कोरोनावायरस (कोविड-19) का मीडिया इंडस्ट्री पर भी काफी असर दिखाई दे रहा है। एक तरफ जहां अखबारों का सर्कुलेशन प्रभावित हुआ है, वहीं इंडस्ट्री को मिलने वाले विज्ञापनों में काफी कमी आई है। ऐसे में इंडस्ट्री तमाम आर्थिक कठिनाइयों से जूझ रही है। हालांकि, कोरोनावायरस के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए देश में चल रहे लॉकडाउन के बीच टीवी चैनल्स की व्युअरशिप तो बढ़ी है, लेकिन विज्ञापन के मामले में इस व्युअरशिप का लाभ नहीं मिल पा रहा है, वहीं डिजिटल की पहुंच इन दिनों पहले से ज्यादा हुई है। क्या डिजिटल में आई यह वृद्धि बरकरार रहेगी और विज्ञापनदाता फिर से इंडस्ट्री की ओर रुख करेंगे? इन्हीं तमाम सवालों को लेकर समाचार4मीडिया ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ समूह के हिंदी न्यूज पोर्टल ‘जनसत्ता .कॉम’(jansatta.com) के एडिटर विजय झा से बातचीत की। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
कोरोनावायरस (कोविड-19) के कारण देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान टीवी की व्युअरशिप काफी बढ़ी है, डिजिटल में आप इसे किस रूप में लेते हैं?
वैसे तो टीवी और डिजिटल दोनों की ही व्युअरशिप बढ़ी है। वहीं ओवरऑल देखें, तो डिजिटल की व्युअरशिप ज्यादा बढ़ी है, क्योंकि इसका दायरा यदि व्यापक कर दें यानी इसमें ओटीटी प्लेटफॉर्म को भी शामिल कर लें तो डिजिटल की व्युअरशिप में बहुत ही ज्यादा बढ़त देखने को मिली है और ऐसा इसलिए क्योंकि इसकी पहुंच लोगों तक बाधित नहीं हुई है, लिहाजा इसकी व्युअरशिप बढ़ना स्वभाविक है।
टीवी और प्रिंट में विज्ञापन लगातार घटता जा रहा है, सरकार से इस दिशा में कदम उठाने की मांग हो रही है, डिजिटल पर विज्ञापन की क्या स्थिति है, इस बारे में कुछ बताएं?
विज्ञापन की बात करें तो कई सारी कंपनियों की गतिविधियां बंद होने के चलते विज्ञापन के दरवाजे अभी बंद है। ऐसे में प्रिंट हो, टीवी हो या डिजिटल, सब जगह विज्ञापन की स्थिति कमोबेश एक जैसी ही है। हां, एक बात और कि कुछ विज्ञापनों का स्वरूप बदला है और वह हर माध्यम में बदला है। टीवी, डिजिटल और प्रिंट में अब कुछ ऐसे प्रॉडक्ट्स के विज्ञापन आने लगे हैं, जो शायद पहले कभी नहीं आते थे। इनमें कुछ कंपनियों के प्रॉडक्ट्स ऐसे हैं जिससे लगता है कि कोरोना काल में उनकी उपयोगिता ज्यादा बढ़ सकती है, लिहाजा ऐसी कंपनियों ने अपने प्रॉडक्ट्स के विज्ञापन देने शुरू कर दिए हैं। लिहाजा इस तरह की कंपनियों ने विज्ञापन पर खर्च ज्यादा कम नहीं किया है, बाकी ऐसी कई कंपनियां हैं. जिनका काम और प्रॉडक्शन बंद हो गया है, सप्लाई भी बंद पड़ी है। इसलिए उन्हें विज्ञापन देने का कोई मतलब ही नहीं है। परिणाम स्वरूप इस डिवीजन में भी विज्ञापन की कमी रही है और मुझे लगता है आगे भी यह कमी एक दो-महीने तक रहेगी।
अन्य तमाम बिजनेस की तरह मीडिया भी इन दिनों काफी संकट से जूझ रही है। तमाम अखबार और मैगजींस का सर्कुलेशन प्रभावित हुआ है, तमाम मैगजींस को तो अपने प्रिंट एडिशन फिलहाल बंद करने पड़े हैं, डिजिटल पर इसका किस तरह असर पड़ा है?
अखबार या मैगजींस जो भी हैं, शुरू-शुरू में उनके सामने ये चुनौती जरूर रही कि उन्हें व्यापक तौर पर लोगों तक उपलब्ध कैसे कराया जाए और लोगों तक यह बताया कैसे जाए कि हमारा जो अखबार या मैगजीन है वह उसे डिजिटल फॉर्म में पढ़ सकते हैं। दूसरी तरफ चैलेंज यह भी रहा कि कुछ लोग डिजिटल पढ़ने में कम्फर्ट महसूस नहीं करते हैं। लिहाजा इसे मात देने के लिए टेक्नोलॉजी की मदद ली गई। वहीं, लोगों की भी मजबूरी रही क्योंकि फिजिकल फॉर्मेट में उनके पास कोई अखबार ही नहीं मिल रहा है, जिसके बाद उनके पास कोई चारा ही नहीं बचा। या तो वे पीडीएफ डाउनलोड करके पढ़ें या फिर साइट पर जाकर ई-पेपर पढ़ें। हालांकि ये मजबूरी जरूर रही, लेकिन मेरी राय में कंपनियों को एक अनुमान जरूर मिल गया होगा कि अखबार को डिजिटल फॉर्म में उपलब्ध कराया जाए, तो क्या चुनौतियां होंगी और किस तरह से लोगों तक इसको पहुंचाया जाए। मैं यहां कहना चाहूंगा कि मजबूरी में ही सही पर उनको एक्सपेरीमेंट करने का एक मौका जरूर मिला है।
वर्तमान हालातों को देखते हुए अपने पाठकों से जुड़े रहने के लिए तमाम मीडिया संस्थानों ने डिजिटल को और ज्यादा बढ़ावा देना शुरू कर दिया है, आपकी नजर में क्या प्रिंट के लिए यह खतरे की घंटी है?
डिजिटल प्रिंट के लिए खतरे की घंटी नहीं है, क्योंकि खतरे की जो बात पहले की जा रही थी, वही आज भी की जा रही है, लेकिन यहां एक नया चैलेंज जरूर आया है, जो कि विज्ञापन में कमी आना है। प्रिंट एडिशन निकालना काफी खर्चे वाला काम है। मौजूदा हालात स्थाई नहीं है। पता नहीं कि यह 3 महीने चलें, 4 महीने या फिर 6 महीने तक चलें, लेकिन मान लीजिए कि हालात 6 महीने तक भी ऐसे रहते हैं तो प्रिंट के लिए बहुत मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि इसकी लागत बहुत ही ज्यादा होती है।
जहां तक मुझे लगता है प्रिंट के लिए चैलेंज बढ़ गया है अगर प्रिंट सिकुड़ रहा है, तो डिजिटल को अपने आपको क्रेडिबल बनाना पड़ेगा, क्योंकि डिजिटल के सामने जो सबसे बड़ी समस्या है वह क्रेडिबिलिटी की। अगर कोई बड़ी और प्रभावशाली खबर डिजिटल पर आ जाए तो पाठकों का एक बड़ा वर्ग उस पर भरोसा नहीं करता है, नोटिस नहीं करता या फिर वह खबर चर्चा में नहीं आती है और इसका मुख्य कारण यही है कि डिजिटल अपने आपको उतना क्रेडिबल नहीं बना पाया है। डिजिटल मीडिया को यह जल्द से जल्द करना होगा और यदि वह अपनी क्रेडिबिलिटी नहीं बनाएंगे, तो प्रिंट के सिकुड़ जाने के बावजूद उन्हें उस तरह की स्वीकार्यता नहीं मिल पाएगी, जिस तरह प्रिंट की है। लिहाजा ज्यादातर लोग दूसरी तरफ जाने लगेंगे। जिन्हें लगता है कि सोशल मीडिया पर ऑथेंटिक सोर्स हैं, या यह हमारा परिचित है, या यह विश्वसनीय है जो कि गलत खबर नहीं दे सकता, वे उस ओर भी लोग जाने लग जाएंगे। क्योंकि आजकल सूचनाएं लोकलाइज्ड हो गईं हैं। लोकल इंफॉर्मेशन आज ग्लोबल स्तर तक सर्कुलेट हो रहीं हैं। ऐसे में यदि लोकलाइज्ड इंफॉर्मेशन जिन्हें चाहिए, वे उस लोकल ऑथेंटिक क्रेडिबल सोर्स पर जाने लग जाएंगे। हालांकि वो स्थित सही नहीं होगी, क्यों किसी भी स्थित में लोकल सोर्स होगा वह निष्पक्ष नहीं हो सकता है, वह जनपक्षधर नहीं हो सकता है, तो यह चैलेंज रहेगा। डिजिटल मीडिया को यह चाहिए कि वह क्रेडिबिलिटी के गैप को कितनी जल्दी और कितनी मजबूती से भर सकता है, तो वह उसके लिए बहुत ही फायदेमंद रहेगा।
वहीं, प्रिंट के सिकुड़ने की चर्चा और इस पर डिबेट काफी समय से हो रही है कि प्रिंट अगर सिकुड़ रहा है तो क्या डिजिटल को इसका फायदा होगा? डिजिटल का अपने पास सबसे बड़ा जो फायदा है वह है उसकी ‘ग्लोबल रीच’ का और यह फायदा हमेशा उसके पास रहेगा। वैसे डिजिटल के लिए यह एक चैलेंज भी है और एक अपॉर्चुनिटी भी है यानी आप वरदान भी कह सकते हैं और अभिशाप भी। यदि कोई गलत इंफॉर्मेशन ऑफ देते हैं, तो आपकी क्रेडिबिलिटी नहीं रहेगी। आपकी डिश-क्रेडिबिलिटी ग्लोबल लेवल पर जानी जाएगी, पहचानी जाएगी। ये अभिशाप है और वरदान यह है कि यदि क्रेडिबल इंफॉर्मेशन देते हैं तो आप ग्लोबल लेवल पर पहचाने जाएंगे। अखबार की एक सीमा है, इसलिए मेरी राय में इस संकट की वजह से प्रिंट मीडिया के सिकुड़ने की जो बात कही जा रही है, तो उसका डिजिटल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला, क्योंकि डिजिटल के लिए चैलेंज पहले भी थे और आज भी हैं। इस तरह के चैलेंजेस से डिजिटल जितनी जल्दी निकलेगा, उतना ही उसका फायदा होगा।
इस संकटकाल में आप और आपकी टीम किस तरह की स्ट्रैटेजी बनाकर काम कर रही है, इस बारे में कुछ बताएं?
मार्च से ही हमारी पूरी डिजिटल टीम वर्क फ्रॉम होम कर रही है, यानी ऐसा करते हुए अब करीब दो महीने हो गए हैं। लेकिन घर से काम करने पर कुछ तो फर्क पड़ता है, जिसका सीधा असर आउटपुट पर होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि घर से काम करने के अपने कुछ चैलेंजेज होते हैं। इंफ्रास्कचर संबंधी चैलेंजेज है। कई बार होता है कि घर की बिजली चली गई, या फिर नेट कनेक्टिविटी में कुछ समस्या उत्पन्न हो गई। हम लोग बस यही ज्यादा से ज्यादा कोशिश करते हैं कि जो चैलेंजेज आ रहे हैं उन्हें कैसे कम किया जाए। इसके लिए पहले हम लोग सेक्शन वाइज मीटिंग करते थे, लेकिन अब हम लोग कम्बाइंड मीटिंग कर लेते हैं, यानी सभी सेक्शन की मीटिंग एक साथ कर लेते हैं। इस तरह से रास्ता निकालकर कॉर्डिनेशन में जो समस्या होती है उसे कम कर लेते हैं।
कोरोना काल के बाद क्या डिजिटल मीडिया के क्षेत्र में आपको किसी तरह के बदलाव आने की उम्मीद दिखाई देती है?
डिजिटल मीडिया के क्षेत्र में एक जो बदलाव आने की उम्मीद है, वो है कि प्रिंट मीडिया यदि सिकुड़ रहा है तो इसका इम्पैक्ट टीवी पर तो नहीं पड़ने वाला है, क्योंकि टीवी का अपना इंफ्रास्टक्चर है, जो उसकी व्युअरशिप है, जो उसके काम करने का तरीका है वो स्थिर ही रहेगा। लेकिन कुछ अखबार मालिक कल को यदि ये तय कर लें कि हमे डिजिटल फॉर्म में ही अखबार को लोगों तक पहुंचाना है, तो डिजिटल मीडिया के लिए अतिरिक्त लाभ और चुनौतियां दोनों ही होंगी। इस तरह का बदलाव यदि आता है तो डिजिटल मीडिया को कैसे अपनी क्रेडिबिलिटी बनानी और बढ़ानी है, ये उसको देखना पड़ेगा। एक चैलेंज ये आएगा कि कैसे उसे अधिकांश पाठकों तक पहुंचाए, जैसा कि मैंने पहले कहा था।
आज हमारे पास मजबूरी है कि हमारे पास अखबार नहीं आ रहे हैं, जिसकी वजह से सूचनाओं के लिए हम टीवी देख रहे हैं, लेकिन यदि एक हफ्ते, दस या पंद्रह दिनों बाद टीवी भी मेरी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा, तो फिर हम अखबार ही मंगवाएंगे और अखबार नहीं मिलेगा, तो हम छोड़ देंगे। टीवी की व्युअरशिप खासकर नए शोज की व्युअरशिप यदि घटी है, तो उसका मुख्य कारण ये रहा है कि हमने टीवी नहीं देखा तो हमें लगता ही नहीं कि हमने कुछ मिस किया है। कुछ साल पहले तक ऐसा होता था कि यदि आज हमने अखबार नहीं पढ़ा, तो लगता था कि आज हमने कुछ मिस किया, लेकिन अब लोग कहते हैं कि ऐसा नहीं लगता, क्योंकि एक तो सूचना का स्रोत बढ़ा है, सूचना का पड़ाव बढ़ा है और सूचना का फैलाव हुआ है। लेकिन इस बीच अखबार ने अपने आपको नहीं बदला। मान लीजिए अभी की जो खबर आई वो हम जान गए, लेकिन कल वही खबर हमको अखबार में पढ़ने को मिलेगी, लिहाजा कल हमने अखबार नहीं पढ़ा तो हमें नहीं लगेगा कि हमने कुछ मिस किया। तो वही चीज है कि अखबार यदि अभी सिमटेगा और उसका लाभ डिजिटल को मिलेगा, तो डिजिटल को उस लाभ को बरकरार रखने के लिए अपनी जिम्मेदारी को और गंभीरता से लेना होगा और वो जिम्मेदारी क्रेडिबल बनने की है। यानी यूजर्स के मतलब की खबर देनी होगी, सही खबर देनी होगी।
रेवेन्यू के लिहाज से यह समय काफी मुश्किलों भरा है। ऐसे में सबस्क्रिप्शन मॉडल पर गौर किया जा रहा है, आपकी नजर में क्या इससे इसकी भरपाई हो सकती है और क्या यह मॉडल सफल होगा, इस बारे में आपके क्या विचार हैं?
भारत में सबस्क्रिप्शन का मॉडल अब रहा नहीं है और वैसे भी यह मॉडल कोई नया नहीं है। ‘द हिन्दू’ कई सालों से इस मॉडल पर चल रहा है। लिहाजा लंबे समय से इस मॉडल को अपनाए जाने और काफी बड़ी संख्या में सब्सक्राइबर्स जुटा लेने के बावजूद ‘द हिन्दू’ अखबार आज ये नहीं कह सकता है कि वह प्रॉफिट में आ गया है, या उसके सब्सक्राइबर्स की संख्या डिजिटल रीडरशिप जितनी है और उसकी तुलना में वह संतोषजनक है। सबस्क्रिप्शन का मॉडल भारत में अभी तक सफल रहा नहीं है। कोई भी पब्लिकेशन सब्सक्रिप्शन के नाम पर बस यही कर सकता है कि अगर उसका डिजिटल एडिशन लाने में खर्च हो गया और इससे उसका थोड़ा खर्च निकल रहा है, तो वह लागू कर सकता है। ये नहीं कह सकते हैं कि इस मॉडल के आधार पर कोई बिजनेस कर लेगा या फिर सर्वाइव कर लेगा। यहां तक कि इस मॉडल से खर्चा-पानी भी निकालना मुश्किल हो जाएगा।
दूसरा सवाल यहां ये भी है कि अखबार में ऐसा क्या है, ऐसी कौन सी जानकारी है जिसके लिए हम पैसे दें। प्रिंटेड अखबार के लिए हम जो पैसे दे रहे हैं, उसकी वजह ये है कि एक तो हमारी आदत में शुमार है, दूसरी वजह है उसकी क्रेडिबिलिटी, अब है या नहीं ये अलग बात है। पर एक परसेप्शन है कि अखबार क्रेडिबल है। लेकिन हम ई-पेपर के लिए पैसा क्यों दें, इसमें क्या है हमारे लायक जिसके लिए हम पैसे का भुगतान करें। आप कल जो हमको खबर पढ़ाएंगे, वो तो हम आज ही जान चुके हैं। इसलिए मुझे नहीं लग रहा कि सबस्क्रिप्शन का जो मॉडल है वह सफल हो पाएगा। मेरे ख्याल से मॉडल विशेषकर डिजिटल में तभी सफल होगा, जब लॉयल यूजर्स बनाए जाएंगे और वह भी ऐसे यूजर्स, जैसे कि अखबारों के हैं, जो उसके लिए पैसे दे रहे हैं। वैसे ही आपकी खबरों के लिए आपको पैसा दे। इसके लिए सबसे पहले आपको ऐसी क्रेडिबल इंफॉर्मेशन देनी पड़ेगी, जिसके पढ़ने के लिए लोग आपको पैसा देने के लिए तैयार हो सके। डिजिटल के लिए चुनौती ये भी है कि अखबार के मुकाबले यहां रिजेक्शन ज्यादा आसान है।
आखिरी सवाल, फेक न्यूज का मुद्दा इन दिनों काफी गरमा रहा है। खासकर विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर फेक न्यूज की ज्यादा आशंका रहती है। आपकी नजर में फेक न्यूज को किस प्रकार फैलने से रोका जा सकता है?
फेक न्यूज विशेषकर सोशल मीडिया साइट्स और प्रोपेगेंडा फैलाने वाले लोगों के जरिए ही फैलता है। न्यूज रूम में काम करने वाले लोगों का सिक्स सेंस यदि एक्टिव है, तो वे इसके जाल में नहीं फंसेंगे और वे समझ लेगें कि किसी एजेंडा के तहत इस खबर को आगे बढ़ाया जा रहा है। लिहाजा ऐसी खबरों से सिर्फ पाठकों के काम की ही खबर निकाल ली जाए और एजेंडा फैलाने वाली खबरों को छोड़ दिया जाए, तो इसे काफी हद तक कम किया जा सकता है। और यह सब न्यूज रूम में बैठे लोगों के सिक्स सेंस के जरिए ही हो सकता है।
फेक न्यूज जो फैलाता है, उसका तो एक एजेंडा होता है, लेकिन जिसका एजेंडा नहीं है, वो फैलाते हैं, तो वो इमोशनल होकर फैलाते हैं। इसलिए न्यूजरूम में हमें इमोशनल नहीं होना चाहिए और यदि इमोशन है तो सिर्फ जनता के प्रति होना चाहिए। जनता को ये नहीं लगना चाहिए कि लिखने वाला लेफ्ट है या राइट है। इसलिए यदि हमारा जन-पक्षधर नजरिया हो तो हम अपने आप फेक न्यूज को पहचान लेंगे। फिर जब हम लगातार काम करते हैं, लगातार एक्टिव रहते हैं, तो हमें पता होता है कि जो सोर्स है वो कितना ऑथेंटिक है।
वैसे हम लोग न्यूजरूम में हमेशा ये भी बताते रहते हैं कि ओरिजनल सोर्स पर ही खबर जानी चाहिए। यानी जो खबर आपको मिली है, उसका ऑरिजनल सोर्स क्या है। यदि आप ओरिजनल सोर्स तक चले गए, तो आपको पता चल जाएगा कि ये ऑथेंटिक है कि या नहीं है। वैसे आजकल टेक्नोलॉजी भी फेक न्यूज को रोकने में मदद कर रही है। कई सारे टूल्स है, जिनके जरिए वीडियो या फिर फोटो की पहचान की जा सकती है। आप ये देख सकते हैं कि ये वीडियो डॉक्टर्ड है या नहीं है। इस तरह के टेक्नीक की जानकारी है, तो भी आप क्रॉस चेक कर सकते हैं। कई लेवल पर क्रॉस चेक करने की जरूरत होती है, यानी अलग-अलग खबरों में अलग-अलग लेवल पर क्रॉस करने की जरूरत होती है। मान लीजिए किसी गांव से कोई खबर चली, तो आपने वहां के थाना इंचार्ज से बात कर ली, तो भी खबर कंफर्म हो जाएगी। इसलिए आप डिजिटली या फिजिकली तरीके से ऑरिजनल सोर्स तक पहुंच गए तो पता चल जाएगा कि कहीं ये खबर फेक न्यूज तो नहीं है।