युवाओं को बाहर जाकर काम की तलाश करनी पड़ी है। एक अध्ययन में पाया गया कि प्रवासी परिवारों में लगभग 80% लोग भूमिहीन या 1 एकड़ से कम जमीन वाले थे।
by
समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार, पद्मश्री, लेखक।
बिहार विधानसभा चुनाव में रोजगार और बिहारियों के पलायन का मुद्दा महत्वपूर्ण बन गया है। निश्चित रूप से यह किसी भी राज्य या देश के लिए जनता और सत्ता से जुड़ा मुद्दा है। अपेक्षा होती है कि सरकारें इस समस्या का समाधान करे। लेकिन क्या पलायन केवल मजबूरी में होता है? घर, गाँव, शहर, प्रदेश, देश से बाहर जाने के लिए हर व्यक्ति और परिवार की आवश्यकता, महत्वाकांक्षा और सपनों पर निर्भर होती है।
फिर यह कैसे भुलाया जा सकता है कि बाहर जाकर नौकरी, मजदूरी, शिक्षा, अपना काम-धंधा, तरक्की, सुख-सुविधा के साथ अपने परिजनों को भेजी जाने वाली धनराशि से न केवल परिवार बल्कि उस क्षेत्र और राज्य के सामाजिक-आर्थिक बदलाव का कितना लाभ मिलता है। यह सवाल केवल राजनीति और चुनाव के लिए नहीं है। बिहार में बंद उद्योग चालू हों, बाहरी निवेश आए, अपराध नियंत्रित हो, भ्रष्टाचार को रोकने के कदम उठाए जाएँ इससे कोई असहमत नहीं हो सकता।
लेकिन जो लोग अपने जीवन में सुधार के लिए बाहर जाते हैं, उन्हें कमजोर और मजबूर कहना कैसा न्याय है? वे नए स्थानों पर विकास में बड़ी भूमिका निभाते हैं, बिहार या जिस क्षेत्र के हों, उनका गौरव बढ़ाते हैं। भारत के डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक ही नहीं, बैंकर्स, प्रबंधक, व्यापारी और औद्योगिक समूह दूरगामी लाभ भारत को देते हैं। बिहार में माइग्रेशन यानी बाहर जाकर काम करने या बसने वालों की एक लंबी परंपरा रही है।
यह प्रवासन सिर्फ देश के अंदर नहीं, बल्कि विदेशों तक फैला है। यदि बाहर से आने वाली कुल धनराशि करीब 9,88,000 करोड़ रुपये है और बिहार का हिस्सा 14.8 हजार करोड़ रुपये बनता है, तो ग्रामीण बिहार में अधिकांश परिवार आज भी कृषि या सीमित स्वरूप की असंगठित मजदूरी पर निर्भर हैं। खेती का आकार बहुत छोटा-मोटा है और औद्योगिक अवसर काफी कम रहे हैं।
इससे युवाओं को बाहर जाकर काम की तलाश करनी पड़ी है। एक अध्ययन में पाया गया कि प्रवासी परिवारों में लगभग 80% लोग भूमिहीन या 1 एकड़ से कम जमीन वाले थे। अध्ययन से यह भी पता चला कि 85% प्रवासी कम-से-कम 10वीं पास थे—यह संकेत है कि युवा-शिक्षित लोगों ने भी बाहर जाकर अस्थायी या स्थायी रोजगार की ओर रुख किया।
काम के लिए वे पंजाब, महाराष्ट्र, दिल्ली, खाड़ी देशों तक जाते हैं, जहाँ निर्माण, सेवा-उद्योग, कारखाने इत्यादि में काम मिलता था। एक अध्ययन के अनुसार लगभग 50% से अधिक बिहार-ग्रामीण परिवारों में कम-से-कम एक सदस्य प्रवासी है। बिहार से बाहर जाकर काम कर रहे प्रवासी-कर्मी/पेशेवरों द्वारा भेजी गई रकम ने राज्य-अर्थव्यवस्था और घरेलू जीवन दोनों पर असर डाला है।
परिवारों ने इन रकमों का उपयोग मुख्यतः दैनिक खर्च (खाना-पीना, बिजली-पानी), शिक्षा-स्वास्थ्य में किया है। अध्ययन में यह भी पाया गया कि रेमिटेंस प्राप्त परिवारों में शिक्षा-उपस्थिति, पोषण-स्थिति और स्वास्थ्य-खर्च में सुधार देखने को मिला है। सर्वे में बताया गया कि प्रवासी के बाद परिवार की आर्थिक स्थिति, बच्चों की शिक्षा तथा सामाजिक स्थिति सुधरी है।
ग्रामीण श्रम-बाज़ार में भी बदलाव आए हैं—प्रवासी मजदूरों के बाहर जाने से स्थानीय मजदूरी थोड़ी-बहुत बढ़ी, काम करने वालों की समस्या-स्थिति बदली। सामाजिक संरचना और जीवनशैली में कई तरह के बदलाव देखने को मिले—जैसे रेमिटेंस आय मिलने से बच्चों की स्कूल शिक्षा का खर्च उठाना आसान हुआ, शिक्षा-उपस्थिति में सुधार हुआ, स्वास्थ्य-सेवाओं तक पहुँच बेहतर हुई, परिवारों ने अस्पताल-दवा के खर्च को वहन करने की क्षमता पाई।
रेमिटेंस की मदद से गाँवों में कच्चे मकानों से पक्का घर बनने लगे—जैसे गोपालगंज और सीवान में यह प्रवृत्ति स्पष्ट है; वहाँ 80% से अधिक स्थानीय अर्थव्यवस्था प्रवासी रेमिटेंस पर आधारित है। परिवारों की सामाजिक स्थिति और आत्मविश्वास बढ़ा, गृहिणियों को नए अवसर मिले। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि महिलाओं ने महसूस किया कि आर्थिक स्तर, जीवनशैली, बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार हुआ।
उपभोग-शैली में परिवर्तन हुआ—जैसे मोबाइल-फोन, बैंक-खाता, दूर काम कर रहे सदस्यों से मोबाइल संवाद, बैंकिंग का उपयोग बढ़ा; उदाहरण के तौर पर 80% महिलाओं ने बैंक खाता बना लिया था। प्रवासी होने के कारण परिवारों में “न्यूक्लियर” (एकल) परिवार की प्रवृत्ति बढ़ी। महिलाओं की निर्णय-क्षमता बढ़ी। कुछ प्रवासी बाहर से अनुभव लेकर लौटे और अपने गाँवों-शहरों में नए काम पर नियुक्त किए गए। भारत में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों तरह के प्रवासन का आर्थिक और सामाजिक प्रभाव गहरा है।
प्रवासी मजदूर, पेशेवर और व्यापारी न सिर्फ परिवारों का सहारा बनते हैं, बल्कि उनकी भेजी गई धनराशि भी संबंधित राज्यों की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है। रिज़र्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2023–24 में कुल 9,88,000 करोड़ रुपये की धनराशि विदेशों से आई। बिहार सरकार ने कहा है कि लगभग 57 लाख लोग राज्य के बाहर रह रहे/काम कर रहे हैं, जिनमें लगभग 52 लाख रोजगार-वश पलायन वाले बताए गए हैं।
अन्य राज्यों के उदाहरण देखें तो केरल में खाड़ी देशों सहित विदेशों में बसे प्रवासी हर साल लगभग 1.95 लाख करोड़ रुपये भेजते हैं; तमिलनाडु को लगभग 1,02,752 करोड़, महाराष्ट्र को करीब 2,02,540 करोड़ और गुजरात को लगभग 34,580 करोड़ रुपये का रेमिटेंस मिलता है। इस पृष्ठभूमि में पलायन को केवल अभिशाप कहना अनुचित है।
सामान्य रिक्शा वाला या टैक्सी चालक भी अपने घर-परिवार को सहयोग देता है, उन्हें समय आने पर साथ बुलाता है, बच्चों को शिक्षा और सुविधाएँ देता है और फिर कई बार वापस गाँव-शहर लौटकर नई शुरुआत भी करता है। बिहार में अब 22 मेडिकल कॉलेज, आधुनिक अस्पताल, बेहतर सड़कें और सुगम रेल-हवाई यात्रा उपलब्ध है। पटना, मुजफ्फरपुर, भागलपुर, गया में सुंदर बड़े घर, इमारतें और कारें दिखने लगी हैं—यह आर्थिक प्रगति सरकार के साथ-साथ बिहार के लोगों की मेहनत और प्रवासन से आई पूँजी का भी परिणाम है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
हम सब Google तो करते आए ही है, तो इसके सामने ChatGPT , Gemini या Perplexity अलग कैसे है? Google Search और ChatGPT ऐसी लाइब्रेरी है जिसमें हर छोटे बड़े विषयों की किताबें हैं।
by
समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
पिछले हफ़्ते मैंने हिसाब किताब में लिखा था कि कंपनियाँ आपको AI का प्रीमियम प्लान फ्री में क्यों दे रही हैं? तो बहुत सारे पाठकों और दर्शकों ने पूछा कि हम AI का इस्तेमाल कैसे करें? आज का हिसाब किताब यह समझाने की कोशिश है कि रोजमर्रा की ज़िंदगी में हम AI यानी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं।
हम सब Google तो करते आए ही है, तो इसके सामने ChatGPT , Gemini या Perplexity अलग कैसे है? इस तरह से समझिए की Google Search और ChatGPT दोनों ऐसी लाइब्रेरी है जिसमें दुनिया भर के हर छोटे बड़े विषयों की किताबें है। Google पर आप सर्च करते हैं तो वो आपको उस विषय से संबंधित किताबों की सूची दे देता है। आप किताब यानी वेबसाइट की लिंक खोलिए और पढ़ लीजिए।
ChatGPT उस लाइब्रेरी में बैठे एक प्रोफेसर की तरह है जिन्होंने सारी किताबें पढ़ रखी हैं। आप सवाल ( AI की भाषा में Prompt ) पूछते हैं वो बोलचाल की भाषा में जवाब दे देते हैं। आपको गूगल की तरह किताब खोलने की ज़रूरत नहीं है तो पहली बात यह समझ लीजिए कि आपको किसी भी AI Chat bot पर अपना अकाउंट बनाना है।
हम पहले ही बता चुके हैं कि गूगल Gemini का प्रीमियम वर्जन Jio और Perplexity का Airtel यूज़र्स के लिए अभी फ्री कर दिया गया है। अकाउंट बनाने के बाद आपको बातचीत शुरू कर देनी है। आप उसे अपने बारे में बता सकते हैं। आप कौन हैं? आप क्या करते हैं? आपकी रुचि किन विषयों में है। आपके लिखने का कोई स्टाइल है तो उसे बताकर रख सकते है। यह सब याद कर लेगा।
सबसे महत्वपूर्ण है Prompt यानी आपका सवाल क्या है? यह साफ़ साफ़ लिखेंगे उतना ही सही जवाब मिलेगा जैसे आप उसे रोल दीजिए मेरे फिटनेस कोच/ मैथ्स टीचर/ बिज़नेस गुरु बनिए, आप जो रोल चाहे वो दे सकते है। मन की बात कहने के लिए दोस्त भी बना सकते है। अपने बारे में पहले नहीं बताया है तो अब बताइए कि आप कौन हो ? क्या करते हो? अब काम बताइए कि क्या चाहते हो? यहाँ लिखते - बोलते समय verb यानी क्रिया पद का उपयोग ज़रूर करें जैसे मुझे बच्चा समझकर सरल भाषा में बताइए कि AI काम कैसे करता है? ये डालकर देखिए आपको जवाब क्या मिलता है।
मुझे भी बताइएगा। अब मैं आपको तीन काम बता रहा हूँ जो आप रोज़ इस्तेमाल कर सकते हैं। पहला काम है लिखना। आप ई मेल, मेसेज, सोशल मीडिया के लिए पोस्ट लिखने में मदद ले सकते हैं। भाषा कोई भी हो सकती है। यह अनुवाद भी अच्छा करता है। दूसरा काम है आपका पर्सनल असिस्टेंट। आप रिसर्च करवा सकते हैं, कोई PDF डॉक्यूमेंट देकर पूछ सकते हैं कि इसका सार बताओ, Presentation बनवा सकते हैं आपने कुछ लिखा है या पढ़ा है तो उसे Fact Check करने का काम दे सकते है।
तीसरा काम है आपका कोच या गुरु। आप कोई फ़ैसला लेने में फंस रहे हैं तो आप पूछ सकते हैं कि क्या करूँ? आपको दोनों पहलुओं के साथ जवाब दे देगा। फ़ाइनेंशियल प्लानिंग कर सकते हैं जैसे मुझे एक करोड़ रुपये जमा करने में कितने साल लगेंगे? मैं कैसे जमा कर सकता हूँ? यह करते समय वैधानिक चेतावनी का ध्यान रखें कि AI की हर बात सही नहीं होती है। वो Hallucinate करता है यानी झूठ भी बोलता है। आपको अपने दिमाग़ भी लगाना पड़ेगा। दोबारा पूछना पड़ेगा कि इसका प्रमाण दो। तो देर किस बात की, फ़्री प्लान का फ़ायदा उठाइए और AI का इस्तेमाल शुरू कीजिए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
समग्र इतिहास लेखन को लेकर बनी योजना क्यों रफ्तार नहीं पकड़ रही है ? इतिहास लेखन की जिम्मेदारी भारत सरकार की जिस संस्था पर है उसके आलस का कारण क्या है?
by
समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्था है भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद (इंडियन काउंसिल आफ हिस्टोरिकल रिसर्च यानि आईसीएचआर)। इसकी वेबसाइट पर इस संस्था के उद्देश्य का वर्णन है- भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का प्राथमिक उद्देश्य ऐतिहासिक शोध को बढ़ावा देना और उसे दशा देना तथा इतिहास के वस्तुनिष्ठ एवं वैज्ञानिक लेखन को प्रोत्साहित और पोषित करना है।
चौबीस बिंदुओं में विस्तार से वर्णित इस संस्था के उद्देश्यों में अंतिम उद्देश्य है समान्यत: देश में ऐतिहासिक अनुसंधान और उसके उपयोग को बढ़ावा देने के लिए समय-समय पर आवश्यक समझे जानेवाले सभी उपाय करना। अंतिम उद्देश्य का दायरा बहुत विस्तृत है। इस संस्था के शीर्ष पर एक अध्यक्ष होते हैं और एक सदस्य सचिव। 2022 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर उमेश अशोक कदम को आईसीएचआर के सदस्य सतिव के तौर पर नियुक्त किया गया था।
वो अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। वित्तीय अनियमितताओं के आरोप में करीब नौ महीने तक ही इस पद पर बने रह सके। प्रकाशित खबरों के मुताबिक वित्तीय अनियमितता के आरोप इतने गंभीर थे कि मंत्रालय ने लंबे समय तक संस्था को आर्थिक मदद रोक दी थी। पता नहीं उन वित्तीय अनियमिततताओं की जांच हुई या जांच पूरी नहीं हो पाई है। कोई दोषी पाया जा सका या नहीं।
उमेश अशोक कदम जी के पद छोड़ने के बाद से ही आईसीएचआर में कार्यवाहक सदस्य-सचिव हैं। लंबे अंतराल के बाद शिक्षा मंत्रालय ने 1 मई 2025 को आईसीएचआर के अध्यक्ष को एक पत्र (एफ नंबर-3-15/2013-U.3) लिखकर सूचित किया कि प्रो अल्केश चतुर्वेदी को सदस्य सचिव के पद पर नियुक्त किया जा सकता है। पत्र के समय अल्केश चतुर्वेदी सांची विश्वविद्यालय में कुलसचिव थे।
इस पत्र में आईसीएचआर के अध्यक्ष के पत्र संख्या एफ-1.1/2024/सीएचएमएन/आईसीएचआर दिनांक 9.11.2024 का हवाला देते हुए कहा कि मंत्रालय के सक्षम अधिकारी ने प्रो अल्केश चतुर्वेदी के सदस्य सचिव पद पर नियुक्ति को मंजूरी दे दी है। पहली नजर में ये पत्र सामान्य नियुक्ति पत्र लगता है लेकिन इसके तीसरे बिंदु में एक पेंच है।
इस बिंदु में लिखा गया है कि आपसे अनुरोध किया जाता है कि नियुक्ति निर्देश जारी करें और इस क्रम में आईएचआर के नियमों का पालन करें। इसके बाद की पंक्ति को रेखांकित किया जाना चाहिए। इसमें कहा गया है कि नियुक्ति पत्र जारी करने के पहले संबंधित व्यक्ति के विजिलेंस क्लीयरेंस का ध्यान रखा जाए। पहली नजर में यह भी सामान्य बात लगती है, लेकिन इस पत्र में कहीं नहीं कहा गया है कि चयनित व्यक्ति के विजिलेंस क्लीयरेंस की प्रतीक्षा आईसीएचआर कब तक करे।
इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं कि गई। दूसरा प्रश्म उठता है कि क्या चयन समिति ने जब इनके नाम पर विचार किया था या जब आईसीएचआर के अध्यक्ष ने इनके नाम की संस्सतुति मंत्रालय से की थी तो विजिलेंस क्लीयरेंस नहीं लिया गया था?
यह तो निश्चित है कि मंत्रालय के 1 मई 2025 के सदस्य सचिव के पद पर प्रो अल्केश चतुर्वेदी को नियुक्त करने के आदेश को कार्यान्वयित करने के लिए अध्यक्ष ने कार्यवाही आरंभ की होगी। कार्यवाही के अंतर्गत ये माना जा सकता है कि अध्यक्ष ने अल्केश चतुर्वेदी से विजिलेंस क्लीयरेंस के लिए लिखा अवश्य होगा। परंतु छह महीने तक सदस्य सचिव के पद पर नियुक्ति नहीं होने से ऐसा प्रतीत होता है कि अल्केश चतुर्वेदी विजिलेंस क्लीयरेंस जमा नहीं करवा पाए हैं या उनके विजिलेंस क्लीयरेंस में कोई समस्या है।
दोनों ही स्थितियों में आईसीएचआर के अध्यक्ष प्रोफेसर रघुवेंद्र तंवर को नियुक्ति की स्थितियों पर पुनर्विचार करना चाहिए। या ये माना जाए कि इस पत्र की आड़ में अनंत काल तक अल्केश चतुर्वेदी के विजिलेंस क्लीयरेंस की प्रतीक्षा की जाएगी और तबतक संस्था कार्यवाहक सदस्य सचिव के भरोसे चलता रहेगा। जिस चयन समिति ने अल्केश चतुर्वेदी का चयन किया उसने तीन नाम का पैनल भेजा था।
अगर नियम अनुमति देते हों तो अध्यक्ष उस पैनल में से किसी अन्य व्यक्ति की नियुक्ति के लिए शिक्षा मंत्रालय को अनुरोध पत्र भेज सकते हैं। संभव है भेजा भी होगा लेकिन सदस्य सचिव के पद पर नियमित नियुक्ति में अनावश्यक देरी से संदेह उत्पन्न होता है। कहीं यथास्थिति बनाए रखने की कोशिश तो नहीं की जा रही है। सदस्य सचिव के पद पर नियमित नियुक्ति नहीं होने से संस्था का कामकाज भी सुचारू रूप से नहीं चल पा रहा है।
संस्था के उद्देश्य भी पूरे नहीं हो पा रहे हैं। पाठकों को याद होगा कि इस स्तंभ में ही मदर आफ डेमोक्रेसी नामक पुस्तक के प्रकाशन और उसके मूल्य निर्धारण पर पहले लिखा जा चुका है। कुछ लोग तो ये कहते हैं कि लाखों रुपए मूल्य की पुस्तकें अब भी आईसीएचआर के गोदाम में धूल फांक रही है। पता नहीं कभी इसकी जांच हुई या नहीं या होगी भी या नहीं। दरअसल जिम्मेदार पद पर नियमित नियुक्ति नहीं होने से गड़बड़ियों को फलने फूलने का मैदान तैयार होता है।
गड़बड़ियों से आगे जाकर अगर हम शोध कार्यों पर ध्यान दें तो एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। 2022 में आईसीएचआर ने एक महात्वाकांक्षी परियोजना बनाई थी भारत के समग्र इतिहास लेखन की। योजनानुसार आठ खंडों में ये पुस्तक तैयार होनी थी।
वरिष्ठ इतिहासकार सुष्मिता पांडे को इस परियोजना का जनरल एडीटर बनाया गया। प्रधानमंत्री मेमोरियल और संग्रहालय से एक व्यक्ति को प्रतिनियुक्ति पर आईसीएचआर लाया गया। करीब तीन वर्ष होने को आए अभी तक एक भी खंड पाठकों के लिए उपलब्ध नहीं हो पाया है। पहला खंड समग्र इतिहास की आवश्यकता को रेखांकित करनेवाला है।
उसको अभी विशेषज्ञ देख रहे हैं यानि रेफरिंग पूल में डूब उतरा रहा है। इस हिसाब से देखा जाए तो अगले 24 वर्ष में शायद इस परियोजना को पूरा किया जा सकेगा। समग्र इतिहास लेखन अगर इस अगंभीरता से लिया जाएगा तो फिर भगवान ही मालिक हैं। आईसीएचआर जैसी संस्था का वामपंथी इतिहासकारों ने जितना उपयोग अपने विचार को फैलाने या एकांगी दृष्टि से इतिहास लिखने में किया उसका निषेध करना भी इस रफ्तार में संभव नहीं लगता है।
आईसीएचआर जैसी संस्था को बेहद गंभीरता से चलाने की आवश्यकता है जिसमें निर्णय त्वरित हों, कार्य निर्धारित समय पर पूर्ण हों और प्रशासनिक बाधाओं से अकादमिक प्रक्रिया से मुक्त कराने की इच्छाशक्ति वाला कोई व्यक्ति संस्था में हो।
2014 में जब से मोदी सरकार बनी है तभी से इतिहास को समग्र दृष्टि देने की बात हो रही है। गृहमंत्री अमित शाह ने बनारस में कुछ वर्षों पहले कहा था कि इतिहास लेखन में किसी की गलती बताने से बेहतर है हम अपनी लकीर लंबी करें। प्रधानमंत्री ने लालकिला की प्राचीर से पांच प्रण गिनाए थे उसमें से विरासत वाले प्रण का सिरा इतिहास से जुड़ता है।
शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान भी कई बार राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर बात करते हुए इतिहास के समग्र लेखन की महत्ता को रेखांकित कर चुके हैं। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और शिक्षा मंत्री की चिंता के केंद्र में इतिहास का समग्र लेखन है लेकिन बावजूद इसके आईसीएचआर में ढिलाई दिखती है। समग्र इतिहास लेखन परियोजना को लेकर व्याप्त आलस पूरे सिस्टम पर सवाल खड़े कर रहा है। जरूरत है कि शिक्षा मंत्री अपने स्तर पर इसमें दखल दें और प्रसासनिक बाधों को दूर करने की राह संस्था को दिखाएं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
इस हादसे में अपने छोटे भाई को खोने का दुख हरदम उन्हें कचोटता रहता है, और उस दिन की यादें उनको हर वक्त परेशान करती हैं। मनोविज्ञान की भाषा में इसे Survivor Guilt कहा जाता है।
by
समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
अहमदाबाद प्लेन हादसे में जब एक शख्स के ज़िंदा बचने की ख़बर सामने आई तो लोगों ने उसे दुनिया का सबसे खुशकिस्मत इंसान कहा। मगर अब पता चल रहा है कि हादसे में बचे विश्वास कुमार बेहद डिप्रेशन में हैं। उन्होंने खुद को कमरे में बंद कर लिया है। यहां तक कि वो अपनी बीवी और बच्चे से भी बात नहीं करते। कहीं काम पर भी नहीं जा रहे। इस हादसे में अपने छोटे भाई को खोने का दुख हरदम उन्हें कचोटता रहता है, और उस दिन की यादें उनको हर वक्त परेशान करती हैं। मनोविज्ञान की भाषा में इसे Survivor Guilt कहा जाता है।
अभी कुछ दिन पहले यूपी के एक शख्स का वीडियो सोशल मीडिया पर देखा। वो बता रहा था कि कुछ महीने पहले उसने अपनी बीवी को खोया था। उसके जाने के बाद वो सामान्य होने की कोशिश कर रहा था। वो लोग अपने ननिहाल एक कार्यक्रम में आए थे। उसके मामा के घर एक शादी थी, जो नदी के दूसरी तरफ थी। उसकी मां, मौसी और उसका इकलौता बेटा एक नाव में बैठकर दूसरी ओर चले गए।
उसे भी उसी नाव में जाना था, मगर नाव में जगह न होने के कारण उसने सोचा कि वो अगले चक्कर में चला जाएगा। लेकिन वो नाव रास्ते में पलट गई। हादसे में उसकी मां, मौसी और उसका इकलौता बेटा मर गए। मतलब, बीवी के जाने के बाद जिन मां और बेटे के सहारे वो ज़िंदा था, अब वो भी नहीं रहे। वो आदमी रोते हुए बस यही कह रहा था कि काश मैं भी उस नाव में होता। मैं इस दर्द को बर्दाश्त नहीं कर सकता।
याद आता है कि नेपाल में कुछ साल पहले आए भूकंप में एक अस्सी साल के बुज़ुर्ग बता रहे थे कि उनके परिवार के 18 लोग भूकंप में मारे गए। कोई नहीं बचा, बस वो बचे हैं और उन्हें इस बात का अफसोस है कि वो क्यों बच गए।
आप चाहें तो कह सकते हैं कि जिस प्लेन हादसे में ढाई सौ लोग मारे गए, अगर कोई एक आदमी उसमें बच गया है, तो वो खुशकिस्मत है। जिस नाव हादसे में 18 लोगों की जान चली गई, जो आदमी उसमें सवार नहीं हो पाया, वो भी खुशकिस्मत है। मगर जब हम ये देखते हैं कि किसी इंसान के होने का वजूद सिर्फ उसके ज़िंदा रहने से नहीं, बल्कि उन लोगों के साथ ज़िंदा होने से है जो उसके अपने हैं तो फिर आपको वो खुशकिस्मती सबसे बड़ी सज़ा लगने लगती है।
एक इंसान जो अस्सी साल की उम्र में अपनी बाकी ज़िंदगी इस अहसास के साथ जीने के लिए अभिशप्त है कि उसके परिवार का एक भी सदस्य ज़िंदा नहीं है, उससे ज़्यादा बदनसीब और कौन होगा? जिस शख्स ने कुछ महीनों में अपनी मां, बीवी और इकलौते बच्चे को खो दिया, उससे ज़्यादा दुखी और कौन होगा? और ढाई सौ लोगों के बीच जो शख्स जलते जहाज़ से ज़िंदा लौट आया हो, लेकिन उसका छोटा भाई उसमें मारा गया हो उससे ज़्यादा ग्लानि में और कौन होगा?
कभी-कभी हम सारा जीवन ये नहीं समझ पाते कि हमारा दुर्भाग्य क्या है और सौभाग्य क्या। क्या हमारा सौभाग्य भविष्य की भौतिक कल्पनाओं में है, दूसरों की सोशल मीडिया पर दिखाई Selected ज़िंदगी को जीने में है, या हमारा सौभाग्य उन लोगों के साथ जीवन जीने में है जो हमारे अपने हैं? फिर चाहे हालात कैसे भी क्यों न हों। शायद ये फर्क समझने में ही ज़िंदगी बीत जाती है और हम अपना सौभाग्य देख नहीं पाते।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
जाति, उसकी चेतना, सामाजिक न्याय से जुड़ी राजनैतिक शक्ति अपनी जगह कायम है किंतु वह अब अपमानित और पददलित नहीं रहना चाहती। अपने जातीय सम्मान के साथ वह राज्य का सम्मान और विकास भी चाहती है।
by
समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
प्रो.संजय द्विवेदी, राजनीतिक विश्लेषक और टिप्पणीकार।
बिहार चुनाव हमेशा की तरह फिर जाति, बाहुबल और विकास के त्रिकोण में उलझा दिखता है। सामाजिक न्याय की ताकतों की लीलाभूमि रहे इस प्रदेश ने नीतीश कुमार पर लगातार भरोसा जताकर यह दिखाया है कि बिहार अपने सपनों में रंग भरना चाहता है। नीतीश कुमार बिहार की राजनीति के ऐसे नायक की तरह सामने आए हैं, जिन्होंने विकास और सुशासन को बिहार की राजनीति का केंद्रीय विषय बना दिया। उनकी बढ़ती आयु के मुद्दों को छोड़ दें तो आज सारे दल बिहार में विकास की बात करने लगे हैं।
नौकरियों,सुशासन की बात करते हैं- यही नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी की राजनीति की देन है । लालूप्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी यादव की सबसे बड़ी चुनौती अपने माता-पिता के मुख्यमंत्रित्व काल की छाया से मुक्त होना है। कभी बिहार में जातीय चेतना और परिवर्तन के पैरोकार रहे लालूप्रसाद यादव के शासनकाल की कड़वी यादों से प्रदेश मुक्त नहीं हो सका। इस पीड़ा को ही उन दिनों नीतीश कुमार ने समझा और वे सामाजिक न्याय की ताकतों के नए और विश्वसनीय नायक बन गए। भाजपा के सहयोग ने उनके सामाजिक विस्तार में मदद की।
अब नीतीश कुमार बिहार की सामूहिक चेतना के प्रतीक के बन गए हैं। वे असाधारण नायक हैं, जिसके बीज लालू प्रसाद यादव की विफलताओं में छिपे हैं। किंतु इसे इस तरह से मत देखिए कि बिहार में अब जाति कोई हकीकत नहीं रही। जाति, उसकी चेतना, सामाजिक न्याय से जुड़ी राजनैतिक शक्ति अपनी जगह कायम है किंतु वह अब अपमानित और पददलित नहीं रहना चाहती।
अपने जातीय सम्मान के साथ वह राज्य का सम्मान और विकास भी चाहती है। लालू प्रसाद यादव, अपनी सामाजिक न्याय की मुहिम को जागृति तक ले जाते हैं, आकांक्षांएं जगाते हैं, लोगों को सड़कों पर ले आते हैं( उनकी रैलियों में उमड़ने वाली भीड़ को याद कीजिए)- किंतु सपनों को हकीकत में बदलने का कौशल नहीं जानते। वे सामाजिक जागृति के नारेबाज हैं, वे उसका रचनात्मक इस्तेमाल नहीं जानते। वे सोते हुए को जगा सकते हैं किंतु उसे दिशा देकर किसी परिणाम केंद्रित अभियान में लगा देना उनकी आदत का हिस्सा नहीं है।
इसीलिए सामाजिक न्याय की शक्ति के जागरण और सर्वणों से सत्ता हस्तांतरण तक उनकी राजनीति उफान पर चलती दिखती है। किंतु यह काम समाप्त होते ही जब पिछड़ों, दलितों, मुसलमानों की आकांक्षांएं एक नई चेतना के साथ उनकी तरफ देखती हैं तो उनके पास कहने को कुछ नहीं बचता। वे एक ऐसे नेता साबित होते हैं, जिसकी समस्त क्षमताएं प्रकट हो चुकी हैं और उसके पास अब देने लिए कुछ भी नहीं है।
नीतीश यहीं बाजी मार ले जाते हैं। वे सपनों के सौदागर की तरह सामने आते हैं। उनकी जमीन वही है जो लालू प्रसाद यादव की जमीन है। वे भी जेपी आंदोलन के बरास्ते 1989 के दौर में अचानक महत्वपूर्ण हो उठते हैं, जब वे बिहार जनता दल के महासचिव बनाए जाते हैं। दोनों ओबीसी से हैं। दोनों का गुरूकुल और रास्ता एक है। लंबे समय तक दोनों साथ चलते भी हैं। किंतु तारीख एक को नायक और दूसरे को खलनायक बना देती है। जटिल जातीय संरचना आज भी बिहार में एक ऐसा सच है, जिससे आप इनकार नहीं कर सकते।
किंतु इस चेतना से समानांतर एक चेतना भी है, जिसे आप बिहार की अस्मिता कह सकते हैं। नीतीश कुमार ने बिहार की जटिल जातीय संरचना और बिहारी अस्मिता की अंर्तधारा को एक साथ स्पर्श किया। देश का यह असाधारण प्रांत भी है। शायद इसीलिए इस जमीन से निकलने वाली आवाजें, ललकार बन जाती हैं। सालों बाद नीतीश कुमार इसी परिवर्तन के प्रतीक बन गए हैं। इस सफलता के पीछे अपनी पढ़ाई से सिविल इंजीनियर नीतीश कुमार ने विकास के साथ सोशल इंजीनियरिंग का जो तड़का लगाया है, उस पर ध्यान देना जरूरी है।
नीतीश कुमार की सफलताएं मीडिया की नजर में भले ही विकास के सर्वग्राही नारे की बदौलत हासिल हुयी है, किंतु सच्चाई यह है कि नीतीश कुमार ने जैसी शानदार सोशल इंजीनियरिंग के साथ विकास का मंत्र फूंका है, वह उनके विरोधियों को चारों खाने चित्त करता रहा है। उप्र और बिहार दोनों राज्य मंदिर और मंडल आंदोलन से सर्वाधिक प्रभावित राज्य रहे हैं। मंडल की राजनीति यहीं फली-फूली और यही जमीन सामाजिक न्याय की ताकतों की लीलाभूमि भी बनी।
इसे भी मत भूलिए कि बिहार का आज का नेतृत्व वह पक्ष में हो या विपक्ष में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की उपज है। कांग्रेस विरोध इसके रक्त में है और सामाजिक न्याय इसका मूलमंत्र। इस आंदोलन के नेता ही 1990 में सत्ता के केंद्र बिंदु बने और लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने। आप ध्यान दें यह समय ही उत्तर भारत में सामाजिक न्याय के सवाल और उसके नेताओं के उभार का समय है। लालू प्रसाद यादव इसी सामाजिक अभियांत्रिकी की उपज थे और नीतीश कुमार जैसे तमाम लोग तब उनके साथ थे।
लालू प्रसाद यादव अपनी सीमित क्षमताओं और अराजकताओं के बावजूद सिर्फ इस सोशल इंजीनियरिंग के बूते पर पंद्रह साल तक राबड़ी देवी सहित राज करते रहे। इसी के समानांतर परिघटना उप्र में घट रही थी जहां मुलायम सिंह यादव, कांशीराम, मायावती और कल्याण सिंह इस सोशल इंजीनियरिंग का लाभ पाकर महत्वपूर्ण हो उठे। आप देखें तो बिहार की परिघटना में लालू यादव का उभार और उनका लगभग डेढ़ दशक तक सत्ता में बने रहना साधारण नहीं था, जबकि उन पर चारा घोटाला सहित अनेक आरोप थे, साथी उनका साथ छोड़कर जा रहे थे और जनता परिवार बिखर चुका था।
इसी जनता परिवार से निकली समता पार्टी जिसके नायक स्व.जार्ज फर्नांडीज, स्व.शरद यादव, स्व.दिग्विजय सिंह और नीतीश कुमार जैसे लोग थे, जिनकी भी लीलाभूमि बिहार ही था। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ होने के नाते सामाजिक न्याय का यह कुनबा बिखर चुका था और उक्त चारों नेताओं सहित रामविलास पासवान भी अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री बन चुके थे। यह वह समय है जिसमें लालू के पराभव की शुरूआत होती है।
अपने ही जनता परिवार से निकले लोग लालू राज के अंत की कसमें खा रहे थे और एक अलग तरह की सामाजिक अभियांत्रिकी परिदृश्य में आ रही थी। लालू के माई कार्ड के खिलाफ नीतीश कुमार के नेतृत्व में एक ऐसा ओबीसी चेहरा सामने था, जिसके पास कुछ करने की ललक थी।
ऐसे में नीतीश कुमार ने एक ऐसी सामाजिक अभियांत्रिकी की रचना तैयार की जिसमें लालू विरोधी पिछड़ा वर्ग और लालू राज से आतंकित सर्वण वोटों का पूरा कुनबा उनके पीछे खड़ा था। भाजपा का साथ नीतीश की इस ताकत के साथ उनके कवरेज एरिया का भी विस्तार कर रहा था।
अब अगर आपको सामाजिक न्याय और विकास का पैकेज साथ मिले तो जाहिर तौर पर आपकी पसंद नीतिश कुमार ही होंगे। लालू ने अपना ऐसा हाल किया था कि उनके साले भी एक समय उनका साथ छोड़ गए और उनका बहुप्रचारित परिवारवाद उन पर भारी पड़ा। वह जगह भरी थी ओबीसी(कुर्मी) जाति से आने वाले नीतीश कुमार ने। नीतीश ने लालू की संकुचित सोशल इंजीनियरिंग का विस्तार किया, उसे वे अतिपिछड़ों, महादलितों, पिछड़े मुसलमानों और महिलाओं तक ले गए।
बिहार जैसे परंपरागत समाज में पंचायतों में महिलाओं में पचास प्रतिशत आरक्षण देना और शराब बंदी का फैसला साधारण नहीं था। जबकि लालू प्रसाद यादव जैसे लोग संसद में महिला आरक्षण के खिलाफ गला फाड़ रहे थे। तय मानिए हर समय अपने नायक तलाश लेता है। नीतीश कुमार इस निरंतर अपमानित और लांछित हो रही चेतना के प्रतीक बन गए। वे बिहारियों की मुक्ति के नायक बन गए। बिहारी अस्मिता के प्रतीक बन गए।
यह वैसा ही था कि जैसे कभी गुजरात में नरेंद्र मोदी वहां गुजराती अस्मिता के प्रतीक बनकर उभरे और उसी तरह नीतीश कुमार में बिहार में रहने वाला ही नहीं हर प्रवासी बिहारी एक मुक्तिदाता की छवि देखने लगा था। यह बिहार का भाग्य है उसे आज एक ऐसी राजनीति मिली है, जिसके लिए उसकी जाति से बड़ा बिहार है। बिहार को जाति की इसी प्रभुताई से मुक्त करने में नीतीश सफल रहे हैं, वे हर वर्ग का विश्वास पाकर जातीय राजनीति के विषधरों को सबक सिखा चुके हैं।
उनकी सोशल इंजीनियरिंग इसीलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वह विस्तारवादी है, बहुलतावादी है, उसमें किसी का तिरस्कार नहीं है। उनकी राजनीति में विकास की धारा में पीछे छूट चुके महादलितों और पसमांदा (सबसे पिछड़े) मुसलमानों की अलग से गणना से अपनी पहचान मिली है। इस चुनाव में भी केंद्र लालू और नीतीश ही हैं। उनकी राजनीति ही है।
जाति, बाहुबल के अंतविर्रोधों के बीच भी बिहार सुशासन, विकास और पलायन से मुक्ति चाहता है। यही अकेली बात ‘नीतीश कुमार मार्का राजनीति’ के लिए खाद-पानी बन जाती है, परंपरागत तटबंध टूट जाते हैं। देखना है चुनाव परिणाम क्या कहते हैं, बिहार के सजग और चैतन्य मतदाता का जनादेश क्या होता है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
हालांकि, इसकी काट के लिए जहां महागठबंधन ने सिर्फ घोषणाएं की हैं तो वहीं सरकार में होने की वजह से एनडीए ने कई सरकारी योजनाओं का लाभ लोगों तक पहुंचा भी दिया है।
by
समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
विनोद अग्निहोत्री, वरिष्ठ सलाहकार संपादक, अमर उजाला समूह।
बिहार विधानसभा चुनावों का घमासान अब अपने चरम पर है। सत्ताधारी एनडीए को अपने कई बार के आजमाए सेनापति मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की साख और लोकप्रियता पर पूरा भरोसा है तो साथ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी करिश्मे की ताकत और भाजपा के सबसे बड़े रणनीतिकार गृह मंत्री अमित शाह चतुर सुजान रणनीति और अध्यक्ष जेपी नड्डा की संगठन क्षमता की ताकत से उसके समर्थकों और कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ा हुआ है।
मुकाबले में राजद कांग्रेस समेत पांच दलों का गठजोड़ इंडिया महागठबंधन के पास युवा तेजस्वी यादव का चेहरा, राहुल गांधी का सामाजिक न्याय, वामदलों हर विधानसभा क्षेत्र में एक निश्चित जनाधार, मुकेश सहनी और जीके गुप्ता जैसे पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों के नेताओं के दलों का पूरा वैचारिक शस्त्रागार मौजूद हैं। इनके बीच में नए महारथी प्रशांत किशोर की पिछले करीब तीन साल की कड़ी मेहनत की परीक्षा भी है।
पिछले करीब 20 साल से बिहार की सत्ता पर काबिज एनडीए और नीतीश कुमार के पास अपने शासन की तमाम उपलब्धियां गिनाने को तो हैं, लेकिन इस अवधि की अपनी विफलताओं और जनता की ओर से उठने वाले सवालों का जवाब देने के लिए कोई नया नारा, नया सपना या नया नैरेटिव नहीं है। इसलिए एनडीए ने एक बार फिर बिहार में अपने कई बार सफल हो चुके लालू राज के जंगल राज बनाम नीतीश सरकार के सुशासन राज का नारा आगे बढ़ाया है।
लेकिन विपक्षी महागठबंधन ने बिहार में बड़े पैमाने पर व्याप्त बेरोजगारी और यहां के पुरुषों और नौजवानों का काम धंधे और शिक्षा के लिए राज्य के बाहर दूर दराज दूसरे राज्यों में बढ़ते पलायन को अपना मुख्य मुद्दा बनाकर एनडीए के जंगल राज के मुद्दे के राजनीतिक भयादोहन की काट करने में जुटा है।
सत्तारूढ़ एनडीए के सामने 20 साल के अपने शासन की उपलब्धियों का जखीरा शायद कम पड़ गया कि ऐन चुनाव के तीन महीने पहले से नीतीश सरकार ने लगातार धड़ाधड़ कई लोकलुभावन घोषणाएं करनी शुरु कर दीं। दिलचस्प है कि कभी फ्रीबी या चुनावी रेवड़ियां बांटने के विरोधी नीतीश कुमार ने 120 यूनिट मुफ्त बिजली से लेकर हर परिवार की एक महिला के खाते में एकमुश्त दस हजार रुपए सीधे भेजने तक में सरकारी खजाना खोल दिया। जीविका दीदी वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन समेत कई योजनाओं में दी जाने वाली धनराशि भी बढ़ा दी गई।
भाजपा-जद(यू) और एनडीए के सभी घटक दलों को उम्मीद है कि महिलाओं और सरकारी योजनाओं के लाभार्थी वर्गों का एकमुश्त समर्थन उसकी नैया पार लगा देगा। महिला स्वरोजगार योजना के तहत महिलाओं के खाते में भेजी गई दस हजार रुपए की एकमुश्त राशि को एनडीए गेमचेंजर मान रहा है और इसकी काट के लिए ही इंडिया महागठबंधन ने अपने घोषणा पत्र में अनेक लोकलुभावन घोषणाओं के साथ ही हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने का आकाशचुंबी वादा भी कर दिया है।
जवाब में एनडीए ने अपने घोषणापत्र में बिहार में एक करोड़ रोजगार देने की भारी-भरकम घोषणा कर दी है। कुल मिलाकर बिहार के चुनावी मैदान में दोनों तरफ से लोकलुभावन घोषणाओं के तीर बराबर चल रहे हैं। लेकिन इस लड़ाई में एक और पक्ष है प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी जो राज्य की सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर जिन्हें आम तौर पर पीके के नाम से जाना जाता है, ने करीब तीन साल पहले सक्रिय राजनीति में उतरने का फैसला किया था। उनकी कांग्रेस में शामिल होकर एक अहम भूमिका निभाने को लेकर लंबी बातचीत चली जो आखिरकार विफल रही और फिर पीके ने अपने दम पर बिहार की राजनीति में उतरने का फैसला किया।
करीब दो साल से भी ज्यादा वक्त से प्रशांत किशोर ने बिहार में राज्य की आर्थिक बदहाली, बंद उद्योग, बेरोजगारी, बदहाल शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था, चरमरा चुकी कानून व्यवस्था जैसे तमाम बुनियादी मुद्दों को लेकर पूरे बिहार में पदयात्रा और यात्राएं की और करीब-करीब बिहार के हर गांव और शहर का उन्होंने दौरा करके जनता को लगातार इन मुद्दों पर संबोधित किया। चुनावी रणनीति डेटा (आंकड़ा) प्रबंधन और सोशल मीडिया के महारथी पीके ने अपनी मेहनत और करिश्माई जनसंपर्क से जनसुराज को एक तीसरा ध्रुव बना दिया है।
पीके मैदान में हैं और उनके उम्मीदवार कहां-किस दल को नुकसान करेंगे और खुद जनसुराज को कितना वोट और सीटें मिलेंगी, इसका अंदाज न राजनीतिक विश्लेषक लगा पा रहे हैं और न ही चुनावी सर्वेक्षक। सबके अलग अलग विश्लेषण हैं। जमीन पर जनसुराज और प्रशांत किशोर के मुद्दों की चर्चा तो खूब है, लेकिन क्या पीके दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की तरह बिहार में कोई कमाल कर पाएंगे ऐसा पक्की तौर पर कोई नहीं कह पा रहा है।
चुनाव शुरू होने से पहले ज्यादातर की राय थी कि प्रशांत किशोर के निशाने पर मुस्लिम और अति पिछड़े मतदाता हैं और इससे विपक्षी महागठबंधन का नुकसान होगा। यह भी कहा गया कि सत्ता विरोधी मतों का बंटवारा भी महागठबंधन और जनसुराज के बीच होगा जिसका सीधा फायदा एनडीए को मिलेगा। इसलिए यह धारणा भी बनी कि जनसुराज से भाजपा को मदद मिल रही है।
लेकिन अब जो खबरें आ रही हैं उनके मुताबिक महागठबंधन का कोर वोट मुस्लिम और यादव उसके साथ पूरी तरह एकजुट है, जबकि पीके और उनके मुद्दों का आकर्षण शहरी और पढ़े-लिखे और सवर्ण मतदाताओं पर ज्यादा है, जिन्हें आम तौर पर भाजपा और एनडीए का समर्थक माना जाता है। कहा ये भी जा रहा है कि पिछले करीब 35 वर्षों से मंडलेत्तर राजनीति के चलते बिहार में दोनों प्रमुख खेमों एनडीए और महागठबंधन का नेतृत्व और दबदबा पिछड़े वर्गों का ही है और जब से कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई है बिहार के सवर्ण नेता विहीन हो गए हैं।
ऐसे में लंबे समय बाद सवर्णों को ब्राह्ण प्रशांत किशोर में एक उम्मीद दिख रही है। उन्हें लग रहा है कि पीके और जनसुराज भले ही सरकार न बना पाएं लेकिन बिहार की राजनीति में अगर सवर्णों को प्रभावशाली बनाना है तो प्रशांत किशोर को ताकत देनी चाहिए। अगर यह धारणा सवर्णों में बलवती हो गई तो निश्चित रूप से भाजपा और एनडीए के माथे पर बल पड़ सकते हैं। इसीलिए भाजपा के नेता पीके की चर्चा ही नहीं करते हैं।
लेकिन पीके और असदुद्दीन ओवैसी की एएमआईएम ने मुस्लिम बहुल सीमांचल की सीटों पर इंडिया महागठबंधन का सिरदर्द भी बढ़ा रखा है। 2020 में पीके तो मैदान में नहीं थे, लेकिन ओवैसी ने करीब 24 उम्मीदवार खड़े करके न सिर्फ अपने पांच विधायक जिताए थे बल्कि कई सीटों पर महागठबंधन की जीत को रोक दिया था और सीमांचल में एनडीए को अप्रत्याशित बढ़त मिली थी।
इसकी वजह से ही बेहतरीन प्रदर्शन के बावजूद आखिरी दौर में बहुमत के आंकड़े महागठबंधन दूर रह गया और नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए सरकार बनी थी। 2020 में चिराग पासवान की रालोजपा ने जदयू की सभी सीटों पर उसके खिलाफ अपने उम्मीदवार उतार कर सिर्फ नीतीश कुमार को कमजोर करने का ही काम किया था। इसकी वजह से जदयू की सीटें 43 पर आकर रुक गईं थीं।
इस बार चिराग एनडीए में हैं, प्रकट तौर पर नीतीश कुमार के साथ भी संघर्ष विराम है। लेकिन अगर जदयू के मतदाताओं ने लोजपा से 2020 का हिसाब चुकता करना शुरु कर दिया तो न सिर्फ रालोजपा बल्कि एनडीए की संभावनओं पर असर पड़ सकता है। इसीलिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से लेकर भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और बिहार भाजपा के सभी नेता भाजपा रालोजपा, जदयू, हम, रालोसपा की बात न करके एनडीए उम्मीदवारों को जिताने की बात कर रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा एनडीए से अलग थे और उन्होंने ओवैसी से गठबंधन किया था।
लेकिन इस बार कुशवाहा बाकायदा एनडीए में हैं। इसका फायदा सत्तारूढ़ दल को कुशवाहा समाज में मिल सकता है। लेकिन दूसरी तरफ निषादों, मल्लाहों के नेता वीआपी पार्टी के मुकेश सहनी जो पिछली बार एनडीए में थे इस बार न सिर्फ महागठबंधन के साथ हैं, बल्कि विपक्षी महागठबंधन ने तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने के साथ साथ मुकेश सहनी को भी सरकार बनने पर उपमुख्यमंत्री बनाए जाने की घोषणा कर दी है।
देर से ही सही लेकिन तेजस्वी को अपना मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर महागठबंधन ने एनडीए के सामने नीतीश कुमार को चुनाव बाद सरकार बनने पर मुख्यमंत्री बनाए जाने की घोषणा की चुनौती पेश कर दी है। बीच का रास्ता अपनाते हुए भाजपा नेता ये तो कह रहे हैं कि एनडीए नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ रहा है और फिलहाल मुख्यमंत्री पद पर कोई वैकैंसी नहीं है लेकिन इसके जवाब में विपक्ष महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश का उदाहरण देकर सत्ता पक्ष को घेर रहा है कि चुनाव तो शिंदे और शिवराज के नेतृत्व में भी लड़ा गया था, लेकिन चुनाव के बाद मुख्यमंत्री तो उन्हें नहीं बनाया गया। विपक्ष के इस प्रचार का नीतीश कुमार के अति पिछड़े जनाधार पर अगर थोड़ा बहुत भी विपरीत असर पड़ गया तो एनडीए को नुकसान हो सकता है।
इसके साथ ही राहुल गांधी का अति पिछड़ा और दलित कार्ड भी महागठबंधन के जनाधार का दायरा बढ़ाने की कवायद है। लोकसभा चुनावों के दौरान ही संविधान बचाओ सम्मेलनों के जरिए राहुल गांधी ने दलितों और अतिपिछड़ों को संबोधित करना शुरु कर दिया था। इसका फायदा कांग्रेस और विपक्ष को बिहार में भले ही ज्यादा न मिला हो, लेकिन उत्तर प्रदेश में भरपूर मिला।
अब लगातार बिहार में अपनी इस मुहिम को राहुल गांधी ने चलाए रखा और चुनाव से पहले कई सम्मेलन किए। दलितों में रविदासी समाज को लुभाने के लिए दो बार के विधायक राजेश राम को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर इस प्रभावशाली दलित समाज जो जगजीवन राम के जमाने से कांग्रेस के साथ था, लेकिन बाद में बसपा से जुड़ गया था, को फिर कांग्रेस की तरफ मोड़ने की कोशिश की गई है।
दलितों को महागठबंधन के साथ जोड़ने के लिए दलित आदिवासियों की प्रतिनिधि गैर सरकारी संस्था नैकडोर के प्रमुख अशोक भारती ने बिहार के दलित बहुल इलाकों का सघन दौरा करने के बाद अपनी जो सर्वेक्षण रिपोर्ट दी है वो खासा चौंकाने वाली है। इसी तरह राहुल गांधी के अति-पिछड़े एजेंडे को अमली जामा पहनाने के सूत्रधार कांग्रेस पिछड़ा वर्ग विभाग के अध्यक्ष डा.अनिल जयहिंद कहते हैं कि बिहार में पहली बार अति-पिछड़ों के लिए एक समग्र घोषणा पत्र पिछड़ा अधिकार पत्र कांग्रेस ने जारी किया है, जिसे महागठबंधन के सभी घटक दलों का समर्थन है।
इस घोषणापत्र के सभी बिंदुओं को महागठबंधन ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी शामिल किया है। इनमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है दलितों की तरह ही अति पिछड़ों को भी दबंग जातियों के अत्याचारों से कानूनी संरक्षण देने के लिए अति पिछड़ा विरोधी अत्याचार निवारण कानून बनाने का वादा।
ऐसा वादा पहली बार किसी राजनीतिक दल ने किया है और अगर अति पिछड़ों में इसका संदेश पहुंचाने में महागठबंधन कामयाब रहा तो चुनावी नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं। हालांकि यह भी सच है अभी तक बिहार में अति-पिछड़ों और महादलितों का सर्वाधिक समर्थन नीतीश कुमार को ही मिलता आया है, वह चाहें एनडीए के साथ रहें या महागठबंधन के साथ। लेकिन इस बार कांग्रेस के प्रयासों से महागठबंधन ने नीतीश के इस जनाधार में सेंधमारी की कोशिश की है।
लेकिन एनडीए के पास भाजपा और पूरे संघ परिवार के संगठन की ताकत, नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता, नीतीश कुमार की सुशासन बाबू की छवि और जनाधार, चिराग पासवान, जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा के जातीय जनाधार और केंद्र और राज्य के सरकारी तंत्र की ताकत है। महागठबंधन ने सिर्फ घोषणाएं की हैं, जबकि सरकार में होने की वजह से एनडीए ने कई सरकारी योजनाओं का लाभ लोगों तक पहुंचा दिया है।
2005 से लेकर 2025 तक नीतीश कुमार के शासन की विकास गाथा भी है, लेकिन साथ ही बीस साल के शासन को लेकर तमाम सवाल भी हैं। लालू राज के कथित जंगल राज का नैरेटिव अगर एनडीए के पास है तो मोकामा में एनडीए उम्मीदवार बाहुबली अनंत सिंह पर राजद नेता और जनसुराज समर्थक दुलारचंद यादव की दिनदहाड़े हत्या के आरोप में गिरफ्तारी एनडीए को आईना भी दिखा रहा है।
कुल मिलाकर बिहार में चुनाव हकीकत और उम्मीद के बीच का मुकाबला है। नीतीश कुमार अगर बिहार की राजनीति की वर्तमान हकीकत हैं तो तेजस्वी यादव और प्रशांत किशोर बिहार की राजनीति में नई उम्मीद जगा रहे हैं। नीतीश कुमार अपने बीस साल के शासन में बिहार को जितना दे सकते थे दे चुके हैं, जबकि तेजस्वी बिहार के लोगों में भविष्य की उम्मीद जगा रहे हैं। नतीजे बताएंगे कि हकीकत और उम्मीद के इस मुकाबले में कौन किस पर भारी पड़ेगा और जनता हकीकत के साथ बंधी रहेगी या फिर उम्मीद को हकीकत में बदलने का मौका देगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - अमर उजाला डिजिटल।
अगर बीजेपी को लोकसभा मे मिले वोट से कम वोट मिलते है तो एनडीए को कड़ा संघर्ष करना होगा और यदि लोकसभा से ज्यादा वोट मिलते है तो एनडीए प्रचंड बहुमत की सरकार बना लेगा।
by
समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
लोकसभा चुनाव के लगभग डेढ़ साल बाद बिहार विधानसभा के चुनाव होते हैं, लेकिन बिहार के लोकसभा और विधानसभा के पिछले चार चुनावों का मतदान पैटर्न यह बताता है कि लोकसभा में मतदाता भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को प्राथमिकता देते हैं, लेकिन विधानसभा चुनाव में भाजपा की तुलना में क्षेत्रीय दलों की ओर झुकाव दिखाते हैं। 2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 5 सीटें और 14.57 प्रतिशत वोट मिले थे, लेकिन 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा को 37 सीटें और 10.97 प्रतिशत वोट मिले।
यानी लोकसभा की तुलना में लगभग 4 प्रतिशत कम वोट। 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 12 सीटें और 13.99 प्रतिशत वोट मिले, वहीं 2010 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 91 सीटें और 16.49 प्रतिशत वोट मिले। यानी इस बार लोकसभा की तुलना में 2.5 प्रतिशत ज्यादा वोट मिले। यह चुनाव एकमात्र अपवाद था, जिसमें नीतीश कुमार और भाजपा ने मिलकर प्रचंड जीत दर्ज की थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार में भाजपा को 22 सीटें और 29.86 प्रतिशत वोट मिले थे, वहीं डेढ़ साल बाद हुए 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा को 53 सीटें और 24.42 प्रतिशत वोट मिले।
2014 का लोकसभा चुनाव और 2015 का विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार ने भाजपा से अलग होकर लड़ा था। 2014 में नीतीश के साथ न होने पर भी बिहार के मतदाताओं ने भाजपा के पक्ष में वोट किया था, और उन्हीं मतदाताओं ने 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश-लालू के गठबंधन के पक्ष में जमकर मतदान किया। 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा 157 सीटों पर लड़ी और केवल 53 सीटें जीत सकी। लोकसभा चुनाव की तुलना में भाजपा के वोटों में 5.44 प्रतिशत की कमी आई थी।
2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार और भाजपा ने मिलकर चुनाव लड़ा, जिसमें भाजपा ने 24.05 प्रतिशत वोट के साथ 17 सीटें जीतीं। लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत घटकर 19.46 प्रतिशत रह गया और सीटें मिलीं 74, 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को बिहार में 12 सीटें और 20.52 प्रतिशत वोट मिले। लोकसभा चुनाव के डेढ़ साल बाद होने जा रहे बिहार विधानसभा चुनाव में यह बड़ा सवाल है कि क्या बिहार का मतदाता लोकसभा की तरह मतदान करेगा या फिर एक बार फिर क्षेत्रीय दलों पर भरोसा जताएगा।
भाजपा की वोट हिस्सेदारी पिछले दो चुनावों के पैटर्न के अनुसार घटेगी या फिर भाजपा और नीतीश कुमार मिलकर 2010 का प्रदर्शन दोहराने जा रहे हैं, जब एन.डी.ए. को प्रचंड जीत मिली थी। 2010 में भाजपा और जेडीयू ने मिलकर 206 सीटें जीती थीं। इस बार ऐसा संभव नहीं है क्योंकि भाजपा और जेडीयू मिलकर केवल 202 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं।
इस बार चुनाव का पूरा दारोमदार एन.डी.ए. की तरफ से भाजपा के कंधों पर है और महागठबंधन की तरफ से यह जिम्मेदारी तेजस्वी यादव के कंधों पर है। यदि भाजपा को 2024 के लोकसभा में मिले वोट से कम वोट मिलते हैं, तो एन.डी.ए. को सत्ता बचाने के लिए कड़ा संघर्ष करना होगा। और यदि लोकसभा से अधिक वोट मिलते हैं, तो एन.डी.ए. प्रचंड बहुमत की सरकार बना लेगा। देखना दिलचस्प होगा कि बिहार की जनता इस बार लोकसभा चुनाव के तर्ज पर मतदान करती है या फिर बिहार में चले आ रहे परंपरागत ट्रेंड के आधार पर।
फिलहाल यह चुनाव दो ध्रुवीय दिखाई दे रहा है। सीधा मुकाबला एन.डी.ए. और महागठबंधन के बीच है, लेकिन तीसरे कोण को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इस बार बिहार के मतदाताओं के मन को पढ़ना आसान नहीं है। जीत का दावा सब कर रहे हैं, लेकिन यह भी सच है कि सबकी सांसें अटकी हुई हैं। बिहार के मतदाता किसे तर करते हैं और किसे प्यासा छोड़ते हैं। यह देखने के लिए 14 नवंबर का इंतज़ार करना पड़ेगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
जब आप कोई Prompt यानी सवाल AI से पूछते हैं, तो वह शब्दों को 'टोकन' में बदलता है। टोकन को डेटा सेंटर में लगे GPU प्रोसेस करते हैं और आपके सवाल का जवाब तैयार करते हैं।
by
समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
भारतीय यूज़र्स के लिए पिछले हफ़्ते AI के प्रीमियम प्लान फ़्री कर दिए गए। पहले Perplexity ने एयरटेल के 36 करोड़ यूज़र्स को अपना प्रीमियम प्लान फ़्री कर दिया। अब Google Gemini और ChatGPT ने भी फ़्री प्लान पेश कर दिया है। Jio के 50 करोड़ यूज़र्स को 18 महीने तक Gemini फ़्री में मिलेगा, जबकि ChatGPT ने अपना ₹399 वाला Go Plan चार नवंबर से एक साल के लिए फ़्री कर दिया है।
Artificial Intelligence (AI) कंपनियों के सामने दो तरह की चुनौतियाँ हैं। पहली, AI का इस्तेमाल बढ़ाना और दूसरी, पैसे कमाना। पैसे तब बनेंगे जब ज़्यादा लोग इसका इस्तेमाल करेंगे। जितने ज़्यादा लोग इसका इस्तेमाल करेंगे, उतना ही AI मॉडल को ट्रेनिंग देने में मदद मिलेगी। भारत में लगभग 90 करोड़ इंटरनेट यूज़र्स हैं। इनके पास खर्च करने के लिए पैसे भले कम हों, लेकिन जितनी भाषा, संस्कृति और विविधता यहाँ है, वह ट्रेनिंग के लिए एक उपजाऊ बाज़ार बनाती है।
भारतीय बाज़ार पर क़ब्ज़ा जमाने के लिए ये अमेरिकी कंपनियाँ अपना आज़माया हुआ फ़ॉर्मूला अपना रही हैं। पहले लोगों को आदत लगा दो, फिर दाम वसूलो। Netflix, Amazon, यहाँ तक कि देसी कंपनी Jio ने भी यही रास्ता अपनाया था। AI कंपनियों के अपने हित हैं, लेकिन आपको यह मौक़ा नहीं चूकना चाहिए।
अगर आप AI इस्तेमाल करते हैं, तो दो बातें आपने ज़रूर नोट की होंगी। पहले तो यह आपके सवाल का जवाब देता है, फिर पूछता है: “क्या मैं आगे यह बता दूँ?” आप इसमें फँसते चले जाते हैं, फिर वह कहता है कि “फ़्री प्लान ख़त्म हो गया है। आपको जवाब चाहिए तो हमारा प्लान ले लीजिए, नहीं तो इतने देर बाद फिर सवाल पूछ सकते हैं।” अब अगर आप किसी भी कंपनी का प्लान ले लेते हैं, तो जब तक चाहें सवाल-जवाब कर सकते हैं।
आप पूछेंगे कि AI कंपनियों को यह लिमिट क्यों लगानी पड़ी? जब आप कोई Prompt यानी सवाल AI से पूछते हैं, तो वह शब्दों को “टोकन” में बदलता है। टोकन को डेटा सेंटर में लगे GPU प्रोसेस करते हैं और आपके सवाल का जवाब तैयार करते हैं। मैंने पहले भी बताया था कि AI मॉडल को ट्रेनिंग दी जाती है, उसने दुनिया भर के ज्ञान के भंडार को समझा हुआ है। लेकिन जवाब देने की प्रक्रिया में बहुत ज़्यादा बिजली खर्च होती है, और फिर इससे पैदा होने वाली गर्मी को नियंत्रित करने के लिए पानी की ज़रूरत पड़ती है।
एक अनुमान के अनुसार, एक सवाल का जवाब देने में 30 पैसे से लेकर ₹2 तक खर्च होता है। इसलिए कंपनियों ने लिमिट लगा रखी थी। OpenAI के संस्थापक सैम ऑल्टमैन तो यहाँ तक कह चुके हैं कि लोगों का “Please” या “Thank You” कहना भी ख़र्च बढ़ा देता है।
अब AI कंपनियों के पास फंडिंग की कोई कमी नहीं है। इनवेस्टर्स पैसे झोंक रहे हैं। अभी मुनाफ़े से ज़्यादा यूज़र्स बढ़ाने पर ज़ोर है, और इस प्रयोग के लिए भारत से बेहतर प्रयोगशाला और क्या हो सकती है? मेरा सुझाव है ,कंपनियों का अपना हित है, आप अपना हित देखें और AI सीखते रहिए। NVIDIA के संस्थापक ने कहा है “नौकरी उसकी जाएगी जो AI नहीं जानता।” और आपने यह भी पढ़ा होगा कि Amazon 14 हज़ार लोगों को नौकरी से निकाल रहा है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
अमेरिका के उप-राष्ट्रपति अपनी पत्नी को हिंदू से ईसाई बनाना चाहते हैं। समझ आता है कि भारत को नसीहत देनेवाले अमेरिका के नेता धर्म को लेकर किस तरह का व्यवहार करते हैं।
by
समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
भारत में आमतौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बयान पर चर्चा होती है। कभी टैरिफ पर उनके बयान तो कभी आपरेशन सिंदूर रुकवाने के उनके दावे तो कभी प्रधानमंत्री मोदी को मित्र बताने पर तरह तरह की चर्चा होती है। पिछले दिनों अमेरिका के उपराष्ट्रपति जे डी वेंस ने मिसीसिपी विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में अपनी पत्नी ऊषा वेंस के धर्म पर बयान दिया जिस पर अपेक्षाकृत कम चर्चा हुई।
एक प्रश्न के उत्तर में उपराष्ट्रपति ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही उनकी पत्नी ऊषा वेंस ईसाई धर्म अपना लेंगी। जे डी वेंस की पत्नी ऊषा भारतीय मूल की हिंदू हैं। विवाह के बाद भी उन्होंने अपना धर्म नहीं बदला। उपराष्ट्रपति बनने के बाद वेंस जब अपनी पत्नी और बच्चों के साथ भारत आए थे तो पति-पत्नी अक्षरधाम मंदिर गए थे। अमेरिका में भी वेंस और ऊषा के हिंदू रीति-रिवाजों को निभाते फोटो दिखते रहते हैं। विश्वविद्यालय में वेंस के इस बयान के बाद उनके कंजरवेटिव समर्थकों ने जमकर तालियां बजाईं।
बाद में इंटरनेट मीडिया पर वेंस के इस बयान की आलोचना आरंभ हो गई। एक व्यक्ति ने तो उनको एक्स पर टैग करते हुए लिखा कि ये अफसोस की बात है कि आप अपनी पत्नी के धर्म को सार्वजनिक रूप से बस के नीचे फेंक कर कुचलना चाहते हैं। जब आलोचना बढ़ी तो उपराष्ट्रपति को सफाई देनी पड़ी। उन्होंने कहा कि फिलहाल ऊषा के धर्म परिवर्तन की कोई योजना नहीं है।
साथ ही उम्मीद भी जता दी कि जिस तरह से वो चर्च की ओर प्रेरित हुए उसी तरह से एक दिन उनकी पत्नी भी चर्च की ओर जाने की राह पर बढ़ेंगी। आपको बताते चलें विवाह के पूर्व वेंस नास्तिक थे। दरअसल अमेरिका में अंतर-धार्मिक विवाह को लेकर हमेशा से बहस चलती रही है। जब से ट्रंप राष्ट्रपति बने हैं और मेक अमेरिका ग्रेट अगेन का नारा दिया है, तब से ये बहस और तेज है। वर्तमान सरकार के कई सदस्य प्रवासियों से ये अपेक्षा करते हैं कि वो अमेरिका और ईसाई धर्म से प्यार करें।
अमेरिका कई बार भारत को धर्म और कथित धार्मिक कट्टरता को लेकर नसीहत देता रहता है। धार्मिक कट्टरता पर तो कई रिपोर्ट प्रकाशित कर अंतराष्ट्रीय स्तर पर जारी भी करता रहा है। ट्रंप तो राष्ट्रपति चुनाव के समय से ही ईसाई धर्म और बाइबिल को लेकर लगातार श्रद्धापूर्वक अपनी रैली में बोलते रहे हैं। यहां ये भी याद दिलाता चलूं कि जब अमरिका में राष्ट्रपति चुनाव के लिए प्रचार हो रहा था तो ट्रंप की रैलियों और सभाओं में लार्ड जीजस और जीजस इज किंग के नारे गूंजते थे।
ट्रंप, एलन मस्क और जे डी वेंस ने अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के समय परिवार, शादी, बच्चे और ईसाई धर्म को आगे रखा था। उनके इस प्रचार ने अमेरिकी वोटरों को अपनी ओर खींचा था और कमला हैरिस परास्त हो गई थीं। ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद इसको और बल मिला। चर्च और ईसाई धर्म से जुड़े लोग महत्व पाने लगे। मेक अमेरिका ग्रेट अगेन को उन्होंने प्राथमिकता देनी शुरु की।
चार्ली किर्क ट्रंप के पारंपरिक वोटरों से संवाद करनेवाले महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। ईसाई धर्म और अमेरिकी माटी को लेकर आक्रामक तरीके से भाषण देते थे और लोगों को एकजुट करते थे। पिछले दिनों चार्ली किर्क की हत्या हो गई। चार्ली हत्या के बाद ट्रंप के इस एजेंडे को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाने वाला कोई बचा नहीं। कुछ दिनों पूर्व चार्ली किर्क की विधवा का बयान आया था।
वो कह रही थीं कि चार्ली को रिप्लेस करनेवाला उनको कोई दिखाई नहीं देता लेकिन चार्ली और जे डी वेंस में कई समानताएं हैं। बहुत संभव है कि चार्ली के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए ट्रंप ने वेंस को चुना हो। अगले राष्ट्रपति चुनाव में जे डी वेंस स्वाभाविक रूप से रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार हो सकते हैं। ऐसे में उनकी ईसाई धर्म समर्थक की छवि बनाने से लाभ होगा।
उस समय उनके सामने उनकी पत्नी के धर्म को लेकर प्रश्न ना खड़े हों इस कारण से वेंस अभी से एक माहौल बनाना चाहते हैं। पिछले राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम से ये बात साबित भी हो गई कि अमेरिकी राजनीति में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है।
इस पूरे प्रकरण से एक और बात सामने आती है वो ये कि भारत को नसीहत देनेवाले अमेरिका के नेता धर्म को लेकर किस तरह का व्यवहार करते हैं। अब अगर हम भारत की बात कर लें तो स्थिति बिल्कुल भिन्न नजर आती है। भारत में तो कभी भी ना तो किसी राजनेता की पत्नी के धर्म के बारे में चर्चा होती है, ना ही जिज्ञासा और ना ही वोटरों को फर्क पड़ता है।
राजीव गांधी ने सोनिया गांधी से शादी की कभी किसी ने कोई आपत्ति उठाई हो या कभी राजीव गांधी ने उनपर हिंदू धर्म स्वीकार करने का दबाव बनाया हो, ऐसा सार्वजनिक तो नहीं हुआ। राजीव गांधी के निधन के बाद सोनिया गांधी का विदेशी मूल भले ही मुद्दा बना लेकिन तब भी किसी ने ये नहीं पूछा कि वो हिंदू हैं या अब भी ईसाई ही हैं। जिस तरह से वेंस ने सार्वजनिक रूप से अपनी पत्मी के धर्म परिवर्तन की बात कही वैसा तो भारत में सुना नहीं गया।
विदेश मंत्री जयशंकर की पत्नी विदेशी मूल की हैं लेकिन उनके धर्म के बारे में ना तो किसी को कोई रुचि है और ना ही कोई जानना चाहता है। भारत के राष्ट्रपति रहे के आर नारायणन की पत्नी भी विदेशी रहीं, उन्होंने अपना नाम अवश्य बदला लेकिन उनके धर्म को लेकर भारत की जनता को कभी कोई आपत्ति हुई हो ऐसा ज्ञात नहीं है।
अमेरिका खुद को बहुत आधुनिक और खुले विचारों वाला देश कहता है लेकिन धर्म को लेकर वहां के नेताओं के विचार बेहद संकुचित हैं। चुनाव में भी जिस तरह से धर्म का खुलेआम उपयोग वहां होता है वो भी देखनेवाली बात है। लेकिन जब दूसरे देशों को नसीहत देने की बात होती है तो सभी एकजुट हो जाते हैं।
हम अमेरिकी समाज को देखें तो वहां आधुनिकता के नाम पर इस तरह की वितृतियां घर कर गई हैं कि वहां के मूल निवासी अब वापस अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहते हैं। ये अनायास नहीं है कि ट्रंप ने शादी और बच्चों का मसला उठाया और उसको लोगों ने पसंद किया। ट्रंप और उनकी टीम लगातार परिवार व्यवस्था की बात करते रहते हैं और अमेरिकी उनकी बातों को ध्यान से सुनते हैं।
अमेरिका में नास्तिकता की बातें बहुत पुरानी है और इसकी जड़े उन्नीसवीं शताब्दी में जाती हैं। जब पूरी दुनिया में कम्युनिस्टों की विचारधारा लोकप्रिय हो रही थी तब अमेरिका में भी चार्ल्स ली स्मिथ जैसे लोगों ने खुले विचारों के नाम पर नास्तिकता को बढ़ावा देने के लिए योजनाबद्ध तरीके से कार्य आरंभ किया। वहां की युवा पीढ़ी इसकी ओर आकर्षित भी हुई।
इक्कसीवीं शताब्दी तक आते आते फिर से धर्म की ओर लोगों का रुझान बढ़ने लगा है। अब भी अमेरिका में नास्तिकता को बढ़ावा देनेवाले संगठन हैं लेकिन कमजोर हैं। हिंदू धर्म और उनके अनुयायियों जैसा सहिष्णु कहीं और नहीं है ये अमेरिकियों को समझना होगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
कांग्रेस के शीर्ष नेताओं, मुख्यमंत्रियों के रहे संबंधों, उनकी सरकारों के दौरान बड़े पूंजीपतियों को मिले प्रश्रय अथवा लाइसेंस, परमिट, अनुबंध, ठेकों का हिसाब-किताब उनके लिए ही बहुत महंगा साबित होगा।
by
समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
आलोक मेहता, पद्मश्री, लेखक, वरिष्ठ पत्रकार।
बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध प्रचार के दौरान पूंजीपतियों से रिश्तों का पुराना राग अलाप रहे हैं। विशेष रूप से अंबानी, अडानी और नाम लिए बिना अन्य चार-पांच पूंजीपतियों को सर्वाधिक लाभ देने का आरोप लगा रहे हैं। शायद वह भूल जाते हैं कि पूंजीपतियों के साथ कांग्रेस के शीर्ष नेताओं, प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों के रहे संबंधों, उनकी सरकारों के दौरान बड़े पूंजीपतियों को मिले प्रश्रय अथवा लाइसेंस, परमिट, अनुबंध, ठेकों का हिसाब-किताब उनके लिए ही बहुत महंगा साबित होगा।
कई बार ऐसा लगता है कि वह 60-70 के दशक में वामपंथी राजनीतिक दलों अथवा श्रमिक संगठनों द्वारा टाटा-बिड़ला और पूंजीपतियों के विरुद्ध की जाने वाली नारेबाजी के बल पर जनता को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि भारत ही नहीं, चीन और रूस जैसे कम्युनिस्ट देशों में भी प्राइवेट और मल्टीनेशनल कंपनियां बड़े पैमाने पर काम कर रही हैं। भारत में आर्थिक उदारवाद भी 1991 में कांग्रेस राज के दौरान, नरसिंहा राव की सरकार और मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री रहते हुए लागू हुआ।
अंबानी-अडानी समूह तो पिछले तीस वर्षों के दौरान तेजी से आगे बढ़े हैं। राहुल गांधी अपने को युवा सम्राट मानकर संभव है भारत की राजनीतिक-आर्थिक पृष्ठभूमि नहीं जानना चाहते या उनके सलाहकार उन्हें नहीं बताते। लेकिन बिहार ही नहीं, देश के सामान्य लोग भी बिड़ला-टाटा से लेकर अंबानी-अडानी जैसे समूहों को किसी न किसी रूप में जानते या सुनते हैं। यही नहीं, करोड़ों लोगों ने इन कंपनियों के अलावा अन्य उद्योग-व्यापार की कंपनियों के शेयर खरीदे हुए हैं, यानी अपनी पूंजी भी लगा रखी है। वे न समझना चाहें, लेकिन इस विवाद पर कुछ तथ्यों पर ध्यान दिलाना उचित होगा।
बिड़ला समूह की ही बात की जाए, तो कृष्ण कुमार बिड़ला न केवल सदा कांग्रेस पार्टी को हर संभव सहयोग और चुनावी चंदा देते रहे, बल्कि स्वयं कांग्रेस पार्टी द्वारा 1984 से 2002 तक राज्यसभा के सांसद के रूप में जोड़े रखे गए। बाद में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार में उनकी बेटी श्रीमती शोभना भरतिया को 2006 से 2012 तक राज्यसभा का नामांकित सदस्य बनाया गया। बिड़ला समूह की कंपनियां कांग्रेस सहित हर सरकार के काल में प्रगति करती रहीं।
राहुल गांधी को क्या यह तथ्य नहीं पता कि बिड़ला परिवार की दूसरी कंपनी हिंदुस्तान मोटर्स की 'अम्बेसेडर कार' सरकार की एकमात्र मान्यता प्राप्त कार रही, जिसकी सबसे अधिक खरीदी भाजपा की अटल सरकार आने तक होती रही। बाद में मारुति और अन्य बड़ी गाड़ियों की खरीद शुरू हुई। पिछले दशकों में चीनी, खाद, पटसन के कारखानों या टेलीकॉम उद्योग और नई टेक्नोलॉजी के कई उद्यमों में भी बिड़ला समूह आगे बढ़ता रहा।
बहरहाल, उन्हें अंबानी परिवार पर बड़ी आपत्ति होती है। वे यह कैसे नहीं जानते कि रिलायंस समूह — धीरुभाई अंबानी से लेकर मुकेश अथवा अनिल अंबानी — को सर्वाधिक सहयोग कांग्रेस सत्ता काल में ही मिला। यही नहीं, राजीव गांधी के राजनीतिक संकट यानी वी.पी. सिंह के विद्रोह के दौरान अंबानी ने पर्दे के पीछे उनका साथ दिया। दिलचस्प बात यह है कि अनिल अंबानी तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी के वोटों से ही उत्तर प्रदेश से 2004 में राज्यसभा के सांसद बने। तब सोनिया गांधी पार्टी प्रमुख और राहुल गांधी भी सांसद थे।
राजीव गांधी से मनमोहन सिंह तक की कांग्रेस सरकारों के दौरान पॉलिएस्टर, गैस, टेलीकॉम के उद्यमों के लिए रिलायंस को विशेष रियायतों के आरोप लगते रहे। सही बात यह है कि उदार आर्थिक नीतियों और देश के आर्थिक विकास के लिए उनके साथ कई अन्य कंपनियां भी आगे बढ़ती रहीं। मनमोहन सिंह ही नहीं, प्रणब मुखर्जी, नारायण दत्त तिवारी और पी. चिदंबरम के वित्त या उद्योग-वाणिज्य मंत्री, या मुरली देवड़ा के पेट्रोलियम मंत्री रहते हुए इन समूहों ने तेजी से प्रगति की। गुजरात देश का सबसे प्रगतिशील प्रदेश रहा है, इसलिए टाटा-बिड़ला-अंबानी-अडानी समूहों को वहां मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल या प्रधानमंत्री बनने पर भी समुचित अवसर मिलते रहे।
राहुल गांधी यह कैसे भूल गए कि 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान, जब वे पार्टी प्रमुख थे, उनकी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार मिलिंद देवड़ा को मुंबई से चुनावी विजय के लिए रिलायंस के अध्यक्ष मुकेश अंबानी ने खुली अपील जारी की थी।
यों बिड़ला-अंबानी के अलावा एक और बड़े उद्योगपति आर.पी. गोयनका रहे हैं। वे कांग्रेस और गांधी परिवार के करीबी थे। उनका औद्योगिक समूह भी तेजी से आगे बढ़ा। कांग्रेस पार्टी ने उन्हें पश्चिम बंगाल से राज्यसभा का चुनाव जितवाकर 2000 से 2006 तक सांसद बनाकर संसद में रखा। आर.पी. गोयनका तो गांधी परिवार के कुछ ट्रस्टों के सदस्य भी रहे।
इसी सप्ताह मुजफ्फरपुर की एक चुनावी सभा में राहुल गांधी ने अंबानी परिवार की शादी के समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जाने और खुद न जाने का दावा करते हुए अंबानी समूह को लाभ मिलने का आरोप लगाया।
इसे उन्होंने साहसिक कदम समझा, लेकिन उनके साथ बैठे कांग्रेस-राजद गठबंधन के मुख्यमंत्री पद के दावेदार तेजस्वी यादव के चेहरे का रंग उड़ गया, क्योंकि वह और लालू यादव का पूरा परिवार अंबानी के विवाह उत्सव में पूरी शान के साथ शामिल हुआ था और वहां उनकी अच्छी खातिर भी हुई थी। वैसे कांग्रेस के कुछ अन्य वरिष्ठ नेता भी इस समारोह में गए थे।
भारत में पारिवारिक कार्यक्रमों में आना-जाना सामान्य शिष्टाचार रहा है। परस्पर राजनीतिक या व्यावसायिक प्रतिद्वंद्वी होने पर भी सामान्य संबंध बने रहते हैं। राहुल गांधी को जिस अडानी समूह को पोर्ट या एयरपोर्ट के रखरखाव या निर्माण का काम दिए जाने पर तकलीफ हो रही है, उन्हें यह जानकारी कैसे नहीं है कि गुजरात के कांडला पोर्ट अडानी समूह को 1994 में दिया गया, जब केंद्र में राव की और गुजरात में छबिलदास मेहता की कांग्रेस सरकारें थीं। तब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री भी नहीं थे।
इसी तरह राजस्थान में अडानी समूह को ग्रीन एनर्जी यानी सौर ऊर्जा के बड़े प्रोजेक्ट का काम 2018 में मिला, जहाँ अशोक गहलोत की कांग्रेस सरकार थी। छत्तीसगढ़ में भी कोयला खदानों आदि से जुड़े काम कांग्रेस और भाजपा दोनों सरकारों के दौरान मिले। अब बिहार में वही अशोक गहलोत और भूपेश बघेल पार्टी उम्मीदवारों का हिसाब-किताब देख रहे हैं। ये कुछ बातें तो एक झलक मात्र हैं। यदि विस्तार में जाएंगे, तो बहुत दूर या करीबी की दास्तान मिल जाएगी। तभी तो उन्हें यह गीत याद रखना होगा -'राज को राज ही रहने दो, वरना भेद खुल जाएगा।'
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
वजह ये है कि वो ऐसा बॉलर है ही नहीं जो आपको बॉलिंग से मैच जिता दे और न ही ऐसा ऑलराउंडर है जिससे आप वनडे में बिना ज़्यादा रन खाए दस ओवर करवा लें।
by
समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
हर्षित राणा ने दूसरे टी-20 मैच में तीस के करीब रन बनाए, बावजूद इसके मुझे लगता है कि अर्शदीप की जगह उन्हें खिलाने का कोई तुक नहीं है और इसके पीछे एक से ज़्यादा कारण हैं। पहली बात तो यह कि अगर कोई टीम किसी प्रारूप (फॉर्मेट) में दुनिया के नंबर वन गेंदबाज़ को निकालकर उसकी जगह किसी ऐसे गेंदबाज़ को यह सोचकर खिला रही है कि दस मैचों में कभी ज़रूरत पड़ने पर वह आपके लिए बीस रन भी बना सकता है, तो आपका भगवान ही मालिक है।
आप टीम में ऐसा एक गेंदबाज़ खिला लें तब भी समझ आता है, लेकिन दुबे और राणा इन दोनों के तौर पर ऐसे दो-दो खिलाड़ी खिलाने का कोई मतलब नहीं है। अब होता यह है कि कमज़ोर टीमों के खिलाफ तो यह रणनीति चल जाती है, लेकिन बड़ी टीमों के खिलाफ आपको टुकड़ों में योगदान देने वाले खिलाड़ियों (छिटपुट खिलाड़ियों) की जगह गुणवत्तापूर्ण खिलाड़ियों की ज़रूरत होती है। आप इसी टीम में राणा की जगह अर्शदीप और दुबे की जगह रिंकू सिंह को शामिल कर दीजिए, तो देखिए अचानक टीम की गुणवत्ता कहीं ज़्यादा बेहतर लगने लगेगी।
दूसरी बात यह कि जब आप एक मैच जिताने वाले गेंदबाज़ को खिलाते हैं, तो वह 135 रन भी बचा सकता है। आपका आठवें नंबर का गेंदबाज़ी करने वाला ऑलराउंडर भले बीस-तीस रन बना जाए, लेकिन वह एक-दो बार को छोड़कर अपनी गेंदबाज़ी के दम पर मैच नहीं जिता सकता। वह बीस रन बना सकता है, लेकिन चार ओवर में पचास रन भी दे सकता है और विकेट लेगा, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है।
तीसरी बात, जब आप शिवम दुबे जैसे किसी खिलाड़ी को खिलाते हैं, तो वह गेंदबाज़ी भी इस मानसिकता से करता है कि 'मैं रन रोक लूं, ज़्यादा रन न पड़ें।' बात थोड़ी अलोकप्रिय है, लेकिन एशिया कप के फाइनल में जब आप शिवम दुबे से शुरुआती गेंदबाज़ी करवाते हैं और वह ज़्यादा रन नहीं देता, तो हम कहते हैं कि देखो , यह कप्तान और कोच की शानदार चाल थी। लेकिन हम यह नहीं सोचते कि उसकी जगह अगर अर्शदीप जैसा विकेट लेने वाला गेंदबाज़ होता, तो पहले स्पेल में ही दो विकेट निकाल सकता था।
ऐसा होता, तो पाकिस्तान ने जो अस्सी के करीब की ओपनिंग साझेदारी की थी, वह नहीं होती। और यहां मैं उस अर्शदीप की बात कर रहा हूं, जिसने पिछले मैच में अपने दम पर आपको श्रीलंका के खिलाफ हारा हुआ मैच जिताया था। ठीक यही बात टेस्ट में नीतीश रेड्डी के साथ भी है। अगर आप उन्हें किसी भी प्रारूप में आठवें नंबर पर बल्लेबाज़ी करवाते हैं और यह सोचकर टीम में रखते हैं कि हम उनसे चार-पाँच ओवर भी करवा सकते हैं, तो इसका भी कोई तुक नहीं है। ऐसा करके आप उसी खिलाड़ी का करियर बर्बाद कर रहे हैं।
वजह यह है कि वह ऐसा गेंदबाज़ है ही नहीं जो आपको गेंदबाज़ी से मैच जिता दे ,और न ही ऐसा ऑलराउंडर है जिससे आप वनडे में बिना ज़्यादा रन खाए दस ओवर करवा लें। वहीं, आठवें नंबर पर बल्लेबाज़ी करते हुए वह कभी खुद को बल्लेबाज़ के तौर पर साबित नहीं कर पाएगा। वजह साफ़ है, ऊपर के बल्लेबाज़ अच्छा खेल गए तो उसके पास साबित करने को कुछ नहीं होगा, और अगर बल्लेबाज़ी आ भी गई तो साथ देने के लिए कोई नहीं बचेगा। छोटे प्रारूप में बल्लेबाज़ी आएगी तो तेज़ खेलना होगा, और जल्दी आउट हो गया तो वह भी असफलता (फेलियर) माना जाएगा।
इसी तरह का टीम चयन हमने ऑस्ट्रेलिया टेस्ट दौरे में किया था। यही गलती हमने इंग्लैंड में भी लगातार की। वह तो आख़िरी में हैरी ब्रूक के एक गलत शॉट और सिराज के शानदार स्पेल ने पूरा माहौल बदल दिया, वरना उस मैच में भी हम खेल तो तीन ही मुख्य गेंदबाज़ों के साथ रहे थे। और यही गलती अब हम ऑस्ट्रेलिया में सीमित ओवरों (वाइट-बॉल) के क्रिकेट में भी कर रहे हैं।
जैसा मैंने शुरू में कहा, दुनिया में आज ज़्यादा गुणवत्तापूर्ण टीमें बची नहीं हैं। इसलिए औसत टीमों के खिलाफ खेलते हुए आप चयन की ऐसी गलतियाँ करके बच सकते हैं, लेकिन जब-जब आप ऑस्ट्रेलिया जैसी बड़ी टीमों के खिलाफ खेलेंगे, तो पूरी तरह से उजागर (एक्सपोज़) हो जाएंगे।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )