मिलिंद खांडेकर ने बताया, क्या है GDP ग्रोथ का सच! पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

भारत की अर्थव्यवस्था 2022-23 में 7.2% की रफ्तार से बढ़ी। ये चमत्कार कैसे हुआ?

Last Modified:
Monday, 05 June, 2023
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वरिष्ठ पत्रकार मिलिंद खांडेकर 'टीवी टुडे नेटवर्क' के 'तक चैनल्स' के मैनेजिंग एडिटर हैं और हर रविवार सोशल मीडिया पर उनका साप्ताहिक न्यूजलेटर 'हिसाब किताब' प्रकाशित होता है। इस सप्ताह मिलिंद खांडेकर ने भारत की अर्थव्यवस्था मापने वाले GDP के आंकड़ो को लेकर बात की है।

उन्होंने लिखा, भारत की अर्थव्यवस्था मापने वाले GDP के आंकड़े इस हफ्ते खुशखबरी लेकर आएं। भारत की अर्थव्यवस्था 2022-23 में 7.2% की रफ्तार से बढ़ी। ये चमत्कार कैसे हुआ? रिजर्व बैंक का अनुमान था कि पिछले वित्त वर्ष की आखिरी छमाही में ग्रोथ घट सकती है। रिजर्व बैंक महंगाई कम करने के लिए लगातार ब्याज दर बढ़ा रहा था। 

बाकी दुनिया में भी मंदी के बादल मंडराने लगे थे। ये अनुमान सही लग रहा था क्योंकि अक्टूबर से दिसंबर की तिमाही में ग्रोथ 4.1% रही थी। आखिरी तिमाही में सबका अनुमान था कि 5.1% ग्रोथ रहेगी इसके विपरीत ग्रोथ 6.1% रही। इसका मतलब हुआ कि पूरे साल की ग्रोथ 7.2% हो गई। कंस्ट्रक्शन, खेतीबाड़ी, होटल जैसे सेक्टर में तेजी रही।

अच्छी खबर यहीं खत्म हो जाती है। हम पहले भी बता चुके हैं कि GDP तीन खर्च को मिल कर बनता है। सरकार, कंपनियां और हम आप जैसे लोगों का खर्च यानी प्राइवेट खर्च। सरकार और कंपनियों ने निवेश तो बढ़ाया है, जनता फिर भी जेब ढीली नहीं कर रही है।

जनता के खर्च बढ़ने की रफ्तार कम हुई है। यही सबसे बड़ी चिंता का कारण है। सरकार सड़कों और रेलवे पर मोटा पैसा लगा रही है उसका फायदा दिख रहा है। कंपनियों ने भी खर्च बढ़ाया है और जानकारों का कहना है कि महंगाई की वजह से जनता खर्च करने से बच रही है।

हम इस बात पर खुश हो सकते हैं कि भारत सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। आकार में भी दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था है। सवाल उठता है कि फिर जनता खर्च क्यों नहीं कर रही हैं? जनता के हाथ में पैसे क्यों नहीं पहुंच रहे हैं? इसका जवाब है हमारी प्रति व्यक्ति आय। अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय हमसे 40 गुना ज़्यादा है, ब्रिटेन की 16 गुना और चीन की 5 गुना।

इंडियन एक्सप्रेस में छपा है कि बाकी देश की ग्रोथ जीरो कर दें तब भी हमें अमेरिका के लेवल पर पहुंचने के लिए 25 साल लगेंगे। हमें हर साल 15% से ग्रोथ करना पड़ेगी यानी 7.1% ग्रोथ अच्छी है लेकिन अच्छे दिन लाने के लिए काफी नहीं है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक 'टीवी टुडे ग्रुप' में कार्यरत हैं)

 

 

 

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महिला कल्याण के मामले में मोदी का अच्छा ट्रैक रिकॉर्ड है: रजत शर्मा

कोई भी सरकार होती, महिला आरक्षण बिल को संसद से पास करवाकर तुरंत लागू करना संभव नहीं था। विपक्ष सरकार की मजबूरियां समझता है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Saturday, 23 September, 2023
Last Modified:
Saturday, 23 September, 2023
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रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ ।।

लोकसभा में नेताओं के बयान सुनेंगे, तो साफ हो जाएगा कि महिला आरक्षण लागू करना कितना मुश्किल काम था, ये मामला 27 साल से क्यों लटका था। मोदी सरकार ने जो बिल पेश किया है, उसमें कहा गया है कि नारी शक्ति वंदन बिल संसद में पास होने के बाद जनगणना होगी, फिर परिसीमन आयोग बनेगा। वही आयोग तय करेगा कि लोकसभा और विधानसभाओं की कौन-कौन सी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। बिल के इसी प्रावधान को विरोधी दलों के नेताओं ने पकड़ा, सरकार की नीयत पर सवाल उठाए।

कहा कि अगर सरकार की मंशा साफ है तो महिलाओं को तुरंत आरक्षण क्यों नहीं देती, इसमें देर करने की क्या जरूरत है। परिसीमन आयोग के नाम पर इस मामले को 2029 तक लटकाने की क्या जरूरत है? बिल पास होते ही महिलाओं को आरक्षण क्यों नहीं दिया जा सकता? जवाब में अमित शाह ने साफ शब्दों में कहा कि परिसीमन और सीटों का आरक्षण एक संवैधानिक प्रक्रिया है, और सरकार इसमें दखलंदाजी नहीं कर सकती। अमित शाह ने ये लेकिन जरूर कहा कि मोदी सरकार किसी के साथ नाइंसाफी नहीं होने देगी। विरोधी दल भी अच्छी तरह जानते और समझते हैं कि कोई भी सरकार होती, महिला आरक्षण बिल को संसद से पास करवाकर तुरंत लागू करना संभव नहीं था। विपक्ष सरकार की मजबूरियां समझता है।

संविधान के मुताबिक, परिसीमन 2026 से पहले नहीं हो सकता। संविधान में ये भी कहा गया है कि परिसीमन जनगणना के बाद ही होगा। परिसीमन आयोग ही लोकसभा और विधानसभाओं में सीटों की नई संख्या तय करेगा और महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें तय करना भी परिसीमन आयोग की जिम्मेदारी होगी। इसलिए ये सरकार की मजबूरी है कि 2026 से पहले कुछ नहीं कर सकती। अब तक तीन बार सीटों का परिसीमन हुआ है। तीनों बार कांग्रेस की सरकारें थी। इसलिए कांग्रेस के नेता ये बात अच्छी तरह जानते हैं। इसके बाद भी सोनिया गांधी समेत सभी विरोधी दलों के नेता कह रहे हैं कि सरकार की मंशा साफ नहीं है। ये समझने की जरूरत है कि आखिर आज सभी विरोधी दलों के नेता पिछड़े वर्ग की महिलाओं और जातिगत जनगणना की बात क्यों कर रहे हैं।

असल में  विरोधी दलों को लगता है कि विकास के नाम पर मोदी को हराना मुश्किल है, गरीब कल्याण योजनाओं के मुकाबले में भी वो नहीं ठहरेंगे, मोदी पर भ्रष्टाचार का इल्जाम भी नहीं लगा सकते। हिन्दू-मुसलमान की बात करके भी मोदी को नहीं घेर सकते। तो अब एक ही रास्ता बचता है, जाति का मुद्दा उठाया जाए। विरोधी दलों को लगता है कि वोट बैंक के लिहाज से पिछड़े वर्ग की संख्या सबसे ज्यादा है, इसलिए जातिगत जनगणना की बात करके पिछड़ों को भड़काया जाए। इसीलिए नीतीश कुमार ने बिहार में जाति जनगणना का मुद्दा उछाला। मोदी विरोधी मोर्चे की सारी पार्टियों को पूरा गणित समझाया, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी भागीदारी’ का नारा दिया। अखिलेश यादव तो पहले ही PDA को जीत का फॉर्मूला बताते हैं।

PDA का मतलब है, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक। अब कांग्रेस को भी ये बात समझ आ गई। इसीलिए राहुल और सोनिया गांधी ने भी जातिगत जनगणना की मांग की। लेकिन ये नरेन्द्र मोदी की चतुराई है कि तमाम विरोध और सवालों के बाद भी उन्होंने सभी विरोधी दलों को महिला आरक्षण बिल का समर्थन करने के लिए मजबूर कर दिया ।और ये बिल लोकसभा में बिना किसी विरोध के पास हुआ। इस बिल का समर्थन 454 सांसदों ने किया। सिर्फ दो सासदों ने इस बिल का विरोध किया। एक असदुद्दीन ओबैसी और दूसरे उन्हीं की पार्टी के सांसद इम्तियाज जलील। उनका विरोध का कारण था, मुस्लिम महिलाओं को आरक्षण क्यों नहीं दिया गया। ओवैसी ने आरोप लगाया कि महिला आरक्षण बिल सिर्फ सवर्ण जातियों को फायदा पहुंचाने के लिए लाया गया है।  

असल में कोई भी पार्टी देश की आधी आबादी को नाराज करने का जोखिम नहीं ले सकती। सबने अपना सियासी फायदा देखा लेकिन सबने इल्जाम लगाया कि नरेंद्र मोदी ये कानून राजनीतिक मकसद से लाए हैं। लेकिन अमित शाह ने बताया कि मोदी का महिला कल्याण के प्रति प्रतिबद्धता कोई आज का नहीं है। अमित शाह ने जो बताया उसे समझने की जरूरत है। मोदी जब बीजेपी के संगठन में थे तो उन्होंने पार्टी से ये प्रस्ताव पास करवाया था कि बीजेपी के पदाधिकारियों  में एक-तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिया जाय। गुजरात में जब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे, तो जो भी उपहार उन्हें मिलते थे, उनकी हर साल नीलामी होती थी और नीलामी से आने वाला पैसा गरीब लड़कियों की पढ़ाई पर खर्च किया जाता। जिस दिन मोदी ने गुजरात का मुख्यमंत्री पद छोड़ा, उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर जितनी भी सैलरी मिली थी, वो सारी उन्होंने लड़कियों की शिक्षा के लिए  दान कर दी।

