तो क्या वजह है कि भारत में मैन्यूफ़ैक्चरिंग सेक्टर बढ़ नहीं पा रहा है? चीन ने भारत में इसमें पहले ही लीड ले ली थी। भारत में आर्थिक सुधार 1991 में हुए जबकि चीन में 1978 में हुए।
मिलिंद खांडेकर, मैनेजिंग एडिटर, तक चैनल्स, टीवी टुडे नेटवर्क।
भारत और चीन की जीडीपी 1990 में लगभग बराबर थी यानी दोनों देशों की अर्थव्यवस्था का आकार एक जैसा था। अब क़रीब 35 साल बाद चीन की अर्थव्यवस्था भारत से 6 गुना बड़ी है। चीन दुनिया का कारख़ाना बन गया है, हम मेक इन इंडिया के ज़रिए अब यही कोशिश कर रहे हैं। दस साल में यह कोशिश कितनी रंग लायी है उसका हिसाब किताब। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 25 सितंबर को मेक इन इंडिया के दस साल होने पर LinkedIn पर ब्लॉग लिखा। इसका सार है कि मेक इन इंडिया सफल है।
भारत मोबाइल फ़ोन, डिफ़ेंस और खिलौने बनाने में काफ़ी आगे बढ़ा है। 2014 में मोबाइल फ़ोन बनाने के दो कारख़ाने थे अब 200, भारत में इस्तेमाल हो रहे 99% फ़ोन यहीं बने हैं। तब 1500 करोड़ रुपये के फ़ोन एक्सपोर्ट हो रहे थे अब 1.28 लाख करोड़ रुपये। 2014 में डिफ़ेंस का सामान का एक्सपोर्ट 1000 करोड़ रुपये था, अब 21 हज़ार करोड़ रुपये। 85 देशों में हम डिफ़ेंस एक्सपोर्ट कर रहे हैं। 2014 के मुक़ाबले खिलौनों का एक्सपोर्ट 239% बढ़ा है। प्रधानमंत्री ने मन की बात में अपील की थी कि बच्चों के खिलौने तो हम अपने देश में बना सकते हैं।
सरकार ने जो आँकड़े दिए हैं वो सारे सही है लेकिन इसका दूसरा पहलू भी देखिए। मैन्युफ़ैक्चरिंग का जीडीपी में हिस्सा 2013-14 में 17.3% था, दस साल भी उतना ही है मतलब अर्थव्यवस्था में मैन्यूफ़ैक्चरिंग की हिस्सेदारी मेक इन इंडिया के बाद भी बढ़ी नहीं है। सरकार का लक्ष्य 2030 तक इसे 25% तक ले जाने का है। यह इतना आसान नहीं है। रोज़गार में मैन्यूफ़ैक्चरिंग की हिस्सेदारी थोड़ी सी कम हुई है। पहले हर 100 में से 12 लोग कारख़ाने में काम कर रहे थे और अब 11, दुनिया के एक्सपोर्ट में भारत की हिस्सेदारी पिछले 18 साल में दो गुना नहीं हो पायीं है।
2006 में 1% थी और अब 1.8%, दस साल पहले 1.6%. तो क्या वजह है कि भारत में मैन्यूफ़ैक्चरिंग सेक्टर बढ़ नहीं पा रहा है? चीन ने भारत में इसमें पहले ही लीड ले ली थी। भारत में आर्थिक सुधार 1991 में हुए जबकि चीन में 1978 में। चीन का फ़ोकस मैन्यूफ़ैक्चरिंग पर था। कारख़ानों से ज़्यादा लोगों को रोज़गार मिलता है जबकि हमारी अर्थव्यवस्था सर्विसेज़ की तरफ़ मुड़ गई। चीन दुनिया का कारख़ाना बना तो हम दुनिया के कॉल सेंटर। सर्विसेज़ उतनी नौकरियाँ नहीं दे सकता है जितना मैन्यूफ़ैक्चरिंग।
दुनिया की बड़ी कंपनियाँ चीन में सामान बनाना पसंद करती रही है क्योंकि वहाँ सस्ते मज़दूर थे, कारख़ाने लगाना आसान था और इंफ़्रास्ट्रक्चर अच्छा। भारत में सस्ते मज़दूर तो है लेकिन कारख़ाना लगाना या वहाँ से सामान पोर्ट तक पहुँचाना मुश्किल। पिछले दस सालों में इस पर काम हुआ है। इस सबके बीच कोरोनावायरस में चीन पर निर्भरता की क़ीमत दुनिया को चुकाना पड़ी है, इसलिए सभी कंपनियाँ चाइना प्लस वन की नीति पर काम कर रहे हैं यानी चीन के अलावा भी किसी दूसरे देश में सामान बनाना।
जैसे एप्पल iPhone में भी बना रहा है। यहाँ भी मुक़ाबला मैक्सिको, वियतनाम जैसे देशों से है। इन देशों के मुक़ाबले भारत में सामान बनाना महँगा है। सरकार का कहना है कारख़ाने के गेट पर तो सामान की क़ीमत बराबर है लेकिन इसे पोर्ट तक पहुँचाना भारत में महँगा पड़ता है। यही वजह है कि हमें सड़के, रेलवे, पोर्ट पर और काम करने की ज़रूरत है।
(वरिष्ठ पत्रकार मिलिंद खांडेकर 'टीवी टुडे नेटवर्क' के 'तक चैनल्स' के मैनेजिंग एडिटर हैं और हर रविवार सोशल मीडिया पर उनका साप्ताहिक न्यूजलेटर 'हिसाब किताब' प्रकाशित होता है।)
मैंने करीब दस साल दूरदर्शन समाचार में काम किया है और बारह साल प्राइवेट चैनलों में. प्राइवेट प्रोड्यूसर के तौर पर भी चैनलों के लिए सैकड़ों कार्यक्रम बनाए हैं.
मैंने करीब दस साल दूरदर्शन समाचार में काम किया है और बारह साल प्राइवेट चैनलों में. प्राइवेट प्रोड्यूसर के तौर पर भी चैनलों के लिए सैकड़ों कार्यक्रम बनाए हैं.
साफ साफ कहता हूँ कि हालाँकि दूरदर्शन का वरिष्ठ संवाददाता होने के नाते समाचार स्रोतों तक मेरी पहुँच ज़बरदस्त थी लेकिन पत्रकार के रूप में ज़्यादा संतुष्टि मुझे प्राइवेट चैनलों में ही मिली क्योंकि काम करने की आज़ादी प्राइवेट चैनलों में अपेक्षाकृत ज़्यादा थी.
दूरदर्शन तब भी कमोबेश सरकारी भौंपू ही था, हालाँकि हम दो चार लोग जो अख़बारों से लाए गए थे गाहे बगाहे कुछ खेल कर जाते थे ताकि अपने पत्रकार होने का एहसास बना रहे.
आज मामला उलट है. प्राइवेट चैनल दूरदर्शन से भी बड़े भोपू बन गए हैं. सत्ता का एजेंडा आगे बढ़ाने के क्रम में सारे चैनल एक दूसरे से होड़ ले रहे हैं कि कौन कितना गिर सकता है.
आपरेशन सिंदूर के दौरान क्या हुआ?
प्राइवेट चैनलों में होड़ लग गई कि कौन पाकिस्तान के कितने ज़्यादा शहरों को कितना तबाह कर सकता है. गंदगी फैलाने में इन चैनलों ने अपने ही रिकॉर्ड तोड़ डाले.
एक अकेला दूरदर्शन ही था जिसने पाकिस्तान के किसी शहर को तबाह करने की ख़बर नहीं चलाई. दूरदर्शन ने उतना ही झूठ/सच कहा जितना सरकार और उसके प्रवक्ता कह रहे थे- जितना ज़रूरी भी था. युद्ध में सबसे पहले आब्जेक्टिविटी ही क़ुर्बान होती है.लेकिन युद्ध में भी झूठ सोच समझकर बोला जाता है. पागलों की तरह नहीं.
प्राइवेट चैनलों के पास ये एक मौक़ा था जब वो अपनी खोई प्रतिष्ठा हासिल कर सकते थे. इसके लिए उन्हें सेना और सरकार के खिलाफ जाने की ज़रूरत नहीं थी. सिर्फ़ ये करना था कि इतने भद्दे झूठ न बोलते. इससे सरकार पर भी किसी हद तक दबाव बना रहता. ऐसा दबाव ज़रूरी है वरना सरकारी प्रतिष्ठानों के बेअंदाज होते देर नहीं लगती.
हमने देखा है कि यदि प्रेस ईमानदारी से सक्रिय रहती है तो सरकार सिर्फ़ उतना ही छिपा पाती है जितना देश हित में ज़रूरी हो.
लेकिन अगर प्रेस “वाच डाग“ बनने की जगह “लैपडाग” की तरह इधर उधर भौंकने लगे तो देश और समाज दोनों का नुक़सान करती है. ऑप-सिंदूर के दौरान ऐसा ही हुआ. प्रेस ने भी दुनिया में हमारी छवि कम ख़राब नहीं की.
हालाँकि आँकड़े बताते हैं कि ऑप-सिंदूर के दौरान नयूज चैनल देखने वालों की तादाद बढ़ी- कुल टीवी दर्शकों में न्यूज़ देखने वालो का प्रतिशत 6% से बढ़कर 16% हो गया था लेकिन ये हासिल करने के लिये चैनल वालो ने अपने मुँह पर जो कालिख पोती वो इतिहास में हमेशा हमेशा के लिए दर्ज हो गई है.
इसके उलट दूरदर्शन ने ठीक वो किया जो उससे अपेक्षा की जाती है. इसके लिए दूरदर्शन कर्मी साधुवाद के पात्र हैं।
(वरिष्ठ पत्रकार और उत्तराखण्ड राज्य सूचना आयोग के पूर्व सूचना आयुक्त प्रभात डबराल की फेसबुक पोस्ट से साभार)
कभी दुनिया के छठे सबसे अमीर व्यक्ति रहे अनिल अंबानी आज खुद को कंगाल घोषित कर चुके हैं। जानिए कैसे लोन, घोटालों और गलत फैसलों ने उनके साम्राज्य को गिरा दिया, और अब उनके पास क्या बचा है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
आज अनिल अंबानी अपने बड़े भाई मुकेश अंबानी के सामने कहीं नहीं ठहरते हैं। क़रीब 20 साल पहले दोनों भाई लगभग बराबरी पर खड़े थे। 2008 में अनिल अंबानी के पास 42 बिलियन डॉलर की संपत्ति थी और वे दुनिया के छठे सबसे अमीर व्यक्ति थे, जबकि मुकेश अंबानी 43 बिलियन डॉलर के साथ पाँचवें नंबर पर थे। लेकिन आज मुकेश की संपत्ति 125 बिलियन डॉलर के आसपास पहुँच चुकी है, वहीं अनिल अंबानी खुद को कंगाल घोषित कर चुके हैं। अब हिसाब-किताब करते हैं अनिल अंबानी का।
Enforcement Directorate (ED) ने गुरुवार को अनिल अंबानी की कंपनियों पर छापे मारे हैं। उन पर मनी लॉन्ड्रिंग (Money Laundering) का आरोप है। दूसरी तरफ़ स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने भी मुश्किल खड़ी कर दी है। उसने अनिल अंबानी की कंपनी RCom के लोन को फ़्रॉड घोषित किया है। अब CBI को केस भेजने की तैयारी हो रही है। दोनों ही मामले लोन के दुरुपयोग से जुड़े हुए हैं।
अनिल अंबानी की कंपनियों ने Yes Bank से ₹3000 करोड़ का लोन लिया था। आरोप है कि लोन जिस उद्देश्य से लिया गया था, उसकी जगह इस रकम का एक हिस्सा शेल कंपनियों में फर्जी सौदों के जरिए भेजा गया। फिर उन्हीं कंपनियों ने यह पैसा अनिल अंबानी की कंपनियों में वापस भेजा। इस पैसे का उपयोग पुराने लोन चुकाने में किया गया। यानि लोन के पैसे को घुमाकर पुराने लोन को चुकता किया गया। इसके अलावा Yes Bank के अधिकारियों को लोन के बदले में रिश्वत दी गई, जो इन शेल कंपनियों के माध्यम से चुकाई गई।
स्टेट बैंक ने अनिल अंबानी की कंपनी RCOM को ₹2200 करोड़ का लोन दिया था, जिसे इधर-उधर घुमाकर पुराने कर्ज चुकाने में इस्तेमाल किया गया। दरअसल, अनिल अंबानी तेज़ी से बिज़नेस फैलाने के चक्कर में लोन के जाल में ऐसे फँसे कि फिर बाहर नहीं निकल पाए। एक-एक करके उनकी कंपनियाँ डूबती गईं।
रिलायंस कैपिटल का 2008 में मार्केट कैप HDFC से ज़्यादा था। रिलायंस इंफोकॉम देश की दूसरी सबसे बड़ी टेलीकॉम कंपनी थी। रिलायंस के पास दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों में बिजली बेचने का काम था। रिलायंस के पास सबसे ज़्यादा मल्टीप्लेक्स थे। कंपनी बॉलीवुड और हॉलीवुड में फिल्में बना रही थी। धीरूभाई अंबानी के निधन के बाद जब दोनों बेटों में बँटवारा हुआ, तो अनिल के हिस्से टेलीकॉम, बिजली, फाइनेंस और एंटरटेनमेंट जैसे उभरते हुए बिज़नेस आए, जबकि मुकेश के पास ऑयल, गैस और पेट्रोकेमिकल्स। आज मुकेश अंबानी वही सारे बिज़नेस कर रहे हैं, जो कभी अनिल के पास थे। बिजली को छोड़कर।
अब अनिल अंबानी के पास दो प्रमुख कंपनियाँ बची हैं। रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर, रिलायंस पावर। यह कंपनियाँ अब मुनाफा कमाने लगी हैं। रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर का कर्ज उतर चुका है। रिलायंस पावर का कर्ज घट रहा है। एक साल में इंफ्रास्ट्रक्चर के शेयर 78% और पावर के शेयर 91% तक बढ़ गए हैं। दोनों कंपनियों ने खुद को अनिल अंबानी के खिलाफ कार्रवाई से अलग कर लिया है।
पिछले साल SEBI ने रिलायंस हाउसिंग में गड़बड़ी के आरोपों पर अनिल अंबानी को किसी भी लिस्टेड कंपनी में 5 साल तक कोई पद लेने से रोका है। वहाँ भी कर्ज बाँटने के नाम पर पैसे घुमाने का ही आरोप था। अब जबकि उनकी दो कंपनियाँ थोड़ा स्थिर हो रही हैं, पुराने आरोप और केस उनका पीछा नहीं छोड़ रहे।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
राजेंद्र यादव आगे कहते हैं कि यह अशोक और अनंत विजय जैसों की तरह ज्यादा पढ़ने और घूमने से उपजी हुई तकलीफ नहीं, बल्कि एक सुना सुनाया और आत्मप्रचार को सही सिद्ध करने का हथकंडा है।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
मई 2013 के अपने संपादकीय में 'हंस' पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव ने लिखा था, इधर हमारे अशोक वाजपेयी अपने रोजनामचे यानी कभी-कभार (साप्ताहिक स्तंभ) में अक्सर ही बताते रहते हैं कि उन्होंने देश-विदेश की किन गोष्ठियों में भाग लिया और उनकी तुलना में हिंदी कहां कहां और कितनी दरिद्र है। वस्तुत: यह सुनते सुनते मेरे कान पक गए हैं कि हम लोगों में क्या कमी है और हिंदी कहां कहां पिछड़ी हुई है। यह हिंदी वैशिंग मुझे मनोरोग जैसा लगने लगा है।
मेरे दफ्तर में आनेवाले ज्यादातर लोग जब हिंदी कविता और कहानियों की कमजोरी और कमियों का रोना रोते हैं तो उसके पीछे भावना यही होती है कि देखिए इन कमियों और कमजोरियों को किस तरह अपनी महान रचनाओं के द्वारा मैं पूरा कर रहा हूं। इस टिप्पणी में उaन्होंने मेरा भी नाम लिया था। राजेंद्र यादव आगे कहते हैं कि यह अशोक और अनंत विजय जैसों की तरह ज्यादा पढ़ने और घूमने से उपजी हुई तकलीफ नहीं, बल्कि एक सुना सुनाया और आत्मप्रचार को सही सिद्ध करने का हथकंडा है। लगता है या तो ये लोग केवल अपने बारे में बोल सकते हैं या हिंदी को लेकर छाती माथा कूटने की लत में लिप्त हैं।
कभी-कभी तो मुझे कहना पड़ता है कि हम हिंदुस्तानी या हिंदीवाले का रोदन बंद कीजिए और बताइए कि हमें क्या करना है। लगभग 12 वर्ष पहले यह संपादकीय लिखा गया था। समय का चक्र घूमा, राजेंद्र यादव का निधन हो गया। संजय सहाय हंस के संपादक बने। संपादक बदलने से पसंद नापसंद भी बदले। हंस पत्रिका अलग ही राह पर चल पड़ी।
जिस हिंदी वैशिंग को राजेंद्र यादव मनोरोग जैसा मानते थे उसी अशोक वाजपेयी के हिंदी, हिंदी साहित्य और हिंदी समाज के वैशिंग को हंस के जुलाई अंक में छह पृष्ठों में जगह दी गई है। राजेंद्र यादव के निधन के बाद पत्रिका की नीतियों में ये विचलन अलग विमर्श की मांग करता है। इस पर चर्चा फिर कभी। अशोक वाजपेयी के लेख पर विचार करते हैं जिसका शीर्षक है, हिंदी समाज ने आधुनिक हिंदी साहित्य को खारिज कर दिया है?
शीर्षक में जो प्रश्नवाचक चिह्न है उसका उत्तर अपने आलेख में खोजने का प्रयत्न किया है। अशोक वाजपेयी का यह लेख सामान्यीकरण और फतवेबाजी का काकटेल बनकर रह गया है। वाजपेयी को अपने द्वारा बनाई चलाई संस्थानों की विफलता और व्यर्थता का तीखा अहसास होता है। अपने इस एहसास में वे हिंदी विश्वविद्यालय को भी शामिल करते हैं जिसके वह पहले कुलपति थे। जिस हिंदी साहित्य की मृत्यु की संभावना अशोक वाजपेयी तलाश रहे हैं, उसी हिंदी साहित्य में एक कहावत है कि जैसा बोओगे वैसा काटोगे। हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर रहते हुए उसको दिल्ली से चलाना। मित्रों-परिचितों और उनके बेटे बेटियों को विश्वविद्यालय के विभिन्न पदों पर नियुक्त करना।
वर्षों बाद उसकी विफलता और व्यर्थता के अहसास में ऊभ-चूभ करके प्रचार तो हासिल किया जा सकता है, लेकिन इससे पाठकों को विमर्श के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता है। साहित्य की मृत्यु की संभावना की जगह आशंका जताते तो उचित रहता। अशोक वाजपेयी हिंदी समाज की व्यापक समझ पर भी प्रश्न खड़े करते हैं। वह कहते हैं कि हिंदी समाज कितना पारंपरिक रहा, कितना आधुनिक हो पाया है, इस पर विस्तार से विचार करने की आवश्यकता है। इसके फौरन बाद अपना निष्कर्ष थोपते हैं कि हमारी व्यापक सामाजिक समझ जितनी आधुनिकता की अधकचरी है, उतनी परंपरा की भी।
अब यहां अशोक जी से यह पूछा जाना चाहिए कि वह लंबे समय तक सरकार में रहे, कांग्रेसी मंत्रियों के करीबी रहे, संसाधनों से संपन्न रहे, लेकिन हिंदी समाज की समझ को विकसित करने के लिए क्या किया। दूसरों को कोसने से बेहतर होता है स्वयं का मूल्यांकन करना। यह देखना भी मनोरंजक है कि अशोक वाजपेयी आज के समय में वासुदेवशरण अग्रवाल और हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे मेधा के लेखक ढूंढ रहे हैं। अशोक जी साहित्य में परंपरा की अंतर्ध्वनि भी सुनना चाहते हैं। लेकिन इसके कारण पर नहीं जाते हैं।
हिंदी साहित्य में स्वाधीनता के पहले जो भारतीयता या हिंदू परंपरा थी उसको किस पीढ़ी ने बाधित किया। हिंदू या भारतीय परंपरा को खारिज करनेवाले कौन लोग थे। किन आलोचकों ने साहित्य में भारतीय परंपरा की जगह आयातित विचारों को तरजीह दी। हिंदी समाज से अगर भारतीयता की परंपरा नहीं संभली तो क्या हिंदी के साहित्यकारों ने उस पर उसी समय अंगुली उठाई। तब तो उसको प्रगतिशीलता बताकर जय-जयकार किया गया। परंपरा के अधकचरेपन को अशोक वाजपेयी हिंदुत्व के अधकचरेपन से भी जोड़ते हैं।
यहां यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि कैसे हिंदी समाज का मानस अधकचरेपन को स्वीकार करने के लिए तैयार किया गया। कैसे भारतेंदु से लेकर जयशंकर प्रसाद तक, कैसे मैथिलीशरण गुप्त से लेकर धर्मवीर भारती तक और कैसे दिनकर से लेकर शिवपूजन सहाय तक के भारतीय विचारों को हाशिए पर डालने का षड्यंत्र रचा गया। योजनाबद्ध तरीके से भारतीय विचारों पर मार्क्सवादी विचार लादे गए। आज अशोक वाजपेयी को हिंदी विभागों में विमर्श की चिंता सताती है, लेकिन जब वह कुलपति थे तो एक दो पत्रिका के प्रकाशन के अलावा हिंदी विभागों को उन्नत करने के लिए क्या किया?
ये बताते तो उनकी साख बढ़ती, अन्यथा सारी बातें बुढ़भस सी प्रतीत हो रही हैं। अशोक स्वयं मानते हैं कि डेढ़ दो सदियों पहले उत्तर भारत में उच्च कोटि की सर्जनात्मकता थी। उसका श्रेष्ठ भारत का श्रेष्ठ था। वह साहित्य, चित्रकला, स्थापत्य, संगीत आदि में उत्कृष्टता अर्जित कर सका। यहां भी कारण पर नहीं जाते हैं और ऐसा लगता है कि उनकी अपनी कुंठा इस लेख पर हावी हो गई है।
दिनकर बच्चन, पंत, प्रसाद, निराला की तरह अशोक वाजपेयी की कविता किसी भी पाठक को याद है। नहीं है। अशोक वाजपेयी को हिंदुत्व की विचारधारा से तकलीफ है। वह हिंदुत्व की विचाधारा को हिंदू धर्म चिंतन और अध्यात्म से अलग मानते हैं। दरअसल यहां भी वह इसी दोष के शिकार हो जाते हैं। अपने मन के भावों को लच्छेदार भाषा में पाठकों को भरमाते हैं। तर्क और तथ्य हों या न हों। पत्रकारिता को भी वह चालू मुहावरे में परिभाषित करने का प्रयास करते हैं। घिसे पिटे शब्द उठाकर लाते हैं। वह साहित्य के प्रतिपक्ष होने की कल्पना करते तो हैं, लेकिन अपने सक्रिय साहित्यिक जीवन को बिसरा देते हैं।
संस्कृति मंत्रालय में रहते हुए साहित्य अकादमी का पुरस्कार लेना कौन सा प्रतिपक्ष रच रहा था। दरअसल अशोक वाजपेयी जिस हिंदी समाज के पतन को लेकर चिंतित हैं, कमोबेश उन प्रदेशों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं। उनकी आलोचना करने के लिए उन्होंने साहित्य का मैदान चुना। राहुल गांधी की पैदल यात्रा में शामिल होकर वह अपनी प्रतिबद्धता सार्वजनिक कर ही चुके हैं।
इसलिए अशोक वाजपेयी के इस लेख की आलोचनाओं को उसी आईने में सिर्फ देखा ही नहीं जाना चाहिए, बल्कि उसका मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए। इस पूरे लेख को पढ़ने के बाद अशोक वाजपेयी के ही दशकों पूर्व अज्ञेय और पंत को निशाना बनाकर लिखे एक लेख का शीर्षक याद आ रहा है, बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाये। उस लेख में वाजपेयी ने लिखा था कम से कम हिंदी में तो कवि के बुजुर्ग होने का सीधा मतलब अकसर अप्रसांगिक होना है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
बिहार चुनाव बहिष्कार की धमकी और नक्सली भाषा में बात करते नेता ,क्या कांग्रेस और आरजेडी नेताओं का रवैया भारत में लोकतंत्र के लिए खतरा बन रहा है? पढ़िए इस गंभीर विश्लेषण में।
आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार, पद्मश्री, लेखक।
बिहार विधानसभा चुनाव से पहले तेजस्वी यादव द्वारा चुनाव बहिष्कार की धमकी और राहुल गांधी के रुख के साथ कांग्रेसी नेताओं का समर्थन नक्सली-माओवादी रास्ता दिखाने लगा है? इसलिए यह सवाल उठ रहा है कि बिहार एक बार फिर चुनावी राजनीति के बजाय हिंसा और अराजकता की तरफ बढ़ सकता है। बिहार में मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण का विरोध कर रहे राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने चुनावों के बहिष्कार की धमकी देते हुए कहा है, “हम लोग मिलकर चुनाव बहिष्कार पर विचार कर सकते हैं। यह विकल्प हमारे पास खुला है।” बिहार कांग्रेस के प्रभारी कृष्णा अल्लावरु ने भी चुनाव बहिष्कार के सवाल पर कहा कि सभी विकल्प खुले हैं, हम मिल-जुलकर निर्णय लेंगे। उन्होंने कहा कि यह चुनाव आयोग और (मुख्य चुनाव आयुक्त) ज्ञानेश कुमार की वोटर लिस्ट है। उन्होंने आगे कहा कि हम यह संघर्ष जारी रखेंगे और आवश्यकता पड़ी तो बड़ा से बड़ा निर्णय लेंगे। आने वाले समय में एक बड़ी लड़ाई की तैयारी है।
राहुल गांधी एक बार कह चुके हैं कि वह भारतीय राज्य से लड़ रहे हैं। यही भाषा माओवादियों की भी है। जिस कांग्रेस के छत्तीसगढ़ नेतृत्व का माओवादियों ने खात्मा कर दिया था, उसी कांग्रेस के नेता और तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ‘नक्सल आंदोलन’ को सामाजिक आंदोलन बता रहे हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों की वापसी कहीं दिख नहीं रही, लेकिन कुछ मामलों में उनकी और कांग्रेस की भाषा एक सी रहती है। एक समय में छत्तीसगढ़, बंगाल, ओडिशा, झारखंड, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र के बड़े हिस्सों पर उनका प्रभाव रहा था।
मोदी सरकार के सत्ता में आने के समय देश के लगभग एक-चौथाई जिलों में लाल आतंक कायम था। गृह मंत्रालय के अनुसार, 2013 में माओवाद प्रभावित जिलों की संख्या 126 थी। अप्रैल 2025 के आंकड़ों के अनुसार अब मात्र 18 जिलों में ही माओवाद का प्रभाव है। माओवाद कितना दुस्साहसी है, इसका अंदाज़ा दो घटनाओं से लगाया जा सकता है।
चुनाव बहिष्कार पर विचार करने के आरजेडी और कांग्रेस नेताओं के बयानों पर बीजेपी सांसद राजीव प्रताप रूड़ी ने कहा कि तेजस्वी को हार सामने दिख रही है, इसलिए बहाना बना रहे हैं। या तो उन्हें समझ आ गया है कि अगला चुनाव हाथ से निकल चुका है, इसलिए पहले ही मैदान छोड़ दो... या फिर कोई बड़ी राजनीति करना चाहते हैं।
निर्वाचन आयोग के अनुसार, बिहार में मतदाता सूची के पुनरीक्षण अभियान के तहत घर-घर जाकर किए गए सर्वेक्षण में अब तक 52 लाख से ज़्यादा मतदाता अपने पते पर मौजूद नहीं पाए गए हैं और 18 लाख से ज़्यादा लोगों की मृत्यु हो चुकी है। चुनाव आयोग ने पुनः या नए नाम जोड़ने के लिए हर नागरिक और राजनीतिक पार्टी को एक महीने का समय और दिया है। जब राजनीतिक पार्टियां लाखों सदस्य होने का दावा करती हैं, तो चुनाव मतदाता सूची में सुधार और नाम जुड़वाने में अपने कार्यकर्ता अथवा किसी प्राइवेट कंपनी से किराए पर लोग क्यों नहीं लगातीं? बिहार में मतदाता सूची संशोधन के खिलाफ उच्चतम न्यायालय का भी रुख किया गया है। अदालत या चुनाव आयोग आखिर बिहार के कर्मचारियों की ही सहायता ले सकता है।
वास्तव में बिहार में नक्सलियों का प्रभाव लगातार कम होता जा रहा है। वर्ष 2000 में बिहार-झारखंड राज्य विभाजन के बाद विशेष कार्य बल का गठन किया गया था। बिहार में नक्सल, वामपंथी, उग्रवादी संगठनों और संगठित अपराधी गिरोहों की गतिविधियों पर नियंत्रण के लिए इसका गठन किया गया था। वर्ष 2004 में बिहार के 14 जिले उग्रवाद प्रभावित थे। विशेष कार्य बल की ओर से भारत सरकार के केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों के सहयोग से उग्रवाद पर निरंतर कार्रवाई की गई।
इसका परिणाम यह हुआ कि कई नक्सल प्रभावित जिले नक्सल श्रेणी से बाहर हो गए। यह संख्या लगातार घटती हुई 2018 में 16 और 2021 में 10 रह गई। वर्तमान में बिहार के 8 जिले — मुंगेर, लखीसराय, जमुई, नवादा, गया, औरंगाबाद, रोहतास और कैमूर को गृह मंत्रालय (भारत सरकार) ने अति नक्सल प्रभावित जिलों की श्रेणी से हटाकर सीमित श्रेणी में रखा है। बिहार में पिछले पाँच वर्षों में नक्सली घटनाओं में 72% की गिरावट दर्ज की गई है। वांछित हार्डकोर नक्सल सशस्त्र दस्ते के सदस्यों की संख्या भी लगातार घट रही है। 2020 में इनकी संख्या 190 थी, जो दिसंबर 2024 में घटकर मात्र 16 रह गई है। वर्तमान में झारखंड से सटे बिहार के दो सीमावर्ती क्षेत्रों में ही नक्सल प्रभाव शेष है।
फिलहाल नक्सल गतिविधि मुख्यतः बिहार-झारखंड के सीमावर्ती इलाकों के दो क्षेत्रों में केंद्रित है। गया-औरंगाबाद एक्सिस – इस क्षेत्र में बिहार-झारखंड स्पेशल एरिया कमेटी (BJSAC) सक्रिय है। लगातार नक्सल-रोधी अभियान और शीर्ष नक्सलियों की गिरफ्तारियों के चलते गया-औरंगाबाद क्षेत्र में वामपंथी उग्रवाद की गतिविधियों में काफी कमी आई है। वर्तमान में इस क्षेत्र में 7 सशस्त्र माओवादियों के 3 छोटे समूहों के सक्रिय होने की सूचना है।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तक देश से नक्सलवाद को समाप्त करने का संकल्प लिया है। सुरक्षा बलों की सफलता दर को देखते हुए यह संभव प्रतीत होता है, परन्तु चुनौतियाँ शेष हैं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने हाल ही में नक्सल प्रभावित रहे गढ़चिरौली में कड़ी चेतावनी देते हुए कहा कि राज्य के बाहर से आए शहरी नक्सली धन का उपयोग अफवाहें फैलाने और गढ़चिरौली के लोगों को विकास के रास्ते से भटकाने में कर रहे हैं। यह बयान उन्होंने गढ़चिरौली ज़िले के एक कार्यक्रम में दिया, जो नक्सलियों का गढ़ रहा है।
भीमा कोरेगांव हिंसा के बाद राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) और अन्य एजेंसियों ने शहरी नक्सलवाद के मुद्दे को उठाया। एजेंसियों ने बताया कि कैसे शहरों में रहने वाले लोग जंगलों में अपने सहयोगियों के लिए प्रचार और धन जुटा रहे थे। जब गृह मंत्री द्वारा समयसीमा तय की गई और सुरक्षा बलों ने उस पर कार्य करना प्रारंभ किया, तब खुफिया ब्यूरो ने चेतावनी दी थी कि जंगलों में लड़ाई भले ही कम हो जाए, परंतु दुष्प्रचार तंत्र गलत सूचनाएं फैलाना जारी रखेगा।
महाराष्ट्र विधानसभा में ‘महाराष्ट्र विशेष जन सुरक्षा विधेयक’ पारित होने के कुछ दिनों बाद मुख्यमंत्री फडणवीस ने 22 जुलाई 2025 को यह भी बताया कि राज्य के बाहर के "शहरी नक्सली" अफवाहें फैलाने और विकास परियोजनाओं को रोकने के लिए विदेशी धन का उपयोग कर रहे हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार, 500 और 1000 रुपये के नोटों के विमुद्रीकरण से देश के अधिकांश हिंसाग्रस्त क्षेत्रों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। वामपंथी उग्रवादियों ने समर्थकों अथवा ग्रामीणों के खातों में अवैध धन जमा किया था। विमुद्रीकरण के पश्चात विभिन्न वामपंथी उग्रवादी समूहों से लाखों रुपये जब्त किए गए। इसके अलावा, उन्होंने विमुद्रीकरण का विरोध किया, जिससे उनकी असहजता स्पष्ट हुई। चूँकि नकदी ही इन गतिविधियों का मुख्य आधार थी, विमुद्रीकरण के पश्चात उनका अधिकांश धन बेकार हो गया। इससे पाकिस्तान में छपे नकली नोटों का प्रवाह भी बंद हुआ।
अधिकारियों को विश्वास है कि जंगलों में नक्सलियों के विरुद्ध लड़ाई 2026 तक समाप्त हो जाएगी। इन क्षेत्रों के लोग अब सुरक्षा बलों का समर्थन कर रहे हैं क्योंकि वे सुरक्षित महसूस करते हैं और विकास देख रहे हैं। 2019 में एनआईए की जांच और विदेशी फंडिंग पर नियंत्रण के बाद शहरी नक्सल समस्या में काफी कमी आई है। तथापि, अभी भी कई तत्व ऐसे हैं जो समस्या उत्पन्न करते रहेंगे।
केंद्रीय गृह मंत्रालय 2026 के बाद की योजना पर पहले से कार्य कर रहा है, जिसमें शहरी क्षेत्रों में सक्रिय नक्सल समर्थकों को भी शामिल किया गया है। सोशल मीडिया पर प्रसारित होने वाली सामग्री पर निगरानी के लिए टीमें गठित की जा रही हैं। फर्जी विरोध प्रदर्शन भड़काकर लोगों को गुमराह किया जा सकता है। ये टीमें इन तत्वों को मिलने वाले धन पर भी निगरानी रखेंगी, जिसका प्रयोग बड़े स्तर पर दुष्प्रचार अभियानों में किया जा सकता है।
पिछले वर्ष लोकसभा चुनावों से पूर्व भारतीय संविधान को लेकर एक बड़ा अभियान प्रारंभ हुआ था। नक्सलवादी आंदोलन के समर्थक इसी कड़ी में लोगों को संविधान के विरुद्ध भड़काने की योजना बना रहे थे। ये तत्व सोशल मीडिया का तीव्र उपयोग कर सकते हैं। वे जानते हैं कि यदि दुष्प्रचार अभियान शुरू हो गया और लोग भड़क गए, तो सारा अच्छा कार्य व्यर्थ हो सकता है। उन्होंने पहले भी ऐसा किया है और आगे भी ग्रामीण जनता को गुमराह करने का प्रयास करते रहेंगे।
तो तेजस्वी यादव और राहुल गांधी क्या उसी दिशा को अपनाकर देश को अराजकता की ओर ले जाना चाहते हैं?
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
हाल ही में जब 'हल्ला-बोल' शो में शशि शेखरजी को अपनी बात रखते हुए देखा तो लगा कि इस बार उनके बारे में लिखा जाना चाहिए।
अभिषेक मेहरोत्रा, मीडिया कॉमेंटेटर।।
बीते कुछ सालों में पत्रकारिता का चाल, चरित्र और चेहरा काफी हद तक बदल गया है। शालीन और सटीक पत्रकारिता अब कोलाहल से भरी हो गई है। अधिकांश टीवी डिबेट देखकर शांत मन भी अशांत हो जाता है। राई का पहाड़ बनाना और फिर उस पहाड़ से दूसरों को नीचे गिरा देना आम है। हालांकि, इन सबके बीच कुछ पत्रकार ऐसे हैं, जिन्होंने पत्रकारिता के मूल्यों, उसके स्वरूप को आज भी बनाए रखा हुआ है। वह बदलाव की होड़ के बीच सुचिता, शालीनता और संस्कारों का दामन थामे रखे हैं। देश के बड़े हिंदी अखबार हिंदुस्तान के प्रधान संपादक शशि शेखर उन्हीं में से एक हैं।
शशि शेखर की खास बात यह है कि वे जिस मीडिया संगठन और उसके प्रमोटर के साथ काम करते हैं, उनके प्रति पूरी निष्ठा, प्रतिबद्धता और दीर्घकालिक सहयोग रखते हैं। वे हमेशा संगठन के लक्ष्यों पर केंद्रित रहते हैं, सभी संबंधित लोगों के साथ सामंजस्य बनाए रखते हैं और उन्हें निरंतर मूल्य प्रदान करते हैं।
हाल ही में जब 'हल्ला-बोल' शो में शशि शेखरजी को अपनी बात रखते हुए देखा तो लगा कि इस बार उनके बारे में लिखा जाना चाहिए। पहले आप अंजना ओम कश्यप के शो का उनका वार्तालाप पढ़िए...
शो में जब उनसे बिहार चुनाव में संबंध में पूछा गया कि क्या लोकतंत्र की हत्या हो रही है?
