Exclusive: वरिष्‍ठ पत्रकार ब्रज खंडेलवाल का बेबाक इंटरव्‍यू...

जाने-माने वरिष्‍ठ पत्रकार ब्रज खंडेलवाल इन दिनों पत्रकारिता के साथ समाजसेवा के कामों में जुटे हुए हैं...

Last Modified:
Monday, 30 July, 2018


समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।

जाने-माने वरिष्‍ठ पत्रकार ब्रज खंडेलवाल इन दिनों पत्रकारिता के साथ समाजसेवा के कामों में जुटे हुए हैं। वे दिल्ली, आगरा, भोपाल समेत देश के कई भागों में कार्य कर रहे वरिष्ठ पत्रकारों के गुरु हैं।

बहुआयामी प्रतिभा के धनी ब्रज खंडेलवाल आगरा में यमुना की सफाई से लेकर बढ़‍ते प्रदूषण के प्रति भी लोगों को जागरूक कर रहे हैं। उनकी पहचान न सिर्फ पत्रकार, बल्कि एक शिक्षक, पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी है। इनके अलावा और भी कई विशेषताएं उनमें, हैं जो उनके कार्यों और आचरण में दिखाई देती हैं। ब्रज खंडेलवाल हिंदी और अंग्रेजी भाषा, दोनों में समान रूप से मजबूत पकड़ रखते हैं और उनकी धारदार कलम हर विषय पर चलती रहती है।

'समाचार4मीडिया' के डिप्‍टी एडिटर अभिषेक मेहरोत्रा ने ब्रज खंडेलवाल से उनके परिवार से लेकर करियर के शुरुआती दिनों के अलावा विभिन्‍न विषयों पर बेबाकी से चर्चा की... 

न्‍यूज को लेकर ब्रज खंडेलवाल का मानना है कि आजकल तो ये हो गया है कि न्‍यूज खुद चलकर आपके पास आ रही है। आपको उसमें से छांटना है कि कौन सी न्‍यूज लेनी है अथवा कौन सी नहीं।

प्रस्‍तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश :

आपने अपने करियर की शुरुआत दिल्‍ली में रिपोर्टिंग से की है और काफी समय तक वहां पत्रकारिता की। इसके बाद आप आगरा शिफ्ट हो गए। आमतौर पर तो लोग छोटे से बड़े शहर की ओर जाते हैं लेकिन आप बड़े से छोटे शहर की ओर आए हैं। क्‍या आपको इस पर कभी अफसोस होता है कि जो निर्णय लिया वो समय के हिसाब से सही था?

ब्रज खंडेलवाल: यह सवाल काफी लोग मुझसे पूछा करते हैं, क्‍योंकि ट्रेंड यही है कि छोटे शहर से बड़े की तरफ जाना। इसका जवाब यही है कि पत्रकारिता को मैंने एक प्रफेशन के रूप में कभी नहीं लिया है। शुरुआत में यह मेरे लिए लड़ाई का एक हथियार थी। समाज को सुधारना, बदलना, कुछ नया करना, समाजवाद लाना आदि काफी बड़े-बड़े सपने थे। उसमें पत्रकारिता को एक हथियार के रूप में इस्‍तेमाल किया। यह काम दिल्‍ली में बैठकर हो नहीं सकता था।

इसके लिए पूरे देश में, गांव में, छोटी जगह में घूमना और वहां के लोगों से बातचीत करना, पढ़ना-लिखना, कार्यक्रमों का हिस्‍सा बनना आदि करना होता था तो छोटा-बड़ा शहर आदि मेरे लिए कोई मुद्दा नहीं था। वैसे दिल्‍ली की लाइफ स्‍टाइल भी मेरे मुताबिक नहीं थी और न ही में वहां के कल्‍चर को आत्‍मसात कर पाया। इसलिए काफी महत्‍वाकांक्षाएं लेकर वापस आए और अपना अखबार शुरू किया। मुझे न तो इसमें कुछ गलत लगा और न ही शिकायत है। अपने जीवन का भरपूर आनंद उठाया है।

दिल्‍ली में आपका सफर कैसा रहा। आपने पत्रकारिता को क्‍यों चुना? दिल्‍ली में कितने साल रहे और क्‍या किया। दिल्‍ली में आपके शुरुआती दिन कैसे रहे, इस बारे में कुछ बताएं ?

ब्रज खंडेलवाल: मुझे स्‍कूल के दिनों से ही लिखने का शौक था। इसके बाद आगरा के सेंट जॉन्‍स कॉलेज में दाखिला लिया। यहां भी लिखते रहे और 'द विंक' (The Wink)  नाम से एक पत्रिका भी लॉन्‍च की, जो काफी लोकप्रिय रही। इसके बाद हमें लगा कि शायद यही हमारी मंजिल है। आज भी उस पत्रिका का प्रकाशन कर रहा हूं।

अभी आपने सेंट जॉन्‍स कॉलेज की पत्रिका 'द विंक' के बारे में बात की। इसके बारे में थोड़ा और विस्‍तार से बताएं ?

ब्रज खंडेलवाल: कॉलेज के दिनों से ही पत्रकारिता में रुचि जागृत हो चुकी थी। अखबार में लिखना, कार्यक्रम-रैलियों की कवरेज करना शुरू कर दिया था और उसके बाद 'द विंक' नाम से 1969-70 में पत्रिका निकाली जो शुरू से ही कैंपस में काफी लोकप्रिय रही। उसके बाद अंग्रेजी से एमए कर लिया। इसके बाद लोगों ने कहा कि पत्रकारिता की भी कुछ पढ़ाई कर लो। हालांकि उन दिनों पत्रकारिता का डिप्‍लोमा या कोर्स आदि कोई करता नहीं था। उस समय मान्‍यता थी कि साहित्‍यकार की तरह पत्रकार भी जन्‍मजात होते हैं और इसमें सीखने की कोई बात नहीं होती है।लेकिन मैंने सोचा कि इसकी पढ़ाई जरूर करनी चाहिए और इसकी गहराई में जाना चाहिए और पूरी तैयारी के साथ इस प्रफेशन में उतरना चाहिए। उन दिनों दिल्‍ली के आईआईएमसी में पढ़ाई करना काफी मुश्किल था क्‍योंकि ज्‍यादातर विदेशी छात्र ही वहां प्रवेश लेते थे। सिर्फ दो-तीन लोग ही हिन्‍दुस्‍तानी होते थे। शुक्र था कि वहां दाखिला मिल गया। साल भर वहां पढ़ाई-लिखाई की और कम्‍युनिकेशन वगैहरा समझा।

उन दिनों हमें 'यूएनआई' के हेड ट्रेवर ट्यूबक एडिटिंग पढ़ाते थे, जिन्‍होंने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पहली बायोग्राफी लिखी थी। उनकी कॉ‍पी एडिटिंग काफी कमाल की थी। बड़े-बड़े लोगों की किताबें उन्‍होंने एडिट की थीं। उन्‍होंने हमारी भी काफी ग्रूमिंग की और एडिटिंग की काफी बारीकियां सिखाईं। सबसे बड़ी बात थी कि बड़ी बातें सरल शब्‍दों में कैसे लिखीं जाए। छोटे-छोटे वाक्‍य बनाए जाएं और उसमें कम्‍युनिकेशन एंगल रहना चाहिए ताकि लोगों को समझ आए। वो बहुत अच्‍छी ट्रेनिंग थी। इसके बाद फिर 1972 में एशिया कप हुआ। उस दौरान एक दैनिक अखबार निकलता था, वहां से काम शुरू किया। उसके बाद तो यूएनआई समेत काफी लंबी लिस्‍ट है एजेंसी-अखबारों की। जब देश में आपातकाल लग गया तो उस समय भी कई अखबारों में काम करते रहे। उस समय अंडरग्राउंड रहकर उदयन शर्मा के साथ काफी लिखा। उसे बांटने के लिए काफी भागदौड़ करते थे। कभी वॉरंट निकल गए तो कभी इधर-उधर भागते रहे। कह सकते हैं कि काफी एडवेंचर था उस समय। आपातकाल जब समाप्‍त हुआ तो राजनारायण का वीकली 'जनसाप्‍ताहिक' के नाम से निकला, जिसके प्रॉडक्‍शन का काम मैंने लिया था। ढाई-तीन साल वह चला। एडिटिंग और छपाई आदि मेरे जिम्‍मे ही थी। वह काफी बेहतरीन व उपयोगी अनुभव था। एक तो हिंदी पत्रकारिता के तौर पर हिंदी को समझने के लिए और डॉक्‍टर लोहिया के विचारों को कायदे से पढ़कर जानने-समझने के लिए बहुत उपयोगी रहा। इसके बाद तो इधर से उधर और उधर से इधर आने-जाने का क्रम चलता रहा। कभी 'पॉय‍नियर', कभी 'दैनिक भास्‍कर', 'स्‍वतंत्र भारत', 'इंडिया टुडे' कभी हिंदी तो कभी अंग्रेजी। कहने का मतलब बहुत लंबी लिस्‍ट है। इतना सफर तय करने के बाद लगा कि वापस अपने शहर में चलना चाहिए। तब तक शादी भी हो गई थी। इसके बाद हमने सोचा कि आगरा वापस चलते हैं और अपना अखबार शुरू करेंगे। इसके बाद अपना प्रिंटिंग प्रेस लगाया। हम दोनों मिलकर रात में छपाई करते थे और सुबह बांटने जाते थे। करीब ढाई-तीन साल तक ऐसा ही चलता रहा। पहले यह 'समीक्षा भारती' नाम से हिंदी में था, फिर इसे अंग्रेजी में किया। इसके बाद अंग्रेजी के साप्ताहिक अखबार 'न्यूजप्रेस' (NewsPress) का प्रकाशन किया, जो अच्छा खासा चला हालांकि बाद में बंद हो गया।

आप अपनी निजी जिंदगी के बारे में कुछ बताएं, जैसे आपने दक्षिण भारतीय परिवार में शादी की। इसके बाद आप पत्नी को दिल्‍ली से आगरा ले आए, कैसा रहा ये सफर? 

ब्रज खंडेलवाल: मैं और मेरी पत्नी पद्मिनी हम दोनों एक ही एजेंसी 'नेशनल प्रेस एजेंसी' (NPA) में काम करते थे। उन दिनों भारद्वाज जी उसके मालिक थे। वह 'पीआईबी' से रिटायर हुए थे। वह इंदिरा गांधी के काफी करीब थे। वहां लंबे समय तक काम किया। उस समय दो ही बड़ी एजेंसी 'इन्‍फा' और 'एनपीए' चला करती थीं। एनपीए में काफी बड़े-बड़े लोग जैसे कुलदीप नायर आदि लिखा करते थे। इनके लिखे हुए आर्टिकल्‍स वगैरह की एडिटिंग हम ही किया करते थे। इसके बाद कॉमनवेल्‍थ लंदन की 'जेमिनी न्‍यूज सर्विस' (Gemini news service) के साथ मैं काफी समय तक जुड़ा रहा। मैं उनके लिए फीचर्स आदि लिखा करता था और वह मुझे पूरे भारत में घुमाते रहते थे।

आईआईएमसी को लेकर दिल्‍ली में आपका सफर कितने साल रहा, उसके बाद आप आगरा कब आए?

ब्रज खंडेलवाल : करीब 12-14 साल हम दिल्‍ली में रहे। इसके बाद आगरा आए और फिर दिल्‍ली चले गए और फिर आगरा आ गए। ऐसा काफी समय तक चलता रहा। इसके बाद फाइनली 1990 के आसपास आगरा आ गए। 

आगरा लौटने के बाद किस तरह पत्रकारिता की शुरुआत की?

ब्रज खंडेलवाल: आगरा लौटकर हमने 'समीक्षा भारती' के नाम से जो अखबार लॉन्‍च किया था, वह तो फेल हो गया। कंपोजीटर्स ने हड़ताल कर दी, उस समय पैसे थे नहीं और ये प्रयोग फेल हो गया। अंग्रेजी अखबार शुरू करने का वह समय भी नहीं था और उसका मार्केट भी नहीं था। पहले वह अखबार हिंदी में था लेकिन बाद में उसी नाम से अखबार को अंग्रेजी में कर दिया गया था। हिंदी अखबार साप्‍ताहिक कर दिया था और अंग्रेजी में इसे दैनिक कर दिया था। अब इसे उस समय की मूर्खता कहें या एडवेंचर कि रोजाना चार पेज का अंग्रेजी का अखबार निकालना शुरू किया। उस समय अंग्रेजी का इतना पाठक वर्ग भी यहां नहीं था। हमें लगा था कि अपने शहर में कुछ नया करेंगे। हमें लगा था कि टूरिज्‍म इंडस्‍ट्री इसे सपोर्ट करेगी। हालांकि उन्‍होंने सपोर्ट भी किया। काफी कॉपी खरीदी भी जाती थीं। हर होटल कॉपी खरीदता था क्‍योंकि उसमें डेली इवेंट्स की कवरेज होती थी। उस समय ऑफसेट मशीन गिनती की थीं और यह अखबार लेटरप्रेस पर छपता था। छोटी मशीन थी, उसी पर छापा करते थे कंपोज कराके। दिन भर कंपोजिंग चलती थी। 10-12 लोग रखे गए थे कंपोजिंग के लिए। हालां‍कि नुकसान तो हुआ लेकिन उसका अपना मजा था। इसके बाद 'पॉयनियर' अखबार जॉइन कर लिया। कुछ दिन डेस्‍क पर काम किया फिर लखनऊ से अटैच्‍ड हो गए और वहां चले गए। फिर आगरा आकर ब्‍यूरो संभाला। पहले यह जयपुरिया समूह का था, फिर थापर्स ने खरीद लिया। उस समय विनोद मेहता एडिटर हुआ करते थे। फिर ए.के.भट्टाचार्य आए और उसके बाद चंदन मित्रा ने उसे खरीद लिया। इसके बाद हम दैनिक भास्‍कर में काम करते रहे। फिर तीन-चार साल यहां से 'हिन्‍दुस्‍तान टाइम्‍स' में काम किया। इस तरह कभी ये और कभी वो का क्रम लगातार चलता रहा। 1995 में यूनिवर्सिटी में पढ़ाना शुरू कर दिया था। उसी साल अंग्रेजी वीकली 'न्‍यूजप्रेस' जो उस समय काफी लोकप्रिय था, में जुड़ गए। हालांकि अखबार काफी छोटा था लेकिन टीम बहुत एक्टिव थी।

उस अखबार पर आरोप था कि वह शहर की ब‍ड़ी-बड़ी शख्सियतों का काफी मजाक उड़ाया करता था?

ब्रज खंडेलवाल: वह अखबार टैब्‍लॉयड रूप में था और टैब्‍लॉयड का जो स्‍वरूप होता है, वो उसी स्टाइल में होता था। उसमें काफी खोजपरक रिपोर्ट्स रहती थीं। उस अखबार ने अपनी रिपोर्ट्स से कई लोगों को मुश्किल में भी डाल दिया था। आगरा के बड़े पत्रकार जैसे रामकुमार शर्मा, जमशेद खान व प्रवीण तालान वगैरह जो आज काफी बड़ा नाम हो गए हैं, सब उसी में काम करते थे। हालांकि उस अखबार में मिलता कुछ नहीं था पर पैशन था सभी में। मैं तो उसमें मुफ्त काम करता था। वह अखबार लगभग पांच-छह साल चला और काफी अच्‍छा चला। फिर कुछ गलतफहमी हो गईं और अखबार बंद ही हो गया। हालांकि उसे दोबारा शुरू करने की कोशिश भी की गई लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। लेकिन वह काफी मजेदार और कामयाब प्रयोग था। 'डीएवीपी' से उसे मान्‍यता भी मिल गई थी और विज्ञापन आदि भी मिलने शुरू हो गए थे। उस समय अखबार का सर्कुलेशन दस हजार था। यह 1995 की बात है। यह अखबार मथुरा से छपकर आता था क्‍योंकि वहां की प्रिंटिंग सस्‍ती और अच्‍छी थी। उस दौरान ऑफसेट की ज्‍यादातर मशीनें मथुरा में ही थीं। मथुरा प्रिंटिंग की बहुत बड़ी मंडी है। इस बीच 2002 और 2003 के बीच में देश की बड़ी न्यूज एजेंसी 'आईएएनएस' (IANS) के लिए काम करने लगा। हालांकि आईएएनएस से मैं इमरजेंसी के दिनों से ही जुड़ा हुआ था। उन दिनों गोपाल राजू का साप्‍ताहिक अखबार 'इंडिया एब्रोड' न्‍यूयॉर्क से निकलता था, बाद में उन्‍होंने इसे 'रेडिफ' को बेच दिया। उसके बाद किसी और ने ले लिया। इसके बाद 'इंडिया एब्रोड न्‍यूज सर्विस' बदलकर 'इंडो-एशियन न्‍यूज सर्विस' हो गई। तब से मैं आईएएनएस से जुड़कर पश्चिमी यूपी को कवर करता हूं।

आज यदि आप देखते हैं कि क्‍या खोया और क्‍या पाया। हालांकि लोग कहते हैं कि आपने क्‍या खोया और क्‍या पाया ये समझना मुश्किल है क्‍योंकि न आपने अपना मकान बनाया और न गाड़ी खरीदी। हालांकि ये सही बात है कि आपने सम्‍मान बहुत पाया है लेकिन आर्थिक दृष्टि से देखें तो उतनी कामयाबी नहीं मिली। आने वाली पीढ़ी यदि आपको देखे तो वह तो कंफ्यूज रहती है कि सम्‍मान तो ठीक है लेकिन पैसा भी बहुत जरूरी है क्‍योंकि संत जीवन जीना बहुत मुश्किल होता है, इस बारे में क्‍या कहेंगे ?

ब्रज खंडेलवाल: मैंने कभी यह सोचकर काम ही नहीं किया कि क्‍या खोना है और क्‍या पाना है। मैं तो बस इसमें खुश रहता हूं कि चलो एक अच्‍छी स्‍टोरी हो गई। बस मेरे लिए बहुत है और यही मेरा पुरस्‍कार है। क्‍या होगा और क्‍या नहीं होगा, मैं इस बारे में ज्‍यादा नहीं सोचता क्‍योंकि मैंने पत्रकारिता को इस रूप में कभी देखा ही नहीं है कि पैसा कमाना है या गलत काम करना है। मैंने जैसा शुरू में कहा था कि यह तो लड़ाई का हथियार है। एक अच्‍छी स्‍टोरी करना समाज को बदलने के यज्ञ में आहुति देने जैसा है। इस यज्ञ में हम जो कर सकते हैं, वह यह है कि अच्‍छे विचार फेंकें। अच्‍छे लोगों से मिलें अैर उन्‍हें हाईलाइट करें। जो चीजें हाईलाइट करने के लिए जरूरी हैं, उन्‍हें उठाएं। इस हिसाब से देखें तो काफी संतोष है और इतना तो मिल ही जाता है, जिससे दाल-रोटी चल रही है। बिना बात के क्‍यों अपने सिद्धांतों से समझौता करें।   

आपने पिछले पांच दशकों से सक्रिय पत्रकारिता की है और देखी है। वर्तमान में पत्रकारिता के सामने क्रेडिबिलिटी की समस्या है, हालांकि यह हर बार रहता है लेकिन पिछले पांच-सात साल से इस पर सवाल ज्‍यादा उठ रहे हैं और तो और सोशल मीडिया को आए हुए अभी कुछ ही समय हुआ है लेकिन उसकी क्रेडिबिलिटी पर भी सवाल उठ रहे हैं। ऐसे में एक पत्रकार के रूप में मीडिया की क्रेडिबिलिटी को आप किस रूप में देखते हैं ?

ब्रज खंडेलवाल: पहली बात तो यह है कि प्रकृति को बदलाव चाहिए। चीजें अपनी जगह रुकी नहीं रहेंगी। समय और परि‍स्थिति बदलती रहती हैं। लोगों की पसंद-नापसंद बदलती है, उनका नजरिया बदलता है। हमें यह स्‍वीकार करना पड़ेगा। बदलाव हमेशा पॉजीटिव हो, ये भी जरूरी नहीं है। टेक्‍नोलॉजी के कारण पत्रकारिता में तमाम तरह के तत्‍व घुस आए हैं, जिनके संस्‍कार नहीं थे पत्रकारिता के, जिनकी पृष्‍ठभूमि पत्रकारिता की नहीं थी और जिनकी पढ़ाई-लिखाई पत्रकारिता की नहीं हुई, वे भी इसमें आ गए। जिन्‍हें सिर्फ कैमरा पकड़ना आता है, वे भी मैदान में कूद गए। ऐसे लोगों के अंदर पत्रकारिता की बुनियादी बातें भी नहीं हैं। पुराने जमाने में होता था कि पत्रकारिता के लिए कम से कम लिखना तो आना चाहिए लेकिन आज के समय में ये जरूरी नहीं है कि आपको लिखना आता है या नहीं। आजकल कई सारे फ्री प्‍लेटफॉर्म उपलब्‍ध हैं। बस कैमरा घुमाइए और कोई भी चीज हाईलाइट कर लीजिए। यदि आपका आइडिया हिट हो गया तो आपको पहचान मिलेगी और यदि फेल हो गया तो आप उसे दूसरे तरीके से इस्‍तेमाल कर सकते हैं। यदि आजकल की और पुराने समय की पत्रकारिता में बुनियादी अंतर की बात करें तो खास बात ये है कि आजकल के लोग रीडिंग नहीं कर रहे हैं। पढ़ाई-लिखाई नहीं कर रहे हैं। हमें याद है कि हम काफी पढ़ते थे। काफी साहित्‍य और राजनीति विज्ञान पढ़ते थे। तमाम तरह की किताबें पढ़ते थे और फिर पत्रकारिता की भाषा में कहें कि अखबार को चाटते यानी गहराई से पढ़ते ही थे।

क्‍या आपको लगता है कि आज में समय में कोई ऐसा अखबार बचा है कि जिसे इतनी गहराई से पढ़ा जा सके ?

ब्रज खंडेलवाल : आजकल सभी तरह के अखबार हैं। ऐसा भी नहीं हैं कि सारे अखबार खराब ही हैं। बहुत अच्‍छे अखबार भी हैं। आजकल के दैनिक अखबारों की बात करें तो ज्‍यादातर अच्‍छे ही हैं। प्रजेंटेशन भले ही अलग और आधुनिक हो लेकिन कंटेंट तो ठीक है। संपादकीय पेज भी सभी के बढ़िया ही हैं। भाषा भी अच्‍छी है। दैनिक 'हिन्‍दुस्‍तान' भी काफी अच्‍छे एडिटोरियल दे रहा है। पिछले दिनों नदियों पर उनके संपादक शशि शेखर ने बहुत अच्छा लिखा था। मुझे नहीं लगता कि अखबारों की इतनी गिरावट हुई है। इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया में फर्क दिखाई दे सकता है क्‍योंकि वो शायद बाजार से जुड़ा हुआ है। वो टेक्‍नोलॉजी अलग तरह की है। ये भी कह सकते हैं कि वो मेनस्‍ट्रीम मीडिया का हिस्‍सा माना जाए या न भी माना जाए क्‍योंकि वे सामान्‍यत: एजेंडा आधारित सिद्धांत पर चलते हैं। सुबह ही एक मुद्दा पकड़ लिया और दिन भर उसे खींचते रहो। अब वो समय आ गया है जब प्रिंट का कैरेक्‍टर अलग है, इलेक्‍ट्रॉनिक का अलग है। दोनों में कोई समानता ही नहीं दिखाई दे रही है।  

आप वर्तमान के अखबारों की चर्चा कर रहे हैं। लेकिन एक बड़ा इश्‍यू भी है कि पहले अखबारों के मुखपृष्‍ठ को काफी महत्‍वपूर्ण माना जाता था। पहली हेडलाइन भी बहुत खास मानी जाती थी। कहा जाता था कि उसे देखकर अखबार भी बिकता था। लेकिन अब जैकेट का कल्‍चर आ गया है। इसमें न तो पहला पेज और न ही हेडलाइन का पता चलता है। कई बार तीन पेज के  जैकेट विज्ञापन होते हैं और उसके बाद चौथा पेज पहला पेज होता है। इस बारे में आपका क्‍या कहना है ?

ब्रज खंडेलवाल : ये एक इश्‍यू तो है लेकिन इस ट्रेंड को सही साबित करने के लिए उनके पास अपने तर्क हैं। उनका तर्क है कि पहले के पत्रकारों को आखिर मिलता ही क्‍या था। आजकल के पत्रकारों को अच्‍छे अखबारों में अच्‍छी सैलरी समेत कई सुविधाएं मिलती हैं। यानी पहले की तुलना में पत्रकारों के लिए चीजें काफी बेहतर हुई हैं। पहले तनख्‍वाह वगैरह तो कुछ मिलती नहीं थी। ज्‍यादातर लोग तो पैशन के लिए मुफ्त में काम करते थे। उनका हुलिया देखकर ही लग जाता था कि बिल्‍कुल फटेहाल हैं। आज का पत्रकार टेक्‍नोलॉजी में भी काफी आगे है। उसके कपड़े और रहन-सहन भी पहले से बेहतर है। ऐसे में अर्थशास्‍त्र के हिसाब से उसकी जरूरतें कुछ अलग हो गई हैं। इन्‍हीं सब को पूरा करने के लिए इस तरह करना पड़ता है। 

ऐसे में यह सवाल जरूर उठता है कि ये सब करते-करते पाठकों के साथ तो अन्‍याय नहीं हो जाता है, जब चौथा पन्‍ना पहला पेज बन जाता है ?

ब्रज खंडेलवाल : अब इसका कोई कानून तो है नहीं। ये एक परंपरा है। परंपराएं टूट भी सकती हैं, बदल भी सकती हैं और मॉडीफाई भी हो सकती हैं। अभी हमें अटपटा लग रहा है, कुछ दिनों में शायद आदत पड़ जाएगी। दूसरी वजह यह है कि अखबार वालों को भी पता है कि मुखपृष्‍ठ पर जो छप रहा है, वह पहले से ही बासी यानी पुराना हो चुका है और पाठक उस पर निर्भर नहीं है। 

कुल मिलाकर क्या अखबारों से निराश हैंखासकर उनके कंटेंट से। क्‍योंकि अमूमन एक धारणा भी लोगों के बीच बनी हुई है कि अखबार में जो  कुछ अब छप रहा है, वह टीवी सेट करता है या अखबार अब टीवी को फॉलो करते हैं ?

ब्रज खंडेलवाल : मैं निराश नहीं हूं, बस इस बदलाव को स्‍वीकार कर रहा हूं। ये तो ट्रेंड है जो बदलते रहते हैं और समय के साथ बदलना ही चाहिए। पुरानी मान्‍यताएं टूटती या बदलती हैं तो कुछ मिनट झटका लग सकता है लेकिन हमें इन्‍हें स्‍वीकार कर आगे बढ़ना होगा। आप कैसे इस बात को नजरअंदाज कर सकते हैं कि आज का पत्रकार कितने पैसे कमा रहा है। हिंदी अखबारों में काम कर रहे पत्रकारों की सैलरी देख लीजिए, पुराने वालों से तुलना कर लीजिए। मेरे ख्‍याल से इसका तो हमें स्‍वागत करना चाहिए। पहले एक स्‍टोरी का क्‍या मिलता था, महज पांच रुपए। पहले पांच-दस रुपए का मनीऑर्डर आता था, जिस पर हम हंसते थे। मेरा जो विदेशी मीडिया हाउस से पेमेंट आता था वह सामान्‍यत: 50 पाउंड का होता था, जो हजार-1500 रुपए होते थे एक आर्टिकल के, लोग चौंकते थे कि यार हमारी तो एक महीने की सैलरी के बराबर तेरे एक आर्टिकल से ही कमाई हो गई।

हमारे देश में हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता में अंतर रहा है। इकनॉमिक्स के मामले में अंग्रेजी हमेशा हिंदी से बेहतर मानी गई है। आप भी कह रहे हैं कि अंग्रेजी अच्‍छे पैसे भी देती थी। क्‍या आपको लग रहा है कि समय के साथ बदलाव आया है या आज भी अंग्रेजी पत्रकारिता ही देश की पॉलिसी तय करती है और अंग्रेजी में ही पत्रकारिता करने वाले इस देश के बड़े पत्रकार माने जाते हैं ?

ब्रज खंडेलवाल : हां, ये एक कड़वी सच्‍चाई है कि हम दोहरी मानसिकता से जूझ रहे हैं। हम हिंदी के गुणगान गाते हैं लेकिन इंडस्‍ट्री की भाषा और कॉमर्स की भाषा, जहां से पैसा आता है, वह अंग्रेजी ही है। आईटी के आने के बाद तो अंग्रेजी और तेजी से बढ़ी है। हालांकि अब ट्रांसलेशन वगैरह मौजूद हैं, लेकिन मानसिकता तो अंग्रेजी की ही बनी हुई है। एक इंडिया है और एक भारत है। इसमें पत्रकारिता ही क्या करे, यह तो पूरे समाज की समस्‍या है। आजकल कौन अपने बच्‍चों को हिंदी स्‍कूल में पढ़ाना चाहता है। हिंदी के पत्रकार हों अथवा संपादक, उनके बच्‍चे भी अंग्रेजी स्‍कूलों के ही पढ़े हुए हैं और पढ़ते भी हैं।

इंडस्‍ट्री इस देश में सबसे ज्‍यादा पैसा देती है, टैक्‍स देती है। बॉलिवुड इंडस्‍ट्री पूरी हिंदी में चलती है लेकिन जब स्क्रिप्‍ट पढ़ते हैं तो अंग्रेजी में पढ़ते हैं। टीवी इंडस्‍ट्री भी पूरी हिंदी बेस है लेकिन इंटरव्‍यू वगैरह सब अंग्रेजी में देते हैं। इस बारे में आपका क्‍या कहना है ?

ब्रज खंडेलवाल : हमारे लिए तो न अंग्रेजी विदेशी भाषा है और न हिंदी। हमारे लिए दोनों भाषाएं बराबर हैं। हिंदी ही कौन सी ज्‍यादा पुरानी भाषा है। आज के समय में दोनों भाषाओं का ज्ञान होना बहुत जरूरी है और हर पढ़े-लिखे व्‍यक्ति को द्विभाषी होना ही चाहिए। जितनी ज्‍यादा भाषाएं सीखेंगे, उतना अच्‍छा है। कभी लगता है कि हमें तमिल आदि भाषाएं भी सीख लेनी चाहिए थीं। हालांकि इसकी जरूरत नहीं है लेकिन मुझे लगता है कि यदि सीख जाते तो अच्‍छा लगता।

आप वर्तमान में एक पत्रकार भी हैं, आंदोलनकारी भी हैं, समाजशास्त्री भी हैं और पर्यावरणविद् भी हैं। राजनीति में भी आपका दखल रहता है। ऐसे में एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि जब एक पत्रकार ये सब बन जाता है तो वह निष्‍पक्ष नहीं रह पाता है ?  

ब्रज खंडेलवाल : निष्‍पक्षता की बात तो यह है कि जिसके लिए हम काम करते हैं वह अपनी शर्तें रखता है। जो हमें सैलरी देता है वह हमारी स्‍वतंत्रता की सीमाएं तय करता है। हमें कितनी आजादी मिलेगी, हमारी कलम को कितनी आजादी मिलेगी, यह वो तय करेगा जो पैसा देता है। हमारा इसमें व्‍यक्तिगत कुछ नहीं होता है क्‍योंकि न तो हम कॉलम लिखते हैं और न ही एडिटोरियल लिखते हैं। हम तो सिर्फ रिपोर्टर हैं। जीरो ग्राउंड से रिपोर्ट करते हैं और जो आंखों देखा हाल है, वह लिखते हैं। लेकिन यह आपके ऊपर है कि आप किस चीज को हाईलाइट करते हैं। ये भी हो सकता है कि आप रीडर्स के हिसाब से काम करें, क्‍योंकि हिंदी के रीडर्स अलग हैं और अंग्रेजी के अलग, तो उस हिसाब से भी स्‍टोरी हो जाती है।          

जब कोई पत्रकार पत्रकारिता के साथ अन्‍य तमाम चीजें करता है तो कहीं न कहीं उसकी विचारधारा उस तरह की हो जाती है। फिर चाहे वह राजनीति में ही क्यों न हो, कहीं न कहीं उसका प्रभाव पत्रकार की खबरों पर दिखता है। क्‍या एक पत्रकार को ये सब करना चाहिए या सिर्फ पत्रकारिता करनी चाहिए ?

ब्रज खंडेलवाल : यह तो पत्रकार की पसंद की बात है और परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। जिस तरह से एक पत्रकार को निचोड़कर रख दिया जाता है, उसके बाद न तो उसमें शक्ति बचती है और न इतना दिमाग बचता है कि वह कुछ और कर पाए। वो अपने घर का ही ख्‍याल रख ले, यही बहुत है। पहली बात तो यह है कि हम इस मामले में इसलिए भाग्‍यशाली हैं कि हमारे पास समय ज्‍यादा है। दूसरी बात ये है कि हम शुरू से ही अन्‍य गतिविधियों में भी शामिल रहे हैं। जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा था कि मेरे एजेंडे में पत्रकारिता एक हथियार है अपने विचारों को फैलाने का। मेरे आदर्श, मेरे सपने आदि जो भी हैं, उनको प्रचारित करने के लिए यह मेरा एक हथियार है। तो मैं इस तरह की बातों का बचाव नहीं करता और पत्रकारिता में अपनी बात कहने का मुझे जो भी अवसर मिलेगा, फिर चाहे वह यमुना का मामला हो, पर्यावरण का हो अथवा अत्‍याचार का हो, मैं पत्रकारिता का पूरा इस्‍तेमाल करता हूं। यानी जब भी इंसानियत के खिलाफ कुछ गलत होगा, मैं उसे नमक-मिर्च लगाकर पूरा बवाल खड़ा करूंगा। यानी यूं कह सकते हैं कि पूरा मसाला बनाकर पेश करूंगा। मुझे इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता है, क्‍योंकि मैं एक पेशेवर पत्रकार नहीं हूं, इसलिए मुझे इन चीजों से कोई फर्क नहीं पड़ता है। यह मेरा पैशन है और इसके लिए कई विकल्‍पों का त्‍याग भी किया है कि मुझे गलत काम नहीं करना है या इस पर स्‍टोरी नहीं करनी है। मुझे कोई आदेशित नहीं कर पाया कि इसे हाईलाइट करना है, जबकि बाकियों के साथ ऐसा नहीं है। इस बात से मुझे नुकसान भी हुआ और मैंने झेल लिया। ऐसी परिस्थितियों में मैं चुपचाप रहा और बीच का रास्‍ता निकाल लिया लेकिन अपने मन के विपरीत जाकर नहीं किया। ऐसा एक बार नहीं बल्कि कई बार होता है।

 देश के कई बड़े संपादकों और पत्रकारों का कहना है कि सोशल मीडिया ही ऐसा मीडिया है जिसका प्रिंट और टेलिविजन मीडिया पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ता है। कहा जाता है कि यह उसी तरह से है जिस तरह से बंदर के हाथ में उस्‍तरा है, जिसकी कोई क्रेडिबिलिटी नहीं है। ऐसे में यह स्‍थापित मीडिया संस्‍थानों के लिए कोई चुनौती भी नहीं हैं। लेकिन आप एक ऐसे पत्रकार हैं जो लगातार सोशल मीडिया पर एक्टिव रहते हैं। कहा जाता है कि सोशल मीडिया पर हर आदमी संपादक और पत्रकार है। ऐसे में सोशल मीडिया और इसकी क्रेडिबिलिटी के बारे में आपका क्‍या कहना है ? 

ब्रज खंडेलवाल : मैंने अपने विचारों के लिए सोशल मीडिया का भरपूर इस्‍तेमाल किया है। आजकल तो प्रत्‍येक मीडिया की क्रेडिबिलिटी सवालों के घेरे में है। सोशल मीडिया के आने से बहुत सी चीजें बदली हैं। पहले नियंत्रण मालिकों के हाथ में रहता था। वनवे ट्रैफिक रहता था। एक एडिटर ने जो परोस दिया वह आपको स्‍वीकार करना है। रीडर को न कोई सुविधा थी और न अधिकार कि वह उस पर प्रतिक्रिया दे लेकिन अब सब एक ही मैदान में है। सामने से कुछ आता है तो हम भी अपनी तरह से शुरू हो जाते हैं, यानी चीजें बराबर कर देते हैं। किसी ने गलत खबर लिख दी है तो उसे बैलेंस करने का यह अच्‍छा तरीका है। सोशल मीडिया पर स्‍टोरी भी ब्रेक हो रही हैं। अब सारा नियंत्रण पाठकों के हाथों में है। ऐसे में जो एकाधिकार बना हुआ था और मठाधीशी थी, वह खत्‍म हो रही है, जो मेरी नजर में अच्‍छी बात है यह जरूरी भी था।

वामपंथी होने के बावजूद आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ भी करते हैं?

ब्रज खंडेलवाल : ऐसा नहीं हैं। मै मोदी की तारीफ नहीं बल्कि नीतियों की तारीफ करता हूं और देशहित में नीतियों की तारीफ करनी भी चाहिए। कभी-कभी इन नीतियों का लाभ किसी व्‍यक्ति को भी मिल जाता है, इसलिए मोदी को इनका लाभ मिलता है। जहां पर जरूरी है तो मैं मोदी की खिंचाई भी करता हूं।

सुना है एक बार आप चुनाव भी लड़े हैं?

ब्रज खंडेलवाल : यह सही बात है। वर्ष 1993 में मैंने विधानसभा चुनाव भी लड़ा था। हालंकि मैं उसमें हार गया था, मुझे सिर्फ तीन-चार सौ वोट मिले थे। 

क्‍या आपको लग रहा था कि यदि आप चुनाव जीत जाते हैं तो राजनेता हो जाएंगे?

ब्रज खंडेलवाल : ऐसी बात नहीं है। दरअसल मुझे एक प्रोजेक्‍ट करना था भारतीय निर्वाचन प्रणाली के बारे में। मैंने सोचा कि जगह-जगह जाकर पूछूं कि क्‍या होता है और कैसे होता है, इससे अच्‍छा तो यह है कि खुद ही चुनाव लड़ लो। पूरी प्रक्रिया को समझने के लिए कि कागजात कैसे तैयार होते हैं और जमा होते हैं। कैसे शपथ ली जाती है आदि के बारे में जानने के लिए ही मैंने चुनाव लड़ा और काफी अच्‍छी समझ हो गई।

आपने काफी सहजता से स्‍वीकार किया है कि आप वामपंथी हैं लेकिन आप देख रहे हैं कि देश में वामपंथ खत्‍म होता जा रहा है। ऐसे में आपको क्‍या लगता है कि ऐसा क्‍यों होता जा रहा है?

ब्रज खंडेलवाल : लेफ्ट यानी वामपंथ काफी व्‍यापक है। लोगों के दिमाग में सिर्फ कम्‍युनिस्‍टों के बारे में सोच है। पार्टी अथवा संगठन भले ही खत्‍म हो जाएं लेकिन विचारधारा के स्‍तर पर वैचारिक स्‍वतंत्रता और समानता की जो मूल भावना है, वह बुनियादी है। यानी कोई बड़ा-छोटा नहीं है, कोई अमीर-गरीब नहीं है और सब बराबर हैं। ये सब मुद्दे खत्‍म होने वाले नहीं हैं।  

आप जिन मुद्दों की बात कर रहे हैं, वे तो दक्षिणपंथी भी उठाते हैं?

ब्रज खंडेलवाल : मेरी नजर में दक्षिणपंथी (राइट) का मतलब पूंजीवादी प्रक्रिया है। वे बोलते क्‍या हैं, ये सब छोड़ो। वे लोग यथास्थितिवादी के पुजारी हैं। वे बदलाव के विरोधी हैं और किसी तरह का बदलाव नहीं चाहते हैं। वे तो जातिवाद के भी हिमायती हैं, भले ही वे कुछ भी बोल लें। उनमें सामंतवाद विचारधारा भी है, भेदभाव भी है और छुआछूत भी है। लेकिन हम इन सबके खिलाफ हैं। शायद यही कारण रहा कि मैंने अपनी जाति बिरादरी में शादी भी नहीं की। वामपंथ से प्रभावित होने के कारण हमने समाज में फैली कई रुढि़वादियों का विरोध किया। 

प्रिंट मीडिया की बात करें तो कई वर्षों से सिर्फ आठ या दस बड़े अखबार ही हैं और वे ही चलते हैं। अब हर एक-दो साल में अखबार शुरू होते हैं और थोड़े समय बाद ही बंद हो जाते हैं। ऐसे में आपको क्‍या लगता है कि देश में यही गिने चुने आठ-दस अखबार ही हैं और बाकियों के लिए कोई स्‍कोप नहीं?   

ब्रज खंडेलवाल : सिर्फ अपने देश की बात ही नहीं है, यह तो पश्चिमी देशों में भी हुआ है। तमाम पत्रिकाएं बंद हो गईं और अखबारों का सर्कुलेशन कम हो गया। अखबारों का सर्कुलेशन कम हो जाए या बंद हो जाए, यह कोई चिंता की बात नहीं है।

कहने का मतलब यह है कि हमारे यहां प्रतिष्ठित अखबार बंद नहीं होते बल्कि जो नया वेंचर आता है, वह थोड़े समय में बंद हो जाता है। पिछले दस साल की बात करें तो शहर में आठ-दस नए वेंचर शुरू हुए लेकिन सब बंद हो गए। इसके बारे में आपका क्‍या सोचते हैं ?

ब्रज खंडेलवाल : यह तो एक प्रक्रिया है कि अखबार खुलते हैं और बंद होते हैं। पांच-छह अखबारों से ज्‍यादा की जरूरत ही क्‍या है।  

ऐसे में सवाल उठता है कि जब पांच-छह अखबारों से ज्‍यादा की जरूरत नहीं है तो आजकल प्रदेश में 400 से ज्‍यादा जर्नलिज्‍म इंस्‍टीट्यूट खुल गए हैं, जिनसे पढ़कर हजारों छात्र-छात्राएं बाहर निकलते हैं तो फिर वे कहां जाएंगे और उन्‍हें कहां नौकरी मिलेगी?

ब्रज खंडेलवाल : बाकी मीडिया को आप क्‍यों भूल जाते हैं, जो काफी आगे बढ़ रहा है। आजकल तमाम चैनल भी तो हैं।  

लेकिन इतने चैनल भी कहां हैं। दस साल पहले मुख्‍य तौर पर जो चैनल थे, वही आठ-दस चैनल आज भी सही चल रहे हैं जबकि बाकी खुलते हैं और कुछ समय बाद ही बंद हो जाते हैं। बाकी जो चल भी रहे हैं, उनकी आर्थिक स्थिति भी बेहतर नहीं है। वहां पता ही नहीं रहता है कि सैलरी मिलेगी भी अथवा नहीं। जबकि आईटी और मैनेजमेंट के साथ ऐसा नहीं हैं। इनकी हजारों कंपनियां हैं, जिनमें पता है कि नए छात्र-छात्राएं पढ़ाई पूरी कर खप जाएंगे। आप तो मीडिया को काफी समय से देख रहे हैं। इस दौरान मीडिया उस तेजी से आगे नहीं बढ़ा है, जितना बढ़ना चाहिए था? 

ब्रज खंडेलवाल : ऐसी बात नहीं है। इतने वर्षों में मीडिया काफी बढ़ा है। कई नए प्‍लेटफॉर्म्‍स आ गए हैं। सूचना का प्रवाह भी काफी बढ़ा है। आजकल स्‍मार्टफोन के रूप में मीडिया में एक बड़ा हथियार आ गया है। न्‍यूज का इस्‍तेमाल ओर उसका प्रवाह काफी तेजी से बढ़ा है। रही बात छात्रों की संख्‍या और रोजगार के अवसरों की तो इसमें पढ़ाई-लिखाई करना काफी आसान है। आप साधारण तरीके से एक डिप्‍लोमा या डिग्री पूरी कर लेते हैं और अखबार में लग जाते हैं जबकि अन्‍य कोर्सों जैसे वकालत की ही बात करें तो वहां कितनी ज्‍यादा पढ़ाई करनी होती है। डॉक्‍टर की ही बात करें तो पढ़ाई के साथ इंटर्नशिप में भी कितनी कड़ी मेहनत लगती है लेकिन अखबारों में तो इस तरह का कुछ होता नहीं है। करेसपॉडेंस कोर्स करके भी आप इसमें आ सकते हैं। इसमें सबसे ज्‍यादा मुश्किल पढ़ाई लिखाई यानी सेल्‍फ स्‍टडी बहुत मायने रखती है, जो आजकल अधिकार छात्र-छात्राएं करते नहीं हैं। जो इस प्रफेशन के प्रति बहुत ज्‍यादा गंभीर होते हैं, वे वास्‍तव में पढ़ाई-लिखाई बहुत करते हैं। उनका सामान्‍य ज्ञान भी बहुत बेहतर होता है। इन लोगों की भाषा भी काफी अच्‍छी होती है। हालांकि ऐसे लोग चुनिंदा होते हैं और देर-सवेर वे कहीं न कहीं नौकरी पा ही जाते हैं। बाकी जो भीड़ बचती है, वह कैमरा लेकर घूम रही है। आजकल तो काफी यूट्यूब चैनल खुल गए हैं। पहले जिस तरह ग‍ली-मोहल्‍लों में कुकरमुत्‍तों की तरह अखबार खुले होते थे, आज उनकी जगह यूट्यूब चैनल खुल गए हैं। ऐसे कई लोग खुद को पत्रकार कहते तो हैं, लेकिन इनमें पत्रकारिता के कितने गुण हैं, यह देखने की बात है।  

आजकल डिजिटल मीडिया का दौर है और इस नई सरकार में डिजिटल मीडिया पर काफी कुछ हुआ है लेकिन हम डिजिटल मीडिया के रेगुलेशन की बात करें तो कई नई वेबसाइट खुलीं लेकिन तमाम बंद हो रहीं हैं क्‍योंकि इसमें रेवेन्‍यू का कोई मॉडल तय नहीं है। आज भी उस हिसाब से पैसा नहीं आ रहा है, जिस हिसाब से आना चाहिए। 'एनडीटीवी' को छोड़ दें तो कोई भी बड़ा ऑर्गनाइजेशन डिजिटल से उतना रेवेन्‍यू नहीं जुटा पाता है, जितना जुटना चाहिए। हालांकि एनडीटीवी का प्रॉफिट टीवी के मुकाबले डिजिटल से ज्‍यादा रहता है क्‍योंकि उसका टीवी नुकसान में रहता है। ऐसे में आपको क्‍या दिखता है यह बुलबुला टाइप है जो एक दिन फूट जाएगा। क्‍योंकि अभी इसमें सिर्फ इंवेस्‍टर है, जबकि इसमें आ क्‍या रहा है यह अभी तय नहीं है। आखिर इंडस्‍ट्री में रेवेन्‍यू मॉडल तो होना ही चाहिए। इस बारे में आपका क्‍या कहना है ? 

ब्रज खंडेलवाल : यदि बुलबुले फूट जाएंगे तो फूट जाएं, इसमें आखिर मुश्किल क्‍या है। दरअसल, टेक्‍नोलॉजी इतनी तेजी से बढ़ रही है कि इस बारे में बहुत ज्‍यादा अनुमान लगाना मुश्किल है कि कल क्‍या होगा।  

कहने का मतलब है कि आपने प्रिंट, टीवी और रेडियो इंडस्‍ट्री देखी है। वहां एक रेवेन्‍यू मॉडल है। वहां पैसे का टर्नओवर होता है और पैसा आता भी है। आपका इस बारे में क्‍या कहना है कि क्‍या डिजिटल ऐसा हो पाएगा ? 

ब्रज खंडेलवाल : मुझे इसकी ज्यादा जानकारी नहीं है। मैं सिर्फ इतना कहूंगा कि इंफॉर्मेशन के लिए जबरदस्‍त भूख है और इसे तैयार करने की ग्रोथ हजारों गुना हुई है। जब इंफॉर्मेशन तैयार हो रही है तो उसके लिए नेटवर्क भी होगा और सप्‍लायर्स भी होंगे यानी सब चीजें होंगी। पत्रकारिता के लिए यह महत्वपूर्ण है कि लोगों में जानने की इच्‍छा है या नहीं है। वो इंफॉर्मेशन चाहते हैं अथवा नहीं। अब कौन आएगा, कौन जाएगा और कितना कमाएगा, यह सब बहुत कारणों पर निर्भर करता है।    

बतौर शिक्षक आप 'केएमआई' में पढ़ाते थे, अब केंद्रीय हिंदी संस्‍थान में पढ़ाते हैं। ऐसे में एक शिक्षक के तौर पर आप पत्रकारिता के उन नए छात्रों के बारे में क्‍या देखते हैं कि वे क्‍यों आ रहे हैं, किस पृष्‍ठभूमि से आ रहे हैं। हमें लगता है कि इसमें तमाम लोग वे भी आ जाते हैं जिन्‍हें पत्रकार नहीं भी बनना होता है, बस उन्हें डिग्री चाहिए होती है। दूसरा सवाल ये है कि जब वे पढ़ाई पूरी कर जाते हैं तो उनकी नियुक्ति किस प्रकार होती है। इसमें कितना प्रतिशत होता है और तीसरा ये कि जब आपके पुराने शिष्‍य आपको मिलते हैं तो आप कैसा महसूस करते हैं ? 

ब्रज खंडेलवाल : पहली बात तो यह है कि हम जो डिप्‍लोमा आदि करा रहे हैं, उसका सीमि‍त उद्देश्‍य नहीं है कि वह सिर्फ मीडिया में जाएं। वे अच्‍छे इंसान बनें, उनके कम्‍युनिकेशन स्किल्‍स अच्‍छे हों। आजकल बहुत सारे लोग आ रहे हैं, जो पहले से ही कहीं काम कर रहे हैं। ऐसे लोग सिर्फ अपने कम्‍युनिकेशन में धार देने के लिए जर्नलिज्‍म का डिप्‍लोमा कर रहे हैं। पब्लिक रिलेशन में उनके लिए काफी संभावनाएं हैं और वे लोग हो भी रहे हैं। बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं जो कंप्‍टीशन की तैयारी में लगे हुए हैं। उन्‍होंने बताया है कि यह डिप्‍लोमा करने के बाद उनकी लेखन शैली बहुत अच्‍छी हुई है। इंटरव्‍यू का सामना करने में भी आसानी हुई है। तो इसे सिर्फ मीडिया में रोजगार से ही जोड़कर नहीं देख सकते हैं। ऐसा ही एक वाक्‍या मुझे याद है कि जब मैंने अपनी एक छात्रा से पूछा कि तुम्‍हारी तो शादी हो जाएगी तुम इस डिप्‍लोमा का क्‍या करोगी तो उसका खुलकर कहना था कि हम तो इसे फ्रेम करके लगाएंगे, सास इससे ही बहुत डर जाएगी। एक और लड़की का कहना है कि हमारे ससुराल वाले तो बहुत डरे रहते हैं कि उनकी बहू पत्रकार बनकर आ रही है, पता नहीं क्‍या करेगी। यह पुराने जमाने में होता था जब मैं केएमआई में था कि हर किसी को मीडिया में ही जाना है लेकिन अब यह फोकस बिल्‍कुल बदल गया है। केंद्रीय हिंदी संस्‍थान का तो बिल्‍कुल ही बदला हुआ है। वहां कई सारे शिक्षक हैं, शिक्षामित्र हैं और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले भी हैं। हर तरह के छात्र-छात्राएं हैं। कई तो शुरू में ही बता देते हैं कि हमें मीडिया में नहीं जाना है। सिर्फ दो-चार ही होते हैं जो कैमरा लेकर इधर-उधर घूमने के लिए तैयार हैं। नौकरी न लगे तो कुछ दिन करने के बाद वे भी खिसक जाते हैं। कहने का मतलब है कि यह अब सामान्‍य तौर पर वैल्‍यू एडिशन वाला कोर्स बन चुका है। किसी और कोर्स जैसे एमबीए आदि के साथ यह कोर्स कर लिया तो आपको आगे तरक्‍की में काफी संभावनाएं हो जाती हैं।    

आजकल एक नया कॉन्‍सेप्‍ट ईवेंट जर्नलिज्‍म का चल रहा है। इसमें तमाम पत्रकार पब्लिक रिलेशन कर रहे हैं। ईवेंट कर रहे हैं। उस पर तीखे कमेंट भी होते हैं। आपको क्‍या लगता है कि ईवेंट जर्नलिज्‍म ठीक नहीं है या पत्रकार अगर नौकरी छोड़कर पीआर बन रहा है तो आपको क्‍या आपत्ति है। क्‍या आपका मानना है कि ईवेंट जर्नलिज्‍म की वजह से जर्नलिज्‍म को खास नुकसान नहीं हो रहा है ? 

ब्रज खंडेलवाल : यह तो उसकी स्‍वतंत्रता है कि वह जो मन में आए, करे। ईवेंट्स अब मीडिया का हिस्‍सा बन चुके हैं। ऐसे में यदि वह नहीं करेगा तो कोई और करेगा। यह पीआर, प्रमोशन और बिजनेस स्‍ट्रेटजी का हिस्‍सा है। इसमें मुझे कोई बुराई नजर नहीं आती है। अगर यह सार्वजनिक रूप से हो रहा है तो कोई दिक्‍कत नहीं है। यह पारदर्शी होना चाहिए, इसमें कुछ छिपा नहीं होना चाहिए। सभी लोग कोई भी काम करने के लिए स्‍वतंत्र हैं।  

इसमें एक समस्‍या यह होती है कि तमाम ईवेंट्स में जो मंचासीन लोग होते हैं, इनमें से कर्इ लोग ऐसे होते हैं जो कहीं पर भी मंच पर बैठने लायक नहीं होते हैं। इस बारे में आपका क्‍या कहना है? 

ब्रज खंडेलवाल : यह मीडिया का प्रॉब्‍लम नहीं है, यह तो समाज का प्रॉब्लम है। समाज में घटिया लोग भी होते हैं।  

हमारा मानना है कि मीडिया बहुत स्‍ट्रॉंग है, वह इन सब चीजों को चेक करेगा। मीडिया छापता भी है और मीडिया के लोग पीआर बनकर वह ईवेंट भी करते हैं। इस बारे में कुछ बताएं? 

ब्रज खंडेलवाल : चूंकि इस तरह के लोग फाइनेंस करते हैं तो एक तरह से वह उस मीडिया में स्‍पेस खरीद लेते हैं। आखिर पीआर क्‍या होता है, अनपेड पब्लिसिटी। आमतौर पर होता यही है कि यदि सीधे विज्ञापन के पैसे नहीं दे रहे हो तो घुमाकर दे दो इस तरह प्रेस कॉन्‍फ्रेंस करके।

पिछले दो दशक से आप पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ा रहे हैं। क्‍या आपके छात्र किसी जगह पर पहुंचे हैं या आगरा से बाहर सेट हो गए हैं। आज जब आपको अपने पुराने छात्र मिलते हैं तो आपको कैसा लगता है कि आपने शिक्षक के तौर पर जो यह शुरुआत की है, उसमें भी आपने कामयाबी पाई है? 

ब्रज खंडेलवाल : मुझे ऐसे बहुत सारे लोग मिलते रहते हैं। इनमें जो पत्रकार बन गए, वे अच्‍छा कर रहे हैं। जो पत्रकार नहीं बन पाए, वे जिस फील्‍ड में भी हैं अच्‍छा कर रहे हैं। इनमें से कई डॉक्‍टर्स भी हैं, जिन्‍होंने पत्रकारिता भी की है और अब अच्‍छे डॉक्‍टर के रूप में काम कर रहे हैं। इनमें एक पुलकित है, दूसरा राजकुमार है। ये दोनों नाम तो मुझे याद हैं। एक लेखपाल बन गया है जौनपुर में कहीं पर। कहने का मतलब है कि हम सिर्फ मीडिया टेक्‍निक ही नहीं सिखाते हैं, बल्कि छात्र के सर्वांगीण विकास पर ध्‍यान देते हैं। 

सुना है कि आपके एक पुराने स्‍टूडेंट पत्रकारिता के बाद रेलवे में चले गए लेकिन सरकारी नौकरी छोड़कर फिर वे पत्रकारिता में आ गए। जबकि आजकल ज्‍यादातर पत्रकार पीआरओ बनना चाहते हैं। इस बारे में आपका क्‍या कहना है? 

ब्रज खंडेलवाल : यह बात सही है। दरअसल, उसे लगा कि रेलवे की नौकरी में उसे वह संतुष्टि नहीं मिलेगी। हालांकि मैंने उसे समझाया भी था कि यहां तनाव और अनिश्चितता रहेगी लेकिन उसका कहना था कि मैं ये सब झेल लूंगा। इसके बाद फिर मैंने कहा कि यदि तुम यही चाहते हो तो ठीक है, आ जाओ। 

 

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टीवी व डिजिटल में मुकाबले की बहस गलत, प्लेटफॉर्म की सीमाओं से आगे बढ़ें: आशीष सहगल

टाइम्स टेलीविजन नेटवर्क के नए CEO और मीडिया व एंटरटेनमेंट के चीफ ग्रोथ ऑफिसर आशीष सहगल ने कहा कि टीवी और डिजिटल के बीच मुकाबले की चर्चा एक गलत धारा है।

Samachar4media Bureau by
Published - Thursday, 18 December, 2025
Last Modified:
Thursday, 18 December, 2025
AshishSehagal78985

चहनीत कौर, सीनियर कॉरेस्पोंडेंट, एक्सचेंज4मीडिया ।।

टाइम्स टेलीविजन नेटवर्क के नए CEO और मीडिया व एंटरटेनमेंट के चीफ ग्रोथ ऑफिसर आशीष सहगल ने कहा कि टीवी और डिजिटल के बीच मुकाबले की चर्चा एक गलत धारा है। उनका कहना है कि मीडिया कंपनियों को सिर्फ किसी एक प्लेटफॉर्म तक सीमित रहने की बजाय इनकी सीमाओं से आगे बढ़कर सोचना चाहिए। सहगल के अनुसार कंटेंट और बिजनेस स्ट्रैटेजी तय करने में मीडियम नहीं, बल्कि उपभोक्ता का व्यवहार अहम होना चाहिए।

आशीष सहगल ने बुधवार को एक मीडिया राउंडटेबल में कहा, “टीवी और डिजिटल के बीच कोई मुकाबला नहीं है।”  उन्होंने आज के मीडिया इकोसिस्टम को “AND वर्ल्ड” बताया। उनका कहना है कि आज के दर्शक सिर्फ एक स्क्रीन तक सीमित नहीं हैं। “उपभोक्ता अब अलग-अलग फॉर्मेट और डिवाइस पर बैठे हैं,” उन्होंने कहा और जोड़ी कि कंटेंट स्ट्रैटेजी प्लेटफॉर्म के अनुसार नहीं, बल्कि इस वास्तविकता के केंद्र में बननी चाहिए।

एक न्यूजरूम, कई प्लेटफॉर्म

आशीष सहगल की सोच का मुख्य हिस्सा है एक एकीकृत न्यूजरूम बनाना, जो कई प्लेटफॉर्म्स को सेवा दे। इसका मतलब है कि कंटेंट एक एडिटोरियल कोर से बनाकर टीवी, डिजिटल और सोशल प्लेटफॉर्म के लिए एडजस्ट किया जाए, यह देखते हुए कि दर्शक किस प्लेटफॉर्म पर कैसे कंटेंट देख रहे हैं।

आशीष सहगल ने कहा, “कंटेंट एक बार बनाना है और फिर उसे समझदारी से डिस्ट्रीब्यूट करना है।” उन्होंने बताया कि लंबी कहानी टीवी पर बेहतर काम कर सकती है, जबकि मुख्य हाइलाइट्स सोशल मीडिया पर जा सकती हैं और एक्सटेंडेड या अतिरिक्त सामग्री यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म पर जा सकती है। उन्होंने साफ किया कि यह कोई नया बदलाव नहीं है, बल्कि टाइम्स नेटवर्क में पहले से चली आ रही रणनीति को तेज करने जैसा है।

आशीष सहगल ने संभाली GEC से न्यूज तक जिम्मेदारी: माइंडसेट का बदलाव

जी में कई साल बिताने के बाद आशीष सहगल ने माना कि न्यूज-फर्स्ट सेटअप में जाने के लिए माइंडसेट बदलना पड़ता है। उन्होंने बताया कि उन्होंने जी मीडिया कॉर्पोरेशन का नेतृत्व किया है और न्यूजरूम संचालन की अच्छी समझ रखते हैं। फर्क इस बात का है कि कंटेंट को कैसे पेश किया जाता है और मोनेटाइज किया जाता है।

सहगल ने बताया, “एंटरटेनमेंट आम जनता से बात करता है, न्यूज सोचने वाले लोगों से।” न्यूज में कंटेंट अक्सर एडवोकेसी रोल निभाता है, सिर्फ व्युअरशिप देने तक सीमित नहीं।

उपभोक्ता की समझ को पत्रकारिता में लाना

एंटरटेनमेंट से न्यूज में आने वाला मुख्य सीख है उपभोक्ता की समझ पर जोर देना। सहगल ने कहा कि एंटरटेनमेंट कंपनियां दर्शकों की पसंद को समझने में गहराई से निवेश करती हैं, जबकि न्यूजरूम अक्सर पत्रकार के दृष्टिकोण से कंटेंट बनाते हैं।

उन्होंने कहा, “न्यूज को भी उपभोक्ता के व्यवहार से प्रभावित होना चाहिए।” उन्होंने आगे कहा कि दर्शक अलग-अलग स्क्रीन और फॉर्मेट पर अलग तरह से जानकारी लेते हैं। साथ ही, न्यूज की जिम्मेदारी ज्यादा होती है। एंटरटेनमेंट के विपरीत, न्यूज कंटेंट भविष्य की कहानियों और सार्वजनिक राय को आकार देता है। इसलिए सटीकता, जवाबदेही और संतुलन बेहद जरूरी हैं। डिजिटल प्लेटफॉर्म पर विश्वसनीयता बनाना टाइम्स नेटवर्क के लिए प्राथमिकता है।

चुनाव, जिम्मेदारी और न्यूज की भूमिका

2026 में चुनावों के बढ़ते माहौल को देखते हुए, आशीष सहगल ने कहा कि न्यूज ब्रॉडकास्टर्स के लिए यह अवसर और जिम्मेदारी दोनों है। चुनाव वाणिज्यिक रूप से फायदेमंद हैं, लेकिन सरकार और नागरिकों के बीच पुल बनने की जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है।

उन्होंने कहा, “एक न्यूज नेटवर्क को सरकार की नीतियों को लोगों तक ले जाना है और लोगों की चिंताओं को सरकार तक पहुंचाना है।”  उन्होंने इंडिया इकनॉमिक कॉन्क्लेव जैसे प्लेटफॉर्म का उदाहरण दिया, जो बजट जैसे औपचारिक घोषणाओं से पहले आर्थिक और पॉलिसी डिस्कोर्स को आकार देने में मदद करते हैं।

रीच, प्रासंगिकता और रेवेन्यू

आशीष सहगल की उपभोक्ता-प्रथम सोच सभी डेमोग्राफिक्स पर लागू होती है। चाहे Gen Z, वर्किंग-एज एडल्ट्स या सीनियर सिटिजन्स हों, उनकी भलाई और देश की प्रगति जैसी आम आकांक्षाएं साझा हैं। न्यूज के माध्यम से अलग-अलग पीढ़ियों के मुद्दों को एक ही चैनल पर कवर किया जा सकता है, जबकि एंटरटेनमेंट में अक्सर तेज सेगमेंटेशन जरूरी होता है।

व्यवसाय की दृष्टि से आशीष सहगल ने कहा, “रीच तब आती है जब आप हर जगह उपभोक्ता के पास हों, प्रासंगिकता तब आती है जब कंटेंट मायने रखता है और रेवेन्यू विश्वास से आता है।” उन्होंने आगे कहा कि टाइम्स नेटवर्क अल्पकालिक मुनाफे से ऊपर जिम्मेदारी को प्राथमिकता देगा।

2025 और 2026 का परिदृश्य

2025 को आशीष सहगल ने उम्मीद से बेहतर बताया। शुरुआती महीने लोकसभा चुनाव के बाद कम सरकारी खर्च के कारण धीमे थे, लेकिन निजी विज्ञापन धीरे-धीरे बढ़ा। व्यापार और टैरिफ अनिश्चितताएं थीं, लेकिन हाल के GDP आंकड़ों ने आर्थिक गति में विश्वास बढ़ाया। इसका असर मीडिया खर्च और बड़े इवेंट्स में बढ़ी भागीदारी के रूप में देखा गया।

2026 के लिए सहगल आशावादी हैं। उन्होंने कहा, “जो हम देख रहे हैं वह इवेंट-लीड ग्रोथ नहीं है, बल्कि स्ट्रक्चरल मोमेंटम है।” उन्होंने उपभोक्ता डेटा और GDP ट्रेंड को संकेतक बताया।

विज्ञापन और अवसर

शिक्षा क्षेत्र धीरे-धीरे रिकवर हो रहा है। रियल एस्टेट प्रमुख क्षेत्र बना हुआ है, BFSI लगातार बढ़ रहा है। इंश्योरेंस में भी वृद्धि की उम्मीद है। FMCG स्थिर हो रहा है और दोहरे अंक की वृद्धि पर लौट सकता है। ट्रैवल और टूरिज्म भी गति पकड़ रहा है। AI को नए अवसर के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि तकनीक विज्ञापन रणनीतियों को बदल रही है।

TRP, विश्वसनीयता और सही पत्रकारिता

आशीष सहगल ने कहा कि TRP जरूरी है, लेकिन इसे सफलता का केवल पैमाना नहीं मानना चाहिए। रेटिंग्स मायने रखती हैं, लेकिन सब कुछ नहीं तय करती। सही पत्रकारिता का मतलब है देश की आवाज बनना, विविध दृष्टिकोण पेश करना और नागरिकों की चिंताओं को संबोधित करना।

Times Group की ताकत और आगे की राह

वाणिज्यिक दृष्टि से, सहगल ने टीवी, डिजिटल, इवेंट्स और एक्सपीरिएंशल प्लेटफॉर्म्स की बढ़ती अहमियत पर जोर दिया। उन्होंने दो तरफा ग्रोथ दृष्टिकोण बताया- एक मौजूदा ब्रैंड्स और इवेंट्स में गहराई से काम करना और दूसरा क्षैतिज विस्तार, भारत की बदलती अर्थव्यवस्था के अनुसार।

विशेष कंटेंट और भविष्य की दिशा

“Leaders of Tomorrow” जैसे स्पेशलाइज्ड कंटेंट पर लगातार ध्यान केंद्रित करना नेटवर्क की रणनीति का केंद्र है। एआई, क्लाइमेट चेंज, डिजिटल इकोनॉमी और क्रिप्टो जैसे विषय सार्वजनिक बहस को आकार देंगे।

आशीष सहगल ने कहा, TRP से आगे प्रभाव को मापना जरूरी है। स्वतंत्र मीडिया कवरेज और नीति पर प्रभाव जैसे इंडिया इकनॉमिक कॉन्क्लेव में देखा गया, वास्तविक प्रासंगिकता दिखाते हैं।

आशीष सहगल ने अंत में कहा, “सही पत्रकारिता का असली मूल्य सिर्फ संख्या में नहीं है, बल्कि प्रभाव, विश्वास और लंबे समय में असर में है।” 

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सफलता के लिए बदलाव की रफ्तार पकड़नी होगी: उदय शंकर

जियोस्टार के वाइस चेयरमैन उदय शंकर ने CII बिग पिक्चर समिट में भारतीय मीडिया के भविष्य पर SPNI के एमडी व सीईओ गौरव बनर्जी से बातचीत की।

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 03 December, 2025
Last Modified:
Wednesday, 03 December, 2025
UdayShankar

यह रहा आपका पूरा टेक्स्ट बहुत आसान, साफ़ और बोलचाल की हिंदी में — वाक्य विन्यास पूरी तरह सटीक रखा गया है और कहीं भी अर्थ बदला नहीं गया है:


'हम अपनी ही कल्पना से सीमित हो जाते हैं।' जियोस्टार के वाइस चेयरमैन उदय शंकर ने भारतीय मीडिया इंडस्ट्री पर यह सीधी और तीखी टिप्पणी करते हुए बातचीत की शुरुआत की। इसी के साथ उन्होंने कंटेंट, टैलेंट, रिस्क लेने और इंडस्ट्री को दोबारा गढ़ने जैसे मुद्दों पर आगे होने वाली चर्चा की दिशा तय कर दी।

उदय शंकर मुंबई में सोमवार को हुए CII बिग पिक्चर समिट के पहले दिन ‘बिल्डिंग M&E टाइटन्स: द उदय शंकर स्कूल ऑफ लीडरशिप’ सत्र में SPNI के एमडी और CEO गौरव बनर्जी से बात कर रहे थे।

अगले एक घंटे में शंकर ने उन फैसलों पर फिर बात की, जिन्होंने भारतीय टीवी को बदल दिया। उन्होंने इंडस्ट्री की उस सुस्ती पर भी चर्चा की, जिसके बारे में उनका मानना है कि यह आज मीडिया के कई हिस्सों को जकड़ रही है। उन्होंने अपनी वही बेचैनी और जिज्ञासा भी समझाई, जो आज भी उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। बातचीत में मीडिया इंडस्ट्री को आकार देने वाले कई बड़े मुद्दे शामिल रहे, जैसे- कंटेंट यूज करने के बदले पैटर्न, इंडस्ट्री की सुस्ती, टैलेंट फिलॉसफी, निवेशकों का भरोसा और AI की वजह से होने वाला रीइन्वेंशंस।

उम्मीद कहां है और अगला बड़ा मौका क्या है?

गौरव बनर्जी ने सबसे पहले पूछा कि विज्ञापनों की धीमी रफ्तार, टीवी का अनिश्चित भविष्य और स्ट्रीमिंग की असमान ग्रोथ के बीच शंकर इंडस्ट्री में उम्मीद कहां देखते हैं। उन्होंने पूछा, 'मीडिया का अगला बड़ा मौका कहां है?'

इस पर उदय शंकर ने साफ कहा कि भारतीय मीडिया अभी थका नहीं है। उन्होंने कहा, 'मैं इंडस्ट्री के भविष्य को लेकर बहुत आशावादी हूं।' उनके मुताबिक असली चुनौती यह है कि इंडस्ट्री खुद को कैसे परिभाषित करती है। मीडिया का मूल काम वही है, ऐसा कंटेंट बनाना जो उपभोक्ता का ध्यान खींचे। और यह ध्यान, उन्होंने कहा, आज सबसे ज्यादा है।

उनका कहना था कि लोग आज हर वक्त कंटेंट देख रहे हैं- बस स्टॉप पर, रिसेप्शन में, फ्लाइट का इंतजार करते हुए। लेकिन हमने अपनी इंडस्ट्री पर खुद ही सीमाएं लगा रखी हैं, यही हमारी समस्या है। उनके मुताबिक असली मौका कल्पना में है। उन्होंने कहा, 'हमारी इंडस्ट्री की संभावनाएं हमारी अपनी कल्पना और प्रयोग करने की इच्छा पर निर्भर हैं।'

उन्होंने बताया कि स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म और टेक मीडिया कंपनियां लगातार खुद को बदल रही हैं, जबकि पारंपरिक टीवी पुराने ढांचे में फंसा रह गया है। 'मुद्दा इंडस्ट्री की हालत नहीं है, बल्कि यह है कि हमने खेल कैसे खेला है। गेम बदल चुका है।'

डिस्ट्रिब्यूशन से आगे सोचने और कंटेंट कंपनियों को फिर से परिभाषित करने की जरूरत

गौरव बनर्जी ने पूछा कि क्या मीडिया कंपनियों को खुद को डिस्ट्रिब्यूटर नहीं, बल्कि कहानीकार समझने की जरूरत है? 

इस पर उदय शंकर ने तुरंत कहा, 'बिल्कुल।' अपना तर्क समझाने के लिए उन्होंने कहा, 'हमने बहुत सारे ताबूत खरीद लिए, लेकिन हमारे पास डालने के लिए इतने ‘मरे हुए लोग’ ही नहीं हैं। इसलिए हम किसी के मरने का इंतजार करते रहते हैं।' मतलब- मीडिया कंपनियां पुराने मॉडल के खत्म होने का इंतजार कर रही हैं, नए बनाने के बजाय।

उन्होंने बताया कि जब स्टार ने स्ट्रीमिंग शुरू करने की सोची थी, तब डेटा बेहद महंगा था और वाई-फाई लगभग नहीं था। फिर भी उन्होंने ऐसा किया क्योंकि उनका मानना था कि क्रिएटर को डिवाइस नहीं, उपभोक्ता को फॉलो करना चाहिए।

उदय शंकर ने शुरुआती टीवी न्यूज की सीमाएं याद कीं, जब ब्रॉडकास्टर पूरे दिन दर्शकों के घर लौटने का इंतजार करते थे। जबकि आज दर्शकों तक तुरंत पहुंचा जा सकता है। उनका मानना है कि अगला बड़ा कदम मोबाइल से भी आगे जाएगा- शायद वियरेबल्स और एम्बिएंट स्क्रीन की ओर। उन्होंने कहा, असली रुकावट हमारी सोच है, डिस्ट्रिब्यूशन नहीं।

लीडर टीमों को ऐसे भविष्य के लिए कैसे तैयार करें, जो अभी बना ही नहीं

गौरव बनर्जी ने पूछा कि जब भविष्य का मॉडल बना ही नहीं है, तब टीमें कैसे तैयार हों?

इस पर उदय शंकर ने कहा कि भविष्य की तैयारी नहीं की जा सकती, केवल खुद को तैयार किया जा सकता है। 'आपको फुर्तीला, खुले दिमाग वाला और मौके पकड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए।' उनके अनुसार स्किल्स हमेशा बदलती हैं, लेकिन सीखते रहने की क्षमता सबसे महत्वपूर्ण है।

उन्होंने याद किया कि पहले टीवी प्रॉडक्शन कितनी बड़ी मशीनों और मुश्किल प्रोसेस से होता था, जबकि आज वही काम फोन पर हो जाता है। उन्होंने कहा, 'यदि कोई एडिटर उन पुराने उपकरणों पर ही अटका रहता और समय के साथ आगे नहीं बढ़ता, तो वह पीछे छूट जाता।' उनका संदेश सीधा था: 'दुनिया बदलती रहेगी। आपको बस उतनी ही तेजी से बदलाव अपनाने के लिए तैयार रहना चाहिए। किसी एक स्किल पर अटकिए मत।'

बड़े निवेशकों को बड़ी आइडियाज पर कैसे भरोसा दिलाएं

इस पर उदय शंकर ने कहा, 'आपके पास शानदार आइडिया होने चाहिए और उन पर मर मिटने जितना विश्वास भी।' लेकिन भरोसा केवल आइडिया पर नहीं, लोगों पर बनता है। 'सबसे पहले मैं देखता हूं कि उस काम के लिए सबसे सही व्यक्ति कौन है।'

उन्होंने कहा कि टैलेंट सिर्फ अपने घनिष्ठ दायरे या इंडस्ट्री के अंदर ही ढूंढने की गलती नहीं करनी चाहिए। मीडिया आज टेक, बिजनेस, मार्केटिंग और ब्रांडिंग जैसे कई नए क्षेत्रों से प्रभावित हो रहा है। 'हमने बाहर की दुनिया से सबसे अच्छा टैलेंट लाने का काम अच्छी तरह नहीं किया है।'

उदय शंकर का टैलेंट खोजने का तरीका

गौरव बनर्जी ने पूछा कि वह टैलेंट कैसे पहचानते हैं? इस पर उदय शंकर ने कहा, 'सबसे पहले, आपको यह जानना चाहिए कि आपके पास क्या नहीं है।'

वे ऐसे लोगों की तलाश करते हैं जो किसी एक काम में 100 प्रतिशत माहिर हों- भले ही बाकी सब में कमजोर हों। उनके अनुसार ऐसे विशेषज्ञ इंडस्ट्री को आगे बढ़ाते हैं और ढर्रे को चुनौती देते हैं। 'जब आप ऐसे 10–20 लोगों को साथ लाते हैं, तो आपकी पूरी टीम मजबूत बन जाती है।'

रिस्क लेने की क्षमता कहां से आती है?

गौरव बनर्जी ने पूछा कि उनकी रिस्क लेने की ताकत कहां से आती है।

उदय शंकर ने कहा, 'जिंदगी एक्सपेरीमेंट और इनोवेशन से चलती है। और यदि आपके प्रयोग फेल नहीं हो रहे, तो आप प्रयोग ही नहीं कर रहे।' उन्होंने कहा कि सफलता हमेशा असफलताओं की नींव पर खड़ी होती है, जिसे लोग बाद में भूल जाते हैं।

फिर गौरव बनर्जी ने उनका सबसे बड़ा रिस्क याद किया- 'सत्यमेव जयते' शो बनाना। यह फैसला उन्होंने तब लिया जब स्टार प्लस टॉप पर था। उदय शंकर ने कहा कि वह तभी प्रयोग करना पसंद करते हैं जब स्थिति मजबूत हो, क्योंकि डर कम होता है।

'सत्यमेव जयते' ने हर नियम तोड़ा- बोलने का तरीका, पैकेजिंग, मार्केटिंग, फॉर्मेट, यहां तक कि इसका सुबह का टाइम-स्लॉट भी। उन्होंने कहा, 'यदि आप मुझसे उस समय पूछते कि यह सफल होगा या नहीं, तो मुझे बिल्कुल पता नहीं था।' लेकिन यह आइडिया मनोरंजन की परिभाषा को आगे बढ़ाता था, इसलिए उन्होंने इसे किया।

अंत में बनर्जी ने पूछा, 'आज आपको किस बात की बेचैनी है?'

इस सवाल पर उदय शंकर ने कहा कि लाइव क्रिकेट प्रॉडक्शन को और बेहतर बनाने का जुनून तो हमेशा रहेगा, लेकिन फिलहाल वह AI को लेकर बेहद उत्साहित हैं। उनका मानना है कि AI क्रिएटिविटी को लोकतांत्रिक बना सकता है- जहां टैलेंट, प्रॉडक्शन क्षमता और लागत जैसी सीमाएं खत्म हो जाएंगी। उन्होंने कहा, 'टैलेंट नहीं मिल रहा? कोई बात नहीं, मैं उसे बना लूंगा।' 

उनके लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एक आजादी है- एक तरीका जिससे कहानी कहने की सीमाएं खत्म हो सकती हैं। उन्होंने कहा, 'फिर हम इसके लिए उत्साहित क्यों न हों? मेरा ध्यान इस बात पर है कि इसे इस्तेमाल करके दर्शकों को और ज्यादा कैसे जोड़ा जाए।' 

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इस माहौल में पत्रकारिता की क्रेडिबिलिटी बचाना ही सबसे बड़ी चुनौती है: संजय कपूर

‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ के नवनिर्वाचित प्रेजिडेंट संजय कपूर का कहना है, हमारी कोशिश रहेगी कि हम सरकार और संवैधानिक संस्थानों के साथ संवाद स्थापित करें और मीडिया की ‘सेहत’ बेहतर करें।

pankaj sharma by
Published - Monday, 01 December, 2025
Last Modified:
Monday, 01 December, 2025
Sanjay Kapoor Editors Guild

वरिष्ठ पत्रकार और ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ (Editors Guild of India) के नवनिर्वाचित प्रेजिडेंट संजय कपूर से हाल ही में समाचार4मीडिया ने खास बातचीत की। इस दौरान संजय कपूर ने गिल्ड समेत मीडिया से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखी। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:  

सबसे पहले आप अपनी पत्रकारिता यात्रा और शुरुआती दौर के अनुभवों के बारे में बताएं। ऐसा कौन सा अनुभव था, जिसने आपकी सोच और विजन को प्रभावित किया कि आपको मीडिया में जाना है?

मेरी पत्रकारिता यात्रा इसी ‘इंडियन न्यूजपेपर सोसायटी’ (INS) बिल्डिंग से शुरू हुई। यहां हमारा दफ्तर था। मैं उस समय 'ब्लिट्ज' (Blitz) अखबार में काम करता था, जो मुंबई से प्रकाशित होने वाला साप्ताहिक अखबार था। दूसरी मंजिल पर उसका मुख्य दफ्तर था और वहीं से मैंने लेखन शुरू किया। मैं करीब 10 साल वहीं रहा और इस दौरान कई चीजें सीखीं।

उस समय यह हिन्दुस्तान का अकेला ऐसा टैबलॉयड था जो लेफ्ट ऑफ सेंटर विचारधारा वाला था और काफी दबंग पत्रकारिता करता था। मैं वर्ष 1987 में इसमें शामिल हुआ और 1998 तक वहां रहा। इस बीच मैंने 10 साल में ब्यूरो चीफ तक की पोजीशन हासिल की और कई बड़ी खबरें कीं, खासकर इन्वेस्टिगेटिव पत्रकारिता में।

'हार्डन्यूज' (HardNews) नाम से आपका अपना मीडिया प्लेटफॉर्म है। इसके बारे में कुछ बताएं?

'ब्लिट्ज' में मेरी खोजी पत्रकारिता काफी गंभीर थी। मैंने जैन हवाला स्कैंडल को ब्रेक किया, जो उस समय चर्चा का विषय बन गया। इस खबर के बाद 1996 में नरसिम्हा राव सरकार डगमगा गई थी। विदेशी मीडिया ने इस रिपोर्टिंग को सराहा और मेरे बारे में भी लिखा।

अखबार बंद होने के बाद मैंने 'एशिया वीक', जो टाइम मैगजीन ग्रुप की हांगकांग आधारित पत्रिका थी, में इंडिया करेसपॉन्डेंट के रूप में काम किया। बाद में मैं 'मिड डे' अखबार का एडिटर बन गया और फिर मैंने अपनी पत्रिका 'हार्डन्यूज़' शुरू की। 'हार्डन्यूज' इसलिए, क्योंकि उस समय मीडिया में सॉफ्ट न्यूज पर ज्यादा जोर था। लोगों ने ट्रिविया या थर्ड-पेज की खबरों को महत्व दिया। मैंने इस माहौल में 'हार्डन्यूज' मैगजीन शुरू की। कई लोग इससे जुड़े और हमने कई गंभीर खबरें कीं। लेकिन पत्रकार होने के कारण मेरी सबसे बड़ी चुनौती मार्केटिंग थी।

वर्ष 2019–20 के आसपास मैंने इस मैगजीन की हार्ड कॉपी बंद कर ऑनलाइन संस्करण चालू किया। इसके लिए एक फ्रेंच मैगजीन 'Le Monde Diplomatique' से पार्टनरशिप थी। हमारी हार्डन्यूज महीने में एक बार प्रकाशित होती थी और वेबसाइट पर रोजाना कंटेंट अपलोड होता था।

आजकल डिजिटल और सब्सक्रिप्शन मॉडल को लेकर क्या सोचते हैं?

सबसे बड़ी समस्या यह है कि पब्लिकेशन वायबल कैसे बने। पैसा कहां से आए? एडवर्टाइजमेंट, इवेंट्स आदि से। कंटेंट तक पहुंचने के लिए सब्सक्रिप्शन मॉडल उपयोगी हो सकता है, लेकिन इंटरनेट पर इतनी सामग्री उपलब्ध है कि अगर पाठकों की लॉयल्टी नहीं बनी, तो वे कहीं और चले जाएंगे। इसलिए खबरें और लेख अनूठे, यूनिक और बेहतर होने चाहिए।

आज सबसे बड़ा खतरा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और चैटजीपीटी से है। पत्रकार की अहमियत कम होती जा रही है। यदि कंटेंट यूनिक नहीं है तो पत्रकारों की भूमिका भी कमजोर पड़ जाएगी। इसके साथ फेक न्यूज का खतरा भी बढ़ रहा है।

आप अपने ‘हार्डन्यूज’ बिजनेस मॉडल को कैसे अपडेट करेंगे?

हमें यह देखना होगा कि समय के साथ पाठकों का व्यवहार बदल गया है। मैं चाहूंगा कि हम एक डेली न्यूजपेपर या डिजिटल प्लेटफॉर्म विकसित करें। इसके लिए रिपोर्टर्स, टेक्नोलॉजी, और ग्राउंड कवरेज की आवश्यकता होगी। क्रेडिबिलिटी सबसे महत्वपूर्ण है।

आप हाल ही में ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ (EGI) के प्रेजिडेंट निर्वाचित हुए हैं, इस बारे में अपने अनुभव और भविष्य की योजानओं के बारे में आपका क्या कहना है?

हमारी कोशिश है कि सदस्यों की संख्या बढ़े। मीडिया के कई प्रकार आ गए हैं – प्रिंट, मैगजीन, वेबसाइट, यूट्यूब, इंफ्लुएंसर आदि। चुनौती यह है कि किसे सदस्य बनाया जाए। हम चाहते हैं कि दिल्ली के बाहर भी गतिविधियां बढ़ें, ताकि हिंदी भाषी क्षेत्र के लोग हमारी सोच से जुड़ें और मीडिया फ्रीडम के लिए संघर्ष करें।

मीडिया की फ्रीडम को लेकर तमाम बातें होती हैं, इस पर क्या कहेंगे?

मीडिया फ्रीडम पर मेरा मानना है कि यह एक क्राइसिस से गुजर रहा है। टेक्नोलॉजी और रेगुलेटरी फ्रेमवर्क हर जगह अलग-अलग चुनौती पेश कर रहे हैं। लोकतंत्र में सरकार की मदद के बिना मीडिया फ्रीडम संभव नहीं। हमारी कोशिश रहेगी कि हम सरकार और संवैधानिक संस्थानों के साथ संवाद स्थापित करें और मीडिया की ‘सेहत’ बेहतर करें।

आज के दौर में इंडिपेंडेंट मीडिया हाउसेज का महत्व कितना है?

यह बहुत चुनौतीपूर्ण है। अधिकांश मीडिया हाउसेज किसी न किसी बिजनेस ग्रुप से जुड़े हैं। ऐसे में पूरी तरह से इंडिपेंडेंट रहना कठिन है। उदाहरण के लिए, टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस अलग-अलग तरीके से काम कर रहे हैं। वास्तव में स्वतंत्र होना कठिन है, लेकिन कुछ जगहों पर प्रयोग और प्रयास जारी हैं।

न्यूज रूम पर दबाव को कैसे कम किया जा सकता है?

यह कठिन है। यदि मार्केट में प्रतिस्पर्धा हो, तो कुछ हद तक एडिटर स्वतंत्रता पा सकते हैं। लेकिन व्यावसायिक दबाव और राजनीतिक दबाव हमेशा चुनौती बने रहते हैं। इस माहौल में पत्रकारिता की क्रेडिबिलिटी बचाना ही सबसे बड़ी चुनौती है।

आपकी नजर में सरकार के पब्लिशिंग और प्रिंटिंग बजट में कटौती का प्रभाव क्या होगा?

यह इंडस्ट्री के लिए चुनौतीपूर्ण कदम है। बजट में कटौती से पब्लिशिंग और प्रिंटिंग को मिलने वाले संसाधन कम हो जाएंगे। इसका असर इंडस्ट्री पर पड़ेगा और हमें नए तरीकों से व्यवसाय को स्थिर करना होगा।

आपने ‘Bad Money, Bad Politics: The Untold Hawala Story’ नाम से किताब भी लिखी है, थोड़ा इसके बारे में बताएं

यह किताब जैन हवाला स्कैंडल पर आधारित थी। मैंने इसमें तमाम बड़ी राजनीतिक हस्तियों के षड्यंत्र और घटनाओं की व्याख्या की। यह उस समय काफी चर्चित रही और बेस्ट सेलर बनी। फिलहाल मैं नई किताब पर काम कर रहा हूं, जिसमें भारत की विभिन्न घटनाओं और इवेंट्स का विश्लेषण होगा।

आपको मीडिया में लंबा अनुभव है। नवागत पत्रकारों के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे?

मेरा उनके लिए यही संदेश है कि खूब मेहनत करें और पढ़ाई जारी रखें। टेक्नोलॉजी को समझें और उसका सही उपयोग करें। अगर पत्रकारिता में रहना चाहते हैं तो आपको ज्ञान, संवेदनशीलता और स्किल्स को लगातार सुधारते रहना होगा। मैं हमेशा कहूंगा कि पत्रकारिता में मेहनत, ईमानदारी और पाठकों की सेवा सबसे महत्वपूर्ण हैं। हमें अपनी स्वतंत्रता और क्रेडिबिलिटी बनाए रखनी चाहिए। 

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देश के AI सफर का अगला अध्याय तय करेगा ‘AIAI’: डॉ. संदीप गोयल

‘एक्सचेंज4मीडिया’ के साथ खास बातचीत में ‘रेडिफ्यूजन’ के चेयरमैन डॉ. संदीप गोयल ने ‘एआई एसोसिएशन ऑफ इंडिया’ की अहम भूमिका, ‘एथिकल एआई’ पर अपने विचार समेत तमाम मुद्दों पर अपने विचार शेयर किए।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 24 November, 2025
Last Modified:
Monday, 24 November, 2025
Dr Sandeep Goyal

भारत की ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ एआई क्रांति उसकी तैयारी से कहीं आगे निकल चुकी है। देश के रचनात्मक, सांस्कृतिक और नीतिगत इकोसिस्टम पर इसका गहरा प्रभाव महसूस किया जा रहा है। इसी के तहत देश के कुछ सबसे प्रभावशाली इंडस्ट्री लीडर्स ने मिलकर ‘एआई एसोसिएशन ऑफ इंडिया’ (AIAI) की शुरुआत की है। यह अपनी तरह का पहला ऐसा प्लेटफॉर्म है, जिसका उद्देश्य देश में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के नैतिक, सांस्कृतिक और विनियामक मानकों को परिभाषित करना है।

‘रेडिफ्यूजन’ (Rediffusion) के चेयरमैन और देश में मीडिया व टेक सेक्टर की सबसे अनुभवी शख्सियतों में से एक डॉ. संदीप गोयल के नेतृत्व में AIAI खुद को एक वॉचडॉग नहीं, बल्कि एक आर्किटेक्ट के रूप में स्थापित कर रहा है। ‘एक्सचेंज4मीडिया’ के साथ खास बातचीत में ‘रेडिफ्यूजन’ के चेयरमैन डॉ. संदीप गोयल ने ‘एआई एसोसिएशन ऑफ इंडिया’ (AIAI) की अहम भूमिका, ‘एथिकल एआई’ पर अपने विचार समेत तमाम मुद्दों पर अपने विचार शेयर किए। इस दौरान उन्होंने ‘AIAI’ के गठन के पीछे की सोच के बारे में भी विस्तार से बताया है।

प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:

देश का एआई इकोसिस्टम उसकी रेग्युलेटरी तैयारियों से कहीं तेजी से आगे बढ़ रहा है। वह कौन-सा मुख्य गैप या खतरा था, जिसे आपने और अन्य इंडस्ट्री लीडर्स ने पहचाना और जिसकी वजह से AIAI का गठन जरूरी हो गया?

हमें आने वाले समय की तस्वीर साफ दिखाई दे रही थी। देश तेजी से जेनरेटिव एआई अपना रहा है। चाहे कोर्टरूम में बॉट द्वारा लिखे जा रहे तर्क हों या बॉलीवुड की स्क्रिप्ट्स, जिन्हें मशीन लर्निंग से तैयार किया जा रहा है, लेकिन इस तेज रफ्तार को निर्देशित, सुरक्षित या नियंत्रित करने के लिए जरूरी ढांचे लगभग नदारद हैं। असल कमी इनोवेशन में नहीं, बल्कि संस्थागत भरोसे और नैतिक ढांचे में थी।

‘AIAI’ की शुरुआत एक बहुत स्पष्ट खतरे के कारण हुई कि भारत—जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है—अनजाने में विदेशी एआई टूल्स का केवल एक निष्क्रिय उपभोक्ता बनकर रह जाए और अपने सांस्कृतिक, नैतिक और कानूनी मानक खुद परिभाषित न कर पाए।

हमें डर है डीपफेक्स के हथियार बन जाने का, कलाकारों की क्रेडिट लाइन खत्म होने का और बिना किसी जवाबदेही के ब्लैक-बॉक्स एआई टूल्स की बाढ़ से बाजार भर जाने का। इसीलिए हम अलार्मिस्ट नहीं, बल्कि आर्किटेक्ट के रूप में सामने आए हैं। AIAI हमारा जवाब है उस तत्काल जरूरत का, जिसमें एक ऐसा राष्ट्रीय जड़ों से जुड़ा, इंडस्ट्री-नेतृत्व वाला निकाय चाहिए, जो नवाचार यानी इनोवेशन को संप्रभुता (sovereignty) के साथ जोड़ सके।

AIAI का गठन इनोवेशन और नैतिकता के सवाल पर किया गया है। आज देश के संदर्भ में ‘एथिकल एआई’ का वास्तविक अर्थ क्या है? और यह प्लेटफ़ॉर्म इसे लागू करने योग्य या अपनाने योग्य मानकों में कैसे बदलेगा?

आज भारत में ‘एथिकल एआई’ का मतलब तीन प्रमुख बातें हैं:

1: सांस्कृतिक संरेखण (Cultural alignment): यह सुनिश्चित करना कि एआई सिस्टम भारत की विविधता को मिटाए या उसका गलत प्रतिनिधित्व न करें।

2: पारदर्शिता और क्रेडिट (Transparency & Attribution): खासकर रचनात्मक क्षेत्रों में—जहां मौलिकता, सहमति और लेखकीय अधिकार बेहद महत्वपूर्ण हैं।

3: डिजाइन में समावेशन (Inclusion by design): ताकि हमारे एआई टूल्स सिर्फ डिजिटल रूप से सक्षम अभिजात वर्ग नहीं, बल्कि हर भारतीय की सेवा करें।

AIAI एक ऐसा मानक ढांचा (standards framework) तैयार कर रहा है, जो यह करेगा:

मीडिया, डिज़ाइन, विज्ञापन और संगीत जैसे क्षेत्रों में एआई टूल्स का एथिकल कम्प्लायंस सर्टिफिकेशन।

ऐसे ओपन डेटासेट्स विकसित करना, जो भारत की भाषाई, क्षेत्रीय और कलात्मक विविधताओं को सही रूप में दर्शाएं।

बायस, स्रोत-प्रामाणिकता (provenance) और बौद्धिक संपदा (IP) की शुचिता के लिए ऑडिट गाइडलाइंस तैयार करना।

सबसे महत्वपूर्ण बात—हम यह काम अलग-थलग नहीं कर रहे हैं। हम इसे स्टार्टअप्स, विधि विशेषज्ञों, सांस्कृतिक संस्थाओं और सरकारी निकायों के साथ मिलकर तैयार कर रहे हैं, ताकि इन मानकों को सिर्फ सराहा ही न जाए, बल्कि वास्तव में अपनाया भी जा सके।

नेशनल संयोजक के रूप में, आप कैसे देखते हैं कि AIAI एक विश्वसनीय नीति-निर्माण वाला प्लेटफॉर्म बने? सिर्फ एक और इंडस्ट्री एसोसिएशन नहीं, बल्कि ऐसा निकाय जिसे सरकार एआई विनियमन पर गंभीरता से सलाहकार के रूप में माने?

AIAI का जो गवर्निंग बोर्ड जल्द घोषित होने वाला है, उसमें देश के शीर्ष उद्योगपति, सांस्कृतिक विशेषज्ञ, टेक्नोलॉजी लीडर्स और कई अन्य प्रख्यात नाम शामिल होंगे। विश्वसनीयता दावा करने से नहीं मिलती, यह उस कार्य से हासिल होती है, जो नियम बनने से पहले किया जाता है। हमारा लक्ष्य सिर्फ इंडस्ट्री की जार्गन-भरी गूंज बनना नहीं है। इसके बजाय AIAI खुद को भारत के ‘फर्स्ट-मूवर फोरम’ के रूप में स्थापित कर रहा है—यानी ऐसा मंच जो सरकार की जरूरत से पहले ही व्यवहारिक policy briefs जारी करेगा, ड्राफ्ट गाइडलाइंस तैयार करेगा और ethics charters का पायलट परीक्षण करेगा। हम पहले ही MeitY, नीति आयोग और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के साथ बातचीत की शुरुआत कर चुके हैं। हम जानते हैं कि एआई भारत के 50 लाख रचनात्मक पेशेवरों—लेखकों, निर्देशकों, डिजाइनरों, इन्फ्लुएंसर्स—पर कैसे असर डालता है, सिर्फ कोडर्स और CTOs पर नहीं।

भारत डेटा संप्रभुता, सांस्कृतिक पक्षपात, आईपी संरक्षण और वर्कफोर्स डिसरप्शन जैसी अनोखी एआई चुनौतियों का सामना कर रहा है। इनमें से AIAI सबसे पहले किस मुद्दे को प्राथमिकता देगा और क्यों?

हमने अपनी पहली रणनीतिक प्राथमिकता के रूप में रचनात्मक कार्यों में आईपी संरक्षण (IP protection) को चुना है। क्योंकि यही सबसे महत्वपूर्ण मोर्चा है।
जेनरेटिव एआई का इस्तेमाल पहले से ही विज्ञापन अभियानों, स्क्रीनप्ले, सोशल मीडिया फ़िल्टर्स और फैशन प्रोटोटाइप्स में हो रहा है। अक्सर बिना श्रेय (attribution), सहमति (consent) या किसी ट्रेसबिलिटी के। यदि हमने इसे अभी संबोधित नहीं किया, तो जोखिम सिर्फ नौकरियों का नहीं, बल्कि पहचान (identity) के खोने का भी है।

हम सक्रिय रूप से इन बिंदुओं पर काम कर रहे हैं:

Creative AI Attribution Protocol स्थापित करना

एआई-जनित कंटेंट की ओनरशिप के लिए कानूनी ढाँचे का समर्थन

क्रिएटर्स को यह गाइड करना कि वे अपने काम को कैसे लाइसेंस, वॉटरमार्क या सुरक्षित कर सकते हैं

जब यह आधार मजबूत हो जाएगा, तब हम डेटा संप्रभुता (data sovereignty) और समावेशन (inclusion) पर विस्तार करेंगे—क्योंकि यदि हमारे डेटासेट पर नियंत्रण नहीं रहा, तो हमारी नैतिकता भी बाहरी स्रोतों पर निर्भर हो जाएगी।

स्टार्टअप्स, बड़ी कंपनियां, क्रिएटर्स और नीति-निर्माता, ये सभी एआई को अलग-अलग उम्मीदों और चिंताओं के साथ देखते हैं। AIAI इन समूहों के बीच भरोसा कैसे बनाएगा?

AIAI में भरोसा कोई उप-उत्पाद नहीं, बल्कि एक डिजाइन लक्ष्य है। हम एसोसिएशन को एक सहयोगी ढांचे (collaborative architecture) के रूप में संरचित कर रहे हैं, न कि ऊपर-से-नीचे चलने वाली किसी नौकरशाही की तरह।

हर वर्किंग ग्रुप—चाहे वह नीति, रिसर्च, स्किलिंग या एथिक्स पर काम करे—में कम से कम ये लोग शामिल होंगे:

एक स्टार्टअप फाउंडर

एक बिग-टेक प्रतिनिधि

एक क्रिएटिव प्रोफेशनल

एक विधि/नीति विशेषज्ञ

यह मल्टी-स्टेकहोल्डर मॉडल सुनिश्चित करता है कि कोई भी एकल दृष्टिकोण पूरे नैरेटिव पर हावी न हो। इसके अलावा, हम AIAI Trust Index लॉन्च करने की योजना बना रहे हैं, यह अपनी तरह का पहला ढांचा होगा, जो भारतीय उपयोगकर्ताओं के लिए एआई टूल्स की पारदर्शिता, निष्पक्षता और अनुपालन के आधार पर रेटिंग करेगा। समय के साथ, यह ट्रस्ट इंडेक्स एक ऐसी प्रतिष्ठात्मक मुद्रा (reputational currency) बन जाएगा, जिसे कंपनियां और क्रिएटर्स महत्व देंगे।

एआई के तेजी से विकास को देखते हुए, पारंपरिक नियामक चक्र शायद पहले ही धीमे पड़ गए हैं। AIAI अपनी मार्गदर्शन को वास्तविक समय में प्रासंगिक बनाए रखने के लिए कौन से गतिशील और अनुकूलनीय (adaptive) तंत्र पेश करने की योजना बना रहा है?

आप बिल्कुल सही हैं, पुराने नियमों की रफ्तार एआई युग में टिक नहीं पाएगी। इसी कारण, AIAI ‘लिविंग फ्रेमवर्क्स’ बना रहा है। इसमें मॉड्यूलर, संपादन योग्य और संस्करण-नियंत्रित नीति ब्लूप्रिंट्स, जिन्हें तिमाही आधार पर विशेषज्ञों की सलाह से अपडेट किया जाएगा।

मुख्य तंत्र इस प्रकार हैं:

रीयल-टाइम एथिक्स सैंडबॉक्स (Real-Time Ethics Sandbox): जहां स्टार्टअप्स एआई टूल्स का परीक्षण कर सकते हैं और AIAI से नैतिक, सांस्कृतिक और कानूनी कमजोरियों पर प्रतिक्रिया प्राप्त कर सकते हैं।

एआई इनसिडेंट रजिस्ट्री (AI Incident Registry): भारत में सार्वजनिक रचनात्मक एआई टूल्स में दुरुपयोग या पक्षपात (bias) को ट्रैक और संबोधित करने के लिए।

फ्लैश पैनल्स (Flash Panels): तेज, 48 घंटे के विशेषज्ञ समूह जो उभरते खतरे—जैसे चुनावों में डीपफेक्स या सिंथेटिक इन्फ्लुएंसर्स—पर मार्गदर्शन तैयार करेंगे।

इस तरह, AIAI सिर्फ खबरों के पीछे नहीं भागेगा, बल्कि यह तय करेगा कि भारत अपने एआई सफर का अगला अध्याय कैसे लिखे। 

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मीडिया में फैक्ट-चेकिंग, क्रॉस-वेरिफिकेशन और निष्पक्षता बहुत जरूरी: सुजाता राघवन

'Indian women's Press Corps' (IWPC) की प्रेजिडेंट सुजाता राघवन ने कहा, पत्रकारिता के सिद्धांतों और नैतिकता से टकराने वाले कंटेंट को पहचानना आवश्यक है।

pankaj sharma by
Published - Friday, 14 November, 2025
Last Modified:
Friday, 14 November, 2025
Sujata Raghavan

महिला पत्रकारों के प्रमुख संगठन 'Indian women's Press Corps' (IWPC) ने हाल ही में अपनी 31वीं वर्षगांठ मनाई। इस मौके पर दिल्ली स्थित जवाहर भवन में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। देश के मुख्य न्यायाधीश (नामित) न्यायमूर्ति सूर्यकांत के मुख्य आतिथ्य में हुए इस कार्यक्रम में नियाजी निजामी ब्रदर्स ने शानदार प्रस्तुति देकर समां बांध दिया।

इस मौके पर 'Indian women's Press Corps' (IWPC) की प्रेजिडेंट सुजाता राघवन से समाचार4मीडिया ने विभिन्न मुद्दों पर विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:

सबसे पहले तो आप हमारे पाठकों को अपने बारे में बताएं?

मैं सुजाता राघवन हूं। मैं मूल रूप से डेवलपमेंट कम्युनिकेशन से जुड़ी हूं। मैंने चरखा नाम के एक संगठन के तहत चलने वाली त्रिभाषीय (हिंदी, अंग्रेज़ी और उर्दू) फ़ीचर सेवा की संपादक के रूप में काम किया। मैं एक सोशल डेवलपमेंट राइटर हूं। मैं वर्ष 2011 में IWPC की सदस्य बनी। वर्ष 2023 में मैं मैनेजिंग कमेटी में शामिल हुई और पिछले वर्ष मैं जॉइंट सेक्रेटरी के रूप में चुनी गई। इसके बाद अब मैं बतौर प्रेजिडेंट इस संस्था में अपनी भूमिका निभा रही हूं।

यह भी पढ़ें: IWPC@31: न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने महिला पत्रकारों की भूमिका को सराहा, दिया ये संदेश

बतौर IWPC प्रेजिडेंट आपके अब तक के कार्यकाल में कोई विशेष उपलब्धि जो आप साझा करना चाहें?

यह केवल मेरी नहीं, बल्कि पूरी टीम की उपलब्धि है। अगर आज के कार्यक्रम को देखें तो इसके पीछे एक जिम्मेदारी और विश्वसनीय संस्था के तौर पर हमारी छवि झलकती है। भारत के मुख्य न्यायाधीश (Designate) ने भी समय देकर एक शानदार भाषण दिया। इसके साथ ही नियाजी निजामी ब्रदर्स, जो विश्व स्तर पर प्रसिद्ध हैं, उन्होंने हमारे छोटे से संस्थान के लिए समय निकाला। ऑडियंस में भी ऐसे लोग आए जो समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। मुझे लगता है कि ये हमारी उपलब्धि का प्रतीक हैं।  IWPC कई दशकों से निरंतर काम कर रहा है और यह उसी सामूहिक प्रयास का परिणाम है।

IWPC के प्रेजिडेंट के रूप में आपके समक्ष कुछ चुनौतियां भी आती होंगी, उन्हें आप कैसे संभालती हैं?

हमारा काम संस्थान को जीवित और सक्रिय रखना है, ताकि सदस्य यहाँ सीख सकें और एक सुरक्षित, प्रेरक वातावरण पा सकें। हम विभिन्न वर्कशॉप्स और ट्रेनिंग सेशन्स आयोजित करते हैं, ताकि पत्रकारिता कौशल और ज्ञान में सुधार हो। सरकारी अधिकारियों, जनप्रतिनिधियों, पार्टी प्रवक्ताओं, राजनेताओं या विदेशी मामलों के विशेषज्ञों के साथ संवाद भी करते हैं।

महिलाओं को, खासकर मीडिया में, अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। रिपोर्टिंग में या अपनी राय खुलकर रखने में, अक्सर उन्हें ट्रोलिंग का शिकार होना पड़ता है। यह वही संघर्ष है जो हर पेशेवर महिला को किसी न किसी रूप में झेलना पड़ता है।

इस संस्था के गठन को तीन दशक पूरे हो गए हैं। क्या आपको लगता है कि संस्था अपने उद्देश्यों पर खरी उतर रही है?

हां, बिल्कुल। यह तथ्य कि संस्था 30 से अधिक वर्षों से निरंतर कार्यरत है, अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि है। हम किसी बड़े फंड से नहीं चलते। सदस्यता शुल्क और एक रसोई से ही संस्था चलती है। हमारा वार्षिकोत्सव कार्यक्रम एक ‘फंड रेजर’ भी होता है। हम इस अवसर पर एक पुस्तिका (स्मारिका) प्रकाशित करते हैं, जो मीडिया और विशेष रूप से महिलाओं से जुड़े विषयों पर आधारित होती है। इसमें हमारी ही सदस्याएं हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में अपने लेख लिखती हैं। विज्ञापनों के माध्यम से हम फंड एकत्र करते हैं, जो संस्था के संचालन के लिए पूंजी का कार्य करता है। ऐसे कार्यक्रम हम वर्षों से आयोजित करते आ रहे हैं। यह संस्था महिला पत्रकारों के लिए एक स्पेस (स्थान) प्रदान करती है। जहां वे सीख सकें, संवाद कर सकें और आगे बढ़ सकें।

आज भारतीय मीडिया में महिला नेतृत्व का भविष्य आप किस तरह देखती हैं?

महिलाएं अब हर बीट में जा रही हैं — राजनीति, अपराध, अर्थशास्त्र, विदेश मामलों में भी। पहले के जमाने में महिलाएं सिर्फ फ्लॉवर शो या बेबी शो कार्यक्रमों आदि की रिपोर्टिंग करती थीं। अब समय बदल गया है। जरूरी है कि मीडिया संस्थानों में ऐसा माहौल बने, जो महिलाओं को अवसर दे, उन्हें ग्रूम करे और ऐसा माहौल बनाए कि उन्हें आगे बढ़ने के समान अवसर मिलें।

IWPC ने अपनी 31वीं वर्षगांठ मनाई। इस संस्था के प्रेजिडेंट के तौर पर इस अनुभव के बारे में कुछ बताएं?

बहुत ही अच्छा अनुभव रहा। हमारी टीम में 20-25 साल का अनुभव रखने वाले सदस्य हैं, जिन्होंने मीडिया और समाज में हुए बड़े बदलावों को देखा है। उनका मार्गदर्शन अमूल्य है। साथ ही नए लोगों में नई ऊर्जा है। यह सहयोग ही हमारी असली ताकत है।

आपको क्या लगता है, आज के दौर में महिला पत्रकारों की चुनौतियां पहले से बढ़ी हैं या घटी हैं?

डिजिटल मीडिया ने पहुंच यानी रीच बढ़ाई है, लेकिन खतरे भी बढ़े हैं। अब कोई भी अपने चैनल या प्लेटफॉर्म से रिपोर्ट कर सकता है, लेकिन प्रतिक्रिया (response) तुरंत और कई बार कठोर आती है। पहले मीडिया हाउस में काम करने से एक सुरक्षा होती थी, अब स्वतंत्र पत्रकार उस सुरक्षा से वंचित हैं। इसलिए जोखिम बढ़े हैं, पर साथ ही प्रभाव और हौसला भी बढ़ा है। अगर हम इन चुनौतियों को अवसर की तरह लें, तो समाज में कुछ न कुछ बदलाव जरूर होता है।

आपकी नजर में महिलाओं के लिए मीडिया में क्या सुधार किए जाने चाहिए?

न्यूजरूम्स को अधिक इंक्लूसिव बनाया जाए। स्टोरी या बीट्स के आवंटन में महिलाओं की राय भी शामिल हो। महिलाओं के दृष्टिकोण अलग होते हैं, उन्हें जगह मिलनी चाहिए। साथ ही, जब उन्हें फील्ड असाइनमेंट पर भेजा जाए, तो सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा जाए, ख़ासकर संवेदनशील या संघर्ष वाले क्षेत्रों में।

 महिला पत्रकारों के लिए IWPC क्या कार्य कर रहा है?

हम नियमित रूप से हेल्थ से जुड़ी बातचीत और अन्य व्यावसायिक चर्चाएं करते हैं। पत्रकारिता का स्वरूप बदल गया है। अब नौकरी या आय की स्थिरता नहीं रही। इसलिए हम बीमा, स्वास्थ्य, और जीवनयापन से जुड़े मुद्दों पर भी ध्यान देते हैं। हम कैंसर और डेंटल (दंत) चेकअप कैंप भी आयोजित करते हैं। इसके लिए हम सरकारी अस्पतालों से जुड़ते हैं। इन कैंपों में भाग लेने वालों के बाकायदा कार्ड बनाए जाते हैं, ताकि हमारे सदस्य कैंप समाप्त होने के बाद भी इन सेवाओं से जुड़े रह सकें।

इसके अलावा, हम रेड क्रॉस के सहयोग से रक्तदान शिविर भी आयोजित करते हैं, जिनमें हमारे सदस्यों के परिवारजन भी हिस्सा लेते हैं। रक्तदान करने वालों को डोनर कार्ड दिया जाता है, ताकि भविष्य में आवश्यकता पड़ने पर उन्हें रक्त की सुविधा आसानी से मिल सके। हम स्पोर्ट्स मीट और प्रतियोगिताएं भी आयोजित करते हैं। इसी वर्ष हमने टेबल टेनिस (TT) टूर्नामेंट का आयोजन किया। इसमें केवल सदस्यों ही नहीं, बल्कि अन्य पत्रकारों ने भी भाग लिया। पुरस्कार वितरण समारोह में केंद्रीय खेल राज्यमंत्री सुश्री रक्षा एन. खडसे को आमंत्रित किया गया। यह कार्यक्रम अत्यंत ऊर्जा से भरपूर रहा। रक्षा जी ने इस वर्ष प्रकाशित हमारी स्मारिका के लिए एक विशेष संदेश भी लिखा है।

‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ (AI) पर आपकी क्या राय है?

‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ को समझना और उसकी सीमाएं जानना बहुत जरूरी है। हमें यह सीखना होगा कि एआई को कितना अपनाया जाए और कहां सतर्क रहना चाहिए। पत्रकारिता के सिद्धांतों और नैतिकता से टकराने वाले कंटेंट को पहचानना जरूरी है।

आजकल फेक वीडियो और डीपफेक्स काफी बढ़ रहे हैं। इस पर क्या कहना चाहेंगी?

सरकार इस दिशा में कदम उठा रही है, पर हमें खुद भी जागरूक रहना होगा। फैक्ट-चेकिंग, क्रॉस-वेरिफिकेशन और रिपोर्टिंग में निष्पक्षता बनाए रखना, यही सबसे बड़े सेफगार्ड हैं। इन बातों को सुनिश्चित करने के लिए एक मजबूत सिस्टम की आवश्यकता है।  

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विज्ञापन प्रणाली की जटिलता को नहीं समझता CCI: श्रीनिवासन के. स्वामी

'एक्सचेंज4मीडिया' से एक्सक्लूसिव बातचीत में आर. के. स्वामी लिमिटेड के एग्जिक्यूटिव ग्रुप चेयरमैन श्रीनिवासन के. स्वामी ने अपना विजन साझा किया और कड़े सवालों का जवाब दिया

Samachar4media Bureau by
Published - Tuesday, 19 August, 2025
Last Modified:
Tuesday, 19 August, 2025
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कंचन श्रीवास्तव, सीनियर एडिटर, एक्सचेंज4मीडिया ।।

आर. के. स्वामी लिमिटेड के एग्जिक्यूटिव ग्रुप चेयरमैन श्रीनिवासन के. स्वामी ने हाल ही में 2025-26 के लिए ऐडवर्टाइजिंग एजेंसीज एसोसिएशन ऑफ इंडिया (AAAI) के अध्यक्ष का पदभार संभाला। भारतीय ऐडवर्टाइजिंग इंडस्ट्री की सबसे प्रभावशाली आवाजों में से एक माने जाने वाले स्वामी एक ऐसे इकोसिस्टम की बागडोर संभाल रहे हैं जो नियामक जांच, रुके हुए दर्शक माप सर्वेक्षणों और नए प्रतिभाओं को आकर्षित करने की तात्कालिक आवश्यकता से जूझ रहा है।

'एक्सचेंज4मीडिया' से एक्सक्लूसिव बातचीत में स्वामी ने अपना विजन साझा किया और कड़े सवालों का जवाब दिया, जिनमें शामिल थे CCI की जांच, BARC की विश्वसनीयता और इंडियन रीडरशिप सर्वे (IRS) की स्थिति। साथ ही यह भी रेखांकित किया कि इंडस्ट्री की असली चुनौती मानव संसाधन (human capital) है।

अध्यक्ष के रूप में प्राथमिकताएं

स्वामी उन लीडर्स की तरह नहीं हैं जो शीर्ष पद पर चुने जाने के बाद बड़े बदलावों का ऐलान करते हैं। वे इस स्थिर जहाज को हिलाने में सावधानी बरतना चाहते हैं। उन्होंने कहा, “यह जहाज पहले से ही अच्छी तरह चल रहा है। मेरा काम यह सुनिश्चित करना है कि हम कोई भी अनावश्यक या बाधक काम न करें। साथ ही यह मानना भी जरूरी है कि जैसे-जैसे तकनीक विकसित हो रही है, इंडस्ट्री जटिल चुनौतियों का सामना कर रहा है। हमें लोगों को इन जटिलताओं को समझने और समझदारी से उन्हें पार करने में मदद करनी होगी।”

सबसे बड़ी चुनौती

स्वामी के अनुसार विज्ञापन इंडस्ट्री की सबसे बड़ी समस्या है- लोग। उन्होंने साफ तौर पर कहा, “प्रतिभा को आकर्षित करना और बनाए रखना सबसे बड़ी चुनौती है। किसी कारणवश, नई पीढ़ी अब विज्ञापन को पसंदीदा करियर नहीं मानती। हमें मास कम्युनिकेशन संस्थानों और उससे आगे तक आउटरीच अभियान चलाकर प्रतिभा की मजबूत पाइपलाइन तैयार करनी होगी।”

उन्होंने एजेंसियों की जिम्मेदारी भी साफ की और कहा, “यदि हमें उच्च-स्तरीय प्रतिभाशाली लोग चाहिए, तो हमें उन्हें उचित पारिश्रमिक देने और जोड़े रखने के लिए तैयार रहना होगा। अक्सर इंडस्ट्री के लीडर इस सच्चाई को नजरअंदाज कर देते हैं। लेकिन भविष्य स्मार्ट निवेशों पर निर्भर है और ये निवेश प्रतिभा में होने चाहिए।”

CCI जांच: ‘कीमत मुख्य मुद्दा नहीं है’

भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (CCI) द्वारा शीर्ष मीडिया एजेंसियों के खिलाफ कथित गठजोड़ की चल रही जांच पर स्वामी ने दो टूक कहा, “एजेंसी रेट्स एक बेहद जटिल प्रक्रिया से तय होते हैं- रणनीति, टीमें, तकनीक। लेकिन कीमत का महत्व बहुत ज्यादा नहीं है। कीमत में 0.2% या 0.5% का फर्क बड़ी तस्वीर में मायने नहीं रखता।”

उन्होंने यह भी जोड़ा, “दुर्भाग्यवश, CCI विज्ञापन प्रणाली की जटिलता को पूरी तरह नहीं समझता। अब तक जो हुआ है, वह सिर्फ प्रारंभिक जांच है। अब एक विस्तृत जांच चल रही है और मुझे उम्मीद है कि यह स्पष्टता लाएगी।”

बताया जाता है कि यह केस व्हिसलब्लोअर्स के आरोपों से शुरू हुआ, जिनका कहना था कि बड़ी एजेंसियों ने विज्ञापनदाताओं को टीवी विज्ञापन इन्वेंटरी सस्ती दरों पर देने का वादा करके बड़े खातों का एकीकरण किया, जबकि प्रसारकों से अधिक निवेश के लिए सौदे किए। इस बीच, वॉचडॉग इंडियन सोसायटी ऑफ एडवर्टाइजर्स (ISA) के मॉडल एजेंसी एग्रीमेंट की भी जांच कर रहा है, जिसे अगस्त 2023 में लॉन्च किया गया था। शिकायतकर्ताओं का कहना है कि इससे विज्ञापनदाता-एजेंसी की बातचीत सीमित हुई और एजेंसियों की आय पर असर पड़ा।

एक TRP सिस्टम या कई?

मीजरमेंट सिस्टम पर उठ रहे सवालों के बीच, स्वामी ने ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (BARC) का बचाव किया, जो देश की एकमात्र टेलीविजन रेटिंग प्रणाली है। उन्होंने कहा, “मेरा मानना है कि BARC अच्छा काम कर रहा है। AAAI, ISA और IBDF सभी BARC में साझेदार हैं। वैश्विक स्तर पर ज्यादातर बाजारों में एक ही सिस्टम होता है और वह ठीक काम करता है। मुझे दूसरा सिस्टम शुरू करने का कोई औचित्य नहीं दिखता। हमें मौजूदा सिस्टम को मजबूत बनाने पर ध्यान देना चाहिए, न कि कई सिस्टम्स पर पैसा खर्च करने पर।”

जब उनसे BARC पर आलोचनाओं के बारे में पूछा गया, जिसमें बेसलाइन सर्वे और कनेक्टेड टीवी स्टडी जैसी पहलों में देरी शामिल है, तो उन्होंने भरोसा दिलाया कि हां, मैं उन चिंताओं को समझता हूं। लेकिन मैं आश्वस्त करना चाहता हूं कि BARC बोर्ड का सदस्य होने के नाते, ये मुद्दे पूरी तरह हमारे एजेंडे में हैं। नीयत साफ है और सभी लंबित पहलें आगे की योजना का हिस्सा हैं।

IRS को पुनर्जीवित करना

लंबे समय से रुका हुआ इंडियन रीडरशिप सर्वे (IRS) भी स्वामी की प्राथमिकताओं में है। उन्होंने कहा, “IRS को पुनर्जीवित करना जरूरी है। फंडिंग अब तक की सबसे बड़ी रुकावट रही है। मुझे बताया गया है कि अब एक प्रस्ताव है जिसके तहत छोटे सैंपल साइज के साथ सर्वे किया जाएगा ताकि लागत कम की जा सके और इसके लिए जल्द ही एक RFP जारी होना चाहिए।”

प्रकाशक पद्धति को लेकर विभाजित हैं। कई लोगों को लगता है कि कोविड के बाद हाउसिंग सोसाइटियों में भौतिक सर्वे करना अब संभव नहीं होगा, गोपनीयता और प्रतिबंधों की वजह से। लेकिन स्वामी ने आगे बढ़ने की तात्कालिकता पर जोर दिया।

तकनीक और विश्वसनीयता की विरासत

भविष्य की ओर देखते हुए, स्वामी ने अपने लक्ष्य को सरल शब्दों में बताया, “मेरे लिए यह सुनिश्चित करना अहम है कि इंडस्ट्री पूरी तरह तकनीक को अपनाए और उसे हमारे हित में इस्तेमाल करे। अगर हम यह बदलाव कर सके और साथ ही विश्वसनीयता व रचनात्मकता के मूलभूत तत्वों को कायम रख सके, तो मैं अपने कार्यकाल को सार्थक मानूंगा।” 

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ऑफलाइन रिटेल व ई-कॉमर्स की तरह ही टीवी और डिजिटल भी बढ़ेंगे साथ: आलोक जैन, जियोस्टार

जियोस्टार के एंटरटेनमेंट बिजनेस के क्लस्टर हेड्स में से एक आलोक जैन का मानना है कि टेलीविजन न सिर्फ अपनी पकड़ बनाए हुए है, बल्कि नए माध्यमों के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ रहा है।

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 13 August, 2025
Last Modified:
Wednesday, 13 August, 2025
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अदिति गुप्ता, असिसटेंट एडिटर, एक्सचेंज4मीडिया ।।

एंटरटेनमेंट की दुनिया पहले से कहीं तेजी से बदल रही है, लेकिन जियोस्टार के एंटरटेनमेंट बिजनेस के क्लस्टर हेड्स में से एक आलोक जैन का मानना है कि टेलीविजन न सिर्फ अपनी पकड़ बनाए हुए है, बल्कि नए माध्यमों के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ रहा है।

जैन के पोर्टफोलियो में कलर्स, डिजिटल हिंदी ओरिजिनल्स, यूथ, म्यूजिक व इंग्लिश, किड्स व इंफोटेनमेंट, हिंदी मूवीज और स्टूडियो बिजनेस शामिल हैं। उनका कहना है, “भारत जैसे विशाल और विविधता भरे देश में टीवी आज भी बेहद प्रासंगिक है और निकट भविष्य में भी रहेगा।”

उन्होंने कहा, “आज भारत में 90 करोड़ लोग टीवी देखते हैं और रोजाना लगभग तीन घंटे का कंटेंट देखते हैं। डिजिटल निश्चित रूप से बढ़ेगा, लेकिन टीवी की पहुंच और जुड़ाव मजबूत है। हम खुद को प्लेटफॉर्म-एग्नॉस्टिक मानते हैं- टीवी, मोबाइल, ओटीटी और सीटीवी सभी पर दर्शकों को सहज अनुभव देना हमारा लक्ष्य है। भारत की खपत की कहानी बहुत बड़ी है और जैसे ऑफलाइन रिटेल ई-कॉमर्स के साथ मौजूद है, वैसे ही टीवी, डिजिटल और मोबाइल जैसे सभी माध्यम साथ-साथ रहेंगे और बढ़ेंगे।”

इंडस्ट्री रिपोर्ट्स भी इस बात की पुष्टि करती हैं। FICCI-EY रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में टीवी अब भी 90 करोड़ से अधिक दर्शकों तक पहुंचता है, जो इसे बेमिसाल पैमाने और गहराई वाला सबसे बड़ा मीडिया प्लेटफॉर्म बनाता है।

जैन का कहना है, “दुनिया के नैरेटिव के उलट, भारत में टीवी गिरावट में नहीं है, बल्कि विकसित हो रहा है और फल-फूल रहा है।”

टीवी का सुकून और विशाल पहुंच कायम 

जैन के अनुसार, ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है जो यह दिखाता हो कि टीवी की अहमियत घट रही है। वे आगे कहते हैं, “मैदान पर का अनुभव भी इसे साबित करता है,”  “टीवी में ऐसे फायदे हैं—परिवार के साथ देखना, आराम और ‘एस्केपिज्म मोड’, जिन्हें डिजिटल हमेशा दोहरा नहीं सकता। भारत में इंडस्ट्रीज आसानी से खत्म नहीं होतीं; वे खुद को ढाल लेती हैं।”

जैन के मुताबिक, ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है जो यह दिखाए कि टीवी की अहमियत घट रही है। वे कहते हैं, “ग्राउंड एक्सपीरियंस भी इसे साबित करते हैं। टीवी में कुछ ऐसे फायदे हैं- परिवार के साथ देखना, आराम और ‘एस्केपिज़्म मोड’—जिन्हें डिजिटल हमेशा नहीं दोहरा सकता। भारत में इंडस्ट्री आसानी से खत्म नहीं होती, बल्कि समय के साथ खुद को ढाल लेतीं हैं।” 

कलर्स और जियोस्टार के एंटरटेनमेंट बिजनेस के लिए उनकी रणनीति साफ है- ऐसे आईपी में निवेश करना जो पीढ़ियों, प्लेटफॉर्म्स और फॉर्मैट्स से परे जाएं, पारिवारिक दर्शकों को वापस लाना और ये संदेश मजबूती से देना कि भारत में टीवी अपनी ताकत फिर से खोज रहा है। 

नॉस्टेल्जिया और नए फॉर्मैट्स का संतुलन

बीते दिनों के लोकप्रिय शो फिर से दर्शकों के बीच आ रहे हैं और प्रोग्रामिंग ट्रेंड में नॉस्टेल्जिया अहम भूमिका निभा रहा है। जैन इसे अपनाते हैं, लेकिन सतर्कता के साथ। “मामला संतुलन का है। भविष्य अतीत के बराबर नहीं होता, इसलिए हम जहां सफल पुराने फॉर्मैट्स का लाभ उठाते हैं, वहीं नए प्रयोगों का जोखिम भी लेते हैं। उदाहरण के लिए, अगस्त में हम बिग बॉस के साथ-साथ ‘पति पत्नी और पंगा’ चला रहे हैं, जहां स्थापित फैनबेस और नए फॉर्मैट्स का मेल है। नॉस्टेल्जिया मूल्यवान है, लेकिन इनोवेशन जरूरी है।”

यह पुराने और नए का मेल हर जॉनर में दिखता है। कलर्स ने नॉन-फिक्शन में अपनी मजबूत पहचान बनाई है, लेकिन फिक्शन भी इसका मुख्य आधार है।

जैन आगे कहते हैं, “नॉन-फिक्शन ज्यादातर वीकेंड पर होता है, सिवाय बिग बॉस के समय के। हमारी नॉन-फिक्शन में अलग पहचान है क्योंकि टीवी और डिजिटल दोनों में इतने मजबूत फ्रैंचाइजी बहुत कम हैं। लेकिन फिक्शन अब भी बड़ा फोकस है- सालाना 8 से 10 गुना ज्यादा घंटे फिक्शन को मिलते हैं।”

विज्ञापन परिदृश्य और त्योहारी रफ्तार

विज्ञापन खर्च अब टीवी और ओटीटी में बंट रहा है, फिर भी जैन आशावादी हैं। उन्होंने कहा, “टीवी अब भी मजबूत है और सबसे बड़ा ब्रैंड-बिल्डिंग माध्यम है, इसलिए हम विज्ञापनदाताओं को डिजिटल के साथ इसका इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं। पहली तिमाही में टीवी विज्ञापन राजस्व में थोड़ी नरमी थी, लेकिन त्योहारी सीजन में टीवी और डिजिटल दोनों पर तेजी दिख रही है। निविया और लोरियल जैसे एफएमसीजी ब्रैंंड वापस आ रहे हैं। नए दौर के ब्रैंंड भी मेट्रो शहरों के शुरुआती उपभोक्ताओं से आगे पहुंचने के लिए टीवी जैसे व्यापक माध्यमों की जरूरत महसूस करेंगे।”  

मापदंड की चुनौती

जब दर्शक स्क्रीन-एग्नॉस्टिक हो रहे हैं, तो मापने की व्यवस्था को भी बदलना होगा। जैन कहते हैं, “मापन बेहद जरूरी है और इसे उपभोक्ता के व्यवहार के साथ विकसित होना चाहिए। एक बड़ा अवसर इस बात में है कि एक ही व्यक्ति द्वारा टीवी और डिजिटल पर देखे गए एक ही शो की संयुक्त व्यूअरशिप को मापा जाए।”

‘पति पत्नी और पंगा’ का विचार

कलर्स का नया फॉर्मैट ‘पति पत्नी और पंगा’ इस चैनल के घरेलू, रिश्तों से जुड़े और दर्शकों के करीब के आइडियाज पर फोकस को दर्शाता है। जैन कहते हैं, “हम लगातार नए आइडियाज की तलाश करते हैं। ‘पति पत्नी और पंगा’ की प्रेरणा शादीशुदा जोड़ों के रोजमर्रा के मजाक और अनोखेपन से मिली, जो हर किसी से जुड़ता है। हम एक पारिवारिक, मनोरंजक शो बनाना चाहते थे, जो अब तक अनछुए स्पेस में हो।”

इस शो में सिर्फ शादीशुदा जोड़े हिस्सा लेते हैं- सिवाय अविका गोर के, जो सगाईशुदा हैं और इसके होस्ट अलग-अलग रंगत लाते हैं: सोनाली बेंद्रे अपने गरिमामय अंदाज और नॉस्टेल्जिया के साथ, तो मुनव्वर फारूकी अपने हास्य और धार के साथ।

शो पहले ही 11 स्पॉन्सर्स जुटा चुका है, जो इसकी अपील पर भरोसा दर्शाता है।

जैन कहते हैं, “यह एक घरेलू फॉर्मैट है, देसी ड्रामा में रचा-बसा, भारतीय घरों की संवेदनाओं से प्रेरित और आज के दर्शकों के साथ जुड़ने के लिए तैयार किया गया। इसका मकसद है कि ‘पति पत्नी और पंगा’ टीवी और डिजिटल दोनों पर चमके, और सोशल मीडिया एक्सटेंशन्स, छोटे रील्स और शॉर्ट-फॉर्म स्पिन-ऑफ के लिए भी बड़ा स्कोप है।”

कलर्स का 17 साल का सफर

 जैन कहते हैं, '2008 में लॉन्च होने के बाद से कलर्स सिर्फ एक ब्रॉडकास्टर नहीं, बल्कि भारतीय समाज का आईना रहा है। ‘बालिका वधू’, ‘उतरन’ और ‘ना आना इस देस लाडो’ जैसे शो ने प्राइमटाइम में सामाजिक मुद्दों- बाल विवाह से लेकर लैंगिक असमानता तक को कहानी का केंद्र बनाया।

जैन याद करते हैं, “बालिका वधू के साथ, कलर्स ने बाल विवाह के मुद्दे को प्राइमटाइम में सिर्फ पृष्ठभूमि के तौर पर नहीं, बल्कि मुख्य कथा के रूप में पेश किया, जिससे मनोरंजन सामाजिक चेतना में बदल गया। आज कलर्स सामाजिक बदलाव को छूती फिक्शन कहानियों (जैसे ‘धाकड़ बीरा’, ‘मनपसंद की शादी’) और दमदार नॉन-फिक्शन शो, दोनों का मेल प्रस्तुत करता है।”

जैन गर्व से कहते हैं, “‘लाफ्टर शेफ्स’ ने कॉमेडी-आधारित रियलिटी टीवी की परिभाषा बदल दी। कॉमेडी और कुकिंग का इसका अनोखा संगम दर्शकों को ‘डिनरटेनमेंट’ का मजा दे रहा है।”

जैन को भविष्य को लेकर पूरा भरोसा है। वे कहते हैं, “हमारी कंटेंट रणनीति के केंद्र में दर्शक हैं। हर कहानी उन्हीं से शुरू होती है- उनकी पसंद, संस्कृति और बदलती जिंदगियों से। हमारा वादा है कि हम दिल और ईमानदारी के साथ कहानियां सुनाते रहेंगे।”

उनके लिए टीवी, ओटीटी और सीटीवी का साथ रहना सिर्फ निश्चित ही नहीं, बल्कि यह पहले से ही हकीकत है। जैन दोहराते हैं, “भारत की खपत की कहानी बहुत बड़ी है। सभी माध्यम साथ रहेंगे और साथ बढ़ेंगे।” 

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SEBI का काम खुद चमकना नहीं, सिस्टम में विश्वास जगाना है: तुहिन कांत पांडे

यह SEBI के चेयरमैन तुहिन कांत पांडे का पहला बड़ा इंटरव्यू है। उन्होंने BW बिजनेसवर्ल्ड के चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ डॉ. अनुराग बत्रा व मैनेजिंग एडिटर पलक शाह से प्रमुख चिंताओं पर खुलकर बात की।

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 30 July, 2025
Last Modified:
Wednesday, 30 July, 2025
TuhinKantaPandey

जेन स्ट्रीट प्रकरण और उसके बाद भारत के वित्तीय बाजारों में मचे हलचल के बीच यह SEBI के चेयरमैन तुहिन कांत पांडे का पहला बड़ा इंटरव्यू है। उन्होंने BW बिजनेसवर्ल्ड के चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ डॉ. अनुराग बत्रा और मैनेजिंग एडिटर पलक शाह से प्रमुख चिंताओं पर खुलकर बात की। एक नियामक के रूप में अपनी सोच साझा करते हुए उन्होंने बाजार में हेरफेर, पारदर्शिता और निवेशकों की सुरक्षा जैसे अहम मुद्दों पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किया। ईमानदारी के लिए चर्चित और कई ऐतिहासिक वित्तीय सुधारों के मार्गदर्शक रहे तुहिन कांत पांडे ने इस तेजी से बदलते परिदृश्य में SEBI की भूमिका, हाई-फ्रीक्वेंसी ट्रेडिंग (HFT) से निपटने की चुनौती और भारतीय पूंजी बाजार में निवेशकों का भरोसा वापस लाने की अपनी योजनाओं पर विस्तार से चर्चा की।

मिस्टर पांडे, SEBI के चेयरमैन पद की जिम्मेदारी संभालने पर आपको बधाई। जेन स्ट्रीट प्रकरण के बाद आपसे कई उम्मीदें जुड़ी हैं। SEBI ने इस मामले में महज दस दिनों के भीतर 600 मिलियन डॉलर की रकम सुरक्षित करते हुए एक असाधारण अंतरिम आदेश जारी किया। लेकिन आपने गंभीर बाजार हेरफेर की आशंकाओं के बावजूद जेन स्ट्रीट को दोबारा ट्रेडिंग की इजाजत क्यों दी? कृपया इस फैसले के पीछे की सोच समझाइए।

SEBI एक संस्थागत संरचना पर आधारित संगठन है और मैं सामूहिक निर्णय और वैधानिक प्रक्रिया में विश्वास करता हूं। जेन स्ट्रीट मामला अभी एक अंतरिम आदेश है, अंतिम निर्णय नहीं। हमारी न्याय व्यवस्था ‘प्राकृतिक न्याय’ के सिद्धांत पर टिकी है, जो यह कहती है कि स्थायी कार्रवाई से पहले नोटिस देना और पक्ष सुनना जरूरी है। सामने आए उल्लंघन इतने गंभीर थे कि पूरी जांच पूरी होने तक इंतजार करना संभव नहीं था, इसलिए हमने तुरंत कार्रवाई करते हुए 597 मिलियन डॉलर की रकम सुरक्षित की और कई प्रतिबंध लगाए, जिनमें मैनिपुलेटिव ट्रेडिंग पर रोक भी शामिल है। तब से जेन स्ट्रीट ने F&O बाजार में कोई ट्रेडिंग नहीं की है और SEBI तथा एक्सचेंज दोनों ही उनकी गतिविधियों पर कड़ी नजर रखे हुए हैं। यह किसी तरह की ढील नहीं है, बल्कि एक संतुलित दृष्टिकोण है, जिसमें बाजार की सुरक्षा और निष्पक्षता दोनों का ध्यान रखा गया है।

लेकिन क्या यह मिसाल अपने आप में असामान्य नहीं है? SEBI के 35 साल के इतिहास में ऐसा कोई आदेश नहीं आया जिसमें जांच के दायरे में होने के बावजूद किसी इकाई को फंड जमा करने के बाद फिर से ट्रेडिंग की अनुमति दी गई हो। क्या यह एक खतरनाक उदाहरण नहीं बनाता?

मैं इस चिंता को समझता हूं, लेकिन जरूरी है कि हम इस स्थिति की गलत व्याख्या न करें। अंतरिम आदेश में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जेन स्ट्रीट किसी भी तरह की मैनिपुलेटिव ट्रेडिंग से दूर रहेगी, और हमने सख्त निगरानी के जरिये इस अनुपालन को सुनिश्चित किया है। बिना कारण बताओ नोटिस या अंतिम आदेश के स्थायी रूप से प्रतिबंध लगाना मनमाना होता और कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं। निर्धारित शर्तों के तहत ट्रेडिंग की अनुमति देना ‘नरमी’ नहीं, बल्कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन है। हमारे न्यायशास्त्र में बिना उचित प्रक्रिया के किसी को दोषी ठहराने की अनुमति नहीं है। 597 मिलियन डॉलर की जमा रकम खुद एक मजबूत संकेत है कि SEBI इस पर कितना गंभीर है। हमारा उद्देश्य ‘हीरो’ बनना नहीं है, बल्कि न्यायपूर्ण और निरंतर नियमन के जरिये भरोसा कायम करना है।

जेन स्ट्रीट मामला मैनहट्टन कोर्ट में दायर एक फाइलिंग से सामने आया, न कि SEBI की अपनी निगरानी प्रणाली से। क्या यह आपके निगरानी तंत्र की कमजोरी को उजागर करता है? और आप इसे दुरुस्त करने के लिए क्या कदम उठा रहे हैं?

मैनहट्टन में की गई फाइलिंग ने हमें सतर्क किया, लेकिन हमारी अपनी जांच में भी डेटा एनालिसिस के जरिए हेरफेर के पैटर्न सामने आए। हमने जेन स्ट्रीट की विभिन्न संस्थाओं के बीच समन्वित ट्रेडिंग की पहचान की, जो न तो हेजिंग का हिस्सा थीं और न ही लिक्विडिटी-संबंधी, बल्कि शुद्ध रूप से हेरफेर थीं। टेक्नोलॉजी लगातार बदल रही है, और कोई भी नियामक यह दावा नहीं कर सकता कि वह सर्वज्ञ है। इस केस ने हमारी निगरानी प्रणालियों को और बेहतर बनाने की जरूरत को रेखांकित किया। हम नए पैरामीटर अपना रहे हैं, AI आधारित टूल्स की संभावनाएं देख रहे हैं, जैसे कि असामान्य डेल्टा एक्सपोजर या अचानक हुए ऑप्शन ट्रेडिंग स्पाइक्स। हम विशेषज्ञता को अपनाने और मैनिपुलेटिव रणनीतियों से आगे रहने के लिए तैयार हैं। हमने F&O ट्रेडिंग की विसंगतियों पर निगरानी कड़ी की है, डेल्टा आधारित विश्लेषण शुरू किया है, और पोजीशन लिमिट्स को सख्त किया है। हमारे सुपटेक प्रयासों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहा जा रहा है- मलेशिया और स्विट्जरलैंड जैसे देश SEBI से सीख रहे हैं। लेकिन मैं साफ कहूं तो: HFT के साथ मुकाबला एक निरंतर बिल्ली और चूहे का खेल है, और हम इस चुनौती से उभरते रहने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

जब हम अंतरराष्ट्रीय नियामकों की बात करते हैं, तो SEBI ने अडानी मामले में विदेशी एजेंसियों से अंतिम लाभकारी मालिकों (UBOs) की जानकारी मांगी थी। क्या जेन स्ट्रीट के लिए भी ऐसा ही किया गया है? क्योंकि उनकी ओनरशिप संरचना काफी जटिल मानी जाती है।

जेन स्ट्रीट मामला मुख्यतः बाजार आचरण से संबंधित है, स्वामित्व से नहीं। FPI नियम सभी पर समान रूप से लागू होते हैं, जिसमें UBO डिस्क्लोजर भी शामिल है, और जेन स्ट्रीट इसके अपवाद नहीं हैं। हम किसी साजिश की तलाश में नहीं हैं, बल्कि हमारा पूरा ध्यान उन ट्रेड्स पर है जिन्हें अंतरिम आदेश में मैनिपुलेटिव पाया गया। इसे UBO से जोड़ना अलग मुद्दा है। हमारे लिए प्राथमिकता यह है कि ऐसा व्यवहार दोबारा न दोहराया जाए- चाहे फंड के पीछे कोई भी हो। UBO प्रकटीकरण की आवश्यकता 10% या उससे अधिक हिस्सेदारी पर होती है, और जेन स्ट्रीट भी अन्य FPI की तरह इसका पालन करता है। उनके F&O ट्रेड्स में इक्विटी स्वामित्व शामिल नहीं था।

BSE की भूमिका को लेकर सवाल उठते रहे हैं। जानकारी है कि BSE ने जेन स्ट्रीट की ट्रेड्स से जुड़े अहम डेटा SEBI के अनुरोध पर लगभग डेढ़ साल तक साझा नहीं किए। फिर भी आपके आदेश में इसका उल्लेख क्यों नहीं है?

मुझे BSE द्वारा डेटा साझा करने में किसी विशिष्ट देरी की जानकारी नहीं है, लेकिन मैं इसे जरूर जांचूंगा। हमारा अंतरिम आदेश उन हेरफेर गतिविधियों पर केंद्रित था जिनके लिए हमारे पास पर्याप्त सबूत पहले से मौजूद थे- मुख्यतः SEBI की अपनी निगरानी प्रणाली और NSE के डेटा के आधार पर, जो अंतरिम कार्रवाई के लिए पर्याप्त था।

बीते कुछ वर्षों में कई रिटेल निवेशकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है, खासकर हाई PE वाले IPOs में निवेश के चलते, जो लिस्टिंग के तुरंत बाद गिर जाते हैं- Paytm इसका उदाहरण है। क्या SEBI यह देखता है कि म्यूचुअल फंड्स इन IPOs में कैसे निवेश करते हैं, जो अक्सर प्राइवेट इक्विटी निवेशकों को निकासी का मौका देते हैं?

एकल मामले (जैसे Paytm) के आधार पर सामान्यीकरण करना उचित नहीं होगा। IPOs भविष्य की संभावनाओं पर आधारित होते हैं, केवल मौजूदा परिसंपत्तियों पर नहीं। उदाहरण के लिए Nvidia को देखिए, 25 साल पहले वह एक स्टार्टअप थी, आज वह ट्रिलियन-डॉलर कंपनी है। प्राइवेट इक्विटी से निकासी पूंजी निर्माण का एक वैध तरीका है, जो भारत की आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक है। SEBI की भूमिका मूल्य निर्धारण करना नहीं है, बल्कि पारदर्शी और निष्पक्ष प्रक्रिया सुनिश्चित करना है। हम डिस्क्लोजर और निगरानी को मजबूत कर रहे हैं ताकि खुदरा निवेशकों की सुरक्षा हो सके, लेकिन बाजार की स्वाभाविक गति को बाधित नहीं कर सकते। निवेशकों को खुद जोखिम का मूल्यांकन करना चाहिए, और हम उन्हें बेहतर जानकारी देकर सशक्त बना रहे हैं।

NSE के IPO में हो रही देरी और SEBI के अंदर गुटबाजी की खबरें भी सामने आई हैं। इस प्रक्रिया में क्या अड़चनें हैं और कोई समयसीमा तय की गई है?

सबसे पहले तो मैं SEBI के भीतर “गुटबाजी” जैसी किसी बात से इनकार करता हूं- ऐसी कोई बात नहीं है। यह एक सख्त प्रक्रिया है जिसमें यह सुनिश्चित किया जाता है कि अनुपालन, गवर्नेंस और जोखिम प्रबंधन के सभी मानक पूरे हों। मुझे भरोसा है कि हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। NOC प्रक्रिया जल्द ही अंतिम रूप ले सकती है, संभवतः अगले कुछ महीनों में।

पारदर्शिता के संदर्भ में बात करें तो, SEBI के हालिया परिपत्र में ट्रेडमार्क से जुड़ी रॉयल्टी भुगतानों के लिए डिस्क्लोजर अनिवार्य कर दिए गए हैं। कई सूचीबद्ध कंपनियाँ ब्रैंड निर्माण का खर्च उठाती हैं, जबकि प्रमोटर की निजी इकाइयां ट्रेडमार्क का स्वामित्व रखती हैं और भारी रॉयल्टी वसूलती हैं। क्या SEBI यह सुनिश्चित करेगा कि रॉयल्टी केवल कानूनी स्वामित्व के आधार पर नहीं, बल्कि आर्थिक योगदान के संदर्भ में भी न्यायसंगत हो?

इस चुनौती से निपटने के लिए हमने 1 सितंबर से एक मानकीकृत डिस्क्लोजर व्यवस्था लागू की है। अब शेयरधारकों और स्वतंत्र निदेशकों को संबंधित पक्षों के बीच लेन-देन (जिसमें रॉयल्टी भुगतान भी शामिल हैं) की स्पष्ट जानकारी प्राप्त होगी। इससे वे किसी भी असमान शुल्क पर प्रश्न उठा सकते हैं। प्रॉक्सी सलाहकार और शेयरधारक ऐसे प्रस्तावों को स्वीकृति या अस्वीकृति दे सकते हैं, जिससे जवाबदेही सुनिश्चित होती है। हमारा उद्देश्य है ऐसा नियमन तैयार करना जो अल्पसंख्यक निवेशकों की रक्षा करे, लेकिन व्यवसायों पर अनावश्यक बोझ न डाले।

होल्डिंग कंपनियां अक्सर अपनी सहायक इकाइयों की गवर्नेंस में पारदर्शिता की कमी के चलते वैल्यूएशन डिस्काउंट का सामना करती हैं। KK मिस्त्री समिति के डिमर्जर्स पर काम कर रहे होने के मद्देनजर, क्या SEBI ऐसी संरचना पर विचार कर रहा है जो होल्डिंग कंपनियों को बेहतर दृश्यता और नकदी प्रवाह की पहुंच दे सके?

इस विषय को मुझे और गहराई से देखना होगा, लेकिन मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि पारदर्शिता और गवर्नेंस को लेकर हमारी प्रतिबद्धता अडिग है। KK मिस्त्री समिति डिमर्जर के मानदंडों पर विचार कर रही है और हम उन संरचनाओं पर ध्यान देंगे जो दृश्यता और उत्तरदायित्व को बढ़ावा दें, बगैर कारोबारी दक्षता पर असर डाले। इस दिशा में हम सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं, बने रहिए।

आपके पूर्ववर्ती कार्यकाल में SEBI के कर्मचारियों के मनोबल में गिरावट और विरोध प्रदर्शन जैसी खबरें सामने आई थीं। आप वर्तमान में मनोबल बढ़ाने और SEBI को एक स्मार्ट रेगुलेटर बनाने के लिए क्या उपाय कर रहे हैं?

जवाब: मैं अतीत की घटनाओं पर टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा, लेकिन आज की स्थिति यह है कि हमारी टीम का मनोबल उच्च स्तर पर है। SEBI की सबसे बड़ी ताकत उसकी मानव पूंजी है, यही हमारी असली “फैक्ट्री” है। हम क्षमता निर्माण में निवेश कर रहे हैं, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी तकनीकों को नियमन में एकीकृत कर रहे हैं और एक पेशेवर कार्य संस्कृति को प्रोत्साहित कर रहे हैं। भारत के पूंजी बाजारों को वैश्विक मंच पर स्थापित करने का बेहतरीन अवसर मिला है, और इसके लिए प्रेरित SEBI सबसे बड़ी कुंजी है।

अंततः, खुदरा निवेशकों का विश्वास दोबारा कायम करने और जेन स्ट्रीट जैसे मामलों की पुनरावृत्ति रोकने के लिए SEBI की व्यापक रणनीति क्या है?

मेरी दृष्टि चार मुख्य स्तंभों पर आधारित है: विश्वास, पारदर्शिता, सहयोग और तकनीक। हम नियमों को सरल बना रहे हैं ताकि अनुपालन की प्रक्रिया अधिक सहज हो, निगरानी प्रणालियों को सशक्त बना रहे हैं ताकि अनियमितताओं का त्वरित पता चल सके, और डिस्क्लोजर की गुणवत्ता को इस प्रकार सुधार रहे हैं कि निवेशक अधिक जागरूक और सशक्त बनें। जेन स्ट्रीट प्रकरण में 597 मिलियन डॉलर की राशि सुरक्षित करना और संदिग्ध ट्रेड्स पर रोक लगाना हमारी संकल्पबद्धता का प्रमाण है। हमारा उद्देश्य अति-नियमन करना नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक निवेशकों की रक्षा करना, पूंजी निर्माण को बढ़ावा देना और भारतीय बाजारों को वैश्विक मानकों तक पहुंचाना है। SEBI एक उत्तरदायी, सक्रिय और संतुलित नियामक के रूप में बना रहेगा- विकास और निवेशक सुरक्षा के बीच उपयुक्त संतुलन के साथ।

SEBI किस तरह सूचीबद्ध कंपनियों और अपनी स्वयं की प्रक्रिया में अनुपालन का बोझ घटाते हुए प्रभावी नियमन सुनिश्चित करता है?

हम नियमों की प्रासंगिकता की लगातार समीक्षा कर रहे हैं और उन्हें सरल बना रहे हैं, विशेषकर वहां जहां प्रौद्योगिकी मैनुअल रिपोर्टिंग की जगह ले सकती है, जैसे कि API के जरिए। हम supervisory technology (SupTech) का उपयोग कर रहे हैं और कंपनियों को regulatory technology (RegTech) को अपनाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं, ताकि प्रक्रियाएं अधिक सुव्यवस्थित हों और हम उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित कर सकें। उदाहरण के तौर पर, हमने कंपनियों को अलग-अलग संस्थाओं में विभाजित करने की पूर्व अनिवार्यता को निलंबित किया है, इससे साझा संसाधनों का पारदर्शी उपयोग संभव हो पाया है, जटिलताएँ घटी हैं और नियामकीय स्पष्टता बनी है।

SEBI अनुपालन के सरलीकरण, निवेशक संरक्षण और बाजार विकास के बीच संतुलन किस तरह बनाए रखता है?

हम जोखिम-आधारित नियमन के सिद्धांत को अपनाते हैं, इससे अनुपालक संस्थाओं पर अनावश्यक बोझ नहीं पड़ता और दोषियों पर कठोर प्रवर्तन कार्रवाई की जाती है। निगरानी के लिए हम AI और SupTech जैसे आधुनिक साधनों का उपयोग करते हैं, जैसे कि IPO दस्तावेजों की स्वतः जांच, जिससे हमारी दक्षता बढ़ती है और हम गंभीर जोखिमों पर फोकस कर सकते हैं। यह दृष्टिकोण न केवल अनुपालन के बोझ को घटाता है, बल्कि पूंजी निर्माण को बढ़ावा देता है और यह सुनिश्चित करता है कि व्यवसाय नियामकीय जटिलताओं से मुक्त होकर सुचारू रूप से कार्य कर सकें- SEBI के निवेशक-अनुकूल और गतिशील बाजार के लक्ष्य के अनुरूप। 

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बदलते हिंदुस्तान की कहानी है ‘डैला बैला’, हमने बस उसे पर्दे पर उतारा है: नीलेश कुमार जैन

यह पहली ऐसी फिल्म है, जिसका प्रीमियर WAVES OTT पर हुआ। इस फिल्म का डायरेक्शन नीलेश कुमार जैन ने किया है। उन्होंने ही इस फिल्म के डायलॉग्स और गीत लिखे हैं।

pankaj sharma by
Published - Friday, 25 July, 2025
Last Modified:
Friday, 25 July, 2025
Neelesh Jain Della Bella

नई दिल्ली स्थित आकाशवाणी भवन के रंग भवन ऑडिटोरियम में हाल ही में प्रसार भारती के OTT प्लेटफॉर्म WAVES OTT पर स्ट्रीमिंग के लिए उपलब्ध फीचर फिल्म Della Bella: Badlegi Kahaani का प्रीमियर हुआ। यह पहली ऐसी फिल्म है, जिसका प्रीमियर WAVES OTT पर हुआ। इस फिल्म का डायरेक्शन नीलेश कुमार जैन ने किया है। उन्होंने ही इस फिल्म के डायलॉग्स और गीत लिखे हैं। इस प्रीमियर के दौरान समाचार4मीडिया ने नीलेश जैन से इस फिल्म से जुड़े तमाम पहलुओं पर विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:    

सबसे पहले तो आप अपने बारे में बताएं कि आपका अब तक का सफर क्या व कैसा रहा है?

बहुत छोटी सी मेरी कहानी है, बदल जाती है जब तक आती रवानी है। लखीमपुर खीरी में जन्मा मैनपुरी, इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में पला-बढ़ा, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शताब्दी वर्ष में सचिव रहा, अंग्रेजी पत्रकारिता को… ये कहकर छोड़ दिया कि ‘मेरा लिखा बिका नहीं क्योंकि मैं बिका नहीं’ फिर अचानक सिविल सेवा का अध्यापक बन गया, फिर पीयूष पाण्डे जी और अभिजित अवस्थी जी की प्रेरणा से एडमेकर बना और फिर निर्देशक महेश भट्ट जी के प्रोत्साहन से फिल्म मेकर।

इस तरह के सामाजिक मुद्दे पर फिल्म बनाने की प्रेरणा कहां से मिली और इसकी शुरुआत कैसे हुई?

प्रेरणा अपने समाज में घटित हो रही घटनाओं से ही मिली। आसपास जो बदलाव समाज से सोच तक में देखा जा रहा है, बस उसी को कहानी में पिरोया है। हम तो बस समेटकर दिखा रहे हैं, कहानी तो समाज की ही है।

इस फिल्म को बनने में कितना समय लगा, इसकी शूटिंग किन लोकेशंस पर हुई?

पूरा प्रोसेस तो कई महीनों का था। अधिकांश शूटिंग उप्र के बाराबंकी व लखनऊ में ही हुई। थोड़ा शूट मुंबई के पास पनवेल में भी किया।

‘डैला बैला : बदलेगी कहानी’ ये शीर्षक काफी रोचक है। इसका ख्याल कैसे आया, इस बारे में बताएं?

शीर्षक का सबसे बड़ा गुण ध्यान खींचना होता है और उत्सुकता पैदा करना भी।  बॉलीवुड के एक दिग्गज आशीष सिंह ने जब इस शीर्षक को पहली बार सुना तो उन्होंने इसके पीछे की सोच को सराहा। इंटरनेट पर फिल्म का नाम अनाउंस होते  ही ‘डैला बैला’ का सर्च शुरू हो गया था और लोग समझ गए थे कि इस साधारण-सरल कहानी में कुछ न कुछ ज़रूर बदलेगा, उत्सुकता की उसी डोर को पकड़कर दर्शक बैठा रहा और हंसी के आंसुओं ने आखिरकार अपना रूप बदल ही लिया। वैसे ‘डैला बैला’ का समेकित अर्थ एक ऐसी लड़की से है जिसका व्यक्तित्व आकर्षक होता है, जो अपने फैसले खुद लेने की ताक़त रखती है। वो समझदार भी होती है और रचनात्मक होने के साथ-साथ एक अच्छी दोस्त भी।

फिल्म में आप 'कहानी बदलने' की बात करते हैं।  आप किस सामाजिक या मानसिक बदलाव को दर्शकों तक पहुंचाना चाहते हैं?

दरअसल, ये आज के बदलते हिंदुस्तान की कहानी है। ये समाज में आ रहे भौतिक परिवर्तनों से लेकर भाविक परिवर्तनों तक की कहानी है। इसे मैंने जीएसटी की कहानी कहा है, वो जीएसटी नहीं बल्कि ‘ग्रेट सोशल ट्रांसफॉर्मेशन’ की कहानी कहा है।

फिल्म की कहानी क्या किसी सच्ची घटना से प्रेरित है या यह पूर्ण रूप से काल्पनिक है?

एक बड़े मकसद को सामने रखकर युवा लेखिका सान्या ने इस कहानी का खांचा खींचा है। इसलिए कल्पना तो है ही लेकिन कहीं न कहीं सच्ची घटना भी पीछे से दरवाजा खटखटा रही है। उसके साथ वरिष्ठ लेखक रूप जी व नीरज ने भी स्क्रीनप्ले को सहज गति का रखा है। पटकथा में कोई भगदड़ नहीं है। न कैमरा वर्क या एडिटिंग में। 

फिल्म की शूटिंग के दौरान कलाकारों और निर्देशक को किन सबसे बड़े चैलेंजों का सामना करना पड़ा?

यूपी की ठंड का और उस भोलेपन को बनाए रखने का चैलेंज था जो आज भी छोटे शहरों में अपना घोंसला बनाकर रहता है। वैसे उप्र की जनता और फिल्म बंधु के सहयोग ने हर चैलेंज को आसान बना दिया।

फिल्म की शूटिंग या स्क्रिप्टिंग के दौरान कोई ऐसा लम्हा या अनुभव रहा जो टीम के लिए हमेशा यादगार रहेगा?

टाइटल गीत की शूटिंग के दौरान फिल्म की लीड आशिमा वर्द्धन जैन के पैरों में छाले पड़ गए थे क्योंकि बेलीज पहनकर डांस करना था और कोरियोग्राफ़र मुदस्सर खान के लिए ये पहला मौका था जब किसी डायरेक्टर ने उनसे कहा था कि परफेक्शन नहीं चाहिए क्योंकि कहानी के हिसाब से डैला-बैला के पैर में चोट लगने के बाद का डांस है। इसीलिए सहज बनाने के लिए जरूरत से ज्यादा टेक लेने पड़े और आशिमा के पैरों में छाले पड़ गए।

क्या यह फिल्म स्कूल, कॉलेज या सरकारी संस्थानों में भी दिखाई जाएगी ताकि इसका सामाजिक संदेश अधिक लोगों तक पहुंचे?

बिजनौर के एक कॉलेज में ये रिलीज के दूसरे दिन ही दिखाई गई। मुंबई के एक बड़े स्कूल के मुख्य संचालक ने दिल्ली में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा आयोजित प्रीमियर में इस फिल्म को देखकर मुझसे इस फ़िल्म को अपने सभी स्कूलों कॉलेजों में स्मार्ट टीवी पर दिखाने की बात कही है। बड़ी विनम्रता से कहना चाहता हूं, ये स्वस्थ मनोरंजन और ‘सिंपल सिनेमा’ की मेरी अवधारणा की जीत है।

इस फिल्म से समाज में लड़कियों के प्रति सोच बदलने की कितनी उम्मीद है?

समाज तो बाद में आता है पहले लड़कियों को ख़ुद इस बदलाव की मशाल उठानी होगी और इसका ये संदेश समझना होगा कि ‘ख़ुद की तलाश किसी और के साथ नहीं हो सकती’, ‘ज़िंदगी के छोटे दायरों से बाहर आना ही होता है’ और ये भी कि ‘कुछ सफ़र अकेले ही तय करने होते हैं, अपना स्ट्रगल खुद ही करना होता है।

आज की तेजी से बदलती डिजिटल दुनिया में जब व्यावसायिक कंटेंट हावी है, ऐसे में सामाजिक और संवेदनशील विषयों पर आधारित फिल्मों के लिए दर्शक कितने तैयार हैं, इस बारे में आपका क्या मानना है?

दर्शक पूरी तरह तैयार हैं पूरी दुनिया में ये फ़िल्म देखी जा रही है। सबसे ज़्यादा आश्चर्य तो तब हुआ जब ये पता चला कि विदेशों में लोग एक-दूसरे को इस फिल्म को दिखा रहे हैं। खुद वेव्स ओटीटी डाउनलोड कर रहे हैं। अगर अमेरिका में इसे सराहा जा रहा है तो आस्ट्रेलिया में भी। ओमान, बहरीन, दुबई, सिंगापुर, जर्मनी, इंग्लैंड, साउथ अफ़्रीका व अन्य जगहों पर भी लोग इंग्लिश सबटाइटल के साथ इसे देख रहे हैं। फ़िल्म के गाने भी मिलियन व्यूज क्रास कर गये हैं। राज आशू के गीत-संगीत का ये एक नया दौर है और शान, हंसिका अय्यर, स्वाती शर्मा और सीपी झा की आवाज का भी। ये फिल्म वर्ड ऑफ माउथ से पूरी दुनिया में फैलती जा रही है। आप ख़ुद एआई के माध्यम से टाइप करें ‘ग्लोबल रिस्पांस ऑफ़ डैला बैला बदलेगी कहानी’ और स्वयं पढ़ लें कि दर्शकों की प्रतिक्रिया क्या है और वो ऐसी फिल्मों के लिए कितना तैयार हैं?

क्या भविष्य में इसी तरह के किसी अन्य सामाजिक मुद्दे पर फिल्म बनाने की योजना है?

मैं हमेशा ही मनोरंजन की ऊपरी परत के नीचे किसी न किसी सामाजिक संदेश की परत लेकर ही फ़िल्में बनाऊंगा, क्योंकि मैं मानता हूं मनोरंजन फ़िल्म के साथ खत्म नहीं होना चाहिए, उसे अपने अनकहे संदेश से हमेशा मन-मानस का रंजन करना चाहिए। आगे आनेवाली फिल्म में भी एक बेहद गंभीर मुद्दा है पर वो फिल्म भी गुदगुदाते हुए ही अपनी बात कहेगी।

यह फिल्म दर्शकों को कहां देखने को मिलेगी?

सबसे अच्छी बात ये है कि ये फ़िल्म WAVES OTT पर उपलब्ध है जिसे कोई भी अपने मोबाइल फोन, स्मार्ट टीवी, लैपटॉप या कम्प्यूटर पर फ़्री डाउनलोड कर सकता है और फ़्री में देख भी सकता है। WAVES OTT को प्ले स्टोर या ऐप स्टोर से बहुत आसानी से डाउनलोड कर सकते हैं। वहां WAVES OTT या WAVES PB लिखने से ऑप्शन दिखने लगेगा। उसको डाउनलोड करके अपनी भाषा चुनिए और फिर फोन नंबर भरकर ओटीपी डालकर फ़िल्म का नाम सर्च करके मुफ़्त में इस फ़िल्म का आनंद लीजिए। यह फिल्म दूरदर्शन पर भी दिखाई जाएगी।

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'यही विविधता हमें जटिल मुद्दों को समझदारी व संवेदनशीलता के साथ दिखाने में मदद करती है'

‘i24NEWS’ के चेयरमैन फ्रैंक मेलौल ने ‘एक्सचेंज4मीडिया’ के सीनियर एडिटर रुहैल अमीन के साथ बातचीत में फेक न्यूज की चुनौती, मीडिया में भरोसे की बहाली और टीवी पत्रकारिता के भविष्य पर बेबाक राय साझा की है।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 21 July, 2025
Last Modified:
Monday, 21 July, 2025
Frank Melloul

‘i24NEWS’ के चेयरमैन फ्रैंक मेलौल (Frank Melloul) ने इस इजरायली अंतरराष्ट्रीय न्यूज नेटवर्क को वैश्विक मीडिया में एक अलग पहचान दी है। उनका उद्देश्य था-मध्य पूर्व की स्टोरीज को दुनिया के सामने एक बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक दृष्टिकोण से रखना, जो सिर्फ संघर्षों तक सीमित न हों, बल्कि टेक्नोलॉजी, संस्कृति और मानवीय प्रयासों को भी दर्शाएं।

डिप्लोमेसी, मीडिया स्ट्रैटेजी और इंटरनेशनल ब्रॉडकास्टिंग के तीनों क्षेत्रों में उनके अनुभव ने उन्हें इस बात की गहरी समझ दी है कि पत्रकारिता किस तरह वैश्विक छवि और भू-राजनीतिक विमर्श को प्रभावित करती है। ‘एक्सचेंज4मीडिया’ के सीनियर एडिटर रुहैल अमीन के साथ एक विस्तृत बातचीत में फ्रैंक मेलौल ने संघर्ष क्षेत्रों में पत्रकारिता की भूमिका, फेक न्यूज़ की चुनौती, न्यूज मीडिया में भरोसे की बहाली और टीवी पत्रकारिता के भविष्य पर अपनी बेबाक राय साझा की। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:

वैश्विक मीडिया परिदृश्य में आपने क्या कमी देखी जिसके कारण आपने इजराइल से i24NEWS की शुरुआत की?

जब मैंने i24NEWS की शुरुआत की, तब ये साफ था कि इजराइल के पास ऐसा कोई अंतरराष्ट्रीय मंच नहीं था जो इसकी कहानी दुनिया तक निष्पक्षता के साथ पहुंचा सके। इजराइल एक जीवंत लोकतंत्र और इनोवेशन हब है, लेकिन इसकी छवि अकसर अधूरी या पक्षपाती रूप में सामने आती थी। मैंने ऐसा प्लेटफॉर्म बनाना चाहा जो अंग्रेजी, हिब्रू, फ्रेंच और अरबी में बात कर सके और सिर्फ टकराव नहीं, बल्कि इनोवेशन, संस्कृति और मानवीय जिजीविषा की कहानियों को भी सामने लाए।

जब मैंने मीडिया की वैश्विक तस्वीर देखी, तो मुझे यह महसूस हुआ कि इजराइल या पूरे मध्य पूर्व को लेकर एकतरफा नैरेटिव चलाया जाता है। इसी असंतुलन को दूर करने के लिए हमने i24NEWS की शुरुआत की, ताकि यहां से पूरी दुनिया को तथ्यपरक, संतुलित और विविध दृष्टिकोणों से खबरें मिल सकें। यह चैनल अंग्रेज़ी, फ्रेंच और अरबी तीन भाषाओं में काम करता है ताकि अधिक से अधिक दर्शकों तक पहुंचा जा सके।

अन्य ग्लोबल मीडिया आउटलेट्स से i24NEWS किस तरह अलग है?

हम सिर्फ इजराइल पर रिपोर्टिंग नहीं करते,बल्कि यहीं से प्रसारण भी करते हैं। इस क्षेत्र को हम अच्छी तरह समझते हैं, इसलिए हमारी नजरिया भी अलग होता है। हमारी टीमों में 35 देशों के लोग शामिल हैं, जो हमारे न्यूजरूम को विविधता और संतुलन देते हैं। यही विविधता हमें जटिल मुद्दों को समझदारी और संवेदनशीलता के साथ दिखाने में मदद करती है। सबसे ज़रूरी बात यह है कि हम तथ्यों पर भरोसा करते हैं, न कि किसी राय पर। हम अपनी तरफ से स्टोरी को मोड़ते नहीं, बल्कि जैसी घटना होती है, वैसी ही रिपोर्ट करते हैं—ताकि दर्शक अपनी राय खुद बना सकें।

आप अक्सर यह कहते हैं कि पत्रकारिता में लोगों का भरोसा लौटाना बहुत जरूरी है। i24NEWS इस भरोसे के संकट को कैसे दूर करता है?

आज मीडिया पर लोगों का भरोसा कम हो गया है। क्योंकि कई बार खबरों में पक्षपात, भ्रामक बातें और सनसनी होती है। लेकिन i24NEWS में हम खबर दिखाने से पहले हर तथ्य की पूरी जांच करते हैं, राय और खबर को अलग रखते हैं। मैं मानता हूं कि भरोसा एक दिन में नहीं बनता। हर दिन, हर खबर के साथ उसे कमाना पड़ता है।

आप कहते हैं कि मीडिया इजराइल के साथ पक्षपाती व्यवहार करता है। क्या आप इसकी वजह बता सकते हैं?

हां। मेरा मानना है कि इजराइल एक खुला लोकतांत्रिक देश होने के बावजूद कई बार दोहरे मापदंडों का शिकार होता है। दुनिया भर में इजराइल से जुड़ी खबरों को जिस तरह दिखाया जाता है, उसमें अक्सर संतुलन की कमी होती है। हमें आलोचना से परेशानी नहीं है, लेकिन हम चाहते हैं कि रिपोर्टिंग निष्पक्ष हो। जब भी इजराइल की खबरें दिखाई जाती हैं, तो उस समय का पूरा संदर्भ समझना जरूरी होता है  और अक्सर वही संदर्भ नहीं दिखाया जाता। इसलिए मैं मानता हूँ कि मीडिया की रिपोर्टिंग में इजराइल के साथ भेदभाव हुआ है, सिर्फ खबरें दिखाने के तरीके से नहीं, बल्कि उस एकतरफा नजरिए और चुनिंदा जांच के कारण जो बार-बार सामने आता है।

युद्ध और अशांति के समय, मीडिया को क्या भूमिका निभानी चाहिए, विशेषकर इजरायल-गाजा संघर्ष जैसी घटनाओं के दौरान?

मीडिया का काम जानकारी देना है, लोगों की भावनाएं भड़काना नहीं। संघर्ष के समय सच्चाई सबसे पहले शिकार बनती है। ऐसे में हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि हम शांत रहें, हर तथ्य की पुष्टि करें और हर पक्ष की बात सामने लाएं, चाहे वह हमारे लिए असहज ही क्यों न हो। i24NEWS ने इज़राइल-गाजा जैसे संघर्षों के दौरान भी बिना सनसनी फैलाए रिपोर्टिंग की। यह सिर्फ हेडलाइन की बात नहीं है,  यह मानव जीवन, भू‑राजनीति और दीर्घकालिक परिणामों की बात है।

 तकनीकी में तेजी से हो रहे बदलावों के दौर में न्यूजरूम खुद को कैसे अपडेट रखें ताकि पीछे न छूटें?

यह बहुत जरूरी है, क्योंकि आज का दर्शक डिजिटल, मोबाइल और दुनियाभर से जुड़ा है। हमने नए स्टूडियो, आधुनिक तकनीक और सोशल मीडिया से जुड़ाव पर ध्यान दिया है। लेकिन बदलाव सिर्फ मशीनों से नहीं होता, सोच से होता है। इसका मतलब है नए तरीके अपनाना, दर्शकों से जुड़ना और ऐसी स्टोरीज कहना जो उन्हें गहराई से छू सकें।

क्या आपका नेटवर्क इजराइल से संचालित होने से आपकी पत्रकारिता पर किसी तरह का दबाव या निगरानी बढ़ जाती है?

बिल्कुल, इजराइल में रहते हुए हमारी पत्रकारिता पर हर वक्त नजर रखी जाती है, खासकर जब हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ कहते हैं। लेकिन यही बात हमें और मजबूत बनाती है। हम हर खबर को पूरी सटीकता, पारदर्शिता और जिम्मेदारी से बताते हैं। इस दबाव ने हमें बेहतर काम करना सिखाया है, क्योंकि यहां गलती की कोई गुंजाइश नहीं होती।

आपके मुताबिक, एआई जैसी नई तकनीकें पत्रकारिता को कैसे बदल रही हैं, खासकर फेक न्यूज से लड़ने में?

एआई एक ताकतवर टूल है, लेकिन यह फायदे के साथ-साथ नुकसान भी पहुंचा सकता है। इससे न्यूज़रूम तेजी से काम कर सकते हैं और ज़्यादा असरदार बन सकते हैं, लेकिन अगर ठीक से इस्तेमाल न हो तो यह गलत जानकारी भी बहुत फैला सकता है। पत्रकारिता का भविष्य सच की जांच, इंसानी समझ और नैतिक मूल्यों पर टिका है। हम i24NEWS में एआई का इस्तेमाल करने के तरीके ढूंढ रहे हैं, लेकिन साथ ही यह भी सुनिश्चित कर रहे हैं कि संपादकीय नैतिकता बनी रहे।

i24NEWS की अब संयुक्त अरब अमीरात और उसके बाहर भी मौजूदगी बढ़ रही है। आप इस विस्तार को कैसे देखते हैं?

यह दिखाता है कि मध्य पूर्व अब कैसे बदल रहा है। दुबई में हमारा दफ्तर सिर्फ़ दिखावे के लिए नहीं है, बल्कि एक सोच-समझकर उठाया गया कदम है। अब्राहम समझौते ने कई नए मौके पैदा किए हैं, और हम उस बातचीत का अहम हिस्सा बनना चाहते हैं। हमारा मकसद लोगों को जोड़ना है, दूर करना नहीं।

लोगों को आप i24NEWS के बारे में सबसे ज़्यादा क्या बात समझाना चाहते हैं?

हम यहां पूरी बात तथ्यात्मक रूप से बताने के लिए हैं।  चाहे वह राजनीति से जुड़ी हो, तकनीक से या किसी लोगों के अनुभव से। हमारा मकसद लोगों के सामने सच्ची बातें लाना है। हम इजराइल का प्रचार नहीं करते। हम सच्चाई के साथ हैं, बातचीत के पक्ष में हैं और सच्ची पत्रकारिता का समर्थन करते हैं। 

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