रेवड़ी की राजनीति की अपनी सीमाएं, पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

पहले तो समझिए कि दस साल रेवड़ी बाँटने का नतीजा क्या हुआ है। 31 साल में पहली बार दिल्ली सरकार घाटे में चली जाएगी। टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक़ आमदनी ₹62 हज़ार करोड़ होने का अनुमान है।

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Monday, 10 February, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे से साफ़ है कि रेवड़ी की राजनीति की अपनी सीमाएँ हैं। दिल्ली में लोगों को दस साल से मुफ़्त बिजली और पानी मिल रहा था। महिलाओं के लिए पाँच साल से बस यात्रा फ़्री है। इस बार बीजेपी ने कहा कि हम यह तो देते रहेंगे ऊपर से महिलाओं को हर महीने ₹2500 देंगे। आप ने कहा था कि हम ₹2100 देंगे। जीत बीजेपी की हुई।

पहले तो समझिए कि दस साल रेवड़ी बाँटने का नतीजा क्या हुआ है। 31 साल में पहली बार दिल्ली सरकार घाटे में चली जाएगी। टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक़ आमदनी ₹62 हज़ार करोड़ होने का अनुमान है जबकि खर्च ₹64 हज़ार करोड़। चुनाव में बीजेपी की घोषणाओं पर अमल करने के लिए ₹25 हज़ार करोड़ की और जरूरत पड़ेगी। दिल्ली में सड़क, पुल जैसे इंफ़्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट पूरे करने के लिए इस साल ₹7 हज़ार करोड़ कम पड़ गए हैं।

ORF के मुताबिक़ दिल्ली सरकार ने पिछले वर्षों में इंफ़्रास्ट्रक्चर के लिए जितना बजट रखा था उससे 39% कम खर्च किया। इसका नतीजा है कि दिल्ली की सड़कों की मरम्मत नहीं हो पा रही है। नई सड़कें और पुल बनाने का काम धीमा हो गया है।

रेवड़ी बाँटो और चुनाव जीतो। यह आसान फ़ार्मूला सभी पार्टियों ने अपना लिया है। मध्यप्रदेश से महिलाओं को कैश देने की कामयाब स्कीम 13 राज्यों ने अपना ली है। इन राज्यों में महिलाओं के हर साल दो लाख करोड़ रुपये दिए जा रहे हैं। इसका असर विकास कार्यों पर पड़ने लगा है। महाराष्ट्र में ठेकेदारों के बिल रुके हुए हैं तो हिमाचल प्रदेश में सरकार संकट में है। दिल्ली का हाल हम देख चुके हैं।

श्रीलंका में सरकार का दीवाला निकलने के बाद हमारे यहाँ भी रेवड़ी पर चर्चा हुई थी। रिज़र्व बैंक ने चेतावनी दी थी कि ये रास्ता सरकारों को मुश्किल में डाल सकता है। बैंक का कहना था कि फ़्री में बाँटने में फ़र्क़ होना चाहिए कि क्या पब्लिक गुड या मेरिट के लिए है और क्या नहीं? सस्ता राशन, रोज़गार गारंटी, मुफ़्त शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च को सही ठहराया गया है या यूँ कहें कि ये रेवड़ी नहीं है। मुफ़्त बिजली, मुफ़्त पानी, मुफ़्त यात्रा , किसान क़र्ज़ माफ़ी को रेवड़ी माना गया है।

रेवड़ी की दिक़्क़त यह है कि जो स्कीम आपने शुरू कर दी उसे बंद करना संभव नहीं है। चुनाव हारने का जोखिम कोई पार्टी नहीं उठा सकती है। ऐसे में सरकारों को वो खर्च काटने पड़ते हैं जो ज़रूरी है। वैसे भी सरकार का ध्यान लोगों की आमदनी बढ़ाने पर होना चाहिए, रेवड़ियाँ बाँटने पर नहीं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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महिलाओं को लीडरशिप की भूमिका में आगे लाने की जिम्मेदारी मीडिया इंडस्ट्री की: नाविका कुमार

टाइम्स नाउ और टाइम्स नाउ नवभारत की ग्रुप एडिटर-इन-चीफ नाविका कुमार ने e4m Women In Media, Digital & Creative Economy के पहले संस्करण में अपना मुख्य भाषण दिया।

Last Modified:
Tuesday, 18 March, 2025
NavikaKumar

टाइम्स नाउ और टाइम्स नाउ नवभारत की ग्रुप एडिटर-इन-चीफ नाविका कुमार ने e4m Women In Media, Digital & Creative Economy के पहले संस्करण में "Women in Prime Time: The Weight of Influence & Responsibility" विषय पर अपना मुख्य भाषण दिया। इस दौरान उन्होंने मीडिया में महिलाओं की भागीदारी, उनके सामने आने वाली चुनौतियों और उनके सशक्तिकरण की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।

उन्होंने कहा कि महिलाओं के योगदान को न केवल पहचाना जाना चाहिए, बल्कि उन्हें लीडरशिप की भूमिका में आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी भी मीडिया इंडस्ट्री की है।

नाविका ने कहा, "आज यहां खड़े होकर मैं सिर्फ एक एंकर, न्यूज पर्सन या एडिटर के रूप में नहीं, बल्कि महिलाओं का जश्न मनाने के लिए खुद को गौरवान्वित महसूस कर रही हूं। हमें यह समझना होगा कि हम कर सकते हैं, हम कर रहे हैं और हम जीतेंगे। लेकिन मेरी एकमात्र चिंता यह है कि यह प्रक्रिया बहुत धीमी है और हमें इसे तेज करने की आवश्यकता है।"

उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि महिलाओं के लिए सफलता का कोई तय फॉर्मूला नहीं होता। शादीशुदा महिलाएं, माताएं और बेटियां भी उतनी ही कुशल प्रोफेशनल हो सकती हैं, जितनी कि अविवाहित महिलाएं। उन्होंने कहा, "महिलाएं मल्टीटास्किंग में माहिर होती हैं, वे एक ही समय में दस काम कर सकती हैं और उनकी सांसों की रफ्तार भी नहीं बदलती। यह कुदरत का दिया हुआ हुनर है, जिसे हमें और निखारना चाहिए।"

मीडिया इंडस्ट्री में महिलाओं की स्थिति पर चर्चा करते हुए उन्होंने एक सर्वेक्षण का हवाला दिया, जिसमें बताया गया कि 55 न्यूज ऑर्गनाइजेशंस में पत्रिकाओं में केवल 13% महिलाएं निर्णय लेने की भूमिका में हैं। टीवी चैनलों में यह संख्या 20% है और अखबारों में 26%। उन्होंने सवाल उठाया कि जब महिलाएं समाज का 50% हिस्सा हैं, तो मीडिया में उनका नेतृत्व केवल 13-26% तक ही सीमित क्यों है?

उन्होंने इस असमानता को खत्म करने की जरूरत पर जोर दिया और कहा कि मीडिया में नेतृत्व कर रही महिलाओं को अपनी साथी महिलाओं का मार्गदर्शन करना चाहिए और उन्हें आगे बढ़ाने में मदद करनी चाहिए। नाविका ने यह भी कहा कि क्षेत्रीय भाषाओं और हिंदी मीडिया में नेतृत्वकारी पदों पर महिलाओं की संख्या अंग्रेजी मीडिया की तुलना में कम है, जिसे बदलने की जरूरत है।

उन्होंने मीडिया इंडस्ट्री में प्रतिस्पर्धा को लेकर भी अहम टिप्पणी की। उन्होंने कहा, "प्रतिस्पर्धा बाहर से होनी चाहिए, अपने न्यूजरूम के अंदर नहीं। न्यूजरूम में हमें एक-दूसरे की ताकत बनना चाहिए। मीडिया में राजनीति इस हद तक बढ़ गई है कि इसने राजनीति को भी शर्मिंदा कर दिया है। हमें इसे बदलना होगा।"

महिला पत्रकारों के सामने आने वाली चुनौतियों का जिक्र करते हुए नाविका ने बताया कि पुरुष पत्रकारों को अपने सूत्रों के साथ संबंध बनाने के अधिक अवसर मिलते हैं, जैसे कि अनौपचारिक मुलाकातें या साथ बैठकर ड्रिंक करना। लेकिन महिलाओं के लिए यह इतना आसान नहीं होता, जिससे उनकी नेटवर्किंग सीमित हो जाती है। उन्होंने कहा, "हमने अपने करियर के शुरुआती दिनों में ऑफिस में ही लोगों से मुलाकात की, बाहर जाकर नेटवर्किंग करना हमारे लिए संभव नहीं था। लेकिन क्या इससे हमारे करियर पर असर पड़ा? हां, पड़ा।"

अपने अनुभव साझा करते हुए उन्होंने कहा कि महिला पत्रकारों को अपने स्रोतों तक पहुंच बनाने के लिए अलग रास्ते अपनाने पड़ते हैं। उन्होंने कहा, "हमें सिर्फ अपने काम और रिपोर्टिंग के दम पर पहचान बनानी होगी। हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए एक मजबूत सपोर्ट सिस्टम बनाया जाए।"

नाविका कुमार ने अपने भाषण के अंत में कहा कि यह जरूरी है कि महिलाएं एक-दूसरे का साथ दें और एक-दूसरे को आगे बढ़ाएं। उन्होंने कहा, "हमें सिर्फ महिलाओं के संघर्ष की कहानियां नहीं दिखानी चाहिए, बल्कि उनकी उपलब्धियों को भी सामने लाना चाहिए। हमें अपनी सोच बदलनी होगी और यह समझना होगा कि महिलाओं की शक्ति केवल सामाजिक बदलाव लाने में ही नहीं, बल्कि आर्थिक क्रांति लाने में भी है।"

उन्होंने अपने संबोधन का समापन इस प्रेरणादायक संदेश के साथ किया कि महिलाओं को केवल सहयोग की जरूरत नहीं है, बल्कि नेतृत्व की जिम्मेदारी भी संभालनी होगी। उन्होंने कहा, "हम केवल बदलाव की प्रतीक्षा नहीं कर सकते, हमें खुद बदलाव बनना होगा।"

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फीमेल एम्प्लॉयीज की सुरक्षा के बिना कोई भी न्यूजरूम अधूरा: बांसुरी स्वराज

लोकसभा सांसद बांसुरी ने पत्रकारिता में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि वैश्विक स्तर पर न्यूजरूम में महिलाओं की हिस्सेदारी 20% से भी कम है।

Last Modified:
Tuesday, 18 March, 2025
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सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता और लोकसभा सांसद बांसुरी स्वराज ने 'e4m Women in Media, Digital and Creative Economy' के उद्घाटन संस्करण में “जेंडर, कानून और न्यूजरूम: समावेशी मीडिया परिदृश्य का निर्माण” (Gender, Law & Newsrooms: Building an Inclusive Media Landscape) विषय पर अपने विचार साझा किए। उन्होंने पत्रकारिता में लैंगिक पूर्वाग्रह और महिलाओं को मीडिया और अन्य क्षेत्रों में सशक्त बनाने के लिए आवश्यक कानूनी ढांचे पर चर्चा की।

अपने भाषण की शुरुआत स्वाभाविक चतुराई के साथ करते हुए, स्वराज ने खुद की तुलना एक "ओपनिंग बैट्समैन" से की, जो मीडिया में लैंगिक प्रतिनिधित्व, कानून में निहित अचेतन पूर्वाग्रह और विभिन्न उद्योगों में कार्यस्थलों की संरचनात्मक चुनौतियों पर एक व्यापक चर्चा की नींव रख रही थीं।

न्यूजरूम में लैंगिक बाधाओं को तोड़ना

स्वराज ने पत्रकारिता में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि वैश्विक स्तर पर न्यूजरूम में महिलाओं की हिस्सेदारी 20% से भी कम है। उन्होंने बताया कि प्रगति के बावजूद, खोजी पत्रकारिता और राजनीतिक रिपोर्टिंग अब भी पुरुष-प्रधान क्षेत्र बने हुए हैं, जबकि महिलाओं को अक्सर "सॉफ्ट" बीट्स जैसे लाइफस्टाइल और मानव-रुचि की खबरों की जिम्मेदारी दी जाती है।

उन्होंने इस पूर्वाग्रह को उजागर करने के लिए एक दिलचस्प उदाहरण दिया कि किस प्रकार महिला पत्रकारों के करियर की दिशा उनके पुरुष सहयोगियों की तुलना में अलग निर्धारित की जाती है। जहां एक पुरुष पत्रकार को राजनीतिक घोटाले पर रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी दी जाती है, वहीं महिला पत्रकार को फीचर लेखन या मनोरंजन खबरों तक सीमित रखा जाता है।

हालांकि, उन्होंने उन महिला पत्रकारों की सराहना की जिन्होंने इन सीमाओं को तोड़ा और नेतृत्वकारी भूमिकाएं निभाईं। उन्होंने दूरदर्शन की ग़जाला अमीन, ऊषा राय और शोभना भरतिया जैसी अग्रणी महिलाओं का उल्लेख किया, जिन्होंने साबित किया कि महिलाएं न्यूजरूम की संस्कृति को पुनर्परिभाषित कर सकती हैं और नेतृत्व कर सकती हैं।

अचेतन पूर्वाग्रह और महिलाओं पर प्रमाण का बोझ

अपने कानूनी अनुभवों से उदाहरण देते हुए, स्वराज ने अपने करियर की एक घटना साझा की। उन्होंने बताया कि एक मामले में सफलतापूर्वक बहस करने के बाद, एक कोर्ट अधिकारी जो पहले उन्हें "मैडम" कहकर संबोधित कर रहा था- अचानक उन्हें "सर" कहने लगा, मानो उनकी योग्यता ने उनके लिंग की सीमाओं को पार कर लिया हो।

उन्होंने कहा, "यह अचेतन पूर्वाग्रह सिर्फ कानून में नहीं है- यह न्यूजरूम, राजनीति और हर पेशे में मौजूद है। महिलाओं से अक्सर दोगुना परिश्रम करने की अपेक्षा की जाती है ताकि उन्हें गंभीरता से लिया जाए।"

स्वराज ने कहा कि लैंगिक पूर्वाग्रह केवल प्रत्यक्ष भेदभाव तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भाषा, अपेक्षाओं और संस्थागत कार्यप्रणाली में गहराई से समाया हुआ है। उन्होंने मीडिया में भर्ती प्रक्रिया, कार्यस्थल पर टिके रहने की नीतियों और नेतृत्व की संरचना में बदलाव की जरूरत पर जोर दिया ताकि अधिक महिलाएं निर्णय लेने की भूमिकाओं तक पहुंच सकें।

मीडिया में महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानूनी सुरक्षा उपायों को मजबूत करना

स्वराज ने अपने भाषण में कार्यस्थलों में महिलाओं के लिए उपलब्ध कानूनी सुरक्षा उपायों पर भी बात की। उन्होंने विशाखा दिशानिर्देश और 2013 के पॉश (POSH) एक्ट को याद किया और कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका को महत्वपूर्ण बताया।

हालांकि, उन्होंने यह भी इंगित किया कि कई मीडिया संगठनों में अब भी मजबूत आंतरिक शिकायत समितियों का अभाव है, जिससे महिलाओं के लिए उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराना मुश्किल हो जाता है। उन्होंने कहा, "एक न्यूजरूम जिसमें स्पष्ट शिकायत निवारण तंत्र नहीं है, वह अपनी फीमेल एम्प्लॉयीज को विफल कर रहा है।'' उन्होंने यौन उत्पीड़न विरोधी कानूनों के सख्त क्रियान्वयन की मांग की।

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी और नीति निर्माण में उनकी भूमिका

स्वराज ने महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को नीतियों के निर्माण के लिए आवश्यक बताया। उन्होंने नारी शक्ति वंदन अधिनियम (महिला आरक्षण विधेयक) के पारित होने की सराहना की, जो 2029 तक संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण को अनिवार्य करेगा।

उन्होंने कहा, "जब अधिक महिलाएं नेतृत्वकारी भूमिकाओं में होंगी, तो मीडिया की धारणाएं बदलेंगी और नीतियां भी बदलेंगी जो हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करती हैं।" 

स्वराज ने पत्रकारिता, कानून और राजनीति से जुड़ी महिलाओं से आग्रह किया कि वे चुप्पी की संस्कृति को तोड़ें। आपकी चुप्पी आपको बचाती नहीं है। यह सिर्फ किसी और को पीड़ित होने का एक और मौका देती है। 

उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि लैंगिक समानता अब केवल सशक्तिकरण तक सीमित नहीं है—बल्कि यह नेतृत्व से जुड़ी हुई है। उन्होंने कहा, "भविष्य महिलाओं का है और भविष्य अभी है।" इसके अलावा उन्होंने पुरुषों व महिलाओं दोनों से आग्रह किया कि वे पूर्वाग्रहों को खत्म करने और एक अधिक समावेशी मीडिया परिदृश्य बनाने के लिए सक्रिय रूप से काम करें।

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भाषाओं के बीच दरार पैदा करने की कोशिश नई नहीं: अनंत विजय

तमिलनाडु के आगामी विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर वहां के मुख्यमंत्री स्टालिन अकारण हिंदी विरोधी बयान दे रहे हैं। भारतीय भाषाओं के बीच दरार पैदा करने की कोशिश नई नहीं है।

Last Modified:
Monday, 17 March, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

अगले वर्ष तमिलनाडु में विधानसभा के चुनाव होनेवाले हैं। चुनाव की आहट से ही वहां के मुख्यमंत्री और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के नेता एम के स्टालिन को हिंदी की याद आ आई। उनको लगने लगा केंद्र सरकार तमिलनाडु पर हिंदी थोपने का षडयंत्र कर रही है। दरअसल तमिलनाडु में जब भी कोई चुनाव आता है तो वहां के स्थानीय दलों को भाषा की याद सताने लगती है। उनको लगता है कि तमिल को नीचा दिखाकर हिंदी को उच्च स्थान पर स्थापित करने का षडयंत्र किया जा रहा है।

स्टालिन को करीब पांच साल बाद राष्ट्रीय शिक्षा नीति की याद आई। शिक्षा नीति के त्रिभाषा फार्मूले पर उनको आपत्ति है। उसके माध्यम से ही वो तमिल पर हिंदी के वर्चस्व की राजनीति को देखते हैं। यह एक राजनीतिक वातावरण बनाने की योजनाबद्ध चाल है जिसमें तथ्य का अभाव है। 105 पृष्ठों की राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में कहीं भी हिंदी शब्द तक का उल्लेख नहीं है। पहले भी इस स्तंभ में इस बात की चर्चा की जा चुकी है। संभवत: शिक्षा नीति बनाने वालों को भारतीय भाषाओं की भावनाओं का ख्याल रहा होगा।

संभव है कि वो तमिल राजनीति से आशंकित रहे होंगे। इस कारण उन्होंने पूरे दस्तावेज में कहीं भी हिंदी शब्द नहीं हे। पता नहीं क्यों स्टालिन को राष्ट्रीय शिक्षा नीति के किस प्रविधान के अंतर्गत हिंदी थोपने का उपक्रम नजर आ गया है। स्टालिन तमिलनाडु की जनता की संवेदनाओं को भड़काने का खेल खेल रहे हैं। उन्होंने कहा कि जिसने भी तमिलनाडु पर हिंदी थोपने की कोशिश की वो या तो हार गए या बाद में अपना रुख बदलकर डीएमके के साथ हो गए।

तमिलनाडु हिंदी उपनिवेशवाद को स्वीकार नहीं करेगा। कौन सा हिंदी उपनिवेशवाद और हिंदी थोपने की कौन सी कोशिश। स्टालिन इसको स्थापित नहीं कर पा रहे हैं तो हिंदी विरोध के नाम पर कभी तमिल अस्मिता की बात करने लग जाते हैं तो कभी कुछ अन्य। संभव है कि उनको तमिलनाडु के विधानसभा चुनाव में तात्कालिक लाभ मिले लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर उनकी स्थिति हास्यास्पद हो रही है।