तो उन्होंने बेहद शालीनता के साथ अपना जवाब दिया। उन्होंने कहा, 'अंजना आप जानती हैं कि मैं अपने साथ प्रवक्ता पर कभी कोई टिप्पणी नहीं करता। लोकतंत्र की हत्या हो रही हो या नहीं हो रही हो, वो कुछ वजहों से लहूलुहान ज़रूर हो रहा है। वह इसलिए भी जब भी कोई चुनाव आता है, तारीखों पर विवाद होता है, कभी बंदोबस्ती पर विवाद होता है, कभी तिथि निर्धारण पर विवाद होता है। और मैं बड़े अदब से कहना चाहूंगा कि यह चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि वह अपनी निष्पक्षता को प्रूव भी करे। यह ज़रूरी नहीं है कि राजनीतिज्ञ या केवल कुछ लोग ही उसको प्रूव करते रहें।
दूसरी बात जो बहुत ज्यादा लहूलुहान करती है कम से कम हम जैसे लोगों की आस्था को, जो लोकतंत्र में यकीन करते हैं और वोट डालने को पवित्र कार्य मानते हैं, कि कुछ तिथियाँ अवॉयड भी की जा सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कोई निर्णय लिया, नहीं लिया, सुप्रीम कोर्ट क्या करेगा, नहीं करेगा मैं उन टेक्निकल इशू में नहीं जाना चाहता। लेकिन उसने एक सवाल पूछा कि आपने यही समय क्यों चुना? इसलिए चुनाव आयोग को चाहिए कि वो हर चुनाव के बाद एक मीटिंग करके तय करे कि आगे यह गड़बड़ियाँ न हों।
एक बात मैं अपने राजनीतिक दोस्तों से भी कहना चाहूंगा कि चुनाव आप लड़ते हैं, आप जीतते हैं - हारते हैं। एक पार्टी ने बहुत साल पहले कहा कि नया वोटिंग सिस्टम बहुत खराब है। तर्क दिया, किताबें भी लिखीं। दूसरी ने कहा नहीं, ठीक है। वो दूसरी पार्टी इधर आ गई और पहली पार्टी उधर चली गई और उसके बाद सब ठीक हो गया। आखिर हम कब तक घिसे-पिटे तर्कों पर बने रहेंगे। मुझे लगता है कि बिहार में जिनकी पिछले 20 सालों से हुकूमत है, वो अपने रिपोर्ट कार्ड के साथ जाएं। जिनकी हुकूमत नहीं है, वो अपने तर्कों के साथ जाएं।
उनके इसी जवाब से समझा जा सकता है कि बतौर पत्रकार वह व्यवस्था पर तंज भी कसते हैं, लेकिन शालीनता के साथ। यह वो गुण है, जो तेजी से दुर्लभ होता जा रहा है। उन्हें कभी भी आप बेवजह के नैरेटिव में नहीं उलझा सकते। वह बखूबी जानते हैं कि कब, कहां, क्या और कितना बोलना है। माहौल चाहे कैसा भी हो, वह संतुलित रहते हैं और उनमें यह संतुलन समग्रता से आता है, झुकाव से नहीं।
शशिजी को आप भीड़ से अलग पाते हैं, महज इसलिए नहीं कि वह पत्रकारिता के एक ऊंचे मुकाम पर हैं, बल्कि इसलिए कि वह सादगी और शालीनता के साथ साफगोई से अपनी बात रखते हैं। बढ़ती उम्र, पद और अनुभव के साथ-साथ जिस मेच्योरिटी एवं सिंसेयरिटी की उम्मीद की जाती है, वह सबकुछ शशि शेखर में देखने को मिलता है।
शशि जी के बारे में पिछले 30 सालों में बहुत कुछ सुना है। मेरी मातृभूमि और उनकी लंबे समय तक कर्मभूमि एक ही रही है। उनके बारे में अपने शहर आगरा के कई महानुभावों से बहुत सुना है। आगरा से जब में पहली नौकरी करने अमर उजाला, नोएडा आया तो उसी साल शशि जी भी मेरठ से अमर उजाला नोएडा बतौर प्रेजिडेंट न्यूज बन आए थे। ये पद उस वक्त बड़ा ही इनोवेटिव माना गया और इसकी बहुत चर्चा हुई थी। तो जमा गणित मैंने शशि जी को करीब तीन दशकों के खांचे में देखा और समझा है। उनके गुस्सैल स्वभाव से लेकर पत्रकारिता के पैशन को आंखों सामने महसूस किया है। नोएडा में शाम 6 बजे बाद कई बार फ्रंट पेज डिजाइनर के पीछे खड़े होकर कमान संभालते हुए देखा है तो रात 9 बजे से सर्कुलेशन की बात करते हुए स्टाफ को जल्दी पेज छोड़ने की हिदायत का भी साक्षी रहा हूं।
शायद ही कोई ऐसा विषय हो, जिस पर उनकी बेबाक राय से हम परिचित न हुए हों। अमूमन 50-60 की उम्र के बाद हमारे काम की रफ्तार मंद हो जाती है, लेकिन शशि जी आज भी ऑफिस में 8 से 10 घंटे बिताते हैं। उन्हें मुद्दों में उलझना पसंद है, लोगों में नहीं। टीवी डिबेट में भी वह नेताओं से नहीं जूझते और न ही किसी के विचारों पर शाब्दिक हिंसा में विश्वास रखते हैं। उन्हें सच्चाई को इतिहास और मौजूदा हालात में जस्टिफाई करने की कला आती है, इसलिए उन्हें सुनना या पढ़ना हमेशा सुकून देता है।
उम्र के इस पड़ाव में भी आप उनमें एक छात्र पाएंगे, जो हर पल कुछ नया सीखने के लिए ललायित रहता है, जो जिद से दुनिया बदलने में विश्वास रखता है और जो अख़बारों के पन्नों को बेहद ध्यान से पढ़ता है। यही वजह है कि आज वह पत्रकारिता में नॉलेज का पर्याय बन गए हैं। उन्होंने हर गुजरते दिन के साथ अपने ज्ञान को बढ़ाया है, निखारा है। वे विदेशी पॉडकास्ट लगातार सुनते हैं, आज भी बीसियों अखबार उनकी आंखों के नीचे से गुजरते हैं, वे इंटरनेशनल लेवल पर मीडिया में हो रहे बदलावों को समझने के लिए उत्सुक रहते हैं और भारतीय जज्बातों के साथ उसे अपनाने में पीछे भी नहीं रहते हैं।
उनकी पीढ़ी के पत्रकारों में अडॉप्टेशन का अभाव देखा जाता है, पर शशि जी इसे समय का जरूरी बदलाव मानते हैं। नई सोच और कल्चर को अपनाने में वे झिझकते नहीं हैं। वे खांटी पत्रकार हैं, यही उनकी यूएसपी भी है, इसलिए उनकी लेखनी और बातों में आपको साहित्य की मिलावट देखने को नहीं मिलती है और शायद इसी कारण वो साहित्य की दुनिया की नेटवर्किंग से भी दूर ही रहते हैं। दिल्ली के बड़े संपादकों को कई चमकती धमकती पार्टियों में पाता हूं, पर जब पता करता था कि शशि जी यहां क्यों नहीं हैं, तो जवाब मिलता है कि वो तो अभी न्यूजरूम में मीटिंग ले रहे हैं। देश-विदेश में होने वाली बड़ी घटनाओं पर वो आज भी खुद ही न्यूजरूम से लेकर पेज डिजाइनिंग में जुट जाते हैं। जिन्होंने भी उनके साथ काम किया है, वे उनके इस पैशन के कायल हैं।
सफलता की ऊंचाई पर पहुंचने के बाद सबसे मुश्किल काम होता है, गलती स्वीकारना। वैसे तो सामान्य जीवन में भी गलती स्वीकारना कम मुश्किल नहीं होता, लेकिन जब आप अपना एक अलग स्थान निर्मित कर लेते हैं, जब लाखों-करोड़ों आंखें आपको देख रही होती हैं, तो यह मानना कि गलती हुई बहुत बड़ी बात है। और शशि शेखर यह बड़ा काम भी सहजता एवं सरलता से कर जाते हैं। कुछ वक्त पहले उन्होंने एक लेख में स्वीकार किया था कि फलां घटना कवर करने में इंसानियत दिखानी चाहिए थी, घटना को कवर करने से पहले उन्हें पीड़ित की मदद करनी चाहिए थी। इतने बड़े प्रसार वाले अखबार में प्रधान संपादक के तौर पर लिखे लेख में अपनी गलती सार्वजनिक तौर पर मानना, वाकई मजबूत कलेजे वाले के लिए ही संभव है।
शशि शेखर ने सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों को जिया है। वह मानते हैं कि पत्रकारिता बदल रही है और बदलाव को नकारा नहीं जा सकता। वह मीडिया के इकनोमिक मॉडल को भी समझते हैं, लेकिन पत्रकारिता के मूल्य आज भी उनकी प्राथमिकता में शुमार हैं। हिंदुस्तान के विस्तार में उनका अभूतपूर्व योगदान है। उन्होंने इस संस्थान को न केवल कॉर्पोरेट ढांचे के साथ खड़ा किया, बल्कि ग्रामीण, जनसरोकार पत्रकारिता के साथ सामंजस्य भी बनाया। अख़बार का सम्पादकीय और स्पेशल पेज आज भी उनकी सोच का आईना है।
शशिजी की एक बात जो मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित करती है, वो है उनका धर्म के प्रति लॉजिकल होना। वे जिस उच्च कोटि कुल में जन्मे हैं, ऐसे में उस कुल के नाम को अपने नाम से अलग कर जो समाजवाद का उदाहरण उन्होंने दिया, उसका कोई सानी नहीं है। वे कई तरह के आडंबरों से दूर रहते हैं।
वह एक ऐसे संपादक हैं, जिसे बेस्ट रिजल्ट चाहिए। और इसके लिए वह कभी-कभी क्रोधित भी होते हैं, जो लाजमी भी है। लेकिन उनका गुस्सा मिट्टी को ढाल देने वाली थपकी की तरह होता है। वह खामियां ही नहीं निकालते, उपाय भी बताते हैं। शशि शेखर आयातित संपादक नहीं रहे। कहने का मतलब है कि उन्होंने सीधे संपादक की कुर्सी हासिल नहीं की। वह जमीं से उठे और संघर्ष करते हुए इस मुकाम पर पहुंचे हैं, इसलिए पत्रकारिता की हर बारीकी को समझते हैं। वह यही चाहते हैं कि नई पौध भी तपकर तैयार हो, ताकि देश को काबिल पत्रकार मिलें, महज डिग्रीधारी पत्रकार नहीं।
मैनपुरी जैसे छोटे कस्बे से निकल कर आज देश की राजधानी में उस जगह मजबूती से दशक दर दशक जमे रहना जहां लुटियन्स जोन वाले किसी को टिकने नहीं देते हैं, उनकी वर्सेटाइल पर्सनैलिटी को दर्शाता है।
वे यारों के यार हैं। उनकी गिनती देश के उन चंद संपादकों में होती है, जिन्होंने यश, गौरव और समृद्धि कमाई है।
शशि शेखर ने टीवी और डिजिटल मीडिया के इस आपाधापी वाले दौर में भी अपनी एक अलग पहचान बनाई है। वह पत्रकारिता का एक बेजोड़ हस्ताक्षर हैं।
आजकल पत्रकारिता जगत में एक शब्द बेहद आम हो गया है- "वरिष्ठ पत्रकार"। हर दूसरा पत्रकार सोशल मीडिया प्रोफाइल से लेकर कॉलम बाइलाइन तक में खुद को "वरिष्ठ पत्रकार" कहता नजर आता है।
विकास सक्सेना, समाचार4मीडिया ।।
आजकल पत्रकारिता जगत में एक शब्द बेहद आम हो गया है- "वरिष्ठ पत्रकार"। हर दूसरा पत्रकार, चाहे वह टीवी चैनलों पर हो या डिजिटल मीडिया में, सोशल मीडिया प्रोफाइल से लेकर कॉलम बाइलाइन तक में खुद को "वरिष्ठ पत्रकार" कहता नजर आता है। सवाल यह है कि इस विशेषण का अर्थ वास्तव में क्या है? क्या यह उम्र से तय होता है, अनुभव से, या केवल आत्मघोषणा से?
सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि "वरिष्ठता" यानी Seniority शब्द अपने आप में उम्र से ज्यादा अनुभव से जुड़ा होता है। परंतु सिर्फ वर्षों का अनुभव होने से कोई पत्रकार "वरिष्ठ" कहलाए, ऐसा भी नहीं होना चाहिए। एक व्यक्ति 15-20 साल तक पत्रकारिता में रहते हुए भी केवल सामान्य रिपोर्टिंग या सतही लेखन करता रहा हो, तो क्या वह किसी गहन विश्लेषण, समझ और दृष्टिकोण में वरिष्ठ माना जा सकता है? दूसरी ओर कोई पत्रकार जिसने 10 साल के भीतर गंभीर खोजी पत्रकारिता की हो, सामाजिक प्रभाव डाला हो, पत्रकारिता की गरिमा बनाए रखी हो- वह वरिष्ठ कहलाने योग्य हो सकता है?
दरअसल, भारत में "वरिष्ठ पत्रकार" कोई संस्थागत रूप से मान्यता प्राप्त पद या उपाधि नहीं है। यह न तो किसी विश्वविद्यालय द्वारा दिया जाने वाली डिग्री है, न ही किसी पत्रकार संगठन की ओर से जारी किया गया प्रमाणपत्र। यह पूरी तरह एक सामाजिक और व्यावसायिक पहचान है, जो किसी व्यक्ति की पत्रकारिता में योगदान, दृष्टिकोण, संतुलन, और नैतिकता पर आधारित होनी चाहिए।
लेकिन आज स्थिति यह है कि कोई भी पत्रकार, चाहे वह 5 साल से पत्रकारिता कर रहा हो या 25 साल से, अपने नाम के आगे "वरिष्ठ पत्रकार" लिख देना उसका फैशन सा बन गया है। सोशल मीडिया प्रोफाइल पर यह एक ऐसा तमगा बन चुका है, जो बिना किसी सत्यापन के लगाया जा सकता है। यह ठीक वैसा ही है, जैसे कोई खुद को "संवेदनशील कवि" या "खोजी पत्रकार" घोषित कर दे।
आज जब मीडिया की साख पर सवाल उठ रहे हैं, तब पत्रकारिता संस्थानों और संगठनों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है कि वे "वरिष्ठ पत्रकार" जैसी शब्दावलियों को लेकर स्पष्टता पैदा करें। पत्रकारिता के छात्रों को यह सिखाया जाना चाहिए कि वरिष्ठता केवल समय की देन नहीं, बल्कि मूल्य आधारित पत्रकारिता, शोधपरक लेखन, और सामाजिक उत्तरदायित्व से अर्जित की जाती है। उन्हें यह भी समझाया जाना चाहिए कि पत्रकारिता में पद नहीं, प्रतिष्ठा मायने रखती है- जो जनता, पाठकों और सहकर्मियों द्वारा दी जाती है, खुद घोषित नहीं की जाती।
यह सही समय है जब मीडिया संगठनों और पत्रकार संघों को "वरिष्ठ पत्रकार" की स्वीकृति को लेकर कुछ मानदंड तय करने चाहिए। उदाहरण के लिए-
इनमें से कोई दो-तीन मानदंड भी किसी पत्रकार को "वरिष्ठ" की श्रेणी में रख सकते हैं, बशर्ते यह समाज और पत्रकारिता जगत भी उसे उसी नजर से देखे।
"वरिष्ठ पत्रकार" कोई सजावटी उपाधि नहीं, बल्कि जिम्मेदारी और गरिमा से जुड़ा एक सार्वजनिक विश्वास है। जब हर कोई खुद को वरिष्ठ कहने लगे, तो शब्द अपना अर्थ खो देता है। इसलिए जरूरी है कि पत्रकारिता में "वरिष्ठता" का मूल्य अनुभव, दृष्टिकोण, विवेक और निष्पक्षता से आंका जाए, ना कि महज प्रोफाइल पर लिखा हुआ एक आकर्षक विशेषण बनकर रह जाए। मीडिया की विश्वसनीयता तभी बचेगी, जब पदवी नहीं, पत्रकार का काम बोलेगा।
संघ के संस्थापक का सपना तो राष्ट्रीय चेतना का जागरण, सांस्कृतिक एकता का बोध और सालों की गुलामी से उपजे ‘आत्मदैन्य’ को हटाकर हिंदू समाज की शक्ति को पुनः प्रतिष्ठित करना था।
प्रो. संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में आचार्य एवं अध्यक्ष।
एक जीवंत लोकतंत्र में ‘बदलाव की राजनीति’ और ‘सत्ता की राजनीति’ के विमर्शों के बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसा संगठन बन चुका है, जिसने समाज जीवन के हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। उसके स्वयंसेवकों के उजले पदचिन्ह हर क्षेत्र में सफलता के मानक बन गए हैं। स्वयं को सांस्कृतिक संगठन बताने वाले संघ का मूल कार्य और केंद्र दैनिक ‘शाखा’ ही है, किंतु अब वह सत्ता-व्यवस्था में गहराई तक अपनी वैचारिक और सांगठनिक छाप छोड़ रहा है।
संघ के संस्थापक और प्रथम सरसंघचालक का सपना तो राष्ट्रीय चेतना का जागरण, सांस्कृतिक एकता का बोध और सालों की गुलामी से उपजे ‘आत्मदैन्य’ को हटाकर हिंदू समाज की शक्ति को पुनः प्रतिष्ठित करना था। इस दौर में डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने ऐसे संगठन की परिकल्पना की, जो राष्ट्र को धर्म, भाषा, क्षेत्र से ऊपर उठाकर ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की भावना से जोड़े। संघ की शाखाएं उसकी कार्यप्रणाली की रीढ़ बनीं। प्रतिदिन कुछ समय एक निश्चित स्थान पर एकत्रित होकर शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक प्रशिक्षण देना ही शाखा की आत्मा है।
यह क्रमशः अनुशासित, राष्ट्रनिष्ठ और संस्कारित कार्यकर्ताओं का निर्माण करता है, जिन्हें 'स्वयंसेवक' कहा जाता है। संघ ने “व्यक्ति निर्माण के माध्यम से राष्ट्र निर्माण" की अवधारणा को अपनाया है। इस प्रक्रिया में उसका जोर 'चरित्र निर्माण' और 'कर्तव्यपरायणता' पर होता है। ऐसे में विविध वर्गों तक पहुंचने के लिए संघ के विविध संगठन सामने आए जो अलग-अलग क्षेत्रों में सक्रिय हुए किंतु उनका मूल उद्देश्य राष्ट्र की चिति का जागरण और राष्ट्र निर्माण ही है।
संघ ने राजनीति और सत्ता के शिखरों पर बैठे लोगों से हमेशा संवाद बनाए रखा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, बाबा साहब भीमराव आंबेडकर, जयप्रकाश नारायण, पं. जवाहरलाल नेहरू से लेकर श्रीमती इंदिरा गांधी तक संघ का संवाद सबसे रहा। संघ ‘सत्ता राजनीति’ से संवाद रखते हुए भी ‘सत्ता मोह’ से कभी ग्रस्त नहीं रहा। 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा जनसंघ की स्थापना में संघ का सक्रिय सहयोग था।
इस पार्टी का सहयोग संघ द्वारा प्रशिक्षित अनेक प्रचारकों द्वारा किया गया। 1980 में जब भाजपा बनी, तो संघ के कई वरिष्ठ कार्यकर्ता उसमें शामिल हुए। संघ ने अपने अनेक प्रचारक और कार्यकर्ता पार्टी में भेजे और उन्हें स्वतंत्रता दी। सत्ता राजनीति में भी राष्ट्रीय भाव प्रखर हो, यही धारणा रही। एक समय था जब संघ पर गांधी हत्या के झूठे आरोप में प्रतिबंध लगाकर स्वयंसेवकों को प्रताड़ित किया जा रहा था, किंतु संघ की बात रखने वाला कोई राजनीति में नहीं था। सत्ता की प्रताड़ना सहते हुए भी संघ ने अपने संयम को बनाए रखा और झूठे आरोपों के आधार पर लगा प्रतिबंध हटा।
चीन युद्ध के बाद इसी संवाद और देशभक्ति पूर्ण आचरण के लिए उसी सत्ता ने संघ को 1963 के गणतंत्र दिवस की परेड में आमंत्रित किया। भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता रहे कृष्णलाल पठेला बताते हैं—“स्वयंसेवकों की 1962 के युद्ध में उल्लेखनीय भूमिका को देखते हुए ही 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में संघ को अपना जत्था भेजने के लिए आमंत्रित किया गया था। मुझे याद है, मैं भी उस जत्थे में शामिल था और जब संघ का जत्था राजपथ पर निकला था, तब वहां मौजूद नागरिकों ने देर तक तालियां बजाई थीं। जहां तक मुझे याद है, उस जत्थे में 600 स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में शामिल हुए थे।”
संघ ने समाज जीवन के हर क्षेत्र में स्वयंसेवकों को जाने के लिए प्रेरित किया। किंतु अपनी भूमिका व्यक्ति निर्माण और मार्गदर्शन तक सीमित रखी। सक्रिय राजनीति के दैनिक उपक्रमों में शामिल न होकर समाज का संवर्धन और उसके एकत्रीकरण पर संघ की दृष्टि रही। इस तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक वैचारिक परंपरा है। उसने भारतीय समाज में अनुशासन, संगठन और सांस्कृतिक चेतना का पुनर्जागरण किया है। सत्ता से उसका संवाद हमेशा रहा है और उसके पदाधिकारी राजनीतिक दलों से संपर्क में रहे हैं।
इंदिरा गांधी से भी तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहब देवरस का संवाद रहा है। उनका पत्र इसे बताता है। इस तरह देखें तो संघ किसी को अछूत नहीं मानता, उसकी भले ही व्यापक उपेक्षा हुई हो। संघ के अनेक प्रकल्पों और आयोजनों में विविध राजनीतिक दलों के लोग शामिल होते रहे हैं। इस तरह संघ एक जड़ संगठन नहीं है, बल्कि समाज जीवन के हर प्रवाह से सतत संवाद और उस पर नजर रखते हुए उसके राष्ट्रीय योगदान को संघ स्वीकार करता है।
संघ की प्रेरणा से उसके स्वयंसेवकों ने अनेक स्वतंत्र संगठन स्थापित किए हैं। उनमें भाजपा भी है। इन संगठनों में आपसी संवाद और समन्वय की व्यवस्था भी है किंतु नियंत्रित करने का भाव नहीं है। सभी स्वयं में स्वायत्त और अपनी व्यवस्थाओं में आत्मनिर्भर हैं। यह संवाद विचारधारा के आधार पर चलता है। समान मुद्दों पर समान निर्णय और कार्ययोजना भी बनती है।
