वर्ष 2020 की शुरुआत में जब वुहान, चाइना से आती महामारी की खबरों को अखबारों में लिखा व टीवी चैनल्स में दिखाया जा रहा था तो इसे अधिकांश लोगों ने सामान्य खबर ही समझा।
ब्रजेश मिश्रा।।
वर्ष 2020 की शुरुआत में जब वुहान, चाइना से आती महामारी की खबरों को अखबारों में लिखा व टीवी चैनल्स में दिखाया जा रहा था तो इसे अधिकांश लोगों ने सामान्य खबर ही समझा। लेकिन, समय बीतने के साथ बढ़ती विभीषिका ने सबको स्तब्ध कर दिया और वो दिन भी आ गया, जिसके बारे में किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था।
24 मार्च 2020 को बढ़ते कोरोना संक्रमण को देखते हुए सरकार ने जब पूरे देश में तीन हफ्ते के लॉकडाउन की घोषणा की तो पूरे देश की गतिविधिया तो रुक गईं, लेकिन पत्रकारिता के लिए नई चुनौतियों ने जन्म लिया। पत्रकारिता के क्षेत्र में किए जा रहे अधिकतर कार्य फील्ड के हैं, जिनमें रिपोर्टर, कैमरामैन, सीनियर व जूनियर ब्यूरो सभी लगातार बाहर रहकर काम करते हैं। जितना काम इन-ऑफिस है, उससे कहीं ज्यादा फील्ड का है। अब ऐसे में काम कैसे हो, जबकि बाहर निकलना भी मुश्किल और पत्रकारिता की मौलिक नैतिकता को देखें तो खबरें देना भी जरूरी। एक पत्रकार का ये नैतिक कर्तव्य है कि वो जनता तक सही खबर पहुंचाएं और ऐसे समय जितना हो सके, लोगों की मदद भी करे।
कोरोना संक्रमण के शुरुआती समय में दुनियाभर की मीडिया से जो जानकारी मिल रही थी, वो और भी चिंताजनक थी, क्योंकि बीमारी के बारे में किसी के पास कोई सटीक जानकारी या अनुमान नहीं था। ऐसे में भारतीय मीडिया उन खबरों को कितनी प्राथमिकता दे, ये तय कर पाना मुश्किल था, क्योंकि एक गलत या बढ़ा-चढ़ाकर लिखी गई खबर का लोगों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की ज्यादा आशंका थी। साथ ही, सोशल मीडिया पर अनेक खबरें भी चल रही थीं, जिनमें बिना किसी प्रमाण के कोरोना के इलाज या फिर लोगों की मृत्यु के बारे में बताया जा रहा था।
ऐसे में एक पत्रकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही थी कि जो भी लिखा या बताया जाए, वो पूरी तरह से सत्य हो। सभी रिपोर्टर्स को विशेष सावधानी बरतते हुए काम करने को कहा गया और लगभग सभी प्रमुख समाचार पत्रों और डिजिटल कंटेंट पर नजर रखी जा रही थी। सरकार अतिरिक्त संवेदनशीलता के साथ काम कर रही थी। केंद्र से लेकर राज्य और जिला स्तर तक संबंधित अधिकारियों द्वारा कोविड के बारे में समय-समय पर अपडेट दिए जा रहे थे। दूसरे राज्य या शहरों में काम करने गए मजदूरों ने अपने घरों की ओर चलना शुरू किया तो उनसे जुडी अनेक खबरें आनी शुरू हुईं।
कोई मां अपने बच्चे को एक बैग पर लिटाकर खींचकर ले जा रही थी तो कहीं एक अल्पवयस्क बेटी अपने बीमार पिता को साइकिल पर लेकर जा रही थी। कहीं किसी राज्य के बॉर्डर पर एकत्रित हुई भीड़ को प्रवेश करने से नियंत्रित किया जा रहा था तो कहीं सुनसान पड़े नेशनल हाईवे पर रात-दिन लोग पैदल चलते जा रहे थे। ये सब खबरें ऐसी थीं, जो किसी को भी बेचैन कर दे। जब ऐसी खबरें न्यूज रूम आना शुरू हुईं तो उनको प्रसारित करना एक मीडिया संस्थान व पत्रकार का नैतिक धर्म था, जिसका पालन करते हुए खबरों को लिखना-दिखाना शुरू किया गया, जो कि लगातार जारी रहा।
दुनिया भर में कोई भी देश इस महामारी का सामना करने के लिए पहले से तैयार नहीं था। विकसित देशों में बढ़ते कोरोना संक्रमण और ध्वस्त होती चिकित्सा सुविधाओं की खबरें जब ‘द गार्डियन’ और ‘डेली टेलीग्राफ’ से दी जाने लगीं तो इन खबरों को भारतीय पत्रकारों द्वारा भी कवर करना जरूरी हो गया। डर के उस माहौल में, जहां हम विकसित देशों की मेडिकल फैसिलिटी से बहुत पीछे थे, इस महामारी का सामना कैसे करेंगे, सबके लिए चिंता का विषय था।
इन खबरों को जब भारतीय मीडिया ने कवर किया तो उससे सरकार और प्रशासन के कामों में तेजी देखने को मिली और पत्रकारों के इस प्रयास ने पॉजिटिव प्रेशर डेवलप करने का काम किया। इसका परिणाम ये रहा कि कई मौकों पर प्रशासन और मीडिया के लोगों ने मिलजुलकर ऐसे रिलीफ वर्क किए, जिन्हें सामान्य स्थिति में करना संभव नहीं था। इन सब के बीच कई बार ऐसा भी हुआ, जब पत्रकारों को प्रशसनिक चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा। इसमें उन पर ये आरोप भी लगे कि वे खबर को बढ़ा-चढ़ाकर दिखा रहे हैं। लेकिन, सामान्य लोगों की पीड़ा देखकर कोई पत्रकार अपने उत्तरदायित्व बोध से कैसे विचलित हो सकता था?
ऐसे में प्रशासन और पत्रकारों के बीच का संघर्ष भी होता रहा, लेकिन जो भी था उसके परिणाम उत्तरोत्तर सकारात्मक ही निकले। इन प्रयासों से लाखों जिंदगियां बचाई जा सकीं और लोगों तक समय रहते सूचना का त्वरित प्रवाह हुआ। हमारे डॉक्टर्स, मेडिकल स्टाफ ने उल्लेखनीय काम किए और उनके इन कार्यो को आगे पॉजिटिव न्यूज के रूप में पत्रकार बंधुओं द्वारा प्रसारित किया गया। इनसे अनेक लोग, संस्थाएं सामने आईं और उन्होंने भी इस कठिन समय में अपना अमूल्य योगदान दिया।
मार्च 2021 के अंत में जब कोविड के एक नए डेल्टा वेरिएंट का पता चला तो यह अंदाजा लगाया गया कि अब ये असर नहीं करेगा, क्योंकि पहली लहर के बाद अधिकतर जनसंख्या में इम्युनिटी विकसित हो चुकी है। इस समय भारत में जनवरी में कोविड की वैक्सीन सामान्य लोगों को देना शुरू किया जा चुका था। लेकिन, इन सब आकलनों से अलग डेल्टा वेरिएंट ने बहुत तेजी से फैलना शुरू किया और अप्रैल में सरकार को फिर से लॉकडाउन लगाना पड़ा।
इस बार बीमार होने वालों की संख्या बहुत ज्यादा थी। अस्पतालों में बेड नहीं थे और जो मरीज भर्ती थे, उनके लिए ऑक्सीजन की आपूर्ति का सप्लाई पैदा हो गया। चारों तरफ लोग ऑक्सीजन सिलिंडर और कॉन्सेंट्रेटर के लिए परेशान हो रहे थे। ऐसे में पत्रकारों को एक नए संघर्ष से गुजरना पड़ा, जबकि पत्रकारिता भी करनी थी और लोगों की मदद भी करनी थी। कई मीडिया संस्थानों और पत्रकारों ने इस समय आगे बढ़कर लोगों की मदद की। इस विभीषिका की रिपोर्टिंग जब की जा रही थी, तब उसके फोटो, वीडियो और खबरें दिल दहला देने वाली थीं।
लेकिन, इन खबरों ने लोगों को वास्तविकता से अवगत कराया, जो कि जरूरी था। क्यूंकि जब किसी समस्या को छुपाकर या दबाकर हल नहीं किया जा सकता है तो फिर किसी खबर को दबाए रखने या प्रकाशित/प्रसारित न करने का कोई औचित्य नहीं बनता। जो भी वास्तविकता हो, उसे जानने का हक डेमोक्रेसी में सभी को है। अगर चीन के परिपेक्ष्य में देखें तो अगर कोविड की खबरों को छुपाया या दबाया न होता तो शायद इस महामारी को बहुत पहले ही नियंत्रित कर लिया गया होता।
इस महामारी के समय अनेक मीडियाकर्मियों ने फील्ड में काम करते हुए अपनी जान गंवा दी। वह पत्रकारिता जगत की अमूल्य धरोहर थे। वे इस कठिन समय भी काम कर रहे थे, क्यूंकि उनका उद्देश्य लोगों को सही खबर देना था। वे किसी के पक्ष या विपक्ष में नहीं थे। वे तो सत्य के साथ खड़े थे और उसी के निर्वहन में उन्होंने अपनी जान तक कुर्बान कर दी। अनगिनत कठिनाइयों के बीच काम करना, सत्ता या प्रशासन से सीधे सवाल जबाब करना किसी पत्रकार का व्यक्तिगत मामला नहीं है। वह तो सत्य के उस शीर्ष को पाने की कोशिश करता है, जिसके लिए उसकी कलम प्रतिबद्ध है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ’भारत समाचार' के एडिटर-इन-चीफ हैं।)
तारेक साहब की बात में मैं बस ये एड करना चाहूंगा कि भारत का मध्यम या उच्च मध्यम वर्ग गरीब ही नहीं, ऐसे हर वर्ग या घटना के प्रति उदासीन है जिससे उसका कोई लेना-देना नहीं।
नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
तारेक फतेह साहब ने बहुत साल पहले कहा था, मुझे भारत से जुड़ी बहुत सारी चीज़ें बहुत पसंद हैं। बस एक चीज़ मुझे दुख देती है। वो ये कि भारत का मध्यम वर्ग, भारत का संपन्न वर्ग वहाँ के गरीब लोगों के प्रति बहुत उदासीन है। जैसे उसे उनके होने या न होने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। वो अपनी ज़िंदगी में मगन है।
तारेक साहब की बात में मैं बस ये एड करना चाहूंगा कि भारत का मध्यम या उच्च मध्यम वर्ग गरीब ही नहीं, ऐसे हर वर्ग या घटना के प्रति उदासीन है जिससे उसका कोई लेना-देना नहीं।
आज पहलगाम हादसे के फ़ौरन बाद जिस तरह कश्मीर में सब घूमते पर्यटकों की तस्वीरें सामने आ रही हैं, उससे तारेक साहब की बात एक बार फिर सही साबित हो गई। आप एक सेकेंड के लिए कल्पना करके देखिए, अगर Pakistan, Bangladesh या दुनिया के किसी भी और देश में उस देश की majority के लोगों को उसी के एक राज्य में उनके धर्म की वजह से क़त्ल कर दिया जाता, तो उस देश में उसका क्या reaction होता?
मगर इस देश के संस्कार ऐसे हैं, हमारी फ़ितरत ऐसी है कि धर्म के आधार पर हुई इतनी बड़ी घटना के बावजूद पूरे देश में इस पर कोई बड़ा reaction नहीं हुआ। Reaction इसलिए नहीं हुआ क्योंकि हम अंदर से किसी के लिए नफ़रत से नहीं भरे हुए हैं। नफ़रत से भरे होते, किसी के लिए अंदर ज़हर लेकर बैठे होते, तो पूरा देश बदले की आग में जल उठता।
लोगों में ग़ुस्सा है तो हमले में मारे गए बेगुनाह लोगों को लेकर है लेकिन ये ग़ुस्सा किसी बदले की मुहिम में translate हो जाए, ऐसा नहीं है। एक धर्म के तौर पर हमारे अंदर कोई श्रेष्ठता बोध नहीं है, इसलिए हम मोटे तौर पर इतने सयंत हैं। इसलिए उतने नफरती नहीं है।
लेकिन संयत होने और लुंजपुंज होने में फ़र्क होता है। और ये कहने में मुझे कोई हर्ज़ नहीं है कि हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा अभी भी संयंत नहीं, लुंजपुंज है।
वो अपने खाने-पीने में, अपनी मस्ती में इतना मस्त है कि उसे दूसरे के दुखों की कोई परवाह नहीं। उसके पास इतनी फ़ुर्सत ही नहीं है कि वो एक पल के लिए अपने समाज, अपने राष्ट्र, अपनी पहचान पर विचार कर सके।
ये वर्ग इतना संवेदनहीन है कि बजाय पहलगाम में हुई घटना पर विचार करने, वहाँ जो हुआ क्यों हुआ, कैसे हुआ, किसने किया, किस मकसद से किया — ये सोचने के, वो इस आपदा को अवसर की तरह देख रहा है। वहाँ जाकर दावे कर रहा है कि यहाँ तो सब normal है, यहाँ तो कुछ ग़लत नहीं हुआ, यहाँ के लोग तो बहुत welcoming हैं। देखो, ये तो मारे गए लोगों के इंसाफ़ के लिए सड़कों पर भी आए, उन्हें भरोसा भी दिला रहे हैं कि आप लोग आ जाओ, कुछ नहीं होगा।
ऐसा बोलने वाले tourist या journalist में किसी एक की हिम्मत नहीं कि वो प्रदर्शन कर रहे इन्हीं लोगों से पूछ सकें कि हम tourists को भरोसा दिलाने वाली आपकी इस भावना से बहुत ख़ुश हुए। हम इस भावना का सम्मान भी करते है। लेकिन किन सर, क्या आप हमें बता पाएँगे कि पिछले 36 सालों में कश्मीरी ऐसा भरोसा कश्मीरी पंडितों को क्यों नहीं दिला पाए?
क्या किसी tourist ने पूछा कि सर, हम तो फिर भी tourist हैं, साल में चार दिन घूमने आए हैं, घूमकर चले जाएँगे। लेकिन जो कश्मीरी पंडित यहाँ से भगाए गए हैं, ये कश्मीर तो उनका अपना घर है। हमसे ज़्यादा आपके भरोसे की ज़रूरत तो उनको है। पिछले सालों मेें आपने उनको भरोसा दिलाने के लिए ऐसी कितनी रैलियां निकालीं?
क्यों नहीं ये सवाल किया गया कि Tourist तो फिर भी कहीं और चला जाएगा, लेकिन जिस आदमी से अपना घर छीना गया है, वो कब तक दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में विस्थापित बनकर पड़ा रहेगा? जिस तरह रैलियां निकालकर आप टूरिस्टों को भरोसा दिला रहे हैं कि कुछ नहीं होगा वापिस आ जाओ..वापिस आने की ऐसी अपील कितनी बार उनसे की गई?
क्यों उनसे नहीं पूछा जाता कि ये किस तरह की संवेदनशीलता है, ये किस तरह का दिल है जो tourist के लिए तो धड़कता है मगर अपने ही कश्मीरी पंडितों के लिए नहीं?
क्यों नहीं ये सवाल किया जाता कि जो उमर अब्दुल्ला आज हादसे पर बड़ा अफसोस ज़ाहिर कर रहे हैं। आखिर क्या वजह थी कि इनके वालिद फारूख अब्दुल्ला को धारा 370 के मुद्दे पर ये कहना पड़ा था कि अगर ऐसा हुआ तो अल्लाह ये चाहेगा कि हम भारत से अलग हो जाएँ। मतलब तब तो बाकी भारतीय राज्यों के बराबर दर्जा करने पर कश्मीर को भारत से अलग करने की धमकी दे रहे थे और आज भारतीय टूरिस्टों के मुंह मोड़ लेने के डर से विधानसभा में माफियां मांग रहे हो।
सिर्फ एक बार इनमें से एक भी सवाल पर विचार कर लिया होता, तो इस निर्लज्जता के फूहड़ प्रदर्शन से बचा जा सकता था, कि 'यहाँ सब तो ठीक है...सब मज़े में है...छोटी मोटी घटनाएं तो होती रहती हैं।
पूरी दुनिया में आपको संवेदनहीनता की ऐसी दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी, जहां एक तरफ बूढ़ा बाप आतंकी हमले में मारे गए अपने बेटे की अस्थियां बहाते हुए रो रहा है और ठीक उसी वक्त उस मौत से बेपरवाह उसका समाज उसी जगह सामान्यीकरण का जश्न मना रहा है! अफसोस है, बहुत अफसोस।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
पहलगाम में हिंदुओं के नरसंहार पर कई साहित्यकारों ने ना केवल अपनी अज्ञान का सार्वजनिक प्रदर्शन किया बल्कि अपनी विचारधारा के पोषण की वफादारी में अपनी जगहंसाई भी करवाई।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
पिछले सप्ताह कुछ मित्रों के साथ हिंदी में प्रकाशित नई पुस्तकों पर चर्चा हो रही थी। हिंदी में लिखा जा रहा साहित्य भी इस चर्चा में आया। साहित्य में जिस तरह का लेखन हो रहा है उसको लेकर एक दो मित्रों की राय नकारात्मक थी। चर्चा में ये बात भी आई कि औसत या खराब तो हर काल में लिखा जाता रहा है। जो रचना अच्छी या स्तरीय होती है वो लंबे समय तक पाठकों की पसंद बनी रहती है।
इसी चर्चा में एक दिलचस्प बात निकलकर आई। वो ये कि इन दिनों हिंदी के कई प्रकाशक उन्हीं विषयों को प्राथमिकता दे रहे हैं जिन विषयों पर बहुतायत में रील्स इंस्टा या एक्स पर प्रसारित हो रहे हैं। इसके लिए प्रकाशक किसी भी भाषा में लिखी पुस्तक के अधिकार खरीदकर उसको हिंदी में प्रकाशित भी कर रहे हैं।
आज रील्स की दुनिया में सफल बनने के नुस्खे, पैसे कमाने की विधि, जल्द से जल्द अमीर कैसे बनें, करियर में बेहतर कैसे करें, नौकरी कैसे मिलेगी, शेयर बाजार में निवेश से कैसे बनें करोड़पति, भगवान की पूजा कैसे करें, किस भगवान की पूजा किस दिन करने से प्रभु प्रसन्न होते हैं आदि आदि विषय पर काफी कंटेंट है। सफलता कैसे प्राप्त करें, नौकरी में कैसे व्यवहार करें, टाइम मैनेजमेंट, शेयर बाजार में निवेश पर दर्जनों किताब हाल के दिनों में मेरी नजर से गुजरी है।
एक और विषय इन दिनों हिंदी के प्रकाशकों को लुभा रहा है वो है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस( एआई) यानि कृत्रिम बुद्धिमत्ता। इस वुषय पर भी हिंदी में कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं लेकिन अभी इन पुस्तकों को स्तर प्राप्त करना शेष है। इस विषय की अधिकतर पुस्तकें गूगल बाबा की कृपा से प्रकाशित हुई हैं।
चर्चा में ही एक बात और निकल कर आई कि इन दिनों कई प्रकाशक नए लेखकों की पुस्तकें प्रकाशित करने के पहले जानना चाहते हैं कि उनके इंस्टाग्राम और एक्स या फेसबुक पर कितने फालोवर हैं। पुस्तक प्रकाशन की शर्त पहले बेहतर कृति होती थी लेकिन समय बदला और पुस्तक प्रकाशन के मानक और निर्णय के कारक भी बदलने लगे। इस शताब्दी के आरंभिक वर्षों तक इंटरनेट मीडिया का चलन इतना अधिक नहीं था।
डाटा की उपलब्धता भी कम थी। इंटरनेट का देश में घनत्व कम था और डाटा इतना सस्ता भी नहीं था। जैसे जैसे कम मूल्य पर डाटा की उपलब्धता बढ़ी तो लोग इंटरनेट मीडिया का उपयोग करने लगे। 2009 के आसपास फेसबुक और ट्विटर (अब एक्स) पर लोग जुड़ने लगे थे। ये जुड़ाव समय के साथ बढ़ता चला गया। याद है कि 2014-15 के आसपास मेरे कई मित्र कहा करते थे कि फेसबुक समय बर्बादी की जगह है।
वे इस माध्यम पर कभी नहीं आएंगे। उन्हीं मित्रों के फेसबुक अकाउंट की हरी बत्ती दिनभर जली देखकर मजा आता है। अब तो अधिकतर साहित्यिक बहसें फेसबुक पर ही होती हैं, कई बार सकारात्मक और बहुधा नकारात्मक। साहित्यकारों के कुंठा प्रदर्शन का भी सार्वजनिक मंच बन गया है फेसबुक। पहलगाम में हिंदुओं के नरसंहार पर कई साहित्यकारों ने ना केवल अपनी अज्ञान का सार्वजनिक प्रदर्शन किया बल्कि अपनी विचारधारा के पोषण की वफादारी में अपनी जगहंसाई भी करवाई। खैर ये अवांतर प्रसंग है जिसकी चर्चा फिर कभी।
हम बात कर रहे थे रील प्रेरित लेखन की। दरअसल हुआ ये है कि रील्स की विषयों की लोकप्रियता को देखते हुए कुछ प्रकाशकों ने पुस्तक प्रकाशन में भी उसका प्रयोग किया। पटना और दिल्ली में आयोजित पुस्तक मेला के अनुभव ये बताते हैं कि युवा पाठक इस तरह की पुस्तकों की ओर आकर्षित हुए। अब भी हो रहे हैं। एक बात तो तय माननी चाहिए कि हिंदी के प्रकाशकों को अगर लाभ नहीं होगा तो वो बहुत दिनों तक किसी भी ट्रेंड को लेकर नहीं चलेंगे।
ये कारोबार का आधार भी है। हिंदी में कविता के पाठक कम होने आरंभ हुए तो प्रकाशकों ने कविता संग्रह का प्रकाशन लगभग बंद कर दिया। कुछ दिनों पहले नई वाली हिंदी के कई लेखक आए थे। उनकी पुस्तकें खूब बिकीं । दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की सूची में कईयों को स्थान मिला, अब भी मिल रहा है। नई वाली हिंदी का परचम लेकर चलनेवाले लेखकों में से सत्य व्यास और नीलोत्पल मृणाल के अलावा कम ही लेखकों के यहां विषयों कि विविधता दिखती है।
सत्य व्यास ने अपने उपन्यासों में लिखने की प्रविधि में बदलाव किया। कथा के प्रवाह के साथ नहीं बहे बल्कि इन्होंने शिल्प में बदलाव किया। सत्य ने अपने उपन्यासों में सीन लिखना आरंभ किया। लंबे लंबे सीन जिसका उपयोग या तो फिल्म में या फिर वेब सीरीज में किया जा सकता हो। सत्य के एक उपन्यास पर बेव सीरीज भी बनी, एकाध पर और बनने की खबर है।
सत्य की सफलता से उत्साहित होकर कई नए लेखकों ने अपनी कहानियों के शिल्प में बदलाव करके सीन को अपनाया। छोटी कहानियां और छोटो उपन्यासों में सीन लेखन आसान भी है। अगर आप 600 पन्ने का कोई उपन्यास लिखेंगे तो आपको सीन की निरंतरता को बरकार रखने में पसीने छूट जाएंगे। क्रमभंग का खतरा भी उपस्थित हो सकता है।
इस कारण से भी उपन्यास 150-200 पृष्ठों के आने लगे। इसको पाठकों ने भी पसंद किया। पुरानी प्रविधि से लिखे जा रहे कथा साहित्य को अपेक्षाकृत कम पाठक मिल रहे हैं। पहले इस तरह के सीन लिखने का प्रयोग सुरेन्द्र मोहन पाठक से लेकर वेद प्रकाश शर्मा, और इस जानर के ही अन्य उपन्यासकार करते थे। उन सबकी लोकप्रियता का एक कारण ये भी था।
अब हिंदी के पाठक सीन को तो पसंद कर ही रहे हैं लेकिन सीन के बाद अब रील वाले विषयों को भी पसंद करने लगे हैं। हिंदी लेखन में आए इस बदलाव को या इस नए ट्रेंड को समझना आवश्यक है। आज के इस भौतिकवादी युग में हर कोई सफल और अमीर बनना चाहता है। इंटरनेट और मीडिया के प्रसार ने भारत की अधिकांश जनता को भैतिक सुख सुविधाओं से परिचित करवा दिया।
हमारे देश में प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है, साक्षरता भी। जाहिर है सपने भी बड़े होते जा रहे हैं। इन सपनों और आकांक्षाओं को पुरानी प्रविधि से लेखन करनेवाले पकड़ नहीं पा रहे हैं। वे अब भी खेत-खलिहान, गरीब-अमीर, शोषण-शोषित, जात-पात जैसे विषयों में उलझे हैं। हमारा समाज काफी आगे बढ़ गया है। जो युवा लेखक नए विषयों को लेकर आगे बढ़े और कहानी का ट्रीटमेंट अलग तरीके से किया उनकी पुस्तकें बिक रही हैं।
प्रकाशक भी उनको छापने के लिए पलक पांवड़े बिछाए हैं। इस बात का सामने आना शेष है कि जिन लेखकों के फेसबुक या इंस्टाग्राम के फालोवर्स अधिक हैं उनकी पुस्तकें उसी अनुपात में बिक पाती हैं या नहीं। बिकने की बात हिंदी में जरा मुश्किल से पता चलती हैं। पर इतना तय है कि जिनके इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स पर फालोवर्स की संख्या अधिक है उनको अपनी पुस्तकों के प्रचार प्रसार में सहूलियत होती है। अगर ढंग से प्रचार हो जाए तो पुस्तकों के बारे में आनलाइन और आफलाइन प्लेटफार्म पर एक प्रकार की जिज्ञासा देखी जाती है। कई बार ये जिज्ञासा बिक्री तक पहुंचती है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
मस्क की सोच कहीं ट्रंप की पॉलिटिक्स से टकराती रही है। ट्रंप का क्लाइमेट चेंज में क़तई विश्वास नहीं है बल्कि उन्होंने तो अमेरिका में कोयले के इस्तेमाल पर लगी रोक भी हटा दी है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
एलॉन मस्क दुनिया के सबसे अमीर आदमी हैं। पिछले नवंबर में डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव जीता तो मस्क की ताक़त और बढ़ गई। पैसे के साथ साथ पावर भी उनकी मुट्ठी में थीं। उनकी कंपनियों के शेयर रिकॉर्ड ऊँचाई पर पहुँच गए। अब पाँच महीने बाद कहानी बदल गई। Tesla की बिक्री गिर रही है। मुनाफ़ा कम हो रहा है। शेयर गिर रहे हैं तब जाकर मस्क को कहना पड़ा कि वो अमेरिकी सरकार के लिए काम कम करेंगे। Tesla पर ज़्यादा ध्यान देंगे।
टेक्नॉलजी में मस्क का काम शानदार रहा है। यही उनकी अमीरी का कारण है। बिज़नेस के पीछे सोच रही है, जैसे वो हमारी दुनिया को लेकर चिंतित हैं। उनका मानना रहा है कि पृथ्वी नष्ट हो सकती है। उसे बचाने के लिए पेट्रोल डीज़ल का इस्तेमाल बंद होना चाहिए। इसी सोच ने Tesla कार बनाई जो बिजली से चलती है। पृथ्वी नष्ट हो गई तो मानवता के पास दूसरे ग्रह पर रहने की तैयारी होना चाहिए। अंतरिक्ष में आने जाने का काम सरकारें करती थी। मस्क ने Space X के ज़रिए वहाँ क़दम रखा।
पहले रॉकेट एक बार लाँच होने के बाद ख़त्म हो जाता था। Space X ने ऐसे रॉकेट बनाएँ जो दोबारा इस्तेमाल हो सकते हैं जैसे हम विमान का इस्तेमाल करते हैं कुछ वैसा ही अंतरिक्ष में आने जाने के लिए रॉकेट का मतलब रॉकेट लैंड किया और फिर आप उस पर सवार हो गए।
मस्क की सोच कहीं ट्रंप की पॉलिटिक्स से टकराती रही है। ट्रंप का क्लाइमेट चेंज में क़तई विश्वास नहीं है बल्कि उन्होंने तो अमेरिका में कोयले के इस्तेमाल पर लगी रोक भी हटा दी है। डेमोक्रेट या लिबरल लोग Tesla जैसी गाड़ी ख़रीदते आएँ हैं। मस्क ट्रंप समर्थन करते हैं इससे Tesla की गाड़ियों में आग लगाने जैसी घटनाएँ भी हुई है। टैरिफ़ को लेकर भी मस्क सहमत नहीं है। इससे उनके बिज़नेस पर असर पड़ रहा है।
उनकी कारें चीन, जर्मनी और अमेरिका में बनती हैं। सारे कल पुर्ज़े अलग अलग देशों से आते हैं। टैरिफ़ वॉर से उनके सप्लाई चेन में गड़बड़ी होने की आशंका है।
इस सबके बीच Tesla को चीन की BYD कंपनी से चुनौती मिल रही है। 2024 में BYD ने पहली बार Tesla से ज़्यादा इलेक्ट्रिक कार बेचीं। BYD ने 43 लाख गाड़ियाँ बेचीं जबकि Tesla ने 18 लाख। टेक्नॉलजी में भी BYD आगे निकल रहा है जैसे वो टेक्नोलॉजी डेवलप कर रहा है जिससे पाँच मिनट की चार्ज में गाड़ी 450 किलोमीटर चल सकेगी।
Tesla 15 मिनट की चार्जिंग से 250 किलोमीटर तक ही पहुँच पायीं है। Tesla के ताज़ा रिज़ल्ट के मुताबिक़ उसकी बिक्री और मुनाफ़े में गिरावट आई है। ऐसी परिस्थिति में मस्क ने कहा कि वो सरकार के लिए हफ़्ते में एक या दो दिन ही काम करेंगे। ट्रंप राष्ट्रपति बनने के बाद से उन्होंने DOGE यानी Department of Government Efficiency के लिए काम करना शुरू किया है। लक्ष्य तो एक ट्रिलियन डॉलर बचत का था लेकिन इसमें भी कोई भी बड़ी सफलता नहीं मिली है। 1 ट्रिलियन डॉलर बचत का लक्ष्य था जिसे घटाकर 150 बिलियन डॉलर पर लाया है। वो भी पूरा नहीं होता दिख रहा है। मस्क अब यह सब छोड़कर बिज़नेस पर ध्यान देंगे।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
सुल्तान महमूद चौधरी 1996 से पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के एजेंट की तरह पाक कब्जाए कश्मीर की राजधानी में सत्ता की राजनीती तथा आतंकी शिविरों का इंतजाम करता रहा है।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
यह 'सुल्तान ' है या पाकिस्तानी सेना और आईएस का कठपुतली आतंकी सरगना? जी हाँ , पाकिस्तान के कब्जे वाले गुलाम कश्मीर में लगभग तीस साल से सेना नियंत्रित कथित सरकार में कभी वजीर ए आज़म ( प्रधानमंत्री ) और अब प्रेसिडेंट कहलाने वाला सुल्तान महमूद चौधरी न केवल आतंकवादियों के प्रशिक्षण की देख रेख करता है बल्कि अमेरिका, ब्रिटैन सहित दुनिया के कई देशों में भारत के विरुद्ध सक्रिय आतंक समर्थक संगठनों को सहायता करते हुए जम्मू कश्मीर और भारत सरकार के विरोध में अभियान चलाता है।
सुल्तान ने पहलगाम में भारतीय पर्यटकों पर आतंकी हमले से एक दिन पहले भी इस्लामाबाद में भारत के विरुद्ध जहर उगलते हुए जम्मू कश्मीर पर अधिकार करने जैसी घातक चेतावनी दी थी। इससे एक महीने पहले उसने ब्रिटेन और अमेरिका की यात्रा के दौरान वहां के नेताओं के साथ पाकिस्तानी आईएसआई द्वारा फंडिंग वाले संगठनों और आतंकी षड्यंत्र, भारत विरोधी प्रदर्शन करने वाले लोगों से मुलाकातें की थी। उसकी यात्राओं के कुछ विवरण, प्रेस कॉन्फ्रेंस आज भी उपलब्ध हैं।
यह इस बात का प्रमाण है कि पहलगाम का शर्मनाक भयानक आतंकी हमला और भारतीय उच्चायोगों दूतावासों के सामने हो रहे प्रदर्शनों की तैयारी सेना, आईएसआई और उसके भाड़े के नेता कई महीनों से कर रहे थे। इसलिए अब भारत सरकार और सेना को ऐसे आतंकी तत्वों और ठिकानों पर निर्णायक कार्रवाई करनी होगी।
सुल्तान महमूद चौधरी 1996 से पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के एजेंट की तरह पाक कब्जाए कश्मीर की राजधानी मुजफ्फराबाद में सत्ता की राजनीती तथा आतंकी शिविरों का इंतजाम करता रहा है। पाकिस्तान ने राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने इसे कठपुतली के रूप में इस इलाके का प्रधानमंत्री बना रखा था। मुशर्रफ के बाद भी हर सेनाध्यक्ष इसका इस्तेमाल करता रहा है। दिलचस्प बात यह है कि 2021 से इसे इलाके का प्रेसिडेंट घोषित कर दिया है।
यह संयोग और एक हद तक अच्छा अवसर भी था जब जनरल मुशर्रफ के सत्ताकाल के दौरान जुलाई 2000 में भारत के शीर्ष सम्पादकों के साथ मुझे भी मुजफ्फराबाद में सुल्तान महमूद चौधरी से भी मुलाक़ात हुई। कुलदीप नायर और इन्दर मल्होत्रा, विनोद मेहता, सुमित चक्रवर्ती, तरुण बसु जैसे वरिष्ठ सम्पादकों के साथ हमने इस्लामाबाद से मुजफ्फराबाद तक की यात्रा की थी।
इस्लामाबाद में भारतीय और पाकिस्तानी सम्पादकों के सम्मलेन में जनरल मुशर्रफ भी आया था और उसी कारण हमें उस इलाके में जाने की अनुमति मिल सकी। सामान्यतः वर्षों से भारतीय पत्रकारों को पाकिस्तान और खासकर मुजफ्फराबाद के इलाके में जाने कि वीसा नहीं मिलता था। इस्लामाबाद से मुजफ्फराबाद जाने के लिए पर्यटन नगरी मरी होकर जाना होता है।
ब्रिटिश राज में भी अंग्रेजों को यह इलाका पसंद था। इसलिए वहां की पुरानी इमारतें आज भी देखने को मिलती हैं लेकिन मरी के बाद मुजफ्फराबाद के रास्ते में पड़ने वाले गांव और कस्बों में बुरी हालत दिखाई दे रही थी जो आज उससे भी बदतर हो गयी है। सड़कों की हालत ख़राब रही है। मुजफ्फराबाद में फटेहाल लोग और मॅहगाई लगातार बढ़ती चली गयी है। हास्यास्पद बात यह है कि उस समय भी सुल्तान महमूद चौधरी चीन और अमेरिका से संबंधों के बात पर पुरे कश्मीर पर कब्जे की बातें कर रहा था।
अब पाकिस्तान के वर्तमान विदेश मंत्री ने सार्वजानिक रूप से यह भी स्वीकारा है कि अमेरिका से मदद लेकर हथियारबंद आतंकियों कि घुसपैठ भारतीय सीमाओं में कराई जाती रही है। लेकिन वह या उनकी सरकार यह भूल रही है कि अब अमेरिका, यूरोप और रूस ही नहीं चीन भी उसकी कोई मदद नहीं करने वाला है।
भारत की सुरक्षा एजेंसियां ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय गुप्तचर एजेंसियों के पास पाकिस्तान द्वारा आतंकियों को प्रशिक्षित करने तथा उनकी गतिविधियां चलाने के सैकड़ों प्रमाण उपलब्ध हो गए हैं।
अमेरिका की एफबीआई ने 2000 में ही आतंकवाद से निपटने के लिए भारत के साथ सक्रिय सहयोग का आश्वासन दिया था। अप्रैल 2000 में एफबीआई के निदेशक लुइस जे फ़रीह ने तीन दिवसीय भारत की यात्रा की थी। हाल के वर्षों में अमेरिका, रूस, इस्र्राईल की गुप्तचर एजेंसियों के साथ भारतीय एजेंसियों को तालमेल बहुत बढ़ चुका है। आतंकवाद के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जी 20 समूह के देशों के साथ आतंकवाद विरोधी अभियान में सम्पूर्ण विश्व समुदाय के समर्थन पर सर्वाधिक जोर दिया है।
इस मुद्दे पर चीन भी सहमत है। वही पाकिस्तान को समर्थन देने वाले खाड़ी के तेल उत्पादक इस्लामी देश सऊदी अरब और सयुंक्त अरब अमीरात भी भारत के साथ सामरिक और आर्थिक सम्बन्ध बढ़ाने के लिए आतंकवादी गतिविधियों के विरोध में दिखाई दे रहे हैं। पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन लश्करे तैबा, जैश ए मुहम्मद, अल बदर, हिज्बुल मुजाहिदीन पिछले वर्षों के दौरान बड़े पैमाने पर प्रशिक्षण शिविर चलते रहे हैं।
पाकिस्तानी सेना ही इनके लिए धन और हथियारों का इंतजाम करती है। धर्म और रोज़गार के नाम पर 15 -20 वर्ष के युवकों को भर्ती कर उन्हें मुजाहिद नाम दिया जाता है। इन मुजाहिदों को थल सेना के जवानो की तरह ए. के. 47 , ए. के. 56 , असाल्ट राइफल, रॉकेट संचालित ग्रिनेड प्रक्षेपक (आरुईजीएल) और कंधे पर रख कर छोड़े जाने वाली स्ट्रिंगर मिसाइल चलाने की ट्रेनिंग भी दी जाती है। ऐसे ही प्रशिक्षित आतंकी भारतीय सीमा में घुसपैठ करते हैं। इसीलिए भारत लगातार यह कहता रहे है कि पाकिस्तान पिछले कई दशकों से छद्म युद्ध कर रहा है।
भारत द्वारा सिंधु जल समझौते के स्थगन के बाद पाकिस्तान ने शिमला समझौता रद्द करने की घोषणा की है। लेकिन भारत दुनिया को यह बता चुका है कि पाकिस्तान लगातार शिमला समझौते का उल्लंघन करता रहा है। कारगिल में हुई घुसपैठ से लेकर मुंबई में हुए बड़े आतंकी हमले और जम्मू कश्मीर में पहलगाम तक हुए आतंकी हमलों से इस बात की पुष्टि होती है कि पाकिस्तान ने समझौते को कभी निभाया ही नहीं। इसी तरह संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब और ईरान के नेताओं को भारत ने अनेक प्रमाण दे करके यह विश्वास दिलाया है कि इस्लाम धर्म के नाम पर युवकों को आतंकी बनाना और उन्हें ड्रग्स और हथियारों से मासूम लोगों की हत्या के लिए तैयार करना पूरी दुनिया के लिए विनाशकारी बनता जा रहा है।
पाकिस्तान धर्म की दुहाई देता है लेकिन उसने पहले भी पूर्वी पाकिस्तान में 20 लाख मुस्लिमों की हत्या करवाई जो अब बांग्लादेश है। बलूचिस्तान में पाकिस्तानी सेना दो लाख मुस्लिमों की हत्या करवा चुकी। बलूचिस्तान में पाकिस्तानी सेना और सरकार के खिलाफ विद्रोह ज्वालामुखी की तरह किसी समय फट सकता है। मुजफ्फराबाद में पिछले दो-तीन वर्षों में लगातार सरकार और सेना के खिलाफ प्रदर्शन हुए हैं और वे कश्मीरी भारत का हिस्सा बनने के लिए लगातार दुहाई दे रहे हैं। भुट्टो परिवार के प्रभाव वाले सिंध प्रान्त में भी बगावत की आग भड़कती जा रही है। ऐसी हालत में पाकिस्तान को भारत से युद्ध करने से पहले अपने ही प्रांतों के अलग होने की तैयारियों से निपटना होगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के वज़ीरे आज़म चौधरी अनवरुल हक़ ने कहा कि भारत ने बलोचिस्तान में बग़ावत की आग लगाई है और अब उसको इसका अंज़ाम भुगतना होगा
रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
पाकिस्तान के लोग ही अपनी सरकार की झूठ के बारे में हकीकत उजागर कर रहे हैं। पाकिस्तानी फौज के एक पूर्व मेजर आदिल राजा ने दावा किया है कि पहलगाम हमला पाकिस्तानी आर्मी के चीफ जनरल आसीम मुनीर ने करवाया है। मेजर आदिल राजा ने कहा कि जनरल असीम मुनीर से पाकिस्तान की आवाम नाराज़ है, उनके खिलाफ बगावत हो रही है, इसलिए जनरल मुनीर ने पुराना फॉर्मूला अपनाया, अपनी कुर्सी बचाने के लिए कश्मीर में आतंकी हमला करवाया।
पाकिस्तान से इस तरह के एक नहीं कई बयान आए हैं। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के वज़ीरे आज़म चौधरी अनवरुल हक़ ने कहा कि भारत ने बलोचिस्तान में बग़ावत की आग लगाई है और अब उसको इसका अंज़ाम भुगतना होगा, पाकिस्तान और उसके मुजाहिद अब सिर्फ कश्मीर में नहीं, दिल्ली समेत दूसरे शहरों में भी हिंदुस्तानी शहरियों का ख़ून बहाएंगे।
पाकिस्तान से एक और हैरान करने वाला वीडियो आया। पाकिस्तानी फ़ौज के अफसर अब शहरों में आवाम के बीच घूम घूमकर उनका हौसला बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। पाकिस्तानी सेना के अधिकारी लोगों के बीच जाकर क़ुरान और हदीस का हवाला देते हुए ये दावा कर रहे हैं कि वो चिंता न करें, पाकिस्तानी फौज बहुत जल्द कश्मीर पर कब्जा कर लेगी और हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री को ज़ंजीरों में जकड़कर ले आएगी।
ये तीन बयान सुनने के बाद दो तीन बातें तो साफ है। पहली, पहलगाम में जो आतंकवादी हमला हुआ, जिस तरह मासूम लोगों को धर्म पूछकर मारा गया, ये सब पाकिस्तान की साजिश थी और इसकी प्लानिंग पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल मुनीर ने की। जनरल मुनीर का एक हफ्ते पहले कश्मीर पर बयान देना, हिन्दुओं के खिलाफ जहर उगलना कोई संयोग नहीं था।
ये साजिश का हिस्सा था। ये बात पाकिस्तानी फौज के पूर्व मेजर ने दुनिया को बता दी। पाकिस्तान दहशतगर्दों को लगातार भारत में भेज रहा है। ये बात PoK के तथाकथित प्रधानमंत्री ने साफ लफ्ज़ों में मान ली, लेकिन अब पाकिस्तान को भारत के एक्शन का डर है। वहां हालात पहले से ही खराब हैं। अगर भारत ने हमला किया तो हालात और बिगडेंगे।
इससे पाकिस्तानी आवाम परेशान हैं। इसीलिए अब पाकिस्तान फौज के अफसर पब्लिक के बीच जाकर लोगों का हौसला बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। मोदी को जंजीरों से बांध कर लाने की बातें कर रहे हैं। लेकिन हकीकत क्या है ? तीन जंगों में घुटने किसने टेके? ये पाकिस्तानी फौज के अफसर भी जानते हैं और वहां की आवाम भी। हालांकि अभी भारत की तरफ से बार्डर पार कोई एक्शन नहीं हुआ है, लेकिन कश्मीर में आंतकवादियों के खिलाफ ऑपरेशन ऑल आउट जारी है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं)
मतलब एक ऐसी वारदात को अंजाम दे दिया गया जिसे न तो कोई आज़ादी की लड़ाई बता सकता है, जिसे न अपनी बहादुरी बताकर उसका क्रेडिट लिया जा सकता है।
नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
इतना तो साफ है कि पहलगाम का हमला बिना पाकिस्तानी फौज की ट्रेनिंग के संभव नहीं था। मगर समझ ये नहीं आ रहा कि 27 टूरिस्टों की हत्या करवाकर वो हासिल क्या करना चाहती है। क्योंकि वो तो हर वक्त खुद को कश्मीरियों का हमदर्द बताती है लेकिन इस हमले से तो सबसे ज़्यादा बदनामी कश्मीरियों की हुई है। रातों-रात उनके काम-धंधे बंद हो गए हैं।
जिस तरह धार्मिक पहचान कर हिंदुओं की हत्या की गई, इससे उसने मुसलमानों के लिए भी मुश्किलें पैदा की हैं। अगर ये हमला सोची-समझी साजिश भी था तो उसे अच्छे से पता होगा ही कि इस पर भारत का रिएक्शन क्या होगा। उस रिएक्शन में भारत की तरफ से सैन्य कार्रवाई तक होना शामिल है।
मगर वो पाकिस्तान, जिसकी हालत आज इतनी खराब है कि वो एक-एक बिलियन डॉलर की मदद के लिए दर-दर भटक रहा है, अगर युद्ध हुआ तो वो उसका बोझ कैसे उठा पाएगा? पाकिस्तान पहले ही अफगानिस्तान बॉर्डर पर हर दिन तालिबान से उलझ रहा है। बलूचिस्तान में बलूच लिबरेशन आर्मी ने भी बुरा हाल कर रखा है। ट्रेन हाईजैकिंग कांड ने पूरे मुल्क में उसकी किरकिरी करवा दी।
ऐसे में उसको अच्छे से पता होगा कि अगर भारत ने हमला कर दिया तो पाकिस्तान अपने पूर्वी और पश्चिमी दोनों बॉर्डर पर घिर जाएगा। ऊपर से अफगानिस्तान से अमेरिका के चले जाने के बाद अमेरिका को भी उसकी ज़रूरत नहीं रही, जो उसे ब्लैकमेल करके भारत पर दबाव डलवा सके।
मतलब एक ऐसा हमला जिसके बाद उसने कश्मीरियों की नज़र में भी बुरा बनना था, मुसलमानों को भी बुरा बनाना था, जिसके बाद उसे भारत की तरफ से भी हमले का खतरा था और उसे अच्छे से पता था कि भारत के साथ बलूच लिबरेशन आर्मी और तहरीक-ए-तालिबान भी उस पर टूट पड़े तो वो टूट भी सकता है। ऊपर से देश इमरान की गिरफ्तार के बाद से देश में पोलिटिकल अनरेस्ट तो है ही। इस सबके बावजूद उसने सिर्फ कश्मीर के मुद्दे को हाईलाइट करने के लिए इतनी सारी मुसीबतें मोल क्यों ले लीं?
और इसका सिवाय इस बात के कोई और जवाब नहीं हो सकता कि फिलहाल पाकिस्तानी फौज की पकड़ वहां की सियासत से, वहां की आवाम से ढीली पड़ रही थी। देश की माली हालत ठीक नहीं है। बलूचियों ने उनका जीना मुहाल कर रखा है। अमेरिका के अफगानिस्तान से जाने के बाद पाक फौज को बड़ी उम्मीद थी कि वो तालिबानियों को अपना पालतू बना लेंगे, मगर उलटा तहरीक तालिबान ने ही उसका सबसे ज़्यादा जीना हराम कर रखा है।
ऊपर से पिछले 3 सालों में अज्ञात हत्यारे ने 20 से ज़्यादा हाई-प्रोफाइल आतंकियों को टारगेट किया है। इस सबसे पाकिस्तानी फौज की काफी लानत-मलानत हो रही थी। दूसरी तरह वो कश्मीर का झुनझुना बजाकर भारत का डर दिखाकर सालों से अपनी आवाम को काबू में रख रही थी। लेकिन 370 हटने के बाद कश्मीर भी पूरी तरह से नॉर्मल ज़िंदगी की तरफ लौट रहा था। पिछले पांच साल में वहां आने वाले टूरिस्ट की संख्या 30 लाख से बढ़कर दो करोड़ पैंतीस लाख हो गई थी। ऐसे में पाकिस्तानी फौज को लगा कि सब कुछ उसके हाथ से निकल रहा है। अपने ही मुल्क में वो पहली बात इतनी irrelavant हो रही थी। इससे पहले इमरान खान तो पाक फौज की पोल खोल ही चुके थे।
ऐसे में जनरल आसिफ मुनीर को लगा कि खोया हुआ रूतबा पाने का एक ही तरीका है — फिर से कश्मीर में कुछ बड़ा कांड कर दिया जाए। अब चूंकि कश्मीर में उनके पास लोकल सपोर्ट वैसा नहीं रह गया था। सेना की गाड़ी पर हमला करवाने से वैसी हेडलाइन बननी नहीं थी, तो फ्रस्ट्रेशन में कुछ न समझ आने पर उन्होंने हिंदू टूरिस्टों की ही हत्या करवा दी।
मतलब एक ऐसी वारदात को अंजाम दे दिया गया जिसे न तो कोई आज़ादी की लड़ाई बता सकता है, जिसे न अपनी बहादुरी बताकर उसका क्रेडिट लिया जा सकता है। उसने ये कांड सिर्फ इसलिए कर दिया क्योंकि सब कुछ उसके हाथ से निकल रहा था। वो बुरी तरह हताश हो चुकी थी और आखिरकार उसने सबका ध्यान खींचने के लिए आम टूरिस्टों को ही मरवा दिया बिना ये सोचे कि इसका अंजाम क्या होगा। क्योंकि जब बात सर्वाइवल की आती है तो आदमी पहले वो काम करता है जिससे पहले वो खुद को बचा सके।
इन सारी बातों का प्वाइंट ये है कि पाकिस्तानी फौज की फ्रस्ट्रेशन का लेवल, उसकी हताशा का लेवल अपने अंतिम बिंदु तक पहुंच चुका है। जहां से वो जैसे-तैसे खुद को relevant बनाए रखने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हो गई।
वरना आप सोचकर देखिए — एक बर्बाद मुल्क जिसके लिए सर्वाइव करना तक मुश्किल हो रखा है, वो ऐसा कांड क्यों करेगा जिसके बाद उसका वजूद ही खतरे में पड़ जाए? लेकिन बावजूद इसके उन्होंने किया क्योंकि जैसा कि खलील जिब्रान ने कहा था कि Hatred is the gnawing pain that eats the container that holds it, नफरत एक ऐसी निरंतर पीड़ा है जो उस प्याले को ही खा जाती है जिसमें वो भरी होती है। और पाकिस्तानी फौज से बड़ा इसका कोई उदाहरण ही नहीं।
भारत और हिंदुओं से नफरत में इन्होंने हम पर चार युद्ध थोपे। और हर बार ये युद्ध उन्हें ही खा गए। एक युद्ध ने तो उसके टुकड़े ही कर दिए। 65 की हार के बाद अयूब खान ने कहा था कि हम चंद कश्मीरियों की खातिर अपने सैकड़ों फौजी नहीं मरवा सकते। मगर 71 में जनरल याह्या खान ने फिर वही गलती की। 71 की हार के बाद जब उन्हें समझ आ गया कि भारत को सीधे युद्ध में नहीं हरा सकते तो जिया उल हक ने कसम खाई कि We will bleed India with thousand cuts, मतलब भारत को हज़ार ज़ख्म देकर उसे ज़ख्मी करेंगे। यानी प्रॉक्सी वॉर के ज़रिए आतंकी हमले करवाकर भारत में दहशत फैलाएंगे। 90 और 2000 के दशक में देश में हुए हमले पाकिस्तान की हज़ार ज़ख्म देने वाली इसी रणनीति का हिस्सा थे।
फिर मुशर्रफ ने भी भारत को बर्बाद करने की कसमें खाईं। भारत का तो कुछ नहीं बिगड़ा। उन्हें ही देश छोड़कर भागना पड़ा और बाद में गुमनामी में उनकी मौत हो गई। सालों साल की इस नफरत हासिल क्या हुआ? पाकिस्तान कमज़ोर से कमज़ोर होता गया। और आज एक मुल्क के तौर पर वो मज़ाक बनकर रह गया है।
अब जनरल मुनीर फिर से टू नेशन की थ्योरी का ढोल पीटकर अपनी हताश कौम में जोश भरने का काम कर रहे हैं।
निहत्थे लोगों को गोली मारकर उनकी छाती पर इस्लाम का झंडा बुलंद करना चाह रहे हैं। हिंदुओं के खून से अपनी आवाम की प्यास बुझाने की कोशिश कर रहे हैं। मगर ये तमाशा अब इतनी बार दिखाया जा चुका है कि वहां की जनता के लिए भी इसमें कोई सरप्राइज़ एलिमेंट नहीं बचा। और इसी सरप्राइज़ एलिमेंट की तरह अगर ये मुल्क भी न बचे तो हैरानी नहीं होगी।
शहीद फौजी ही नहीं होता। आतंकी की गोली से मारा गया शख्स भी देश के लिए शहीद ही होता है। अगर 28 लोगों की शहादत इस समस्या को किसी अंजाम तक ले जा सकी, तो भी ये देश उन 28 लोगों का कर्ज़दार रहेगा। प्याला आखिर कब तक अपने ही ज़हर से बचा रहेगा? एक दिन वो भी उस ज़हर की भेंट चढ़ ही जाएगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
ऐसे तत्व मजबूत हुए, तो वो कल्तेआम करते समय ये नहीं देखेंगे कि आप किस पार्टी के हैं, किस जाति के हैं, किस राज्य के हैं, वो सिर्फ आपका धर्म देखकर मारेंगे।
ब्रजेश कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार, नेटवर्क 18 ग्रुप।
मुस्लिम वोट के लालच में कुछ राजनीतिक दल कितना नीचे गिर सकते हैं, इसका ताजा उदाहरण है पहलगाम की घटना। जिन बच्चों ने अपने पिता खोये, जिन महिलाओं ने अपने पति खोये, वो सब चिल्ला चिल्ला कर कह रहे हैं कि धर्म जानकर हिंदुओं को मारा गया, वही ये नेता कह रहे हैं कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। हद है ! मुस्लिम वोट के सहारे अपनी सियासत चला रही पार्टियां तो पहलगाम की घटना में भी साजिश देख रही हैं।
कहां जेहादी सोच वाले आतंकियों की आलोचना करें, उसकी जगह दाल में कुछ काला है, ये नैरेटिव उभार रही हैं। और ये नया नहीं है, पहले भी उड़ी से लेकर पुलवामा तक इनका स्टैंड यही रहा है। शर्मनाक!! फिलिस्तीन- हमास के मुद्दे पर छाती पीटने और हाय- हाय करने वाली ये पार्टियां पहलगाम की चर्चा करने से भी बच रही हैं और कर भी रही हैं तो ध्यान ये कि गलती से भी वोट बैंक का नुकसान न हो जाए।
इस डर के मारे आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, ये गाना अब भी गा रही हैं, सच उल्टा होने के बावजूद! कहां जेहादी आतंकवाद और उसको शह देने वाले पाकिस्तान की आलोचना करें ये, उसकी जगह अपने बयानों से ये पार्टियां पाकिस्तान को ही मदद पहुंचा रही हैं। अपनी स्टेट पॉलिसी के तौर पर जेहाद और आतंकवाद को प्रोमोट करने वाला पाकिस्तान इनके बयानों को अपने हक में भरपूर इस्तेमाल कर रहा है।
धर्म के आधार पर बने पाकिस्तान ने अपने यहां से ज्यादातर हिंदुओं को भगा दिया। पाकिस्तान ही नहीं, बांग्लादेश में भी हिंदू आबादी लगातार कम हुई है, लेकिन उल्टे पाकिस्तान भारत पर मुस्लिम उत्पीड़न का आरोप लगाता है ऐसे नेताओं के बयान के सहारे, जबकि भारत में मुस्लिम आबादी लगातार बढ़ी है !
देशहित के उपर जब सिर्फ वोट के बारे में सोचा जाएगा तो ये परिस्थिति हालात को और बिगाडे़गी, जेहादी ताकतों के हाथ मजबूत करेगी। और ऐसे तत्व मजबूत हुए, तो वो कल्तेआम करते समय ये नहीं देखेंगे कि आप किस पार्टी के हैं, किस जाति के हैं, किस राज्य के हैं, वो सिर्फ आपका धर्म देखकर मारेंगे।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
दूसरी बात है, इस हमले की टाइमिंग। जब अमेरिका के उपराष्ट्रपति J D वैंस भारत में हैं और प्रधानमंत्री मोदी सऊदी अरब में। पाकिस्तान को इन दोनों देशों से भारत की दोस्ती भी बर्दाश्त नहीं होती।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
कश्मीर से दिल दहलाने वाली खबर आई। आतंकवादियों ने निहत्थे, बेकसूर पर्यटकों पर गोलियां बरसाते हुए उनमें से 28 लोगों की निर्ममता से हत्या कर दी। जिन लोगों की मौत हुई, उनमें भारतीय मूल के दो विदेशी नागरिक भी हैं। नेपाल और संयुक्त अरब अमीरात के नागरिक भी थे। लेकिन ये दोनों पर्यटक भी हिन्दू थे। आतंकवादियों ने पहलगाम में भेलपूरी खा रहे पर्यटकों से नाम पूछ कर, उनका मजहब जानकर, चुन-चुन कर गोली मारी।
पत्नियों के सामने पति का नाम पूछा और बिना कुछ कहे गोली मार दी। सेना, सीआरपीएफ और कश्मीर पुलिस इस वक्त पहलगाम के जंगलों में इन हत्यारों को पकड़ने के लिए सर्च ऑपरेशन चला रही है। गृह मंत्री अमित शाह ने मारे गये पर्यटकों के ताबूतों पर पुष्प अर्पित किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सउदी अरब यात्रा बीच में छोड़ कर दिल्ली लौट आए। आतंकवादियों ने हमले के समय अपने हेलमेट पर लगे कैमरे से वीडियो रिकॉर्डिंग भी कराई। साफ है कि हत्यारे पहले से पूरी तैयारी करके आये थे।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प, रूसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन सहित दुनिया के तमाम बड़े नेताओं ने इस आतंकी हमले की भर्त्सना की। इसमें कोई दो राय नहीं कि पहलगाम में बेकसूर, बेबस, निहत्थे लोगों पर हमला करने वाले कायर हैं, शैतान हैं, इंसानियत और कश्मीरियत के दुश्मन हैं। कश्मीरियत की सबसे बड़ी पहचान है, मेहमाननवाजी और इन आतंकवादियों ने कश्मीर में आए मेहमानों का खून बहाया।
इन आतंकवादियों को किसी कीमत पर छोड़ा नहीं जाना चाहिए। इन लोगों का मकसद साफ है। कश्मीर में आने वाले पर्यटकों को डराना। जो लोग टूरिज्म से रोज़ी-रोटी कमाते हैं,उनका रोजगार छीना। इसको समझने के लिए ये जानना जरूरी है कि आर्टिकल 370 खत्म होने के बाद पिछले पांच साल में कश्मीर जाने वाले सैलानियों की संख्या करीब आठ गुना बढ़ कर आठ करोड़ बत्तीस लाख से ज्यादा हो गई। इससे कश्मीरी लोगों को रोजगार मिला है, उनकी आमदनी बढ़ी है, कश्मीर में खुशहाली आई है। कश्मीर के लोगों की ये समृद्धि, ये खुशी ISI और पाकिस्तान की फौज को बर्दाश्त नहीं हो रही थी।
दूसरी बात है, इस हमले की टाइमिंग। जब अमेरिका के उपराष्ट्रपति J D वैंस भारत में हैं और प्रधानमंत्री मोदी सऊदी अरब में। पाकिस्तान को इन दोनों देशों से भारत की दोस्ती भी बर्दाश्त नहीं होती। इन दोनों मुल्कों को किसी जमाने में पाकिस्तान का माई-बाप माना जाता था। अब वक्त बदल गया है।
भारत ने पाकिस्तान को कई बार इस बदले वक्त का एहसास कराया है। ये दिखाया है कि अब भारत पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देता है, घर में घुसकर मारता है लेकिन पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आता। मुझे पूरा विश्वास है कि हमारी बहादुर फौज पहलगाम में कायराना हमला करने वालों को उनके अंजाम तक पहुंचाएगी और हमारी सरकार इन आतंकवादियों को भेजने वालों को भी सबक सिखाएगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
अब पहले की तरह आतंकवादियों के विरुद्ध कार्रवाई को रोकने की लोगों के द्वारा कोशिश नहीं होती, पत्थरबाजी नहीं होती, नारा नहीं लगता तथा आवश्यकता पड़ने पर सीमा पर हवाई बमबारी भी होती है।
अवधेश कुमार, वरिष्ठ पत्रकार।
पहलगाम के वायसरन घाटी में केवल हिंदू पर्यटकों की चुन-चुन कर हत्या की गई। किसी को कलमा पढ़ने के लिए कहा गया तो किसी को नंगा करके देखा गया कि वह हिंदू है या मुसलमान। इस घटना को कोई केवल सामान्य आतंकवादी घटना मान सकता है। हालांकि हर इस्लामी आतंकवादी घटना के पीछे सोच मजहब और जेहाद ही होता है।
जेहाद की बात करने पर उसका अर्थ पूछने वाले अपने तरीके से बताते हैं। बताने वालों का अपना आशय हो सकता है लेकिन व्यवहार में दिखाई पड़ रहा है कि आतंकवादी और इनको प्रश्रय देने वाली शक्तियां इस्लाम और जेहाद के नाम पर ही इन्हें हिंसा करने तथा अपनी जान तक देने के लिए तैयार कर देते हैं। जब पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल आसिफ मुनीर ने इस्लाम की बात करते हुए बताया कि हिंदू और मुसलमान साथ रह ही नहीं सकते, दोनों दो काम है तो उन्होंने भी जेहाद और इस्लाम को पढ़ा है।
जब नेशनल कांफ्रेंस के सांसद सैयद नुरुल्लाह मेंहदी कश्मीर में पर्यटन को सांस्कृऊत हमला बताते हैं तो उनकी भी एक सोच इस्लाम की है। आतंकवादी कहते हैं कि यह मुसलमान नहीं है मारो और मारते हैं तो यह भी इस्लाम और जेहाद का ही उनके द्वारा अपनाया गया रूप है। कश्मीर के युद्ध को इस्लाम का युद्ध और जेहाद बताने की कोशिश पाकिस्तान की लंबे समय से रही है।
इस हमले के द्वारा आतंकवादियों के माध्यम से फिर वही घृणित संदेश देने की कोशिश है। पाकिस्तान में सेना की इज्जत मिट्टी में मिल चुकी है। उसके भ्रष्टाचार, असफलता एवं अय्याशी के कारनामे मीडिया, सोशल मीडिया में इतने आए हैं कि लोग उनका मजाक उड़ाने लगे हैं। सेना को लगता है कि कश्मीर में फिर आग लगाकर, आतंकवादियों को भेज कर वह अपनी छवि सुधार सकती है और उसने ऐसा करना शुरू कर दिया है। किंतु यह बदला हुआ भारत और बदला हुआ जम्मू कश्मीर है।
अब पहले की तरह आतंकवादियों के विरुद्ध कार्रवाई को रोकने की लोगों के द्वारा कोशिश नहीं होती, पत्थरबाजी नहीं होती , नारा नहीं लगता तथा आवश्यकता पड़ने पर सीमा पर हवाई बमबारी भी होती है। पूरा देश दुखी है लेकिन इसके साथ-साथ प्रत्युत्तर का भाव भी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सऊदी अरब से यात्रा रोककर लौटना तथा गृह मंत्री अमित शाह का घटना के तुरंत बाद कश्मीर जाना ,सभी तरह की जानकारी लेना आतंकवादियों के विरुद्ध कार्रवाई तथा घटना स्थल तक जाकर स्थिति समझने एवं सुरक्षा बलों से बातचीत कर निर्देश देना बताता है कि दो दर्जन से ज्यादा निरपराध निहत्थे लोगों की हत्या को अब भारत यूं ही जाने नहीं देगा। अनुच्छेद 370 निषप्रभावी किए जाने के बाद लगभग सामान्य हो रहे जम्मू कश्मीर को फिर पाकिस्तान इस्लाम के नाम पर आतंकवाद की आग में नहीं झोंक सकता।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
एक हफ्ते पहले पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष ने भी भारत विभाजन का जिक्र करते हुए हिन्दुओं और मुस्लिमों की अलग पहचान और अस्तित्व की बातें सार्वजनिक बयान में की थी।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा इस बार पहलगाम में मासूम पर्यटकों पैर किये गए नृशंश आतंकी हमले को केवल भारत के लिए ही नहीं, अमेरिका सहित दुनिया के देशों को सन्देश के रूप में देखा जाना चाहिए। विशेषरूप से अमेरिकी उप राष्ट्रपति जे. डी. वेन्स की भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सफल वार्ता के समय पूरी तैयारी के साथ आतंकी हमला किया गया। अमेरिका सहित दुनिया को यह पता है कि पच्चीस साल पहले 21 मार्च, 2000 को राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की भारत यात्रा के कुछ घंटे पहले पाकिस्तान द्वारा भेजे गए आतंकियों ने अनंतनाग के चाटी सिंहपूरा गांव में 37 सिखों को बंदूकों से छलनी कर मार दिया था।
इसके एक साल बाद ही न्यूयोर्क में ओसामा बिन लादेन के आतंकियों ने सबसे बड़ा आतंकी हमला किया। इस दृष्टि से भारत पर पिछले 45 वर्षों से आतंकी हमले कर रहे पाकिस्तान को सबक सिखाने का सही अवसर आ गया है। पहलगाम की घटना पर विश्व के प्रमुख देशों के साथ इस बार चीन ने भी निंदा की है। इतिहास इस बात का भी गवाह है कि चार दशक पहले अमेरिका और चीन पाकिस्तान की सेना और गुप्तचर एजेंसी आई एस आई को हर संभव सहायता देते रहे थे। पिछले दस वर्षों के दौरान भारत और अमेरिका के सम्बन्ध कई गुना बेहतर हुए हैं और सामरिक क्षेत्र में व्यापक सहयोग के समझौते हैं।
दूसरी तरफ हाल के वर्षों में चीन भी भारत के साथ अच्छे सम्बन्ध का प्रयास कर रहा है। यूरोप और अफ्रीका आतंकवाद के मुद्दे पर भारत का साथ देते रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि पाकिस्तान जिन इस्लामिक देशों की मेहरबानी से अपना बचाव और आर्थिक लाभ करता रहा है वे देश भी अब आतंक के मुद्दे पर भारत का साथ देने को तैयार होने लगे हैं। यही नहीं आर्थिक संबंधों में सऊदी अरब सयुंक्त अरब अमीरात, ईरान जैसे महत्वपूर्ण देश भारत के साथ अधिकाधिक और सामरिक सम्बन्ध बना रहे हैं। इस तरह पाकिस्तान बहुत हद तक अलग-थलग पड़ता जा रहे है।
पहलगाम आतंकी हमले में आतंकियों ने बाकायदा धर्म को आधार बना लिया है। इससे एक हफ्ते पहले पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष ने भी भारत विभाजन का जिक्र करते हुए हिन्दुओं और मुस्लिमों की अलग पहचान और अस्तित्व की बातें सार्वजनिक बयान में की थी। मतलब पाकिस्तान की सेना और आई एस आई भारत में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक विभाजन और हिंसा के लिये तैयारी कर रहे था। जिस समय जम्मू कश्मीर में राष्ट्रपति शासन के दौरान विकास के प्रयास हुए और धारा 370 ख़त्म होने के बाद विधानसभा के चुनाव संपन्न हुए और सामाजिक, आर्थिक सफलताएं मिलने लगीं।
लाखों की संख्या में पर्यटक पहुँचने लगे। इससे जम्मू कश्मीर की जनता भी अपना कामकाज बढ़ने से प्रसन्न हो रही थी। इस आतंकी हमले ने उन कश्मीरियों को पूरी तरह विचलित कर दिया है। विडंबना यह रही है कि अस्सी और नब्बे के दशक में आतंकी हमलों से हजारों लोगों के मारे जाने के बावजूद अमेरिका और यूरोपीय देश आतंकी समूहों और संगठनों के लोगों को मानव अधिकारों के नाम पैर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष समर्थन देते रहे थे। अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 11 सितम्बर को हुए हमले के बाद अमेरिका की आँख खुली।
भारत ने संयुक्त राष्ट्र तथा अन्य अंतररष्ट्रीय मंचो पर आतंकवाद के विरुद्ध विश्व समुदाय की एकता पर लगातार बल दिया। पिछले वर्षों के दौरान जी-20, जी-7 सहित प्रभावशाली देशों के संगठनो में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयासों से आतंकवाद की लड़ाई में एकजुटता के लिए बाकायदा प्रस्ताव भी पास हुए। यह भी तथ्य है कि ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों में आतंकी हमलों से यूरोप प्रभावित होता रहे है। एशिया और अफ्रीका के कई देश आतंक की चपेट में आये हैं। इसलिए फिर भी कोई देश आतंकवादियों को पालने पोसने वाले देश को वित्तीय सहायता देता है तो उसका धन आतंकियों में ही पहुँचता है।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रूस हमेशा भारत के साथ रहे है। इस समय अमेरिका, रूस, यूरोपीय समुदाय, आसियान और खाड़ी के अधिकांश देश भारत के साथ संबंधों को नई ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए निरन्तर समझौते कर रहे है। हाल के वर्षों में रक्षा क्षेत्र में भी करीब सौ देशों के साथ भारत के समझौते हुए हैं। अब भारत न केवल अत्याधुनिक हथियार आयात करता है बल्कि अनेक देशों आधुनिक हथियार निर्यात करने लगा है। पाकिस्तान के सिरफिरे नेता या सेनाधिकारी यदाकदा परमाणु हथियारों की धमकी देने लगे हैं। वह यह भूल जाते हैं कि भारत उनसे अधिक क्षमता वाला परमाणु संपन्न देश है। बहरहाल, परमाणु युद्ध की नौबत तो नहीं आ सकती लेकिन पाकिस्तान द्वारा वर्षों से किये जा रहे छद्म युद्ध का करारा जवाब देने में भारत सक्षम है।
आतंकवाद करोना की तरह ऐसा वायरस है जो बार बार जिन्दा होकर पूरी दुनिया को तबाह कर सकता है। भारत पाकिस्तान के बीच बनी हुई परिस्थिति की तुलना इसराइल और फिलिस्तीन संघर्ष से कतई नहीं की जा सकती। पाकिस्तान के आतंकवाद ने तो पडोसी बांग्लादेश, नेपाल, मालदीव को भी प्रभावित किया हुआ है। पाकिस्तान में तैयार हो रहे आतंकी भारत के अलावा अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे कई देशों में आतंकवादी गतिविधियां चला रहे हैं। इसलिए भारत विश्व समुदाय से निरंतर आग्रह करता रहे है कि आतंकवादियों के पोषक पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित किया जाय।
उसे भीख के रूप में मिलने वाली आर्थिक या सैन्य सहायता बंद की जाय। जब अमेरिका रूस और ईरान जैसे देशों पर कड़े आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने के लिये दुनिया भर को तैयार कर सकता है तो फिर सैकड़ों प्रमाण सामने आने के बाद पाकिस्तान पर पूरी तरह आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने का फैसला क्यों नहीं हो सकता है? आतंकवाद को जड़ से मिटाने का एकमात्र तरीका उसको मिलने वाले दाना पानी और हवा को रोकना ही हो सकता है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )