बिजनेस जर्नलिज्म में करियर बनाना है, तो सीखें नंबरों की भाषा व संदर्भ: ए.के. भट्टाचार्य

वरिष्ठ पत्रकार व बिजनेस स्टैंडर्ड के एडिटोरियल डायरेक्टर ए.के. भट्टाचार्य से संपादक पंकज शर्मा ने उनके अनुभवों, बिजनेस पत्रकारिता में आ रहे परिवर्तनों, चुनौतियों पर विस्तार से चर्चा की।

Last Modified:
Tuesday, 29 April, 2025
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वरिष्ठ पत्रकार व बिजनेस स्टैंडर्ड के एडिटोरियल डायरेक्टर ए.के. भट्टाचार्य ने चार दशकों से अधिक के अपने पत्रकारिता अनुभव में भारतीय मीडिया, खासकर बिजनेस जर्नलिज्म में आए बड़े बदलावों को करीब से देखा और जिया है। समाचार4मीडिया के संपादक पंकज शर्मा ने उनके अनुभवों, बिजनेस पत्रकारिता में आ रहे परिवर्तनों, चुनौतियों और नए पत्रकारों के लिए जरूरी कौशल पर विस्तार से चर्चा की। यहां पढ़िए बातचीत के प्रमुख अंश

सबसे पहले आप अपने शुरुआती सफर के बारे में बताइए। पत्रकारिता में आने से पहले किन अनुभवों से आप गुजरे?

शुरुआत में मैंने एक साल अध्यापन का काम किया। उस समय 1977 के दशक में नौकरियों के विकल्प सीमित थे – या तो सिविल सर्विस, टीचिंग या फिर पत्रकारिता। चूंकि मेरी रुचि अध्यापन में ज्यादा नहीं थी, इसलिए मैंने इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप में पत्रकारिता शुरू की। फिर फाइनेंशियल एक्सप्रेस, इकोनॉमिक टाइम्स और पायनियर जैसे संस्थानों में काम किया और अब बिजनेस स्टैंडर्ड में हूं। इतने वर्षों में पत्रकारिता का आकर्षण कभी कम नहीं हुआ।

बिजनेस जर्नलिज्म में आपने इतने सालों में क्या बड़े बदलाव देखे हैं?

जब मैंने करियर शुरू किया था, बिजनेस पत्रकारों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था। उनके लिए छोटे कॉलम होते थे। लेकिन उदारीकरण के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था खुली और बिजनेस जर्नलिज्म का दायरा तेजी से बढ़ा। अब स्टॉक मार्केट, कॉरपोरेट्स और पॉलिसी कवरेज का महत्व बहुत बढ़ चुका है। साथ ही, आज के बिजनेस जर्नलिस्ट को ज्यादा टेक्निकल स्किल्स और गहरी समझ की जरूरत है।

आज कंटेंट की भरमार है। ऐसे में हाई-क्वालिटी और विश्वसनीय बिजनेस कंटेंट तैयार करने की क्या चुनौतियां हैं?

आज सबसे बड़ी चुनौती है कि पाठकों को साधारण खबरों से अलग कुछ ऐसा दिया जाए जो उनकी समझ को बेहतर बनाए। कंटेंट तो हर जगह उपलब्ध है, फर्क हमारी एनालिटिकल क्षमता से पड़ता है। एक बिजनेस जर्नलिस्ट को डाटा को समझना और उसे संदर्भ के साथ सरल भाषा में पेश करना आना चाहिए।

ऑटोमेशन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के आने से बिजनेस पत्रकारिता में क्या बदलाव आ रहे हैं?

मैं इसे चुनौती नहीं बल्कि अवसर मानता हूं। जैसे टाइपराइटर से कंप्यूटर आने पर मेंटल डिसिप्लिन बदली थी, वैसे ही एआई से एडिटिंग और बेसिक काम आसान होंगे। इसका सही इस्तेमाल कर हम और भी गुणवत्तापूर्ण एडिटिंग और एनालिसिस कर सकते हैं। हालांकि, चेक्स एंड बैलेंस बहुत जरूरी रहेंगे।

आप लंबे समय से "Raisina Hill" कॉलम लिख रहे हैं। इसके बारे में कुछ बताइए।

"Raisina Hill" कॉलम का मकसद सरकारी नीतियों और आर्थिक फैसलों का विश्लेषण करना है। इसकी शुरुआत मैंने करीब 1990 में की थी। तब से हर पखवाड़े मैं सरकार के निर्णयों और उनके असर पर लिखता हूं। इसका उद्देश्य नीतिगत फैसलों के पीछे के आर्थिक तर्क और उनके समाज पर प्रभाव को समझाना है। 

आपने 'The Rise of the Goliath' और 'India’s Finance Ministers' जैसी किताबें लिखी हैं। इनके पीछे क्या प्रेरणा रही?

'The Rise of the Goliath' में मैंने 1947 से लेकर 2016 तक भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था पर बड़े-बड़े डिसरप्शन (जैसे डिमोनेटाइजेशन, टेलीकॉम रेवोल्यूशन) का असर दिखाने की कोशिश की है। वहीं 'India’s Finance Ministers' श्रृंखला में वित्त मंत्रियों के नजरिए से भारतीय आर्थिक नीतियों के विकास का अध्ययन किया है। तीसरा वॉल्यूम जल्द आने वाला है।

2025 में मीडिया के लिए सबसे बड़ी चुनौती और अवसर क्या हैं?

सबसे बड़ी चुनौती है तेजी से बदलती टेक्नोलॉजी और दर्शकों के पास बढ़ते विकल्पों के बीच अपनी विश्वसनीयता और गुणवत्ता को बनाए रखना। पत्रकारों को अब सिर्फ खबर देना नहीं बल्कि पाठकों की समझ को भी समृद्ध करना होगा।

बिजनेस जर्नलिज्म में करियर बनाना चाहने वाले युवाओं को किन स्किल्स पर फोकस करना चाहिए?

सबसे पहले करंट अफेयर्स पर मजबूत पकड़ होनी चाहिए। इसके साथ ही, नंबरों से डरना नहीं चाहिए बल्कि उन्हें संदर्भ के साथ पेश करना आना चाहिए। आंकड़ों को समझना, उनका विश्लेषण करना और सरल भाषा में सही संदर्भ में पेश करना एक सफल बिजनेस पत्रकार बनने की कुंजी है।

जैसा कि ए.के. भट्टाचार्य जी ने बताया, बिजनेस जर्नलिज्म आज चुनौतियों और अवसरों का संगम है। नई तकनीकों को अपनाते हुए नंबरों की गहरी समझ और संदर्भात्मक विश्लेषण ही इस क्षेत्र में सफलता दिला सकता है।

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डिजिटल दौर में बने रहने के लिए खुद को बदलना जरूरी: अनुज सिंघल, CNBC-Awaaz

अनुज सिंघल, जो CNBC-आवाज और CNBC-बाजार के मैनेजिंग एडिटर हैं, पिछले बीस साल से भारत में फाइनेंशियल जर्नलिज्म की जटिल दुनिया को समझते और समझाते आ रहे हैं।

Last Modified:
Wednesday, 30 April, 2025
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रुहैल अमीन, सीनियर स्पेशल कॉरेस्पोंडेंट, एक्सचेंज4मीडिया ग्रुप ।।

अनुज सिंघल, जो CNBC-आवाज और CNBC-बाजार के मैनेजिंग एडिटर हैं, पिछले बीस साल से भारत में फाइनेंशियल जर्नलिज्म की जटिल दुनिया को समझते और समझाते आ रहे हैं। "e4m Headline Makers" सीरीज में एक बेबाक बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि आज की तेज रफ्तार मीडिया में सटीकता और स्पीड के बीच संतुलन कैसे बनाए रखते हैं, अलग-अलग दर्शकों के लिए वित्तीय बाजारों को कैसे सरलता से समझाते हैं और डिजिटल मीडिया के बढ़ते प्रभाव को किस तरह देखते हैं। उनकी बातचीत इस बात पर गहराई से सोचने का मौका देती है कि पुरानी मीडिया संस्थाएं डिजिटल दौर में कैसे अपनी अहमियत बनाए रख सकती हैं।

पढ़िए, बातचीत के मुख्य अंश:

फाइनेंशियल जर्नलिज्म में सटीकता और तुरंत विश्लेषण- दोनों की जरूरत होती है। आज की तेज रफ्तार खबरों की दुनिया में आप इस संतुलन को कैसे बनाए रखते हैं?

यही हमारी सबसे बड़ी चुनौती है। जब मैंने 2003 में शुरुआत की थी, तब सिर्फ एक बिजनेस चैनल था और खबर दिखाने से पहले उसे अच्छे से जांचने का समय होता था। अब बहुत सारे बिजनेस और डिजिटल चैनल एक-दूसरे से पहले खबर देने की दौड़ में हैं, तो रफ्तार बेहद जरूरी हो गई है। फिर भी हमारे लिए सबसे अहम चीज है–सटीकता। हम हमेशा भरोसेमंद स्रोतों से मिली पुष्टि की गई खबर को ही प्राथमिकता देते हैं, खासकर एक्सचेंज से जुड़ी खबरों को, जिन्हें हम तुरंत और सही तरीके से दिखाने की कोशिश करते हैं। लेकिन यदि खबर WhatsApp या Twitter जैसे अनौपचारिक चैनलों से आती है, तो हम बहुत सतर्क रहते हैं–पहले पुष्टि करते हैं, चाहे हमें खबर दिखाने में देर ही क्यों न हो जाए।

CNBC Awaaz मुख्य रूप से हिंदी बोलने वाले रिटेल निवेशकों और व्यापारियों के लिए है। आप जटिल फाइनेंशियल कॉन्सेप्ट को कैसे आसान बनाते हैं, बिना उसकी गहराई खोए?

हमारा एक सीधा-सा सिद्धांत है- क्या हमारी मां यह समझ पाएंगी? यदि कोई चीज हमें खुद जटिल लगे, तो हम उसे दोबारा सोचते हैं। हम जानबूझकर तकनीकी शब्दों को सरल करते हैं और यह नहीं मानते कि दर्शक सब कुछ पहले से जानते हैं। जैसे CASA (करंट और सेविंग्स अकाउंट) जैसा शब्द भी हर कोई नहीं समझता, तो हम पूरी तरह से स्पष्टता रखते हैं। हमारा मकसद है हर किसी तक पहुंचना- न सिर्फ अनुभवी निवेशक, बल्कि नए लोग, महिला निवेशक और वो युवा जो अभी मार्केट में आ रहे हैं।

जब YouTube और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर का असर बढ़ रहा है, तब पुराने फाइनेंशियल न्यूज चैनल अपनी विश्वसनीयता और प्रासंगिकता कैसे बनाए रखते हैं?

लगातार खुद को नया करना बहुत जरूरी रहा है। डिजिटल बदलाव को समय पर समझते हुए हमने YouTube, Instagram, Twitter और Facebook पर अपनी मौजूदगी को तेजी से बढ़ाया। आज, सोशल मीडिया के ज्यादातर पैमानों पर CNBC Awaaz टॉप बिजनेस चैनल है। मेरी अपनी डिजिटल मौजूदगी, खासकर Instagram Reels के जरिए, काफ़ी बढ़ी है जिससे मैं सीधे युवा दर्शकों से जुड़ पाता हूं। यही डिजिटल रुख हमें छोटे-छोटे फॉर्मेट में आने वाले कंटेंट की भीड़ में भी प्रासंगिक और भरोसेमंद बनाए रखता है।

खासकर मोबाइल-फर्स्ट और युवा दर्शकों में आपने क्या बड़ा बदलाव देखा है?

सबसे बड़ा बदलाव निवेश की सोच में आया है। पहले लोग 'लॉन्ग टर्म' निवेश का मतलब कई साल मानते थे, अब वो एक ट्रेडिंग डे भी नहीं होता। इस बदलाव में 24x7 लाइव मार्केट कवरेज की बड़ी भूमिका है। इसी वजह से अब हमें दर्शकों को जिम्मेदारी के साथ निवेश करने के लिए प्रेरित करना पड़ता है। COVID-19 के बाद नए निवेशकों की बड़ी संख्या आई है, जिससे उनकी उम्मीदें भी बदल गई हैं—तेज, लेकिन सटीक विश्लेषण की जरूरत अब ज्यादा है।

बजट या RBI पॉलिसी जैसे बड़े वित्तीय इवेंट्स के लिए एडिटोरियल प्लानिंग कैसे होती है?

ऐसी कवरेज के लिए गहराई से तैयारी की जाती है। बजट के लिए प्लानिंग तीन महीने पहले से शुरू हो जाती है। हम एक्सपर्ट पैनल, जूरी डिस्कशन और खास प्रोग्रामिंग को बारीकी से प्लान करते हैं, ताकि बजट वाले दिन किसी भी स्थिति से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार रहें। RBI पॉलिसी कवरेज के लिए भी ऐसे ही तैयारियां होती हैं, जिसमें खास तौर पर ऐसे समय में लॉन्ग-टर्म इन्वेस्टमेंट की सोच को जोर दिया जाता है, जब मार्केट में हलचल हो।

जब कंटेंट एल्गोरिदम से तय हो रहा है, तब न्यूजरूम में एडिटोरियल जजमेंट की भूमिका को आप कैसे देखते हैं?

AI का आना अब टालना मुश्किल है। CNBC-Awaaz में हम इसे अपनाने में पीछे नहीं हैं—AI के जरिए कंटेंट डिलीवरी और एनालिसिस बेहतर किया जा रहा है। लेकिन एडिटोरियल जजमेंट अब भी बेहद अहम है। एडिटर का काम अब AI के साथ मिलकर काम करने का है, मुकाबला करने का नहीं। यदि AI को अपनाने में देरी करेंगे तो पीछे छूट सकते हैं, इसलिए बदलाव के साथ चलना और उसे अपनी ताकत बनाना जरूरी है।

क्या पारंपरिक पत्रकारिता की पढ़ाई और आज के फाइनेंशियल न्यूजरूम की जरूरतों के बीच कोई स्किल गैप है?

मेरे लिए फॉर्मल जर्नलिज्म की डिग्री कोई बड़ी प्राथमिकता नहीं है। मैं ऐसे लोगों को देखता हूं जो लाइव न्यूजरूम के दबाव में भी अच्छा काम कर सकें, टीम के साथ मिलकर चल सकें और बदलती स्थितियों के अनुसार खुद को ढाल सकें। आज की मीडिया की दुनिया में असली स्किल्स, डिग्री से ज्यादा मायने रखते हैं।

टीवी पत्रकारिता को हमेशा हाई-प्रेशर जॉब माना जाता है। इतने लंबे करियर में आपने बर्नआउट से कैसे बचाव किया?

मेरी दिनचर्या में साफ़ सीमाएं तय हैं—मैं दिन की शुरुआत जल्दी करता हूं, लेकिन वर्क-लाइफ बैलेंस पर पूरा ध्यान रहता है। मैं जिम्मेदारियां बांटता हूं, अपनी टीम पर भरोसा करता हूं, जिससे थकावट नहीं आती। मेरे लिए बर्नआउट की पहचान आसान है—यदि सुबह का अनुशासित रूटीन ढीला पड़ने लगे, तो समझ जाता हूं कि कुछ बदलने की जरूरत है। अभी तक ये संतुलन मुझे मोटिवेटेड बनाए रखता है।

फाइनेंशियल जर्नलिज्म को आगे प्रासंगिक और असरदार बने रहने के लिए कौन-सी रणनीतियां अपनानी चाहिए?

डिजिटल-फर्स्ट अप्रोच और लगातार इनोवेशन अब जरूरी हो गया है। पुराने फॉर्मेट अब काफी नहीं हैं। आज जर्नलिस्ट को एक साथ कई डिजिटल प्लेटफॉर्म पर दर्शकों से जुड़ना आता हो। इसके अलावा, AI को अपनाना भी जरूरी है ताकि कंटेंट और ऑपरेशंस दोनों में सुधार हो सके। फाइनेंशियल जर्नलिज्म को लगातार खुद को रीडिजाइन करते रहना होगा ताकि वो न सिर्फ दर्शकों की बदलती पसंद के साथ चले, बल्कि तकनीकी बदलावों से भी कदम से कदम मिला सके।

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'पोलराइजेशन' सिर्फ मीडिया में नहीं, दर्शकों में भी है: जक्का जैकब, CNN-News18

एक ऐसे न्यूज माहौल में, जो अक्सर तेज-तर्रार बहसों और विभाजनकारी एजेंडों के लिए आलोचना का शिकार रहता है, CNN-News18 के मैनेजिंग एडिटर जक्का जैकब एक शांत बदलाव की दिशा में काम कर रहे हैं।

Last Modified:
Tuesday, 29 April, 2025
Zakka Jacob

एक ऐसे न्यूज माहौल में, जो अक्सर तेज-तर्रार बहसों और विभाजनकारी एजेंडों के लिए आलोचना का शिकार रहती है, CNN-News18 के मैनेजिंग एडिटर जक्का जैकब एक शांत बदलाव की दिशा में काम कर रहे हैं। उनकी अगुवाई में, नेटवर्क ने एक शांत व शालीन पत्रकारिता अपनाई है, जो इस समय के ''क्लिकबाइट'' और लगातार "ब्रेकिंग न्यूज" के दौर में अब कम ही देखने को मिलती है।

'हेडलाइन मेकर्स' शो में, जक्का जैकब नए स्क्रीन डिजाइन, संपादकीय मूल्यों, बढ़ती डिजिटल प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ यह बताते हैं कि उनके लिए खबरें ही सबसे अहम हैं, न कि सिर्फ शोर।

आपका शो शांत और समझाने वाली शैली में है, जो आमतौर पर दिखने वाले शोर-शराबे के न्यूज शोज से काफी अलग है। यह फॉर्मेट कहां से आया और आपने इसे क्यों अपनाया?

COVID-19 के दौरान हमे दर्शकों से यह प्रतिक्रिया मिल रही थी कि वे शोर-शराबे वाली बहसें नहीं चाहते। वे समझना चाहते थे कि क्या हुआ, क्यों यह महत्वपूर्ण है और यह उनके लिए कैसे असरदार है। इसलिए हमने पारंपरिक पैनल डिबेट को छोड़कर गहरे विश्लेषण और समझाने वाले कंटेंट पर ध्यान दिया। शुरुआत में यह बहुत कम था, जैसे हर घंटे में 5-10 मिनट, लेकिन अब हमारे शो का 90-95% हिस्सा इसी शैली का है। यह दर्शकों की मांग पर आधारित है, ट्रेंड्स पर नहीं।

आप किस तरह से संपादकीय सीमा तय करते हैं, जहां आप आकर्षक बनें लेकिन सनसनीखेज नहीं?

आपको आकर्षक होना चाहिए, क्योंकि कोई भी बोरिंग न्यूज नहीं देखना चाहता। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तथ्यों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करें। एक पत्रकार का काम सच के करीब रहना है। अगर खबर मजबूत है, तो उसे ज्यादा मसाले की जरूरत नहीं होती। जैसे फिल्मों में, अगर स्क्रिप्ट अच्छी है तो वह काम करती है, वही न्यूज पर भी लागू होता है।

यूट्यूब पत्रकारिता और डिजिटल-फर्स्ट मीडिया के बारे में आपकी क्या राय है? क्या यह प्रतिस्पर्धा है या सहयोग?

मैं इसे सहयोगात्मक मानता हूं। यूट्यूबर्स CNN-News18 जैसे बड़े ब्रांड की स्केल और इंफ्रास्ट्रक्चर से मुकाबला नहीं कर सकते। हालांकि, वे पारंपरिक मीडिया को ज्यादा लचीला और तेज बनाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। हम यूट्यूब, इंस्टाग्राम और शॉर्ट्स के लिए टीम्स बनाकर तेजी से काम कर पा रहे हैं और युवा दर्शकों से जुड़ने में सफल हो रहे हैं।

क्या आपको लगता है कि टीवी न्यूज, खासकर युवा दर्शकों के बीच, अब उतनी लोकप्रिय नहीं रही है?

दर्शकों के देखने का तरीका बदल चुका है। अब लोग पहले से तय वक्त पर न्यूज नहीं देखते। कंटेंट को अब मोबाइल, कनेक्टेड टीवी और सोशल मीडिया जैसे प्लेटफार्म्स पर पहुंचाना पड़ता है। दर्शक अब भी न्यूज चाहते हैं, लेकिन वे उसे ऐसे फॉर्मेट में चाहते हैं, जो वे समझ सकें। एक मिनट के एक्सप्लेनर्स, रील्स, वर्टिकल स्टोरीटेलिंग – यह सब अब की न्यूज का हिस्सा बन चुका है।

हाल में हुए आपके चैनल की दृश्यात्मक बदलावों के बारे में बताएं। नए स्क्रीन डिजाइन के पीछे क्या सोच थी?

यह भी दर्शकों की प्रतिक्रिया पर आधारित था। उन्हें स्पष्टता चाहिए थी, ना कि अव्यवस्था। हम अब सेलेब्रिटी विजुअल्स, शोर-शराबा और चटकीले रंगों से दूर हो गए हैं। यहां तक कि मोबाइल पर भी, दर्शक साफ और आसानी से समझने वाले विजुअल्स चाहते हैं। हम यह कहना चाहते हैं कि "CNN-News18 आपके दुनिया, आपके दिन और आपके हेडलाइंस को समझता है।" यही हमारे नए स्क्रीन दर्शन का आधार है।

क्या आपको लगता है कि टीवी न्यूज पिछले कुछ सालों में ज्यादा समझदार हो गई है?

मुझे लगता है, हां। अब दर्शक ज्यादा अर्थपूर्ण कंटेंट चाहते हैं। वे हमें और ज्यादा तेज और सोच-समझ कर न्यूज देने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। हम अब कम शोर-शराबे वाली बहसें करते हैं और गहरे विश्लेषण पर ध्यान केंद्रित करते हैं। यह शोर को कम करने और इसके बजाय प्रकाश डालने के बारे में है।

आज के टीवी न्यूज के बारे में सबसे बड़ी गलतफहमी क्या है?

यह है कि हम या तो बिके हुए हैं या बहुत लिबरल हैं। असलियत कहीं ज्यादा जटिल है। हम अपनी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश कर रहे हैं: सत्ता को जवाबदेह ठहराना, सच को सामने लाना और सीमाओं के भीतर काम करना। पोलराइजेशन (ध्रुवीकरण) केवल मीडिया में नहीं है, यह दर्शकों में भी है।

आज के समय में एक न्यूज रूम लीडर के रूप में आपकी सबसे बड़ी चुनौती क्या है?

प्रतिभा को आकर्षित करना और उसे बनाए रखना। युवा पत्रकार अक्सर दो या तीन साल के बाद छोड़ देते हैं, लेकिन असली ग्रोथ चार या पांच साल बाद होता है। हमें ऐसा माहौल बनाना होगा जहां वे खुद को मूल्यवान महसूस करें और भविष्य देख सकें।

क्या आपको लगता है कि भारतीय न्यूज चैनल्स वैश्विक स्तर पर प्रभाव बना रहे हैं?

हां, बढ़ते हुए। जैसे-जैसे भारत की वैश्विक स्थिति मजबूत हो रही है, वैसे-वैसे हमारी बातों में भी दिलचस्पी बढ़ रही है। रूस-यूक्रेन संघर्ष और गाजा युद्ध के दौरान, दुनिया ने भारत के दृष्टिकोण को सुना। हमारे जैसे चैनल्स इन दृष्टिकोणों को स्पष्ट करने और भारत की आवाज को वैश्विक स्तर पर पहुंचाने में मदद करते हैं।

आखिर में, आप टीवी न्यूज के भविष्य को कैसे देखते हैं? क्या लीनियर टीवी टिकेगा?

मीडिया में बदलाव आएगा, लेकिन जिज्ञासा कभी नहीं मरेगी। लोग हमेशा जानना चाहेंगे कि क्या हो रहा है, क्यों यह महत्वपूर्ण है। चाहे टीवी हो, मोबाइल हो, या सोशल मीडिया, काम वही रहेगा। दर्शक जहां हैं, वहीं जाइए। उन्हें मूल्य दीजिए। उनकी दुनिया को समझाइए।

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ऐडवर्टाइजर्स की जरूरतों के हिसाब से करते हैं विस्तार: सुरिंदर चावला, BCCL

चावला बताते हैं कि कंपनी अब सिर्फ प्रिंट पर नहीं, बल्कि डिजिटल, इवेंट्स और अन्य मीडिया से जुड़ी वेंचर्स पर भी फोकस कर रही है- यहां तक कि कुछ ऐसे पुराने फॉर्मैट्स को भी फिर से शुरू करने की तैयारी है

Last Modified:
Friday, 25 April, 2025
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कंचन श्रीवास्तव, सीनियर एडिटर व ग्रुप एडिटोरियल इवैन्जिलिस्ट, एक्सचेंज4मीडिया ग्रुप ।।

जब सुरिंदर चावला ने पिछले साल जुलाई में बैंकिंग सेक्टर से भारत के सबसे बड़े प्रिंट मीडिया हाउस बेनट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड (BCCL), जिसे टाइम्स ग्रुप भी कहा जाता है, में रिस्पॉन्स डिवीजन के प्रेजिडेंट और हेड के तौर पर जिम्मेदारी संभाली, तो यह बदलाव थोड़ा नाटकीय (drastic) लग सकता था।

उस समय देश की अखबार इंडस्ट्री अब भी कोविड के बाद के झटके से उबरने की कोशिश कर रही थी और खुद टाइम्स ग्रुप भी दो हिस्सों में विभाजित होने के बाद पुनर्गठन के दौर से गुजर रहा था। उनका यह बदलाव कितना चुनौतीपूर्ण था? चावला मुस्कुराते हुए बताते हैं, "असल में बिजनेस का सार है मैनेजमेंट- लोगों को समझना, संचालन करना और मार्केट की गति को पकड़ना। जब ये सिद्धांत समझ में आ जाएं, तो प्रोडक्ट की कैटेगरी (जैसे बैंकिंग या प्रिंट) उतनी मायने नहीं रखती। मैंने बैंकिंग में एसेट्स और लाइबिलिटीज दोनों पर काम किया है- प्रोडक्ट बदल सकते हैं, लेकिन सिद्धांत नहीं बदलते।"

वह आगे कहते हैं, "मुझे इस नई भूमिका में ढलने में ज्यादा समय नहीं लगा और सच कहूं तो यहां किसी ने मुझे बाहरी (outsider) नहीं समझा। BCCL पहले से ही मार्केट में अग्रणी है और हमारे पास बड़े विजन हैं। हम अपने पोर्टफोलियो को बढ़ा रहे हैं, नए इनिशिएटिव्स जोड़ रहे हैं और कुछ पुराने ब्रैंड्स को दोबारा लॉन्च कर रहे हैं। यह प्रिंट मीडिया के लिए खत्म होने का समय नहीं है, जैसा कुछ लोग मानते हैं। यह एक परिपक्व (mature) मार्केट है, लेकिन अब भी इसमें जबरदस्त संभावना है।”

मुंबई मिरर की दोबारा लॉन्चिंग

BCCL (टाइम्स ग्रुप) जिन बदलावों की तैयारी कर रहा है, उनमें सबसे बड़ी और चर्चित पहल है मुंबई मिरर को फिर से एक डेली अखबार के रूप में लॉन्च करना। यह कदम दिखाता है कि ग्रुप अब भी अपने पुराने मजबूत ब्रैंड्स को दोबारा जोर देने और शहरी पाठकों से जुड़ाव बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है।

चावला कहते हैं, "हम मुंबई मिरर को एक डेली अखबार के तौर पर दोबारा ला रहे हैं। यह एक बहुत पसंद किया जाने वाला प्रोडक्ट रहा है और यह हमारे पोर्टफोलियो को नई रफ्तार देने की रणनीति का हिस्सा है।"

चावला बताते हैं कि कंपनी अब सिर्फ प्रिंट पर नहीं, बल्कि डिजिटल, इवेंट्स और अन्य मीडिया से जुड़ी वेंचर्स पर भी फोकस कर रही है- यहां तक कि कुछ ऐसे पुराने फॉर्मैट्स को भी फिर से शुरू करने की तैयारी है जिन्हें पहले बंद कर दिया गया था। हमारे ग्रुप ने कई चीजें अपने समय से पहले की थीं। कुछ आइडिया उस वक्त नहीं चले, लेकिन अब माहौल बदल गया है। हमें लगता है कि अब उन्हें दोबारा लाने का सही वक्त है। 

प्रिंट की वैल्यू कम नहीं हो रही, बल्कि और निखर रही है

जब आज का मीडिया पूरी तरह डिजिटल हेडलाइंस और एल्गोरिदमिक डेटा पर केंद्रित होता जा रहा है, चावला अब भी प्रिंट की 'गूंज' और प्रभाव को लेकर दृढ़ हैं। वह कहते हैं, "यदि आप भरोसा, विश्वसनीयता और ब्रैंड की गंभीरता चाहते हैं, तो प्रिंट से बेहतर कोई माध्यम नहीं है। हमारे कई क्लाइंट्स को प्रिंट कैंपेन से सीधे बिजनेस में असर दिखता है। इसलिए वो बार-बार लौटते हैं।"

इसका कुल मिलाकर मतलब ये है कि टाइम्स ग्रुप अब भी प्रिंट को एक मजबूत माध्यम मानता है और मुंबई मिरर जैसे ब्रैंड को दोबारा शुरू करके वे अपने पुराने ब्रैंड्स में नई जान फूंकना चाहते हैं। साथ ही वे डिजिटल और अन्य वेंचर्स के जरिए एक बहुआयामी ग्रोथ स्ट्रैटेजी पर काम कर रहे हैं।

यह सिर्फ विचारधारा नहीं, बल्कि आर्थिक रूप से भी मजबूत भरोसा है

चावला कहते हैं कि प्रिंट के प्रभाव में उनका भरोसा सिर्फ एक फिलॉसफी नहीं है, बल्कि इसके पीछे ठोस आर्थिक तर्क भी हैं। भले ही मीडिया इंडस्ट्री में यह चर्चा हो रही हो कि प्रिंट से कंपनियां पीछे हट रही हैं, लेकिन BCCL ने प्रिंट विज्ञापनों की दरों में रणनीतिक रूप से बढ़ोतरी की है।

उनका कहना है, "यह कोई अचानक लिया गया फैसला नहीं है। यह दरें मांग, महंगाई और उस स्थायी वैल्यू पर आधारित हैं जो हम अपने विज्ञापनदाताओं को देते हैं। हमारे क्लाइंट्स को ROI (रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट) अच्छे से समझ आता है।"

अब कंपनियां सिर्फ एक शहर तक सीमित नहीं रह गई हैं, बल्कि अपने कैंपेन पूरे भारत में फैला रही हैं। साथ ही ब्रैंड अब अपनी ऑडियंस की जरूरतों के हिसाब से अंग्रेजी और स्थानीय भाषाओं (वर्नैक्युलर) के बीच शिफ्ट भी कर रहे हैं।

NIE को फिर से नया रूप दिया जा रहा है

आज के विज्ञापनदाता Gen-Z (नई पीढ़ी) के डिजिटल की ओर बढ़ते रुझान को लेकर चिंतित हैं। हालांकि, अलग-अलग उम्र के लोग आज भी प्रिंट, टीवी और दूसरे माध्यमों से जुड़े हुए हैं, लेकिन Gen-Z जो देश की सबसे बड़ी जनसंख्या है, वो अब लगभग पूरी तरह ऑनलाइन चली गई है।

जब पूछा गया कि आप अपने प्रिंट ऑफरिंग्स के जरिए विज्ञापनदाताओं की चिंताओं को कैसे संबोधित करेंगे, तो चावला ने बताया कि कोविड के दौरान डिजिटल का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा और फिजिकल मीडिया (जैसे अखबार) लगभग बंद हो गया था। लेकिन अब स्थिति बदल रही है, नौजवान फिर से अखबारों की ओर लौट रहे हैं। उदाहरण के तौर पर, कई शैक्षणिक संस्थान छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए अखबार पढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं।

इसी को ध्यान में रखते हुए BCCL स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के साथ मिलकर युवाओं के लिए उपयुक्त उत्पाद तैयार कर रहा है। ऐसा ही एक प्रोग्राम है Newspaper in Education (NIE), जो अभी भी मजबूती से चल रहा है। चावला ने बताया कि इसे और अधिक रोचक और छात्रों के लिए उपयोगी बनाने के लिए इसे फिर से डिजाइन किया जा रहा है।

हालांकि इस बदलाव की सारी जानकारी अभी तय नहीं है, लेकिन मकसद साफ है, युवाओं में अखबार पढ़ने की आदत को फिर से विकसित करना। लोगों को लगता है कि यह आदत अब खत्म हो चुकी है, लेकिन चावला का मानना है कि इसके पुनरुत्थान के संकेत मिलने लगे हैं।

 रणनीतिक गहराई के साथ रीजनल विस्तार

 महामारी के बाद क्षेत्रीय समाचार पत्रों ने अपनी स्थिति को फिर से सुधार लिया है। जैसे कि दैनिक भास्कर ने हाल ही में अपनी प्रसार संख्या में जबरदस्त बढ़त देखी है।

जब पूछा गया कि Times Group इस विकास का लाभ उठाने की योजना बना रहा है या नहीं, तो यह सवाल महत्वपूर्ण है क्योंकि टाइम्स ग्रुप ने पहले अपना बांग्ला दैनिक Ei Samay बेचा था और अपनी कुछ लोकप्रिय सप्लीमेंट्स और टैब्लॉयड्स Mumbai Mirror और Pune Mirror बंद कर दिए थे।

Chawla ने कहा, "हम अपने प्रतिस्पर्धियों की तरह हर राज्य में उच्च प्रसार संख्या का पीछा नहीं करते हैं। बीसीसीएल का क्षेत्रीय विकास ज्यादा सटीक और क्लाइंट-केंद्रित है। हम संख्याओं के खेल में नहीं हैं। हम वहां जाते हैं जहां हमारे विज्ञापनदाता चाहते हैं कि हम हों—नेतृत्व के साथ या फिर वहां पहुंचने का स्पष्ट मार्ग। हमारा ध्यान उन महत्वपूर्ण घरों में परिणाम देने पर है, जहां निर्णय लिए जाते हैं।"

यह बयान दर्शाता है कि बीसीसीएल अपने विकास को रणनीतिक क्षेत्रों तक सीमित रखेगा और हर जगह समान रूप से विस्तार नहीं करेगा। यह जियोग्राफिक क्षेत्रों के बारे में चयनात्मक है और प्रमुख स्थानों में मार्केट नेतृत्व प्राप्त करने का लक्ष्य रखता है।

Measurability, Digital Fatigue, और Hybrid Futures पर चर्चा करते हुए Chawla ने कहा कि जैसे-जैसे विज्ञापनदाता अपनी कैम्पेन के ROI और मापनीयता की मांग कर रहे हैं, प्रिंट के मीट्रिक को और व्यापक दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा, "डिजिटल आंकड़े प्लेटफार्मों से आते हैं, लेकिन जो सच में मायने रखता है वह यह है कि आपने जिन 100 लोगों तक पहुंच बनाई, उनमें से कितनों ने आपका उत्पाद खरीदा?"

Chawla ने डिजिटल थकावट (digital fatigue) को भी महसूस किया और कहा, "डिजिटल शोर करता है, लेकिन कन्वर्जन की कहानियां हमेशा मेल नहीं खातीं। स्मार्ट मार्केटर्स अब संतुलित मिश्रण की तलाश कर रहे हैं—प्रिंट, डिजिटल, टीवी, और आउट-ऑफ-होम—जो उनके उत्पाद और दर्शकों से मेल खाता हो।"

Industry Growth के बारे में बात करते हुए Chawla ने कहा कि उनकी कंपनी का विकास उद्योग के प्रदर्शन से जुड़ा है। उनका कहना है कि जब आप पहले से ही 45-47% मार्केट हिस्सेदारी के साथ काम कर रहे होते हैं, तो आपका विकास उद्योग के साथ जुड़ा होता है। जितना अधिक उद्योग बढ़ता है, उतना ही आपका विकास होता है और इसके विपरीत भी। यह बीसीसीएल का मुख्य ध्यान है—उद्योग-व्यापी वृद्धि को प्रोत्साहित करना।

आखिरकार, Indian Readership Survey (IRS) के बारे में पूछे जाने पर Chawla ने कहा कि यह निर्णय उद्योग निकायों पर निर्भर करता है और वे वर्तमान में इस पर विचार कर रहे हैं।

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न्यूज इंडस्ट्री ने खुद को नहीं बदला, इसलिए दर्शक डिजिटल की ओर बढ़े: सुधीर चौधरी

सीनियर एंकर व पत्रकार सुधीर चौधरी ने कहा कि पिछले दो दशकों में न्यूज ब्रॉडकास्ट इंडस्ट्री ने खुद को नए तरीके से गढ़ने की कोशिश नहीं की, इसी वजह से दर्शकों का रुझान अन्य प्लेटफॉर्म्स की ओर बढ़ गया।

Last Modified:
Monday, 14 April, 2025
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जाने-माने एंकर व पत्रकार सुधीर चौधरी ने कहा है कि पिछले दो दशकों में न्यूज ब्रॉडकास्ट इंडस्ट्री ने खुद को नए तरीके से गढ़ने की कोशिश नहीं की, इसी वजह से दर्शकों का रुझान धीरे-धीरे अन्य प्लेटफॉर्म्स की ओर बढ़ गया। उन्होंने कहा कि जहां सोशल मीडिया पर करोड़ों फॉलोअर्स वाले इंफ्लुएंसर्स हैं, वहीं न्यूज इंडस्ट्री में ऐसा कोई स्टार नहीं बन पाया है।

उन्होंने कहा, “सबसे कम इनोवेशन न्यूज ब्रॉडकास्ट में ही हुआ है। हर नई तकनीक के साथ मौजूदा फॉर्मेट को खुद को बदलना पड़ता है। आज उपभोक्ता के पास अनगिनत विकल्प हैं- न्यूज अब वॉट्सऐप, इंस्टाग्राम, स्नैपचैट, टीवी, प्रिंट और सोशल मीडिया सभी पर उपलब्ध है। अब एक ही स्टोरी को अलग-अलग प्लेटफॉर्म्स पर, अलग-अलग फॉर्मेट और समय में पेश करना होता है। इससे दर्शकों को अधिक विकल्प मिले हैं और उन्हें सबसे ज्यादा फायदा हुआ है।”

वे श्री अधिकारी ब्रदर्स के मैनेजिंग डायरेक्टर कैलाशनाथ अधिकारी के साथ एक पॉडकास्ट में बातचीत कर रहे थे।

सुधीर चौधरी ने कहा कि आज देश में लगभग 400 न्यूज चैनल हैं, लेकिन इनमें से 10–15 प्रमुख चैनल एक ही फॉर्मेट पर चलते हैं—रेड टिकर, एक जैसे हेडलाइंस, एक जैसे स्टूडियोज और टेबल्स, एक जैसे पैनलिस्ट्स और एक जैसे मुद्दों पर बहस। न्यूजरूम में टीआरपी और रेटिंग को देखकर कंटेंट का सुझाव दिया जाता है, और इंडस्ट्री का 99% हिस्सा इसी ‘रिएक्टिव’ तरीके से चलता है।

उन्होंने कहा, “इंडस्ट्री रास्ता भटक गई है। एक ही फॉर्मूला बार-बार दोहराने के बजाय अच्छा कंटेंट तैयार किया जा सकता है। टीआरपी, रेटिंग्स और पैसा—ये सब अच्छे कंटेंट का परिणाम होते हैं। मैंने अपने शो में यही सिद्धांत अपनाया।”

अपनी रिसर्च पद्धति को लेकर उन्होंने बताया कि उनके समाचार रिपोर्ट्स आम लोगों की जिंदगी से जुड़ी होती थीं और शुरुआत में अन्य चैनल्स ने उनका मजाक उड़ाया, क्योंकि वे पारंपरिक राजनीतिक खबरों जैसे कैबिनेट मीटिंग और पार्टी अलायंस पर टिके थे। बाद में जब उनके समाचार विश्लेषण की शैली लोकप्रिय हुई, तब कई चैनलों ने उसे अपनाया, लेकिन केवल रेटिंग्स के लिए, आत्मसात करने के लिए नहीं।

उन्होंने कहा, “जब तक एंकर खुद अपनी स्टोरी को महसूस नहीं करेगा, तब तक वह दर्शकों से जुड़ नहीं पाएगा। न्यूज रिपोर्टर को छोटे अखबारों में छपी कहानियों को तलाशना चाहिए और उन्हें आम आदमी के लिहाज से प्रभावशाली बनाना चाहिए।”

डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर दर्शकों के बढ़ते झुकाव पर उन्होंने कहा, “रेडियो और प्रिंट के समय में टीवी आया, फिर डिजिटल और अब AI। सब साथ में चलते रहे हैं, लेकिन हर बार पुराने फॉर्मेट्स को खुद को बदलना पड़ा। पहले फिल्में तीन घंटे की होती थीं, अब डेढ़ घंटे की हैं। पहले टेस्ट क्रिकेट पांच दिन चलता था, अब टी20 हो गया है। सब कुछ वही है—क्रिकेटर, बैट, बॉल, रन, स्टेडियम, दर्शक—लेकिन क्रिकेट ने खुद को दोबारा परिभाषित किया है।”

उन्होंने बताया कि सोशल मीडिया कैसे इकोसिस्टम को बदल रहा है। “पहले लोग कहते थे, हमने आपको टीवी पर देखा। अब कहते हैं, हम आपको फॉलो करते हैं। यह बड़ा बदलाव है। यूट्यूब और रील्स जैसे प्लेटफॉर्म पर लोग बड़ी संख्या में आ रहे हैं, वहीं पारंपरिक मीडिया में वर्षों से काम कर रहे लोगों के उतने फॉलोअर्स नहीं हैं। आने वाले समय में चुनौती होगी—रफ्तार और सटीकता दोनों को बनाए रखना। रफ्तार के लिए सच्चाई की बलि नहीं दी जा सकती।”

फेक न्यूज की पहचान कैसे करें, इस पर उन्होंने कहा कि न्यूज चैनल्स के पास मल्टी-सोर्स होते हैं, जबकि सोशल मीडिया पर कंटेंट क्रिएटर्स के पास स्रोत तो ज्यादा होते हैं लेकिन प्रोसेस नहीं होता। “बड़ी एजेंसियां खबरों को जुटाने और उन्हें जांचने में बड़ा निवेश करती हैं। चैनलों के पास मल्टी-लेयर सिस्टम होता है, जहां खबरें जांची जाती हैं। लेकिन यूट्यूबर, जो अकेले काम करता है, उसके पास ऐसा कोई सिस्टम नहीं होता, जिससे कई बार गलत खबरें सामने आ जाती हैं।”

उन्होंने कहा कि खबरों को संख्याओं के जरिए समझाना और पेश करना बेहद जरूरी है। न्यूज निर्माण एक गंभीर काम है—इसमें अनुशासन चाहिए और कंटेंट क्रिएटर्स को लगातार खुद को अपग्रेड करते रहना चाहिए।

अपने भविष्य को लेकर उन्होंने कहा कि अब वे टीआरपी या नंबर के पीछे नहीं भागना चाहते, बल्कि स्वतंत्र रूप से कंटेंट बनाना चाहते हैं। उन्होंने सोशल मीडिया कंटेंट क्रिएटर्स से अपील की कि वे उनके काम को आगे बढ़ाने में सहयोग करें।

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"भारत में क्रिकेट कंटेंट का नया मंच बना YouTube, ब्रैंड्स के लिए खुल रहे नए अवसर"

क्रिकेट प्रेमियों की जुड़ाव की आदतें सिर्फ स्टेडियम और टेलीविजन तक सीमित नहीं रही हैं। इस डिजिटल युग में, YouTube क्रिकेट कंटेंट का सबसे पसंदीदा मंच बन चुका है

Last Modified:
Monday, 24 March, 2025
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शांतनु डेविड, स्पेशल कॉरेस्पोंडेंट, एक्सचेंज4मीडिया ।।

जैसे ही भारत एक और रोमांचक इंडियन प्रीमियर लीग (IPL) सीजन के लिए तैयार हो रहा है, क्रिकेट प्रेमियों की जुड़ाव की आदतें सिर्फ स्टेडियम और टेलीविजन तक सीमित नहीं रही हैं। इस डिजिटल युग में, YouTube क्रिकेट कंटेंट का सबसे पसंदीदा मंच बन चुका है, जो लाइव मैचों से इतर दर्शकों को जोड़ने और विज्ञापनदाताओं को अपने उपभोक्ताओं तक पहुंचने के अनूठे अवसर प्रदान करता है।

Google India में YouTube सेल्स व सॉल्यूशंस की हेड शुभा पाई इस बदलते परिदृश्य पर प्रकाश डालते हुए क्रिकेट, डिजिटल के इस्तेमाल करने के तरीके और विज्ञापन के मेल पर चर्चा करती हैं। वे कहती हैं, "भारत में क्रिकेट सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि संस्कृति और समुदाय है।" उन्होंने 1984 की अपनी एक यादगार घटना साझा की, जब उनके पिता ने विश्व कप मैच देखने के लिए बिजली की समस्या को ठीक करने की कोशिश में गंभीर रूप से जलने तक का जोखिम उठा लिया था। वे कहती हैं, "आज भी यदि आप उनसे पूछेंगे, तो वे यही कहेंगे कि उन्हें इसका कोई पछतावा नहीं है। भारत में क्रिकेट का महत्व यही है।"

पिछले 12 महीनों में YouTube पर क्रिकेट से जुड़ी सामग्री को 50 अरब से अधिक बार देखा गया, जो यह दर्शाता है कि आधुनिक क्रिकेट उपभोग में यह प्लेटफॉर्म कितना महत्वपूर्ण हो गया है। IPL 2024 के दौरान, दर्शकों ने गैर-लाइव कंटेंट पर 20% अधिक समय बिताया, जिससे यह स्पष्ट होता है कि पारंपरिक लाइव प्रसारण की तुलना में ऑन-डिमांड कंटेंट देखने का चलन बढ़ रहा है। शुभा पाई कहती हैं, "YouTube वह जगह है जहां प्रशंसक सिर्फ मैच के दौरान ही नहीं, बल्कि उससे पहले, बाद में और बीच में भी खेल से जुड़े रहते हैं।"

यह बदलाव सिर्फ एक ट्रेंड नहीं, बल्कि देखने की आदतों में एक बड़ा परिवर्तन है। Smith Grieger के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में 14 से 44 वर्ष की आयु के 95% ऑनलाइन खेल प्रेमी हर हफ्ते कम से कम एक बार YouTube पर अपने पसंदीदा खेल या खिलाड़ियों के बारे में कंटेंट देखते हैं। इनमें से 67% क्रिकेट कंटेंट देखते हैं, जिससे YouTube खेल जुड़ाव के लिए सबसे अधिक उपयोग किया जाने वाला डिजिटल प्लेटफॉर्म बन गया है।

डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर दर्शकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, और इसी के साथ क्रिकेट विज्ञापन की दुनिया भी बड़े बदलाव के दौर से गुजर रही है। लंबे समय से खेल विज्ञापन के लिए सबसे प्रभावी माने जाने वाले पारंपरिक लाइव ब्रॉडकास्ट मॉडल में अब अत्यधिक प्रतिस्पर्धा हो गई है। शुभा पाई कहती हैं, "क्या आपको पता है कि पिछले साल IPL में कितने ब्रैंड्स ने विज्ञापन दिए थे? लगभग 1,400। लेकिन अगर मैं आपसे पूछूं कि आपको कितने ब्रैंड्स याद हैं, तो आप शायद केवल 3 से 5 के ही नाम लेंगे।"

यह उपभोक्ता ध्यान के लिए चल रही कड़ी प्रतिस्पर्धा दूसरे स्क्रीन पर सक्रिय रहने के व्यवहार से और जटिल हो जाती है। "90% क्रिकेट प्रशंसक लाइव मैच देखते समय किसी अन्य स्क्रीन पर भी सक्रिय होते हैं," पाई बताती हैं। यह आंकड़ा Gen Z दर्शकों के लिए 93% तक बढ़ जाता है, जो एक साथ तीन गतिविधियांं करते हैं—स्कोर चेक करना, सोशल मीडिया स्क्रॉल करना और खाना ऑर्डर करना। वे कहती हैं, "कल्पना कीजिए कि जब दर्शक एक ही समय में इतनी चीजें कर रहे हों, तो पारंपरिक विज्ञापन कैसे प्रभावी रह सकते हैं?"

इस चुनौती का सामना करने के लिए ब्रैंड्स अब तेजी से YouTube के AI-आधारित विज्ञापन समाधानों का उपयोग कर रहे हैं, जो उन्हें दर्शकों के साथ बेहतर जुड़ने में मदद करता है। पाई कहती हैं, "लॉन्ग-फॉर्म वीडियो, शॉर्ट्स और कनेक्टेड टीवी—YouTube विज्ञापनदाताओं को विभिन्न मार्केटिंग उद्देश्यों के लिए कई फॉर्मेट्स प्रदान करता है। और इसमें AI की महत्वपूर्ण भूमिका है।"

वे AI-आधारित उत्पादों के उदाहरण देती हैं, जैसे कि Target Frequency, जो विज्ञापन की सही संख्या सुनिश्चित करता है और Video View Campaigns, जो विभिन्न YouTube प्रारूपों में एक निश्चित संख्या में व्यूज़ की गारंटी देता है। Demand Gen एक अन्य AI-संचालित समाधान है, जो YouTube की पहुंच को Google Discover और Gmail जैसे प्लेटफॉर्म तक बढ़ाता है। Connected TV (CTV) पर QR Code Ads उपभोक्ताओं को तुरंत कार्रवाई करने की सुविधा देते हैं। पाई कहती हैं, "लंबे समय तक हमने टेलीविज़न पर विज्ञापन देखे, लेकिन उन पर तुरंत प्रतिक्रिया नहीं दे सकते थे। अब, बस एक QR कोड स्कैन करें और तुरंत जुड़ जाएं।"

इस AI-चालित रणनीति ने IPL 2023 के दौरान Swiggy जैसे ब्रैंड्स के लिए प्रभावशाली परिणाम दिए। पाई बताती हैं, "उन्होंने पाया कि 90% दर्शक दूसरी स्क्रीन पर सक्रिय थे और उनके मुख्य उपभोक्ता आधार—फूड डिलीवरी यूज़र्स—और क्रिकेट प्रशंसकों के बीच बड़ा ओवरलैप था। इसी वजह से उन्होंने YouTube को जुड़ाव बढ़ाने के लिए चुना।" 

YouTube पर क्रिकेट कंटेंट का दायरा केवल आधिकारिक मैच हाइलाइट्स या विशेषज्ञ विश्लेषण तक सीमित नहीं है। वर्षों से, इस प्लेटफॉर्म ने क्रिकेट कंटेंट क्रिएटर्स का एक समृद्ध इकोसिस्टम विकसित किया है। पाई कहती हैं, "YouTube पर क्रिकेट से जुड़ी एक पूरी दुनिया है, जिसमें बॉल-बाय-बॉल विश्लेषण, मीम्स, रिएक्शन वीडियो और रणनीति पर गहराई से चर्चा शामिल है।" Breakfast with Champions, हर्षा भोगले और Two Sloggers जैसे लोकप्रिय कंटेंट क्रिएटर्स ने समर्पित फैनबेस बना लिए हैं, जो मैचों से पहले, दौरान और बाद तक उनसे जुड़े रहते हैं।

YouTube की पहुंच अब नए दर्शक समूहों तक भी बढ़ रही है। "भारत में 500 मिलियन क्रिकेट प्रशंसकों में से 30% महिलाएं हैं और 60% ग्रामीण क्षेत्रों से हैं," पाई Kantar की एक रिसर्च के हवाले से बताती हैं। "क्रिकेट अब सिर्फ एक शहरी, पुरुष-प्रधान खेल नहीं रह गया है। YouTube हर क्षेत्र और हर भाषा में हर किसी के लिए कुछ न कुछ पेश करता है।"

हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि लगातार मैचों की वजह से क्रिकेट की लोकप्रियता घट सकती है, पाई इससे असहमत हैं। वे कहती हैं, "एक सच्चे क्रिकेट प्रशंसक के लिए खेल आखिरी गेंद के साथ खत्म नहीं होता। वे YouTube पर रिप्ले देखते हैं, आंकड़े जांचते हैं और यह देखते हैं कि बाकी लोग क्या कह रहे हैं। वे तब तक नहीं सोते जब तक वे एक घंटे का अतिरिक्त जुड़ाव नहीं कर लेते।"

IPL 2025 से प्रायोजन और विज्ञापन राजस्व के मामले में नए रिकॉर्ड तोड़ने की उम्मीद है। पिछले साल, इस टूर्नामेंट की ब्रैंड वैल्यू $10 अरब से अधिक थी और विज्ञापन राजस्व ₹10,000 करोड़ को पार कर गया था। YouTube खुद को उन विज्ञापनदाताओं के लिए आदर्श प्लेटफॉर्म के रूप में स्थापित कर रहा है, जो उपभोक्ताओं का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। पाई कहती हैं, "IPL सिर्फ एक खेल आयोजन नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक क्षण है। चाहे आप एक नया अभियान लॉन्च कर रहे हों, ब्रैंड रिकॉल बना रहे हों, या उपभोक्ताओं को कार्रवाई के लिए प्रेरित कर रहे हों—YouTube के AI-आधारित समाधान आपको सही समय पर, सही संदेश के साथ सही दर्शकों तक पहुंचने में मदद कर सकते हैं।" 

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न्यूज रूम में विविधता क्यों जरूरी? रुबिका लियाकत ने साझा किए अपने विचार

एक्सचेंज4मीडिया ग्रुप द्वारा आयोजित 'वुमेन समिट' में जानी-मानी पत्रकार और न्यूज18 इंडिया की कंसल्टिंग एडिटर रुबिका लियाकत ने न्यूज रूम में विविधता के महत्व पर अपनी बेबाक राय रखी।

Last Modified:
Tuesday, 11 March, 2025
Rubika8451

एक्सचेंज4मीडिया ग्रुप द्वारा आयोजित 'वुमेन समिट' में जानी-मानी पत्रकार और न्यूज18 इंडिया की कंसल्टिंग एडिटर रुबिका लियाकत ने न्यूज रूम में विविधता के महत्व पर अपनी बेबाक राय रखी। 'समाचार4मीडिया' के संपादक पंकज शर्मा के साथ बातचीत में उन्होंने पत्रकारिता में संतुलित प्रतिनिधित्व और बदलाव की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने बताया कि विविधता न सिर्फ पत्रकारिता को समृद्ध बनाती है, बल्कि दर्शकों तक अधिक प्रभावी और संतुलित खबरें पहुंचाने में भी मदद करती है।

हाल ही में हमने वूमेंस डे मनाया। क्या आपको लगता है कि ऐसे दिन केवल एक दिन तक सीमित रहते हैं, या इन मुद्दों पर हमेशा चर्चा होनी चाहिए?

मैंने इस सवाल पर बहुत मंथन किया है। एक दिन मनाना बहुत जरूरी है, क्योंकि यह एक चिंगारी की तरह काम करता है। जो जन्म होता है, वो एक ही दिन होता है, पर 364 दिन आपको काम करना होता है। कई लोग हैं, जो सिर्फ एक दिन ही ऐसे कार्यक्रमों को मनाते या चर्चा करते हैं। लेकिन कई लोग हैं, जो पहली बार इस तरह के कार्यक्रमों को सुन रहे होते हैं और ऐसे में इस दस मिनट की चर्चा में यदि उनके दिल में 30 सेकंड भी कुछ बातें बैठ जाए, तो वह बदलाव ला सकता है। इसलिए, भले ही यह अजीब लगे, लेकिन यह जरूरी है।

आपने पत्रकारिता में एक अलग पहचान बनाई है। एक महिला के तौर पर क्या इस दौरान आपको किसी तरह की चुनौती का सामना करना पड़ा?

चुनौतियां बहुत सारी होती हैं। मैं एक किस्सा शेयर करना चाहूंगी। मैं तीन महीने प्रेग्नेंट थी और ऑफिस में किसी को नहीं बताया था। 'माझी' फिल्म रिलीज होने वाली थी। बिहार में जहां पर वह पहाड़ तोड़ा गया था वहां पर पूरी टीम को ले जाया जा रहा था और जब मैंने रोहित सरदाना जी को बताया कि मैं प्रेग्नेंट हूं, तो उन्होंने हंसकर कहा, "मजाक कभी और करना, मना करने के और भी तरीके होते हैं! और तुम ही तो कहती थी एडवेंचर वाली जगह पर जाना है, तो अब जा।" लिहाजा मैं उस जगह गई, जहां बुनियादी सुविधाएं भी नहीं थीं। वो जगह ऐसी है, जहां पर आज भी मिट्टी के घर हैं तो आप समझ लीजिए उस वक्त ना तो शौचालय नाम की कोई चीज होती थी और वाशरूम जाना होता था, तो औरतों को झाड़ियों में जाना पड़ता था, लेकिन चूंकि वहां पर इतने तादाद में एक्टर्स और एक्ट्रेसेस मौजूद थे, वीवीआईपी लोग थे, तो चारों तरफ वहां झाड़ियों में भी पुलिस वाले खड़े हो गए थे और मैं इतना तकलीफ में थी मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं अब करूं तो करूं। मुझे प्यास लग रही थी लेकिन मैं पानी नहीं पी सकती थी क्योंकि बार-बार मुझे वॉशरूम इस्तेमाल करना पड़ता। वहां रेस्ट रूम भी नहीं थे। तब मुझे रिलाइज हुआ कि वहां मर्दों के लिए तो बड़ा आसान था, लेकिन मेरे लिए बहुत सारी दिक्कतें थी, पर शुक्र है एक बुजुर्ग औरत का जिसको मैंने अपनी समस्या बताई, तो वह अपने घर के पीछे मुझे ले गई, जहां चढ़कर मुझे जाना पड़ा। साड़ी से चारों तरफ बांधा हुआ था। यह सब देख मैं डर गईं, तब मुझे लगा कि यह कोई मजाक नहीं है।  कुछ और देर रुक गई तो मैं क्या करूंगी। यह छोटा सा चैलेंज है और ऐसे बहुत सारे चैलेंज महिलाओं के सामने  आते हैं लेकिन फिर आप उससे सीखते हैं और उससे ही आप आगे बढ़ते हैं।

क्या आपको लगता है कि न्यूज रूम में विविधता जरूरी है?

बिल्कुल! लेकिन धर्म और जाति से ज्यादा जरूरी है टैलेंट। जब मैं आई थी, तब मेरे माथे पर नहीं लिखा था कि मैं मुसलमान हूं। मुझे एडमिशन इसलिए नहीं मिला कि मैं महिला हूं या मुस्लिम हूं, बल्कि इसलिए कि मुझमें टैलेंट था।

क्या विविधता से खबरों की कवरेज पर असर पड़ता है?

नहीं, ऐसा नहीं है। अगर न्यूज रूम में महिलाएं ज्यादा होंगी, तो महिला सशक्तिकरण से जुड़े मुद्दे ज्यादा उठेंगे। लेकिन आज के समय में यह कहना गलत होगा कि महिलाओं को मौके नहीं मिल रहे। न्यूज रूम में विविधता बढ़ रही है और यह बदलाव जरूरी भी है।

आंकड़ों के अनुसार, न्यूज इंडस्ट्री में महिलाओं की भागीदारी 12-20% के बीच है। क्या इसे बढ़ाने की जरूरत है?

हां, लेकिन यह सिर्फ संख्या का सवाल नहीं है। यह महिलाओं की जिद और जज्बे का भी सवाल है। 12% महिलाएं जो इस फील्ड में बनी हुई हैं, वे कठिन परिस्थितियों के बावजूद आगे बढ़ रही हैं। आसान होता है छोड़ देना, लेकिन हमें लड़ते रहना होगा।

सोशल मीडिया पर नेगेटिव कमेंट्स को आप कैसे डील करती हैं?

शुरू में बहुत बुरा लगता था, क्योंकि मेरे माता-पिता भी सोशल मीडिया पर हैं। लेकिन फिर समझ आया कि जो लोग मुझे जानते ही नहीं, वे क्या कह रहे हैं, इससे फर्क नहीं पड़ना चाहिए। अब मैं सोशल मीडिया को भोपू की तरह इस्तेमाल करती हूं - अपनी बात कहती हूं और फिर उसे साइड रख देती हूं!

अंत में, आप इस मंच से क्या संदेश देना चाहेंगी?

बदलाव लाने के लिए हमें खुद आगे बढ़ना होगा। यदि आप में टैलेंट है, तो आपको कोई रोक नहीं सकता। चुनौतियां आएंगी, लेकिन हार मान लेना कोई हल नहीं है। हमें अपने हिस्से की लड़ाई खुद लड़नी होगी।  

ये पूरा इंटरव्यू आप यहां देख सकते हैं:

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आलोचना को सकारात्मक रूप में लेकर पत्रकारिता को बेहतर बनाना चाहिए: चित्रा त्रिपाठी

एक्सचेंज4मीडिया के सीनियर कॉरेस्पोंडेंट रुहैल अमीन ने उनसे उनकी प्रेरणादायक जर्नी, पत्रकारिता के बदलते स्वरूप और हिंदी पत्रकारिता की स्थिति पर चर्चा की।

Last Modified:
Monday, 10 March, 2025
ChitraTripathi

पत्रकारिता की दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाने वालीं चित्रा त्रिपाठी आज किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। गोरखपुर जैसे छोटे शहर से निकलकर राष्ट्रीय स्तर की पत्रकारिता तक का सफर तय करना आसान नहीं था, लेकिन उन्होंने अपनी मेहनत, लगन और आत्मविश्वास से इसे संभव बनाया। एक्सचेंज4मीडिया के विशेष कार्यक्रम Women in Media, Digital & Creative Economy Summit के दौरान सीनियर कॉरेस्पोंडेंट रुहैल अमीन ने उनसे उनकी प्रेरणादायक जर्नी, पत्रकारिता के बदलते स्वरूप और हिंदी पत्रकारिता की स्थिति पर चर्चा की। आइए, जानते हैं उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी।

सबसे पहले हम आपकी जर्नी के बारे में जानना चाहेंगे। एक छोटे शहर गोरखपुर से लेकर राष्ट्रीय राजधानी तक का यह सफर कैसे तय हुआ?

मुझे मीडिया इंडस्ट्री में 20 साल से ज्यादा हो गए हैं, लेकिन खास बात यह है कि मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई नहीं की। मैंने डिफेंस स्टडीज में एमए किया है और गोरखपुर यूनिवर्सिटी में अपने विषय में टॉपर रही हूं। मेरी जर्नी काफी दिलचस्प रही है।

एनसीसी में मेरी बहुत रुचि थी और लोग कहते थे कि मैं आर्मी में जाऊंगी। 2001 में, जब अटल बिहारी वाजपेयी जी प्रधानमंत्री थे, मैंने गार्ड ऑफ ऑनर कमांड किया और मुझे गोल्ड मेडल मिला। उसी दौरान गोरखपुर में एक लोकल चैनल ‘सत्या टीवी’ लॉन्च हुआ, जिसमें एक घंटे की न्यूज़ पढ़ने के लिए 100 रुपये मिलते थे। दोस्तों ने कहा, ‘तुम्हारी हिंदी अच्छी है, तुम जाकर बोलो।’ मैंने यह चैलेंज लिया और वहां से मेरी जर्नी शुरू हो गई।

धीरे-धीरे, मैंने ‘दूरदर्शन’ के कृषि दर्शन कार्यक्रम में भी काम किया, जहां मुझे खेती से जुड़े कार्यक्रम करने का मौका मिला। फिर, मैं ईटीवी हैदराबाद चली गई और एक साल बाद दिल्ली आ गई। यहां से मेरे नेशनल चैनलों में काम करने की शुरुआत हुई।

जब आप छोटे शहर से आईं, तो क्या कभी लगा कि यह किसी तरह का डिसएडवांटेज था?

बिल्कुल! जब हम छोटे शहरों से बड़े शहरों में आते हैं, खासकर हिंदी बेल्ट की लड़कियां जिनकी अंग्रेजी थोड़ी कमजोर होती है, तो शुरुआत में हमें कम आंका जाता है। एक तरह का परसेप्शन बना हुआ था कि जो अंग्रेजी में धाराप्रवाह नहीं हैं, वे उतने सक्षम नहीं हैं। लेकिन समय के साथ चीजें बदलीं। अटल बिहारी वाजपेयी जी की सरकार और फिर 2014 में आई नरेंद्र मोदी सरकार ने हिंदी को बहुत बढ़ावा दिया। इससे हमें आत्मविश्वास मिला और आज स्थिति यह है कि देशभर में लोग हमें पहचानते हैं।

क्या आपको लगता है कि छोटे शहरों से आने वाले पत्रकारों का ग्राउंड कनेक्शन ज्यादा मजबूत होता है?

बिल्कुल! जब हम छोटे शहरों से आते हैं, तो जमीनी हकीकत को बेहतर समझते हैं। रिपोर्टिंग करते वक्त यह अनुभव बहुत काम आता है।

2014 की कश्मीर बाढ़ के दौरान जब मैं रिपोर्टिंग कर रही थी, तब हालात बहुत मुश्किल थे। हमें कई बार इंडियन मीडिया के खिलाफ प्रदर्शन झेलने पड़े। वहां हमने एक गुरुद्वारे में जाकर लंगर खाया, क्योंकि पांच दिन से सिर्फ मैगी खा रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में खुद को ढालना और मजबूती से रिपोर्टिंग करना, यह अनुभव छोटे शहरों से आने वाले पत्रकारों के लिए अधिक स्वाभाविक होता है।

आपकी एक रिपोर्टिंग से एक गांव की महिला को राष्ट्रपति अवाॉर्ड मिला था। क्या आप उसके बारे में बता सकती हैं?

जी हां, यह उत्तर प्रदेश के बहराइच के टेढ़िया गांव की कहानी है। 2014 तक, 5000 की आबादी वाला यह गांव वोट डालने के अधिकार से वंचित था। वहां पर बिजली नहीं थी, पानी के लिए महिलाओं को संघर्ष करना पड़ता था। जब मुझे इसकी जानकारी मिली, तो मैंने वहां जाकर स्टोरी की।

गांव की महिलाओं ने हमारा स्वागत ‘जय आज़ादी’ कहकर किया, जो हमें थोड़ा अजीब भी लगा क्योंकि वहां बुनियादी सुविधाएं तक नहीं थीं। मैंने इस स्टोरी को कवर किया और इसकी वजह से एक 65 वर्षीय महिला को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के हाथों ‘100 वुमन अवॉर्ड’ मिला। यह मेरे करियर के सबसे गर्व भरे लम्हों में से एक है।

आजकल पत्रकारिता की आलोचना होती है कि यह जमीन से कट रही है। आप इस पर क्या सोचती हैं?

आलोचना दो तरह की होती है- एक जो आगे बढ़ने में मदद करती है और एक जो सिर्फ खींचने के लिए होती है। जब हम मजबूत होते हैं, तो हमें आलोचना भी झेलनी पड़ती है। लेकिन हमें इससे घबराना नहीं चाहिए।

आज सोशल मीडिया बहुत प्रभावशाली हो गया है। जब हम सही काम कर रहे होते हैं, तो आलोचना होना स्वाभाविक है। हमें इसे सकारात्मक रूप में लेकर अपनी पत्रकारिता को और बेहतर बनाना चाहिए।

यहां देख सकते हैं पूरा इंटरव्यू:

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न्यूजरूम में जेंडर बैलेंस से ज्यादा 'जेंडर लेंस' की है जरूरत: रूपा झा

महिलाएं हर विषय में रुचि रखती हैं, चाहे वह चुनाव हो, राष्ट्रीय नीति हो या अंतरराष्ट्रीय संबंध। लेकिन मीडिया अक्सर उन्हें इन विषयों से अलग कर देता है।

Last Modified:
Monday, 10 March, 2025
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मीडिया सिर्फ खबरें नहीं दिखाता, यह समाज की सोच को आकार भी देता है। लेकिन क्या हमारे न्यूजरूम्स में जेंडर सेंसिटिविटी को उतनी ही प्राथमिकता दी जाती है जितनी जरूरी है? क्या महिलाओं और अन्य जेंडर्स को मीडिया में समान प्रतिनिधित्व मिल रहा है? इन्हीं अहम सवालों पर मंथन करने के लिए एक्सचेंज4मीडिया ने अपने विशेष कार्यक्रम Women in Media, Digital & Creative Economy Summit में खास पैनल आयोजन किया गया, जिसका विषय था— 'राइटिंग द नैरेटिव: द रोल ऑफ जेंडर सेंसिटिव जर्नलिज्म इन शेपिंग ए मोर इक्वल मीडिया', यानि यह विषय इस बात पर केंद्रित है कि किस तरह पत्रकारिता में जेंडर सेंसिटिविटी (लिंग संबंधी संवेदनशीलता) को अपनाकर मीडिया को अधिक समावेशी और समानता पर आधारित बनाया जा सकता है और इस चर्चा को और गहराई देने के लिए इस कार्यक्रम में मौजूद रहीं 'द कलेक्टिव न्यूजरूम' की को-फाउंडर और सीईओ, रूपा झा। कार्यक्रम का संचालन समाचार4मीडिया के संपादक पंकज शर्मा ने किया।

दोनों के बीच हुई बातचीत का प्रमुख अंश:

सबसे पहले हम 'जेंडर सेंसिटिव जर्नलिज्म' शब्द को समझना चाहेंगे। यह क्या है? अभी भी कई लोग इसे ठीक से नहीं समझते, खासकर हिंदी भाषी समुदाय में।

देखिए, 9 मार्च को हम सभी महिलाओं की विजिबिलिटी के बारे में अधिक चर्चा करते हैं, और यह महत्वपूर्ण है। जेंडर सेंसिटिव जर्नलिज्म एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसमें पत्रकारिता को समानता और समावेशिता के नजरिए से देखा जाता है। दरअसल, दुनिया की आधी आबादी महिलाएं हैं, तो मीडिया में भी आधी भागीदारी, आधा प्रतिनिधित्व और आधे निर्णय महिलाओं के होने चाहिए। लेकिन ऐतिहासिक रूप से, समाज और मीडिया पुरुष प्रधान दृष्टिकोण से संचालित होता रहा है। इसलिए, अब एक संतुलित और संवेदनशील पत्रकारिता की जरूरत है, जहां महिलाओं और अन्य जेंडर्स को समान अवसर और प्रतिनिधित्व मिले।

जब हम जेंडर की बात करते हैं, तो अक्सर न्यूजरूम में महिलाओं की संख्या को मापा जाता है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या वे अहम फैसलों का हिस्सा हैं? क्या उनकी राय ली जाती है?