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने महिलाओं के लिए शौचालय बनाने का बड़ा फैसला किया और इसका जिक्र कई बार हुआ है कि कैसे शौचालय बनने से महिलाओं की रोज़ की दिक्कतें कम हुई, उनकी सेहत और सुरक्षा दोनों सुनिश्चित हुई। इसी तरह मोदी ने चूल्हे की आग से होने वाले धुएं पर ध्यान दिया। इस त्रासदी से महिलाओं को बचाने के लिए उज्ज्वला योजना के तहत गैस कनेक्शन दिए। नल से जल योजना भी महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई क्योंकि गांव-देहात में महिलाओं की आधी ज़िंदगी पानी भरने में गुजर जाती थी।मुस्लिम महिलाओं के लिए तीन तलाक का कानून बनाया ।

अगर इस पृष्ठभूमि को देखें तो मोदी पर ये आरोप सही नहीं बैठता कि वह महिलाओं की चिंता सिर्फ चुनाव से पहले करते हैं। ये कहना कि महिला आरक्षण बिल सिर्फ उनके वोटों के लिए लाया गया, कमजोर तर्क है। एक बात मैं फिर कहना चाहता हूं कि कोई भी नेता, कोई भी पार्टी अगर लोक कल्याण के काम करके वोट मांगना चाहती है तो इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। महिला आरक्षण का कानून बनने से महिलाओं को देश की सत्ता में भागीदारी मिलेगी। लोकसभा औऱ विधानसभाओं में उनकी संख्या बढ़ेगी, उनके अधिकार बढेंगे, उनका मान बढ़ेगा। ये एक ऐसा फैसला है जिसका सबको स्वागत करना चाहिए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पीएम मोदी के कारण महिला सशक्तिकरण के नए अध्याय का बीजारोपण हुआ: मारिया शकील

27 साल और कई असफल प्रयासों के बाद, अटल बिहारी वाजपेयी और फिर डॉ. मनमोहन सिंह के बाद, महिला आरक्षण आखिरकार एक वास्तविकता है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Saturday, 23 September, 2023
Last Modified:
Saturday, 23 September, 2023
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मारिया शकील, एग्जिक्यूटिव एडिटर (नेशनल अफेयर्स) एनडीटीवी

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत ने महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें (33%) आरक्षित करने का कानून बनाकर इतिहास रचा है। इस पर 1996 से काम चल रहा है, जब एचडी देवेगौड़ा ने पहली बार विधेयक पेश किया था। 27 साल और कई असफल प्रयासों के बाद, अटल बिहारी वाजपेयी (4 प्रयास) और फिर डॉ. मनमोहन सिंह (2 प्रयास) के बाद, महिला आरक्षण आखिरकार एक वास्तविकता है, इसके लागू होने के 15 साल बाद तक यह रहेगा।

भारत में, स्वतंत्रता प्राप्ति के दिन से ही महिलाओं को मतदान का अधिकार देने, एक महिला प्रधानमंत्री, कई मुख्यमंत्रियों, संघीय और राज्य दोनों स्तरों पर मंत्रियों को चुनने के बावजूद, लोकसभा और यहां तक ​​​​कि विधानसभाओं में महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं था। यह सब तब बदल गया जब पीवी नरसिम्हा राव ने 1992-93 में एक कानून पारित किया, जिसमें ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक तिहाई पद आरक्षित किए गए।

आज, 15 लाख से अधिक महिलाएं जमीनी स्तर पर निर्वाचित होती हैं और शासन तंत्र में योगदान देती हैं। ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, यूएई, यूके और स्वीडन सहित 107 देशों ने सरकार में महिलाओं के लिए कोटा आरक्षित किया है। भारत भी इस सूची में शामिल हो गया है।

दिलचस्प बात यह है कि रवांडा, क्यूबा, ​​मैक्सिको, न्यूजीलैंड और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों में निचले सदनों में महिलाओं की भागीदारी सबसे अधिक 50% या उससे अधिक है। हालाँकि, 185 में से 134 देशों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 33% से कम है। और 91 देशों में महिलाओं की भागीदारी 25% से कम है।

भारत में लगभग 15% है। वह सब अब बदलने के लिए तैयार है। जनगणना और परिसीमन के बाद, जब महिला आरक्षण लागू होगा, तो भारत 33% महिला विधायकों को चुनेगा, जिनकी नीति निर्माण में निर्णायक भूमिका होगी।

इस प्रगतिशील कानून का श्रेय निस्संदेह पीएम मोदी को जाता है, जिन्होंने लंबे समय से लंबित विधेयक को साकार करने के लिए अपने पूर्ण जनादेश की शक्ति का लाभ उठाया है। महिला सशक्तिकरण के नये अध्याय का बीजारोपण हो चुका है।

( यह लेखिका के निजी विचार हैं )

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अब दुनिया देखेगी कि भारत की नारी देश की तकदीर कैसे बदलती है: रजत शर्मा

अब तो राजनीतिक दलों में इस बात की होड़ लगी है कि वो महिलाओं को आरक्षण देने के लिए कितने बेताब हैं।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Thursday, 21 September, 2023
Last Modified:
Thursday, 21 September, 2023
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रजत शर्मा, चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ, इंडिया टीवी।

गणेश चतुर्थी के पवित्र मौके पर देश के नये संसद भवन का श्रीगणेश हुआ और विघ्नहर्ता विनायक ने महिला आरक्षण के रास्ते की सारी बाधाएं भी दूर कर दी। पहले ही दिन महिला आरक्षण बिल पेश किया गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के नीति निर्माताओं में महिलाओं को उनका वाजिब हिस्सा देने का ऐलान किया। मोदी ने कहा कि उनकी सरकार लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं की तैंतीस प्रतिशत भागीदारी सुनिश्चित करेगी। महिला आरक्षण के लिए जो बिल पेश किया गया है, उसका नाम है, नारी शक्ति वंदन अधिनियम। कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने बिल लोकसभा में पेश किया। बुधवार को लोकसभा में दिन भर महिला सांसदों ने बढ चढ़कर बहस में भाग लिया। अब ये तय है कि ये विधेयक संसद के दोनों सदनों में लगभग सर्वसम्मति से पारित हो जाएगा। संविधान संशोधन होने के कारण इसे आधे से ज्यादा राज्य विधानसभाओं में पास कराना होगा।

उसके बाद गनगणना होगी, और फिर परिसीमन का कार्य होगा, और तभी संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित हो पाएंगी। अब महिला आरक्षण का विरोध मुद्दा नहीं, अब तो राजनीतिक दलों में इस बात की होड़ लगी है कि वो महिलाओं को आरक्षण देने के लिए कितने बेताब हैं। अब सब यही कह रहे हैं कि महिला आरक्षण का तो वो शुरू से समर्थन कर रहे थे। मोदी ने कहा कि ये ईश्वर की इच्छा है, ईश्वर की कृपा है कि लंबे समय से लटके, बड़े बड़े मुद्दों को, बड़े बड़े कामों के लिए भगवान ने उन्हें ही चुना है। अब ये साफ दिख रहा है कि महिला आरक्षण पर अब श्रेय लेने की होड़ शुरू हो गयी है। सब ये कह रहे हैं कि ये बिल मेरा है। जो बिल पेश किया गया उसमें साफ कहा गया है कि लोकसभा और विधानसभाओं के साथ साथ केन्द्र शासित प्रदेश दिल्ली की विधानसभा में भी महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें रिजर्व की जाएगी।

अनुसूचित जाति, जनजाति की जो सीटें आरक्षित हैं, उनमें भी एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। फिलहाल लोकसभा की 543 सीटों में से 181 सीटें महिलाओं के लिए रिजर्व हो जाएंगी। इस 181 में से 28 सीटें अनुसूचित जाति और 15 सीटें अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित होगी। जब संसद की सीटों का परिसीमन होगा, तो महिलाओं के लिए रिज़र्व सीटों की संख्या और बढ़ जाएगी। पहले आरक्षण 15 साल के लिए लागू होगा। पंद्रह साल बाद इसकी समीक्षा होगी और महिलाओं के लिए रिज़र्व सीटों को रोटेट किया जाएगा।

इसमें तो कई शक नहीं है कि आरक्षण लागू होने के बाद देश के फैसलों में महिलाओं की भूमिका अहम होगी, महिलाओं की ताकत बढ़ेगी, इसीलिए देश की आधी आबादी में इस विधेयक लेकर जबरदस्त उत्साह और जोश है। और यही वजह है कि सभी राजनीतिक पार्टियां इसका श्रेय लेने की कोशिश कर रही है। महिला आरक्षण बिल की आलोचना करने वाले कई तरह की बातें कह रहे हैं। किसी ने कहा कि ये बिल वोटों के लिए लाया गया। महिलाएं मोदी को वोट दें, इसीलिए ये कानून बनाया जा रहा है। मेरा कहना है कि इसमें तकलीफ किस बात की है? क्या राजनीतिक दल चुनाव लड़ने के लिए नहीं बनते? क्या पार्टियां वोट पाने के लिए काम नहीं करती? और अगर कोई अच्छा काम करके, महिलाओं के सशक्तिकरण के नाम पर वोट मांगता है, तो इसमें बुरा क्या है?

कांग्रेस भी जो दावा कर रही है कि ऐसा बिल पहले वो लेकर आई थी, ममता बनर्जी अगर कहती हैं कि ये उनका आइडिया था, तो ये सब भी तो वोटर का दिल जीतने के लिए कह रहे हैं। कुछ Cynics कहते हैं कि आरक्षण से कुछ नहीं होगा। पंचायतों में भी 50 प्रतिशत आरक्षण है। महिलाएं चुनाव जीततीं हैं, लेकिन पति उनके नाम पर पंचायत चलाते हैं। गाड़ी पर लिखते हैं ‘पति सरपंच’, लेकिन ये पुराने जमाने की बातें हैं। अब वक्त बदल गया है। अगर आंकड़े देखें, तो पत्नी के नाम पर पंचायत चलाने वाले मामले अब गिने चुने है।

ज्यादातर जगहों पर महिलाएं पंचायत चलाती हैं, फैसले लेती हैं और लोकसभा और विधानसभा में जो महिलाएं चुन कर आईं, वहां एक भी ऐसा मामला नहीं मिला, जहां महिलाओं ने स्वतंत्र हो कर अपना काम ना किया हो। ये महिलाएं सशक्तिकरण की मिसाल हैं। एक तर्क ये दिया जा रहा है कि कानून तो बन जाएगा, पर इसे लागू करने में कई साल लग जाएंगे, जनसंख्या की गिनती होगी, फिर सीटों का परिसीमन होगा। तब कहीं जाकर ये कानून लागू हो पाएगा। मेरा कहना ये है कि महिला आरक्षण कानून का इरादा सिर्फ इसीलिए तो नहीं छोड़ा जा सकता कि इसमें वक्त लगेगा। महिलाओं ने 27 साल इंतजार किया है। अब कम से कम ये प्रॉसेस तो शुरू होगा और मोदी का पिछले साढे़ 9 साल का रिकॉर्ड बताता है कि वो हर काम को जल्दी करने का रास्ता निकाल लेते हैं।

मुझे लगता है कि छोटी मोटी बातों के फेर में न पड़कर सबको मानना चाहिए कि आज का दिन नारी शक्ति के लिए ऐतिहासिक है। एक अच्छा कानून बन रहा है।  ज्यादा महिलाओं को कानून बनाने वालों में शामिल किया जाए और फिर दुनिया देखेगी कि भारत की नारी, भारत की तकदीर कैसे बदलती है। इसीलिए राजनीतिक पार्टियां भले ही महिला आरक्षण को लेकर अपने अपने हिसाब से बात कर रही हों, लेकिन देश की महिलाओं को इसकी कोई चिन्ता नहीं है क्योंकि जैसे ही संसद में नारी शक्ति वंदन विधेयक पेश हुआ, देश भर में महिलाओं ने जश्न मनाया।

( यह लेखक के निजी विचार हैं)

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कनाडा अब अपनी बोई फसल काट रहा है: राजेश बादल

ताजा घटनाक्रम के चलते कनाडा ने भारतीय दूतावास के राजनयिक पवन कुमार राय को निष्कासित कर दिया है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Thursday, 21 September, 2023
Last Modified:
Thursday, 21 September, 2023
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राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तम्भकार।

कोई देश जब अपना अयोग्य मुखिया चुनता है ,तो फिर उसकी गाड़ी पटरी से उतर जाती है। विकास की रफ्तार थम जाती है, समाज में सदभाव नहीं रहता और मौजूदा समस्याओं से निपटने में मुल्क नाकाम रहता है। जब तक नागरिकों को इस हक़ीक़त का पता चलता है,तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप का उदाहरण सामने है। शी जिन पिंग जिस रास्ते पर अपने राष्ट्र को ले जा रहे हैं ,वह भी एक तरह से आत्मघाती है।पाकिस्तान के कई शासक अपनी जिद और स्वार्थ के चलते वहाँ के राष्ट्रीय हितों के साथ खिलवाड़ करते रहे हैं। कुछ कुछ इसी तर्ज़ पर कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो काम कर रहे हैं।वे अपने देश में नाक़ारा प्रधानमंत्री के तौर पर पहचान बना चुके हैं और अब

कनाडा में ही उनका व्यापक विरोध शुरू हो गया है। अपनी असफलताओं से ध्यान बँटाने के लिए ट्रुडो उन हरकतों पर उतर आए हैं, जो अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में गरिमावान नहीं मानी जातीं। ताजा घटनाक्रम के चलते कनाडा ने भारतीय दूतावास के राजनयिक पवन कुमार राय को निष्कासित कर दिया है। (जवाबी कार्रवाई में भारत ने भी कनाडा के एक राजनयिक को देश छोड़ने का आदेश दिया है) कनाडा की ओर से कहा गया है कि जून में हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद जांच के लिए यह जरूरी हो गया था।

निज्जर खालिस्तान समर्थक थे और भारत में आतंकवादी समूहों को उकसाते थे। कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया में एक गुरुद्वारे के सामने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई थी। जांच अभी जारी है और जस्टिन ट्रुडो साफ कहते हैं कि इसके पीछे भारत का हाथ है। अपनी  संसद में उन्होंने कहा, "हमारी जमीन पर कनाडाई नागरिक की हत्या के पीछे विदेशी सरकार का होना नामंजूर है। यह हमारी संप्रभुता का उल्लंघन है।उन नियमों के विरुद्ध है ,जिसके तहत लोकतान्त्रिक समाज चलते हैं "। इस भाषण का समर्थन कर सकते हैं,लेकिन जस्टिन ट्रुडो को बताना होगा कि कनाडाई नागरिक उनके जैसे ही संप्रभु और आजाद लोकतांत्रिक देश भारत को तोड़ने की साजिश में शामिल क्यों होते हैं ? यह भी पूछा जाना चाहिए कि कनाडाई निवासी भारतीय दूतावास पर हमले क्यों करते हैं? यह भी सवाल है कि कनाडाई सिख ,अन्य कनाडाई नागरिकों के पूजा स्थलों पर हमले क्यों करते हैं ? तब कनाडा के आजाद लोकतांत्रिक समाज की अवधारणा कहां गुम हो जाती है?

पूछा जाना चाहिए कि वर्षों तक कनाडा की धरती से जगजीत सिंह चौहान ने भारत के ख़िलाफ़ खालिस्तानी आंदोलन कैसे चलाया ? क्या यह एक संप्रभु राष्ट्र का दूसरे संप्रभु राष्ट्र के विरुद्ध षड्यंत्र नहीं था? भारत में तब इंदिरा गांधी जैसी सर्वशक्तिमान नेत्री हुआ करती थी। उस समय जगजीत सिंह चौहान को पूरी स्वतंत्रता क्यों कनाडा देता रहा? कनाडा और अमेरिका पाकिस्तान के रास्ते पंजाब के उग्रवादियों को हथियार भेजते रहे हैं। यह तथ्य छिपा नहीं है। जस्टिन ट्रुडो से जानने का हिंदुस्तान को हक़ है कि  कनाडाई नागरिकों ने इंडियन एयरलाइन्स के विमान में धमाका किया था, जिससे 329 बेकुसुर मुसाफिर मारे गए।

इस मामले में दो कनाडाई आतंकवादी रिहा कर दिए गए थे। कुछ की हत्या हो गई थी। एक को झूठी गवाही का दोषी माना गया था। तब किसी के विरुद्ध वहाँ की सरकार ने कार्र्रवाई क्यों नहीं की? उस समय कनाडा को भारत की संप्रभुता की चिंता क्यों नहीं हुई ? भारत के इन सवालों का कनाडाई प्रधानमंत्री के पास कोई उत्तर नहीं होगा ,लेकिन उन्हें विश्व समुदाय को यह जवाब जरूर देना होगा कि उनके लोकतंत्र में नागरिकों के साथ दो तरह के व्यवहार क्यों किए जाते हैं? जिस लोकतंत्र की दुहाई वे देते हैं ,वह सिर्फ़ उन्ही पर लागू क्यों होता है? जब वे कहते हैं कि भारत कनाडा के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करता है तो वे भूल जाते हैं कि किसान आंदोलन के दरम्यान उन्होंने कैसे बयान दिए थे।

जस्टिन ट्रुडो इस बयान तक ही सीमित रहते, बल्कि भारत के साथ मुक्त व्यापार की दिशा में बढ़े कदम भी वापस खींच लेते हैं।

यह निर्णय जस्टिन ट्रुडो ने समूह - बीस की बैठक  के दौरान भारतीय पक्ष की ओर से खालिस्तानी आंदोलन को कनाडा की सरकार के समर्थन का मुद्दा उठाए जाने के फ़ौरन बाद लिया। उनका विमान ख़राब हो गया। उन्होंने सदभावना पूर्वक भारतीय विमान उपलब्ध कराने की पेशकश को ठुकरा दिया। वे रूठे हुए दो दिन तक होटल में बैठे रहे। जब उनके विमान को ठीक करने वाला मैकेनिक कनाडा से आ गया और उसने विमान ठीक कर दिया तो जस्टिन कनाडा गए। उनके जाते ही वहां का वाणिज्य मंत्रालय औपचारिक ऐलान करता है कि द्विपक्षीय उन्मुक्त व्यापार की बातचीत रोक दी गई है। यक़ीनन यह जस्टिन की अपरिपक्वता और कूटनीतिक नासमझी का नमूना है। क्या कनाडा के प्रधानमंत्री भूल गए कि भारत में उनके देश की 600 से अधिक कंपनियां कारोबार कर रही हैं। दोनों मुल्क़ों के बीच पिछले साल चार अरब डॉलर का आयात और इतना ही निर्यात हुआ। यह बंद होने से भारत तो झटके को बर्दाश्त कर सकता है, लेकिन सिर्फ चार करोड़ की आबादी वाले कनाडा के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है।

भारत की जनसंख्या का केवल तीन फ़ीसदी आबादी वाला देश भारत को आँखें दिखा रहा है तो इसके पीछे किसी न किसी तीसरी ताक़त का हाथ होने की आशंका को नकारा नहीं जा सकती ।क्या भूल जाना चाहिए कि अमेरिकी रवैया भारत की कश्मीर नीति के विरोध में रहा है। राष्ट्रपति जो बाइडेन तथा उप राष्ट्रपति कमला हैरिस इस मुद्दे पर हिन्दुस्तान के कट्टर आलोचक रहे हैं।पंजाब और कश्मीर के आतंकवादियों को बरास्ते पाकिस्तान कनाडा तथा अमेरिकी मदद मिलती रही है। ऐसे में कनाडा का यह व्यवहार अप्रत्याशित नहीं है।भारत के लिए यह अतिरिक्त सावधानी का समय है।

(लोकमत से साभार)

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विज्ञापनों के माध्यम से मतदाताओं पर दबाब बनाकर जमीन तलाशने की कोशिश: मनोज कुमार

हैरानी इस बात की है कि चुनाव राजस्थान में हो या छत्तीसगढ़ में लेकिन वहां की सरकारें मध्य प्रदेश के अखबारों में अपनी उपलब्धियों का बखान कर रही हैं।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Wednesday, 20 September, 2023
Last Modified:
Wednesday, 20 September, 2023
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 मनोज कुमार, वरिष्ठ पत्रकार ।।

चुनाव की आहट के साथ ही विकास की चर्चा आरंभ हो जाती है। भारतीय लोकतंत्र में संविधान के मुताबिक सामान्य स्थितियों में प्रत्येक पांच वर्ष में चुनाव होता है, लेकिन कई बार स्थितियां अनुकूल नहीं होने के कारण चुनाव समय से पहले हो जाते हैं। इन असामान्य परिस्थितियों की बात छोड़ दें तो सामान्य परिस्थितियों में होने वाले चुनाव के एकाध साल पहले सत्तासीन सरकारें आम आदमी के सामने विकास का ढिंढोरा पीटने लगती हैं। हिन्दी प्रदेश मध्य प्रदेश सहित छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अगले तीन माह के भीतर चुनाव होना है और इसे होने को अपने पक्ष में बदलने के लिए विकास की ज्ञानगंगा विज्ञापनों की सूरत में आम आदमी तक पहुंचाने की कोशिश की जा रही है। अपनी-अपनी पार्टियों के विचारधारा को पीछे छोड़कर सबके सामने एक ही मुद्दा है कि हमने विकास की गंगा बहा दी है। इस विकास की गंगा में सत्ता से बाहर बैठे विपक्षी दल भी सत्ता दल को चुनौती के अंदाज में कह रहा है- 'मेरी कमीज, तेरी कमीज से सफेद कैसे?

आने वाले चुनाव में ऊंट किस करवट बैठेगा और कौन सी पार्टी को जनता सिंहासन सौंपने वाली है, इसका उत्तर समय के गर्भ में हैं, लेकिन युद्ध और प्रेम में सब जायज है कि तर्क पर चुनाव में भी इसे तर्कसिद्ध किया जा रहा है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में होने वाले चुनाव में सबसे ज्यादा चुनौती मध्य प्रदेश के सामने है। हालांकि राजस्थान और छत्तीसगढ़ राज्य की सत्तासीन दल के लिए भी आसान नहीं है। इम्पैक्ट फीचर और विज्ञापनों के जरिए जो उपलब्धियां बतायी जा रही हैं, वह कितने लोगों को लुभा पाएंगी, इस पर रिसर्च करने की जरूरत है। जिस देश में साक्षरता का प्रतिशत न्यूनतम हो, वहां छपे शब्दों से लोग सरकार की योजनाओं को जान लें, थोड़ा कठिन सा विषय है। हैरानी इस बात की है कि चुनाव राजस्थान में हो या छत्तीसगढ़ में लेकिन वहां की सरकारें मध्य प्रदेश के अखबारों में अपनी उपलब्धियों का बखान कर रही हैं। आखिर मध्य प्रदेश के मतदाताओं को इन राज्यों की उपलब्धियों से क्या लेना-देना, लेकिन राजनीति की समझ रखने वाले इसे मतदाताओं पर मानसिक दबाव बनाने की एक प्रक्रिया मानते हैं। वे इस प्रकार समझाते हैं कि मध्य प्रदेश सहित भाजपा शासित राज्यों में ओल्ड पेंशन स्कीम एक बड़ा मुद्दा है और नीतिगत कारणों से इन राज्यों में लागू ना हो सके लेकिन कांग्रेस शासित राज्यों में ओल्ड पेंशन स्कीम लागू है और जब ऐसे विज्ञापन मध्य प्रदेश के अखबारों में छपते हैं तो मतदाताओं के मन पर इसका असर होता है। यह और बात है कि इसका मतदान पर कितना क्या असर होता है या नहीं, इसके आंकलन का कोई आधार नहीं है।

पंजाब में विकास कितना और क्या हो रहा है, का गुणगान करती पंजाब सरकार भी एक अंतराल में मध्य प्रदेश की मीडिया में विज्ञापन दे रही है। पंजाब सरकार के इस कदम के बारे में राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि इन विज्ञापनों के माध्यम से मतदाताओं पर मानसिक दबाव बनाकर मध्य प्रदेश में आम आदमी पार्टी के लिए जमीन तलाश करना है। हालांकि इन विज्ञापनों में मध्य प्रदेश के लिए आम आदमी पार्टी का कोई रोडमैप स्पष्ट नहीं दिखता है। राजनीतिक विश्लेषक इस बात को भी गंभीरता से लेते हैं कि आम आदमी पार्टी की सरकार करीब नौ वर्षों से दिल्ली में है लेकिन वहां के विकास कार्यों का कोई विज्ञापन मध्य प्रदेश की मीडिया में नहीं दिख रहा है। दिल्ली के स्थान पर पंजाब को वजनदारी देने को लेकर कयास लगाये जा रहे हैं। आम आदमी पार्टी का स्थानीय निकाय में हस्तक्षेप हुआ है और सिंगरौली नगर निगम में आप की मेयर काबिज हैं। लेकिन विधानसभा चुनाव में आप पार्टी क्या वोटों का समीकरण बिगाडऩे का काम करेगी या स्वयं की मजबूत जमीन बना पाएगी, यह समय तय करेगा।    

मध्य प्रदेश में लम्बे समय से भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है। बीच के 18 महीने की कांग्रेस सरकार के कार्यकाल को छोड़ दें तो करीब-करीब 23 वर्षों से भाजपा की सरकार है। इसमें भी शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में 20 वर्षों से सरकार सत्तासीन है। स्वाभाविक है कि सरकार इतने लम्बे समय से सत्ता में है तो उसके पास गिनाने लायक उपलब्धियों का जखीरा भी होगा। इस मामले में आप निरपेक्ष होकर आकलन करें तो मध्य प्रदेश की ऐसी कई योजनाएं हैं जिनका अनुगामी दूसरे राज्य बने हैं। लोकसेवा गारंटी योजना एक ऐसी योजना है जो प्रशासन को कार्य करने के लिए समय का पाबंद करती है। मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना एक ऐसी योजना है जो राज्य के एक बड़े वर्ग को प्रभावित करती है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सूझबूझ के साथ इस योजना को लागू कर स्वयं को प्रदेश के बुर्जुगों का श्रवण कुमार के रूप में स्थापित कर दिया। लाडली लक्ष्मी योजना ने तो जैसे शिवराज सिंह के मामा होने की छवि को मजबूती के साथ स्थापित किया। किसान, निर्धन, आदिवासी और लगभग हर समुदाय-वर्ग के लिए योजनाओं का श्रीगणेश किया, जिससे उनकी सरकार की छवि एक कल्याणकारी राज्य की बनी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वयं ऐसी सादगी से रहते हैं कि हर कोई उन्हें अपना मानता है। वे नवीन योजना समय की जरूरत के अनुरूप लाते हैं और विरोधियों का मुंह बंद कर देते हैं। तिस पर वे अपनी इन योजनाओं को कभी मास्टर स्ट्रोक नहीं माना बल्कि वे इसे अपने परिवार की जरूरत के रूप में देखा। हालिया लाडली बहना स्कीम ने तो विरोधियों की नींद उड़ा दी है। बच्चियों के मामा, बुर्जुगों के श्रवण कुमार बने शिवराज सिंह अब लाडली बहनों के लाडले भाई बन गए हैं।

मध्य प्रदेश के चुनाव में मुख्य विरोधी दल कांग्रेस के वायदों को ना केवल उड़े बल्कि उनके वायदे से अधिक देने की कोशिश की है। फौरीतौर पर लोगों की राय में शिवराज सिंह सरकार का कार्यकाल संतोषजनक है लेकिन शिकायत यह है कि लम्बे समय तक काबिज नहीं रहना चाहिए। वे सरकार की सूरत बदलते देखना चाहते हैं। जो राजनीतिक परिदृश्य दिख रहा है, उससे यह हवा बन रही है कि कांग्रेस वापसी की तैयारी में है। यह भविष्यवाणी करना मुश्किल है कि कौन आएगा और कौन जाएगा लेकिन चुनाव के करीब आते-आते माहौल गर्म हो रहा है। सत्ताधारी पार्टी के साथ यह होता ही है कि उन्हीं के लोग विरोध में खड़े हो जाते हैं। जो हाल मध्य प्रदेश में दिख रहा है, उससे अलग स्थिति छत्तीसगढ़ और राजस्थान की नहीं है। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल वर्सेस सिंहदेव हैं तो राजस्थान में गहलोत वर्सेस पायलट की राजनीति सरेआम है जिसमें विरोध का पक्ष बड़ा है। 

 साल 23 जाते जाते तय हो जाएगा कि कौन जाएगा और कौन रहेगा, लेकिन यह तय है कि साल 24 से जो भी सत्तासीन होगा अपने एजेंडा और विचारधारा के अनुरूप सरकार चलाएगा। विकास की बातें होंगी लेकिन वह प्राथमिकता में नहीं रहेगी। विकास की गंगा का मुंह मोड़ दिया जाएगा, तब तक के लिए जब तक फिर जनता-जर्नादन की जरूरत ना हो। हालांकि देश के मुखिया से लेकर हर नागरिक इस फ्री सेवा को रेवड़ी मानकर चल रहा है और विरोध की मुद्रा में भी है लेकिन बातें हैं बातों का क्या? मान लेना चाहिए कि प्रेम, युद्ध और चुनाव में सब जायज है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है और शोध पत्रिका 'समागम' के संपादक हैं)

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अपनी बिरादरी के उपहास व अपमान की इजाजत आपको भारतीय समाज नहीं देता मिस्टर मीडिया!

एक सप्ताह से चुप था। कुछ टीवी न्यूज एंकरों पर विपक्षी गठबंधन ‘इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस' (I.N.D.I.A) ने अपनी ओर से जो पाबंदी लगाई हैं, उसका प्रबंधन और संपादकों पर असर देखना चाहता था।

राजेश बादल by
Published - Wednesday, 20 September, 2023
Last Modified:
Wednesday, 20 September, 2023
Mister Media

एंकरों के शो में नहीं जाने का फैसला, यह तो होना ही था!

राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।

एक सप्ताह से चुप था। कुछ टीवी न्यूज एंकरों पर विपक्षी गठबंधन ‘इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस' (I.N.D.I.A) ने अपनी ओर से जो पाबंदी लगाई हैं, उसका प्रबंधन और संपादकों पर असर देखना चाहता था। अंततः पाया कि चैनलों के नियंताओं के कान पर जूं भी नहीं रेंगी। ‘इंडिया’ यानी छब्बीस पार्टियों की लोकतांत्रिक आवाज।

यह सरासर भारतीय संवैधानिक लोकतंत्र का अपमान है। चौथा स्तंभ क्या प्रतिपक्ष की इतनी उपेक्षा कर सकता है? नहीं। उसे इस मुल्क का आईन इजाजत नहीं देता। यदि वे असहमति के सुरों की रक्षा नहीं कर सकते तो फिर इस देश की जम्हूरियत को बचाने के अनुष्ठान में कैसे शामिल हो सकते हैं? पत्रकारिता का इतना क्रूर और वीभत्स रूप तो कभी नहीं देखा।

मैंने ‘मिस्टर मीडिया’ के कम से कम पचास स्तंभों में महामारी फैलाने के लिए पत्रकारिता के इस वर्ग को आगाह किया है। उसकी भी अनदेखी की गई। यही नहीं, इस मुद्दे पर टीवी मीडिया की नामीगिरामी संस्थाओं की चुप्पी परेशान करने वाली है। पत्रकारिता प्रमुखों की खामोशी दुखी करती है, प्रबंधन का रवैया आक्रोश पैदा करता है और समाज की ओर से कोई स्वर का नहीं उठना भी उद्वेलित करता है।

कुछ समय पहले मैंने अपने स्तंभ में लिखा था, ‘यदि पूर्वजों की ओर से स्थापित आचार संहिता के बुनियादी सिद्धांतों का हम पालन नहीं करते तो एक दिन वह भी आएगा, जब समाज और देश इस पत्रकारिता को खारिज कर देगा। पत्रकारिता के इतिहास में वह बेहद कलंकित अध्याय होगा। जिस पत्रकारिता ने मुल्क की आजादी के अनुष्ठान में आहुति दी हो, वह अपने आचरण से लांछित और अपमानित की जाने लगे तो यह आने वाले दिनों के लिए गंभीर चेतावनी है।’

हमने देखा है कि कोई भी सरकार हो, अपनी आलोचना पसंद नहीं करती। इसलिए, जब तब वह स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने का काम करती है। पहले वह प्रलोभन देती है। यदि उससे बात नहीं बनती तो अनेक प्रकार से दबाव डालने का काम करती है। यदि वह काम नहीं आता तो मीडिया प्रबंधन और मालिकों पर शिकंजा कसती है और यह हथियार भी नाकाम रहता है तो वह पत्रकारिता के दमन और उत्पीड़न का अंतिम अस्त्र चलाती है। वर्तमान दौर में सारे तरीके आजमाए जा रहे हैं। हम इन तीरों को अपनी देह पर लगते देख रहे हैं।

तो अब क्या किया जाए? पत्रकारिता की अराजक धारा संतुलन के सारे बांध तोड़ चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय कई बार आगाह कर चुका है। उसने दो दिन पहले ही नेशनल ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन और न्यूज ब्रॉडकास्टर्स फेडरेशन को सेल्फ रेगुलेशन पर जवाब दाखिल करने के लिए चार सप्ताह का समय दिया है। फिलवक्त इस मसले पर गंभीरता नहीं दिखाई दे रही है।

‘ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन’ के अध्यक्ष सुप्रिय प्रसाद ने इस मुद्दे पर विचार के लिए आपात बैठक बुलाई थी। इस बैठक में कुछ ठोस निष्कर्ष निकलकर आया हो, ऐसा नहीं लगता। अर्थात परदे पर पत्रकारिता की अमर्यादित करतूतों पर अंकुश लगने की कोई संभावना फ़िलहाल तो नहीं है।

बीते दिनों ’एक्सिस माय इंडिया’ की रपट में पाया गया था कि भारत में टीवी मीडिया न्यूज का स्तर गिरा है। इसके अलावा ’रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ की ताजा रेटिंग में भी भारत में पत्रकारिता के हालात सुधरते हुए नहीं पाए गए हैं। इसके बाद भी यदि भारतीय पत्रकारिता के पैरोकार नहीं जागते तो वे आगे जाकर इस पवित्र पेशे का अपमान ही करेंगे। अपनी बिरादरी के उपहास और अपमान की इजाजत आपको भारतीय समाज नहीं देता मिस्टर मीडिया!

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल की 'मिस्टर मीडिया' सीरीज के अन्य कॉलम्स आप नीचे दी गई हेडलाइन्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं-

यदि ऐसा नहीं हुआ तो एक दिन जबान और कलम पर पहरा बिठा दिया जाएगा मिस्टर मीडिया!

पुलिस अधिकारी की इस करतूत ने पूरे पत्रकारिता जगत को करारा तमाचा मारा है मिस्टर मीडिया!

हम अपने दौर में पत्रकारिता की कलंक कथाएं रच रहे हैं मिस्टर मीडिया!

यह गैरजिम्मेदार पत्रकारिता है, परदे पर दिखाने को कोई तो मापदंड होना चाहिए मिस्टर मीडिया!

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जॉर्ज सोरोस और चीनी जासूसी तंत्र रहे हैं करीबी कॉमरेड: अरुण आनंद

उन्होंने पहली बार 1984 में चीन में अपनी दुकान स्थापित करने के लिए उस समय के चीनी मूल के चर्चित लेखक लियांग हेंग की पहचान की और उन्हें चुना।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Wednesday, 20 September, 2023
Last Modified:
Wednesday, 20 September, 2023
arunanand

अरुण आनंद, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तम्भकार।

अमेरिका आधारित विवादास्पद अरबपति जॉर्ज सोरोस और चीनी की प्रमुख जासूसी एजेंसी सुरक्षा राज्य मंत्रालय (एमएसएस) ने 1980 के दशक में एक साथ मिलकर काम किया है। सोरोस ने आर्थिक प्रणाली सुधार संस्थान (ईएसआरआई) और चाइना इंटरनेशनल कल्चर एक्सचेंज सेंटर (सीआईसीईसी) नामक संगठनों के माध्यम से एमएसएस को पर्याप्त धन उपलब्ध कराया था। 1980 के दशक में सोरोस चीन में घुसपैठ करने के लिए पश्चिमी हितों को बचाने की आड़ में चीनी खुफिया नेटवर्क और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष आकाओं के साथ घनिष्ठ साझेदारी करके 'दोहरा खेल' खेल रहे थे। इसका कारण स्पष्ट था। वह 1980 के दशक में चीन की आर्थिक वृद्धि से फायदा उठाने के लिए वहां के  शासन तंत्र में अपनी पैठ बनाना चाहते थे। लेकिन 1989 के बाद चीनी शासन में बदलाव के साथ यह साझेदारी टूट गई।

सोरोस द्वारा स्थापित संस्था 'चाइना फंड' के कई प्रतिनिधियों को 1989 में तियानमेन स्क्वायर नरसंहार के बाद चीनी अधिकारियों द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। चीनी अधिकारियों ने उन पर  अमेरिकी गुप्तचर संस्था सेंट्रल इंटेलिजेंस (सीआईए)के लिए काम करने का आरोप लगाया। सोरोस ने 1980 के दशक में चीन की ओर रुख करना शुरू किया। उन्होंने पहली बार 1984 में चीन में अपनी दुकान स्थापित करने के लिए उस समय के चीनी मूल के चर्चित  लेखक लियांग हेंग की पहचान की और उन्हें चुना। हेंग अपने संस्मरण 'सन ऑफ़ द रेवोल्यूशन' को प्रकाशित करने के बाद प्रसिद्ध हुए थे, जो इस बात का व्यक्तिगत लेखा-जोखा था कि कैसे चीन पश्चिम के लिए दरवाजे खोल रहा था और किस प्रकार चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा नियमित अंतराल पर वैचारिक शुद्धि के नाम पर अत्याचार किए जाते हैं।

लियांग ने सोरोस को चीनी सत्ता तंत्र के महत्वपूर्ण लोगों से जोड़ा। इस पूरी पहल के पीछे बहाना यह था कि सोरोस चीन को सुधारों को अंजाम देने में मदद करना चाहते थे। उस समय तक सोरोस'ओपन सोसाइटी फ़ाउंडेशन्स' नामक अपने एक गैर सरकारी संगठन की स्थापना कर चुके थे। यह संस्था गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के एक जटिल तंत्र के माध्यम से विभिन्न देशों में तख्तापलट, राजनीतिक उथल-पुथल और अराजकता के लिए धन तथा अन्य संसाधन उपलब्ध करवाती है। लेकिन इस तथ्य को देखते हुए कि चीन में दांव  बहुत बड़ा है और मोटा मुनाफा कमाने की पूरी संभावना है, सोरोस ने एक अलग इकाई स्थापित करने का फैसला किया जो केवल चीन में काम करेगी।

1986 में, सोरोस ने 10 लाख अमेरिकी डॉलर के साथ 'चाइना फंड' की स्थापना की। लियांग के नेटवर्क के माध्यम से, चाइना फंड ने शुरू में एक चीनी थिंक टैंक ईएसआरआई के साथ भागीदारी की। अक्टूबर 1986 में, सोरोस ने बीजिंग के दियाओयुताई स्टेट गेस्टहाउस में एक समारोह में औपचारिक रूप से चाइना फंड  की चीनी धरती पर शुरूआत की। यह सोरोस की पहली चीन की यात्रा थी। सोरोस ने ईएसआरआई  के माध्यम से चीन के प्रमुख  नेता झाओ जियांग से संपर्क जोड़ा। जियांगअगले साल पार्टी के महासचिव बने। झाओ के निजी सचिव, बाओ टोंग, भी चाइना फंड को पूरा समर्थन दे रहे थे। चीनी नौकरशाही को स्पष्ट संकेत था कि  चाइना फंड-ईएसआरआई संयुक्त उद्यम की मदद करनी है।

सुधारवादी आर्थिक नीतियों को आकार देने में चीन की मदद करने के बहाने के पीछे, चाइना फंड ने बहुत तेजी से अपना जाल फैलाना शुरू किया।

अपनी स्थापना के एक साल के भीतर, इसने बीजिंग में एक कलाकार क्लब और तियानजिन में नानकाई विश्वविद्यालय में एक शैक्षणिक इकाई की स्थापना की। चीन पहुंचने के पहले दो वर्षों के भीतर, सोरोस के चाइना फंड ने कम से कम 200 प्रस्तावों के लिए भारी अनुदान दिया। हालाँकि, जैसे ही फंड ने कुख्यात 'सांस्कृतिक क्रांति' जैसे संवेदनशील विषयों पर अनुसंधान के  लिए प्रस्तावों को स्वीकार किया  चीनी आधिकारिक हलकों में खतरे की घंटी बजने लगी। चाइना फंड के बारे में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की शिकायतों के  बाद  झाओ जियांग ने एक नए संगठन  चाइना इंटरनेशनल कल्चर एक्सचेंज सेंटर  को सोरोस के साथ जोड़ा। ईएसआरआई की जबह अब चाइना इंटरनेशनल कल्चर एक्सचेंज सेंटरसाआईसी को सोरोस के इस संयुक्त उद्यम का  नियंत्रण सौंप दिया गया। 

चाइना इंटरनेशनल कल्चर एक्सचेंज सेंटर औपचारिक तौर पर चीनी संस्कृति मंत्रालय का हिस्सा है पर वास्तव में यह चीनी जासूसी नेटवर्क का एक प्रमुख अंग है और चीन की शीर्ष जासूसी एजेंसी एसएसएस के लिए काम करता है। सोरोस ने फरवरी 1988 में एक चीन के दिग्गज जासूस और चीनी जासूसी एजेंसी के वरिष्ठतम अधिकारियों में शुमार किए जाने वाले यू एंगुआंग के साथ एक संशोधित समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए चीन की यात्रा की।  यह स्वीकार करना बहुत भोलापन होगा कि सोरोस इस 'खुले रहस्य' के बारे में नहीं जानते थे कि यू कौन हैं तथा जिस संगठन के साथ वह काम कर रहे हैं वी चीन के गुप्तचर नेटवर्क का हिस्सा है। 1989 तक सोरोस के पैसे से चाइना इंटरनेशनल कल्चर एक्सचेंज सेंटर ने अपने कार्यक्रम किए। ये कार्यक्रम उसकी जासूसी गतिविधियों का हिस्सा थे।

इस प्रकार सोरोस ने चीन एजेंसियों की फंडिंग की, लेकिन 1989 में तियानमान चौक पर हुए नरसंहार के बाद सोरोस के हितैषी झाओ और बो सत्ता से बाहर हो गए। सोरोस के चाइना फंड के कुछ लोगों को सीआईए के लिए जासूसी करने के आरोप में चीनी एजेंसयों ने हिरासत में भी लिया। सोरोस, इन बदलते हालात में, रोतों—रात चाइना फंड बंद कर वहां से भाग खड़े हुए। उन्होंने इस बात की परवाह नहीं की कि चीनी सरकार चाइना फंड से जुड़े लोगों  को जेल में डाल रही है। लोकतंत्र की दुहाई देने वाले सोरोस ने न केवल अपने साथ काम करने वालों को मुश्किल में डाला बल्कि वह इस दुनिया के सबसे डरावने अधिनायकवादी तंत्र के साथ हाथों में हाथ डालकर न केवल काम कर रहे थे बल्कि उनकी जासूसी एजेंसियों को अपना पैसा भी उपलब्ध करवा रहे थे। लब वहां दाल गलनी बंद हो गई तो वे चीन के आलोचक हो गए और लोकतंत्र  की दुहाई देने लगे।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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अधिनायकवाद की शुरुआत नागरिकों की सहमति से होती है- श्रवण गर्ग

अशनीर ग्रोवर के खिलाफ नगर निगम और प्रदेश में अफवाह फैलाने तथा मानहानि करने संबंधी धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज करा दी गई।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Tuesday, 19 September, 2023
Last Modified:
Tuesday, 19 September, 2023
shravangarg

श्रवण गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तम्भकार।

मध्य प्रदेश का सबसे बड़ा शहर इंदौर एक बार फिर चर्चा में है। स्वच्छता के क्षेत्र में छह सालों से देश भर में पहले स्थान पर बने रहते हुए नाम कमाने वाला चालीस लाख की आबादी का शहर लगता है किसी नये प्रयोग की तलाश में है! जो चल रहा है उसके जरिए कुछ प्रभावशाली लोग सांस्कृतिक तानाशाही को आमंत्रित करते नजर आते हैं। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के साथ वैचारिक असहिष्णुता पर भी नागरिक स्वीकृति हासिल करने के प्रयास हो रहे हैं। बहुसंख्यवाद नई पहचान के रूप में स्थापित होता दिखता है और कोई चिंता भी नहीं व्यक्त कर रहा है । स्वतंत्रता के साथ विचार और असहमति व्यक्त करने की व्यक्तिगत आजादी पर सामूहिक नियंत्रण काबिज होने जा रहा है !

‘भारत-पे’ के को-फाउंडर, मोटिवेशनल स्पीकर और चर्चित टीवी शो ‘शार्क टैंक’ का हिस्सा रहे अशनीर ग्रोवर पिछले दिनों एक प्रतिष्ठित संस्था के आमंत्रण पर इंदौर यात्रा पर थे। संस्था के कार्यक्रम में किसी व्यक्ति ने पूछ लिया, 'आपने भोपाल की तो तारीफ की है, हमसे (इंदौर से) क्या नाराजगी है?’ इस पर अशनीर ने जवाब दिया, 'तीन-चार साल से सुन रहा हूं कि इंदौर सबसे साफ शहर है। तुम सबने सर्वे को खरीदा है। क्लीनेस्ट में सिर्फ चिप्स के पैकेट्स को ही नहीं मलबे को भी गिनते हैं।’ अशनीर के इतना बोलते ही शहर में बवाल मच गया। नगर निगम के कर्मचारियों ने अशनीर का पुतला फूंक दिया। खाने-पीने के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध स्थान ‘छप्पन दुकान’ के व्यापारियों ने अशनीर को बाजार में घुसने नहीं देने की घोषणा कर  दी।

अशनीर ग्रोवर के खिलाफ नगर निगम और प्रदेश में सत्तारूढ़ दल के मेयर के निर्देश पर पुलिस थाने में अफवाह फैलाने तथा मानहानि करने संबंधी धाराओं के तहत एफआइआर दर्ज करा दी गई। बताया गया कि जिस संस्था ने अशनीर को आमंत्रित किया था उसने भी अपराध दर्ज करवाने के लिए आवेदन दे दिया। प्रदेश के गृह मंत्री ने भी कड़ी करवाई करने की चेतावनी दे डाली। एक पद्मश्री समाजसेवी ने प्रतिक्रिया दी कि ‘किसी बाहरी व्यक्ति को ऐसी टिप्पणी करने का अधिकार नहीं है। अशनीर का बयान शहर की शान के खिलाफ है।’ एक पूर्व मेयर ने कहा ‘अशनीर ने इंदौर का अपमान किया है जो खुद एक फ्रॉड व्यक्ति है।’

अशनीर ने जो कुछ कहा उन्हें निश्चित ही नहीं कहना चाहिए था। शहर की स्वच्छता और उसके लिए प्राप्त अखिल भारतीय सम्मान पर अंगुली उठाकर उन्होंने नगर निगम के हजारों कर्मचारियों की वर्षों की मेहनत को संदेह के कठघरे में खड़ा कर दिया। विभिन्न राज्यों से ही नहीं बल्कि दुनियाभर से लोग स्वच्छता का प्रयोग को देखने इंदौर की यात्रा करते हैं।

यहां मुद्दा इंदौर की उपलब्धि पर अशनीर द्वारा कहे का समर्थन करने का नहीं है! उनके कहे की निश्चित ही आलोचना की जाना चाहिए। यहां सवाल अशनीर के कहे को शहर के चालीस लाख लोगों की मानहानि बताते हुए उनकी अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने और इस तरह की पहल को शहर की हस्तियों द्वारा समर्थन प्रदान करने का है।

अशनीर के आरोप का विनम्र तरीके से तर्कों के जरिए जवाब दिया जा सकता था जैसा कि प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं में होता है। अशनीर देश की राजधानी में उस दुनिया को ही देखने के अभ्यस्त भी हो सकते हैं जहां बड़े-बड़े पुरस्कार खरीदे या सिफारिशों से प्राप्त किए जाते हैं। उनके कहे पर इतनी आक्रामक प्रतिक्रिया की जरूरत ही नहीं थी।सिफारिशों के आधार पर राष्ट्रीय पुरस्कारों के वितरण को लेकर लगने वाले आरोप तो सर्वव्यापी हैं। शहर की ही कुछ विभूतियां इस तरह के आरोप से अछूती नहीं रही हैं?

शहर (और प्रदेश में भी) जिस तरह का घटनाक्रम निर्मित हो रहा है, अशनीर के बहाने नागरिकों के लिए भी चेतावनी हो सकता है कि असहमति की कोई भी आवाज बर्दाश्त नहीं की जाएगी। याद किया जा सकता है कि सत्तारूढ़ दल के एक प्रभावशाली नेता के बेटे की शिकायत के बाद जनवरी 2021 में गुजरात के प्रसिद्ध स्टैंड-अप कॉमेडियन मुनव्वर फारूकी को चार अन्य लोगों के साथ (अपने कार्यक्रम में हिंदू देवी-देवताओं और एक केंद्रीय मंत्री के बारे में कथित तौर पर अशोभनीय टिप्पणी करने के आरोप में) गिरफ्तार कर लिया गया था। मामला बाद में सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था जहां से उन्हें उसी साल फरवरी में अंतरिम जमानत और अप्रैल में पूरी जमानत प्राप्त हुई थी।

इंदौर में पले-बढ़े अंतरराष्ट्रीय ख्याति के पेंटर एम एफ हुसैन की पीड़ा को दोहराने की जरूरत नहीं कि उनकी पेंटिंग्स पर प्रदेश की एक पत्रिका द्वारा प्रकाशित आलेख के बाद हिंदू देवी-देवताओं के कथित अपमान को मुद्दा बनाकर इतना बड़ा विवाद छेड़ दिया गया था कि2006 में उन्हें देश ही छोड़ना पड़ा। अपनी मृत्यु (जून 2011) तक वे लंदन में ही रहे। कोरोना महामारी के दौरान तबलीगी जमातको लेकर उठे विवाद के बाद शहर में प्रकट हुई सांप्रदायिक असहिष्णुता का जिक्र करने की जरूरत नहीं है।

एम एफ हुसैन, मुनव्वर फरूक़ी, अशनीर ग्रोवर ये नाम तो सिर्फ़ इस बात की तरफ इशारा करने के लिए हैं कि लता मंगेशकर, महादेवी वर्मा,  अमीर खां साहब, नारायण श्रीधर बेंद्रे, डी डी देवलालीकर , डी जे जोशी , कर्नल सी के नायडू , महादेवी वर्मा , कैप्टन मुश्ताक़अली,  सी एस नायडू, मेजर जगदाले, विष्णु चिंचालकर, राहुल बारपुते, बाबा डिके, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, शरद जोशी, रमेश बक्षी, डॉक्टर एस के मुखर्जी, डॉक्टर नंदलाल बोर्डिया, डॉक्टर सी एस राणावत, नाना साहब तराणेकर, गोकुलोत्सव जी महाराज, जेपी चौकसे और वेदप्रताप वैदिक आदि के शानदार शहर को किस दिशा में धकेला रहा है? इंदौर सटे देवास को जोड़ लें तो कुमार गंधर्व और वसुंधरा कोमकली, उज्जैन के पंडित सूर्यनारायण व्यास और डॉक्टर शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ और धार के शिल्पकार  रघुनाथ कृष्ण फड़के।

अपुष्ट जानकारी के आधार पर एक प्रतिष्ठित मेहमान द्वारा कही गई ‘छोटी सी बात’ को चालीस लाख लोगों की मानहानि बताते हुए उत्तेजित हो जाना ठीक वैसा ही है जैसा शहर की सड़कों पर आए दिन हो रहा है। दो वाहनों के बीच मामूली टक्कर या किसी छोटी सी बात से उपजे अहंकार का टकराव हत्याओं में बदल रहा है।  क्या नेता और ‘समाजसेवी’ ही लोगों को सिखा रहे हैं कि आपा खोने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहिए? मीडिया तो है ही साथ देने के लिये?

सत्ताओं के अधिनायकवाद की शुरुआत नागरिकों से ही होती है। नागरिकों की रगों में ही सबसे पहले तानाशाही प्रवृति के गुण भरे जाते हैं। अच्छी बात यह है कि अपने कहे को लेकर अशनीर ग्रोवर ने शहर के नागरिकों से क्षमा याचना कर ली है और ‘राजनेताओं-समाजसेवियों’ को कह दिया है कि वे उनके खिलाफ कार्रवाई के लिए स्वतंत्र हैं।

और अंत में : एमएफ हुसैन से लगाकर मुनव्वर फारूकी और अशनीर ग्रोवर तक तमाम लोगों के खिलाफ ,जो संविधान-प्रदत्त आजादी से अपने ‘मन की बात ‘ कहना चाहते हैं, कार्रवाई की मांग करने वाले शायद इस तरह की खबरों में अपने लिए समर्थन तलाश रहे हैं कि दुनिया के कई देशों में नागरिकों का लोकतंत्र से भरोसा उठ रहा है और वे तानाशाही वाले शासन के पक्ष में खड़े हो रहे हैं! क्या इंदौर (और प्रदेश) को उसी दिशा में ले जाया जा रहा है?

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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संस्कृति-शिक्षा मंत्रालय की पुस्तकालयों को लेकर अच्छी पहल: अनंत विजय

संस्कृति और शिक्षा मंत्रालय की पुस्तकालयों को लेकर पहल अच्छी है, उद्देश्य भी। शिक्षा मंत्रालय ने तो समिति का गठन कर दिया है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 18 September, 2023
Last Modified:
Monday, 18 September, 2023
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तम्भकार।

पिछले कुछ समय से भारत सरकार पुस्तकों को लेकर सक्रिय दिख रही है। अगस्त में संस्कृति मंत्रालय ने प्रगति मैदान में पुस्तकालय उत्सव का आयोजन किया। इसका शुभारंभ राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु ने किया। पुस्तकालय उत्सव स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के दूसरे चरण का हिस्सा है। इसका उद्देश्य देश में पुस्तकालय संस्कृति और डिजिटलीकरण को बढ़ावा देना और पढ़ने की संस्कृति का विकास करना भी है। संस्कृति राज्यमंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने उस दौरान बताया था कि पुस्तकालय इतिहास और असीमित भविष्य की खाई को पाटने का काम करता है। उन्होंने ये भी कहा था कि पुस्तकालयों का विकास सरकार की प्राथमिकता है और वन नेशन वन डिजीटल लाइब्रेरी पर भी कार्य होगा।

उन्होंने भौतिक और डिजिटल पुस्तकालयों के संतुलन पर बल दिया था। इसके अलावा संस्कृति मंत्रालय के सचिव और संयुक्त सचिव ने भी पुस्तकालयों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कई नीतिगत बातें की थीं। पुस्तकालयों की रैंकिंग से लेकर जिला स्तर तक पुस्तकालयों को समृद्ध और साधन संपन्न करने की बात की गई थी। राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु ने भी पुस्तकालय उत्सव के शुभारंभ के अवसर पर पुस्तकालयों को समाज संस्कृति के विकास को जोड़कर देखा था। उन्होंने पुस्तकालयों को सभ्यताओं के बीच का सेतु भी बताया था। राष्ट्रपति महोदया ने पुस्तकालयों को सामाजिक संवाद, अध्ययन और चिंतन का केंद्र बनाने पर बल दिया था। उत्सव हुआ। वहां पुस्तकालयों कि स्थिति और संसाधनों को लेकर मंथन हुआ। ग्राम और सामुदायिक स्तर पर पुस्तकालयों की चर्चा हुई। कई तरह के सुझाव भी आए। क्रियान्वयन कैसे होगा ये देखना होगा।  

संस्कृति मंत्रालय के इस आयोजन के बाद शिक्षा मंत्रालय ने 11 सितंबर को एक आदेश जारी किया। उसमें बताया गया कि देश में पढ़ने की आदत का विकास, स्तरीय प्रकाशन को प्रोत्साहन, प्रकाशन व्यवसाय को दिशा और देश में खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में पुस्तकालय आंदोलन को पुनर्जीवित करने के लिए फरवरी 2010 में एक टास्क फोर्स का गठन किया गया था। इसको समग्रता में राष्ट्रीय पुस्तक प्रोन्नयन नीति तैयार करने का कार्य सौंपा गया था। टास्क फोर्स से इक्कसवीं सदी की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए नीति तैयार करने की अपेक्षा की गई थी।

अब राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के चेयरमैन मिलिंद सुधाकर मराठे की अध्यक्षता में विशेषज्ञों की एक 14 सदस्यीय समिति का गठन किया गया है जो राष्ट्रीय पुस्तक प्रोन्नयन नीति का फाइनल ड्राफ्ट तैयार करने में मदद करेगी। इस समिति से ये अपेक्षा की गई है कि वो राष्ट्रीय शिक्षा नीति को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय पुस्तक प्रोन्नयन नीति तैयार करे। इस समिति में चामू शास्त्री, प्रो कुमुद शर्मा, रमेश मित्तल, गरुड़ प्रकाशन के सक्रांत सानु, प्रभात प्रकाशन के प्रभात कुमार, प्रो गोविंद प्रसाद शर्मा के अलावा आईआईटी खड़गपुर के निदेशक, एनसीईआरटी के निदेशक के अलावा सरकारी अधिकारियों को शामिल किया गया है। राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के महानिदेशक भी इस समिति में रखे गए हैं।

समिति से ये अपेक्षा भी की गई है कि वो एक महीने के अंदर राष्ट्रीय पुस्तक प्रोन्नयन नीति के ड्राफ्ट का अवलोकन करे और उसको राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुरूप करते हुए संशोधित करे। उसमें स्तरीय अनुवाद पर बहुत जोर दिया गया है। पुस्तकों का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो और उनको स्कूलों और अन्य पुस्तकालयों तक पहुंचाने के बारे में सुझाव दिए जाएं। ग्रामीण क्षेत्रों में पुस्तकालयों की स्थापना और डिजीटल पुस्तकालय को कैसे गांवों से जोड़ा जाए या गांवों में डिजीटल पुस्तकालयों की स्थापना के तरीकों पर भी विचार हो और ठोस सुझाव आए।

इस समिति को हर तरह की सहायता देने के लिए राष्ट्रीय पुस्तक न्यास को जिम्मेदारी दी गई है। यहां यह बताना आवश्यक है कि राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का उद्देश्य भी पुस्तकों की संस्कृति और पाठकों के बीच पढ़ने की आदत का विकास करना है। ये संस्था यह कार्य पिछले छह दशक से अधिक समय से कर भी रही है। संस्कृति और शिक्षा मंत्रालय की पुस्तकालयों को लेकर पहल अच्छी है। उद्देश्य भी। शिक्षा मंत्रालय ने तो समिति का गठन कर दिया है और एक महीने का समय दिया है ताकि राष्ट्रीय पुस्तक प्रोन्नयन नीति को समग्रता में तैयार किया जा सके। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के पेश होने के तीन वर्ष बाद इस ओर मंत्रालय का ध्यान गया है। संस्कृति मंत्रालय के अधीन तो एक संस्था पहले से बनी हुई है, राजा रामहोन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन। जिसका मुख्यालय कोलकाता में है। ये संस्था पुस्तकालयों के लिए पुस्तकों का खरीद करती है।

राज्यों के पुस्तकालयों को पुस्तकों की खरीद के लिए अनुदान देती है। देश के अलग अलग इलाकों में पुस्तकालयों की स्थिति बेहतर करने के लिए अनुदान देती है। पुस्तकालयों के फर्नीचर से लेकर आधुनिकीकरण तक के लिए धन उपलब्ध करवाती है। जो पुस्तकें कापीराइट से मुक्त हो जाती हैं उनके डिजीटलीकरण के लिए भी संसाधन उपलब्ध करवाती है। पुस्तकालयों और पुस्तक व्यवसाय को केंद्र में रखकर अगर विचार किया जाए तो यह संस्था महत्वपूर्ण है। अब इस संस्था पर नजर डालते हैं। इस संस्था में पिछले दो वर्षों से अध्यक्ष नहीं है। कंचन गुप्ता को 2019 में अद्यक्ष बनाया गया था।

दो वर्ष के बाद वो दूसरे दायित्व पर चले गए। उसके बाद से कोई अध्यक्ष नियुक्त नहीं हुआ। संस्कृति मंत्री जी किशन रेड्डी इस जिम्मेदारी को निभा रहे हैं। उनके पास पर्यटन और पूर्वोत्तर विकास मंत्रालय भी है। वो तेलंगाना बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष भी हैं। उनकी व्यस्तता समझी जा सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी प्राथमिकता में राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन काफी नीचे है। परिणाम ये है कि 2020-21 के बाद पुस्तकों की खरीद नहीं हुई। इसके पहले भी दो वर्ष पुस्तकों की खरीद नहीं हुई।

राजा रामहोन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में पुस्तकों की खरीद में काफी भ्रष्टाचार होता रहा है। सरकारी खरीद के लिए पुस्तकों को मूल्य को काफी बढ़ाकर रखा जाता है। एक कविता पुस्तक जो बाजार में दो सौ रुपए में उपलब्ध है उसको हजार रुपए में सरकारी खरीद में बेच दिया जाता था। इसको रोकने के लिए पुस्तक खरीद बंद करना उचित नहीं है। भ्रष्टाचार को रोकने के लिए ऐसे लोगों की समिति बनानी होगी जिनको पुस्तकों के बारे में पता हो, जो इस व्यवसाय को जानते हैं। ऐसे नियम बनाने होंगे जिसमे पारदर्शिता हो। संस्कृति मंत्री और मंत्रालय को समय निकालकर इसपर ध्यान देना होगा। उत्सव से माहौल बनेगा लेकिन प्रधानमंत्री मोदी का पुस्तकालयों को लेकर जो विजन है उसको यथार्थ की भूमि पर उतारने के लिए गंभीरता से कार्य करना होगा। समय पर नियुक्तियां करनी होंगी।

समय पर पुस्तकों की खरीद करनी होगी। प्रकाशकों को विश्वास में लेना होगा। पुस्तकालयों तक पुस्तक पहुंचे, इसकी व्यवस्था करनी होगी। राज्यों को जो अनुदान दिए जाते हैं उसमें स्तरीय पुस्तकों की खरीद हो इसके लिए नीति बनाकर क्रियान्वयित करनी होगी। तकनीक के बढ़ते प्रभाव को ध्यान में रखकर डिजीटल लाइब्रेरी बनानी होगी। अच्छी पुस्तकों के अधिकार खरीदकर उसको वहां उपलब्ध करवाना होगा। प्रकाशकों को इसके लिए प्रोत्साहन देना होगा। पुस्तक व्यवसाय से जुड़े कागज उद्योग, स्याही उद्योग, प्रकाशन संस्थानों के हितों का भी ध्यान रखना होगा।

अगर देश में पढ़ने की आदत का विकास करना है तो स्कूली छात्रों की रुचियों तक पहुंचने का उपक्रम करना होगा। आज अगर देखा जाए तो पुस्तकालयों में जानेवालों की संख्या कम हो रही है उसको बढ़ाने के लिए रुचिकर कार्यक्रम करने होंगे। ई बुक्स और पुस्तक दोनों के बीच एक संतुलन स्थापित करना होगा ताकि हर व्यक्ति को अपनी सुविधानुससार पसंदीदा सामग्री पढ़ने को उपलब्ध हो सके। अगर ऐसा होता है तो पुस्तकालय महोत्सव और राष्ट्रीय पुस्तक प्रोन्नयन नीति आदि का लाभ हो सकेगा। अन्यथा ये रस्मी आयोजन बनकर रह जाएंगे।

(साभार: दैनिक जागरण)

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Financial Influencers पर खड़े हो रहे सवाल, पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब-किताब'

सोशल मीडिया ने तरह तरह के विशेषज्ञों को अपनी बात रखने का मौका दिया है। उनकी राय से यूजर प्रभावित होते हैं।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 18 September, 2023
Last Modified:
Monday, 18 September, 2023
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मिलिंद खांडेकर, मैनेजिंग एडिटर, तक चैनल्स, टीवी टुडे नेटवर्क।

अभी दस दिन पहले केंद्रीय कॉमर्स मंत्री पीयूष गोयल ने वीडियो पोस्ट किया था जिसमें UPI के जरिए ATM से कैश निकालने का डेमो दिया गया था। ये वीडियो मुंबई में फाइनेंशियल टेक्नोलॉजी के इवेंट में बनाया गया था। वीडियो खूब वायरल भी हुआ। इसे Financial Influencer रवि सुतंजानी कुमार ने बनाया था। चार दिन पहले उसी ट्विटर पर ही रवि की डिग्रियों का भंडाफोड़ हुआ, जहां उन्होंने नाम और पैसे दोनों कमाएं। अब रवि सोशल मीडिया के अकाउंट डिलीट कर गायब हो गए हैं। ट्विटर और लिंक्डइन पर उन्होंने अपने परिचय में जितनी भी डिग्री, नौकरी के बारे में जानकारी दे रखी थी वो गलत निकली।

उनके पास सिर्फ ITI मिर्जापुर से वायर मैन की डिग्री थी। उन्होंने इलाहाबाद से B-Tech, MDI गुड़गांव से मैनेजमेंट में डिग्री होने का दावा किया था। Zomato और OYO जैसी कंपनियों में काम करने का दावा है। 30 क्रेडिट कार्ड रखने का दावा करते थे। उनका दावा था कि 15 साल की उम्र में उत्तर प्रदेश के छोटे से गांव से निकलकर उन्होंने बड़े सपने पूरे कर लिए। IIT में पढ़ाई का सपना अधूरा रह गया, लेकिन अब IIT, IIM से पढ़े लिखे छात्रों को नौकरी दे रहे हैं। वो लोगों को सलाह देने का काम करते थे। इसका रेट आधे घंटे के लिए 24 हजार रुपये तक था।

ये भंडाफोड़ होने के बाद उन्होंने बचाव में ट्विटर पर गोल मोल पोस्ट किया था कि वो माफी चाहते हैं, अभी ब्रेक लेंगे। फिर अकाउंट ही डिलीट कर दिया। हो सकता है कि रवि को अपने विषय की जानकारी हो लेकिन डिग्री ना हो, लेकिन डिग्री पर झूठ बोलने से उनकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हुए हैं। रवि के बहाने Financial Influencers पर फिर सवाल खड़े हो रहे हैं। सोशल मीडिया ने तरह तरह के विशेषज्ञों को अपनी बात रखने का मौका दिया है। उनकी राय से यूजर प्रभावित यानी Influence होते हैं इसलिए उन्हें सोशल मीडिया Influencer कहा जाता है। जो लोग रुपये पैसे के बारे में सलाह देते हैं वो Financial Influencer या Fin Influencer कहलाते हैं। ये पिछले कुछ सालों में काफ़ी फले फूले, ये लोगों को पैसे कमाने के तरीक़े बताने लगे। इसके बदले में पैसे लेने लगें।

शेयर बाजार को रेगुलेट करने वाली संस्था सेबी की नींद खुली। पता चला कि ये लोग गैर कानूनी काम कर रहे हैं। शेयर या म्यूचुअल फंड खरीदने बेचने के सलाह वही लोग दे सकते हैं जिन्हें सेबी ने मान्यता दी है। ये मान्यता परीक्षा पास करने पर मिलती है। सोशल मीडिया सलाह देने वाले ज्यादातर लोग बिना मान्यता के काम कर रहे हैं। इससे उन लोगों के पैसे खतरे में पड़ सकते हैं जिन्हें ये सलाह दे रहे हैं। सेबी ने सोशल मीडिया पर सलाह देने वाले लोगों पर नकेल कसना शुरू कर दी है। पिछले महीने मसौदा जारी हुआ है इसमें सेबी में रजिस्टर्ड शेयर ब्रोकर और म्यूचुअल फंड से कहा गया है कि वो अपने प्रचार प्रसार में ऐसे Fin Influencers का इस्तेमाल ना करें जो सेबी से रजिस्टर्ड नहीं हैं। Influencers के लिए सेबी में रजिस्टर्ड होना अनिवार्य करने का प्रस्ताव है।

इसका मतलब होगा कि सोशल मीडिया पर सलाह देने के लिए विषय पर डिग्री, सेबी से सर्टिफिकेट की ज़रूरत होगी। रवि जैसे Fin Influencers के लिए ये अच्छी ख़बर नहीं है। हमारे और आपके लिए अच्छी ख़बर है क्योंकि पैसे कमाने के लालच में गंवाने का डर ज्यादा रहा है। बड़े बूढ़े कह गए हैं कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते हैं यानी बिना मेहनत के कुछ नहीं हो सकता है। जो भी आपको झटपट पैसे बनाने का रास्ता बता रहा है वो आपको गुमराह कर रहा है।

(वरिष्ठ पत्रकार मिलिंद खांडेकर 'टीवी टुडे नेटवर्क' के 'तक चैनल्स' के मैनेजिंग एडिटर हैं और हर रविवार सोशल मीडिया पर उनका साप्ताहिक न्यूजलेटर 'हिसाब किताब' प्रकाशित होता है।)

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