‘मीडिया पर संकट की भयावहता कितनी सही?’

गुजरात दंगों पर बनाई गई ‘बीबीसी’ की प्रॉपगेंडा डॉक्यूमेंट्री की आलोचना ब्रिटेन में भी हो रही है।

आलोक मेहता by
Published - Monday, 20 February, 2023
Last Modified:
Monday, 20 February, 2023
Alok Mehta


आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार।।

‘एक दिन ऐसा आएगा, जब भारत में मीडिया बचेगा ही नहीं’, ‘लोकतंत्र की हत्या हो रही, तानाशाही चल रही’, ‘मीडिया की आवाज पर अंकुश लग गया’, ‘मीडिया बिक गया और डर गया’, ऐसे बयान संवैधानिक पद पर बैठी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी या कांग्रेस और प्रतिपक्ष के प्रमुख नेता दे रहे हैं। लेकिन क्या मीडिया पर संकट सचमुच इतना भयावह है। ममता बनर्जी ने ‘बीबीसी’ के भारतीय दफ्तर पर इनकम टैक्स विभाग के सर्वे यानी हिसाब-किताब की जांच-पड़ताल की कार्रवाई पर इतनी बड़ी आशंका व्यक्त कर दी।

ब्रिटेन सहित दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश की सरकार या अधिकारी ने ऐसी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। यहां तक कि स्वयं ‘बीबीसी’ ने इस कार्रवाई पर ऐसा आरोप नहीं लगाया। उसके समाचार या विश्लेषण आदि से जुड़े संपादकीय और प्रोडक्शन के कर्मचारी काम करते रहे और रेडियो-टीवी चैनल के प्रसारण में भी कोई रुकावट नहीं हुई। इस संदर्भ में कुछ और सवाल उठते हैं और उनमें भारत में लगे आपातकाल और सेंसर की अवधि की चर्चा की जरूरत नहीं है।

क्या ‘बीबीसी’ सचमुच में देववाणी है और उसका दफ्तर मंदिर की तरह पवित्र, जिस पर कोई ऊंगली-आंख उठाकर नहीं देखे? लोग शायद उसकी खबरों, इंटरव्यू आदि के कार्यक्रम के आधार पर जानते हैं, लेकिन क्या नेता और मीडिया या अन्य सामाजिक संगठन यह नहीं जानते कि ‘बीबीसी’ भारत में भी टीवी, डिजिटल इत्यादि के प्रोडक्शन आदि के कमाई वाले व्यावसायिक काम से पिछले वर्षों से अरबों रुपये/पाउंड्स  कमाकर ब्रिटेन भी भेजता रहा है? क्या उस पर भारत के कर और अन्य कानून लागू नहीं होते? क्या ‘बीबीसी’ पर ब्रिटेन की सरकार और संसद भी समय-समय पर जांच-पड़ताल नहीं करती रही है?

दुनिया के सबसे बड़े मीडिया सम्राट रूपर्ट मर्डोक के मीडिया हाउस और अखबार पर ब्रिटिश सरकार की कड़ी कार्रवाई और एक अखबार का प्रकाशन तक बंद हो जाने से वहां मीडिया की आजादी खत्म हो गई? उस कार्रवाई के बाद भी उनकी कंपनी क्या आज तक नहीं चल रही?

ब्रिटेन और अमेरिका के नस्लीय दंगों पर क्या किसी भारतीय टीवी प्रसारण कंपनी या ‘बीबीसी’ की तरह सरकारी बजट पर निर्भर ‘दूरदर्शन’ या ‘आकाशवाणी’ ने डॉक्यूमेंटरी-रेडियो कार्यक्रम बनाकर ब्रिटिश-अमेरिका के चुनावों के दौरान उनके विश्वविद्यालयों और शहरों में प्रसारित किए?

भारत में यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी सरकार, पार्टी या समर्थक पूंजीपतियों का मीडिया पर प्रभाव है, लेकिन क्या पहले कांग्रेस पार्टी का और अब उसके नेता राहुल गांधी की कंपनी के अखबार ‘नेशनल हेराल्ड’, ‘नवजीवन’ पर भी सरकार का प्रभाव है? वे इन अखबारों के पचासों जिला संस्करण भी छापकर अपनी मर्जी की खबरें और विचार नहीं छाप सकते हैं? इसी तरह कम्युनिस्ट पार्टी या उससे जुड़े लोगों के कई अखबार पत्रिकाएं रही हैं, समाजवादी या शिवसेना के भी रहे हैं। वहीं  क्या भाजपा-संघ से जुड़े या उसके कड़े विरोधी पत्र-पत्रिका, यूट्यूब चैनल नहीं चल रहे और लाखों लोगों तक पहुंचने का दावा नहीं कर रहे हैं?

इसलिए यह हव्वा मचाने का क्या औचित्य है कि प्रेस की आजादी खत्म हो गई या मीडिया रहेगा नहीं रहेगा? यह तो बस आने वाले किसी भी दिन कभी महाप्रलय और महाविनाश होने का भय दिखाने जैसी बात है। वास्तव में बीस साल पहले गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों पर पूर्वाग्रही एकपक्षीय पुरानी रिपोर्ट पर ‘बीबीसी’ द्वारा एक प्रोडक्शन कंपनी के लोगों और भारत में भी सत्ता विरोधी तत्वों का सहयोग लेकर बनी डॉक्यूमेंट्री के वितरण, फिर एक अमेरिकी कथित रिसर्च कंपनी द्वारा बड़े व्यावसायिक ग्रुप अडानी समूह को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्षति के साथ भारत की आर्थिक व्यवस्था को चोंट पहुंचाने वाली रिपोर्ट और अब दुनिया में बदनाम अमेरिकी आर्थिक अपराधी सोरोस के भारत विरोधी अभियान इस बात के प्रमाण हैं कि कुछ विदेशी संगठन, लोग और एजेंसियां प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से भारत की सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक स्थितियों को नुकसान पहुंचाने के लिए सक्रिय हैं। वैसे भी भारत की स्थिरता और प्रगति कई देशों को खटकती रही है।

जहां तक मीडिया पर कार्रवाई की बात है तो इनकम टैक्स विभाग ने तो कांग्रेस के मनमोहन सिंह राज में भी मध्य प्रदेश के बड़े मीडिया घराने (नई दुनिया वेबदुनिया) के मालिक विनय छजलानी की कंपनियों पर छापे मारकर तीन सौ करोड़ की गड़बड़ी का रिकार्ड निकाला था। वर्षों पहले भास्कर समूह पर भी कार्रवाई हुई थी और ये दोनों अखबार कांग्रेस सर्मथक माने जाते थे। ‘एनडीटीवी’ पर आयकर विभाग की जांच कांग्रेस राज में शुरू हो गई थी। तमिलनाडु सरकार ने एक बार ‘हिंदू’ जैसे बड़े प्रकाशन समूह पर बड़ी पुलिस कार्रवाई दफ्तर में घुसकर की थी।

इस तरह के पचासों उदाहरण हैं, लेकिन प्रेस की आजादी अक्षुण्ण रही। अब पिछले दिनों इनका टैक्स विभाग ने दिल्ली और मुंबई में ‘बीबीसी’ के दफ्तर पर इनकम टैक्स एक्ट 133A के तहत सर्वे किया था। आयकर विभाग ने इसकी जानकारी दी है। सर्वे के दौरान पता चला है कि ‘बीबीसी’ ग्रुप के द्वारा आय कम दिखाकर टैक्स बचाने की कोशिश की गई है। सर्वे के दौरान विभाग ने संगठन के संचालन से जुड़े जो सबूत इकट्ठा किए, उनसे साफ पता चलता है कि ‘बीबीसी’ की विदेशी इकाइयों के जरिये हुए लाभ के कई स्रोत ऐसे थे, जिन पर भारत में देय टैक्स नहीं चुकाया गया।

विदेशों और देश में मौजूद कई ऐसे कर्मचारी हैं, जिनकी पेमेंट भारतीय इकाई द्वारा की गई, लेकिन उस पर भी टैक्स नहीं चुकाया गया। ‘बीबीसी’ के सर्वे पर केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) ने कहा कि आयकर दलों ने कर्मचारियों के बयान, डिजिटल प्रमाण और दस्तावेजों के जरिये अहम सबूतों का पता लगाया है। ‘सीबीडीटी’ ने कहा कि आय व समूह की विभिन्न संस्थाओं द्वारा दिखाया गया मुनाफा भारत में परिचालन के पैमाने के अनुरूप नहीं है।

‘बीबीसी’ के खिलाफ आयकर सर्वेक्षण पर ‘सीबीडीटी’ ने कहा, ‘‘ट्रांसफर प्राइसिंग’ ’दस्तावेजों के संबंध में कई विसंगतियां मिलीं। आयकर अधिकारियों ने उपलब्ध स्टॉक की एक सूची बनाई है, कुछ कर्मचारियों के बयान दर्ज किए हैं और सर्वेक्षण कार्रवाई के तहत कुछ दस्तावेज जब्त किए हैं। अधिकारियों ने कहा कि सर्वे अंतरराष्ट्रीय कराधान और ‘बीबीसी’ की सहायक कंपनियों के ट्रांसफर प्राइसिंग से संबंधित मुद्दों की जांच के लिए किया गया है।

उन्होंने आरोप लगाया कि विगत में कई बार ‘बीबीसी’ को नोटिस दिया गया था, लेकिन उसने उस पर गौर नहीं किया और उसका पालन नहीं किया तथा उसने अपने मुनाफे के खास हिस्से को अन्यत्र हस्तांतरण किया। ब्रिटिश सरकार के सूत्रों ने कहा कि भारत में ‘बीबीसी’ कार्यालयों में आयकर सर्वेक्षणों के बाद ब्रिटेन ‘बारीकी से नजर रख रहा है। ‘बीबीसी’ ने कहा कि भारतीय आयकर विभाग के अधिकारियों के साथ पूरा सहयोग किया है और उम्मीद है कि यह स्थिति जल्द से जल्द सुलझ जाएगी।

‘बीबीसी’ की ज्यादातर फंडिंग एक सालाना टेलीविजन फीस से आती है। इसके अलावा इसे अपनी अन्य कंपनियों, जैसे- बीबीसी स्टूडियोज और बीबीसी स्टूडियोवर्क्स से भी आमदनी होती है। ब्रिटेन की संसद भी इसको ग्रांट देती है। वर्ष 2022 में कंपनी को तब एक बड़ा झटका लगा, जब ब्रिटिश सरकार ने अगले दो सालों के लिए वार्षिक टेलीविजन शुल्क पर रोक लगाने की घोषणा की। इतना ही नहीं, सरकार ने यह भी कहा कि 2027 तक वह शुल्क को पूरी तरह खत्म कर देगी। इसके विदेशी प्रसारण और कामकाज के लिए बड़े पैमाने पर चीन की कंपनियों सहित बहुराष्ट्रीय और भारतीय कंपनियों से कमाई होती है।

गुजरात दंगों पर बनाई गई ‘बीबीसी’ की प्रॉपगेंडा डॉक्यूमेंट्री की आलोचना ब्रिटेन में भी हो रही है। ब्रिटेन की संसद के हाउस ऑफ लॉर्ड्स के सदस्य लॉर्ड रामी रेंजर ने ‘बीबीसी’ की आलोचना करते हुए डॉक्यूमेंट्री को दुर्भाग्यपूर्ण, गलत समय पर और गलत सूचना देने वाला बताया है। रामी रेंजर ने कहा है कि यह डॉक्यूमेंट्री मुट्ठी भर मोदी विरोधी लोगों के बयानों पर आधारित है। ब्रिटिश सांसद रामी रेंजर ने कहा कि पीएम मोदी और भारत की सफलता कुछ लोगों से देखी नहीं जा रही है।

उन्होंने कहा कि इस बार भारत बदला हुआ है, इसलिए प्रॉपगेंडा की कड़ी प्रतिक्रिया दी गई। उन्होंने ‘बीबीसी’ पर दो महान देशों के बीच संबंध खराब करने की कोशिश का आरोप लगाया। रामी रेंजर ने कहा कि भारत और ब्रिटेन कई मामलों में दूसरे देशों के मुकाबले एक-दूसरे के ज्यादा करीब हैं। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी दो बार चुनावों में भारी बहुमत से जीतकर आए हैं और विरोधियों को गलत साबित किया है।

दूसरी तरफ केंद्रीय मंत्री स्मृति इरानी ने हंगरी मूल के अमेरिकी अरबपति कारोबारी जॉर्ज सोरोस की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा कि वो भारत के खिलाफ लंबे समय से एजेंडा चला रहे हैं। असल में जॉर्ज सोरोस उस शख्सियत का नाम है, जिसने यहां तक कह दिया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत तानाशाही व्यवस्था की ओर बढ़ रहा है। उन्होंने जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाने और नागरिकता संसोधन कानून (CAA) का भी खुलकर विरोध किया है। उनका हालिया बयान गौतम अडानी की कंपनियों के खिलाफ आई हिंडनबर्ग रिसर्च रिपोर्ट को लेकर आया है। वरिष्ठ नेता स्मृति इरानी ने सोरोस के बयान को भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में दखल देने की कोशिश बताया है।

92 वर्षीय जॉर्ज सोरोस सटोरिया और व्यापारी हैं। उन पर दुनिया के कई देशों की राजनीति और समाज को प्रभावित करने का एजेंडा चलाने का आरोप लगता रहता है। उन पर दुनिया कई देशों में कारोबार और समाजसेवा की आड़ लेकर पैसे के जोर पर वहां की राजनीति में दखल देने के गंभीर आरोप लगते रहते हैं। उन्होंने कई देशों में चुनावों को प्रभावित करने के लिए खुलकर भारी-भरकम फंडिंग की। यही कारण है कि यूरोप और अरब के कई देशों में सोरोस की संस्थाओं पर भारी जुर्माना लगाकर पाबंदी लगा दी गई।

जॉर्ज सोरोस पर आरोप लगता रहा है कि वह जिस अकूत दौलत के दम पर दुनियाभर में दखल देते हैं, वह भी अनैतिक साधनों से जुटाई है। वर्ष 2002 में फ्रांस की अदालत ने सोरोस को अनैतिक और अनधिकृत व्यापार का दोषी पाया था। इसके लिए फ्रेंच कोर्ट ने सोरोस पर 23 लाख डॉलर का जुर्माना लगाया था।

जब उन्होंने फ्रांस की सुप्रीम कोर्ट में फैसले को चुनौती दी तो उसने भी सोरोस का जुर्माना बरकरार रखा। अमेरिका में भी उन पर बेसबॉल खेलों में पैसा लगाकर अनैतिक तरीके से पैसे बनाने का आरोप लगा। इसी तरह, इटली की फुटबॉल टीम एएस रोमा को लेकर भी सोरोस विवादों में आए। सोरोस ने अपनी मां को आत्महत्या करने में मदद की थी। इस बात का खुलासा उन्होंने ही साल 1994 में किया था।

इस तरह के अपराधियों और भारत विरोधी चीन-पाकिस्तान के षड्यंत्रों में भारतीय राजनीतिक दलों, सामाजिक या स्वयंसेवी संगठनों अथवा मीडिया के कुछ लोगों के शामिल होने की आशंकाएं अधिक गंभीर हैं। उन्हें विदेशी चंगुल से बचाना और आवश्यक कार्रवाई भारत सरकार ही नहीं, जागरूक समाज की भी है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक आईटीवी नेटवर्क, इंडिया न्यूज और दैनिक आज समाज के संपादकीय निदेशक हैं।)

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अब मोबाइल ही सबसे बड़ा साथी, टीवी के ब्रेकिंग न्यूज वाले शोर का दौर खत्म: उपेन्द्र राय

जब टीवी न्यूज अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए जूझ रहा है, ऐसे समय में भारत एक्सप्रेस न्यूज नेटवर्क के चेयरमैन उपेन्द्र राय ने टीवी न्यूज के भविष्य को लेकर सीधी और साफ बात कही।

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Published - Tuesday, 16 December, 2025
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Tuesday, 16 December, 2025
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जब टीवी न्यूज अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए जूझ रहा है, ऐसे समय में भारत एक्सप्रेस न्यूज नेटवर्क के चेयरमैन, मैनेजिंग डायरेक्टर और एडिटर-इन-चीफ उपेन्द्र राय ने टीवी न्यूज के भविष्य को लेकर सीधी और साफ बात कही। उन्होंने यह बातें नई दिल्ली में आयोजित न्यूजनेक्स्ट कॉन्फ्रेंस में कहीं।

टीवी न्यूज के बदलते स्वरूप पर बोलते हुए उपेन्द्र राय ने कहा कि मीडिया में हो रहा बदलाव अकेला नहीं है बल्कि यह पूरी सभ्यता में हो रहे बदलाव का हिस्सा है।

उन्होंने कहा, “करीब 30 से 35 साल में दुनिया पूरी तरह बदल चुकी है।” उन्होंने मीडिया के विकास को मानव सभ्यता के करीब तीन लाख साल के सफर से जोड़ते हुए कहा, “सभ्यता के बाहर न टीवी मीडिया है और न ही कोई और मीडिया। सभ्यता के साथ ही मीडिया आगे बढ़ता है, फलता-फूलता है और विकसित होता है।”

उपेन्द्र राय ने कहा कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) ने लोगों के सोचने, काम करने और उम्मीदों के तरीके को पूरी तरह बदल दिया है। उन्होंने ग्लोबल टेक कंपनियों का उदाहरण देते हुए कहा कि आज ताकत का केंद्र बदल चुका है।

उन्होंने कहा, “अमेरिका में एक कंपनी है एनवीडिया (NVIDIA)। उसकी इकॉनमी सैकड़ों देशों की इकॉनमी से ज्यादा है। उसका मार्केट कैपिटल चार ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा हो चुका है।” उन्होंने यह भी कहा कि आज के ग्लोबल गांव में कोई भी देश या इंडस्ट्री टेक्नोलॉजी से दूर रहकर आगे नहीं बढ़ सकती।

भारत और चीन की तुलना करते हुए उपेन्द्र राय ने कहा कि 1986 में दोनों देशों की अर्थव्यवस्था करीब एक ट्रिलियन डॉलर की थी लेकिन आज दोनों के रास्ते बिल्कुल अलग हैं। उन्होंने सवाल उठाया, “चीन की इकॉनमी बीस ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा हो चुकी है और हमारी इकॉनमी अभी भी पांच ट्रिलियन डॉलर का लक्ष्य देख रही है। ऐसा क्यों हुआ और कैसे हुआ?” 

उन्होंने इसके पीछे भारत की उस सोच को भी जिम्मेदार बताया जिसमें लंबे समय तक धन कमाने को नकारात्मक नजर से देखा गया। उन्होंने कहा, “एक पूरी पीढ़ी को सिखाया गया कि पैसा एक भ्रम है।”

टीवी न्यूज को लेकर उपेन्द्र राय ने कहा कि साल 2000 से 2020 तक टीवी न्यूज का सबसे मजबूत दौर रहा लेकिन पिछले दो सालों में तस्वीर तेजी से बदली है। इसकी सबसे बड़ी वजह है रफ्तार और आसानी से पहुंच। उन्होंने कहा, “टीवी मीडिया चाहे जितना तेज हो, वह सोशल मीडिया से तेज नहीं हो सकता। सोशल मीडिया एक क्लिक की दूरी पर है।” उन्होंने समझाया कि टीवी की पूरी प्रक्रिया तय ढांचे में चलती है, जिस वजह से वह डिजिटल प्लेटफॉर्म के मुकाबले स्वाभाविक रूप से धीमी हो जाती है।

उपेन्द्र राय के मुताबिक इसका सीधा असर बिजनेस पर पड़ा है। उन्होंने कहा, “मार्केट में व्युअरशिप बहुत तेजी से गिर रही है। ऐड रेवेन्यू बहुत तेजी से खत्म हो रहा है।”

उन्होंने साफ कहा, “टीवी का पूरा बिजनेस मॉडल अब सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और डिजिटल मीडिया के हाथ में चला गया है।”

उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि मेनस्ट्रीम मीडिया अपनी जिम्मेदारियों से दूर होता जा रहा है जबकि टेक्नोलॉजी नए मौके भी दे रही है। उपेन्द्र राय ने कहा कि AI की मदद से छोटे स्क्रीन और बड़े स्क्रीन को आसानी से जोड़ा जा सकता है, जिससे दर्शकों को सुविधा मिलती है और कंपनियों को काम करने में आसानी होती है।

उन्होंने कहा, “जो लोग इस दिशा में आगे बढ़ गए हैं, वही मार्केट में टिके रहेंगे। जिन्होंने यह मौका गंवा दिया, वे बाजार से बाहर हो जाएंगे।” उन्होंने यह भी कहा कि AI का बढ़ना अब रुकने वाला नहीं है।

हालांकि AI को लेकर वह लंबे समय में सकारात्मक दिखे, लेकिन उन्होंने इसमें एक करेक्शन फेज आने की बात भी कही, जैसे बाजार में उतार-चढ़ाव आते हैं। उन्होंने अमेरिका के कुछ मामलों का जिक्र किया, जहां लोगों ने AI प्लेटफॉर्म से मेडिकल सलाह ली और बाद में हादसे होने पर परिवारों ने उन पर सवाल उठाए।

उन्होंने गूगल और मेटा जैसी कंपनियों पर चल रहे मुकदमों का भी जिक्र किया, जो डेटा के इस्तेमाल और प्रतिस्पर्धा को लेकर हैं। उन्होंने कहा, “वहां अभी भी AI और पुरानी टेक कंपनियों के बीच बहस चल रही है। यह लड़ाई इसलिए चल रही है क्योंकि बिजनेस चल रहा है।”

बिजनेस को आसान शब्दों में समझाते हुए उपेन्द्र राय ने कहा, “बिजनेस वही है जिसमें आप एक रुपया लगाएं और दो रुपये कमाने की उम्मीद रखें।” इसी पैमाने पर उन्होंने कहा कि टीवी और प्रिंट का पारंपरिक मॉडल अब भारी दबाव में है।

अखबारों को लेकर उन्होंने कहा कि प्रिंट अब भी मौजूद है लेकिन पहले जैसी ताकत के साथ नहीं। उन्होंने कहा कि कोविड के बाद बड़े और पुराने अखबार भी एक तरह से कमोडिटी बन गए हैं और लोग पीडीएफ एडिशन की तरफ बढ़ गए हैं।

उन्होंने कहा, “बड़े अखबारों का सर्कुलेशन लाखों से घटकर हजारों में आ गया है।” उन्होंने यह भी जोड़ा कि सरकार और नीति बनाने वाले लोग भी समझ चुके हैं कि अब स्केल पूरी तरह टेक्नोलॉजी की तरफ जा चुका है।

टीवी न्यूज की सबसे बड़ी चुनौती बताते हुए उपेन्द्र राय ने कहा कि असली समस्या डिमांड की है। उन्होंने कहा, “टीवी चालू करने से पहले ही सारी खबरें मोबाइल पर मिल जाती हैं। ऐप के जरिए आप अपडेट हो जाते हैं। गूगल खुद आपकी स्क्रीन पर खबरें भेज देता है।”

उन्होंने साफ कहा, “टीवी का सिस्टम, बड़ा स्क्रीन और ब्रेकिंग न्यूज का शोर अब खत्म हो चुका है।”

अपने सबसे तीखे बयान में उपेन्द्र राय ने कहा कि अब इंडस्ट्री को गंभीरता से सोचना होगा। उन्होंने कहा, “टीवी कंपनियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अब उन्हें किस बिजनेस में जाना चाहिए।” उन्होंने कहा कि बड़े स्क्रीन की जरूरत बहुत कम हो चुकी है।

पुराने दौर को याद करते हुए, जब टीवी पर सीरियल्स और तय समय पर देखने की आदत हुआ करती थी, उपेन्द्र राय ने कहा कि अब सब कुछ बदल चुका है। उन्होंने कहा, “नए दौर में आपका मोबाइल ही आपका सबसे बड़ा साथी है।”

इसी के साथ उन्होंने यह संकेत दिया कि जिस टीवी न्यूज को दशकों से जाना जाता रहा है, उसका दौर अब खत्म होने की कगार पर है।

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वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षाविद प्रो. के जी सुरेश की इज़राइल यात्रा

हमने न केवल कथा-कौशल पर चर्चा की, बल्कि आज के ध्रुवीकृत विश्व में संचारकों के रूप में हमारी भारी जिम्मेदारियों पर भी। यह एक शक्तिशाली याद दिलाता है कि कथाएं राष्ट्रों को आकार देती हैं।

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Published - Tuesday, 16 December, 2025
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Tuesday, 16 December, 2025
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प्रो. के जी सुरेश , इंडिया हैबिटेट सेंटर के निदेशक और भारतीय जनसंचार संस्थान के पूर्व महानिदेशक।

मैं हाल ही में कला, संस्कृति और फिल्म पर केंद्रित एक प्रतिष्ठित भारतीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में इज़राइल की बहु-शहरी यात्रा से लौटा हूं, जो गहन रूप से समृद्ध करने वाली रही। हमें इज़राइल सरकार के विदेश मंत्रालय द्वारा आमंत्रित किया गया था, और इस यात्रा में इतिहास, कूटनीति, संस्कृति और गहन मानवीय चिंतन का उत्तम मिश्रण था। हमारी यात्रा का मुख्य उद्देश्य दो प्राचीन राष्ट्रों के बीच जन-जन के संबंधों को मजबूत करना था, विशेष रूप से सिनेमा और संस्कृति के क्षेत्र में। इन क्षेत्रों से गहराई से जुड़ी टीम के रूप में, मुझे सहयोग की अपार संभावनाएं दिखीं।

हम में बहुत कुछ समान है। लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता से लेकर दोनों के समक्ष मौजूद सभ्यतागत चुनौतियों तक। यात्रा का एक मुख्य आकर्षण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित जेरूसलम सेशंस में भागीदारी था, जो अंतर-सांस्कृतिक संवाद का असाधारण मंच साबित हुआ। इन सत्रों में विश्व भर के फिल्मकार, विद्वान, पत्रकार और विचारक एकत्र हुए। हमने न केवल कथा-कौशल पर चर्चा की, बल्कि आज के ध्रुवीकृत विश्व में संचारकों के रूप में हमारी भारी जिम्मेदारियों पर भी।

यह एक शक्तिशाली याद दिलाता है कि कथाएं राष्ट्रों को आकार देती हैं—और कभी-कभी उन्हें बचाती भी हैं। मुझे यह जानकर खुशी हुई कि भारतीय प्रतिनिधिमंडल के योगदान की व्यापक सराहना हुई, जिसने मीडिया नैतिकता, सांस्कृतिक कूटनीति और वैश्विक शांति के लिए कथाओं पर चर्चाओं में मूल्यवान गहराई जोड़ी। जेरूसलम के प्राचीन हिस्सों में घूमना मेरे लिए गहन आध्यात्मिक अनुभव था। साथी प्रतिनिधियों के साथ मैं संकरी पत्थर वाली गलियों से गुजरा, जो यहूदियों के लिए सबसे पवित्र प्रार्थना स्थल वेलिंग वॉल की ओर ले जाती हैं।

उन प्राचीन पत्थरों के सामने खड़े होकर, जो सदियों की भक्ति से अंकित हैं, मैं वास्तव में विनम्र महसूस कर रहा था। इतिहास का बोझ और विश्वास की स्थायी शक्ति लगभग स्पर्श योग्य थी। चर्च ऑफ द होली सेपुल्कर में मैंने धार्मिक महत्व की परतदार परतों पर आश्चर्य किया। ऐसा स्थान दुर्लभ है जहां समय स्वयं में मुड़ता प्रतीत होता है, जहां हर विश्वास की अपनी पवित्र कथा है। मेरे लिए ओल्ड सिटी केवल ऐतिहासिक स्थल से अधिक था; इसने भारत की सहस्राब्दियों पुरानी सह-अस्तित्व की परंपरा पर गहन व्यक्तिगत चिंतन को प्रेरित किया।

यात्रा के सबसे भावुक क्षणों में से एक नोवा फेस्टिवल नरसंहार स्थल की यात्रा थी। वहां पहुंचते ही पूरे समूह पर भारी मौन छा गया। इतने सारे युवा जीवन जिस स्थान पर दुखद रूप से समाप्त हो गए, वहां खड़ा होना विनाशकारी था। दुख अभी भी ताजा है, पीड़ा स्पष्ट। स्वाभाविक था कि भारत में पहलगाम आतंकी हमले से आश्चर्यजनक समानताएं खींचीं। बचे लोगों और पीड़ितों के परिवारों से मिलना हृदयविदारक था; उनकी कहानियां मुझे याद दिलाती हैं कि मानवीय पीड़ा सार्वभौमिक है। यह सीमाओं, राजनीति और विचारधाराओं से परे है।

यह यात्रा हम सभी पर स्थायी छाप छोड़ गई है। हाइफा में भारतीय सैनिक स्मारक पर श्रद्धांजलि अर्पित करना मुझे अपार गर्व से भर गया। यह 1918 के हाइफा युद्ध में भारतीय सैनिकों की वीर भूमिका को याद करता है, जो हमारे सैन्य इतिहास का कम ज्ञात लेकिन गौरवशाली अध्याय है। वहां खड़े होकर मैंने जोधपुर, मैसूर और हैदराबाद लांसर्स के भारतीय घुड़सवारों की वीरता के बारे में सोचा, जिन्होंने शहर को ओटोमन नियंत्रण से मुक्त कराया। हमने भव्य बहाई उद्यान का भी दौरा किया, जहां की पूर्ण शांति ने मुझे गहराई से प्रभावित किया।

यह मैंने अनुभव किया सबसे शांतिपूर्ण स्थानों में से एक है, जो तुरंत दिल्ली के हमारे अपने लोटस टेम्पल या बहाई मंदिर की याद दिलाता है। विश्व को आज जिस सामंजस्य के प्रतीक की सख्त जरूरत है। याद वाशेम, होलोकॉस्ट स्मृति केंद्र की यात्रा ने आत्मा को झकझोंर देने वाला मौन पैदा किया। कोई संग्रहालय ने मुझे इतनी गहराई से प्रभावित नहीं किया। उन कमरों में घूमना, फोटोग्राफ्स, डायरियां और बच्चों का स्मारक देखना। आपको जड़ों तक हिला देता है और हमेशा के लिए बदल देता है।

इसने मेरी इस धारणा को मजबूत किया कि हमें भारत में भी इसी पैमाने का स्मारक चाहिए जो आने वाली पीढ़ियों को सदियों से हमारे पूर्वजों पर हुई अत्याचारों आक्रमणों से उपनिवेशवाद और दर्दनाक विभाजन तक के बारे में शिक्षित करे। इस अनुभव ने जिम्मेदार मीडिया, नैतिक कथा-निर्माण और घृणा का सक्रिय मुकाबला करने के महत्व को भी रेखांकित किया।

पूरी यात्रा के दौरान, इज़राइलियों द्वारा भारत के प्रति दिखाया गया स्नेह और गर्मजोशी मुझे अभिभूत कर गई। साधारण नागरिक हमारे क्लासिक गीतों और राज कपूर तथा अमिताभ बच्चन जैसे लोकप्रिय अभिनेताओं से परिचित थे। हम कई इज़राइलियों से मिले जो गोवा, केरल और हमारे देश के अन्य हिस्सों की यात्रा कर चुके थे। भारत के प्रति उनका प्रेम वास्तव में हृदयस्पर्शी था।

बेशक, केक पर चेरी जेरूसलम में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फूड क्यूरेटर डेविड किचका द्वारा निर्देशित स्वादिष्ट पाक यात्रा थी। सपिर कॉलेज की यात्रा ने भी मीडिया और सिनेमा शिक्षा में दोनों राष्ट्रों के बीच सहयोग के आशाजनक अवसर खोले। हमें तेल अवीव में भारतीय दूतावास में भारत के राजदूत महामहिम श्री जे.पी. सिंह और उनकी अद्भुत टीम से मिलने का बड़ा सम्मान मिला, साथ ही इज़राइल के विदेश मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों से भी। पूरी यात्रा पर चिंतन करते हुए मैं कह सकता हूं कि यह केवल कूटनीतिक या सांस्कृतिक जुड़ाव से कहीं अधिक थी।

यह कल्पना से परे मानवीय पीड़ा के क्षणों और साहस तथा सह-अस्तित्व की प्रेरक कहानियों की यात्रा थी। इस अनुभव ने संवाद, सहानुभूति और सत्य की शक्ति में मेरी आस्था को और मजबूत किया है। ऐसे आदान-प्रदान मीडिया, संस्कृति, शिक्षा और जन-जन संबंधों में गहन भारत-इज़राइल सहयोग के नए द्वार खोलते हैं। फिल्मों और सांस्कृतिक प्रदर्शनों के माध्यम से हमें इज़राइल के मित्रवत लोगों को दिखाना चाहिए कि गोवा, मनाली और केरल से परे भारत में बहुत कुछ है। और हां, कथा-निर्माण में हमें इज़राइल से मूल्यवान सबक सीखने हैं।

वे सक्रिय रूप से विश्व भर के पत्रकारों, फिल्मकारों, शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों को आमंत्रित करते हैं ताकि अपनी दृष्टि साझा करें। आतंकवाद के साथी पीड़ित के रूप में हमें भी वैश्विक दर्शकों को अपनी चिंताओं के प्रति संवेदनशील बनाना चाहिए। अपनी पहुंच को केवल कूटनीतिक समुदाय तक सीमित न रखें। और हां, इंडिया हैबिटेट सेंटर में हम जल्द ही अपनी गैलरियों, ऑडिटोरिया, रेस्तरां और खुले स्थानों में इजरायली कला, संस्कृति, फिल्म और पाक अनुभव का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शित करने जा रहे हैं। तब तक शालोम।

( प्रो. के जी सुरेश ने समाचार4मीडिया के साथ अनुभव साझा किए हैं )

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संवैधानिक संस्थाओं पर दबाव बनाने का खेल: अनंत विजय

वोट चोरी का आरोप हो या चुनाव आयोग पर हमला या फिर मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश पर महाभियोग की जुगत, राजनीति का ये खतरनाक खेल लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 15 December, 2025
Last Modified:
Monday, 15 December, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

संसद के शीतकालीन सत्र चुनाव सुधार को लेकर चर्चा हुई। यह चर्चा चुनाव सुधार पर कम मतदाता सूची के विशेष सघन पुनरीक्षण (एसआईआर) पर केंद्रित हो गई। लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर अपने हमले को सदन में भी जारी रखा। वोट चोरी के आरोप दोहराए। अपनी पिछली प्रेस कांफ्रेस में कही गई बातों को दोहराते हुए चुनाव आयुक्त की आलोचना की।

कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने तो एसआईआर कराने के चुनाव आयोग के अधिकार पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया। सत्ता पक्ष के सांसदों ने भी अपनी बात रखी। गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में चर्चा का उत्तर देते हुए विपक्ष के सभी आरोपों को ना केवल खारिज किया बल्कि कांग्रेस को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। इस चर्चा से भ्रम भी दूर हुआ।

कांग्रेसी ईकोसिस्टम निरंतर ये नैरेटिव बनाने का प्रयास कर रही थी कि मोदी सरकार ने चुनाव आयुक्तों की चयन प्रक्रिया में बदलाव किया। समिति से उच्चतम न्यायाल के मुख्य न्यायाधीश को कानून बनाकर बाहर कर दिया। कानून बनाकर चुनाव आयुक्तों को जीवनभर के लिए केस मुकदमे से बचाने के लिए कानूनी कवच दे दिया। तीसरा कानून बनाकर वोटिंग के दौरान के सीसीटीवी फुटेज को 45 दिनों तक ही रखने का नियम बना दिया।

गृह मंत्री अमित शाह ने तीनों आरोपों की धज्जियां उड़ा दीं। 2023 में पहली बार चुनाव आयुक्तों के चयन को एक समिति से कराने का कानून पास हुआ। उसी समय केंद्रीय मंत्री अर्जुन मेघवाल ने बताया था कि मुख्य न्यायाधीश को हटाने की बात गलत है। दरअसल 2023 के पहले प्रधानमंत्री की अनुशंसा पर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति होती थी।

सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद अंतरिम व्यवस्था बनी थी। मुख्य न्यायाधीश को चयन समिति का सदस्य बनाया गया था। सरकार ने जब कानून बनाया तो अंतरिम व्यवस्था समाप्त हो गई। इसको ही कांग्रेसी इकोसिस्टम जोर-शोर से प्रचारित कर रहा था, अर्धसत्य के साथ । मतदान के दौरान की सीसीटीवी फुटेज को सहेजने को लेकर भी भ्रम फैलाया गया था।

चुनाव से संबंधित विवाद पर वाद दायर करने की अवधि ही 45 दिनों तक है तो सीसीटीवी फुटेज को वर्षों तक सहेजने का क्या औचित्य । चुनाव विवाद पर यदि कोई वाद दायर होता है तो कोर्ट के आदेश पर फुटेज को सहेजा जा सकता है। चुनाव आयोग के कर्मचारियों को 1951 के कानून के मुताबिक चुनाव के दौरान किए गए कार्यों के लिए केस मुकदमे से मुक्त रखा गया है। कोई नया नियम नहीं बनाया गया है। लोकसभा में अमित शाह ने स्थिति साफ की लेकिन इकोसिस्म अब भी अर्धसत्य फैलाने में लगा हुआ है।

इस दौरान ही एक और महत्वपूर्ण घटना हुई। तमिलनाडू हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस जी आर स्वामीनाथन पर विपक्षी दलों ने महाभियोग चलाने का मांग पत्र लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिड़ला को सौंपा। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के सांसद अखिलेश यादव, कांग्रेस की सांसद प्रियंका गांधी वाड्रा और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम की सांसद कनिमोई समेत सौ से अधिक सांसदों ने जस्टिस स्वामीनाथन पर महाभियोग के प्रस्ताव पत्र पर हस्ताक्षर किए।

विपक्षी दलों के इन सांसदों ने मद्रास हाईकोर्ट के जस्टिस स्वामीनाथन पर आरोप लगाया है कि वो विष्पक्ष होकर अपने न्यायिक दायित्वों का निर्वहन नहीं कर रहे । उनपर एक वकील का पक्ष लेने का आरोप भी लगाया गया है। विपक्ष को महाभियोग का अधिकार है लेकिन महाभियोग की टाइमिंग को लेकर प्रश्न खड़े हो रहे हैं। दरअसल तमिलनाडु के मदुरै में थिरुपनकुंद्रम पहाड़ियों पर स्थित मंदिर में दीपक जलाने से जुड़ा मामला है। पहाड़ी पर स्थित मंदिर के पास दीपथून में दीप जलाने की मान्यता है।

दीप जलाने को लेकर पास के दरगाह से जुड़े लोगों ने आपत्ति की थी। मामला कोर्ट में गया तो कोर्ट ने दीपस्थान पर दीप जलाने की अनुमति दे दी। इसके विरोध में कुछ लोग हाईकोर्ट पहुंचे। हाईकोर्ट में जस्टिस स्वामीनाथन ने दीप जलाने की अनुमति दी। ये भी आदश दिया गया कि सिर्फ 10 लोग दीप जलाने के समय दीपस्थान पर उपस्थित रहें। हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद पुलिस प्रशासन ने दीप जलाने की अनुमति नहीं दी।

हाईकोर्ट के दीप जलाने के आदेश के विरुद्ध राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई। सुप्रीम कोर्ट में ये मामला लंबित है। लेकिन राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन दीप नहीं जलाने देने पर अड़ी है। सुप्रीम कोर्ट से इस मसले पर कोई फैसला आने के पहले ही तमिलनाडू की डीएमके ने आईएनडीआईए गठबंधन के अपने साथियों के साथ मिलकर लोकसभा अध्यक्ष को दीप जलाने का आदेश देनेवाले जस्टिस स्वामीनाथन के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव दे दिया।

दरअसल मदुरै की पहाडी पर स्थित मंदिर के पास एक दरगाह है। मंदिर दूसरी शताब्दी का बताया जाता है और दरगाह बहुत बाद में बना। दरगाह के बनने के बाद से ही पहाड़ी की जमीन को लेकर विवाद आरंभ हो गया था। 1920 में पहली बार मामला कोर्ट पहुंचा था। मंदिर और दरगाह के बीच को जमीन को लेकर एक प्रकार की सहमति बनी हुई है। 1994 में कार्तिगई दीपक के समय मंदिर में दीप जलाने की मांग की गई क्योंकि पहाड़ी पर दीप जलाने की मान्यता रही है।

1996 में कोर्ट ने पारंपरिक स्थान पर दीपक जलाने की अनुमति दी। 2014 में दीपाथुन पर दीप जलाने पर रोक लग गई और तब से रहकर रहकर ये विवाद उठता रहता है। तमिलनाडू में डीएमके की सरकार है और उनके मंत्रियों का सनातन को लेकर बयान आते रहते हैं । इस कारण सनातन मान्यताओं और परंपराओं पर राज्य सरकार के रुख पर कुछ कहना व्यर्थ है।

इस आलेख का उद्देश्य इस विवाद पर लिखना नहीं है बल्कि चुनाव आयोग और न्यापालिका पर विपक्ष के दबाव को रेखांकित करना है। अनेक अवसरों पर संविधान का गुटका संस्करण लहरानेवाले विपक्ष के नेता और उनकी पार्टी के सांसद देश के संवैधानिक संस्थानों पर अनावश्यक दबाव बनाने की चेष्टा करते हुए नजर आते हैं। उपरोक्त दो मामले इसके सटीक उदाहरण हैं।

चुनाव आयोग और चुनाव आयुक्त को लेकर विपक्षी नेताओं ने कई बार अपमानजनक टिप्पणियां की हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त को तो सरकार में आने पर देख लेने तक की धमकी भी दी गई। कहा गया कि अगर कांग्रेस की सरकार कंद्र में आ गई को उनको छोड़ा नहीं जाएगा। देश में संवैधानिक सस्थाओं को दबाब में लेने की विपक्ष की ये जुगत खतरनाक है और एक गलत परंपरा की नींव डाल रही है। अगर आप चुनाव नहीं जीत पा रहे हैं तो दलों को मंथन करने की आवश्यकता है।

अपनी पार्टी संगठन को कसने की जरूरत है। कार्यकर्ताओं में ऊर्जा का संचार करने वाले कार्यक्रम आरंभ करने की आवश्यकता है। अपनी नाकामी छिपाने के लिए संवैधानिक संस्थाओं को जिम्मेदार ठहराना ना तो संविधान सम्मत है और ना ही राजनीतिक रूप से ठीक है। विपक्षी दलों के नेताओं को इस बारे में विचार करना चाहिए। अगर इसी तरह से संवैधानिक संस्थाओं पर दबाब डाला जाता रहा तो संभव है कि इन संस्थाओं से कोई गलत कदम उठ जाए। ये ना तो विपक्ष के हित में होगा और ना ही लोकतंत्र के हित में।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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SIP करते रहें या निकल जाएं: पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

SIP से पैसा लगाने वाले निवेशकों में भी बेचैनी है ख़ासकर जिन्होंने साल भर पहले पैसे लगाने शुरू किए थे। लार्ज कैप स्कीम में रिटर्न 5% तक है जबकि मिड कैप और स्मॉलकैप में तो निगेटिव रिटर्न है।

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Published - Monday, 15 December, 2025
Last Modified:
Monday, 15 December, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

उदय कोटक, कोटक महिंद्रा बैंक के संस्थापक, ने X पर पोस्ट किया कि विदेशी निवेशक बेच रहे हैं जबकि भारतीय ख़रीद रहे हैं। अभी तक तो लग रहा है कि FII यानी विदेशी निवेशक स्मार्ट हैं। पिछले साल भर शेयर बाज़ार का डॉलर में रिटर्न ज़ीरो रहा है।

उदय कोटक विदेशी निवेशकों को स्मार्ट कह रहे हैं क्योंकि उन्होंने इस साल में अब तक दो लाख करोड़ रुपये ज़्यादा के शेयर बेच दिए हैं जबकि भारतीय निवेशक म्यूचुअल फंड की SIP के ज़रिए अब तक क़रीब तीन लाख करोड़ रुपये लगा चुके हैं।

भारतीय शेयर बाज़ार का रिटर्न 5% तक रहा है लेकिन रुपया गिरने के कारण विदेशी निवेशकों को रिटर्न ज़ीरो या निगेटिव हो गया है। विदेशी निवेशक जब शेयर बेचते हैं तो उन्हें वापस ले जाने के लिए रुपये देकर डॉलर ख़रीदने पड़ते हैं। इस वजह से रिटर्न ज़ीरो हो रहा है।

SIP से पैसा लगाने वाले निवेशकों में भी बेचैनी है ख़ासकर जिन्होंने साल भर पहले पैसे लगाने शुरू किए थे। लार्ज कैप स्कीम में रिटर्न 5% तक है जबकि मिड कैप और स्मॉलकैप में तो निगेटिव रिटर्न है। जिन्होंने दो या तीन साल पहले SIP शुरू किया था वो फिर भी फायदे में हैं।

फिर भी सवाल बना हुआ है कि शेयर बाज़ार में तेज़ी क्यों नहीं आ रही है? सबसे बड़ा कारण है विदेशी निवेशकों की बिकवाली। विदेशी निवेशक को भारतीय शेयर अब भी महंगे लग रहे हैं। Nifty का PE Ratio 22 के आसपास है यानी जिस शेयर को आप ख़रीद रहे हैं उसकी क़ीमत वसूल करने में अभी के मुनाफ़े के हिसाब से 22 साल लग जाएँगे।

विदेशी निवेशक को भारत में रिटर्न कम मिल रहा है जबकि अमेरिकी बाज़ार में 15-20% रिटर्न मिल रहा है। भारत के अलावा बाक़ी Emerging markets में रिटर्न 5 से 10% है। रुपये के गिरने से रिटर्न और कम हो गया है। भारत और अमेरिका की ट्रेड डील फँसी हुई है।

विदेशी निवेशकों को भी इसका इंतज़ार है। मुख्य आर्थिक सलाहकार ने पहले कहा था कि नवंबर तक डील हो सकती है, अब वो मार्च की बात कर रहे हैं। बाज़ार में उतार-चढ़ाव बना रह सकता है। अगर आप SIP कर रहे हैं तो धीरज रखना पड़ेगा। यह लॉन्ग टर्म गेम है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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टीवी, प्रिंट और डिजिटल की लड़ाई नहीं, साथ चलने की जरूरत: आलोक मेहता

एक्सचेंज4मीडिया न्यूजनेक्स्ट समिट 2025 (e4m NewsNext Summit 2025) की शुरुआत शनिवार को हुई। इस मौके पर वरिष्ठ पत्रकार और पद्मश्री से सम्मानित आलोक मेहता का एक भावुक और निजी अनुभवों से भरा सत्र हुआ।

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Published - Monday, 15 December, 2025
Last Modified:
Monday, 15 December, 2025
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एक्सचेंज4मीडिया न्यूजनेक्स्ट समिट 2025 (e4m NewsNext Summit 2025) की शुरुआत शनिवार को हुई। इस मौके पर वरिष्ठ पत्रकार और पद्मश्री से सम्मानित आलोक मेहता का एक भावुक और निजी अनुभवों से भरा सत्र हुआ। उन्होंने भारतीय मीडिया के बदलाव, प्लेटफॉर्म्स के बीच कथित प्रतिस्पर्धा के मिथक और पत्रकारिता में टीवी, प्रिंट और रिश्तों की आज भी बनी हुई अहमियत पर खुलकर बात की।

अपने संबोधन की शुरुआत करते हुए आलोक मेहता ने टीवी के खत्म होने की लगातार चल रही चर्चा पर सीधे जवाब दिया। उन्होंने साफ शब्दों में कहा, 'टीवी जिंदा है। टीवी हमेशा जिंदा रहेगा।' उन्होंने मीडिया इंडस्ट्री से अपील की कि पुराने मीडिया प्लेटफॉर्म्स के लिए जल्दबाजी में शोक संदेश लिखना बंद किया जाए।

उन्होंने अपनी पत्रकारिता की शुरुआत का जिक्र करते हुए बताया कि उनका सफर 1971 में शुरू हुआ था। मेहता ने कहा कि पत्रकारिता में बदलाव कोई नई बात नहीं है। उन्होंने कहा, 'हमने टाइपराइटर से शुरुआत की थी, मैंने टेलीग्राम से काम शुरू किया था, आज वाले टेलीग्राम से नहीं बल्कि तार से।'  उन्होंने यह भी बताया कि उन्होंने एजेंसियों, रेडियो, टेलीविजन, अंतरराष्ट्रीय मीडिया सहयोग और शुरुआती डिजिटल प्रयोगों में काम किया है और हर बदलाव को बहुत करीब से देखा है।

अपने अनुभवों के आधार पर आलोक मेहता ने इस सोच को चुनौती दी कि अलग-अलग प्लेटफॉर्म एक-दूसरे के खिलाफ हैं। उन्होंने कहा, 'हम एक-दूसरे से मुकाबला नहीं कर रहे हैं। हम एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं।' उनके मुताबिक दर्शक अपनी जरूरत के हिसाब से टीवी, डिजिटल और प्रिंट के बीच आते-जाते रहते हैं। कहीं गहराई चाहिए, कहीं विस्तार और कहीं सहूलियत, इसलिए सभी प्लेटफॉर्म का साथ-साथ चलना जरूरी है और यही सच है।

उन्होंने एक्सचेंज4मीडिया के शुरुआती दिनों को भी याद किया। मेहता ने बताया कि जब 'एक्सचेंज4मीडिया' की शुरुआत हुई थी, तब माहौल बहुत छोटा और अनिश्चित था। उन्होंने कहा, 'जब 'एक्सचेंज4मीडिया' शुरू हुआ था तो यह एक छोटा सा गेट-टुगेदर था… तब भी हम पूछते थे कि यह कैसे चलेगा?' उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इंडस्ट्री का इकोसिस्टम धैर्य, भरोसे और लगातार मेहनत से ही मजबूत बनता है।

कुछ बड़े इंटरव्यू और वैश्विक मीडिया घटनाओं का जिक्र करते हुए आलोक मेहता ने सवाल उठाया कि संपादकीय फैसलों को अक्सर आपसी प्रतिस्पर्धा के नजरिये से क्यों देखा जाता है। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के इंटरव्यू का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, 'यदि राष्ट्रपति पुतिन ने इंटरव्यू दिया है तो यह भारतीय मीडिया की अहमियत दिखाता है। इसे गर्व की बात मानना चाहिए, घर की लड़ाई नहीं।' उन्होंने कहा कि संपादकीय फैसले रणनीति और हालात के हिसाब से लिए जाते हैं, किसी के खिलाफ नहीं होते।

न्यूजरूम कल्चर पर बात करते हुए मेहता ने चेतावनी दी कि मालिकाना हक या बाजार की ताकतों से पैदा किए गए टकराव को पत्रकारों को अपने भीतर नहीं बैठाना चाहिए। उन्होंने कहा, 'मैनेजमेंट चाहेगा कि आलोक मेहता और दूसरे लोग आपस में लड़ें। लेकिन जब विज्ञापन दरों की बात आती है तो सारे मालिक एक हो जाते हैं।' उन्होंने पत्रकारों से अपील की कि वे मीडिया के आर्थिक पहलू को समझें लेकिन इसका असर अपने पेशेवर रिश्तों पर न पड़ने दें।

राजनीतिक रूप से संवेदनशील माहौल में रिपोर्टिंग के अपने लंबे अनुभव को साझा करते हुए आलोक मेहता ने कहा कि दुश्मनी से ज्यादा संवाद जरूरी है। उन्होंने कहा, 'जो भी सत्ता में है वह आपका दुश्मन नहीं होता।' उन्होंने कई ऐसे मौके याद किए जब बातचीत, सम्मान और मजबूती के साथ खड़े रहने से उन्होंने धमकियों, राजनीतिक दबाव और टकराव का सामना किया और अपनी पत्रकारिता की सच्चाई से समझौता नहीं किया।

जोखिम को लेकर उन्होंने कहा कि पत्रकारिता में जोखिम हमेशा रहता है, चाहे वह जंग के मैदान में रिपोर्टिंग हो या खोजी पत्रकारिता। लेकिन इसके साथ संस्थागत जिम्मेदारी भी जरूरी है। उन्होंने कहा, 'यदि आप जोखिम लेना चाहते हैं तो आपको सुरक्षा भी मांगनी चाहिए।' उन्होंने संघर्ष क्षेत्रों और संवेदनशील बीट्स पर काम करने वाले पत्रकारों के खतरों को भी स्वीकार किया।

टीवी के भविष्य पर लौटते हुए आलोक मेहता ने लोगों की सोच के बजाय उनके व्यवहार की ओर ध्यान दिलाया। उन्होंने कहा, 'देखिए आज भी कितने टीवी सेट बिक रहे हैं… लोग आज भी टेलीविजन खरीद रहे हैं।' उनके मुताबिक बड़े स्क्रीन, परिवार के साथ बैठकर देखने का अनुभव और भरोसे पर आधारित कंटेंट आज भी टीवी को मजबूत बनाए हुए हैं, भले ही दौर मोबाइल का हो।

अपने भाषण के अंत में आलोक मेहता ने पत्रकारिता की तुलना सर्जरी से की। उन्होंने कहा, 'जो डॉक्टर ऑपरेशन करता है, वह कभी नहीं पूछता कि यह खून किसका है।' उन्होंने कहा कि मीडिया की ताकत भी यही होनी चाहिए कि वह निजी रिश्तों से ऊपर उठकर अपना काम करे। मेहता के मुताबिक आने वाले 50 सालों में पत्रकारिता का भविष्य प्रतिस्पर्धा नहीं बल्कि रिश्तों, मजबूती और जिम्मेदारी पर टिका होगा।

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2025 ने रफ्तार दी, 2026 भरोसे की असली कसौटी बनेगा: शमशेर सिंह

वर्नाकुलर और हाइपर-लोकल पत्रकारिता में भी रिकॉर्ड ग्रोथ देखने को मिली। यह संकेत है कि दर्शक अब बड़ी सुर्खियों से ज़्यादा अपने आसपास की सच्चाइयों में दिलचस्पी ले रहा है।

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Published - Thursday, 11 December, 2025
Last Modified:
Thursday, 11 December, 2025
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शमशेर सिंह, वरिष्ठ पत्रकार।

साल 2025 मीडिया और पत्रकारिता के लिए तेज़ बदलावों, नई तकनीकों और नई आदतों का साल बनकर सामने आया। डिजिटल न्यूज़ कंजम्पशन में लगभग 22 प्रतिशत की बढ़त दर्ज की गई, जिसने साफ कर दिया कि दर्शक अब परंपरागत माध्यमों से आगे निकल चुका है।

मोबाइल फ़र्स्ट रिपोर्टिंग ने न्यूज़ रूम के काम करने के तरीके को पूरी तरह बदल दिया। अब खबरों का निर्माण कैमरों से नहीं, बल्कि हथेली में मौजूद स्मार्टफोन से हो रहा है। वर्नाकुलर और हाइपर-लोकल पत्रकारिता में भी रिकॉर्ड ग्रोथ देखने को मिली। यह संकेत है कि दर्शक अब बड़ी सुर्खियों से ज़्यादा अपने आसपास की सच्चाइयों में दिलचस्पी ले रहा है।

गांव, कस्बे, शहर और मोहल्ले की खबरें अब राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बन रही हैं। न्यूज़ की स्पीड पहले से कहीं ज़्यादा तेज़ हो गई है और प्लेटफ़ॉर्म भी लगातार बदल रहे हैं। लेकिन 2025 सिर्फ़ विकास का साल नहीं था, इसने आने वाले खतरे की चेतावनी भी दी।

फेक न्यूज़ में लगभग 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी, एआई-निर्मित कंटेंट का दुरुपयोग, डीपफेक वीडियो और सोशल मीडिया का दबाव, इन सबने पत्रकारिता की साख को गहरी चुनौती दी। कई मौकों पर वायरल होने की होड़ में तथ्य पीछे छूटते दिखे, और भरोसा कमजोर पड़ा।

अब नज़र 2026 पर है। यह साल 'डिजिटल + डेटा + एआई' का साल होगा। पत्रकारिता और ज़्यादा डिजिटल-फ़र्स्ट, वीडियो-हेवी और एआई-ड्रिवन होती जाएगी। एआई टूल्स काम की रफ्तार को कई गुना बढ़ा देंगे, लेकिन साथ ही गलत सूचना का खतरा भी उतना ही बढ़ जाएगा।

2026 में पत्रकारिता का असली इम्तिहान यही होगा। तेज़ भी रहना है, और सही भी। स्पीड और फैक्ट्स के बीच संतुलन सबसे बड़ी चुनौती बनेगा। 2025 ने रास्ता दिखाया था, 2026 यह तय करेगा कि मीडिया तकनीक को अपनाते हुए जनता का भरोसा बनाए रख पाता है या नहीं। आने वाला साल सिर्फ़ तकनीकी बदलाव का नहीं, पत्रकारिता की विश्वसनीयता की अग्निपरीक्षा का साल होगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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शिक्षा, उद्यमिता, जागरूकता के वाहक हैं डिजिटल माध्यम: प्रो. संजय द्विवेदी

कंटेंट का लक्ष्य केवल वायरल होना नहीं, बल्कि मूल्यवान होना भी है। लोकप्रियता से अधिक जरूरी यह है कि सामग्री समाज को बेहतर बनाए, नागरिक विवेक को विकसित करें।

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Published - Thursday, 11 December, 2025
Last Modified:
Thursday, 11 December, 2025
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प्रो. संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष।

इन दिनों सोशल मीडिया सिर्फ मनोरंजन या समय बिताने का साधन नहीं रह गया है। सही मायनों में यह शक्तिशाली डिजिटल आंदोलन है, जिसने आम लोगों को अभिव्यक्ति का मंच दिया है। छोटे गाँवों और कस्बों के युवा भी वैश्विक दर्शकों तक पहुँच रहे हैं। एक साधारण-सा मोबाइल फोन अब दुनिया से संवाद का प्रभावशाली माध्यम है। इस परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स केवल तकनीकी क्रिएटर नहीं हैं, बल्कि वे डिजिटल युग के नेता, कथाकार और समाज के प्रेरक बन गए हैं। उनकी एक पोस्ट सोच बदल सकती है, एक वीडियो नया रुझान बना सकता है और एक अभियान समाज के भीतर सकारात्मक परिवर्तन की प्रक्रिया को प्रारंभ कर सकता है।

यह दुधारी तलवार है, अचानक हम प्रसिद्धि के शिखर पर होते हैं और एक दिन हमारी एक लापरवाही हमें जमीन पर गिरा देती है। हमारा सब कुछ नष्ट हो जाता है। इसलिए इस राह के खतरे भी क्रिएटर्स से समझने होंगे। सोशल मीडिया की बढ़ी शक्ति के कारण आज हर व्यक्ति यहां दिखना चाहता है। बावजूद इसके हर शक्ति के साथ बड़ी जिम्मेदारी भी जुड़ जाती है। करोड़ों लोगों तक पहुँचने वाला प्रत्येक शब्द, प्रत्येक विचार और प्रत्येक दृश्य अपने आप में एक संदेश है। इसलिए यह आवश्यक है कि ट्रोलिंग, फेक न्यूज़ और नकारात्मकता के शोर के बीच सच, संवेदनशीलता और सकारात्मकता की आवाज़ बुलंद हो।

कंटेंट का लक्ष्य केवल वायरल होना नहीं, बल्कि मूल्यवान होना भी है। लोकप्रियता से अधिक जरूरी यह है कि सामग्री समाज को बेहतर बनाए, नागरिक विवेक को विकसित करे और संवाद की संस्कृति को मजबूत करे। पारंपरिक मीडिया की बंधी-बंधाई और एकरस शैली से अलग हटकर जब भारतीय नागरिक इस पर विचरण करने लगे तो लगा कि रचनात्मकता और सृजनात्मकता का यहां विस्फोट हो रहा है। दृश्य, विचार, कमेंट्स और निजी सृजनात्मकता के अनुभव जब यहां तैरने शुरू हुए तो लोकतंत्र के पहरुओं और सरकारों का भी इसका अहसास हुआ।

आज वे सब भी अपनी सामाजिकता के विस्तार के लिए सोशल मीडिया पर आ चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं भी कहा कि “सोशल मीडिया नहीं होता तो हिंदुस्तान की क्रियेटिविटी का पता ही नहीं चलता।” सोशल मीडिया अपने स्वभाव में ही बेहद लोकतांत्रिक है। जाति, धर्म, भाषा, लिंग और रंग की सीमाएं तोड़कर इसने न सिर्फ पारंपरिक मीडिया को चुनौती दी है वरन् यह सही मायने में आम आदमी का माध्यम बन गया है। इसने संवाद को निंरतर, समय से पार और लगातार बना दिया है। इसने न सिर्फ आपकी निजता को स्थापित किया है, वरन एकांत को भी भर दिया है।

यह देखना सुखद है कि युवा क्रिएटर्स महानगरों से आगे निकलकर आंचलिक भाषाओं, ग्रामीण कथाओं और लोक संस्कृति को विश्व के सामने ला रहे हैं। यह भारत की जीवंत आत्मा है, जो अब डिजिटल माध्यमों के द्वारा वैश्विक स्तर पर स्वयं को व्यक्त कर रही है। डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया और वोकल फॉर लोकल जैसी योजनाओं की सफलता काफी हद तक इसी पर निर्भर करती है कि सोशल मीडिया की यह नई पीढ़ी इन्हें किस सहजता और स्पष्टता के साथ आम जनता तक पहुँचाती है। सोशल मीडिया अब शिक्षा, उद्यमिता, जागरूकता और सशक्तिकरण का महत्वपूर्ण माध्यम बन गया है।

ब्रांड्स आपकी प्रतिभा का उपयोग कर रहे हैं, लेकिन समय की मांग यह है कि आप स्वयं भी एक जिम्मेदार और विश्वसनीय ब्रांड के रूप में विकसित हों। सरकार और समाज के बीच भी सोशल मीडिया सेतु का काम रहा है क्योंकि संवाद यहां निरंतर है और एकतरफा भी नहीं है। सरकार के सभी अंग इसीलिए अब सोशल प्लेटफार्म पर हैं और अपने तमाम कामों में क्रिएटर्स की मदद भी ले रहे हैं। सोशल मीडिया एक साधन है, परंतु गलत दिशा में प्रवाहित होने पर यह एक खतरनाक हथियार भी बन सकता है। यह मनोरंजन का माध्यम है, पर समाज-निर्माण का आयाम भी इसके भीतर निहित है।

यह दोहरा स्वरूप अवसर भी प्रदान करता है और चुनौती भी। सोशल मीडिया उचित दृष्टिकोण के साथ उपयोग हो तो वह ‘ग्लोबल वॉयस फॉर लोकल इशूज़’ बन सकता है। कंटेंट क्रिएटर्स की शक्ति यदि ज्ञान और जिम्मेदारी से न जुड़ी हो, तो वह समाज के लिए खतरनाक हो सकती है। सामाजिक सोच के साथ किए गए प्रयासों से सोशल मीडिया केवल एक पेशा नहीं, बल्कि एक सामाजिक मिशन का माध्यम भी हो सकता है। हमें सोचना होगा कि आखिर हमारे कंटेंट का उद्देश्य क्या है। क्या सिर्फ आनंद और लाइक्स के लिए हम समझौते करते रहेंगें।

सोशल मीडिया की चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। फेक न्यूज़, तथ्यहीन दावे और सनसनीखेज प्रस्तुति विश्वसनीयता के संकट को जन्म दे रहे हैं। एल्गोरिद्म की मजबूरी क्रिएटर्स को रचनात्मकता से दूर ले जाकर केवल ट्रेंड के पीछे भागने के लिए विवश कर रही है। लाइक्स, फॉलोअर्स और व्यूज़ की अनवरत दौड़ मानसिक तनाव और आत्मसम्मान के संकट को बढ़ा रही है।

ध्रुवीकरण और ट्रोल संस्कृति समाज के ताने-बाने को कमजोर कर रही है। इन परिस्थितियों में क्रिएटर्स के सामने तीन मार्ग हैं, ट्रेंड का अनुकरण करने वाला कंटेंट क्रिएटर, नए ट्रेंड स्थापित करने वाला कंटेंट लीडर या समाज को दिशा देने वाला कंटेंट रिफॉर्मर।

जिम्मेदार क्रिएटर की पहचान सत्य, संवेदना और सामाजिक हित से होती है। विश्वसनीय जानकारी देना, सकारात्मक संवाद स्थापित करना, आंचलिक भाषाओं और स्थानीय मुद्दों को महत्व देना, जनता की समस्याओं को स्वर देना और स्वस्थ हास्य तथा मानवीय संवेदनाओं को बनाए रखना आज की डिजिटल नैतिकता के प्रमुख तत्व हैं। वर्तमान समय में सोशल मीडिया पर दो तरह के लोग सक्रिय दिखाई देते हैं, एक वे जो समाज को बाँटते हैं और दूसरे वे जो समाज को जोड़ते हैं। विश्वास है कि नई पीढ़ी जोड़ने वालों की भूमिका निभाएगी।

आपके पास केवल कैमरा या रिंग लाइट नहीं है; आपके पास समाज को रोशन करने की रोशनी है। आप वह पीढ़ी हैं जो बिना न्यूज़रूम के पत्रकार, बिना स्टूडियो के कलाकार और बिना मंच के विचारक हैं। जाहिर है तोड़ने वाले बहुत हैं अब कुछ ऐसे लोग चाहिए जो देश और दिलों को जोड़ने का काम करें। आपमें परिवर्तन की शक्ति है। यदि आप सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ अपनी भूमिका निभाएँ, तो डिजिटल परिदृश्य को अधिक संवेदनशील, अधिक सकारात्मक और अधिक प्रेरणादायक बना सकते हैं।

महाभारत का संदेश यहाँ स्मरणीय है, युधिष्ठिर सत्यवादी थे, पर कृष्ण सत्यनिष्ठ थे। सत्य कहना ही पर्याप्त नहीं है; सत्य के प्रति निष्ठा और समाज के हित में समर्पण ही असली धर्म है। सोशल मीडिया की दुनिया में यही दृष्टि हमें प्रभावशाली और विश्वसनीय बनाएगी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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वंदे मातरम् इस्लाम विरोधी नहीं है: समीर चौगांवकर

वंदे मातरम् को पहली बार 1896 में रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने कलकत्ता (अब कोलकाता) के कांग्रेस अधिवेशन में गाया था। उसकी अध्यक्षता अंजुमन ए इस्लाम के अध्यक्ष रहमतुल्लाह सयानी ने की थी।

Samachar4media Bureau by
Published - Tuesday, 09 December, 2025
Last Modified:
Tuesday, 09 December, 2025
vandematram

समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

वंदे मातरम् हर कसौटी पर सौ टंच खरा उतरता है। वंदे मातरम् के पहले दो पद तो ऐसे है कि जिन्हें भारत ही नहीं दुनिया का कोई भी राष्ट्र अपना राष्ट्रगीत घोषित कर सकता है। इस अर्थ में वंदे मातरम् विश्व गीत हैं। वंदे मातरम् में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मुसलमान विरोधी या इस्लाम विरोधी कहा जाए।

वंदे मातरम् को हिंदू धर्म से सिर्फ इसलिए जोड़ दिया गया क्योकि बंकिमचंद चटर्जी ने अपने उपन्यास आनंद मठ में उसे सन्यासियों से गवाया है और गाने वाले संन्यासी हिंदू थे। वंदे मातरम् बंकिमचंद्र ने 1875 में लिखा। यह “बंग दर्शन” पत्रिका में पहले छपा बाद में 1882 में आनंद मठ में इस गीत का जिक्र हुआ है।

इस गीत को बंगाल के हिंदू और मुसलमान मिलकर गाते थे। यह गीत स्वतंत्रता आंदोलन में पूरे देश का प्रेरणा बना। वंदे मातरम् को पहली बार 1896 में रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने कलकत्ता (अब कोलकाता) के कांग्रेस अधिवेशन में गाया था। उसकी अध्यक्षता अंजुमन ए इस्लाम के अध्यक्ष रहमतुल्लाह सयानी ने की थी।

कांग्रेस के मुसलमान नेता और कार्यकर्ता वंदे मातरम् गाते रहे। इस गीत का विरोध 1906 में मुस्लिम लीग बनने के बाद मुस्लिम लीग ने शुरू किया और मुस्लिम लीग के भड़काने पर मुसलमानों नें। जिन्ना ने भी तब विरोध किया जब मुस्लिम लीग में शामिल हो गए और पाकिस्तान दिखने लगा।

मद्रास विधानसभा में वंदे मातरम् के साथ साथ कुरान की आयते पढ़ी जाने लगी। इस धर्मनिरपेक्ष गीत को धार्मिक गीत में तब्दील कर दिया गया। मुस्लिम लीग को राजनीति करनी थी। इस्लाम से कुछ लेना देना नहीं था। मुसलमानों को हिंदुओं से अलग करना था, सो वंदे मातरम् को आगे कर किया गया।

मुस्लिम लीग के मुसलमानों को मातृभूमि नहीं मात्र भूमि चाहिए थी और वह पाकिस्तान के रूप में मिली। पाकिस्तान गए मुसलमानों के पास कोई मातृभूमि नहीं थी इस कारण पाकिस्तान के राष्ट्रगान में मातृभूमि का जिक्र नहीं है। अल्लामा इकबाल ने लिखा है ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा‘।

ताज बीबी ने कन्हैया के घुंघराले बालों की तुलना अल्लाह के लाम से की है। रसखान ने कन्हैया के कुंजन पर चाँदी के महल वार दिए। मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत की रचना की। नजीर बनारसी ने गंगा को अपनी मैया कह दिया तो क्या वे काफिर हो गए? बिस्मिल्लाह खान बाबा विश्वनाथ के मंदिर में बैठकर राग भैरव बजाते थे तो क्या वे हिंदू हो गए?

उनके जैसे अच्छे और सच्चे मुसलमान बनने में क्या दिक्कत है? भारत में मुसलमानों को जितना मुसलमान रहना है, उतना ही भारतीय भी रहना है। इस लक्ष्य की पूर्ति में वंदे मातरम् कही आडे नहीं आता। अच्छा मुसलमान बनने का मतलब मतांध मुसलमान बनना नहीं है। खुल कर और सबसे साथ मिलकर बोलिए ,वंदे मातरम्।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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जवाहरलाल नेहरू का बाबर प्रेम: अनंत विजय

जवाहरलाल नेहरू ने बाबरी मस्जिद का प्रश्न भी उठाया था लेकिन सरदार पटेल ने साफ कर दिया था कि सरकार एक भी पैसा किसी मस्जिद को बनवाने पर खर्च नहीं करेगी।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 08 December, 2025
Last Modified:
Monday, 08 December, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के पिछले दिनों दिए एक बयान पर विवाद हो गया। रक्षा मंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि, सरदार वल्लभ भाई पटेल उदार व्यक्ति थे। वे सच्चे अर्थों में सेकुलर थे, पंथनिरपेक्ष थे। वे तुष्टीकरण में विश्वास नहीं करते थे। जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर सरकारी खजाने के पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाने की बात कही थी तो उसका भी विरोध अगर किसी ने किया था तो वो गुजराती मां की कोख से पैदा हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया था।

उस समय उन्होंने सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद नहीं बनने दी। इसपर नेहरू जी ने सोमनाथ मंदि के पुनर्निमाण का सवाल उठाया तो बहुत ही शांत लेकिन दृढ़ स्वर में सरदार पटेल ने स्पष्ट किया कि सोमनाथ मंदिर का मामला अलग है, वहां 30 लाख रुपए जनता ने दान दिए हैं और एक ट्रस्ट बनाया गया है। इस काम में सरकार का एक कौड़ी भी खर्च नहीं हुआ है।

राजनाथ सिंह ने आगे कहा कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण में ऐसा ही हुआ। अयोध्या में भी जनता के पैसे से ही श्रीराममंदिर का निर्माण हुआ। यही पंथ निरपेक्षता की सच्ची परिभाषा है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के इस बयान के बाद आनन-फानन में कांग्रेस के नेता ने इसे झूठ करार दिया और कहा कि इन बातों का कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं है।

कांग्रेस के नेता माणिकराम टैगोर ने एक्स पर लिखा कि राजनाथ जी का बयान इतिहास नहीं बल्कि राजनीति है और ये वर्तमान को बांटने के लिए भूतकाल का पुनर्लेखन है। कांग्रेस के अन्य नेताओं ने भी राजनाथ सिंह के इस बयान पर कठोर प्रतिक्रिया दी। जो लोग रक्षा मंत्री के बयान का आधार और दस्तावेजी सबूत मांग रहे थे उनको भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल की पुस्तक पढ़ने की सलाह दी। वैसे भी ये समझा जाना चाहिए था कि राजनाथ सिंह सार्वजनिक जीवन में कोई हल्की बात नहीं करते हैं।

ये पूरा प्रसंग मणिबेन पटेल की पुस्तक ‘इनसाइड स्टोरी आफ सरदार पटेल’ में पृष्ठ संख्या चौबीस पर है। वो लिखती हैं कि नेहरू ने बाबरी मस्जिद का प्रश्न भी उठाया था लेकिन सरदार पटेल ने साफ कर दिया था कि सरकार एक भी पैसा किसी मस्जिद को बनवाने पर खर्च नहीं करेगी। उन्होंने नेहरू को स्पष्ट किया था कि सोमनाथ मंदिर के पुनर्निमाण का मसला अलग है।

वहां एक ट्रस्ट बनाया गया था और उस ट्रस्ट ने जनता से तीस लाख रुपए जमा किए थे। सरदार पटेल ने नेहरू को बताया कि इस ट्रस्ट के चेयरमैन जामसाहब हैं और मुंशी इसके सदस्य हैं। इसमें सरकार का कोई पैसा नहीं दिया गया है जो मंदिर निर्माण के लिए खर्च किया जाए। इतना सुनकर नेहरू चुप हो गए थे। सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल की पुस्तक के अनुसार ये पूरा प्रसंग 20 सितंबबर 1950 को घटित हुआ था। इस प्रसंग को पढ़ते हुए यही लगता है कि नेहरू और पटेल के बीच बाबरी मस्जिद पुनर्निमाण पर बा हुई थी जिसमें नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के फिर से बनाए जाने का उदाहरण दिया था।

जो कांग्रेस के नेता या समर्थक राजनाथ सिंह के बयान के बारे में प्रमाण मांग रहे हैं उनके लिए मणिबेन की पुस्तक उपयोगी हो सकती है। पुस्तक में उल्लिखित उपरोक्त प्रसंग से स्पष्ट है कि नेहरू जी सरकारी धन से बाबरी मस्जिद बनवाना चाहते थे जिसको सरदार पटेल ने रुकवा दिया था। दरअसल बाबर को लेकर नेहरू के मन में आदर का भाव हमेशा से था।

उनके हिसाब से वो पुनर्जागरण के दूत जैसे थे। नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी आफ इंडिया (शताब्दी संस्करण, आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 1989) में लिखा है कि बाबर एक आकर्षक व्यक्ति था, पुनर्जागरण का साहसी और दबंग राजकुमार जिसकी कला और साहित्य में रुचि थी और शानदार जीवन जीना चाहता था। यहां यह प्रश्न तो उठता ही है कि बाबर ने भारत में किस तरह से पुनर्जागरण किया जिसके कारण नेहरू को उनमें पुनर्जागरण के राजकुमार की छवि दिखाई देती थी। इस पूरी पुस्तक में नेहरू ने बहुधा बाबर को आदर के साथ याद किया है।

बाबर ही क्यों नेहरू मुगल राजवंश के अनेक शासकों के प्रति उदार दिखाई पड़ते हैं। अकबर को तो वो बाबर से अधिक आकर्षक और साहसी बताते हैं। मुगलों के भारतीयकरण के वामपंथी इतिहासकारों के प्रयास को गति देते भी दिखते हैं। इसलिए अगर डिस्कवरी आफ इंडिया में बाबर के प्रति नेहरू के व्यक्त आदर को मणिबेन पटेल की पुस्तक में वर्णित प्रसंग से जोड़कर देखा जाए तो किसी प्रकार की शंका शेष नहीं बचती है कि बाबर के नाम से बनी मस्जिद को वो सरकारी पैसे से बनवाना चाहते थे।

नेहरू सत्ता में बने रहने के लिए कोई भी उपक्रम करने को तैयार रहते थे। जो ये कहते हैं कि नेहरू के समय में सरकार के समर्थन से धार्मिक कार्य नहीं किए जा सकते थे उनको भी इतिहास की पुस्तकों में वर्णित और दबा दिए गए तथ्यों को देखना चाहिए। एक पुस्तक है ‘आफ्टरमाथ आफ पार्टिशन इन साउथ एशिया’। उसमें 14 अगस्त 1947 का एक प्रसंग है जब शाम को डा राजेन्द्र प्रसाद के दिल्ली के घर पर पूजा और हवन का आयोजन किया गया।

हवन के लिए पुरोहितों को बुलाया गया था। भारत की नदियों का पवित्र जल मंगवाया गया था। राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू हवन कुंड के सामने बैठे थे। उपस्थित महिलाओं ने दोनों के माथे पर चंदन का तिलक लगाया। नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद ने हवन पूजन किया। पूजा और हवन के पहले नेहरू ने कहा था कि उनको ये सब पसंद नहीं है। तब उनके कई मित्रों ने समझाया कि सत्ता प्राप्त करने का हिंदू तरीका यही है। उसके फौरन बाद नेहरू तैयार हो गए। नेहरू के बाद तुष्टीकरण की ये नीति कांग्रेस की नीति बन गई। दिरा से लेकर राजीव गांधी और मनमोन सिंह तक सभी इसी पर चलते रहे।

प्रणब मुखर्जी ने सक्रियय राजनीति से अलग होने के बाद तीन पुस्तकें लिखीं जो उनके अनुभवों पर आधारित है। अपनी तीसरी पुस्तक द कोएलीशन इयर्स में उन्होंने कांची के शंकराचार्य की गिरफ्तारी के प्रसंग पर कैबिनेट की चर्चा का वर्णन किया है। लिखा कि ‘कैबिनेट की बैठक में शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती की गिरफ्तारी की टाइमिंग पर सवाल उठाते हुए मैं गुस्सा हो गया और पूछा कि इस देश में धर्मनिरपेक्षता सिर्फ हिंदुओं के लिए ही है, किसी की हिम्मत है कि वो ईद के समय किसी मुस्लिम धर्मगुरू को गिरफ्तार कर ले?

ये वो समय था जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और प्रणब मुखर्जी उनके कैबिनेट के सदस्य थे। सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाने की कोशिश और सोमनाथ मंदिर के भव्य स्वरूप को बनाने को लेकर हिचक। जनता से पैसे से सोमनाथ मंदिर जब बनकर तैयार हुआ तो राष्ट्रपति को वहां जाने से रोकने का प्रयास नेहरू ने किया। नेहरू की नीतियों पर चलनेवाली कांग्रेस ने अयोध्या में प्रभु श्रीराम के नव्य और भव्य मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह का आमंत्रण यूं ही नहीं ठुकराया।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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Gemini या ChatGPT कौन बेहतर? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

कौन सा AI मॉडल बेहतर है? इस समझने के लिए एक परीक्षा होती है। इसका नाम है Humanities Last Exam, हर बड़े विषय के एक्सपर्ट इसका पेपर बनाते हैं।

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Published - Monday, 08 December, 2025
Last Modified:
Monday, 08 December, 2025
milind khandekar..

मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

ChatGPT को आए 30 नवंबर को तीन साल हो गए। यह पहला Generative AI App था। इसके बाद से AI का चलन बहुत तेज़ी से बढ़ा है। तीन साल पूरे होने पर ChatGPT बनाने वाली कंपनी Open AI ने जश्न मनाने के बजाय अपने लिए ख़तरे की घंटी बजाई है।

Open AI के संस्थापक सैम अल्टमैन ने कोड रेड जारी किया है। अपने स्टाफ़ से कहा कि सारे नए काम बंद कर ChatGPT पर ध्यान दें क्योंकि Google Gemini और Claude जैसे एप अब उसे टक्कर दे रहे हैं। आज हिसाब किताब करेंगे कि ChatGPT और Google Gemini में बेहतर कौन है।

कौन सा AI मॉडल बेहतर है। इसके लिए एक परीक्षा होती है। इसका नाम है Humanities Last Exam। हर बड़े विषय के एक्सपर्ट इसका पेपर बनाते हैं। ढाई से तीन हज़ार सवाल होते हैं। इस परीक्षा में Gemini का स्कोर 37% रहा है जबकि ChatGPT का 31%। यानी Gemini आगे निकल गया है।

पर परीक्षा से आपको क्या मतलब है। आपको तो रोज़ाना के कामों में इसे इस्तेमाल करना है। अगर एक लाइन में कहा जाए तो Gemini साइंस का अच्छा स्टूडेंट है जबकि ChatGPT लिबरल आर्ट्स का। Gemini आँकड़ों से खेल सकता है जबकि ChatGPT शब्दों से। इसका मतलब यह नहीं है कि ChatGPT गणित में कमजोर है या Gemini भाषा में।

जो तीन काम आपके लिए ChatGPT अच्छा कर सकता है वह है लिखना। ई-मेल, लेख। दूसरा काम है समझाना। किसी अच्छे टीचर की तरह यह मुश्किल विषय आसान भाषा में समझा सकता है। तीसरा काम है सलाहकार का। जैसे करियर को लेकर CV बनाने या इंटरव्यू की तैयारी को लेकर यह आपकी मदद कर सकता है।

अब बात करते हैं Gemini के तीन कामों के बारे में। यह आपको फ़ाइनेंस, बिज़नेस और इन्वेस्टमेंट जैसे विषयों में फ़ैसले में मदद कर सकता है। Google का रियल टाइम डेटा इसे बेहतर बनाता है। दूसरा काम है रिपोर्ट पढ़ने का।

यह Multi Modal है यानी अलग-अलग इनपुट जैसे फ़ोटो, वीडियो, ऑडियो, टेक्स्ट को एक साथ समझने की क्षमता रखता है। सारी बातें लिखकर बताना ज़रूरी नहीं है। तीसरा काम जो यह बेहतर कर सकता है वह है ट्रैवल एजेंट का। आपके Gmail, कैलेंडर का उसे पता है। Google Flights से उसके पास रियल टाइम डेटा है जो आपको बुकिंग में मदद करेगा। सिर्फ पेमेंट आपको करना है।

फ़ैसला आपका है कि किसे चुनना है। दोनों की खूबियाँ आपको बता दी गई हैं। मेरी सलाह है कि यूज़ करना शुरू कीजिए। यह ध्यान रखना होगा कि AI गलती कर सकता है। उसे सब पता नहीं है। परीक्षा में उसका स्कोर पासिंग परसेंट पर ही है फ़िलहाल।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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