैं।” 

यहां देखें वीडियो इंटरव्यू:

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"पिक्चर अभी बाकी है": मार्कंड अधिकारी ने मीडिया की बदली दुनिया पर रखे विचार

देश की मीडिया क्रांति के चश्मदीद और श्री अधिकारी ब्रदर्स ग्रुप के चेयरमैन व MD मार्कंड अधिकारी ने एक्सचेंज4मीडिया से एक खुली और बेबाक बातचीत में इंडस्ट्री में आए बुनियादी बदलावों पर विस्तार से बात की।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 23 June, 2025
Last Modified:
Monday, 23 June, 2025
MarkandAdhikari84512

भारत की मीडिया क्रांति के चश्मदीद और श्री अधिकारी ब्रदर्स ग्रुप के चेयरमैन व मैनेजिंग डायरेक्टर मार्कंड अधिकारी ने एक्सचेंज4मीडिया से एक खुली और बेबाक बातचीत में इंडस्ट्री में आए बुनियादी बदलावों पर विस्तार से बात की। भारत की पहली लिस्टेड मीडिया कंपनी खड़ी करने वाले मार्कंड अधिकारी ने डिजिटल बदलाव, साउथ की फिल्मों का बोलबाला, टूटते बिजनेस मॉडल और दूरदर्शन की संभावित वापसी तक हर पहलू पर अपनी बेबाक राय रखी।

आप पिछले चार दशकों से भारत की मीडिया क्रांति का हिस्सा रहे हैं। इन वर्षों में आपको सबसे बड़ा बदलाव क्या लगता है?

सच कहूं तो बीते दस सालों में सबसे ज्यादा बदलाव हुए हैं। डिजिटल ने पूरी दुनिया ही पलट दी है। पहले लोग अपने दिन का शेड्यूल टीवी के प्रोग्रामिंग हिसाब से बनाते थे। आज टीवी भी बस एक और स्क्रीन बन गया है। ओटीटी ने टाइम-बाउंड देखने का कॉन्सेप्ट ही खत्म कर दिया है। अब लोग जो चाहें, जब चाहें, जहां चाहें, देख सकते हैं।

लेकिन इतनी सहूलियत के साथ कंटेंट की बाढ़ भी आ गई है। क्या यह कंटेंट ओवरलोड नहीं बन गया?

बिल्कुल। जब किसी चीज का उत्पादन बहुत ज्यादा हो जाता है, तो उसकी गुणवत्ता पर असर पड़ता है। कुछ कंटेंट शानदार होता है, लेकिन बहुत सारा ऐसा है जो देखने लायक नहीं। दर्शकों के पास अब विकल्प इतने ज्यादा हैं कि समझ नहीं आता वो समय कैसे निकालते हैं। प्लेटफॉर्म्स प्रोडक्शन पर भारी खर्च कर रहे हैं, लेकिन उसमें से कितना टिकता है, ये सोचने की बात है।

आपने फिक्शन, नॉन-फिक्शन और फिल्मों जैसे कई फॉर्मेट्स में काम किया है। आज के दौर में किस तरह का कंटेंट चलता है?

अधिकारी: इसका कोई फिक्स फॉर्मूला नहीं है। आखिर में दर्शक ही तय करते हैं कि क्या चलेगा। इसमें किस्मत का भी रोल होता है। जैसे देखिए, पिछले साल बॉलीवुड की सिर्फ तीन फिल्में ही ठीक से चलीं। दूसरी तरफ ‘पुष्पा’ को लें, आज का सबसे बड़ा पैन-इंडिया हीरो अल्लू अर्जुन है, कोई बॉलीवुड स्टार नहीं। उसकी फिल्म ने दुनियाभर में ₹2000 करोड़ कमाए, जिसमें से ₹850 करोड़ तो हिंदी मार्केट से आए। यह कैश में टिकट कलेक्शन है- लोगों ने जेब से पैसे देकर देखा। यह असली कामयाबी है।

और वहीं दूसरी तरफ बॉलीवुड स्टार्स ₹100 करोड़ फीस मांगते हैं?

हां, और प्राइवेट चार्टर्ड फ्लाइट्स में उड़ते हैं, जिनका खर्च प्रड्यूसर उठाता है। पहले तो स्टार्स को कमर्शियल फ्लाइट्स में देखा जाता था, अब वो भी नहीं दिखते। और विडंबना देखिए, इन फिल्मों की P&A (प्रिंट और एडवर्टाइजिंग) लागत तक नहीं निकल पाती। हमें हॉलीवुड मॉडल अपनाना चाहिए, जहां एक्टर्स और डायरेक्टर्स को फिल्म की कमाई के प्रतिशत पर भुगतान होता है। फिल्म हिट तो सबका फायदा, फ्लॉप तो किसी का नहीं। आज तो फिल्म को ₹200 करोड़ प्रोजेक्ट बता कर अनाउंस करते हैं, और रिलीज के समय कहते हैं कि ₹100 करोड़ की फिल्म थी, ताकि शर्म बचाई जा सके। जबकि वो भी रिकवर नहीं होती।

तो आप कह रहे हैं कि इंडस्ट्री का पूरा इकोनॉमिक स्ट्रक्चर ही गड़बड़ है?

बिल्कुल। सारा पैसा एक्टर्स पर खर्च हो रहा है, जबकि दर्शकों की पसंद को समझा नहीं जा रहा। दूसरी तरफ, साउथ इंडस्ट्री आगे इसलिए है क्योंकि वो लोगों को सिनेमाघर तक खींच लाने लायक अनुभव दे रही है। हिंदी दर्शक अब परिपक्व हो गए हैं। उन्हें रियलिस्टिक चीजें चाहिए और ओटीटी उन्हें वही दे रहा है।

ओटीटी अब टीवी और सिनेमा दोनों की जगह ले रहा है। क्या आप इससे सहमत हैं?

पूरी तरह से। आज फिल्मों का वजूद ओटीटी पर निर्भर है। अगर ओटीटी उन्हें न खरीदे, तो फिल्म बनना ही बंद हो जाए। कई थिएटर रिलीज उतनी कमाई भी नहीं करती जितनी ओटीटी दे देता है—क्यों देते हैं, वो खुद ही जानें। ये प्लेटफॉर्म विदेशी कंपनियों के पास हैं, जैसे Amazon, Netflix—जिन्हें भारत की जमीनी हकीकत की पूरी समझ शायद नहीं है। एक फिल्म को ₹50 करोड़ में खरीद लिया, जो बॉक्स ऑफिस पर ₹20 करोड़ भी नहीं कमा सकी। अब फिल्में ओटीटी के लिए ही बन रही हैं।

लेकिन पिछले साल से ओटीटी बजट में भी कटौती हो रही है। इसकी वजह?

क्योंकि यह मॉडल टिकाऊ नहीं है। ओटीटी कंटेंट के लिए फिल्म जैसी क्वालिटी चाहिए होती है, लेकिन इनका बिजनेस सब्सक्रिप्शन पर चलता है। और भारत में लोग ₹150 महीने का सब्सक्रिप्शन लेने से पहले भी दस बार सोचते हैं। खर्च और आमदनी में तालमेल नहीं है। फिर भी प्लेटफॉर्म्स हिंदी फिल्मों के लिए बेहिसाब पैसे दे रहे थे। यही असली समस्या है।

आपने SAB TV और मस्ती जैसे चैनल लॉन्च किए। अच्छा कंटेंट बनाने का ‘सीक्रेट सॉस’ क्या है?

कोई तय फॉर्मूला नहीं होता। कंटेंट एक 'इंस्टिंक्ट' है। आपको जनता की नब्ज पकड़नी होती है, "जमीन से जुड़ा" होना जरूरी है। जो रचनाकार जनता की भावनाओं को समझता है, वही कुछ अर्थपूर्ण बना पाता है। आज भी वेब के लिए बहुत अच्छे क्रिएटर हैं—हालांकि वो टोटल का सिर्फ 10-15% हैं, लेकिन वही असल प्रभाव पैदा कर रहे हैं।

आपने कभी जनमत न्यूज चैनल शुरू किया था जो बाद में Live India बना। फिर न्यूज से बाहर निकल आए। क्या वो सही फैसला था?

अगर आज के न्यूज टीवी बिजनेस को देखें तो हां। इसमें ज्यादा कमाई नहीं है। लेकिन कभी-कभी लगता है कि शायद रुकना चाहिए था। न्यूज का अपना अलग जोश और स्पेस होता है। पर जैसा कहते हैं, जिंदगी में रीवाइंड बटन नहीं होता।

म्यूजिक ब्रॉडकास्टिंग में आप मस्ती चैनल लेकर आए। आज Spotify जैसे प्लेटफॉर्म्स के दौर में आपका चैनल कैसे टिक रहा है?

Spotify जैसे प्लेटफॉर्म मेट्रो शहरों तक सीमित हैं। लेकिन भारत बहुत बड़ा देश है। टियर 2, टियर 3 शहर और ग्रामीण भारत अभी भी पारंपरिक चैनल देखते हैं। DD Free Dish की पहुंच आज भी किसी भी DTH ऑपरेटर से ज्यादा है। बहुत सारे लोग आज भी टीवी पर म्यूजिक देखना पसंद करते हैं, यूट्यूब पर नहीं। मैं ऐसे परिवारों को जानता हूं जो हर रात वाइन के साथ मस्ती चैनल देखते हैं। नॉस्टैल्जिया की अपनी ताकत है।

दूरदर्शन दोबारा लौटने की कोशिश कर रहा है। क्या वो दोबारा अपनी पुरानी चमक हासिल कर सकता है?

क्यों नहीं? दूरदर्शन एक समय में दुनिया का सबसे बड़ा टेरेस्ट्रियल ब्रॉडकास्टर था। ज्यादातर प्रोडक्शन हाउसेज ने वहीं से शुरुआत की थी—हमने भी। अब DD Waves और डिजिटल पुश के साथ वो खुद को फिर से स्थापित कर रहा है। उसकी पहुंच आज भी सबसे ज्यादा है। अगर वो क्वालिटी कंटेंट और लोकल स्टोरीटेलिंग पर फोकस करे, तो कोई नहीं रोक सकता।

आपने भारत की पहली लिस्टेड मीडिया कंपनी बनाई। आज के मीडिया स्टॉक्स की वैल्यू को आप कैसे देखते हैं?

सच कहूं तो मीडिया को अब एनालिस्ट्स खास आकर्षक सेक्टर नहीं मानते। मार्जिन कम हो गए हैं। पहले जो विज्ञापन रेवेन्यू 50 ब्रॉडकास्टर्स में बंटता था, अब वो 200 प्लेयर्स में बंट रहा है, जिनमें यूट्यूब और फेसबुक जैसे टेक दिग्गज भी हैं। इनका सबसे बड़ा हिस्सा उन्हें ही मिल जाता है। सब्सक्रिप्शन मॉडल भी भारत में खास सफल नहीं हुआ, इसलिए बड़े ब्रॉडकास्टर्स भी DD Free Dish की तरफ लौट रहे हैं।

आज रीजनल कंटेंट का बोलबाला है, क्या आपको लगता है कि भविष्य वहीं है?

बिल्कुल। आज "रीजनल" असल में लोगों की मुख्य भाषा है। साउथ की फिल्में अब सिर्फ "रीजनल" नहीं हैं, अपने क्षेत्र में वे मुख्यधारा हैं। मराठी सिनेमा बढ़िया कर रहा है। गुजराती फिल्में ऑस्कर के लिए जा रही हैं। लोग अपनी भाषा में कंटेंट चाहते हैं—इससे निजी जुड़ाव बनता है।

जियो और रिलायंस जैसे बड़े प्लेयर्स की एंट्री से इंडस्ट्री कैसे बदल रही है?

ये "सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट" का दौर है। इंडस्ट्रियल हाउसेज के लिए मीडिया इन्वेस्टमेंट ज्यादा जोखिम नहीं है। उनके पास वो ताकत है जिससे कंटेंट का पूरा ईकोसिस्टम स्टेबल हो सकता है। इससे ज्यादा सिनेमा बनेगा, ज्यादा कंटेंट बनेगा और क्रिएटर्स पर वित्तीय दबाव कम होगा। कंसोलिडेशन तो होगा ही। Zee-Sony मर्जर नहीं हुआ, लेकिन आगे चलकर होगा। इतना फ्रैगमेंटेशन लंबे समय तक नहीं टिकेगा।

और यूट्यूब?

आज यूट्यूब दुनिया का सबसे बड़ा ओटीटी प्लेटफॉर्म है। यह ब्रॉडकास्ट विज्ञापनों पर गहरा असर डाल रहा है। विज्ञापनदाता अब कम खर्च में ज्यादा टार्गेटेड ऑडियंस चाहते हैं। इसका सीधा असर पारंपरिक ब्रॉडकास्टर्स की कमाई पर पड़ रहा है।

इस बदलते परिदृश्य में मीडिया उद्यमियों के लिए आगे का रास्ता क्या है?

कोई एक समाधान नहीं है। टेक्नोलॉजी बहुत तेजी से बदल रही है। हर एंटरप्रेन्योर को अपनी रणनीति खुद बनानी होगी। लेकिन इतना तय है कि भविष्य डिजिटल का है। मुनाफे वाले मॉडल मुश्किल हैं, लेकिन अनुकूलन ही कुंजी है।

कोई आखिरी पंचलाइन?

"पिक्चर अभी बाकी है!" बदलाव हमेशा अवसर लेकर आता है। मेरी अगली पीढ़ी अब मोर्चा संभाल चुकी है और वो नई स्क्रीन के लिए तैयार कर रही है। स्क्रीन का आकार जो भी हो, कंटेंट ही राजा रहेगा। इसलिए जुड़े रहिए। 

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‘इंडिया हैबिटेट सेंटर’ को इसके मूल उद्देश्य की ओर वापस ले जाना है विजन: प्रो. के.जी. सुरेश

समाचार4मीडिया से बातचीत में ‘प्रो (डॉ.) के. जी. सुरेश का कहना था कि पत्रकारिता सनसनी फैलाने या किसी एजेंडे का हिस्सा बनने का माध्यम नहीं है, यह सामाजिक बदलाव का मिशन है।

pankaj sharma by
Published - Friday, 23 May, 2025
Last Modified:
Friday, 23 May, 2025
KG Suresh

देश के जाने-माने मीडिया शिक्षाविद्, संचार विशेषज्ञ और अब 'इंडिया हैबिटेट सेंटर' के निदेशक प्रो. (डॉ.) के.जी. सुरेश ने हाल ही में समाचार4मीडिया को एक विशेष साक्षात्कार दिया। दिल्ली स्थित इंडिया हैबिटेट सेंटर में हुई इस मुलाकात के दौरान उन्होंने अपनी नई जिम्मेदारी, मीडिया की बदलती दुनिया, सांस्कृतिक नेतृत्व और राष्ट्रबोध जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर बेबाकी से और दूरदृष्टि के साथ अपने विचार साझा किए। प्रस्तुत हैं इस विस्तृत बातचीत के प्रमुख अंश:

सबसे पहले, इंडिया हैबिटेट सेंटर के निदेशक के रूप में आपकी नई जिम्मेदारी के लिए बधाई। यह भूमिका आपकी पिछली जिम्मेदारियों से कितनी भिन्न है?

बहुत-बहुत धन्यवाद। यह भूमिका मेरी पिछली जिम्मेदारियों से काफी अलग है और यही इसकी खासियत है। मैंने अपने करियर में पत्रकारिता के साथ, भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) का नेतृत्व और माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में कुलपति के रूप में कार्य किया है और अब एक बौद्धिक व सांस्कृतिक केंद्र के संचालक जैसी भूमिका निभा रहा हूं। प्रत्येक भूमिका ने मुझे नए दृष्टिकोण और चुनौतियां प्रदान कीं, जिससे मेरा अनुभव समृद्ध हुआ। इंडिया हैबिटेट सेंटर एक ऐसा मंच है, जहां बौद्धिक विमर्श, सांस्कृतिक संरक्षण और सामाजिक बदलाव को एक साथ जोड़ा जा सकता है। यह मेरे लिए एक अनूठा अवसर है, जहां मैं अपने पत्रकारिता और शिक्षा के अनुभवों को मिलाकर कुछ नया और प्रभावी कर सकता हूं।

आपने इतनी विविध भूमिकाएं इतनी सहजता से कैसे निभाईं और ये अनुभव आपकी वर्तमान जिम्मेदारी में कैसे सहायक होंगे?

इसका पूरा श्रेय मेरी पत्रकारिता यात्रा को जाता है। एक पत्रकार के रूप में मैंने देश-विदेश की यात्राएं कीं और विभिन्न वर्गों-गरीब से लेकर अमीर, बुद्धिजीवियों से लेकर राजनेताओं, संपादकों और लेखकों तक से मुलाकात की। इस अनुभव ने मुझे समाज की जटिलताओं और विविधताओं को समझने की गहरी अंतर्दृष्टि दी, जो आज मुझे आत्मविश्वास और लचीलापन प्रदान करती है। मैंने क्राइम बीट से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक की रिपोर्टिंग की, जिसने मुझे जमीनी हकीकत और नीति निर्माण दोनों को समझने का अवसर दिया। साथ ही, पत्रकारिता के दौरान मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय, IIMC और माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में पढ़ाया, जिसने मुझे शिक्षा और प्रशासन के क्षेत्र में तैयार किया। ये अनुभव अब इंडिया हैबिटेट सेंटर में मेरे लिए एक मजबूत नींव हैं, जहां मुझे बौद्धिक विमर्श को बढ़ावा देना, सांस्कृतिक पहल शुरू करना और 9,000 सदस्यों की अपेक्षाओं को पूरा करना है।

आपकी शिक्षा और प्रशासन में रुचि कैसे विकसित हुई?

मेरी शुरुआत एक पत्रकार के रूप में हुई थी। पढ़ाना शुरू में केवल अतिरिक्त आय का साधन था। लेकिन धीरे-धीरे मुझे शिक्षण में गहरा रस आने लगा, क्योंकि यह मुझे नई पीढ़ी को प्रेरित करने और उनके विचारों को आकार देने का अवसर देता था। मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय, IIMC और माखनलाल जैसे संस्थानों में पढ़ाया, जहां मुझे छात्रों के साथ संवाद करने और उनके सपनों को समझने का मौका मिला। प्रशासनिक अनुभव मुझे दूरदर्शन में वरिष्ठ सलाहकार संपादक और फिर IIMC में महानिदेशक के रूप में मिला। मेरा मानना है कि एक अच्छा संवादक (कम्युनिकेटर) ही प्रभावी प्रशासक बन सकता है। संवाद चाहे वह व्यक्तियों, समुदायों या देशों के बीच हो, हर समस्या का समाधान है। यह विश्वास मेरे पत्रकारिता के अनुभवों से आया और मैंने इसे अपनी प्रशासनिक भूमिकाओं में लागू किया।

क्या आप आज भी खुद को मूल रूप से पत्रकार मानते हैं?

बिल्कुल, मेरी मूल पहचान आज भी एक पत्रकार की है। जब मुझे IIMC का महानिदेशक नियुक्त किया गया, तो तमाम अखबारों ने लिखा, ‘पूर्व पीटीआई पत्रकार को IIMC का महानिदेशक बनाया गया।’ यह मेरे लिए गर्व की बात है। पत्रकारिता ने मुझे समाज को समझने का नजरिया दिया और जटिल मुद्दों को सरलता से प्रस्तुत करने की कला सिखाई। चाहे मैं शिक्षा, प्रशासन या किसी अन्य क्षेत्र में रहूं, मेरे भीतर का पत्रकार हमेशा जागृत रहता है, जो सच्चाई की तलाश और समाज के प्रति जिम्मेदारी को प्राथमिकता देता है।

इतनी विविध भूमिकाओं में से आपको सबसे अधिक आनंद किसमें मिला?

यह कहना मुश्किल है, क्योंकि हर भूमिका में अलग-अलग आनंद था। पत्रकारिता में मैंने दुनिया घूमी, विभिन्न संस्कृतियों और लोगों को समझा और हर दिन कुछ नया सीखा। उस समय मैं युवा था, ऊर्जा से भरा हुआ और हर पल रोमांचक था। मेरे पिता चाहते थे कि मैं सरकारी नौकरी करूं, लेकिन मैंने स्थिरता के बजाय पत्रकारिता की अनिश्चितता और रोमांच को चुना। शिक्षण में मुझे नई पीढ़ी को प्रेरित करने का सुख मिला और प्रशासन में समाज के लिए बड़े बदलाव लाने का अवसर। इंडिया हैबिटेट सेंटर में अब मैं बौद्धिक और सांस्कृतिक नवाचार का हिस्सा हूं। हर भूमिका ने मुझे कुछ नया सिखाया और यही मेरे जीवन का सबसे बड़ा आकर्षण रहा है।

इंडिया हैबिटेट सेंटर, जो एक प्रतिष्ठित बौद्धिक केंद्र है, के लिए आपका विजन क्या है?

इंडिया हैबिटेट सेंटर (IHC) लुटियंस दिल्ली में बसी एक अनूठी संस्था है, जिसकी स्थापना 1993 में शहरी नियोजन, आवास, पर्यावरण और सतत विकास जैसे क्षेत्रों में बौद्धिक विमर्श के लिए एक थिंक टैंक के रूप में हुई थी। कुछ लोग इसे केवल रेस्तरां, कन्वेंशन सेंटर या ऑफिस कॉम्प्लेक्स मानते हैं, लेकिन यह उससे कहीं अधिक है। मेरा विजन इंडिया हैबिटेट सेंटर को इसके मूल उद्देश्य की ओर वापस ले जाना है, यानी एक ऐसा मंच, जो बौद्धिक और सांस्कृतिक नवाचार का केंद्र बने। मैं चाहता हूं कि यह न केवल नीति-निर्माताओं और बुद्धिजीवियों के लिए, बल्कि समाज के हर वर्ग के लिए प्रासंगिक हो। इसके लिए मैं इसे वैश्विक मंच पर भारत की बौद्धिक ताकत को प्रदर्शित करने वाला केंद्र बनाना चाहता हूं, जहां पर्यावरण, शहरी विकास और सांस्कृतिक संरक्षण जैसे विषयों पर गहन चर्चाएं हों और ये विचार समाज के निचले स्तर तक पहुंचें।

इस दिशा में आपने क्या पहल शुरू की?

मेरे कार्यभार ग्रहण करने के 15 दिनों के भीतर ही हमने ‘भारत बोध केंद्र’ की शुरुआत की। इसका उद्देश्य भारत की सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत को समझने और आत्मबोध को बढ़ावा देना है। यह केंद्र हैबिटेट की पुस्तकालय और शोध इकाई के अंतर्गत शुरू हुआ और इसका उद्घाटन केंद्रीय आवास मंत्री श्री मनोहर लाल खट्टर ने किया। इस पहल का लक्ष्य बौद्धिक विमर्श को प्रोत्साहित करना और भारत की समृद्ध परंपराओं व आधुनिक चुनौतियों के बीच संतुलन स्थापित करना है। हम इसे एक ऐसे मंच के रूप में देखते हैं, जो समाज को जोड़े और सकारात्मक बदलाव लाए।

इन विचारों को आम लोगों तक पहुंचाना कितना संभव है?

विचारों का समाज तक न पहुंचना बेमानी है। सकारात्मक बदलाव के लिए जरूरी है कि बौद्धिक विचार आम लोगों तक पहुंचें। इसके लिए संचार सबसे महत्वपूर्ण माध्यम है। इंडिया हैबिटेट सेंटर में इंडिया फाउंडेशन, RIS, TERI जैसे कई थिंक टैंक हैं, जिनके विचारों को सरल और प्रभावी भाषा में जन-जन तक ले जाना होगा। एक संचारक के रूप में, मैंने हमेशा संवाद की ताकत पर भरोसा किया है। चाहे वह सामाजिक मुद्दों पर चर्चा हो या सांस्कृतिक जागरूकता, संवाद के माध्यम से ही परिवर्तन संभव है। इसके लिए हम डिजिटल और परंपरागत दोनों माध्यमों का उपयोग करेंगे, ताकि समाज के हर वर्ग तक पहुंचा जा सके।

IIMC में आपके नेतृत्व के दौरान डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी का दर्जा प्राप्त करने की नींव रखी गई, जो 2024 में हासिल हुआ। हाल ही में IIMC ने पत्रकारिता और जनसंचार में पीएचडी पाठ्यक्रम शुरू करने की घोषणा की है। इस शैक्षणिक प्रगति को आप कैसे देखते हैं और यह विद्यार्थियों के करियर और संस्थान के भविष्य को कैसे प्रभावित करेगा?

यह मेरे लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा था। हमने इसके लिए न केवल मांग उठाई, बल्कि ठोस कदम भी उठाए। मेरे कार्यकाल में हमने UGC के साथ निरंतर संवाद किया और कठिन परिश्रम के बाद ‘लेटर ऑफ इंटेंट’ प्राप्त किया, जो डीम्ड यूनिवर्सिटी की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। इस प्रक्रिया में कई नीतिगत चर्चाएं, प्रस्ताव तैयार करना और शैक्षणिक ढांचे को मजबूत करना शामिल था। यह एक जटिल और लंबी प्रक्रिया थी, लेकिन मेरे कार्यकाल में इसकी नींव रखी गई और मुझे खुशी है कि इस दिशा में आगे का रास्ता तैयार हुआ।

अब आईआईएमसी में पीएचडी प्रोग्राम की शुरुआत होने जा रही है। यह आईआईएमसी के लिए एक स्वाभाविक और महत्वपूर्ण प्रगति है। मैं 1998 से IIMC में पढ़ा रहा हूं और हजारों विद्यार्थियों को प्रशिक्षित किया है। पहले हमारा ध्यान इंडस्ट्री के लिए पत्रकार तैयार करने पर था। एक वर्षीय पीजी डिप्लोमा पूरी तरह इंडस्ट्री-उन्मुख था। लेकिन डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा और पीएचडी प्रोग्राम की शुरुआत ने IIMC को मीडिया शिक्षा और शोध के क्षेत्र में एक नया आयाम दिया है। मेरे कार्यकाल में पांच पीजी प्रोग्राम को UGC से स्वीकृति मिली, पिछले साल पीजीबी शुरू हुआ और अब पीएचडी प्रोग्राम शुरू हो रहा है। इससे विद्यार्थियों को शैक्षणिक और शोध के क्षेत्र में अवसर मिलेंगे और शिक्षकों को भी अकादमिक रूप से सशक्त होने का मौका मिलेगा। यह संस्थान की वैश्विक प्रतिष्ठा को बढ़ाएगा और भारतीय मीडिया शिक्षा को नई ऊंचाइयों तक ले जाएगा।

IIMC में आपके द्वारा शुरू किए गए भारतीय भाषा पत्रकारिता पाठ्यक्रमों, जैसे मराठी, मलयालम, उर्दू और संस्कृत ने क्षेत्रीय मीडिया पर क्या प्रभाव डाला और इन पाठ्यक्रमों या क्षेत्रीय पत्रकारिता को भविष्य में और सशक्त करने के लिए आप क्या कदम सुझाएंगे?

IIMC पहले केवल अंग्रेजी और हिंदी में पाठ्यक्रम संचालित करता था। उड़ीसा के ढेंकनाल परिसर में उड़िया कोर्स था, लेकिन अन्य परिसरों में स्थानीय भाषाओं की कमी थी। मैंने महसूस किया कि क्षेत्रीय भाषाओं में पत्रकारिता शिक्षा न केवल स्थानीय समुदायों को जोड़ेगी, बल्कि क्षेत्रीय मीडिया को भी मजबूत करेगी। इसलिए हमने मराठी (अमरावती), मलयालम (केरल)  उर्दू और संस्कृत (दिल्ली) में पाठ्यक्रम शुरू किए। संस्कृत पत्रकारिता के लिए लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ के साथ समझौता किया गया और एक बैच को सुमित्रा महाजन जी ने प्रमाणपत्र प्रदान किए। हालांकि संस्कृत कोर्स बंद हो गया, अन्य तीन कोर्स सफलतापूर्वक चल रहे हैं। इन पाठ्यक्रमों ने क्षेत्रीय मीडिया में प्रशिक्षित पत्रकारों की संख्या बढ़ाई और स्थानीय मुद्दों को राष्ट्रीय मंच पर लाने में मदद की। मेरा सुझाव है कि और अधिक क्षेत्रीय भाषाओं में कोर्स शुरू किए जाएं और इन पाठ्यक्रमों को डिजिटल पत्रकारिता के साथ जोड़ा जाए, ताकि क्षेत्रीय मीडिया आधुनिक चुनौतियों का सामना कर सके।

माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में कुलपति के रूप में आपकी प्रमुख उपलब्धियां क्या रहीं?

माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में मेरा कार्यकाल नवाचारों से भरा रहा। हमने भोपाल, रीवा और दतिया में तीन नए परिसर स्थापित किए, जिनमें भोपाल में 50 एकड़ का अत्याधुनिक कैंपस शामिल है। हमने राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने में अग्रणी भूमिका निभाई और चार वर्षीय यूजी प्रोग्राम शुरू किया, जिसका पहला बैच इस वर्ष निकला। ‘रेडियो कर्मवीर’ कम्युनिटी रेडियो स्टेशन की स्थापना, 36 लंबित पीएचडी शोधों को पूरा करना और सभी रुके हुए दीक्षांत समारोह आयोजित करना मेरी प्रमुख उपलब्धियां रहीं। ‘चित्र भारती’ जैसे राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव आयोजित किए गए, जिनमें अक्षय कुमार और विवेक अग्निहोत्री जैसे कलाकार शामिल हुए। विद्यार्थियों की संख्या मेरे कार्यकाल में डेढ़ लाख के करीब पहुंची। भारतीय भाषाओं में सिनेमाई अध्ययन विभाग और सिंधी भाषा विभाग की शुरुआत भी महत्वपूर्ण कदम थे। ये पहलें विश्वविद्यालय को शैक्षणिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बनाने में सहायक रहीं।

क्या आपको लगता है कि कुछ अधूरा रह गया?

एक कर्मठ व्यक्ति को कभी पूर्ण संतुष्टि नहीं मिलती। मैंने जो भी पहल शुरू कीं, वे आज फल-फूल रही हैं और मुझे इसकी खुशी है। उदाहरण के लिए IIMC में शुरू किया गया ‘कम्युनिटी रेडियो एम्पावरमेंट एंड रिसोर्स सेंटर’ अब सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की राष्ट्रीय कार्यशालाओं का केंद्र बन गया है। लेकिन यदि और समय मिलता तो मैं कुछ और नवाचार शुरू करता। जैसे कि और अधिक क्षेत्रीय भाषा पाठ्यक्रम या डिजिटल मीडिया के लिए विशेष शोध केंद्र। फिर भी, मैं मानता हूं कि मेरे प्रयासों ने इन संस्थानों को एक मजबूत दिशा दी और यह मेरे लिए संतोष की बात है।

सोशल मीडिया, एआई और डिजिटल टूल्स के इस दौर में विद्यार्थियों के लिए कौन से नए पाठ्यक्रम और कौशल जरूरी हैं?

यह एक बहुत प्रासंगिक सवाल है। मीडिया का स्वरूप तेजी से बदल रहा है और इसके लिए पाठ्यक्रमों को निरंतर अपडेट करना जरूरी है। मैंने वर्षों पहले सुझाव दिया था कि जैसे इंडस्ट्री के लोग अकादमिक संस्थानों में पढ़ाते हैं, वैसे ही शिक्षकों (विशेषकर जो सीधे अकादमिक पृष्ठभूमि से हैं) को इंडस्ट्री में इंटर्नशिप दी जाए। इससे वे इंडस्ट्री की वास्तविक जरूरतों को समझ सकेंगे। दुर्भाग्य से, इस दिशा में ज्यादा प्रगति नहीं हुई। तकनीकी दृष्टि से, विश्वविद्यालयों में बुनियादी स्टूडियो सुविधाएं, डिजिटल संपादन सॉफ्टवेयर और डेटा पत्रकारिता जैसे संसाधन होने चाहिए। मैंने कई केंद्रीय विश्वविद्यालय देखे हैं, जहां ये बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं। छात्रों को डिजिटल पत्रकारिता, डेटा विश्लेषण और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) के उपयोग जैसे कौशलों में प्रशिक्षित करना होगा, ताकि वे आधुनिक मीडिया की मांगों को पूरा कर सकें।

क्या आपको लगता है कि मीडिया शिक्षा के लिए एक नियामक संस्था होनी चाहिए?

बिल्कुल, यह आज की सबसे बड़ी जरूरत है। जैसे मेडिकल शिक्षा के लिए नेशनल मेडिकल कमीशन और कानून के लिए बार काउंसिल है, वैसे ही मीडिया शिक्षा के लिए एक स्वतंत्र नियामक संस्था होनी चाहिए। आज कोई भी बिना गुणवत्ता और बुनियादी ढांचे के मीडिया कॉलेज खोल देता है, जिससे विद्यार्थियों का नुकसान होता है और साथ ही इंडस्ट्री की गुणवत्ता प्रभावित होती है। एक नियामक संस्था पाठ्यक्रमों की गुणवत्ता, बुनियादी सुविधाओं और शिक्षकों की योग्यता सुनिश्चित कर सकती है। इससे न केवल विद्यार्थियों को बेहतर शिक्षा मिलेगी, बल्कि भारतीय मीडिया की विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी।

आने वाले वर्षों में मीडिया, संस्कृति और शिक्षा में बदलावों के बीच आप अपनी भूमिका कैसे देखते हैं?

मैं खुद को आज भी एक मीडिया का विद्यार्थी मानता हूं। लोग मुझे ‘मीडिया गुरु’ कहते हैं, लेकिन मैं निरंतर सीखने वाला हूं। मैं सोशल मीडिया और एआई जैसे नए टूल्स को अपनाता हूं और खुद को अपडेट रखता हूं। चाहे वह नई पीढ़ी को प्रशिक्षित करना हो, रामनाथ गोयनका अवॉर्ड जैसे मंचों पर योगदान देना हो या इंडिया हैबिटेट सेंटर को बौद्धिक और सांस्कृतिक केंद्र बनाना हो, मैं हर भूमिका को पूरे समर्पण के साथ निभाने को तैयार हूं। मेरा लक्ष्य अपने अनुभवों का उपयोग समाज में सकारात्मक बदलाव लाने और भारत की सांस्कृतिक व बौद्धिक विरासत को बढ़ावा देने में करना है।

बदलते मीडिया और शिक्षा के स्वरूप को आप कैसे देखते हैं?

टेक्नोलॉजी की भूमिका निश्चित रूप से बढ़ रही है, लेकिन भारत जैसे देश में अखबार और टीवी की प्रासंगिकता अभी बनी रहेगी। यहां बुलेट ट्रेन और बैलगाड़ी साथ-साथ चलते हैं। मेरी सबसे बड़ी चिंता पत्रकारिता के मूल्यों को लेकर है। पत्रकारिता सनसनी फैलाने या किसी एजेंडे का हिस्सा बनने का माध्यम नहीं है, यह सामाजिक बदलाव का मिशन है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पत्रकारिता ने समाज को प्रेरित किया और आज भी हमें उस भूमिका को याद रखना चाहिए। पत्रकारों को न केवल तथ्य प्रस्तुत करने चाहिए, बल्कि समाज की मानसिकता और सोच में सकारात्मक बदलाव लाने की जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए।

इंडिया हैबिटेट सेंटर के निदेशक के रूप में आपकी प्राथमिकताएं क्या हैं?

मेरी पहली प्राथमिकता IHC को देश का प्रमुख बौद्धिक केंद्र बनाना है, जहां शहरी नियोजन, पर्यावरण और सतत विकास जैसे विषयों पर गहन विमर्श हो। दूसरी प्राथमिकता 9,000 सदस्यों के लिए बेहतर सुविधाएं और अनुभव प्रदान करना है, ताकि वे इस मंच का हिस्सा बनने पर गर्व महसूस करें। तीसरी, इसे एक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित करना है, जहां विलुप्त हो रही लोक कलाएं, लोकगीत और लोकसंगीत को पुनर्जन्म मिले। मैं चाहता हूं कि IHC एक ऐसा मंच बने, जो भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करे और आधुनिक बौद्धिक चर्चाओं को बढ़ावा दे।

नई पीढ़ी के पत्रकारों के लिए आपकी सबसे बड़ी सलाह क्या है?

मेरी सबसे बड़ी सलाह है कि वे भाषा पर ध्यान दें। चाहे वह हिंदी, अंग्रेजी या क्षेत्रीय भाषाएं हों। वर्तनी, उच्चारण और अभिव्यक्ति में आए क्षरण को लेकर मैं बहुत चिंतित हूं। एक पत्रकार के लिए भाषा उसका सबसे बड़ा हथियार है। दूसरा, शोध की कमी को दूर करें। पहले हम घंटों लाइब्रेरी और आर्काइव्स में बिताते थे, लेकिन अब टेक्नोलॉजी ने सब कुछ आसान बना दिया है। फिर भी, गहन शोध और जमीन से जुड़ाव के बिना पत्रकारिता अधूरी है। नई पीढ़ी को साहित्य, इतिहास और सामाजिक मुद्दों की गहरी समझ विकसित करनी चाहिए, ताकि उनकी पत्रकारिता प्रभावशाली और विश्वसनीय हो।

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