विगत दस वर्षों में तमिल और अन्य भारतीय भाषाओं के प्रोन्नयन के लिए केंद्र सरकार के स्तर पर कई तरह के कार्यक्रम चलाए गए हैं। आज से करीब तीन वर्ष पहले काशी तमिल संगमम नाम से एक कार्यक्रम काशी में आरंभ किया गया था। इसका शुभारंभ स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया था। ये कार्यक्रम तमिलनाडु और काशी के ऐतिहासिक संबंधों को फिर से याद करने और समृद्ध करने के लिए आयोजित किया गया था।

तमिल को लेकर महाराष्ट्र और कश्मीर में भी कार्यक्रम आयोजित किए गए। इससे पूर्व 2021 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तमिल के महान कवि सुब्रह्ण्य भारती के सौवीं पुण्यतिथि पर काशी हिंदी विश्वविद्यालय के कला विभाग में महाकवि के नाम पर सुब्रह्ण्य भारती चेयर आन तमिल स्टडीज स्थापित करने की घोषणा की थी। ऐसे प्रकल्पों की लंबी सूची है।

सिर्फ तमिल ही क्यों, ओडिया, मराठी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय बढ़ाने को लेकर भी अनेक कार्य किए जा रहे है। इस पूरे प्रसंग को देखने के बाद हिंदी के अप्रतिम लेखक कुबेरनाथ राय का एक निबंध जम्बुक की कुछ पंक्तियों का स्मरण हो उठता है। कुबेरनाथ राय ने इस निबंघ में बंगला के श्रेष्ठ साहित्यकार ताराशंकर बनर्जी की एक पंक्ति उद्धत की है। उन्होंने लिखा है कि ताराशंकर बनर्जी ने बताया कि था कि बिना एक अखिल भारतीय जीवन-दृष्टि विकसित किए हम अपना अस्तित्व बचा नहीं पाएंगे।

यहां पर कुबेरनाथ जी आशंकित होते हुए लिखते हैं कि बनर्जी बात तो ठीक कर रहे हैं परंतु क्षेत्रीय जीवन दृष्टि के बढ़ते जोर के सामने कोई अखिल भारतीय जीवन दर्शन की रचना करने में समर्थ हो सकेगा इसमें संदेह है। क्रांतियुग में तिलक ने एक अखिल भारतीय जीवन दर्शन ‘कर्मयोग’ को सामने रखा था। इसके बाद महात्मा गांधी ने चरखा ( स्वावलंबन और सर्वोदय) हिंदी (राष्ट्रीय एकता) और अध्यात्म का त्रिकोणात्मक जीवन दर्शन सामने रखा।

परंतु राजपट्ट बांधकर उनके शिष्य ही उसे अस्वीकृत कर गए। इसके बाद लोहिया ने एक अखिल भारतीय जीवन दृष्टि विकसित करने की चेष्टा की। परंतु न तो उनके पास पर्याप्त साधन थे और न ही कोई सुयोग्य उत्तराधिकारी था जो उनके बोध को विकसित कर सके।

महात्मा गांधी हिंदी को राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक मानते थे। यह अकारण नहीं था कि उन्होंने स्वाधीनता के आंदोलन में बड़े अभियानों का नाम हिंदी में रखा था। सविनय अवज्ञा, अंग्रेजो भारत छोड़ो, नमक सत्याग्रह आदि। लेकिन स्वाधीनता के बाद जब भाषा के आधार पर प्रांतों का गठन आरंभ हुआ तब क्षेत्रीय जीवन दृष्टि को ना सिर्फ मजबूती मिली बल्कि वो राजनीति के एक औजार की तरह भी विकसित होने लगा।

भाषा विवाद के बाद जिस तरह से केंद्र सरकार ने घुटने टेके थे उसपर कुबेरनाथ राय की टिप्पणी गौर करने लायक है। एक तरफ वो मुट्ठी भर तमिल उपद्रवियों को कोसते हैं तो दूसरी तरफ कहते हैं कि हिंदी प्रातों के कुछ राजनीति-व्यवसायी या कुछ किताबी बुद्धीजीवी जो मौज से हर एक बात पर वाम बनाम दक्षिण की शैली में सोचते हैं।...

1947 से पूर्व ऐसे ही आंख मूंदकर ऐसे प्रगतिशील पाकिस्तान का समर्थन करते थे (देखिए श्री राहुल की कहानी सुमेरपण्डित) और फिर वैसे ही आंख मूंदकर सोचते हैं कि इस देश में वर्ग युद्ध तो संभव नहीं अत: संप्रदाय युद्ध, जाति युद्ध, भाषा युद्ध कराओ जिससे बंसी लगाने का मौका मिल सके। कुबेरनाथ राय भाषा विवाद के समय देश के नेतृत्व पर बहुत कठोर टिप्पणी भी करते हैं और कहते हैं कि वर्तमान धृतराष्ट्र इस बार केवल अंधा ही नहीं बल्कि बहरा भी है। कुबेरनाथ राय जब ऐसा कह रहे होंगे तो उनके मष्तिष्क में नेहरू रहे होंगे। ऐसा इस लेख के अन्य हिस्सों को पढ़कर प्रतीत होता है।

दरअसल काफी लंबे समय से इस बात को कहा जाता रहा है कि हिंदी, हिंदू हिन्दुस्तान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे पर रहा है। 1965 में अंग्रेजी पत्रिका क्वेस्ट में अन्नदाशंकर राय की टिप्पणी है कि, भाषा संदर्भ में हिंदी का वही स्थान है जो राजनीतिक संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेक संघ या जनसंघ का है। अत: धर्मनिरपेक्ष शासनतंत्र में दोनों के लिए कोई खास जगह नहीं है।

उस टिप्पणी में अन्नदाशंकर राय के निष्कर्ष का आधार था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी हिंदी का प्रयोग करता है इस कारण हिंदी का संबंध हिंदू धर्म से है। विद्वान लोग भी कैसे भ्रमित होते हैं ये उसका उदाहरण है। तभी तो कुबेरनाथ राय को उस लेख के प्रतिकार में लिखना पड़ा- मुखौटा उतार लो, राय महाशय ! आज अगर स्टालिन तमिल को हिंदी के सामने खड़ा करके अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करना चाहते हैं तो करें पर ये न तो देश हित में है और ना ही स्टालिन को राजनीति में किसी प्रकार से दीर्घकालीन लाभ होगा।

संभव है कि वो हिंदी उपनिवेशवाद जैसे छद्म नारों के आधार पर कुछ सीटें जीत जाएं लेकिन ये तय है कि उनकी राजनीति एक न एक दिन हारेगी। जब तक उनको ये समझ आएगा तबतक बहुत देर हो चुकी होगी। वो तबतक तमिल का भी नुकसान कर चुके होंगे। ये समय भारतीय भाषाओं का स्वर्णकाल है, स्टालिन को समझना चाहिए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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टैरिफ से अमेरिका पर मंदी का खतरा? पढ़ें इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

ट्रंप ने टैरिफ लगाने का फैसला अचानक नहीं लिया है। पहली टर्म में भी उन्होंने इसका इस्तेमाल किया था और दूसरे टर्म के प्रचार के दौरान बार बार कहा कि 20 जनवरी को राष्ट्रपति बनते ही टैरिफ लगा दूंगा।

Last Modified:
Monday, 17 March, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिका का राष्ट्रपति बनकर अभी 50 दिन ही हुए हैं, लेकिन इतने कम समय में उन्होंने चीजें उलट पुलट कर दी है। उनके फैसलों के केंद्र में है टैरिफ। यह एक ऐसा टैक्स है जो सरकार अपने देश में आने वाले सामान पर लगाती है। ट्रंप अमेरिका में सामान बेचने वाले हर देश पर टैरिफ लगाना चाहते हैं ताकि व्यापार घाटा कम किया जा सकें। टैरिफ टैरिफ उन्होंने इतना खेल लिया है कि अब अमेरिका में मंदी की आशंका जताई जा रही है। इसी कारण शेयर बाजार में भी गिरावट आयी है।

ट्रंप ने टैरिफ लगाने का फैसला अचानक नहीं लिया है। पहली टर्म में भी उन्होंने इसका इस्तेमाल किया था और दूसरे टर्म के प्रचार के दौरान बार बार कहा कि 20 जनवरी को राष्ट्रपति बनते ही टैरिफ लगा दूंगा। अब तक चीन, कनाडा और मैक्सिको पर टैक्स लगा चुके हैं। सभी देशों से आने वाले स्टील , एलुमिनियम पर टैरिफ लगा दिया है। अगले महीने से सभी देशों पर Reciprocal टैरिफ लगाने जा रहे हैं यानी जो देश अमेरिका के सामान पर जितना टैरिफ लगाता है अमेरिका भी उस पर उतना ही टैरिफ लगा देगा। भारत भी इसकी चपेट में आ सकता है।

टैरिफ लगाने के पीछे ट्रंप की तर्क है MAGA यानी Make America Great Again, वो चाहते हैं कि दूसरे देशों की कंपनियां अमेरिका में ही सामान बनाएं। इससे अमेरिका की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी। लोगों को रोजगार मिलेगा। टैरिफ लगाकर वो सरकार की आमदनी बढ़ाना चाहते हैं। इस बढ़ी हुई आमदनी से वो लोगों को इनकम टैक्स में छूट देना चाहते हैं। हालाँकि गणित इसके पक्ष में नहीं है। अमेरिका सरकार की $100 कमाई में से $1.20 ही टैरिफ से आते हैं। जानकारों को संदेह है कि टैरिफ बढ़ाने से इतनी कमाई हो जाएगी कि इनकम टैक्स में कटौती की जा सकें।

टैरिफ का खेल उल्टा पड़ने लग गया है। अमेरिकी शेयर बाजार में गिरावट आई है। S&P 500 में 4% और NASDAQ में 8% की गिरावट आ चुकी है। बाजार को चिंता है कि कहीं मंदी नहीं आ जाएं। HSBC, Citi, Goldman Sachs ने अमेरिका में मंदी की आशंका को बढ़ा दिया हैं। बाजार की चिंता महंगाई को लेकर भी है। टैरिफ लगाने से दाम बढ़ेंगे, महंगाई बढ़ेगी तो फेड रिजर्व ब्याज दरों में कटौती की रफ्तार धीमी कर सकता है। इसका असर आगे चलकर ग्रोथ पर पड़ सकता है। हालाँकि ताजा आँकड़ों में अमेरिका में महंगाई की दर कम हुई है।

ट्रंप को शेयर बाजार के ऊपर नीचे जाने की चिंता रहती है। उन्हें लोकप्रियता का प्रमाण लगता रहा है, लेकिन अब वो कह रहे हैं कि संक्रमण काल है। चीन एक सदी के बारे में सोचता है हम क्वार्टर (तिमाही) के बारे में। यही सपना बेचकर ट्रंप अपनी नीतियों को फिलहाल लागू कर रहे हैं, लेकिन यह उलटी पड़ी तो खामियाजा सबको झेलना पड़ेगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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सुपर स्वास्थ्य भारत बनाने के प्रयासों के साथ चुनौतियां: आलोक मेहता

एबी पीएम-जेएवाई न केवल दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य कवरेज योजना है, बल्कि अवधारणा के बाद से लागू होने वाली सबसे तेज़ योजना भी है ।यह योजना पूरी तरह से डिजिटल है।

Last Modified:
Monday, 17 March, 2025
alokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

पिछले एक दशक में भारत में स्वास्थ्य सेवा पर होने वाले ख़र्च में लगातार क्रमानुगत वृद्धि हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विकसित भारत यानी सुपर पावर संपन्न देशों की तरह 2047 तक भारत को सशक्त बनाए जाने का अभियान चला रहे हैं। इसमें शिक्षा स्वास्थ्य और सुरक्षा सबसे बड़े मुद्दे हैं। इस लक्ष्य के लिए चुनौतियां भी कम नहीं हैं। सशक्त भारत के लिए स्वस्थ भारत पहला चरण है। इसी अभियान के तहत दिल्ली की नई सरकार आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (एबी-पीएमजेएवाई) को लागू करने के लिए 18 मार्च को नेशनल हेल्थ अथॉरिटी के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार है।

इसके साथ ही दिल्ली स्वास्थ्य बीमा योजना को लागू करने वाला 35वां राज्य/केंद्र शासित प्रदेश बन जाएगा। पश्चिम बंगाल एकमात्र ऐसा राज्य रहेगा जिसने इस योजना को नहीं अपनाया है। दिल्ली की पिछली आम आदमी पार्टी (आप) के नेतृत्व वाली सरकार ने एबी-पीएमजेएवाई को लागू करने से इनकार कर दिया था। एबी-पीएमजेएवाई भारत की आबादी के आर्थिक रूप से कमजोर 40 प्रतिशत हिस्से में शामिल 12.37 करोड़ परिवारों के साथ लगभग 55 करोड़ लाभार्थियों को सेकेंडरी और टेरिटरी हॉस्पिटल में भर्ती होने की स्थिति में प्रति परिवार, हर साल पांच लाख रुपये का हेल्थ बीमा कवर प्रदान कराती है।

प्रारंभिक तौर पर प्राप्त सूचना के मुताबिक, पहले चरण में दिल्ली सरकार की ओर से छह लाख लोगों को लाभार्थी बनाया जा रहा है। इसके अलावा आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को भी इस योजना का लाभ मिलेगा। साथ ही दिल्ली में 70 वर्ष या उससे अधिक आयु के बुजुर्गों को भी इस योजना का लाभ मिलेगा। एबी पीएम-जेएवाई न केवल दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य कवरेज योजना है, बल्कि अवधारणा के बाद से लागू होने वाली सबसे तेज़ योजना भी है। यह योजना पूरी तरह से डिजिटल है और भारत की लगभग 45% आबादी को कवर करती है।

प्रधानमंत्री ने अक्टूबर 2024 में आयुष्मान वय वंदना कार्ड लॉन्च किया, जिससे 70 वर्ष और उससे अधिक आयु के लगभग 6 करोड़ लोग लाभान्वित होंगे। सरकार ने बताया है कि आयुष्मान भारत योजना के तहत 31 जनवरी 2025 तक 8.5 करोड़ से अधिक उपचार करवाये हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने राज्यसभा में यह जानकारी दी है। आयुष्मान भारत योजना 4.2 करोड़ इलाज सरकारी अस्पतालों में और 4.3 करोड़ इलाज निजी अस्पतालों में कराये गये हैं। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में बताया था कि हम भारत में स्वास्थ्य को विकास के केंद्र के रूप में और विकास को अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की कुंजी के रूप में देखते हैं।

हाल के वर्षों में, हमारी कई वैश्विक पहल स्वास्थ्य सुरक्षा के इर्द-गिर्द घूमती रही हैं। यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां भारत पहला उत्तरदाता, विकास भागीदार, आपूर्ति श्रृंखला की कड़ी, स्वास्थ्य समाधान प्रदाता, ज्ञान केंद्र और कई मायनों में एक आदर्श रहा है। भारत ने 78 देशों में 600 से अधिक महत्वपूर्ण विकास परियोजनाएं शुरू की हैं। इनमें से कई स्वास्थ्य क्षेत्र में हैं। इसके समानांतर, निजी स्वास्थ्य उद्योग ने भी विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में सुविधाओं और क्षमताओं में योगदान दिया है।

भारतीय चिकित्सा जगत 2025 में परिवर्तनकारी विकास के शिखर पर होगा। प्रसिद्ध स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. तामोरिश कोले ने इस बात का दावा किया है। उन्होंने कहा कि, स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र प्रौद्योगिकी में प्रगति, नीतिगत सुधारों और सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (यूएचसी) के प्रति प्रतिबद्धता से प्रेरित है। आयुष्मान भारत - प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएम-जेएवाई) जैसे कार्यक्रम अपनी पहुंच का विस्तार कर रहे हैं। साथ ही निवारक स्वास्थ्य सेवा पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। ऐसा करके हाशिए पर पड़ी आबादी की जरूरतों को पूरा कर रहे हैं।

कोले ने कहा कि, राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन (एनडीएचएम) के नेतृत्व में प्रौद्योगिकी से टेलीमेडिसिन, एआई और पहनने योग्य उपकरणों के माध्यम से शहरी-ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा के अंतर को पाटने की उम्मीद है। अंतरराष्ट्रीय आपातकालीन चिकित्सा संघ की नैदानिक अभ्यास समिति के अध्यक्ष कोले ने कहा कि, पीएम-आयुष्मान भारत स्वास्थ्य अवसंरचना मिशन जैसी बुनियादी ढांचा पहल टियर-2 और टियर-3 शहरों में स्वास्थ्य सुविधाओं को मजबूत करने, असमानताओं को कम करने और उन्नत देखभाल तक पहुंच में सुधार करने के लिए तैयार हैं।

इसके साथ ही, स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों को बेहतर बनाने और चिकित्सा शिक्षा का विस्तार करने के प्रयासों का उद्देश्य स्वास्थ्य सेवा कार्यबल को मजबूत करना है, इसे वैश्विक मानकों के साथ अलाइन करना है। भारत की स्वास्थ्य सेवा रणनीति गैर-संचारी रोगों के बढ़ते बोझ से निपटने के लिए निवारक और प्राथमिक देखभाल पर जोर देती है, जिसे टीकाकरण अभियान, पोषण कार्यक्रम और मानसिक स्वास्थ्य पहलों द्वारा समर्थित किया जाता है।

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 2023-24 के लिए अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहा कि आयुष्मान भारत, यू-विन (सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम-विन), भारत का राष्ट्रीय टीबी उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी), राष्ट्रीय एड्स और एसटीडी नियंत्रण कार्यक्रम (चरण-वी), मिशन परिवार विकास, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (एनयूएचएम), राष्ट्रीय टेली मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (एनटीएमएचपी) सहित अन्य ने स्वास्थ्य क्षेत्र में बड़ी सफलता दर्ज की है।

भारत में चिकित्सा शिक्षा का जिक्र करते हुए मंत्रालय ने कहा कि, 2013 से14 में 387, 2024 से 25 में 780 (सरकारी- 431, प्राइवेट- 349) तक मेडिकल कॉलेजों में 101.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इसके अलावा, एमबीबीएस सीटों में 2014 से पहले 51,348 से 130 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. वर्तमान में यह 1,18,137 हो गई हैं. पीजी सीटों में भी 2014 से पहले 31,185 से 134.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और अब 73,157 हो गई हैं।

मंत्रालय ने कहा, नए मेडिकल कॉलेजों की स्थापना के लिए केंद्र प्रायोजित योजना के तहत तीन चरणों में 157 मेडिकल कॉलेजों की स्थापना को मंजूरी दी गई है, जिनमें से 131 कार्यरत हैं और शेष कुछ वर्षों में कार्यरत हो जाएंगे. इन 157 कॉलेजों में से 40 देश के आकांक्षी जिलों में बनाए जा रहे हैं, जिससे चिकित्सा शिक्षा में असमानता के मुद्दों का समाधान होगा।

भारत सरकार ने वित्तीय वर्ष 2025-26 के लिए स्वास्थ्य क्षेत्र को मजबूत करने हेतु ₹95,957.87 करोड़ का आवंटन किया है, जो पिछले वर्ष ₹86,582.48 करोड़ से थोड़ा अधिक है। यह स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए एक बड़ा कदम है, जिसमें सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं के सुधार, विकास और रखरखाव के लिए आवश्यक वित्तीय प्रावधान किए हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस बजट में देश की स्वास्थ्य प्रणाली को सुदृढ़ करने के लिए कई महत्वपूर्ण योजनाओं की घोषणा की है। सरकार ने आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के लिए ₹9,406 करोड़ का बजट निर्धारित किया है। इसके तहत गरीब और जरूरतमंद लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के लिए जरूरी कदम उठाए जाएंगे।

इसके साथ ही प्रधानमंत्री आयुष्मान भारत स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर मिशन को ₹4,200 करोड़ का आवंटन किया गया है, ताकि स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे को और बेहतर बनाया जा सके। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन ( के लिए ₹37,226.92 करोड़ का बजट आवंटित किया गया है, जिससे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार होगा। इसके अलावा राष्ट्रीय टेली मेंटल हेल्थ प्रोग्राम के लिए ₹79.6 करोड़ का प्रावधान किया गया है, जो मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को डिजिटल रूप से प्रदान करने के लिए महत्वपूर्ण कदम है।

सरकार ने 2025-26 के दौरान 200 नए कैंसर केंद्र स्थापित करने की योजना बनाई है। इससे कैंसर के इलाज में सुधार होगा और अधिक लोगों तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचेंगी। इसके साथ ही, अगले तीन वर्षों में सभी जिला अस्पतालों में डेकेयर कैंसर केंद्र स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया है, जिससे दूर-दराज के क्षेत्रों में भी कैंसर के इलाज की सुविधा मिल सकेगी। मेडिकल शिक्षा के क्षेत्र में भी इस बजट के तहत महत्वपूर्ण प्रावधान किए गए हैं। वित्त मंत्री ने बताया कि अगले वर्ष 10,000 अतिरिक्त सीटें मेडिकल कॉलेजों और अस्पतालों में जोड़ी जाएंगी।

इसके साथ ही, सरकार का उद्देश्य अगले पांच वर्षों में 75,000 मेडिकल सीटें जोड़ने का है। पिछले 10 वर्षों में लगभग 1.1 लाख अंडरग्रैजुएट और पोस्टग्रैजुएट मेडिकल सीटों में 130% की वृद्धि की गई है, जो चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ा सुधार है। इस प्रकार, सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र को प्राथमिकता देते हुए एक मजबूत और समग्र स्वास्थ्य प्रणाली की दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। इन प्रावधानों से न केवल स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार होगा, बल्कि देश में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता और इंफ्रास्ट्रक्चर में भी बड़ा सुधार होगा।

आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के अंतर्गत ही 70 साल या उससे ज्यादा उम्र के बुजुर्गों को अच्छी मेडिकल सुविधा देने के उद्देश्य से साल 2024 में ही आयुष्मान वय वंदना कार्ड की शुरुआत की गई थी। इस कार्ड को बनवाने के फायदे हैं कि लाभार्थी देशभर के किसी भी अस्पताल में 5 लाख रुपये तक का मुफ्त इलाज करा सकता है। भले ही उनकी सालाना आय कुछ भी हो। एक अनुमान के मुताबिक देश में 6 करोड़ से ज्यादा 70 साल से ज्यादा उम्र के बुजुर्ग हैं।
देश में आयुष्मान भारत योजना के लागू होने के करीब छह साल बाद तक ओडिशा, दिल्ली और पश्चिम बंगाल में इसे लेकर विरोध रहा, लेकिन ओडिशा में भाजपा की सरकार आते ही राज्य ने इसे हरी झंडी दे दी।

केंद्र सरकार ने 70 वर्ष से अधिक आयु के वरिष्ठ नागरिकों को , उनकी आय चाहे जो भी हो, आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (एबी पीएम-जेएवाई) के कवरेज का विस्तार करने का फैसला किया है, जिससे लगभग 60 मिलियन लोगों को मुफ्त स्वास्थ्य कवरेज का एक छोटा सा हिस्सा प्रदान किया गया है। दुनिया में सबसे अधिक स्वास्थ्य देखभाल के लिए भारत में जेब से खर्च के साथ, यह निर्णय वास्तव में प्रशंसनीय है।

अमेरिका में, मुख्य रूप से बीमा-आधारित योजनाओं पर निर्भर रहने के कारण स्वास्थ्य सेवा की लागत में वृद्धि हुई। भारत अमेरिका के रास्ते पर चलता दिख रहा है। हालांकि, मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, कम उपचार दरों और भुगतान में देरी के कारण निजी क्षेत्र में उत्साह कम हो रहा है, इसके लॉन्च के बाद से, पीएम-जेएवाई योजना के तहत हर साल खर्च किए गए कुल धन का दो-तिहाई निजी अस्पतालों में गया। इसलिए चुनौतियाँ भी हैं।

दरअसल आयुष्मान भारत में कुछ राज्यों में फर्जीवाड़ा पकड़ा गया। जिनमें गुजरात में एक ही परिवार के नाम पर 1700 लोगों का कार्ड बनाए जाने, छत्तीसगढ़ में एक ही परिवार के नाम पर 109 कार्ड बनाने व उनमें से 57 की आंख की सर्जरी कराने और 171 अस्पतालों द्वारा फर्जी बिल भेज कर भुगतान लेने जैसे मामले शामिल हैं। बताया जाता है कि अभी तक दो लाख से अधिक फर्जी कार्ड का मामला सामने आया है।

भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) ने अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया है कि आयुष्मान भारत-प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (PMJAY) में कई फर्जीवाड़े हुए हैं। जिनमें बेनिफिशियरी आईडेंटिफिकेशन सिस्टम (BIS) के जरिए सबसे बड़ी गड़बड़ी यह सामने आई है कि योजना के लगभग 7.50 लाख लाभार्थियों का मोबाइल नंबर एक ही था। रिपोर्ट 8 लोकसभा में पेश की गई , जिसमें सितंबर 2018 से मार्च 2021 तक के परफॉर्मेंस ऑडिट रिजल्ट शामिल किए गए हैं।

परिवारों के आकार पर भी संदेह CAG की रिपोर्ट में यह बताया गया है कि 43,197 घरों में परिवार का आकार 11 से 201 सदस्यों तक का था। एक घर में इतने सदस्यों का होना न केवल रजिस्ट्रेशन प्रोसेस के दौरान वेरिफिकेशन में फर्जीवाड़े को दिखाता है, बल्कि इस बात की भी संभावना है कि लाभार्थी इस योजना में परिवार की परिभाषा स्पष्ट न होने का फायदा भी उठा रहे हैं। गड़बड़ी सामने आने के बाद NHA ने कहा कि वह 15 से ज्यादा सदस्यों वाले किसी भी लाभार्थी परिवार के केस में एड मेम्बर ऑप्शन को डिसेबल करने के लिए सिस्टम डेवलप कर रहा है।रिपोर्ट के मुताबिक 7.87 करोड़ लाभार्थी परिवार योजना में रजिस्टर्ड थे। जो नवंबर 2022 के टारगेट 10.74 करोड़ का 73% है।

बाद में सरकार ने लक्ष्य बढ़ाकर 12 करोड़ कर दिया था।6 राज्यों में पेंशन भोगी उठा रहे PMJAY का लाभ PMJAY का लाभ चंडीगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में कई पेंशनभोगी उठा रहे हैं। तमिलनाडु सरकार के पेंशनभोगी डेटाबेस की इस योजना के डेटाबेस से तुलना करने पर पता चला कि 1,07,040 पेंशनभोगियों को लाभार्थियों के रूप में शामिल किया गया था। इन लोगों के लिए राज्य के स्वास्थ्य विभाग ने बीमा कंपनी को करीब 22.44 करोड़ रुपए का प्रीमियम भुगतान किया गया। ऑडिट में पता चला कि अयोग्य लोगों को हटाने में देरी के चलते बीमा प्रीमियम का भुगतान हुआ था। भविष्य में इस तरह की गड़बड़ियां रोकने के लिए विभिन्न राज्य सरकारों , सामाजिक संगठनों , मेडिकल से जुड़े संस्थानों और अस्पतालों के प्रबंधन को महत्वपूर्ण सहयोग देना होगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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भगवंत मान आप पार्टी के अंतिम मुख्यमंत्री होंगे : समीर चौगांवकर

राजनेता क्यो किसी पार्टी के प्रति निष्ठावान बने रहते है या उससे नाता तोड़ लेते है? कुछ एकजुट रहती है तो कुछ में विघटन हो जाता है। आप पार्टी कभी किसी राज्य में सत्ता में नहीं आएगी।

Last Modified:
Tuesday, 11 March, 2025
bhagwantmaan

समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी के पहले और भगवंत मान आप पार्टी के अंतिम मुख्यमंत्री होंगे। भविष्य में आप पार्टी कभी किसी भी राज्य में सत्ता में नहीं आएगी, यह तय है। आप पार्टी के नायक रहें केजरीवाल अब जनता की नज़र में सबसे बड़े खलनायक बन गए है। आप पार्टी में विघटन होना तय है।

आप पार्टी के कुछ नेता दूसरी पार्टियों में चले जाएँगे और कुछ नेता आप पार्टी में रहकर ही ख़त्म हो जाएँगे। राजनेता क्यो किसी पार्टी के प्रति निष्ठावान बने रहते है या उससे नाता तोड़ लेते है? कुछ पार्टियां एकजुट रहती है तो कुछ में विघटन क्यो हो जाता है? आखिरकार वो कौन सा तत्व है जो किसी पार्टी में एका बनाए रखता है और किन कारणों से पार्टी टूट जाती है? आइए पहले उन पहलुओं पर बात करे, जो इसके स्वाभाविक जवाब हो सकते है।

निश्चित तौर पर सबसे पहले तो विचारधारा पार्टियों को एकजुट रखने मे अहम भूमिका निभाती है और उसके बाद पैसे और सत्ता की ताकत वह चुंबक है जो किसी पार्टी को बचाकर रखता है। केजरीवाल के पास कोई विचारधारा नहीं है, और सिर्फ़ सत्ता के दम पर बची पार्टी थी।

वैचारिक प्रतिबद्धता और विचारधारा पर अडिग रहने वाली पार्टियाँ ही चुनाव दर चुनाव हारने के बाद भी बनी रहती है और तमाम संघर्ष के बाद सत्ता में आती है। बीजेपी इसका एकमात्र उदाहरण है। सशक्त व्यक्तित्व और नामी वंश भी एक पहलू है,जो पार्टियों को कुछ समय एकजुट रखता है और नई प्रतिभाओं को आकृष्ट करता है।

लेकिन अन्य तमाम व्यक्तिवादी, वंशवादी दलों की सूची बनाएं तो इन्हें छोड़ने वालों की संख्या अननिगत है,चाहे वो मायावती की बसपा हो, ठाकरे की शिवसेना हो, शरद पवार की एनसीपी या बादल परिवार की अकाली दल। आज यह दल अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे है।

कांग्रेस की अगर बात करे तों विचारधारा होने के बाद भी कांग्रेस अपने नेताओं को साथ जोडे रखने में विफल क्यो है? यह एक विचारधारा और एक नेता, वंश का दावा करती है, कांग्रेस के पास लोगों को आकृष्ठ करने के लिए सत्ता और संरक्षण की कुछ ताकत अभी भी है, लेकिन उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ केंद्रीय नेतृत्व इस कदम कमजोर है कि तमाम बड़े नेता हताश और निराश होकर आसानी से पाला बदलकर भाजपा में चले जाते है या दूसरी पार्टी बना लेते है। अरविंद केजरीवाल के पास कुछ नहीं है। आँधी की तरह आई आप पार्टी का आँधी की तरह भारतीय राजनीति से ग़ायब होना तय है। केजरीवाल और आप पार्टी का यही भविष्य है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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वक्फ बिल पर क्या मौलाना मुसलमानों को गुमराह कर रहे हैं: रजत शर्मा

हकीकत ये है कि जो कुछ लोग अब तक वक्फ की अरबों की प्रॉपर्टी पर कब्जा करके बैठे हैं, उसके जरिए करोड़ों रुपये कमाते हैं, उनका खेल खत्म हो जाएगा।

Last Modified:
Monday, 10 March, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

13 मार्च की रात को होलिका दहन होगा, पर उसी दिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और तमाम मौलानाओं ने दिल्ली के जन्तर मंतर पर वक्फ बिल के खिलाफ एक बड़े प्रोटेस्ट की कॉल दी है। 10 मार्च से संसद के बजट सत्र का दूसरा हिस्सा शुरू होने वाला है, उम्मीद ये है कि 10 मार्च को ही सरकार संसद में वक्फ प्रॉपर्टी बिल पेश करेगी। जेपीसी ने बिल में 14 संशोधनों के साथ अपनी रिपोर्ट संसद में पेश कर दी है। कैबिनेट ने भी संशोधनों को मंजूरी दे दी है। ये तय माना जा रहा है कि सरकार इसी सत्र में वक्फ बिल को पास कराएगी।

इसीलिए ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इस मुद्दे पर जंग का ऐलान कर दिया है। पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष खालिद सैफुल्लाह रहमानी का एक रिकॉर्डेड मैसेज आज व्हाट्सएप, फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के जरिए सर्कुलेट किया गया। इसमें सैफुल्लाह रहमानी ने दीन का हवाला देते हुए मुसलमानों से कहा कि जाग जाओ, घरों से निकलो, अगर वक्फ बिल पास हो गया, तो कहीं के नहीं रहोगे, तुम्हारी संपत्तियों पर सरकार कब्जा कर लेगी।

अगर ये सब रोकना है तो एकजुट हो जाओ, 13 मार्च को दिल्ली पहुंचो और सरकार को अपनी ताकत दिखाओ। चूंकि रमजान का महीना चल रहा है, इसलिए मौलवियों से अपील की गई कि वो जुमे की नमाज में कुनुते नाज़िला यानि मुश्किल हालात में पढ़ी जाने वाली विशेष दुआ पढ़वाएं, क्य़ोंकि ऐसे हालात से मुसलमानों को अल्लाह ही बचा सकता है। पर्सनल लॉ बोर्ड के कई नेताओं ने इसी तरह के वीडियो जारी किए।

बोर्ड के उपाध्यक्ष उबैदुल्ला खान आज़मी ने मुसलमानों को शाहबानो केस की याद दिलाई। याद दिलाया कि सारे मुसलमानों ने एक होकर शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ प्रदर्शन किया तो उस वक्त राजीव गांधी सरकार को झुकना पड़ा था, अब हालात उससे भी ज्यादा खतरनाक है। लखनऊ में बोर्ड के मेंबर मौलाना कल्बे जव्वाद की अगुवाई में प्रदर्शन हुआ।

सैफुल्लाह रहमानी, उबैदुल्ला आजमी, कल्बे जव्वाद, असदुद्दीन ओवैसी, इमरान मसूद जैसे तमाम नेताओं ने मुसलमानों को ये समझाने की कोशिश की है कि वक्फ बिल में अगर संशोधन हुआ तो उनकी प्रॉपर्टी छिन जाएगी, मदरसों और कब्रिस्तानों की जमीन सरकार ले लेगी। लेकिन बहुत कम मुसलमान ये जानते हैं कि वक्फ बिल का आम मुसलमानों की जायदाद से कोई लेना देना नहीं है। ओवैसी और रहमानी जो कह रहे हैं, मुसलमान उस पर यकीन इसीलिए करते हैं क्योंकि वक्फ बिल किसी ने नहीं पढ़ा।

सरकार का दावा ये है कि ये कानून सिर्फ वक्फ प्रॉपर्टी को रेगुलेट करने के लिए लाया जा रहा है. वक्फ बोर्ड जैसे पहले थे, वैसे ही रहेंगे। बस इतना फर्क आएगा कि जिस प्रॉपर्टी पर वक्फ बोर्ड ने हाथ रख दिया, वो उसकी नहीं हो पाएगी। वक्फ बोर्ड के लोग वक्फ प्रॉपर्टी का खुद-बुर्द नहीं कर पाएंगे। वक्फ बोर्ड में महिलाओं का प्रतिनिधित्व रहेगा। वक्फ बोर्ड की प्रॉपर्टी से कब्जा हटाने का रास्ता खुलेगा और अब तक इस मामले में वक्फ बोर्ड का जो एकाधिकार है, वो खत्म हो जाएगा।

सरकार का कहना है कि जो नया कानून बनेगा, उसमें वक्फ बोर्ड के फैसले को कोर्ट में चुनौती देने का अधिकार होगा। अब सवाल ये है कि इन प्रावधानों से मस्जिदें कैसे छिन जाएंगी? मदरसों और कब्रिस्तानों से मुसलमानों का कब्जा कैसे चला जाएगा ? हकीकत ये है कि जो कुछ लोग अब तक वक्फ की अरबों की प्रॉपर्टी पर कब्जा करके बैठे हैं, उसके जरिए करोड़ों रुपये कमाते हैं, उनका खेल खत्म हो जाएगा। इसीलिए वे परेशान हैं और यही लोग मुस्लिम भाइयों को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं। मामला वक्फ बोर्ड का है, लेकिन कोई मुसलमानों को बाबरी मस्जिद की याद दिला रहा है, कोई ज्ञानवापी की बात कर रहा है, कोई संभल की जामा मस्जिद का हवाला दे रहा है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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बाजार में एफआईआई कब लौटेंगे? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

भारतीय शेयर बाज़ार की क़िस्मत FII से जुड़ी रही है। विदेशी निवेशक पैसे लगाते हैं तो बाज़ार ऊपर जाता है और निकालते हैं तो नीचे। भारतीय शेयर बाज़ार में अब भी सबसे बड़े मालिक है।

Last Modified:
Monday, 10 March, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

भारतीय शेयर बाज़ार में पिछले पाँच महीनों में 15% से ज़्यादा गिरावट आयी है। इस गिरावट का कारण है विदेशी निवेशक यानी Foreign Institutional Investors जो शेयर बेच ज़्यादा रहे हैं और ख़रीद कम रहे हैं। इस साल अब तक डेढ़ लाख करोड़ रुपये के शेयर बेच चुके हैं। म्यूचुअल फंड से जैसे Domestic Institutional Investor (DII) ख़रीद कर भरपाई कर रहे हैं। फिर भी बाज़ार को उठा नहीं पा रहे हैं।

भारतीय शेयर बाज़ार की क़िस्मत FII से जुड़ी रही है। विदेशी निवेशक पैसे लगाते हैं तो बाज़ार ऊपर जाता है और निकालते हैं तो नीचे। भारतीय शेयर बाज़ार में अब भी सबसे बड़े मालिक है। उनके पास 17% शेयर है। लगभग इतने ही शेयर DII के पास है। आने वाले समय में DII आगे भी निकल सकते हैं। पिछले 6 महीनों में FII ने 3.23 लाख करोड़ रुपये के शेयर बेचे हैं जबकि DII ने 3.37 लाख करोड़ रुपये की ख़रीदारी की है।

इसका कारण है Systematic Investment Plan ( SIP) से आने वाला पैसा। यह पैसा जब तक आता रहेगा तब तक विदेशी निवेशकों का माल म्यूचुअल फंड ख़रीद सकते हैं। यह सिलसिला धीमा पड़ा तो बाज़ार में और दिक़्क़त हो सकती है। तो अब लौटते हैं बिलियन डॉलर सवाल पर, FII को वापस बुलाने के लिए माँग उठ रही है कि कैपिटल गेन्स टैक्स ख़त्म किया जाए।

विदेशी निवेशक किसी देश में यह टैक्स नहीं देते हैं इसलिए भारत भी ना लगाएँ। Helios Capital के फाउंडर समीर अरोड़ा का वीडियो वायरल है जिसमें वो बता रहे हैं कि सरकार को इससे 2023 में 82 हज़ार करोड़ रुपये मिले हैं जबकि शेयर बाज़ार में विदेशी निवेशकों की बिकवाली के कारण 1 लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा का नुक़सान हो चुका है।

सरकार इसे हटा देती है तो विदेशी निवेशकों को राहत मिलेगी। एक अनुमान के मुताबिक़ FII भारत में ₹100 लगाते हैं और ₹10 कमाते हैं तो लाँग टर्म कैपिटल गेन्स टैक्स में ₹1.25 कट जाएँगे और शॉर्ट टर्म टैक्स लगने पर ₹2 कटेंगे। सरकार यह माँग तुरंत मान लेगी ऐसा नहीं लगता है। सरकार इनकम टैक्स में कटौती कर चुकी है जिससे क़रीब ₹1 लाख करोड़ का नुक़सान होने का अनुमान है। तो फिर FII कैसे लौटेंगे? तो इसका जवाब है जिन कारणों से उन्होंने बिकवाली की है उसमें जब बदलाव होगा। तीन मुख्य कारण हैं। कमजोर अर्थव्यवस्था : अगले साल GDP ग्रोथ 6.3% रहने का अनुमान है, जिससे कंपनियों के मुनाफ़े बढ़ सकते हैं।

महंगे शेयर : मुनाफ़े में गिरावट से शेयर महंगे हो गए हैं। दो ही रास्ते हैं, या तो शेयर 10-15% और गिरें या फिर कंपनियों की कमाई बढ़े। रुपये की गिरावट : पिछले एक साल में रुपया 3% गिरा है। जब FII बिकवाली कर निकलते हैं, तो उन्हें रुपये मिलते हैं, जिन्हें डॉलर में बदलने पर घाटा होता है। इस सबके बीच अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों ने बाज़ारों को अनिश्चितता में डाल रखा है।

पता नहीं कौनसा फ़ैसला कब करेंगे या पलट देंगे। ऐसे में विदेशी निवेशकों को अमेरिका बॉन्ड में निवेश सेफ़ लगता है। 4-5% रिटर्न मिल जाता है। फिर चीन का बाज़ार है। विदेशी निवेशकों को सस्ता लग रहा है, इसलिए वहाँ पैसे लगा रहे हैं। ऐसे में जानकार कहते हैं कि FII भारत में लौटेंगे ज़रूर लेकिन वापसी में 3 से 6 महीने लग सकते हैं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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साहित्यकारों से समय का छूटता सिरा: अनंत विजय

साहित्योत्सव के उद्घाटन भाषण में संस्कृति मंत्री ने भले ही अंत में कुछ मिनट इस विषय को दिया लेकिन इसकी गूंज लंबे समय तक साहित्य जगत में रहनेवाली है।

Last Modified:
Monday, 10 March, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

दिल्ली के रविन्द्र भवन में साहित्य अकादेमी का साहित्योत्सव चल रहा है। अकादमी का दावा है कि ये साहित्य उत्सव एशिया का सबसे बड़ा उत्सव है। कार्यक्रम की संरचना से इसकी विशालता का अनुमान लगाया जा सकता है। पिछले चार दशकों से साहित्य अकादेमी ये आयोजन करती रही है। जबसे के श्रीनिवासराव अकादमी के सचिव बने हैं तब से ये आयोजन निरंतर समृद्ध हो रहा है, लेखकों की भागीदारी के स्तर पर भी और विषयों के चयन में भी।

साहित्योत्सव का शुभारंभ केंद्रीय संस्कृति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत ने किया। विभिन्न भारतीय भाषा के साहित्यकारों और लेखकों की उपस्थिति में करीब आधे घंटे के भाषण में शेखावत ने कई महत्वपूर्ण बातें कहीं। साहित्य का सृजन करनेवालों की प्रशंसा, उत्सवधर्मिता का हमारे समाज में महत्व, सामूहिक चिंतन की भारतीय परंपरा, भारत के भविष्य और उसकी प्रासंगिकता पर शेखावत ने अपनी बात रखी। साहित्यकारों की भूमिका को बेहद सम्मानपूर्वक याद किया।

साहित्य की जीवंतता और गतिशीलता, भारत की विविधताओं का साहित्य में स्थान, देश को एकता के सूत्र में निबद्ध करने में साहित्य की भूमिका जैसे विषयों को संस्कृति मंत्री ने अपने व्याख्यान में छुआ। साहित्य समाज का दर्पण है से आगे जाकर शेखावत ने कहा कि हमारा साहित्य केवल समाज के वर्तमान का दर्पण नहीं अपितु भारत के दर्शन, भारत के धर्म, भारत की नीति, भारत का प्रेम, भारत का युद्ध, भारत की स्थापत्य कला और भारत के समाज जीवन से जुड़ी बातों की व्याख्या भी है। यहीं पर उन्होंने बौद्धिक प्रदूषकों की भूमिका पर टिप्पणी तो की लेकिन लगा जैसे उनको बहुत महत्व नहीं देना चाहते हैं।

अच्छी-अच्छी बातों के बाद संस्कृति मंत्री शेखावत ने उपस्थित साहित्यकारों के सामने विनम्रता से एक चुनौती रखी। साहित्यकारों और लेखकों का आह्वान किया कि वो परिवर्तन के वर्तमान दौर को अपने लेखन का विषय बनाएं। परिवर्तन के कारक के रूप में खुद को इस तरह से अनुकूलित करें कि आनेवाली पीढ़ी उनका स्मरण करे। शेखावत ने कहा कि आज भारत नई करवट ले रहा है।

पूरे विश्व में भारत की नई पहचान बन रही है। पिछले 10 वर्षों में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत से जिस तरह और जिस गति के साथ प्रगति की है, केवल आर्थिक दृष्टिकोण से ही नहीं इससे इतर भी, उससे पूरे विश्व में भारत का सम्मान नए सिरे से गढ़ा और लिखा जा रहा है। सम्मान बढ़ने के साथ भारत के ज्ञान की, भारत के विज्ञान की, भारत के योग की, भारत की संस्कृति की, आयुर्वेद की, जीवन पद्धति की, भारत की कृषि परंपराओं पर नए सिरे पूरे विश्व में पहचान सृजित हो रही है। ऐसे महत्वपूर्ण समय में हमारे साहित्य सर्जकों की, कलम के धनी लोगों की प्रासंगिकता महत्वपूर्ण हो जाती है।

जब कोई समाज या राष्ट्र समपरिवर्तन से गुजरता है, जब संभवनाएं द्वार पर दस्तक देती हैं, तो हर घटक की जिम्मेदारी बनती है कि वो बदलाव के पहिए को गति प्रदान करने का माध्यम बने। शेखावत बोले कि हम सौभाग्यशाली हैं कि हम सबको ऐसे समय में जीने और काम करने का अवसर मिला है जब भारत इस तरह के समपरिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। पूरा विश्व स्वीकार कर रहा है कि भारत विकसित होने की दिशा में काम कर रहा है। भारत विश्व का बंधु बनकर नेतृत्वकर्ता बनने वाला है। ऐसे महत्वपूर्ण समय में समाज के सबसे महत्वपूर्ण तबके को भी अपनी जिम्मदारी का एहसास करके अपनी भूमिका का निर्वहन करना चाहिए।

अंत में गजेन्द्र सिंह शेखावत ने कहा कि वो ऐसा नहीं कह रहे, कहने की धृष्टता भी नहीं कर सकते कि आज के साहित्यकार बदलाव को लक्षित कर लिख नहीं रहे। उन्होंने अवसर का लाभ उठाते हुए लेखकों से अनुरोध कर डाला कि समय की महत्ता को पहचान कर देश को एक साथ, एक विचार, एक मन, एक संकल्प लेकर एक पथ पर आगे ले चलें, ताकि उसपर गर्व किया जा सके। शेखावत ने स्वाधीनता संग्राम में साहित्यकारों और लेखकों की भूमिका को याद किया। कहा कि आज से सौ डेढ़ सौ साल पहले जिन लोगों ने अंग्रेजों की सत्ता के खिलाफ संघर्ष किया था उनके पास भी वो अवसर था।

जिन्होंने मुगलों की सत्ता से लोहा लिया उनके पास भी अवसर था। अवसर के अनुरूप आचरण के कारण उनका नाम हम गर्व से लेते हैं। आज भी अपने रक्त में उनके नाम को सुनकर स्पदंन महसूस करते हैं। मैं आज ये बात जिम्मेदारी के साथ कह रहा हूं भारत परिवर्तित होगा। 50 साल बाद जब इस परिवर्तन का इतिहास लिखा जाएगा तो मैं चाहूंगा कि आपका नाम भी उतने ही सम्मान के साथ आनेवाली पीढ़ी स्मरण करते हुए गर्व करे जिस गर्व की अनुभूति सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के स्मरण से होती है।

साहित्योत्सव के उद्घाटन भाषण में संस्कृति मंत्री ने भले ही अंत में कुछ मिनट इस विषय को दिया लेकिन इसकी गूंज लंबे समय तक साहित्य जगत में रहनेवाली है। आज साहित्यकारों और लेखकों के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती है वो है अपने समय को ना पकड़ पाने की है। पटना में आयोजित जागरण बिहार संवादी के दौरान उपन्यासकार रत्नेश्वर ने एक सत्र में इस बात को रेखांकित किया था कि आज के लेखक अपने समय में घटित हो रहे बदलाव को या तो पकड़ नहीं पा रहे हैं या जानबूझकर उसकी अनदेखी कर रहे हैं। उन्होने जोर देकर कहा था कि ये अकारण नहीं है कि आज बड़े पाए के न तो कहानीकार सामने आ रहे हैं और ना ही उपन्यासकार।

घिसी पिटी लीक पर चलने से पाठक विमुख होते जा रहे हैं। समय का हाथ छूट जाने का दुष्परिणाम है कि आज उपन्यासों की महज पांच सौ प्रतियां छप रही हैं। कविता संग्रह के प्रकाशन के लिए कम ही प्रकाशक उत्साह दिखाते हैं। हाल ही में प्रयागराज में संपन्न महाकुंभ को केंद्र में रखकर अनिल विभाकर ने जलकुंभियां नाम से एक कविता लिखी।

इस कविता में अनिल विभाकर ने लिखा, जलकुंभियों का महाकुंभ पसंद नहीं/ कोई नहीं करता जलकुंभियों की चिंता/कोई कर भी नहीं रहा/चिंता करे भी तो कोई क्यों/हमेशा गंदे जल में पनपती हैं वे/निर्मल जल भी सड़ जाता है इनके संसर्ग में/पानी फल और मखाना की दुश्मन होती है जलकुंभियां/इन्हें साफ करना ही पड़ेगा/जहां-जहां भी है जल/लोग लगाएंगे मखाना, उगाएंगे पानी फल। इस कविता में अनिल विभाकर ने महाकुंभ की अकारण आलोचना करनेवालों पर प्रहार किया है। वो कहते हैं कि इन्हें साफ करना ही पड़ेगा। निहितार्थ स्पष्ट है।

इस कविता के सामने आने के बाद अनिल विभाकर की आलोचना आरंभ हो गई। देखा जाए तो विभाकर समाज मानस में हो रहे परिवर्तन को पकड़ने और उसको लिखने का प्रयास कर रहे हैं। आज भारतीय समाज में जिस तरह के परिवर्तन हो रहे हैं क्या वो साहित्य का विषय बन पा रहे हैं? इस पर चर्चा होनी चाहिए। संस्कृति मंत्री ने साहित्य अकादेमी के मंच से लेखकों से इस परिवर्तन को पकड़ने और परिवर्तन का सारथी बनने का आह्वान किया। अगर ऐसा हो पाता है तो ना केवल भारतीय साहित्य का भला होगा बल्कि लेखकों को समाज जीवन से जुड़ने और समाज के मन को सामने लाने का अवसर भी मिल सकेगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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आतंकियों के साथ शहरी नक्सलियों पर नियंत्रण का अभियान: आलोक मेहता

जहां पहले देश के करीब सौ जिलों में नक्सली आतंक था, वहाँ अब करीब दो दर्जन जिलों तक सीमित रह गया है। लेकिन अब अर्बन नक्सल के खतरे अधीक बढ़ गए हैं।

Last Modified:
Monday, 10 March, 2025
aalokmehta

आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार, पद्मश्री, लेखक।

लंदन में विदेश मंत्री एस जयशंकर पर खालिस्तान समर्थक समूह द्वारा हमले की कोशिश पर भारत सरकार ने गंभीर चिंता व्यक्त की है। कथित खलिस्तान के नाम पर ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका जैसे देशों में कुछ आतांकवादी समूह न केवल सक्रिय हैं बल्कि कथित मानव अधिकार के नाम पर कुछ अंतरराष्ट्रीय संगठन और राजनीतिक दल के नेता भी उनका समर्थन करते हैं।

ब्रिटेन में लेबर पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रतिपक्ष में रहकर वोट बैंक के लिए या भारत को कमजोर देखने के लिए उनका समर्थन करते रहे हैं। अब लेबर पार्टी सत्ता में हैं और वह भारत के साथ अच्छे संबंधों के लिए प्रयासरत है। ऐसी स्थिति में भारत का कड़ा विरोध आवश्यक है। लेकिन भारत में भी पाकिस्तान तथा अन्य देशों के माध्यम से फन्डिंग पा रहे कथित खालिस्तानी आतंकी अथवा नक्सली अब भी कुछ इलाकों में समय समय पर हमले की कोशिश करते हैं। उत्तर प्रदेश और पंजाब पुलिस के समूह ने इसी सप्ताह खालिस्तानी आतंकी संगठन बब्बर खालसा इंटरनेशनल तथा पाकिस्तानी आई एस आई के सदस्य लजर मसीह को महाकुंभ में आतंकी वारदात की साजिश के सबूतों के साथ गिरफ्तार किया है।

यहाँ भी चिंता कि बात यही है कि मानव अधिकार के नाम पर कुछ राजनीतिक दल भी आतंक के आरोपियों और नक्सली गतिविधियों में सक्रिय अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग दे रहे लोगों का समर्थन करते हैं। इसी संदर्भ में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बात पर देश का ध्यान दिलाया है कि कुछ प्रदेशों के जंगलों में सक्रिय नक्सलियों पर नियंत्रण और उनके आत्मसमर्पण में सरकार और सुरक्षाबलों को बहुत हद तक सफलता मिली है। जहां पहले देश के करीब सौ जिलों में नक्सली आतंक था, वहाँ अब करीब दो दर्जन जिलों तक सीमित रह गया है।

लेकिन अब अर्बन नक्सल के खतरे अधीक बढ़ गए हैं। आतंकी और नक्सल गतिविधियों में शामिल तत्वों को उन राजनीतिक दलों का समर्थन मिल रहा है जो स्वयं उनकी गतिविधियों के शिकार रहे हैं। वे कभी महात्मा गांधी की विचारधारा को आदर्श मानते रहे लेकिन अब वे हिंसक गतिविधियों वाले तत्वों का समर्थन करने लगे हैं। यहाँ तक कि ऐसे राजनीतिक दलों के नेता अथवा प्रगतिशील कहने वाले बुद्धिजीवियों के समूह उनसे सहानुभूति रख रहे हैं। जबकि हिंसा और अलगाववाद में सक्रिय लोग विकास और विरासत के घोर विरोधी हैं।

प्रधानमंत्री की यह चिंता स्वाभाविक हैं क्योंकि अमेरिका तथा अन्य देश आतंक और हिंसा के खिलाफ विश्व अभियान में भारत को आदर्श भूमि की तरह देखना चाहते हैं। अंतर राष्ट्रीय शांति प्रयासों में भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जाता है। शहरी नक्सल पर चिंता का मुद्दा पहली बार नहीं उठा है। कॉंग्रेस राज में गृह मंत्री रहे पी चिदंबरम ने पश्चिम बंगाल में नक्सलवादियों द्वारा सुरक्षा बलों के शिविर पर कातिले हमले के बाद स्वयं कहा था कि “मानवधिकारवादी ऐसी नक्सली हिंसा की निंदा तो करें। किसी भी नागरिक अधिकार संगठन या वामपंथी बुद्धिजीवियों की जमात ने इस गंभीर हत्या की घटना पर भी एक शब्द आलोचना का नहीं कहा।“

इस दृष्टि से अब काँग्रेस पार्टी प्रतिपक्ष में रहकर ऐसे तत्वों का समर्थन कर रही है। गृह मंत्री अमित शाह ने पिछले दिनों स्पष्ट रूप से यह घोषणा भी कर दी है कि भारत सरकार 2026 तक नक्सलियों के आतंक को पूरी तरह समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध है। दूसरी तरफ राहुल गांधी न केवल भारत में बल्कि अमेरिका और यूरोप तक की यात्राओं के दौरान भारतीय संविधान और मानव अधिकार हनन कि स्थिति के आरोप लगा रहे हैं। वे तो उन मंचों पर भारत में सिक्खों के पगड़ी या कड़ा पहनने पर संकट तक के बेबुनियाद आरोप लगाते हैं।

इस तरह के बयानों का लाभ कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में सक्रिय भारत विरोधी आतंकी संगठनों को मिलता है। वहीं भारत में कुछ लेखक, वकील और पत्रकार प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से हिंसक गतिविधियों में शामिल लोगों तक की गिरफ़्तारी पर आपत्ति व्यक्त करते हैं। उनके लिए धन और कानूनी सहायता जुटाई जाती है। निश्चित रूप से इन आरोपों पर निर्णय अदालत तय करती है लेकिन कानूनी कार्रवाई महीनों और वर्षों तक चलती हैं।

आतंकी संगठन इस सहनुभूति का लाभ उठाकर शहरों मे अपने अड्डे बनाने लगे हैं। माववादी पहले छपी हुई सामग्री का इस्तेमाल करते रहे और अब टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर भारत विरोधी गतिविधियों को सही ठहराने लगे हैं। वर्षों पहले देश के एक वरिष्ठ पत्रकार अमूल्य गांगुली ने कहा था कि “ऐसे बुद्धिजीवियों को लेनिन कि परिभाषा के अनुसार “यूजफुल ईडियट” कहा था, जो यह जानते हुए भी कम्युनिष्टों के प्रति व्याकुल रहते है कि उनका लक्ष्य कथित सड़ चुकी बुरजुवा व्ययस्था को उखाड़ फेंकना है।“ दुर्भाग्य की बात यह है कि दिल्ली, मुंबई से लेकर पंजाब, हिमाचल जैसे क्षेत्रों में फैले ऐसे अर्बन नक्सल हथियारबंद हिंसा को भी आतंककवादी गतिविधि नहीं मानते हैं।

वे इस हिंसा को सुरक्षाबलों को “खाकी आतंकवाद” की संज्ञा देते हैं। अर्बन नक्सल के समर्थन और शरण मिलने से नक्सली सरकारी गवाह बने पूर्व साथियों, पुलिस और सुरक्षा बालों को वर्ग शत्रु कहकर निशाना बनाते हैं। अर्बन नक्सल समूह वास्तव में भारतीय संस्कृति और विरासत का ही विरोध नहीं करते, वरन विकास का भी विरोध करते हैं।

इसीलिए छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखंड, हिमाचल जैसे प्रदेशों में औद्योगिक विकास के विरुद्ध आंदोलनों को प्रोत्साहित किया जाता है। महाराष्ट्र और तमिलनाडु में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के विरुद्ध धरने और आंदोलन चलाए जाते हैं। आदिवासी महिलाओं के हितों की बात करने वाले संभवतः इस बात पर भी ध्यान नहीं देते कि माववादी नक्सली अथवा खालिस्तानी आतंकवादी कुछ मासूम महिलाओं को बर्गलाकार अपने गिरोह में शामिल करते हैं और उनके साथ बाद में बलात्कार तक होता है। छतीसगढ़ में आत्मसमर्पण करने वाले ऐसे आदिवासी युवक युवतियों ने स्वयं कुछ वर्ष पहले एक इंटरव्यू के दौरान मुझे इन ज्यादतियों की वीभत्स दास्तान सुनाई थी।

सरकार जहां अब भी नक्सलियों से आत्मसमर्पण की अपील भी कर रही है वहाँ एन जी ओ के नाम पर फन्डिंग पर नियंत्रण के प्रयासों को अदालतों में चुनौती दी जा रही है। पिछले दो-तीन वर्षों में अर्बन नक्सल भारतीय चुनाव व्यवस्था पर भी प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं और पराजित होने वाले राजनेता भी उनकी भाषा बोलने लगे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने भी देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए नक्सलियों को सबसे बड़ा खतरा बताया था।

विडंबना यह है कि झारखंड मुक्ति मोर्चा कभी नक्सली हिंसा से परेशान था और सख्ती से निपटने की बात करता था लेकिन सत्ता में आने के बाद शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन परिवार तथा पार्टी कहने लगी कि शिव शक्ति से मुकाबला नहीं किया जा सकता। नक्सलियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी। पश्चिम बंगाल और झारखंड में तो नक्सली खुद ही सत्ता में शामिल हो गए। चुनावी बहिष्कार के नक्सली प्रयासों और अर्बन नक्सल के दुष्प्रचार के बावजूद छत्तीसगढ़ और जम्मू कश्मीर जैसे राज्यों में चुनाव के दौरान भारी मतदान हुआ। बहरहाल यह लड़ाई लंबी है और इस पर नियंत्रण के लिए सरकार और समाज को हरसंभव अभियान चलाने होंगे।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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