समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार ब्रज खंडेलवाल इन दिनों पत्रकारिता के साथ समाजसेवा के कामों में जुटे हुए हैं। वे दिल्ली, आगरा, भोपाल समेत देश के कई भागों में कार्य कर रहे वरिष्ठ पत्रकारों के गुरु हैं।
बहुआयामी प्रतिभा के धनी ब्रज खंडेलवाल आगरा में यमुना की सफाई से लेकर बढ़ते प्रदूषण के प्रति भी लोगों को जागरूक कर रहे हैं। उनकी पहचान न सिर्फ पत्रकार, बल्कि एक शिक्षक, पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी है। इनके अलावा और भी कई विशेषताएं उनमें, हैं जो उनके कार्यों और आचरण में दिखाई देती हैं। ब्रज खंडेलवाल हिंदी और अंग्रेजी भाषा, दोनों में समान रूप से मजबूत पकड़ रखते हैं और उनकी धारदार कलम हर विषय पर चलती रहती है।
'समाचार4मीडिया' के डिप्टी एडिटर अभिषेक मेहरोत्रा ने ब्रज खंडेलवाल से उनके परिवार से लेकर करियर के शुरुआती दिनों के अलावा विभिन्न विषयों पर बेबाकी से चर्चा की...
न्यूज को लेकर ब्रज खंडेलवाल का मानना है कि आजकल तो ये हो गया है कि न्यूज खुद चलकर आपके पास आ रही है। आपको उसमें से छांटना है कि कौन सी न्यूज लेनी है अथवा कौन सी नहीं।
प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश :
आपने अपने करियर की शुरुआत दिल्ली में रिपोर्टिंग से की है और काफी समय तक वहां पत्रकारिता की। इसके बाद आप आगरा शिफ्ट हो गए। आमतौर पर तो लोग छोटे से बड़े शहर की ओर जाते हैं लेकिन आप बड़े से छोटे शहर की ओर आए हैं। क्या आपको इस पर कभी अफसोस होता है कि जो निर्णय लिया वो समय के हिसाब से सही था?
ब्रज खंडेलवाल: यह सवाल काफी लोग मुझसे पूछा करते हैं, क्योंकि ट्रेंड यही है कि छोटे शहर से बड़े की तरफ जाना। इसका जवाब यही है कि पत्रकारिता को मैंने एक प्रफेशन के रूप में कभी नहीं लिया है। शुरुआत में यह मेरे लिए लड़ाई का एक हथियार थी। समाज को सुधारना, बदलना, कुछ नया करना, समाजवाद लाना आदि काफी बड़े-बड़े सपने थे। उसमें पत्रकारिता को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। यह काम दिल्ली में बैठकर हो नहीं सकता था।
इसके लिए पूरे देश में, गांव में, छोटी जगह में घूमना और वहां के लोगों से बातचीत करना, पढ़ना-लिखना, कार्यक्रमों का हिस्सा बनना आदि करना होता था तो छोटा-बड़ा शहर आदि मेरे लिए कोई मुद्दा नहीं था। वैसे दिल्ली की लाइफ स्टाइल भी मेरे मुताबिक नहीं थी और न ही में वहां के कल्चर को आत्मसात कर पाया। इसलिए काफी महत्वाकांक्षाएं लेकर वापस आए और अपना अखबार शुरू किया। मुझे न तो इसमें कुछ गलत लगा और न ही शिकायत है। अपने जीवन का भरपूर आनंद उठाया है।
दिल्ली में आपका सफर कैसा रहा। आपने पत्रकारिता को क्यों चुना? दिल्ली में कितने साल रहे और क्या किया। दिल्ली में आपके शुरुआती दिन कैसे रहे, इस बारे में कुछ बताएं ?
ब्रज खंडेलवाल: मुझे स्कूल के दिनों से ही लिखने का शौक था। इसके बाद आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज में दाखिला लिया। यहां भी लिखते रहे और 'द विंक' (The Wink) नाम से एक पत्रिका भी लॉन्च की, जो काफी लोकप्रिय रही। इसके बाद हमें लगा कि शायद यही हमारी मंजिल है। आज भी उस पत्रिका का प्रकाशन कर रहा हूं।

अभी आपने सेंट जॉन्स कॉलेज की पत्रिका 'द विंक' के बारे में बात की। इसके बारे में थोड़ा और विस्तार से बताएं ?
ब्रज खंडेलवाल: कॉलेज के दिनों से ही पत्रकारिता में रुचि जागृत हो चुकी थी। अखबार में लिखना, कार्यक्रम-रैलियों की कवरेज करना शुरू कर दिया था और उसके बाद 'द विंक' नाम से 1969-70 में पत्रिका निकाली जो शुरू से ही कैंपस में काफी लोकप्रिय रही। उसके बाद अंग्रेजी से एमए कर लिया। इसके बाद लोगों ने कहा कि पत्रकारिता की भी कुछ पढ़ाई कर लो। हालांकि उन दिनों पत्रकारिता का डिप्लोमा या कोर्स आदि कोई करता नहीं था। उस समय मान्यता थी कि साहित्यकार की तरह पत्रकार भी जन्मजात होते हैं और इसमें सीखने की कोई बात नहीं होती है।लेकिन मैंने सोचा कि इसकी पढ़ाई जरूर करनी चाहिए और इसकी गहराई में जाना चाहिए और पूरी तैयारी के साथ इस प्रफेशन में उतरना चाहिए। उन दिनों दिल्ली के आईआईएमसी में पढ़ाई करना काफी मुश्किल था क्योंकि ज्यादातर विदेशी छात्र ही वहां प्रवेश लेते थे। सिर्फ दो-तीन लोग ही हिन्दुस्तानी होते थे। शुक्र था कि वहां दाखिला मिल गया। साल भर वहां पढ़ाई-लिखाई की और कम्युनिकेशन वगैहरा समझा।
उन दिनों हमें 'यूएनआई' के हेड ट्रेवर ट्यूबक एडिटिंग पढ़ाते थे, जिन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पहली बायोग्राफी लिखी थी। उनकी कॉपी एडिटिंग काफी कमाल की थी। बड़े-बड़े लोगों की किताबें उन्होंने एडिट की थीं। उन्होंने हमारी भी काफी ग्रूमिंग की और एडिटिंग की काफी बारीकियां सिखाईं। सबसे बड़ी बात थी कि बड़ी बातें सरल शब्दों में कैसे लिखीं जाए। छोटे-छोटे वाक्य बनाए जाएं और उसमें कम्युनिकेशन एंगल रहना चाहिए ताकि लोगों को समझ आए। वो बहुत अच्छी ट्रेनिंग थी। इसके बाद फिर 1972 में एशिया कप हुआ। उस दौरान एक दैनिक अखबार निकलता था, वहां से काम शुरू किया। उसके बाद तो यूएनआई समेत काफी लंबी लिस्ट है एजेंसी-अखबारों की। जब देश में आपातकाल लग गया तो उस समय भी कई अखबारों में काम करते रहे। उस समय अंडरग्राउंड रहकर उदयन शर्मा के साथ काफी लिखा। उसे बांटने के लिए काफी भागदौड़ करते थे। कभी वॉरंट निकल गए तो कभी इधर-उधर भागते रहे। कह सकते हैं कि काफी एडवेंचर था उस समय। आपातकाल जब समाप्त हुआ तो राजनारायण का वीकली 'जनसाप्ताहिक' के नाम से निकला, जिसके प्रॉडक्शन का काम मैंने लिया था। ढाई-तीन साल वह चला। एडिटिंग और छपाई आदि मेरे जिम्मे ही थी। वह काफी बेहतरीन व उपयोगी अनुभव था। एक तो हिंदी पत्रकारिता के तौर पर हिंदी को समझने के लिए और डॉक्टर लोहिया के विचारों को कायदे से पढ़कर जानने-समझने के लिए बहुत उपयोगी रहा। इसके बाद तो इधर से उधर और उधर से इधर आने-जाने का क्रम चलता रहा। कभी 'पॉयनियर', कभी 'दैनिक भास्कर', 'स्वतंत्र भारत', 'इंडिया टुडे' कभी हिंदी तो कभी अंग्रेजी। कहने का मतलब बहुत लंबी लिस्ट है। इतना सफर तय करने के बाद लगा कि वापस अपने शहर में चलना चाहिए। तब तक शादी भी हो गई थी। इसके बाद हमने सोचा कि आगरा वापस चलते हैं और अपना अखबार शुरू करेंगे। इसके बाद अपना प्रिंटिंग प्रेस लगाया। हम दोनों मिलकर रात में छपाई करते थे और सुबह बांटने जाते थे। करीब ढाई-तीन साल तक ऐसा ही चलता रहा। पहले यह 'समीक्षा भारती' नाम से हिंदी में था, फिर इसे अंग्रेजी में किया। इसके बाद अंग्रेजी के साप्ताहिक अखबार 'न्यूजप्रेस' (NewsPress) का प्रकाशन किया, जो अच्छा खासा चला हालांकि बाद में बंद हो गया।
आप अपनी निजी जिंदगी के बारे में कुछ बताएं, जैसे आपने दक्षिण भारतीय परिवार में शादी की। इसके बाद आप पत्नी को दिल्ली से आगरा ले आए, कैसा रहा ये सफर?
ब्रज खंडेलवाल: मैं और मेरी पत्नी पद्मिनी हम दोनों एक ही एजेंसी 'नेशनल प्रेस एजेंसी' (NPA) में काम करते थे। उन दिनों भारद्वाज जी उसके मालिक थे। वह 'पीआईबी' से रिटायर हुए थे। वह इंदिरा गांधी के काफी करीब थे। वहां लंबे समय तक काम किया। उस समय दो ही बड़ी एजेंसी 'इन्फा' और 'एनपीए' चला करती थीं। एनपीए में काफी बड़े-बड़े लोग जैसे कुलदीप नायर आदि लिखा करते थे। इनके लिखे हुए आर्टिकल्स वगैरह की एडिटिंग हम ही किया करते थे। इसके बाद कॉमनवेल्थ लंदन की 'जेमिनी न्यूज सर्विस' (Gemini news service) के साथ मैं काफी समय तक जुड़ा रहा। मैं उनके लिए फीचर्स आदि लिखा करता था और वह मुझे पूरे भारत में घुमाते रहते थे।

आईआईएमसी को लेकर दिल्ली में आपका सफर कितने साल रहा, उसके बाद आप आगरा कब आए?
ब्रज खंडेलवाल : करीब 12-14 साल हम दिल्ली में रहे। इसके बाद आगरा आए और फिर दिल्ली चले गए और फिर आगरा आ गए। ऐसा काफी समय तक चलता रहा। इसके बाद फाइनली 1990 के आसपास आगरा आ गए।
आगरा लौटने के बाद किस तरह पत्रकारिता की शुरुआत की?
ब्रज खंडेलवाल: आगरा लौटकर हमने 'समीक्षा भारती' के नाम से जो अखबार लॉन्च किया था, वह तो फेल हो गया। कंपोजीटर्स ने हड़ताल कर दी, उस समय पैसे थे नहीं और ये प्रयोग फेल हो गया। अंग्रेजी अखबार शुरू करने का वह समय भी नहीं था और उसका मार्केट भी नहीं था। पहले वह अखबार हिंदी में था लेकिन बाद में उसी नाम से अखबार को अंग्रेजी में कर दिया गया था। हिंदी अखबार साप्ताहिक कर दिया था और अंग्रेजी में इसे दैनिक कर दिया था। अब इसे उस समय की मूर्खता कहें या एडवेंचर कि रोजाना चार पेज का अंग्रेजी का अखबार निकालना शुरू किया। उस समय अंग्रेजी का इतना पाठक वर्ग भी यहां नहीं था। हमें लगा था कि अपने शहर में कुछ नया करेंगे। हमें लगा था कि टूरिज्म इंडस्ट्री इसे सपोर्ट करेगी। हालांकि उन्होंने सपोर्ट भी किया। काफी कॉपी खरीदी भी जाती थीं। हर होटल कॉपी खरीदता था क्योंकि उसमें डेली इवेंट्स की कवरेज होती थी। उस समय ऑफसेट मशीन गिनती की थीं और यह अखबार लेटरप्रेस पर छपता था। छोटी मशीन थी, उसी पर छापा करते थे कंपोज कराके। दिन भर कंपोजिंग चलती थी। 10-12 लोग रखे गए थे कंपोजिंग के लिए। हालांकि नुकसान तो हुआ लेकिन उसका अपना मजा था। इसके बाद 'पॉयनियर' अखबार जॉइन कर लिया। कुछ दिन डेस्क पर काम किया फिर लखनऊ से अटैच्ड हो गए और वहां चले गए। फिर आगरा आकर ब्यूरो संभाला। पहले यह जयपुरिया समूह का था, फिर थापर्स ने खरीद लिया। उस समय विनोद मेहता एडिटर हुआ करते थे। फिर ए.के.भट्टाचार्य आए और उसके बाद चंदन मित्रा ने उसे खरीद लिया। इसके बाद हम दैनिक भास्कर में काम करते रहे। फिर तीन-चार साल यहां से 'हिन्दुस्तान टाइम्स' में काम किया। इस तरह कभी ये और कभी वो का क्रम लगातार चलता रहा। 1995 में यूनिवर्सिटी में पढ़ाना शुरू कर दिया था। उसी साल अंग्रेजी वीकली 'न्यूजप्रेस' जो उस समय काफी लोकप्रिय था, में जुड़ गए। हालांकि अखबार काफी छोटा था लेकिन टीम बहुत एक्टिव थी।
उस अखबार पर आरोप था कि वह शहर की बड़ी-बड़ी शख्सियतों का काफी मजाक उड़ाया करता था?
ब्रज खंडेलवाल: वह अखबार टैब्लॉयड रूप में था और टैब्लॉयड का जो स्वरूप होता है, वो उसी स्टाइल में होता था। उसमें काफी खोजपरक रिपोर्ट्स रहती थीं। उस अखबार ने अपनी रिपोर्ट्स से कई लोगों को मुश्किल में भी डाल दिया था। आगरा के बड़े पत्रकार जैसे रामकुमार शर्मा, जमशेद खान व प्रवीण तालान वगैरह जो आज काफी बड़ा नाम हो गए हैं, सब उसी में काम करते थे। हालांकि उस अखबार में मिलता कुछ नहीं था पर पैशन था सभी में। मैं तो उसमें मुफ्त काम करता था। वह अखबार लगभग पांच-छह साल चला और काफी अच्छा चला। फिर कुछ गलतफहमी हो गईं और अखबार बंद ही हो गया। हालांकि उसे दोबारा शुरू करने की कोशिश भी की गई लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। लेकिन वह काफी मजेदार और कामयाब प्रयोग था। 'डीएवीपी' से उसे मान्यता भी मिल गई थी और विज्ञापन आदि भी मिलने शुरू हो गए थे। उस समय अखबार का सर्कुलेशन दस हजार था। यह 1995 की बात है। यह अखबार मथुरा से छपकर आता था क्योंकि वहां की प्रिंटिंग सस्ती और अच्छी थी। उस दौरान ऑफसेट की ज्यादातर मशीनें मथुरा में ही थीं। मथुरा प्रिंटिंग की बहुत बड़ी मंडी है। इस बीच 2002 और 2003 के बीच में देश की बड़ी न्यूज एजेंसी 'आईएएनएस' (IANS) के लिए काम करने लगा। हालांकि आईएएनएस से मैं इमरजेंसी के दिनों से ही जुड़ा हुआ था। उन दिनों गोपाल राजू का साप्ताहिक अखबार 'इंडिया एब्रोड' न्यूयॉर्क से निकलता था, बाद में उन्होंने इसे 'रेडिफ' को बेच दिया। उसके बाद किसी और ने ले लिया। इसके बाद 'इंडिया एब्रोड न्यूज सर्विस' बदलकर 'इंडो-एशियन न्यूज सर्विस' हो गई। तब से मैं आईएएनएस से जुड़कर पश्चिमी यूपी को कवर करता हूं।
आज यदि आप देखते हैं कि क्या खोया और क्या पाया। हालांकि लोग कहते हैं कि आपने क्या खोया और क्या पाया ये समझना मुश्किल है क्योंकि न आपने अपना मकान बनाया और न गाड़ी खरीदी। हालांकि ये सही बात है कि आपने सम्मान बहुत पाया है लेकिन आर्थिक दृष्टि से देखें तो उतनी कामयाबी नहीं मिली। आने वाली पीढ़ी यदि आपको देखे तो वह तो कंफ्यूज रहती है कि सम्मान तो ठीक है लेकिन पैसा भी बहुत जरूरी है क्योंकि संत जीवन जीना बहुत मुश्किल होता है, इस बारे में क्या कहेंगे ?
ब्रज खंडेलवाल: मैंने कभी यह सोचकर काम ही नहीं किया कि क्या खोना है और क्या पाना है। मैं तो बस इसमें खुश रहता हूं कि चलो एक अच्छी स्टोरी हो गई। बस मेरे लिए बहुत है और यही मेरा पुरस्कार है। क्या होगा और क्या नहीं होगा, मैं इस बारे में ज्यादा नहीं सोचता क्योंकि मैंने पत्रकारिता को इस रूप में कभी देखा ही नहीं है कि पैसा कमाना है या गलत काम करना है। मैंने जैसा शुरू में कहा था कि यह तो लड़ाई का हथियार है। एक अच्छी स्टोरी करना समाज को बदलने के यज्ञ में आहुति देने जैसा है। इस यज्ञ में हम जो कर सकते हैं, वह यह है कि अच्छे विचार फेंकें। अच्छे लोगों से मिलें अैर उन्हें हाईलाइट करें। जो चीजें हाईलाइट करने के लिए जरूरी हैं, उन्हें उठाएं। इस हिसाब से देखें तो काफी संतोष है और इतना तो मिल ही जाता है, जिससे दाल-रोटी चल रही है। बिना बात के क्यों अपने सिद्धांतों से समझौता करें।

आपने पिछले पांच दशकों से सक्रिय पत्रकारिता की है और देखी है। वर्तमान में पत्रकारिता के सामने क्रेडिबिलिटी की समस्या है, हालांकि यह हर बार रहता है लेकिन पिछले पांच-सात साल से इस पर सवाल ज्यादा उठ रहे हैं और तो और सोशल मीडिया को आए हुए अभी कुछ ही समय हुआ है लेकिन उसकी क्रेडिबिलिटी पर भी सवाल उठ रहे हैं। ऐसे में एक पत्रकार के रूप में मीडिया की क्रेडिबिलिटी को आप किस रूप में देखते हैं ?
ब्रज खंडेलवाल: पहली बात तो यह है कि प्रकृति को बदलाव चाहिए। चीजें अपनी जगह रुकी नहीं रहेंगी। समय और परिस्थिति बदलती रहती हैं। लोगों की पसंद-नापसंद बदलती है, उनका नजरिया बदलता है। हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा। बदलाव हमेशा पॉजीटिव हो, ये भी जरूरी नहीं है। टेक्नोलॉजी के कारण पत्रकारिता में तमाम तरह के तत्व घुस आए हैं, जिनके संस्कार नहीं थे पत्रकारिता के, जिनकी पृष्ठभूमि पत्रकारिता की नहीं थी और जिनकी पढ़ाई-लिखाई पत्रकारिता की नहीं हुई, वे भी इसमें आ गए। जिन्हें सिर्फ कैमरा पकड़ना आता है, वे भी मैदान में कूद गए। ऐसे लोगों के अंदर पत्रकारिता की बुनियादी बातें भी नहीं हैं। पुराने जमाने में होता था कि पत्रकारिता के लिए कम से कम लिखना तो आना चाहिए लेकिन आज के समय में ये जरूरी नहीं है कि आपको लिखना आता है या नहीं। आजकल कई सारे फ्री प्लेटफॉर्म उपलब्ध हैं। बस कैमरा घुमाइए और कोई भी चीज हाईलाइट कर लीजिए। यदि आपका आइडिया हिट हो गया तो आपको पहचान मिलेगी और यदि फेल हो गया तो आप उसे दूसरे तरीके से इस्तेमाल कर सकते हैं। यदि आजकल की और पुराने समय की पत्रकारिता में बुनियादी अंतर की बात करें तो खास बात ये है कि आजकल के लोग रीडिंग नहीं कर रहे हैं। पढ़ाई-लिखाई नहीं कर रहे हैं। हमें याद है कि हम काफी पढ़ते थे। काफी साहित्य और राजनीति विज्ञान पढ़ते थे। तमाम तरह की किताबें पढ़ते थे और फिर पत्रकारिता की भाषा में कहें कि अखबार को चाटते यानी गहराई से पढ़ते ही थे।
क्या आपको लगता है कि आज में समय में कोई ऐसा अखबार बचा है कि जिसे इतनी गहराई से पढ़ा जा सके ?
ब्रज खंडेलवाल : आजकल सभी तरह के अखबार हैं। ऐसा भी नहीं हैं कि सारे अखबार खराब ही हैं। बहुत अच्छे अखबार भी हैं। आजकल के दैनिक अखबारों की बात करें तो ज्यादातर अच्छे ही हैं। प्रजेंटेशन भले ही अलग और आधुनिक हो लेकिन कंटेंट तो ठीक है। संपादकीय पेज भी सभी के बढ़िया ही हैं। भाषा भी अच्छी है। दैनिक 'हिन्दुस्तान' भी काफी अच्छे एडिटोरियल दे रहा है। पिछले दिनों नदियों पर उनके संपादक शशि शेखर ने बहुत अच्छा लिखा था। मुझे नहीं लगता कि अखबारों की इतनी गिरावट हुई है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में फर्क दिखाई दे सकता है क्योंकि वो शायद बाजार से जुड़ा हुआ है। वो टेक्नोलॉजी अलग तरह की है। ये भी कह सकते हैं कि वो मेनस्ट्रीम मीडिया का हिस्सा माना जाए या न भी माना जाए क्योंकि वे सामान्यत: एजेंडा आधारित सिद्धांत पर चलते हैं। सुबह ही एक मुद्दा पकड़ लिया और दिन भर उसे खींचते रहो। अब वो समय आ गया है जब प्रिंट का कैरेक्टर अलग है, इलेक्ट्रॉनिक का अलग है। दोनों में कोई समानता ही नहीं दिखाई दे रही है।
आप वर्तमान के अखबारों की चर्चा कर रहे हैं। लेकिन एक बड़ा इश्यू भी है कि पहले अखबारों के मुखपृष्ठ को काफी महत्वपूर्ण माना जाता था। पहली हेडलाइन भी बहुत खास मानी जाती थी। कहा जाता था कि उसे देखकर अखबार भी बिकता था। लेकिन अब जैकेट का कल्चर आ गया है। इसमें न तो पहला पेज और न ही हेडलाइन का पता चलता है। कई बार तीन पेज के जैकेट विज्ञापन होते हैं और उसके बाद चौथा पेज पहला पेज होता है। इस बारे में आपका क्या कहना है ?
ब्रज खंडेलवाल : ये एक इश्यू तो है लेकिन इस ट्रेंड को सही साबित करने के लिए उनके पास अपने तर्क हैं। उनका तर्क है कि पहले के पत्रकारों को आखिर मिलता ही क्या था। आजकल के पत्रकारों को अच्छे अखबारों में अच्छी सैलरी समेत कई सुविधाएं मिलती हैं। यानी पहले की तुलना में पत्रकारों के लिए चीजें काफी बेहतर हुई हैं। पहले तनख्वाह वगैरह तो कुछ मिलती नहीं थी। ज्यादातर लोग तो पैशन के लिए मुफ्त में काम करते थे। उनका हुलिया देखकर ही लग जाता था कि बिल्कुल फटेहाल हैं। आज का पत्रकार टेक्नोलॉजी में भी काफी आगे है। उसके कपड़े और रहन-सहन भी पहले से बेहतर है। ऐसे में अर्थशास्त्र के हिसाब से उसकी जरूरतें कुछ अलग हो गई हैं। इन्हीं सब को पूरा करने के लिए इस तरह करना पड़ता है।
ऐसे में यह सवाल जरूर उठता है कि ये सब करते-करते पाठकों के साथ तो अन्याय नहीं हो जाता है, जब चौथा पन्ना पहला पेज बन जाता है ?
ब्रज खंडेलवाल : अब इसका कोई कानून तो है नहीं। ये एक परंपरा है। परंपराएं टूट भी सकती हैं, बदल भी सकती हैं और मॉडीफाई भी हो सकती हैं। अभी हमें अटपटा लग रहा है, कुछ दिनों में शायद आदत पड़ जाएगी। दूसरी वजह यह है कि अखबार वालों को भी पता है कि मुखपृष्ठ पर जो छप रहा है, वह पहले से ही बासी यानी पुराना हो चुका है और पाठक उस पर निर्भर नहीं है।

कुल मिलाकर क्या अखबारों से निराश हैं, खासकर उनके कंटेंट से। क्योंकि अमूमन एक धारणा भी लोगों के बीच बनी हुई है कि अखबार में जो कुछ अब छप रहा है, वह टीवी सेट करता है या अखबार अब टीवी को फॉलो करते हैं ?
ब्रज खंडेलवाल : मैं निराश नहीं हूं, बस इस बदलाव को स्वीकार कर रहा हूं। ये तो ट्रेंड है जो बदलते रहते हैं और समय के साथ बदलना ही चाहिए। पुरानी मान्यताएं टूटती या बदलती हैं तो कुछ मिनट झटका लग सकता है लेकिन हमें इन्हें स्वीकार कर आगे बढ़ना होगा। आप कैसे इस बात को नजरअंदाज कर सकते हैं कि आज का पत्रकार कितने पैसे कमा रहा है। हिंदी अखबारों में काम कर रहे पत्रकारों की सैलरी देख लीजिए, पुराने वालों से तुलना कर लीजिए। मेरे ख्याल से इसका तो हमें स्वागत करना चाहिए। पहले एक स्टोरी का क्या मिलता था, महज पांच रुपए। पहले पांच-दस रुपए का मनीऑर्डर आता था, जिस पर हम हंसते थे। मेरा जो विदेशी मीडिया हाउस से पेमेंट आता था वह सामान्यत: 50 पाउंड का होता था, जो हजार-1500 रुपए होते थे एक आर्टिकल के, लोग चौंकते थे कि यार हमारी तो एक महीने की सैलरी के बराबर तेरे एक आर्टिकल से ही कमाई हो गई।
हमारे देश में हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता में अंतर रहा है। इकनॉमिक्स के मामले में अंग्रेजी हमेशा हिंदी से बेहतर मानी गई है। आप भी कह रहे हैं कि अंग्रेजी अच्छे पैसे भी देती थी। क्या आपको लग रहा है कि समय के साथ बदलाव आया है या आज भी अंग्रेजी पत्रकारिता ही देश की पॉलिसी तय करती है और अंग्रेजी में ही पत्रकारिता करने वाले इस देश के बड़े पत्रकार माने जाते हैं ?
ब्रज खंडेलवाल : हां, ये एक कड़वी सच्चाई है कि हम दोहरी मानसिकता से जूझ रहे हैं। हम हिंदी के गुणगान गाते हैं लेकिन इंडस्ट्री की भाषा और कॉमर्स की भाषा, जहां से पैसा आता है, वह अंग्रेजी ही है। आईटी के आने के बाद तो अंग्रेजी और तेजी से बढ़ी है। हालांकि अब ट्रांसलेशन वगैरह मौजूद हैं, लेकिन मानसिकता तो अंग्रेजी की ही बनी हुई है। एक इंडिया है और एक भारत है। इसमें पत्रकारिता ही क्या करे, यह तो पूरे समाज की समस्या है। आजकल कौन अपने बच्चों को हिंदी स्कूल में पढ़ाना चाहता है। हिंदी के पत्रकार हों अथवा संपादक, उनके बच्चे भी अंग्रेजी स्कूलों के ही पढ़े हुए हैं और पढ़ते भी हैं।
इंडस्ट्री इस देश में सबसे ज्यादा पैसा देती है, टैक्स देती है। बॉलिवुड इंडस्ट्री पूरी हिंदी में चलती है लेकिन जब स्क्रिप्ट पढ़ते हैं तो अंग्रेजी में पढ़ते हैं। टीवी इंडस्ट्री भी पूरी हिंदी बेस है लेकिन इंटरव्यू वगैरह सब अंग्रेजी में देते हैं। इस बारे में आपका क्या कहना है ?
ब्रज खंडेलवाल : हमारे लिए तो न अंग्रेजी विदेशी भाषा है और न हिंदी। हमारे लिए दोनों भाषाएं बराबर हैं। हिंदी ही कौन सी ज्यादा पुरानी भाषा है। आज के समय में दोनों भाषाओं का ज्ञान होना बहुत जरूरी है और हर पढ़े-लिखे व्यक्ति को द्विभाषी होना ही चाहिए। जितनी ज्यादा भाषाएं सीखेंगे, उतना अच्छा है। कभी लगता है कि हमें तमिल आदि भाषाएं भी सीख लेनी चाहिए थीं। हालांकि इसकी जरूरत नहीं है लेकिन मुझे लगता है कि यदि सीख जाते तो अच्छा लगता।

आप वर्तमान में एक पत्रकार भी हैं, आंदोलनकारी भी हैं, समाजशास्त्री भी हैं और पर्यावरणविद् भी हैं। राजनीति में भी आपका दखल रहता है। ऐसे में एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि जब एक पत्रकार ये सब बन जाता है तो वह निष्पक्ष नहीं रह पाता है ?
ब्रज खंडेलवाल : निष्पक्षता की बात तो यह है कि जिसके लिए हम काम करते हैं वह अपनी शर्तें रखता है। जो हमें सैलरी देता है वह हमारी स्वतंत्रता की सीमाएं तय करता है। हमें कितनी आजादी मिलेगी, हमारी कलम को कितनी आजादी मिलेगी, यह वो तय करेगा जो पैसा देता है। हमारा इसमें व्यक्तिगत कुछ नहीं होता है क्योंकि न तो हम कॉलम लिखते हैं और न ही एडिटोरियल लिखते हैं। हम तो सिर्फ रिपोर्टर हैं। जीरो ग्राउंड से रिपोर्ट करते हैं और जो आंखों देखा हाल है, वह लिखते हैं। लेकिन यह आपके ऊपर है कि आप किस चीज को हाईलाइट करते हैं। ये भी हो सकता है कि आप रीडर्स के हिसाब से काम करें, क्योंकि हिंदी के रीडर्स अलग हैं और अंग्रेजी के अलग, तो उस हिसाब से भी स्टोरी हो जाती है।
जब कोई पत्रकार पत्रकारिता के साथ अन्य तमाम चीजें करता है तो कहीं न कहीं उसकी विचारधारा उस तरह की हो जाती है। फिर चाहे वह राजनीति में ही क्यों न हो, कहीं न कहीं उसका प्रभाव पत्रकार की खबरों पर दिखता है। क्या एक पत्रकार को ये सब करना चाहिए या सिर्फ पत्रकारिता करनी चाहिए ?
ब्रज खंडेलवाल : यह तो पत्रकार की पसंद की बात है और परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। जिस तरह से एक पत्रकार को निचोड़कर रख दिया जाता है, उसके बाद न तो उसमें शक्ति बचती है और न इतना दिमाग बचता है कि वह कुछ और कर पाए। वो अपने घर का ही ख्याल रख ले, यही बहुत है। पहली बात तो यह है कि हम इस मामले में इसलिए भाग्यशाली हैं कि हमारे पास समय ज्यादा है। दूसरी बात ये है कि हम शुरू से ही अन्य गतिविधियों में भी शामिल रहे हैं। जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा था कि मेरे एजेंडे में पत्रकारिता एक हथियार है अपने विचारों को फैलाने का। मेरे आदर्श, मेरे सपने आदि जो भी हैं, उनको प्रचारित करने के लिए यह मेरा एक हथियार है। तो मैं इस तरह की बातों का बचाव नहीं करता और पत्रकारिता में अपनी बात कहने का मुझे जो भी अवसर मिलेगा, फिर चाहे वह यमुना का मामला हो, पर्यावरण का हो अथवा अत्याचार का हो, मैं पत्रकारिता का पूरा इस्तेमाल करता हूं। यानी जब भी इंसानियत के खिलाफ कुछ गलत होगा, मैं उसे नमक-मिर्च लगाकर पूरा बवाल खड़ा करूंगा। यानी यूं कह सकते हैं कि पूरा मसाला बनाकर पेश करूंगा। मुझे इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता है, क्योंकि मैं एक पेशेवर पत्रकार नहीं हूं, इसलिए मुझे इन चीजों से कोई फर्क नहीं पड़ता है। यह मेरा पैशन है और इसके लिए कई विकल्पों का त्याग भी किया है कि मुझे गलत काम नहीं करना है या इस पर स्टोरी नहीं करनी है। मुझे कोई आदेशित नहीं कर पाया कि इसे हाईलाइट करना है, जबकि बाकियों के साथ ऐसा नहीं है। इस बात से मुझे नुकसान भी हुआ और मैंने झेल लिया। ऐसी परिस्थितियों में मैं चुपचाप रहा और बीच का रास्ता निकाल लिया लेकिन अपने मन के विपरीत जाकर नहीं किया। ऐसा एक बार नहीं बल्कि कई बार होता है।
देश के कई बड़े संपादकों और पत्रकारों का कहना है कि सोशल मीडिया ही ऐसा मीडिया है जिसका प्रिंट और टेलिविजन मीडिया पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ता है। कहा जाता है कि यह उसी तरह से है जिस तरह से बंदर के हाथ में उस्तरा है, जिसकी कोई क्रेडिबिलिटी नहीं है। ऐसे में यह स्थापित मीडिया संस्थानों के लिए कोई चुनौती भी नहीं हैं। लेकिन आप एक ऐसे पत्रकार हैं जो लगातार सोशल मीडिया पर एक्टिव रहते हैं। कहा जाता है कि सोशल मीडिया पर हर आदमी संपादक और पत्रकार है। ऐसे में सोशल मीडिया और इसकी क्रेडिबिलिटी के बारे में आपका क्या कहना है ?
ब्रज खंडेलवाल : मैंने अपने विचारों के लिए सोशल मीडिया का भरपूर इस्तेमाल किया है। आजकल तो प्रत्येक मीडिया की क्रेडिबिलिटी सवालों के घेरे में है। सोशल मीडिया के आने से बहुत सी चीजें बदली हैं। पहले नियंत्रण मालिकों के हाथ में रहता था। वनवे ट्रैफिक रहता था। एक एडिटर ने जो परोस दिया वह आपको स्वीकार करना है। रीडर को न कोई सुविधा थी और न अधिकार कि वह उस पर प्रतिक्रिया दे लेकिन अब सब एक ही मैदान में है। सामने से कुछ आता है तो हम भी अपनी तरह से शुरू हो जाते हैं, यानी चीजें बराबर कर देते हैं। किसी ने गलत खबर लिख दी है तो उसे बैलेंस करने का यह अच्छा तरीका है। सोशल मीडिया पर स्टोरी भी ब्रेक हो रही हैं। अब सारा नियंत्रण पाठकों के हाथों में है। ऐसे में जो एकाधिकार बना हुआ था और मठाधीशी थी, वह खत्म हो रही है, जो मेरी नजर में अच्छी बात है यह जरूरी भी था।
वामपंथी होने के बावजूद आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ भी करते हैं?
ब्रज खंडेलवाल : ऐसा नहीं हैं। मै मोदी की तारीफ नहीं बल्कि नीतियों की तारीफ करता हूं और देशहित में नीतियों की तारीफ करनी भी चाहिए। कभी-कभी इन नीतियों का लाभ किसी व्यक्ति को भी मिल जाता है, इसलिए मोदी को इनका लाभ मिलता है। जहां पर जरूरी है तो मैं मोदी की खिंचाई भी करता हूं।
सुना है एक बार आप चुनाव भी लड़े हैं?
ब्रज खंडेलवाल : यह सही बात है। वर्ष 1993 में मैंने विधानसभा चुनाव भी लड़ा था। हालंकि मैं उसमें हार गया था, मुझे सिर्फ तीन-चार सौ वोट मिले थे।
क्या आपको लग रहा था कि यदि आप चुनाव जीत जाते हैं तो राजनेता हो जाएंगे?
ब्रज खंडेलवाल : ऐसी बात नहीं है। दरअसल मुझे एक प्रोजेक्ट करना था भारतीय निर्वाचन प्रणाली के बारे में। मैंने सोचा कि जगह-जगह जाकर पूछूं कि क्या होता है और कैसे होता है, इससे अच्छा तो यह है कि खुद ही चुनाव लड़ लो। पूरी प्रक्रिया को समझने के लिए कि कागजात कैसे तैयार होते हैं और जमा होते हैं। कैसे शपथ ली जाती है आदि के बारे में जानने के लिए ही मैंने चुनाव लड़ा और काफी अच्छी समझ हो गई।
आपने काफी सहजता से स्वीकार किया है कि आप वामपंथी हैं लेकिन आप देख रहे हैं कि देश में वामपंथ खत्म होता जा रहा है। ऐसे में आपको क्या लगता है कि ऐसा क्यों होता जा रहा है?
ब्रज खंडेलवाल : लेफ्ट यानी वामपंथ काफी व्यापक है। लोगों के दिमाग में सिर्फ कम्युनिस्टों के बारे में सोच है। पार्टी अथवा संगठन भले ही खत्म हो जाएं लेकिन विचारधारा के स्तर पर वैचारिक स्वतंत्रता और समानता की जो मूल भावना है, वह बुनियादी है। यानी कोई बड़ा-छोटा नहीं है, कोई अमीर-गरीब नहीं है और सब बराबर हैं। ये सब मुद्दे खत्म होने वाले नहीं हैं।
आप जिन मुद्दों की बात कर रहे हैं, वे तो दक्षिणपंथी भी उठाते हैं?
ब्रज खंडेलवाल : मेरी नजर में दक्षिणपंथी (राइट) का मतलब पूंजीवादी प्रक्रिया है। वे बोलते क्या हैं, ये सब छोड़ो। वे लोग यथास्थितिवादी के पुजारी हैं। वे बदलाव के विरोधी हैं और किसी तरह का बदलाव नहीं चाहते हैं। वे तो जातिवाद के भी हिमायती हैं, भले ही वे कुछ भी बोल लें। उनमें सामंतवाद विचारधारा भी है, भेदभाव भी है और छुआछूत भी है। लेकिन हम इन सबके खिलाफ हैं। शायद यही कारण रहा कि मैंने अपनी जाति बिरादरी में शादी भी नहीं की। वामपंथ से प्रभावित होने के कारण हमने समाज में फैली कई रुढि़वादियों का विरोध किया।
प्रिंट मीडिया की बात करें तो कई वर्षों से सिर्फ आठ या दस बड़े अखबार ही हैं और वे ही चलते हैं। अब हर एक-दो साल में अखबार शुरू होते हैं और थोड़े समय बाद ही बंद हो जाते हैं। ऐसे में आपको क्या लगता है कि देश में यही गिने चुने आठ-दस अखबार ही हैं और बाकियों के लिए कोई स्कोप नहीं?
ब्रज खंडेलवाल : सिर्फ अपने देश की बात ही नहीं है, यह तो पश्चिमी देशों में भी हुआ है। तमाम पत्रिकाएं बंद हो गईं और अखबारों का सर्कुलेशन कम हो गया। अखबारों का सर्कुलेशन कम हो जाए या बंद हो जाए, यह कोई चिंता की बात नहीं है।
कहने का मतलब यह है कि हमारे यहां प्रतिष्ठित अखबार बंद नहीं होते बल्कि जो नया वेंचर आता है, वह थोड़े समय में बंद हो जाता है। पिछले दस साल की बात करें तो शहर में आठ-दस नए वेंचर शुरू हुए लेकिन सब बंद हो गए। इसके बारे में आपका क्या सोचते हैं ?
ब्रज खंडेलवाल : यह तो एक प्रक्रिया है कि अखबार खुलते हैं और बंद होते हैं। पांच-छह अखबारों से ज्यादा की जरूरत ही क्या है।
ऐसे में सवाल उठता है कि जब पांच-छह अखबारों से ज्यादा की जरूरत नहीं है तो आजकल प्रदेश में 400 से ज्यादा जर्नलिज्म इंस्टीट्यूट खुल गए हैं, जिनसे पढ़कर हजारों छात्र-छात्राएं बाहर निकलते हैं तो फिर वे कहां जाएंगे और उन्हें कहां नौकरी मिलेगी?
ब्रज खंडेलवाल : बाकी मीडिया को आप क्यों भूल जाते हैं, जो काफी आगे बढ़ रहा है। आजकल तमाम चैनल भी तो हैं।
लेकिन इतने चैनल भी कहां हैं। दस साल पहले मुख्य तौर पर जो चैनल थे, वही आठ-दस चैनल आज भी सही चल रहे हैं जबकि बाकी खुलते हैं और कुछ समय बाद ही बंद हो जाते हैं। बाकी जो चल भी रहे हैं, उनकी आर्थिक स्थिति भी बेहतर नहीं है। वहां पता ही नहीं रहता है कि सैलरी मिलेगी भी अथवा नहीं। जबकि आईटी और मैनेजमेंट के साथ ऐसा नहीं हैं। इनकी हजारों कंपनियां हैं, जिनमें पता है कि नए छात्र-छात्राएं पढ़ाई पूरी कर खप जाएंगे। आप तो मीडिया को काफी समय से देख रहे हैं। इस दौरान मीडिया उस तेजी से आगे नहीं बढ़ा है, जितना बढ़ना चाहिए था?
ब्रज खंडेलवाल : ऐसी बात नहीं है। इतने वर्षों में मीडिया काफी बढ़ा है। कई नए प्लेटफॉर्म्स आ गए हैं। सूचना का प्रवाह भी काफी बढ़ा है। आजकल स्मार्टफोन के रूप में मीडिया में एक बड़ा हथियार आ गया है। न्यूज का इस्तेमाल ओर उसका प्रवाह काफी तेजी से बढ़ा है। रही बात छात्रों की संख्या और रोजगार के अवसरों की तो इसमें पढ़ाई-लिखाई करना काफी आसान है। आप साधारण तरीके से एक डिप्लोमा या डिग्री पूरी कर लेते हैं और अखबार में लग जाते हैं जबकि अन्य कोर्सों जैसे वकालत की ही बात करें तो वहां कितनी ज्यादा पढ़ाई करनी होती है। डॉक्टर की ही बात करें तो पढ़ाई के साथ इंटर्नशिप में भी कितनी कड़ी मेहनत लगती है लेकिन अखबारों में तो इस तरह का कुछ होता नहीं है। करेसपॉडेंस कोर्स करके भी आप इसमें आ सकते हैं। इसमें सबसे ज्यादा मुश्किल पढ़ाई लिखाई यानी सेल्फ स्टडी बहुत मायने रखती है, जो आजकल अधिकार छात्र-छात्राएं करते नहीं हैं। जो इस प्रफेशन के प्रति बहुत ज्यादा गंभीर होते हैं, वे वास्तव में पढ़ाई-लिखाई बहुत करते हैं। उनका सामान्य ज्ञान भी बहुत बेहतर होता है। इन लोगों की भाषा भी काफी अच्छी होती है। हालांकि ऐसे लोग चुनिंदा होते हैं और देर-सवेर वे कहीं न कहीं नौकरी पा ही जाते हैं। बाकी जो भीड़ बचती है, वह कैमरा लेकर घूम रही है। आजकल तो काफी यूट्यूब चैनल खुल गए हैं। पहले जिस तरह गली-मोहल्लों में कुकरमुत्तों की तरह अखबार खुले होते थे, आज उनकी जगह यूट्यूब चैनल खुल गए हैं। ऐसे कई लोग खुद को पत्रकार कहते तो हैं, लेकिन इनमें पत्रकारिता के कितने गुण हैं, यह देखने की बात है।
आजकल डिजिटल मीडिया का दौर है और इस नई सरकार में डिजिटल मीडिया पर काफी कुछ हुआ है लेकिन हम डिजिटल मीडिया के रेगुलेशन की बात करें तो कई नई वेबसाइट खुलीं लेकिन तमाम बंद हो रहीं हैं क्योंकि इसमें रेवेन्यू का कोई मॉडल तय नहीं है। आज भी उस हिसाब से पैसा नहीं आ रहा है, जिस हिसाब से आना चाहिए। 'एनडीटीवी' को छोड़ दें तो कोई भी बड़ा ऑर्गनाइजेशन डिजिटल से उतना रेवेन्यू नहीं जुटा पाता है, जितना जुटना चाहिए। हालांकि एनडीटीवी का प्रॉफिट टीवी के मुकाबले डिजिटल से ज्यादा रहता है क्योंकि उसका टीवी नुकसान में रहता है। ऐसे में आपको क्या दिखता है यह बुलबुला टाइप है जो एक दिन फूट जाएगा। क्योंकि अभी इसमें सिर्फ इंवेस्टर है, जबकि इसमें आ क्या रहा है यह अभी तय नहीं है। आखिर इंडस्ट्री में रेवेन्यू मॉडल तो होना ही चाहिए। इस बारे में आपका क्या कहना है ?
ब्रज खंडेलवाल : यदि बुलबुले फूट जाएंगे तो फूट जाएं, इसमें आखिर मुश्किल क्या है। दरअसल, टेक्नोलॉजी इतनी तेजी से बढ़ रही है कि इस बारे में बहुत ज्यादा अनुमान लगाना मुश्किल है कि कल क्या होगा।
कहने का मतलब है कि आपने प्रिंट, टीवी और रेडियो इंडस्ट्री देखी है। वहां एक रेवेन्यू मॉडल है। वहां पैसे का टर्नओवर होता है और पैसा आता भी है। आपका इस बारे में क्या कहना है कि क्या डिजिटल ऐसा हो पाएगा ?
ब्रज खंडेलवाल : मुझे इसकी ज्यादा जानकारी नहीं है। मैं सिर्फ इतना कहूंगा कि इंफॉर्मेशन के लिए जबरदस्त भूख है और इसे तैयार करने की ग्रोथ हजारों गुना हुई है। जब इंफॉर्मेशन तैयार हो रही है तो उसके लिए नेटवर्क भी होगा और सप्लायर्स भी होंगे यानी सब चीजें होंगी। पत्रकारिता के लिए यह महत्वपूर्ण है कि लोगों में जानने की इच्छा है या नहीं है। वो इंफॉर्मेशन चाहते हैं अथवा नहीं। अब कौन आएगा, कौन जाएगा और कितना कमाएगा, यह सब बहुत कारणों पर निर्भर करता है।
बतौर शिक्षक आप 'केएमआई' में पढ़ाते थे, अब केंद्रीय हिंदी संस्थान में पढ़ाते हैं। ऐसे में एक शिक्षक के तौर पर आप पत्रकारिता के उन नए छात्रों के बारे में क्या देखते हैं कि वे क्यों आ रहे हैं, किस पृष्ठभूमि से आ रहे हैं। हमें लगता है कि इसमें तमाम लोग वे भी आ जाते हैं जिन्हें पत्रकार नहीं भी बनना होता है, बस उन्हें डिग्री चाहिए होती है। दूसरा सवाल ये है कि जब वे पढ़ाई पूरी कर जाते हैं तो उनकी नियुक्ति किस प्रकार होती है। इसमें कितना प्रतिशत होता है और तीसरा ये कि जब आपके पुराने शिष्य आपको मिलते हैं तो आप कैसा महसूस करते हैं ?
ब्रज खंडेलवाल : पहली बात तो यह है कि हम जो डिप्लोमा आदि करा रहे हैं, उसका सीमित उद्देश्य नहीं है कि वह सिर्फ मीडिया में जाएं। वे अच्छे इंसान बनें, उनके कम्युनिकेशन स्किल्स अच्छे हों। आजकल बहुत सारे लोग आ रहे हैं, जो पहले से ही कहीं काम कर रहे हैं। ऐसे लोग सिर्फ अपने कम्युनिकेशन में धार देने के लिए जर्नलिज्म का डिप्लोमा कर रहे हैं। पब्लिक रिलेशन में उनके लिए काफी संभावनाएं हैं और वे लोग हो भी रहे हैं। बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं जो कंप्टीशन की तैयारी में लगे हुए हैं। उन्होंने बताया है कि यह डिप्लोमा करने के बाद उनकी लेखन शैली बहुत अच्छी हुई है। इंटरव्यू का सामना करने में भी आसानी हुई है। तो इसे सिर्फ मीडिया में रोजगार से ही जोड़कर नहीं देख सकते हैं। ऐसा ही एक वाक्या मुझे याद है कि जब मैंने अपनी एक छात्रा से पूछा कि तुम्हारी तो शादी हो जाएगी तुम इस डिप्लोमा का क्या करोगी तो उसका खुलकर कहना था कि हम तो इसे फ्रेम करके लगाएंगे, सास इससे ही बहुत डर जाएगी। एक और लड़की का कहना है कि हमारे ससुराल वाले तो बहुत डरे रहते हैं कि उनकी बहू पत्रकार बनकर आ रही है, पता नहीं क्या करेगी। यह पुराने जमाने में होता था जब मैं केएमआई में था कि हर किसी को मीडिया में ही जाना है लेकिन अब यह फोकस बिल्कुल बदल गया है। केंद्रीय हिंदी संस्थान का तो बिल्कुल ही बदला हुआ है। वहां कई सारे शिक्षक हैं, शिक्षामित्र हैं और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले भी हैं। हर तरह के छात्र-छात्राएं हैं। कई तो शुरू में ही बता देते हैं कि हमें मीडिया में नहीं जाना है। सिर्फ दो-चार ही होते हैं जो कैमरा लेकर इधर-उधर घूमने के लिए तैयार हैं। नौकरी न लगे तो कुछ दिन करने के बाद वे भी खिसक जाते हैं। कहने का मतलब है कि यह अब सामान्य तौर पर वैल्यू एडिशन वाला कोर्स बन चुका है। किसी और कोर्स जैसे एमबीए आदि के साथ यह कोर्स कर लिया तो आपको आगे तरक्की में काफी संभावनाएं हो जाती हैं।
आजकल एक नया कॉन्सेप्ट ईवेंट जर्नलिज्म का चल रहा है। इसमें तमाम पत्रकार पब्लिक रिलेशन कर रहे हैं। ईवेंट कर रहे हैं। उस पर तीखे कमेंट भी होते हैं। आपको क्या लगता है कि ईवेंट जर्नलिज्म ठीक नहीं है या पत्रकार अगर नौकरी छोड़कर पीआर बन रहा है तो आपको क्या आपत्ति है। क्या आपका मानना है कि ईवेंट जर्नलिज्म की वजह से जर्नलिज्म को खास नुकसान नहीं हो रहा है ?
ब्रज खंडेलवाल : यह तो उसकी स्वतंत्रता है कि वह जो मन में आए, करे। ईवेंट्स अब मीडिया का हिस्सा बन चुके हैं। ऐसे में यदि वह नहीं करेगा तो कोई और करेगा। यह पीआर, प्रमोशन और बिजनेस स्ट्रेटजी का हिस्सा है। इसमें मुझे कोई बुराई नजर नहीं आती है। अगर यह सार्वजनिक रूप से हो रहा है तो कोई दिक्कत नहीं है। यह पारदर्शी होना चाहिए, इसमें कुछ छिपा नहीं होना चाहिए। सभी लोग कोई भी काम करने के लिए स्वतंत्र हैं।
इसमें एक समस्या यह होती है कि तमाम ईवेंट्स में जो मंचासीन लोग होते हैं, इनमें से कर्इ लोग ऐसे होते हैं जो कहीं पर भी मंच पर बैठने लायक नहीं होते हैं। इस बारे में आपका क्या कहना है?
ब्रज खंडेलवाल : यह मीडिया का प्रॉब्लम नहीं है, यह तो समाज का प्रॉब्लम है। समाज में घटिया लोग भी होते हैं।
हमारा मानना है कि मीडिया बहुत स्ट्रॉंग है, वह इन सब चीजों को चेक करेगा। मीडिया छापता भी है और मीडिया के लोग पीआर बनकर वह ईवेंट भी करते हैं। इस बारे में कुछ बताएं?
ब्रज खंडेलवाल : चूंकि इस तरह के लोग फाइनेंस करते हैं तो एक तरह से वह उस मीडिया में स्पेस खरीद लेते हैं। आखिर पीआर क्या होता है, अनपेड पब्लिसिटी। आमतौर पर होता यही है कि यदि सीधे विज्ञापन के पैसे नहीं दे रहे हो तो घुमाकर दे दो इस तरह प्रेस कॉन्फ्रेंस करके।
पिछले दो दशक से आप पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ा रहे हैं। क्या आपके छात्र किसी जगह पर पहुंचे हैं या आगरा से बाहर सेट हो गए हैं। आज जब आपको अपने पुराने छात्र मिलते हैं तो आपको कैसा लगता है कि आपने शिक्षक के तौर पर जो यह शुरुआत की है, उसमें भी आपने कामयाबी पाई है?
ब्रज खंडेलवाल : मुझे ऐसे बहुत सारे लोग मिलते रहते हैं। इनमें जो पत्रकार बन गए, वे अच्छा कर रहे हैं। जो पत्रकार नहीं बन पाए, वे जिस फील्ड में भी हैं अच्छा कर रहे हैं। इनमें से कई डॉक्टर्स भी हैं, जिन्होंने पत्रकारिता भी की है और अब अच्छे डॉक्टर के रूप में काम कर रहे हैं। इनमें एक पुलकित है, दूसरा राजकुमार है। ये दोनों नाम तो मुझे याद हैं। एक लेखपाल बन गया है जौनपुर में कहीं पर। कहने का मतलब है कि हम सिर्फ मीडिया टेक्निक ही नहीं सिखाते हैं, बल्कि छात्र के सर्वांगीण विकास पर ध्यान देते हैं।
सुना है कि आपके एक पुराने स्टूडेंट पत्रकारिता के बाद रेलवे में चले गए लेकिन सरकारी नौकरी छोड़कर फिर वे पत्रकारिता में आ गए। जबकि आजकल ज्यादातर पत्रकार पीआरओ बनना चाहते हैं। इस बारे में आपका क्या कहना है?
ब्रज खंडेलवाल : यह बात सही है। दरअसल, उसे लगा कि रेलवे की नौकरी में उसे वह संतुष्टि नहीं मिलेगी। हालांकि मैंने उसे समझाया भी था कि यहां तनाव और अनिश्चितता रहेगी लेकिन उसका कहना था कि मैं ये सब झेल लूंगा। इसके बाद फिर मैंने कहा कि यदि तुम यही चाहते हो तो ठीक है, आ जाओ।