1951 में जनसंघ की स्थापना के समय ही संघ के कई स्वयंसेवक जैसे पं. दीनदयाल उपाध्याय, अटलबिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख जैसे लोग शामिल थे। 1977 में जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हुआ, लेकिन आपसी मतभेदों और दोहरी सदस्यता के सवाल पर उपजे विवाद के कारण यह प्रयोग असफल रहा। 1980 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के रूप में एक नए राजनीतिक दल का जन्म हुआ, जिसमें संघ प्रेरित वैचारिक नींव और सांगठनिक समर्थन मजबूत रूप से विद्यमान था।
संघ ने सत्ता या राजनीतिक दलों के सहयोग से बदलाव के बजाए, व्यक्ति को केंद्र में रखा है। संघ का मानना है कि कोई बदलाव तभी सार्थक होता है, जब लोग इसके लिए तैयार हों। इसलिए संघ के स्वयंसेवक गाते हैं—
“केवल सत्ता से मत करना परिवर्तन की आस।
जागृत जनता के केन्द्रों से होगा अमर समाज।”
सामाजिक शक्ति का जागरण करते हुए उन्हें बदलाव के अभियानों का हिस्सा बनाना संघ का उद्देश्य रहा है। चुनाव के समय मतदान प्रतिशत बढ़ाने और नागरिकों की सक्रिय भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए मतदाता जागरण अभियान इसका उदाहरण है। नेता अपने स्वागत, सम्मान के लिए बहुत से इंतजाम करते हैं। संघ इस प्रवृत्ति को पहले पहचान कर अपने स्वयंसेवकों को प्रसिद्धिपरांगमुखता का पाठ पढ़ाता आया है। ताकि काम की चर्चा हो, नाम की न हो। स्वयंसेवक गीत गाते हैं—
“वृत्तपत्र में नाम छपेगा, पहनूंगा स्वागत समुहार।
छोड़ चलो यह क्षुद्र भावना, हिन्दू राष्ट्र के तारणहार।”
सही मायनों में सार्वजनिक जीवन में रहते हुए यह बहुत कठिन संकल्प हैं। लेकिन संघ की कार्यपद्धति ऐसी है कि उसने इसे साध लिया है। संचार और संवाद की दुनिया में बेहद आत्मीय, व्यक्तिगत संवाद ही संघ की शैली है। जहां व्यक्ति से व्यक्ति का संपर्क सबसे प्रभावी और स्वीकार्य है। इसमें दो राय नहीं कि इन सौ सालों में संघ के अनेक स्वयंसेवक समाज में प्रभावी स्थिति में पहुंचे तो अनेक सत्ता के शिखरों तक भी पहुंचे। स्वदेशी, आत्मनिर्भरता, धार्मिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण और राष्ट्रवाद जैसे विषय संघ के लंबे समय से पोषित विचार रहे हैं, जिन्हें अब सरकारी नीतियों में प्राथमिकता मिलती दिखती है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370 हटाना, और समान नागरिक संहिता जैसे निर्णय संघ की वैचारिक दिशा को ही प्रकट करते हैं। इसमें कई कार्य लंबे आंदोलन के बाद संभव हुए। किसी विषय को समाज में ले जाना और उसे स्थापित करना। फिर सरकारों के द्वारा उस पर पहल करना। लोकतंत्र को सशक्त करती यह परंपरा संघ ने अपने विविध संगठनों के साथ मिलकर स्थापित की है। संघ की प्रतिनिधि सभाओं में विविध मुद्दों पर पास प्रस्ताव बताते हैं कि संघ की राष्ट्र की ओर देखने की दृष्टि क्या है। ये प्रस्ताव हमारे समय के संकटों पर राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखते हुए राह भी बताते हैं।
अनेक बार संघ पर यह आरोप लगते हैं कि वह राजनीति को नियंत्रित करना चाहता है। किंतु विरोधी इसके प्रमाण नहीं देते। संघ का विषय प्रेरणा और मार्गदर्शन तक सीमित है। संघ की पूरी कार्यशैली में संवाद, संदेश और सुझाव ही हैं, चाहे वह सरकार किसी की भी हो। संघ राजनीति में ‘आदर्शवादी कैडर और संस्कारी नेतृत्व’ का निर्माण करता हुआ दिखता है। उसकी विचारधारा राष्ट्रवादी, अनुशासित और निःस्वार्थ सेवा पर आधारित है। अनेक मुद्दों पर जैसे आर्थिक नीति, उदारवादी वैश्वीकरण की दिशा पर संघ ने हमेशा अपनी अलग राय व्यक्त की है।
इसमें दो राय नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारतीय राजनीति में एक वैकल्पिक वैचारिक धारा का निर्माण किया है। उसने ‘हिंदुत्व आधारित राष्ट्रीय भाव’ को मुख्यधारा में स्थापित किया है और अपनी सांगठनिक शक्ति से भारतीय राजनीति को नई दिशा दी है। एक जागृत समाज कैसे निष्क्रियता छोड़कर सजग और सक्रिय हस्तक्षेप करे, यह संघ के निरंतर प्रयास हैं। पंच परिवर्तन का संकल्प इसी को प्रकट करता है।
संघ भले ही स्वयं राजनीति में न हो, पर राजनीति पर उसके विचारों का गहरा प्रभाव परिलक्षित होने लगा है। यह बदला हुआ समय संघ के लिए अवसर भी है और परीक्षा भी। उम्मीद की जानी चाहिए कि संघ अपने शताब्दी वर्ष में ज्यादा सरोकारी भावों से भरकर सामाजिक समरसता, राष्ट्रबोध जैसे विषयों पर समाज में परिवर्तन की गति को तेज कर पाएगा। संघ के अनेक पदाधिकारी इसे ईश्वरीय कार्य मानते हैं। जाहिर है उनके संकल्पों से भारत मां एक बार फिर जगद्गुरु के सिंहासन पर विराजेगी, ऐसा विश्वास स्वयंसेवकों की संकल्प शक्ति को देखकर सहज ही होता है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
आज के दौर में जब डिजिटल परिवर्तन तेजी से हो रहा है और ग्राहकों की अपेक्षाएं लगातार बदल रही हैं, तब टिकाऊ कारोबारी सफलता का सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ बन गया है राजस्व निर्माण।
अभय ओझा, ग्रुप सीईओ, आटीवी नेटवर्क (ITV Network) ।।
आज के दौर में जब डिजिटल परिवर्तन तेजी से हो रहा है और ग्राहकों की अपेक्षाएं लगातार बदल रही हैं, तब टिकाऊ कारोबारी सफलता का सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ बन गया है राजस्व निर्माण (Revenue Generation)। एक्सचेंज4मीडिया के Revenue Leaders 3 0Under 30 के निर्णायक मंडल में शामिल होना मेरे लिए सम्मान की बात रही, जहां मुझे ऐसे युवा प्रोफेशनल्स का मूल्यांकन करने का अवसर मिला, जो न केवल असाधारण ग्रोथ हासिल कर रहे हैं, बल्कि यह भी बदल रहे हैं कि संगठन राजस्व को किस तरह समझते और अपनाते हैं।
e4m Revenue Leaders 30 Under 30 केवल करियर की शुरुआती सफलता का जश्न नहीं है- यह साहसी नवाचार, उद्यमशील सोच और रणनीतिक स्वामित्व की पहचान है। इन 30 से कम उम्र के लीडर्स के लिए राजस्व कोई सीमित कार्य-क्षेत्र (function) नहीं है, बल्कि ये इसे एक “मिशन-क्रिटिकल” जिम्मेदारी मानते हैं। केवल 3 से 8 साल के अनुभव में ही ये युवा लीडर्स उस स्तर की ग्रोथ चला रहे हैं जो आम तौर पर अनुभवी P&L हेड्स करते हैं। ये अपने-अपने वर्टिकल्स (जैसे मार्केटिंग, बिक्री, डिजिटल इत्यादि) के “इन-हाउस CEO” की तरह काम कर रहे हैं, निर्णय ले रहे हैं, रणनीति बना रहे हैं और पूरा बिजनेस यूनिट चला रहे हैं।
ये युवा पारंपरिक सीमाओं से कहीं आगे बढ़ चुके हैं। चाहे डिजिटल रणनीतियों की बात हो, सटीक टार्गेटिंग हो या तकनीक आधारित फनल- ये प्रोफेशनल्स ऐसा ग्रोथ माइंडसेट ला रहे हैं जो रचनात्मकता को डेटा-आधारित निर्णयों के साथ संतुलित करता है।
संक्षेप में, ये युवा लीडर्स राजस्व को कंपनी की आत्मा मानकर उसके हर पहलू को खुद जिम्मेदारी से संभाल रहे हैं, जैसे कोई सीईओ पूरे व्यवसाय को संचालित करता है।
इस साल के विजेताओं की विविधता और क्षमता वाकई उल्लेखनीय रही। ये युवा प्रोफेशनल्स Google, LinkedIn, Meta, Facebook, Amazon और भारत की प्रमुख यूनिकॉर्न व डिजिटल कंपनियों से ताल्लुक रखते हैं।
सफलता की कहानियां
एक कहानी जो अब भी मेरे जेहन में है, वह एक IIT और IIM ग्रेजुएट की है, जिन्होंने एक कंटेंट-आधारित प्लेटफॉर्म पर बिना किसी मौजूदा ग्राहक नेटवर्क के काम शुरू किया और शुरुआती 500 क्लाइंट्स बनाए। आज उस यूनिट से ₹100 करोड़ से ज्यादा का रेवेन्यू आता है। यह कहानी अपवाद नहीं, बल्कि इस समूह की मानसिकता- दृढ़ता, जिम्मेदारी और महत्वाकांक्षा की झलक है।
इसी के साथ, इतनी कम उम्र में महिलाओं की राजस्व और सेल्स नेतृत्व में बढ़ती भूमिका इस साल की सबसे प्रेरक प्रवृत्तियों में से एक रही। इंडस्ट्री में तीन दशक बिताने के बाद यह देखना सुखद है कि महिलाएं अब केवल उपस्थित नहीं हैं, बल्कि लीड कर रही हैं और बदलाव ला रही हैं।
ये महिलाएं न केवल अपार जोश के साथ आती हैं, बल्कि विश्लेषणात्मक सोच और नेतृत्व क्षमता के जरिए पूरे इंडस्ट्री में उच्च-प्रदर्शन वाली टीमों का निर्माण कर रही हैं- स्टिरियोटाइप तोड़ते हुए।
निर्णायक एकमत: प्रतिभा को मिला स्पष्ट सम्मान