बिल्कुल, यही असल मुद्दा है। केवल न्यूजरूम में महिलाओं की गिनती कर लेना काफी नहीं है। यह सिर्फ एक प्रारंभिक कदम है। असली चुनौती यह है कि न्यूजरूम में जेंडर बैलेंस से ज्यादा 'जेंडर लेंस' की जरूरत है।

जेंडर लेंस का मतलब है कि हम समाज में स्थापित पुरुषवादी सोच को पहचानें और उसे चुनौती दें। मीडिया अक्सर बिना जाने या समझे जेंडर आधारित भेदभाव को दोहराता रहता है। इसीलिए हमें यह समझने की जरूरत है कि महिलाओं की भागीदारी सिर्फ न्यूजरूम तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि उनके विचार और दृष्टिकोण भी न्यूज कवरेज का हिस्सा बनने चाहिए।

क्या आपको लगता है कि मुख्यधारा की मीडिया महिलाओं के मुद्दों को पर्याप्त रूप से कवर कर रही है? या ये मुद्दे सिर्फ डिजिटल और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म तक सीमित रह गए हैं?

नहीं, मुख्यधारा की मीडिया अभी भी महिलाओं के मुद्दों को पूरी तरह कवर नहीं कर रही। मीडिया में अब भी महिलाओं के मुद्दों को पारंपरिक ढंग से देखा जाता है। महिलाओं के लिए बनाई गई खबरों में अक्सर सौंदर्य, परिवार, करवा चौथ, फैशन जैसी बातें प्रमुख होती हैं। लेकिन क्या महिलाओं के लिए राजनीति, अर्थव्यवस्था और टेक्नोलॉजी के मुद्दे कम महत्वपूर्ण हैं? बिल्कुल नहीं। महिलाएं हर विषय में रुचि रखती हैं, चाहे वह चुनाव हो, राष्ट्रीय नीति हो या अंतरराष्ट्रीय संबंध। लेकिन मीडिया अक्सर उन्हें इन विषयों से अलग कर देता है। अगर मीडिया सही तरीके से महिलाओं के मुद्दों को शामिल करे, तो उनका नजरिया और भागीदारी दोनों ही बढ़ सकते हैं।

सोशल मीडिया ने महिलाओं को एक प्लेटफॉर्म जरूर दिया है, लेकिन इसके साथ ऑनलाइन ट्रोलिंग भी बढ़ी है। साथ ही, महिलाओं की निजी जिंदगी को पुरुषों की तुलना में ज्यादा हाईलाइट किया जाता है। आपकी क्या राय है?

यह बिल्कुल सही बात है। यह समस्या गहरी सामाजिक सोच से जुड़ी है।

मीडिया में महिलाओं को अक्सर एक 'ऑब्जेक्ट' की तरह दिखाया जाता है। उदाहरण के लिए, अगर हम मधुबाला पर कोई रिपोर्ट बनाते हैं, तो हेडलाइन होती है - "मधुबाला जिसे देखकर शम्मी कपूर खाना खाना भूल गए"। क्यों? मधुबाला एक महान अभिनेत्री थीं, तो उनकी प्रतिभा पर बात क्यों नहीं होती? पुरुषों के मामले में ऐसा नहीं होता।

राजनीति में भी देखिए - अगर पांच खूबसूरत महिला उम्मीदवार चुनाव में खड़ी हैं, तो मीडिया उन्हें "चुनावी दंगल की पांच हसीन चेहरे" कहता है। क्या पुरुषों के लिए इस तरह की हेडलाइन दी जाती हैं? यही जेंडर भेदभाव है, जिसे हमें बदलने की जरूरत है।

यदि मीडिया संस्थानों को जेंडर इक्वलिटी को बढ़ाने के लिए कदम उठाने हों, तो आप तीन प्रमुख सुझाव क्या देंगी?

मेरे पास सिर्फ सुझाव नहीं हैं, बल्कि अनुभव भी है। मैंने बीबीसी इंडिया की हेड के रूप में काम किया है और अब 'द कलेक्टिव न्यूजरूम' का संचालन कर रही हूं। मैंने बदलाव को होते देखा है।

तीन प्रमुख सुझाव:

  1. संस्थानों को यह स्वीकार करना होगा कि जेंडर असमानता उनकी भी समस्या है। जब तक वे यह नहीं मानेंगे, बदलाव संभव नहीं है।

  2. महिलाओं को सिर्फ संख्या के आधार पर न आंका जाए, बल्कि उन्हें निर्णय लेने की भूमिका में भी रखा जाए।

  3. मीडिया में भाषा और रिपोर्टिंग के तरीकों में बदलाव किया जाए। उदाहरण के लिए, "ऑनर किलिंग" शब्द का इस्तेमाल क्यों किया जाता है? इसे "हत्यारा अपराध" कहा जाना चाहिए। ऐसे ही कई शब्द और धारणाएं बदलने की जरूरत है।

यहां देखें वीडियो:

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नेशनल के मुकाबले लोकल ऐडवर्टाइजर्स 50% अधिक कीमत देने को तैयार: पुनीत गोयनका

ZEEL के CEO पुनीत गोयनका ने टेलीविजन विज्ञापन में गिरावट पर चर्चा करते हुए कहा, "टीवी अब भी 90 करोड़ लोगों का माध्यम है।"

Last Modified:
Thursday, 06 March, 2025
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ZEEL के CEO पुनीत गोयनका ने टेलीविजन विज्ञापन में गिरावट पर चर्चा करते हुए कहा, "टीवी अब भी 90 करोड़ लोगों का माध्यम है।" उन्होंने बिजनेस स्टैंडर्ड को दिए गए एक इंटरव्यू में सोनी के साथ असफल विलय, ऐड मार्केट में गिरावट, DD फ्री डिश और नेटवर्क के भविष्य को लेकर अपने विचार साझा किए।

भारत के सबसे बड़े ब्रॉडकास्टर्स में से एक, ZEE, जो 17% दर्शक हिस्सेदारी रखता है, सोनी पिक्चर्स नेटवर्क्स इंडिया (SPNI) के साथ विलय करने वाला था। लेकिन जनवरी 2024 में यह समझौता टूट गया। गोयनका ने बताया कि उन्होंने अपनी ओर से पूरी कोशिश की, लेकिन हर प्रक्रिया अपेक्षा से अधिक समय ले रही थी।

उन्होंने कहा कि इस विलय को पूरा करने में काफी समय उन पक्षों के साथ समझौता करने में लगा, जिन्होंने आपत्ति जताई थी, जिनमें से कुछ मुद्दे ZEE से जुड़े भी नहीं थे। कंपनी ने विवादों का निपटारा कर प्रक्रिया को तेज करने का प्रयास किया, लेकिन फिर भी विलय पूरा नहीं हो सका। उन्होंने कहा, "समय अपनी जगह है और अदालतें अपनी।"

$940 मिलियन के स्टार-ICC अधिकार समझौते को विलय में रोड़ा बताया जा रहा था। इस पर गोयनका ने कहा, "अगर यह उनके (सोनी के) सिस्टम में था या नहीं, मैं नहीं कह सकता। जिस दिन हमें यह डील मिली, हमने उन्हें जानकारी दी और उन्होंने इस पर हस्ताक्षर किए।"

मेटा और यूट्यूब के साथ प्रतिस्पर्धा पर बात करते हुए गोयनका ने कहा कि ZEE के लिए खुद को अलग बनाना जरूरी है और इन प्लेटफॉर्म्स की नकल करना संभव नहीं है। उन्होंने कहा, "वे पूरी तरह से यूजर-जनरेटेड कंटेंट पर निर्भर हैं। उनके पास कोई बौद्धिक संपदा नहीं है।"

विज्ञापन को लेकर अपनी चिंता जाहिर करते हुए उन्होंने कहा कि ZEE ने इंडस्ट्री के मुकाबले सबसे कम गिरावट का सामना किया है। जहां इंडस्ट्री की विज्ञापन आय में 12-13% की गिरावट आई, वहीं ZEE का नुकसान सिर्फ 3.5-4% तक सीमित रहा। उन्होंने दोहराया, "टीवी अब भी 90 करोड़ लोगों का माध्यम है।"

गोयनका ने राष्ट्रीय ब्रैंड्स की तुलना में क्षेत्रीय और स्थानीय FMCG ब्रैंड्स को प्राथमिकता देने की बात कही। उन्होंने कहा, "इसमें अधिक मेहनत लगती है, लेकिन लोकल कंपनियां नेशनल ब्रैंड्स की तुलना में 50% ज्यादा कीमत करने के लिए तैयार रहती हैं।"

उन्होंने Zee Anmol को DD Free Dish से हटाने के फैसले को इंडस्ट्री द्वारा लिया गया सामूहिक निर्णय बताया। हालांकि, फ्री-टू-एयर बाजार से दूर रहने के बाद, उन्होंने कहा कि चैनल फिर से DD Free Dish पर लौटेगा ताकि खो रहे दर्शकों को वापस लाया जा सके।

गोयनका ने यह भी खुलासा किया कि नेटवर्क गेमिंग में प्रवेश करने पर विचार कर रहा है, भले ही उसका मुख्य ध्यान अभी भी लीनियर टेलीविजन, डिजिटल, मूवीज और म्यूजिक पर केंद्रित है।

ZEEL के CEO ने कहा कि वह किसी भी प्रकार के इन्वेस्टमेंट, मर्जर या डील पर विचार करने के लिए तैयार हैं, बशर्ते कि यह उनके शेयरधारकों, कर्मचारियों और उनके खुद के हित में हो।

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IPL की स्ट्रीमिंग रहेगी फ्री या आएगा पेवॉल, इस पर JioStar के ईशान चटर्जी ने कही बड़ी बात

IPL के प्रमुख डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के मुकाबले अपनी स्थिति मजबूत करने के प्रयासों को बेहतर समझने के लिए e4m ने ईशान चटर्जी (चीफ बिजनेस ऑफिसर, स्पोर्ट्स रेवेन्यू, SMB & क्रिएटर, JioStar) से बातचीत की।

Last Modified:
Monday, 03 March, 2025
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अदिति गुप्ता, असिस्टेंट एडिटर, एक्सचेंज4मीडिया ।।

इंडियन प्रीमियर लीग (IPL) हमेशा से विज्ञापनदाताओं के लिए एक प्रमुख आयोजन रहा है, जो ब्रैंड्स को अपने विशाल दर्शकों तक पहुंचने का शानदार अवसर प्रदान करता है। जियो और स्टार के विलय के बाद, IPL विज्ञापन जगत में पहले से भी बड़ी ताकत बन चुका है।

इस सीजन में टूर्नामेंट ने कई प्रमुख स्पॉन्सर्स  को अपने साथ जोड़ा है। सूत्रों के मुताबिक, कैंपा और My11Circle (जिनके बारे में एक्सचेंज4मीडिया पहले ही रिपोर्ट कर चुका है) के अलावा, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) और अमूल भी अब इस सूची में शामिल हो गए हैं।

विलय के बाद के विज्ञापन जगत की रणनीतियों, नए जुड़ाव के तरीकों और IPL के प्रमुख डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के मुकाबले अपनी स्थिति मजबूत करने के प्रयासों को बेहतर समझने के लिए, एक्सचेंज4मीडिया ने ईशान चटर्जी (चीफ बिजनेस ऑफिसर, स्पोर्ट्स रेवेन्यू, SMB & क्रिएटर, JioStar) से बातचीत की। उन्होंने IPL 2025 को आकार देने वाले प्रमुख कदमों, विज्ञापन के अवसरों और बाजार की प्रमुख प्रवृत्तियों पर अपनी राय साझा की।

IPL गूगल और मेटा जैसी बड़ी टेक कंपनियों की तुलना में ज्यादा जुड़ाव (एंगेजमेंट) कैसे सुनिश्चित कर रहा है? साथ ही, ब्रेन मैपिंग न्यूरोसाइंस स्टडी और JioStar के विज्ञापनदाताओं के साथ शहरों में किए गए क्लोज़-डोर सेमिनार के बारे में बताएं।

हमारे कुछ बड़े विज्ञापन साझेदारों के पास बहुत उन्नत मॉडल हैं, जो यह सटीक रूप से बताते हैं कि IPL पर किए गए उनके विज्ञापन खर्च से उन्हें कितना रिटर्न मिल रहा है। लेकिन यह सभी प्रकार के विज्ञापनदाताओं के लिए सच नहीं हो सकता।

हम जिन बड़े सवालों का जवाब देने की कोशिश कर रहे थे, उनमें से एक यह था कि IPL या किसी लाइव स्पोर्ट्स इवेंट को देखने वाले दर्शकों की सहभागिता (एंगेजमेंट) का स्तर उतना ही होता है जितना कि वे यूजर-जनरेटेड कंटेंट (UGC) या अन्य ओटीटी कंटेंट पर अनुभव करते हैं या नहीं। इस न्यूरॉन स्टडी को खासतौर पर डिजाइन किया गया था, जिसमें हमने अत्याधुनिक तकनीक का उपयोग करके आंखों की गतिविधियों को ट्रैक किया। इसका मकसद यह जानना था कि जब कोई व्यक्ति लाइव स्पोर्ट्स इवेंट के दौरान विज्ञापन देखता है तो उसकी एंगेजमेंट लेवल कितना होता है, बनाम जब वह यूजीसी या अन्य प्लेटफॉर्म्स पर विज्ञापन देखता है। इस अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ कि लाइव स्पोर्ट्स के दौरान विज्ञापन देखने पर दर्शकों की सहभागिता अन्य कंटेंट शैलियों और ओटीटी प्लेटफॉर्म्स की तुलना में काफी अधिक होती है।

जहां तक विज्ञापनदाताओं के साथ हमारी बैठकों की बात है, तो जैसा कि आप जानते हैं, IPL के करीब आते ही हम नियमित रूप से उनके साथ बातचीत करते हैं। हालांकि, दो विशेष आउटरीच कार्यक्रम बहुत महत्वपूर्ण रहे। पहला, हमारी Nielsen के साथ हालिया साझेदारी, जो विशेष रूप से FMCG विज्ञापनदाताओं के लिए प्रासंगिक है। यह सहयोग हमारे अभियान पहुंच मेट्रिक्स की थर्ड-पार्टी वैधता (थर्ड-पार्टी वैलिडेशन) सुनिश्चित करता है, जिससे केवल हमारे डेटा पर ही निर्भरता नहीं रहती। Nielsen अब हमारे साथ एक समर्पित डेटा पाइपलाइन का उपयोग कर रहा है और अपनी ऑडियंस मेजरमेंट विशेषज्ञता लागू कर रहा है। इसका मतलब है कि किसी प्रमुख विज्ञापनदाता के लिए अब Nielsen हमारे अभियान की पहुंच और मेट्रिक्स को प्रमाणित कर रहा है, जिससे इसकी विश्वसनीयता और अधिक बढ़ जाती है।

IPL 2025 में छोटे व्यवसायों के लिए क्या पहल की जा रही हैं?

JioHotstar ने TATA IPL 2025 को "Year of the Advertisers" यानी विज्ञापनदाताओं का साल घोषित किया है, जिसमें हर ब्रांड के लिए समाधान और अवसर प्रदान किए जाएंगे। छोटे और मध्यम आकार के व्यवसायों (SMBs) से राजस्व बढ़ाने पर विशेष ध्यान देने के साथ, JioHotstar ने 10 शहरों में SMB आउटरीच प्रोग्राम शुरू किया है। इस पहल का उद्देश्य छोटे और मध्यम व्यवसायों को IPL की ताकत से जोड़ना है, ताकि वे भी इस मंच के जरिए अपनी वृद्धि को तेज कर सकें—सिर्फ बड़े कॉरपोरेट ब्रांड ही नहीं, बल्कि छोटे व्यवसायों के लिए भी यहां मौके उपलब्ध हैं।

JioHotstar छोटे व्यवसायों को ध्यान में रखते हुए किफायती पैकेज, टार्गेटेड विज्ञापन विकल्प, विभिन्न प्रकार के विज्ञापन प्रारूप और क्रिएटिव सपोर्ट जैसी सुविधाएं दे रहा है। SMB समुदाय से इस पहल को सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली है, और इस कार्यक्रम ने एक नई लहर के रूप में छोटे विज्ञापनदाताओं को आकर्षित किया है, जिससे वे TATA IPL मंच का उपयोग कर अपने व्यवसाय को बढ़ा सकें।

लोकेशन-बेस्ड टार्गेटिंग इस पहल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उदाहरण के लिए, यदि आप एक रियल एस्टेट डेवलपर या ऑटोमोबाइल डीलर हैं और आप किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र में विज्ञापन केंद्रित करना चाहते हैं, तो JioHotstar अब सटीक टार्गेटिंग की सुविधा प्रदान कर रहा है। यह उन SMBs के लिए बेहद फायदेमंद है जो स्थानीय स्तर पर मार्केटिंग करना चाहते हैं।

साथ ही, JioHotstar यह धारणा तोड़ना चाहता है कि IPL पर विज्ञापन देने के लिए बहुत बड़े बजट की जरूरत होती है। विभिन्न टार्गेटिंग रणनीतियों और किफायती विज्ञापन विकल्पों के माध्यम से यह दिखाया जा रहा है कि छोटे व्यवसायों के लिए भी IPL विज्ञापन किफायती और प्रभावी हो सकता है। जमीन पर सक्रिय प्रचार अभियानों और नई नवाचारों के साथ, JioHotstar को उम्मीद है कि IPL 2025 में रिकॉर्ड संख्या में छोटे व्यवसायों की भागीदारी देखने को मिलेगी।

IPL के विज्ञापन दरों में JioStar के विलय के बाद क्या बदलाव आया है? क्या विज्ञापनदाताओं को टीवी और डिजिटल पर कोई मूल्य लाभ मिल रहा है?

IPL विज्ञापन दरें इंडस्ट्री की मांग और आपूर्ति के आधार पर निर्धारित होती हैं। हमने पहले ही भारत-इंग्लैंड मैचों और चैंपियंस ट्रॉफी के लिए अपनी मूल्य निर्धारण रणनीति लॉन्च कर दी है। इनकी सकारात्मक प्रतिक्रिया को देखते हुए हमें विश्वास है कि यही रणनीति IPL 2025 में भी जारी रहेगी।

हमारी विज्ञापन दरें पहले से ही प्रभावी रूप से लागू हो चुकी हैं, और ये अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं। इससे हमें IPL 2025 के लिए भी मजबूत रुझान दिखाई दे रहा है।

IPL 2025 के लिए सेल्स व रेवन्यू लक्ष्य क्या हैं? यह पिछले साल की तुलना में कैसा रहेगा?

फिलहाल हमारे पास कोई सटीक आंकड़े साझा करने के लिए नहीं हैं, लेकिन IPL 2024 ने व्यूअरशिप और एंगेजमेंट के कई रिकॉर्ड तोड़े थे। टीवी पर इसे 525 मिलियन दर्शकों ने देखा था, जबकि डिजिटल (मोबाइल उपकरणों) पर 425 मिलियन दर्शकों ने इसे स्ट्रीम किया था। बॉर्डर-गावस्कर ट्रॉफी, भारत-इंग्लैंड सीरीज और अब चैंपियंस ट्रॉफी में जबरदस्त दर्शकों की भागीदारी को देखते हुए हमें विश्वास है कि IPL 2025 की व्यूअरशिप 1 बिलियन से अधिक होगी।

स्वाभाविक रूप से, इस बढ़ी हुई व्यूअरशिप के चलते हमें राजस्व में भी वृद्धि की उम्मीद है। हालांकि, IPL शुरू होने में अभी तीन सप्ताह बाकी हैं, इसलिए हमें देखना होगा कि चीजें कैसे आगे बढ़ती हैं। लेकिन विज्ञापनदाताओं की मांग काफी मजबूत नजर आ रही है, और हम इसे लेकर आशावादी हैं।

IPL 2025 के लिए कितने स्पॉन्सर जुड़े हैं? कौन-कौन सी कैटेगरी आगे चल रही हैं?

मुझे ब्रांड के नाम साझा करने की अनुमति नहीं है, क्योंकि आमतौर पर कंपनियां खुद अपनी IPL साझेदारी की घोषणा करना पसंद करती हैं। हालांकि, इस साल हमने बाजार को 40 श्रेणियों (कैटेगरी) में विभाजित किया है।

कुछ प्रमुख रुझान उभरकर सामने आए हैं। सबसे पहले, प्रीमियम विज्ञापन में बढ़ोतरी हुई है। अब विज्ञापनदाता CTV (कनेक्टेड टीवी), iOS डिवाइसेज़, 50,000 रुपये से अधिक कीमत वाले एंड्रॉइड फोन और HDTV यूजर्स को टारगेट कर सकते हैं, जिससे वे उच्च-स्तरीय (प्रीमियम) दर्शकों तक अधिक प्रभावी तरीके से पहुंच सकते हैं।

इसके अलावा, FMCG ब्रांडों के लिए महिलाओं पर केंद्रित विज्ञापन महत्वपूर्ण हो गया है। पिछले साल, IPL ने सिर्फ टीवी पर 200 मिलियन (20 करोड़) महिला दर्शकों को आकर्षित किया था, और इस सीजन में यह संख्या और बढ़ने की उम्मीद है।

कुछ सबसे सक्रिय श्रेणियों में पेय पदार्थ (गर्मियों की शुरुआत के कारण), एयर कंडीशनर, पंखे, पेंट्स, BFSI (बैंकिंग, वित्तीय सेवाएं और बीमा), फिनटेक, मोबाइल फोन हैंडसेट और फैंटेसी गेमिंग शामिल हैं।

तेजी से, कंपनियां अपने पूरे मार्केटिंग कैलेंडर को IPL के इर्द-गिर्द प्लान कर रही हैं, यह दर्शाते हुए कि भारत के विज्ञापन क्षेत्र में IPL का कितना बड़ा दबदबा है।

क्या IPL की स्ट्रीमिंग JioStar पर फ्री रहेगी, या इसे पेवॉल के पीछे कर दिया जाएगा?

हमारा उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि यूजर किसी भी पेवॉल (सशुल्क एक्सेस) तक पहुंचने से पहले कंटेंट के एक महत्वपूर्ण हिस्से का आनंद ले सकें। अभी तक हमने कोई निश्चित संख्या तय नहीं की है, क्योंकि हम अभी भी प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन फ्री एक्सेस काफी हद तक रहेगा—इतना कि यूजर पूरा मैच देख सकें।

यह रणनीति हमें एक संतुलन बनाने में मदद करती है—यूजर्स को हमारे प्लेटफॉर्म का अनुभव देने के लिए पर्याप्त समय देना, साथ ही विज्ञापनदाताओं के उद्देश्यों को पूरा करना। इस मॉडल की सफलता का सबसे अच्छा उदाहरण भारत-पाकिस्तान मैच है, जिसने अब तक की सबसे ज्यादा डिजिटल व्यूअरशिप दर्ज की थी। इस नतीजे ने हमें विश्वास दिलाया है कि हमारी रणनीति IPL 2025 में भी प्रभावी साबित होगी।

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