कुंवर सीपी सिंह
टीवी पत्रकार ।।
हानि लाभ के पलड़ों में, तुलता जीवन व्यापार
हो गया!
मोल लगा बिकने वालों का, बिना बिका बेकार हो
गया!
मुझे हाट में छोड़ अकेला, एक एक कर मीत चला
जीवन बीत चला...
लोग चले जाते हैं बस उनकी यादें उनकी बातें रह जाती हैं। दर्द के हर
आईने में उसका ही अक्श दिखाई देता है। रह-रह के मन उसी को पुकारता है। कर जाता है
जो सब को तनहा पीछे रह जाती हैं तो बस उसके साथ गुजारी घड़ियां।
लोग चले जाते हैं बस उनकी यादें उनकी बातें रह जाती है। एक एक रिश्ता
तड़पता है उसके लिए वो जो एक रिश्ता छोड़कर चला जाता है। कहीं कल तक जिस घर में
उसकी आवाज उसकी हंसी गूंजती थी, वहां उसके जाने के बाद रह जाती हैं तो बस खामोशी रह जाती हैं। लोग चले
जाते हैं बस उनकी यादें उनकी बातें रह जाती हैं।
मुद्दते बीत जाएं भले ही मगर उनकी कमी हर समय खलती है, होठों पे जो आ जाती है
हंसी तो उनकी याद भी साथ आ जाती है। राजनीति के अखाड़े़
में अपनी प्रखर बौद्धिक क्षमता की बदौलत 50 साल तक
निरंतर अजेय रहने वाले अटल जी, एक दार्शनिक राजनीतिज्ञ अटल
बिहारी वाजपेयी जीवन के 93 वे वसंत पूरा कर
आखिरकार जिंदगी की जंग हार गए।
जी हां, आज हमारे बीच से हिन्दुस्तान की सियासत का एक अजातशत्रु हमेशा हमेशा के
लिए चला गया, जो अपने सिद्धांतों को लेकर हमेशा अटल रहे।
टूटे हुए सपनों की सुने कौन सिसकी,
अंतर को सुन व्यथा पलकों पर ठिठकी,
हार नहीं मानूंगा,
रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूं,
गीत नया गाता हूं।
किसी कविता के प्रवाह का
उदाहरण हैं अटल बिहारी वाजपेयी। हिन्दुस्तानी
सियासत पर एक कभी न मिटने वाला दस्तखत। तो आज की राजनीति के उतार-चढ़ाव के बीच एक
ठहराव भी। हिन्दुस्तान की सियासत के कई दशकों का इतिहास इस चेहरे में सिमटा हुआ
था। ज़ुबां के उस्ताद और भारत की राजनीति में एक कविता थे- अटल बिहारी वाजपेयी।
अटल बिहारी वाजपेयी यूं तो भारतीय राजनीतिक के पटल पर एक ऐसे नाम थे,
जिन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से न केवल व्यापक सम्मान हासिल किया बल्कि
तमाम बाधाओं को पार करते हुए 90 के दशक में भाजपा को स्थापित करने में भी अहम भूमिका निभाई। यह वाजपेयी के
व्यक्तित्व का ही कमाल था कि भाजपा के साथ उस समय नए सहयोगी दल जुड़ते गए, वहीं भारत की राष्ट्र भाषा हिंदी का अपना अलग ही महत्व और इतिहास है। अगर
किसी ने हिंदी को प्रचारित और प्रसारित करने और इसके प्रति दुनिया का ध्यान
आकर्षित करने का लिए सबसे ज्यादा काम किया है वो थे। देश के पूर्व प्रधानमंत्री और
भाजपा के कद्दावर नेता अटल बिहारी वाजपेयी। जब वे बोलते थे सारा जमाना दम साधकर
उन्हें सुनता था। उनकी चुटकियों पर हर कोई लाजवाब हो जाता था।
सियासत की काली कोठरी में पांच दशक बिताने के बाद भी उनके दामन पर कभी
एक दाग तक नहीं लगा। जिन्होंने कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। राजनीति
के अखाड़े के महायोध्दा लेकिन दिल से एक भावुक कवि। जिनकी रग-रग में बसती थी
बड़प्पन की खुश्बू।अटल बिहारी वाजपेयी सबसे जुदा किरदार सबसे जुदा अंदाज। सत्ता के
कमोवेश छह साल और सियासत के करीब पांच दशक। विपक्ष में रहे तो सत्ता पक्ष ने आदर
किया। और जब सत्ता में रहे तो विपक्ष ने पूरा सम्मान दिया। दलगत राजनीति से ऊपर
रही थी उनकी शख्सियत। जहां उनकी पार्टी के धुर विरोधियों ने भी उनके आगे सिर
झुकाया।
पक्ष हो या विपक्ष अटल जी ने सत्ता की नहीं हमेशा सिद्धांतों की
राजनीति की। जोड़-तोड़ की राजनीति उनकी फितरत में नहीं थी। राजनीतिक फायदे से
ज्यादा उन्हें देश की चिंता सताती थी। भारतीय राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी की
जो जगह थी। वहां तक पहुंचना किसी के लिए भी आज बस ख्वाब भर हो सकता है। उनकी सत्ता
बस कुर्सी के इर्द-गिर्द सिमटने वाली नहीं है। वो तो हर हिन्दुस्तानी के दिलों पर
राज करते हैं। उम्र के इस नाजुक मोड़ पर सेहत ने उनका साथ नहीं दिया और वो हमे अलविदा कह उस
दुनिया को चले गए हमेशा-हमेशा के लिए जहां से कोई कभी नहीं लौटता। सत्ता के बिवान
में हमेशा दहाड़ने वाले इस शेर का मृत शैय्या पर यूं पड़ जाना उनके करोड़ों चाहने
वालों के दिल को कचोट जाता है। हर देश वासी चाहता है उनके लिए दुआ करता है की अटल
जी एक बार फिर लोगों के बीच आए। फिर कुछ बोले। फिर कुछ सुनाएं।।
सियासत में जब नेताओं की भाषण की बात आती है तो सामने बस अटल बिहारी
वाजपेयी का ही चेहरा उभरता है। बोलने का निराला अंदाज था उनका। जब वो बोलते थे तो
उनका पूरा तन उनके मन के साथ साथ होता था। अपने ही अंदाज में हाथ हिलाते थे।और सिर
को बड़े ही अदा से झटकते। भाषण के बीच उनकी चुटकियां तो अनोखी ही होती थीं। कभी-कभी
तो थोड़ा कहना ज्यादा समझना। पत्रकारों से बातचीत के दौरान भी वाजपेयी अक्सर
चुटकुलेबाजी शुरू कर देते थे। एक कवि हृदय के राजनेता थे अटल जी। यही वजह है कि दिल
के मसलों के साथ-साथ सियासी मसलों पर भी कविता बन जाती थी।
पाकिस्तान को अमेरिकी मदद पर अटल जी ने अपने कविता में किस तरह के तंज
कसे थे लोगों के जेहन में आज भी होगा। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उनके भीतर का
कवि सोया नहीं।जब भी मौका मिला उन्होंने पूरी महफिल लूट ली। अटल जी के भीतर बैठा
कवि उनको सियासत से दूर ले जाना चाहता था लेकिन क्या करें सियासत और वाजपेयी एक
दूसरे के पर्याय बन चुके थे। सियासत जब कवि अटल के हृदय पर चोट करती थी तो वो अपनी
कविता के अल्फाज को ही बदल देते थे। वो जानते थे कि सियासत की सफर तो उनकी तन की
ताकत तक है, लेकिन सत्ता का साथ तो सांसों तक है।
अटल बिहारी वाजपेयी मूल्यों और सिद्धांतों पर राजनीति करने वाले लोगों
के आखिरी स्तम्भों में से एक थे। कई पीढि़यों की पसंद थे। पंडित जवाहर लाल
नेहरू उनकी भाषण कला के मुरीद थे। उनकी साथ की पीढ़ी उनकी कायल थी तो वही नई पीढ़ी
भी आज भी जब उनके भाषण सुनती है, कविताएं सुनती है तो बस
उनकी कायल हो कर रह जाती है। अटल बिहारी वाजपेयी बचपन से ही कविताओं की तुकबंदी
करते थे। छात्र जीवन से ही आर.एस.एस. से जुड़ गए थे। शाखाओं में जाते थे। कविता
सुनाते थे। भाषण देते तो लोग तालियां बजाते। राजनीति शास्त्र की पढ़ाई की तो
सियासत की तरफ रुझान भी हो गया। पत्रकारिता से करियर की शुरुआत की। लेकिन उसी
दौरान पंडित दीन दयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी का उन्हें साथ मिला।
वाजपेयी की जिन्दगी का रास्ता तय हो गया। ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से बी.ए.
और कानपुर के डी.ए.बी. कॉलेज से राजनीति शास्त्र में एम.ए. किया। चुनावी राजनीति
में भी उन्होंने खूब हिस्सा लिया। वाजपेयी ने पत्रकारिता को अपना करियर चुना।
राष्ट्रवादी विचारधारा की पत्रिकाओं पांचजन्य, राष्ट्रधर्म, दैनिक स्वदेश और वीर-अर्जुन का उन्होंने संपादन भी किया। लेकिन वाजपेयी के
बोलने की असाधारण क्षमता के किस्से श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पंडित दीनदयाल तक
पहुंचे। इन दोनों से मुलाकात के बाद वाजपेयी सियासत में उतरे और 1951 में भारतीय जनसंघ के सदस्य बने।
1956 में अपना पहला लोकसभा चुनाव हारने के बाद 1957 में बलरामपुर सीट से लोकसभा चुनाव जीत कर अटल जी पहली बार संसद पहुंचे।
फिर तो पूरी संसद उनकी भाषण देने की जो शैली थी, उसकी मुरीद
हो गई। पंडित नेहरू ने ऐलान कर दिया की एक दिन ये शख्स देश का प्रधानमंत्री बनेगा।
1968 से 1973 तक
वाजपेयी जनसंघ के अध्यक्ष रहे। इंदिरा गांधी की सरकार पेट्रोल की कीमतें बढ़ने के
विरोध में वाजपेयी बैलगाड़ी से संसद पहुंचे। आपातकाल के दौरान वाजपेयी ने इंदिरा
सरकार को जमकर कोसा। इसके चलते सरकार ने उन्हें जेल में भी ठूंसा। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी तो वाजपेयी विदेश मंत्री बने। संयुक्त
राष्ट्र अधिवेशन में वाजपेयी ने जब हिंदी में ललकारा तो दुनिया दंग रह गई। छह
अप्रैल 1980 को बीजेपी का गठन हुआ तो वाजपेयी उसके
अध्यक्ष बने और संसदीय दल के नेता भी। 90 के दशक
में अयोध्या मुद्दा गरम था। बीजेपी मजबूत हो चली थी। लोकसभा में बीजेपी के 119 सांसद थे। अयोध्या मुद्दा छाया हुआ था। अयोध्या में कार-सेवकों का हुजूम
जमा था। अटल बिहारी वाजपेयी कट्टरता के समर्थक नहीं थे। लेकिन सवाल पार्टी के हित
का था तो लिहाजा अटल ने वही कहा जो पार्टी चाहती थी। छह दिसम्बर 1992 को कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को ढहा दिया। देश की धर्म
निरपेक्षता तार-तार हो गई। वाजपेयी ने संसद में पार्टी लाइन के खिलाफ जाकर इस
विध्वंस की निंदा कर डाली। वाजपेयी का कद ऊंचा होता चला गया। 1993 में जब प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के बारे में बात आई तो पार्टी ने
वाजपेयी का नाम आगे बढ़ा दिया। 16 मई 1996,
ये वो तारीख थी जब अटल बिहारी वाजपेयी पहली बार प्रधानमंत्री बने
लेकिन बहुमत के अभाव में 13 दिनों में ही यह सरकार
गिर गई। सरकार तो गिरी लेकिन संसद में अटल जी का भाषण जिस-जिस ने सूना उसके दिल
में उतर गए वाजपेयी।
ये भारतीय इतिहास में पहली बार था। जब संसद में चल रही बहस आम जनता
टी.वी. पर देख रही थी। अटल जी प्रधानमंत्री बनते ही टीवी के जरिए संसद के दरवाजे
आम जनता के लिए खोल दिए थे। जनता सब कुछ देख रही थी। विपक्षी पार्टियों के तीर भी
और अटल जी की भावुक अपील भी। इसके बाद यूनाइटेड फ्रंड की दो सरकारें आई और चली
गईं। 1998 में देश एक
बार फिर आम चुनाव का सामना कर रहा था। अटल जी की अगुवाई में बीजेपी का परचम एक बार
फिर लहराया। बीजेपी ने 182 सीटें जीतीं। 13 दलों का साथ मिला। और 19 मार्च 1998 को अटल जी दोबारा देश के प्रधानमंत्री बने। सत्ता में आने के एक महीने के
भीतर 11 मई 1998 को
अटल जी की सरकार ने पोखरण में पांच परमाणु विस्फोट करके अपने अटल इरादों की झलक
दिखा दी। ताकत का जलवा दिखाने के बाद अटल जी की सरकार ने पाकिस्तान के साथ शांति
के लिए भी पहल की और दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए दिल्ली और लाहौर के बीच बस सेवा
शुरू करवाई। बस में वो खुद लाहौर पहुंचे लेकिन इसी के बीच ए.आई.ए.डी.एम.के. ने अटल
सरकार से समर्थन वापस ले लिया। ऐन वक्त पर मायावती ने पाला बदला और महज एक वोट से
गिर गई 13 महीने पुरानी वाजपेयी सरकार। अटल जी देश
के कार्यकारी प्रधानमंत्री बने रहे। इसी दौरान पाकिस्तान ने विश्वासघात किया।
गुपचुप तरीके से पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर में कारगिल समेत बटालिक और
अखनूर सेक्टर में कई चोटियों पर अपना कब्जा जमा लिया। इस घुसपैठ का मुंहतोड़ जवाब
देने के लिए अटल जी ने ऑपरेशन विजय का ऐलान कर दिया। लगभग तीन महीने तक चले इस
ऑपरेशन में कई जवानों ने अपनी जान गंवाई। लेकिन पाकिस्तानी घुसपैठियों को करारा
जवाब मिला। आजाद कराई गई चोटियों पर फिर से तिरंगा लहराने लगा। अटल जी के फैसलों
ने उन्हें जनता में और भी लोक प्रिय बना दिया। 1999 में एक बार फिर आम चुनाव हुए और अटल जी के
अगुवाई में एनडीए ने 303 सीटों पर जीत हासिल की। 13 अक्टूबर 1999 अटल जी ने तीसरी बार देश के
प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। इस बार सहयोगी दलों की संख्या बढ़कर 20 से ऊपर चली गई लेकिन अटल जी सबको लेकर चलने में माहिर थे। अटल जी देश के
गांवों को शहरों से जोड़ने के लिए प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, नेशनल हाइवे डेवलमेंट प्रोजेक्ट, सेतु समुद्रम योजना
समेत कई विकास योजनाएं शुरु करवाई । मार्च 2000 में जब अमेरिकी राष्ट्रपति बिल-क्लिंटन दौर पर भारत आए। कई साल बाद कोई अमेरिकी राष्ट्रपति भारत आया था। इसे अटल जी के विदेश नीति
के लिहाज से मील का पत्थर समझा गया।
पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने के लिए अटल सरकार ने एक बार फिर पहल की और पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज मुर्शरफ को भारत आने के लिए न्यौता भेजा तो
एक बार को लगा कि कश्मीर का मुद्दा हल होने की कगार पर पहुंच ही चुका है। लेकिन
मुर्शरफ के अडि़यल रवैये के चलते बातचीत बे-नतीजा निकली। अटल की दोस्ती की पहल का
जवाब पीठ में खंजर के रूप में मिला। 13दिसम्बर 2001 को संसद
पर आतंकवादी हमला हो गया। वाजपेयी सरकार ने सीमा पर भारतीय फौजों को भेजना शुरू कर
दिया। भारत पाकिस्तान युद्ध के कगार पर पहुंच गए थे। अटल जी झुकने के लिए तैयार
नहीं थे। आतंकवादियों से निपटने के लिए। अटल सरकार ने पोटा जैसा कड़ा कानून बनाया।
इसी बीच अटल जी की सेहत साथ छोड़ने लगी थी। दो बार तो उनके घुटनों की सर्जरी हो
चुकी थी। 2007 में फीलगुड फैक्टर और इंडिया
शाइनिंग के नारों के साथ बीजेपी एक फिर आम चुनावों में उतरी। लेकिन जनता ने एनडीए
का साथ नहीं दिया। और एनडीए सत्ता से बाहर हो गई। गिरती सेहत के चलते दिसम्बर 2005 में अटल जी ने अपने पुराने मित्र लाल कृष्ण आडवाणी को अपना उत्तराधिकार
सौप कर सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। अटल बिहारी वाजपेयी आज न सियासत और न
सत्ता में हैं। संसद में भी नहीं हैं। क्यूंकि अलजी हम सब से दूर बहुत दूर जा चुके
हैं हमेशा हमेशा के लिए, कभी न वापस आने के लिए लेकिन लोगों
के दिलों में हमेशा बसी रहेंगी उनकी यादें।कभी बनावटी पन नहीं रहा उनमें। उनकी
उदार शख्सियत ने पूरे देश का दिल जीता था।उनकी ईमानदारी पर विपक्षियों को भी कभी
शक नहीं हुआ था। वजह यही थी की कि भले ही वाजपेयी सियासत की दुनिया में रहे लेकिन
हमेशा दिल से एक कवि ही रहे।
इतिहास के पन्नों में दर्ज होने जाने की चाहत हर आम-ओ-खास के बीच सबसे
बलवती तमन्नाओं में से एक है। विशेष रूप से शिखर पर पहुंचे हर व्यक्ति के भीतर मन
में ये खयाल तो जरूर आता होगा कि लोग मुझे किस तरह याद रखेंगे? क्या मेरा कोई
विरोधी भी मेरी प्रशंसा करेगा? क्या मेरे शिखर से हट
जाने के बाद भी लोग मुझे उसी प्यार और सम्मान की निगाहों से देखेंगे? लोगों का आपके बारे में क्या सोचना होगा? ये
सवाल जरूर कहीं अंतर्मन में उठता तो होगा! खास तौर से राजनीति के शिखर पुरुष जब
अपनी ऊंचाइयों पर नहीं होते हैं तो कई बार ऐसा भी देखा जाता है कि अपने उस सम्मान
की कसक उनके मन में रहती है। वही जब ये कहा जाता है कि अब भारतीय राजनीति पहले
जैसी नहीं रही। तो हम ये शिद्दत से महसूस करते हैं कि हमें एक और अटल चाहिए,
जिसे सभी विपक्षी अजातशत्रु कह कर पुकारें। अटल बिहारी बाजपेयी,
दशकों तक राजनीति करने के बाद जब वो राजनीति के मुख्य पटल से ओझल
हुए। तो भी उन्हें कभी विषबुझे तीर नहीं झेलने पड़े थे। बल्कि एक नेता के तौर पर
पूरे जीवन उनके साथ रहे लाल कृष्ण आडवाणी लंबे समय तक विपक्ष से हार्डलाइनर का
खिताब पाते रहे। हमारी कामना है अटल अमिट रहें और ईश्वर उनकी आत्मा को शांति
प्रदान करें। अटलजी की ही कुछ पंक्तियों के माध्यम से मैं कवि कुल कलाधर सरसिज्
सौरभ सम्पन्न महाकवि और भारत रत्न देश के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल विहारी
वाजपेयी जी को श्रद्धांजलि सुमन और शत-शत नमन अर्पित करता हूं...
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं,
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं,
गीत नहीं गाता हूं।
लगी कुछ ऐसी नज़र बिखरा शीशे सा शहर,
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं,
गीत नहीं गाता हूं।
पीठ मे छुरी सा चांद, राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता
हूं
गीत नहीं गाता हूं।