इस साल की प्रविष्टियां इतनी प्रभावशाली थीं कि निर्णायक मंडल के लिए चयन कठिन नहीं बल्कि प्रेरक रहा। हर एक सदस्य, चाहे वो अनुभवी रणनीतिकार हों या बिजनेस लीडर, विजेताओं पर एकमत थे। चर्चाएं सहयोगात्मक थीं, प्रशंसा आपसी थी और निर्णय सर्वसम्मति से हुए—जो दर्शाता है कि ये 30 नाम सच्चे तौर पर योग्य हैं।
अब जरूरत है इंडस्ट्री की सक्रिय भूमिका की
इंडस्ट्री को ऐसे “टैलेंट” में निवेश करना चाहिए जो इनोवेट कर रहे हैं और राजस्व चला रहे हैं। पहचान जरूरी है, लेकिन इसके साथ एक्शन भी जरूरी है। अगर हम भारत में विश्वस्तरीय राजस्व इकोसिस्टम बनाना चाहते हैं, तो हमें इरादतन कदम उठाने होंगे- मेंटॉरशिप, समर्थन और संसाधन के जरिए इस नेतृत्व श्रृंखला को मजबूत करना होगा।
सीनियर लीडर्स को चाहिए कि वे इन हाई-पोटेंशियल युवा प्रोफेशनल्स को गाइड करें, उनकी सोच को रणनीतिक आकार दें। कंपनियों को अपनी कार्यसंस्कृति को Gen Z के अनुरूप ढालना होगा ताकि विविधता, समावेशन और समान अवसर को बढ़ावा मिले और महिलाएं व अल्पप्रतिनिधित्व वाले प्रोफेशनल्स उभर सकें।
युवा लीडर्स को स्वामित्व की सोच से लैस करना होगा। उन्हें अपने वर्टिकल को एक छोटे बिजनेस की तरह चलाने की आजादी मिलनी चाहिए, ताकि वे बिना असुरक्षा के इनोवेशन कर सकें और राजस्व की नई राहें बना सकें।
राजस्व एक निरंतर विकसित होता हुआ क्षेत्र है। इसलिए कंपनियों को डिजिटल टूल्स, डेटा एनालिटिक्स, AI और प्रदर्शन मेट्रिक्स के जरिए अपनी टीमों को अपस्किल करना चाहिए।
e4m 30Under30 जैसे प्लेटफॉर्म्स को समर्थन और विस्तार की जरूरत है, ताकि इन अनसुने “ग्रोथ चैंपियंस” को पहचान मिल सके।
मैं exchange4media की पूरी टीम, विशेषकर डॉ. अनुराग बत्रा और नवल आहूजा का तहे दिल से आभार व्यक्त करता हूं। आपने एक ऐसा मंच तैयार किया है जो केवल प्रदर्शन को नहीं, बल्कि पूरी अगली पीढ़ी के लीडर्स को ऊपर उठाता है और इंडस्ट्री में राजस्व नेतृत्व की परिभाषा को ही बदल रहा है।
30 Under 30 की यह पहली सूची यह साबित करती है कि लीडरशिप उम्र से नहीं, सोच, स्वामित्व और क्रियान्वयन से परिभाषित होती है। ये सिर्फ भविष्य के लीडर नहीं हैं। ये आज के भारत में राजस्व की नई ऊंचाई गढ़ रहे हैं।
ईडी का आरोप है कि भूपेश बघेल की सरकार के वक्त स्टेट मार्केटिंग कॉरपोरेशन जो शराब खरीदता था, उसके एवज़ में शराब बनाने वाली कंपनियों से मोटा कमीशन लिया जाता था।
रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
कांग्रेस के लिए छत्तीसगढ़ से बुरी खबर आई। 2000 करोड़ रु. के शराब घोटाले के आरोप में ED ने पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के बेटे चैतन्य बघेल को गिरफ़्तार कर लिया। कोर्ट ने चैतन्य बघेल को 5 दिन के लिए ED की कस्टडी में भेज दिया।
ED का आरोप है कि 2018 से 2023 के दौरान जब भूपेश बघेल मुख्यमंत्री थे तब राज्य में दो हज़ार करोड़ से ज़्यादा का शराब घोटाला किया गया। इस घोटाले में भूपेश बघेल की सरकार में आबकारी मंत्री रहे कवासी लखमा, कारोबारी अनवर ढेबर और पूर्व IAS अधिकारी अनिल टुटेजा शामिल थे। ईडी का आरोप है कि शराब घोटाले की काली कमाई को चैतन्य बघेल की रियल एस्टेट कंपनियों के जरिए white money में बदला गया।
ED का आरोप है कि भूपेश बघेल की सरकार के वक्त स्टेट मार्केटिंग कॉरपोरेशन जो शराब खरीदता था, उसके एवज़ में शराब बनाने वाली कंपनियों से मोटा कमीशन लिया जाता था। ED का ये भी इल्ज़ाम है कि उस दौरान छत्तीसगढ़ की सरकारी शराब की दुकानों से कच्ची शराब बेची जाती थी जिसका कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता था और सारा पैसा शराब सिंडीकेट के हाथ में चला जाता था। शराब कंपनियों से रिश्वत लेकर उनको fixed मार्केट शेयर दिए जाते थे, जिससे वो कार्टेल बनाकर मनमानी क़ीमत पर शराब बेचते थे। ईडी का आरोप है कि विदेशी शराब के धंधे में एंट्री के बदले में भी रिश्वत ली जाती थी।
इस मामले में पहली FIR छत्तीसगढ़ के एंटी करप्शन ब्यूरो ने दर्ज की थी जिसमें पूर्व आबकारी मंत्री समेत 70 लोग आरोपी बनाए गए थे। इसी के बाद इस मामले में ED की एंट्री हुई। इस केस में ED अब तक 205 करोड़ रुपए की संपत्ति ज़ब्त कर चुकी है और पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से भी कई बार पूछताछ की गई है।
छत्तीसगढ़ में शराब घोटाला 2022 में सामने आया था। पिछले विधानसभा चुनाव में भूपेश बघेल के खिलाफ ये बड़ा मुद्दा बना। उस वक्त भूपेश बघेल ने कहा था कि ये सारा ड्रामा चुनाव में बीजेपी को फायदा पहुंचाने के लिए रचा गया। चुनाव हुए, सरकार बदल गई, फिर पिछले डेढ़ साल से भूपेश बघेल हर दूसरे दिन ये बयान देते थे कि शराब घोटाले का क्या हुआ? अब तक उसमें कुछ निकला क्यों नहीं? अगर कोई सबूत था तो कोई एक्शन क्यों नहीं हुआ?
अब एक्शन हो गया, बेटे की गिरफ्तारी हो गई, तो भूपेश बघेल कह रहे हैं, ये सब बदले की कार्रवाई है। अब मामला कोर्ट में है और अदालत में दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
राष्ट्रपति बनने के बाद से वो दुनिया भर में लड़ाई रुकवाने में लगे हैं। फिर भी यूक्रेन और रुस की लड़ाई रोकने में कामयाबी नहीं मिली है। पहले यूक्रेन के राष्ट्रपति का व्हाइट हाउस में अपमान किया।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति के रुप में दूसरी टर्म में सबको हिला रखा है। रोज कोई ना कोई नया फ़ैसला या नयी धमकी। रुस को 50 दिन में यूक्रेन के साथ युद्ध ख़त्म ना करने पर सेकेंडरी टैरिफ़ लगाने की धमकी दी है यानी जो देश रुस के साथ कारोबार करते रहेंगे उन पर अमेरिका 100% टैरिफ़ लगा देगा। भारत अभी रुस से अपनी ज़रूरत का 35-40% कच्चा तेल ख़रीदता है। ट्रंप की धमकी के कारण यह रुक गया तो पेट्रोल डीज़ल 8-12 रुपये प्रति लीटर महँगा हो सकता है।
पहले समझ लीजिए कि ट्रंप ने कहा क्या है? राष्ट्रपति बनने के बाद से वो दुनिया भर में लड़ाई रुकवाने में लगे हैं। फिर भी यूक्रेन और रुस की लड़ाई रोकने में कामयाबी नहीं मिली है। पहले यूक्रेन के राष्ट्रपति का व्हाइट हाउस में अपमान किया। मदद रोक दी लेकिन जल्द समझ में आ गया कि झगड़े की जड़ रुस है। उन्होंने 14 जुलाई को धमकी दी है कि 50 दिन के अंदर रुस ने युद्ध नहीं रोका तो वो सेकेंडरी टैरिफ़ लगा देंगे। यह डेडलाइन 2 सितंबर को ख़त्म होगी। रुस ने ट्रंप की धमकी पर कोई ख़ास प्रतिक्रिया नहीं दी है, उसे गंभीरता से नहीं लिया है।
आपको याद होगा कि रुस ने 2022 में यूक्रेन पर हमला बोला था तो अमेरिका और यूरोप के देशों ने आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे। उन्हें लगा था कि रुस दबाव में आ जाएगा। इससे उलट रुस ने भारत और चीन जैसे देशों के साथ कारोबार बढ़ा दिया। भारत 2022 से पहले 100 में से 2 बैरल कच्चा तेल रुस ख़रीदता था। अब वो हिस्सा बढ़ कर 35-40 बैरल तक पहुँच गया। भारत को शुरुआती दिनों में तो रुस का तेल बाक़ी देशों के मुक़ाबले 10-12 डॉलर प्रति बैरल सस्ता पड़ता था। अब यह अंतर 3-4 डॉलर पर आ गया है। रुस से सस्ता तेल मिलने के कारण ही युद्ध का बुरा असर भारत की अर्थव्यवस्था पर नहीं पड़ा। महंगाई क़ाबू में रही।
भारत अकेले रुस पर कच्चे तेल के लिए निर्भर नहीं है। 35-40 देशों से कच्चा तेल ख़रीदता है। पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने कहा है कि अमेरिका ने सेकेंडरी टैरिफ़ लगा दिया तो कच्चे तेल के दाम 140 डॉलर प्रति बैरल तक जा सकते हैं। उनका कहना है कि रुस दुनिया की ज़रूरत का 10% उत्पादन करता है। यह तेल बाज़ार में नहीं आएगा तो दाम बढ़ जाएँगे। भारत नहीं चाहेगा कि रुस से सस्ते तेल के चक्कर में अमेरिका से पंगा लें। वो दूसरे देशों से ही तेल ख़रीदना चाहेगा।
अनुमान है कि रुस से भारत को कच्चा तेल मिलना बंद हो जाएँ और कच्चे तेल के दाम 140 डॉलर प्रति बैरल हो जाएँ तो पेट्रोल डीज़ल की क़ीमतें प्रति लीटर 8-12 रुपये बढ़ सकते है। कुल मिलाकर अभी तो अमेरिका की ट्रेड डील फँसी हुई थी, अब ये नया सिरदर्द आ गया है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )