भारतीय जन संचार संस्थान द्वारा आयोजित 'नारी शक्ति सम्मान समारोह' को संबोधित करते हुए पंजाब केसरी समूह की निदेशक किरण चोपड़ा ने कहा कि भारतीय महिलाएं 'देवी और दुर्गा' दोनों हैं।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के प्रसंग पर भारतीय जन संचार संस्थान द्वारा आयोजित 'नारी शक्ति सम्मान समारोह' को संबोधित करते हुए पंजाब केसरी समूह की निदेशक किरण चोपड़ा ने कहा कि भारतीय महिलाएं 'देवी और दुर्गा' दोनों हैं। भारतीय महिलाओं की सभ्यता, उनके संस्कार, धैर्य, ममता और कभी हार न मानने की आदत ने उन्हें पूरे विश्व में अलग स्थान दिलाया है। कार्यक्रम में आईआईएमसी के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी, अपर महानिदेशक आशीष गोयल और डीन (अकादमिक) प्रो. गोविंद सिंह सहित समस्त प्राध्यापक, अधिकारी व कर्मचारी उपस्थित थे।
समारोह की मुख्य अतिथि के तौर पर अपने विचार व्यक्त करते हुए किरण चोपड़ा ने कहा कि आज हम 'मंगल' तक पहुंच गए हैं, लेकिन हमारे जीवन में 'मंगल' तब आएगा जब महिलाओं को सम्मान मिलेगा और वे समाज में स्वयं को सुरक्षित महसूस करेंगी। उन्होंने कहा कि महिला और पुरुष पक्षी के दो पंखों के समान हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना करना असंभव है।
किरण चोपड़ा के मुताबिक एक वक्त था जब मां-बाप बेटियों को संस्कार देते थे, लेकिन अब बेटों को संस्कार देने की आवश्यकता है। आने वाले समय में प्रत्येक माता-पिता ये मन्नत मांगेंगे कि उनके यहां बेटियां ही पैदा हों। उन्होंने कहा कि बेटियां आज क्या नहीं कर सकती। आज मां-बाप के बुढ़ापे का सहारा बेटियां ही बन रही हैं। हरियाणा की रहने वाली नेहा ने जिस तरह यूक्रेन में अपने मकान मालिक के परिवार की देखभाल के लिए भारत आने से मना कर दिया, उतना साहस शायद ही कोई कर सकता है।
पंजाब केसरी समूह की निदेशक ने कहा कि अगर शादी के बाद लड़के, लड़कियों के घर आने शुरू हो जाएं, तो समाज में एक भी वृद्धाश्रम नहीं होगा। उन्होंने कहा कि वृद्धाश्रम बुजुर्गों को छत और खाना तो दे सकते हैं, लेकिन अपनापन नहीं दे सकते।
समाज की शक्ति हैं महिलाएं : प्रो. संजय द्विवेदी
इस अवसर पर आईआईएमसी के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने कहा कि भारत में स्त्री शक्ति की गौरवशाली परंपरा रही है। महिलाएं किसी भी संस्थान एवं समाज की सबसे बड़ी शक्ति हैं। आईआईएमसी में महिलाएं हमेशा नेतृत्वकारी भूमिकाओं में रही हैं। विद्वान स्त्रियों ने अपनी मेहनत से इस संस्थान को शिखर तक पहुंचाया है। उन्होंने कहा कि भारत में 'अर्धनारीश्वर' को महत्व दिया गया है। हमारे यहां मान्यता है कि आप कोई भी काम महिलाओं को दीजिए, वो उसे ज्यादा सुंदर बना देती हैं। आज प्रत्येक क्षेत्र में लड़कियां मौजूद हैं, क्योंकि जहां महिलाएं होती हैं, वहां अनुशासन आता है।
प्रो. द्विवेदी के अनुसार आज लड़कियां शिक्षा प्राप्त कर हर क्षेत्र में नाम कमा रही हैं। महिलाओं के प्रति समाज का नजरिया जिस तरह बदला है, उसे देखकर यह पूरी उम्मीद है कि आने वाला कल स्वर्णिम होगा। उन्होंने कहा कि दुनिया को सुंदर बनाने के लिए महिलाओं ने बहुत कुछ किया है, लेकिन आज हमें यह सोचने की आवश्यकता है कि हमने महिलाओं के लिए क्या किया।
महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित करें: आशीष गोयल
आईआईएमसी के अपर महानिदेशक आशीष गोयल ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के प्रसंग पर हम सभी का यह संकल्प होना चाहिए कि महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित करें, जिससे वे अपनी इच्छानुसार, अपनी आशाओं व आकांक्षाओं को पूरा करने की दिशा में निर्बाध रूप से आगे बढ़ती रहें।
उन्होंने कहा कि 'नारी शक्ति' के विविध आयामों को किरण चोपड़ा जी ने बेहद सरल शब्दों में हम सभी को समझाया है। उनके संबोधन से यह प्रेरणा मिलती है कि पुरुष का संपूर्ण जीवन नारी पर आधारित है। कोई भी पुरुष अगर सफल है, तो उस सफलता का आधार नारी ही है।
कार्यक्रम का संचालन आईआईएमसी की छात्र संपर्क अधिकारी डॉ. विष्णुप्रिया पांडेय ने किया। इस अवसर पर संस्थान में कार्यरत समस्त महिलाओं पदाधिकारियों और कर्मचारियों को शॉल व स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया। समारोह में प्रो. शाश्वती गोस्वामी, प्रो. अनुभूति यादव, प्रो. संगीता प्रणवेंद्र, प्रो. प्रमोद कुमार, प्रो. वीरेंद्र कुमार भारती, डॉ. रिंकू पेगू और डॉ. प्रतिभा शर्मा भी उपस्थित थे।
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।इन दिनों मेरे दौर के अधिकांश वरिष्ठ साथी यह लोक छोड़कर जा चुके हैं। शिखर पुरुष के रूप में अभय जी ही बचे थे, वे भी चले गए। पत्रकारिता के इस विलक्षण व्यक्तित्व को मेरा नमन।
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।
तेईस मार्च की सुबह यकीनन मनहूस थी। पहली खबर हिंदी पत्रकारिता में राजेंद्र माथुर युग के अंतिम सशक्त हस्ताक्षर अभय छजलानी के अपने आखिरी सफर पर जाने की मिली। भले ही कुछ बरस से वे अपनी अस्वस्थता तथा पारिवारिक कारणों के चलते सक्रिय नहीं थे, लेकिन अपने जीवन काल में लगभग आधी शताब्दी तक शानदार अखबारनवीसी के कारण उन्हें हमेशा याद रखा जाएगा। भारतीय हिंदी पत्रकारिता जब उनींदी और परंपरागत ढर्रे पर अलसाई सी चल रही थी, तो राहुल बारपुते और राजेंद्र माथुर के मार्गदर्शन में उसे आधुनिक तकनीक और प्रामाणिकता का स्वर देने का काम अभय जी ने किया।
यही वजह थी कि ‘नईदुनिया’ ने कई साल श्रेष्ठता के राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त किए। बेशक इसमें उनके पिता स्वर्गीय लाभ चंद छजलानी और स्वर्गीय नरेंद्र तिवारी का भी भरपूर योगदान था, फिर भी अभय जी ने इंदौर को पत्रकारिता का घराना बनाने का शानदार काम किया। ‘नईदुनिया’ ने विश्वसनीयता के जो कीर्तिमान गढ़े, वैसे देश के किसी अन्य समाचार पत्र ने नहीं।
मुझे उनके सानिध्य में कई साल काम करने का अवसर मिला। यूं तो ‘नईदुनिया’ से मेरा संबंध जोड़ने वाले राजेंद्र माथुर ही थे, किंतु अभय जी की उसमें बड़ी भूमिका थी। इसके अलावा रोजमर्रा के कामकाज में प्रबंध संपादक होने के कारण अभय जी का समन्वय कौशल अदभुत था। जब राजेंद्र माथुर जी उन्नीस सौ बयासी के आखिरी दिनों में ‘नवभारत टाइम्स’ के प्रधान संपादक होकर नई दिल्ली चले गए तो हम सब एक तरह से अनाथ हो गए। उस दौर में पूर्व प्रधान संपादक राहुल बारपुते और पूर्व संपादक डॉक्टर रणवीर सक्सेना के साथ अभय जी ने अखबार का स्तर बनाए रखने में बड़ी जिम्मेदारी निभाई। उनमें प्रबंधकीय नेतृत्व की बेजोड़ क्षमता थी। बड़ी से बड़ी खबर आने पर भी शांत भाव से उसके साथ न्याय करने का हुनर संभवतया उन्होंने राजेंद्र माथुर से सीखा होगा।
यह उनका भरोसा ही था कि बाईस तेईस बरस के मुझ जैसे अपेक्षाकृत अनुभवहीन पत्रकार को उन्होंने समाचार पत्र की कमोबेश अनेक जिम्मेदारियां सौंप दी थीं। चाहे वह संपादकीय पृष्ठ रहा हो या संपादक के नाम पत्र स्तंभ (उन दिनों अखबार का संपादक के नाम पत्र सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्तंभ था और राजेंद्र माथुर जी स्वयं पत्र छांटते थे)। रविवारीय परिशिष्ट रहा हो या मध्य साप्ताहिक के स्तंभ। भोपाल संस्करण की स्वतंत्र जिम्मेदारी रही हो अथवा विशेष कवरेज का समन्वय। यह अभय छजलानी जी का विश्वास ही था कि उन्होंने मुझे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की शहादत से ठीक एक सप्ताह पहले उनकी मध्य प्रदेश यात्रा की कवरेज पर भेजा। वह मेरे लिए कभी न भूलने वाला अनुभव था।
इसके चंद रोज बाद ही इंदिराजी शहीद हुईं तो उस दिन सुबह-सुबह अभय जी ने मुझे गाड़ी भेजकर बुलाया और जब तक संपादकीय विभाग के अन्य सदस्य आते, तब तक हम दोनों अखबार के अनेक विशेष ‘बच्चा संस्करण’ निकाल चुके थे। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में वे खास संस्करण आज भी विशिष्ट हैं। उन्होंने पहले बच्चा संस्करण का शीर्षक दिया था, इंदिरा जी शहीद। इसके बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहली मध्य प्रदेश यात्रा, भोपाल गैस त्रासदी, भारत के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा की यात्रा, उन्नीस सौ तिरासी में सुनील दत्त की मुंबई से अमृतसर पदयात्रा या चंद्रशेखर की कन्याकुमारी से नई दिल्ली तक पदयात्रा, अभय जी ने मुझे कवरेज की पूरी छूट दी।
डेस्क जिम्मेदारियों में गुट निरपेक्ष देशों का सम्मेलन रहा हो या प्रूडेंशियल क्रिकेट कप में भारत की जीत की खबर हो, उन्होंने मुझ पर यकीन किया। गुट निरपेक्ष देशों के सम्मेलन के मौके पर भी हमने विशेष बच्चा संस्करण निकाले थे, जो अत्यंत लोकप्रिय हुए और सराहे गए थे। एशियाड 82 पर भी हमने नायाब बच्चा संस्करण निकाले थे। इन सबके सूत्रधार भी अभय जी ही थे। ठाकुर जयसिंह न्यूज रूम के अघोषित कप्तान थे। उनके बगल में मेरी कुर्सी थी। अभय जी सामने आकर डट जाते और देखते ही देखते विशेष संस्करण निकल जाता।
हालांकि, अभय जी एकदम से किसी भी नए साथी पर भरोसा नहीं करते थे। इस कारण ही उन्होंने मुझे शुरू में नगर निगम की रिपोर्टिंग का दायित्व सौंपा था। मुझे ऑफिस की ओर से रिपोर्टिंग के लिए नई साइकल खरीदकर दी गई थी। इसके बाद उन्होंने मुझसे रामचंद्र नीमा वॉलीबाल स्पर्धा और ‘नईदुनिया’ फुटबाल टूर्नामेंट का कवरेज कराया। उन दिनों ‘नईदुनिया’ में कोई फुल टाइम खेल पत्रकार नहीं था। कुछ समय बाद मुझे लगा कि यदि मैं खेल पत्रकार बन गया तो फिर मेरी दिलचस्पी के अन्य क्षेत्र पिछड़ जाएंगे, तो मैंने उनसे खेल डेस्क से हटाने का अनुरोध किया। उन्होंने मान लिया, लेकिन कोई पूर्णकालिक खेल पत्रकार के ज्वाइन करने तक काम देखते रहने को कहा। जब प्रशांत राय चौधरी ने ज्वाइन किया, तब मुझे मुक्ति मिली।
अभय जी चुटकियों में अखबार के लेआउट की कायापलट करने की कला में बेजोड़ थे। कोई बड़ा अवसर आता तो वे न्यूज डेस्क पर कॉपी लिखने से लेकर लेआउट देने का काम करते थे। शीर्षक संपादन में उन्हें महारथ हासिल थी। यह हुनर उन्होंने राजेंद्र माथुर जी से प्राप्त किया था। जिस तरह माथुर जी किसी समाचार या आलेख की कॉपी को पलक झपकते ही तराशते थे, वही कला थोड़ा-बहुत हम लोगों ने भी उनकी संपादित कॉपियां देख-देखकर सीख ली थी। हम सब उन्हें देखकर हैरान रह जाते थे। किसी बड़ी घटना विशेष पर जब हम उत्तेजित हो जाते और न्यूज रूम सिर पर उठा लेते, तो अभय जी प्रकट होते और एकदम शांत भाव से काम करते। उन्हें काम करते देखना अपने आप में सुखद था।
पंजाब में जब आतंकवाद सर उठा रहा था, तो विश्व सिख सम्मेलन और भिंडरावाले पर केंद्रित मेरे अनेक आलेखों का संवेदनशील संपादन उन्होंने किया था। मुझे याद है कि श्रीलंका उन दिनों बेहद अशांत था। रविवारीय परिशिष्ट में पूरे पृष्ठ की मुख्य आमुख कथा प्रकाशित हो रही थी। वह मैंने लिखी थी तो कुछ जानकारियां स्थान अभाव के कारण छोड़नी पड़ रही थीं। मैं उलझन में था। इतने में अभय जी आए और कुछ तस्वीरों का संपादन किया। सारी सामग्री आ गई। वे मुस्कुराते हुए लौट गए। मैंने इस तरह उनसे फोटो संपादन का हुनर हासिल किया। आगे जाकर वह हुनर मेरे बड़े काम आया।
इसका अर्थ यह नहीं था कि मेरे उनसे कभी मतभेद नहीं हुए। अनेक अवसरों पर मुझे उनका मालिक वाला भाव पसंद नहीं आता था। वे कुछ कुछ रौबीले और सामंती मिजाज के थे। सुंदरता उन्हें भाती थी। दूसरी ओर मैं एक अक्खड़ जवान, पांच-सात साल की पत्रकारिता के बाद ही अपने भीतर कुछ कुछ ठसक महसूस करता था। शायद मेरे इलाके का असर था। कभी मतभेद होता तो मैं कुछ दिन उनसे बात ही नहीं करता। आज सोचता हूं तो अपने इस बचपने पर हंसी आती है। आखिर कुछ दिनों के बाद वे ही चटका हुआ संवाद दुबारा जोड़ते थे। जब मैं छतरपुर जैसे दूरस्थ-पिछड़े जिले में पत्रकारिता कर रहा था तो ‘नईदुनिया’ का संवाददाता बनाने के लिए उन्हें और राजेंद्र माथुर को कम से कम पचास पत्र तो लिखे ही होंगे। मैंने जिद ठान ली थी। मैं एक पत्र भेजता। अभय जी का खेद भरा उत्तर आता। मैं दो-चार दिन बाद फिर नई चिठ्ठी भेज देता। उनका फिर संवाददाता नहीं बनाने का पत्र आ जाता। मगर देखिए संवाददाता न बनाते हुए भी मेरी खबरें, रिपोर्ताज और रूपक प्रकाशित करते रहे और अंततः मुझे उसी समाचारपत्र में सह संपादक पद पर काम करने का निमंत्रण भी राजेंद्र माथुर ने दे दिया।
हां, एक बार वे गंभीर रूप से मुझसे गुस्सा हो गए थे। कहानी यह है कि राजेंद्र माथुर मुझे खोजी रिपोर्टिंग के काम में लगाना चाहते थे और अभय जी मुझे भोपाल संस्करण का प्रभारी बनाए रखना चाहते थे। मेरे प्रभार संभालने के बाद एक पन्ना प्रादेशिक खबरों के लिए मैंने बढ़ाया था और अखबार का समय भी नियमित हो गया था। इससे कोई दस हज़ार प्रसार संख्या में बढ़ोतरी हुई थी। इसी बीच रविवार के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह इंदौर आए। वे वसंत पोतदार के घर रुके थे। हम सबके लिए वे वसंत दा थे। एसपी ‘नईदुनिया‘ दफ्तर आए और समाचारपत्र में काम करने की शैली से बड़े प्रभावित हुए। जाने लगे तो उन्होंने हॉल में लगी घड़ी पर नजर डाली और बोले, ‘अरे! बहुत देर हो गई। साढ़े तीन बज गए। चलता हूं।‘ अभय जी ने एक ठहाका लगाया और उन्हें बताया कि ‘नईदुनिया‘ की घड़ी आधा घंटे आगे चलती है। इसके अनेक फायदे उन्होंने गिनाए। एसपी दंग रह गए। माथुर जी भी साथ में थे। तब एसपी ने राजेंद्र माथुर जी से पूछा कि क्या वे रविवार के लिए राजेश को ‘नईदुनिया‘ से मुक्त कर सकते हैं। माथुर जी ने साफ मना कर दिया। उन्होंने कहा कि अभी राजेश का प्रशिक्षण काल चल रहा है। बीच में छोड़ना उचित नहीं है। तब एसपी ने कहा कि संभव हो तो रविवार के लिए कभी-कभी रिपोर्टिंग की अनुमति दे दें। माथुर जी ने यह इजाजत दे दी, लेकिन अभय जी की त्यौरियां चढ़ गईं।
ज़ाहिर है एक मालिक के रूप में वे इसे कैसे पसंद कर सकते थे। कुछ दिन बाद मेरा लिखना शुरू हो गया। मैं देखता कि अभय जी की टेबल पर वह रविवार पड़ा रहता। अभय जी इससे प्रसन्न नहीं थे। एक बार रविवार में अर्जुन सिंह के ख़िलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगे और हमारी (पटैरया और विभूति जी के साथ) कवर स्टोरी छपी। अर्जुन सिंह से अभय जी के मधुर संबंध थे। अर्जुन सिंह सरकार ने विज्ञापन बंद करने की धमकी दी और मुझे निकालने का दबाव बनाया। उन दिनों अभय जी बड़े ग़ुस्से में थे। अंततः राजेंद्र माथुर और नरेंद्र तिवारी जी ने मामला शांत कराया। वह एक लंबी कहानी है। लेकिन बताने की आवश्यकता नहीं कि अभय जी दो-तीन महीने बाद ही मेरे साथ सामान्य हो पाए।
उनके बारे में कितना लिखूं ? बरसों तक साथ महसूस तो किया जा सकता है, लेकिन अक्सर शब्द कम पड़ते हैं। जब राजेंद्र माथुर जी लखनऊ से ‘नवभारत टाइम्स‘ निकालने जा रहे थे तो उस टीम में मेरा भी नाम था। सौजन्यतावश और पेशेवर शिष्टाचार के नाते अभय जी से उन्होंने बात की। अभय जी ने उनसे असमर्थता जताई, क्योंकि अखबार की अनेक जिम्मेदारियां मुझ पर थीं। इसके बाद फरवरी 1985 में माथुर जी ने फिर अभय जी से बात की। ‘नवभारत टाइम्स‘ का जयपुर संस्करण प्रारंभ होने जा रहा था। उसके लिए वे मुझे जयपुर में चाहते थे। इस बार अभय जी ने हां कर दी। कारण यह था कि कुछ महीने पहले ही अभय जी ने तैयारी कर ली थी कि मेरे नहीं रहने पर कौन सी टीम ‘नईदुनिया‘ ज्वाइन करेगी ।
दिलचस्प यह कि उन्होंने इस काम में मुझे ही शामिल किया था। उन्होंने चार-पांच प्रशिक्षु पत्रकारों के नाम एक भारी भरकम फाइल से छांटने के लिए कहा था। उन दिनों अख़बार में काम करने के लिए रोज ही दस से पंद्रह आवेदन प्राप्त होते थे। प्राथमिक तौर पर उन्हें शॉर्ट लिस्ट करने के बाद मैं उन्हें संदर्भ और पुस्तकालय विभाग के सदस्य अशोक जोशी जी को दे देता था। इस भारी फाइल से चार नाम मोती की तरह निकाले गए। ये थे यशवंत व्यास, रवींद्र शाह, दिलीप ठाकुर और भानु चौबे। इन लोगों ने मेरे बाद कमान संभाली थी। अभय जी जानते थे कि मैं जयपुर जा रहा हूं और मुझे इसकी खबर नहीं थी। उनका यह प्रबंधकीय कौशल था कि मुझे ही उन्होंने समाचार पत्र की अगली पीढ़ी के चुनाव की जिम्मेदारी सौंपी थी।
उनके मानवीय रूप को क्या कहूं। जब मैंने इंदौर ज्वाइन किया तो वहां के होटलों के खाने में मिर्च तेज होती थी। एक दिन बातों ही बातों में यह जानकारी उन्हें मिल गई। फिर तो अगले दिन से भाभी जी का संदेश मिलने लगा और बड़े दिनों तक उनके यहां भोजन के लिए जाता रहा। डायनिंग टेबल पर खाने की परंपरा उनके घर में उन दिनों तो नही थी। एक बड़े कमरे में नीचे बैठकर सभी भोजन करते थे। सामने एक लकड़ी का पटा होता था। उस पर थाली रखी जाती थी।
जब अभय जी के न्यौते पर सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर अपने जन्म स्थान इंदौर में अपना पहला गायन शो करने आईं तो अभय जी के घर इसी पद्धति से जमीन पर बैठकर उन्होंने दाल बाफले खाए थे। जब मेरा विवाह हुआ तो उन्होंने खास तौर पर संदेश भेजा कि बहू को घर लेकर आना। दाल बाफले का न्यौता है। हम लोग गए। उनका आशीर्वाद लिया। उन्होंने एक शानदार उपहार दिया। संस्था छोड़ने के बाद आजकल कौन याद रखता है? इन दिनों मेरे दौर के अधिकांश वरिष्ठ साथी यह लोक छोड़कर जा चुके हैं। शिखर पुरुष के रूप में अभय जी ही बचे थे, वे भी चले गए।
पत्रकारिता के इस विलक्षण व्यक्तित्व को मेरा नमन।
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।अभयजी के कई रूप थे और उनमें से हर रूप अपने आप में एक उपन्यास। और उनका हर रूप एक अंतहीनसंघर्ष की दास्तान है। बाहर-भीतर हर तरह का संघर्ष।
जयदीप कर्णिक, एडिटर, अमर उजाला (डिजिटल) ।।
बात सन 1998 के अक्टूबर की है। मालवा की खुशनुमा सर्दी की बस शुरुआत ही थी। सुबह ठीक 6.30 बजे इंदौर के साकेत चौराहे पर स्टील ट्यूब्स ऑफ इंडिया की बस आ जाती थी। हर रोज़ की तरह उस दिन भी मैं बस में चढ़ गया। पिछले लगभग तीन साल से मैं यही तो कर रहा था!! और क्या मैं ज़िंदगी भर यही करते रहना चाहूंगा? रात भर ज़ेहन को मथते रहे इस सवाल ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा था। बल्कि और मजबूती से घेर लिया था। क्या मैं इस तरह 4.75 और 6.35 की (संदर्भ फिर कभी) कॉर्पोरेट नौकरी के लिए ही बना हूँ? फिर मर्म में छिपे उस सृजन, लेखन, पठन और पत्रकारिता के उस तीव्र मनोभाव का क्या जिसे मैंने जैसे-तैसे दबाया हुआ था? कंपनी की बस तय समय पर देवास परिसर में दाखिल हो चुकी थी। इस तीखे वैचारिक संघर्ष के बीच सुबह ठीक आठ बजे टेबल पर आने वाली चाय आ चुकी थी और मैं अपना निर्णय ले चुका था। चाय का प्याला रखते हुए ही संयोगवश वो मुहावरा मन में गूंज उठा– दिस इज नॉट माय कप ऑफ टी!! प्याला रखते ही मैं अपना इस्तीफा लिखना शुरू कर चुका था। इस्तीफा स्वीकृत होने में वक्त लगा और वो कहानी फिर कभी। पर जैसे ही मंजूरी मिली अगला फोन अभयजी को ही किया था।
तराणेकर मैडम ने फोन उठाया था और मेरे निवेदन पर अभयजी से पूछकर हमें जोड़ दिया। जुड़े हुए तो हम पहले से थे। आना-जाना मिलना बचपन से था। पर यह एक अलग जुड़ाव की शुरुआत थी।
मैंने कहा आपसे जरूरी में मिलना है अभयजी!
बोलो – क्या बात है?
मिलकर ही बता पाऊंगा, मैंने कहा।
शाम को आ जाओ, तुरंत उत्तर मिला और फोन बंद।
तो उस शाम मेरा जीवन बदल देने वाली वो मुलाक़ात हुई। अभयजी अपने चिर-परिचित सफ़ेद कलफ वाले कुर्ते और पजामे में ‘नईदुनिया’के खुले दफ्तर की उसी बाहर वाली मेज पर बैठे थे जिसकी दाहिनी खिड़की से उन्हें बाबू लाभचंदजी की प्रतिमा और हर आने-जाने वाला व्यक्ति दिखाई देता था। किसी ज़रूरी कागज को पढ़ते हुए ही उन्होंने मुझसे कहा था, आओ जयदीप, बैठो। कागज पर कोई टीप लगाकर उसेजावक ट्रे में रखने के बाद बोले, अब बताओ ऐसी क्या ज़रूरी बात हो गई? मैंने तपाक से कहा– सर पत्रकारिता करना है। आपके यहां जगह हो तो बताइए? वो थोड़ा सा ठिठके। उनसे बहुत बरसों के संबंध रखने वाला मैं, अचानक उनसे बहुत औपचारिक और गंभीर हो गया था। वो इस गंभीरता को ही भांपते हुए बोले– क्या तुमने ठीक से सोच लिया है, तुम्हारी नौकरी तो अच्छी चल रही है! मैंने कहा– अभयजी, मैं तो सोच चुका हूं। आप बताइए। एकदम सीधा और सपाट। उन्होंने फिर थोड़ा समझाइश देने या यों कहें कि मेरे इरादे की मजबूती भांपने की कोशिश की। मैं तो ठान कर ही आया था। फिर मैंने एक ऐसा वाक्य कहा जिसने विमर्श की दिशा ही बदल दी–
मैंने कहा अभयजी पत्रकारिता तो करनी ही है और अगर मध्यप्रदेश में करूंगा तो ‘नईदुनिया’में ही, अगर आप ना कहेंगे तो मैं तुरंत दिल्ली चला जाऊंगा।
अभयजी समझ गए और सीधा सवाल किया– क्या तुमने रमेश (बाहेती जी) को सब बता दिया है? क्या वो सहमत हैं? चूंकि अभयजी और डॉक साब यानि डॉक्टर रमेश बाहेती जिनके यहां स्टील ट्यूब्स में मैं कार्यरत था, दोनों अभिन्न मित्र थे, अभयजी नहीं चाहते थे कि उस स्तर पर कोई दिक्कत हो। इसको मैं पहले ही साध चुका था।
इसके बाद अभयजी ने कहा हम उतने कॉर्पोरेट वाले पैसे नहीं दे पाएंगे।
मैंने कहा – वो मैं सोच चुका हूं।
कब से आना चाहोगे – अभयजी ने पूछा।
मैंने कहा वहां 30 नवंबर आखिरी कार्यदिवस है। एक दिसंबर से आना चाहूंगा – एक दिन भी बिना रुके।
उन्होंने कहा – ठीक है।
तो इस तरह 1 दिसंबर 1998 को ‘नईदुनिया’के साथ मेरा औपचारिक सफर शुरु हुआ।
आज अभयजी के चले जाने के बाद यही मुलाक़ात बार-बार ज़ेहन में घुमड़ रही है। ये मुलाक़ात यों बहुत आसान नहीं थी। पर ये आसान हो गई थी महाविद्यालय के दिनों की अभयजी से हुई मुलाकातों से।
वाद-विवाद और रचनात्मक लेखन से जुड़े हम साथियों ने उससे कहीं आगे बढ़कर एक अखबार निकाल दिया था– ‘उद्घोष प्रयास’। अभयजी इसकी पूरी यात्रा के साक्षी रहे, मार्गदर्शक और आलोचक दोनों ही रूपों में। अभयजी उन दिनों एक विराट व्यक्तित्त्व थे। बहुत प्रभावी आभामंडल वाले। लार्जर देन लाइफ! इन्हीं अभयजी को हम साथियों ने उद्घोष प्रयास का एक साल पूरा होने पर अपने कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया था। बहुत जिद के साथ। कार्यक्रम का नाम था युवार्पण। युवाओं को अर्पित एक समाचार पत्र।
मेरी अभयजी से इस मुलाक़ात और फिर नईदुनिया से औपचारिक जुड़ाव में इस युवार्पण का भी बहुत बड़ा योगदान रहा। शायद अभयजी ने उस दिन उस जिद और जुनून को भांप लिया था।
तो 1998 के बाद जिस तरीके से अभयजी ने मुझे अपनाया, आगे बढ़ाया वो अपने आप में एक इतिहास है।
एक दिसंबर को नौकरी के पहले दिन ही उन्होंने मुझे ‘लंबी टेबल’ यानि प्रूफ डेस्क के प्रभारी किशोर शर्मा ‘दादा’ के हवाले कर दिया था और कहा था इसे काम सिखाओ। मैं अवाक था। देश दुनिया की भाषण प्रतियोगिताएं जीतने और कॉलेज में ही अखबार निकाल देने वाला मैं, यहां प्रूफ रीडिंग के लिए तो नहीं आया था!! यही गुरूर मेरे मन में आया था उस दिन। पर दो-तीन दिन प्रूफ की टेबल पर बैठने के बाद ही दिमाग के जाले साफ हो गए और अहंकार का तिलिस्म टूट गया। पता चल गया कि नईदुनिया– नईदुनिया क्यों है?
बाबू लाभचंदजी, राजेन्द्र माथुर, राहुल बारपुते और रणवीर सक्सेना जैसे कई दिग्गजों की नईदुनिया, जो अपने आप में पत्रकारिता के एक गुरुकुल के रूप में स्थापित हो चुकी थी। अब उस गुरुकुल को अभयजी नेतृत्व दे रहे थे। अभयजी और महेन्द्रजी की दो मेजों से चलने वाली नईदुनिया की धाक बरकरार थी और अभयजी का व्यक्तित्त्व विशाल होता जा रहा था।
इसी छत्र-छाया में मैं गुरुकुल का नया सदस्य था और अभयजी की स्नेह वर्षा से तर-बतर। वो भी इतनी कि आस-पास जलन और ईर्ष्या का गुबार उठने लगे। पर इस सबसे अनभिज्ञ मैं अपने काम में डटा हुआ था। प्रूफ, फिर फीचर डेस्क साथ में सिटी रिपोर्टिंग, कभी डाक, कभी टेलीप्रिंटर कभी दिवाली विशेषांक। हर तरह का काम सौंपा। सुबह दस बजे से देर रात सिटी रिपोर्टिंग तक, अभयजी ने इतना काम करवाया, जिसे मैं उस समय रगड़ना समझ रहा था और अभयजी मुझे तैयार कर रहे थे, तराश रहे थे।
बहुत सारे अनुभव हैं अभयजी के साथ। ना यादें कम हो पाएंगी ना कलम रुक पाएगी।
दरअसल अभयजी के कई रूप थे और उनमें से हर रूप अपने आप में एक उपन्यास। और उनका हर रूप एक अंतहीनसंघर्ष की दास्तान है। बाहर-भीतर हर तरह का संघर्ष।
उनका सबसे महत्वपूर्ण संघर्ष था मालिक-संपादक होने का संघर्ष। एक ऐसी नईदुनिया जिसे खुद उनके पिता बाबू लाभचंदजी ने गढ़ा था। जिसमें संपादक एक पूरी संस्था थी और लगातार पत्रकारिता के मूल्यों को परिभाषित कर रही थी। संपादक सर्वोपरि था। उस नईदुनिया में एक मालिक का संपादक बन जाना एक ऐसी अग्निपरीक्षा थी जिसे अभयजी ताउम्र देते रहे। इस संघर्ष में ही उनका जीवन निकल गया। अपनीतमाम पत्रकारीय समझ, दूरदृष्टि, लेखकीय पकड़, कुशल प्रबंधन, सतत नवाचार के आग्रह और ऐसे ही अनेक विलक्षण गुणों के बाद भी वो उन अंगारों पर चलते रहे।
उनके अन्य रूपों की भी बहुत विस्तार से चर्चा हो सकती है पर पत्रकारिता के क्षेत्र में उनका योगदान और एक मालिक-संपादक के तौर पर उनका संघर्ष अभूतपूर्व और अतुलनीय है।
अभयजी से बहुत कुछ सीखा और वो सब आज भी साथ है और काम आ रहा है। मैं बहुत सौभाग्यशाली हूं कि उनका ऐसा सान्निध्य मुझे मिला।
पिछले कुछ समय से अभयजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। जब तक वो अभय प्रशाल जा पा रहे थे, मिलना अधिक होता था। हर बार इंदौर आने पर तय था। फिर तबीयत ने साथ नहीं दिया और हमेशा सक्रिय रहने वाले अभयजी घर तक ही सिमट गए। कभी मुलाकात हो पाती थी कभी नहीं। असल में तो उनके जीवन के इतने संघर्ष देखने के बाद इस एक और संघर्ष को देखना भी थोड़ा कठिन ही था। पर जीवट उनका पूरा था।
उनके स्वास्थ्य को देखते हुए यह तो पता था कि अब उनके पास बहुत समय नहीं है। पर व्यक्ति के होने और ना होने में फिर भी बहुत बड़ा फर्क है, आज यानि 23 मार्च की सुबह जब ये समाचार आया कि समाचारों की दुनिया का एक बड़ा नक्षत्र अस्त हो गया है, अभयजी नहीं रहे तो एक अजीब तरह की रिक्तता ने घेर लिया। चीजें तय होने पर भी जब होती हैं तब उसकी गंभीरता का एहसास होता है। एक उम्मीद टूटती है, एक विराम लगता है। जीवान का दर्शन घेर लेता है।
आप मेरे साथ हमेशा रहेंगे अभयजी। मेरा शत शत नमन। विनम्र श्रद्धांजलि। ईश्वर से प्रार्थना है कि अब वो अभयजी के तमाम संघर्षों को यहां इस लोक में ही विराम दें और उस लोक में उन्हें वो सब मिले जिसके वो हकदार हैं।
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राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।
उफ्फ! यह कैसी होड़ है? सब इतनी जल्दी में हैं जाने के लिए। कोई नहीं रुक रहा है। पिछले बरस कमल दीक्षित, राजकुमार केसवानी, शिव अनुराग पटेरिया, प्रभु जोशी और महेंद्र गगन से जो सिलसिला शुरू हुआ, तो शरद दत्त, राजुरकर राज, पुष्पेंद्र पाल सिंह और दिलीप ठाकुर तक जारी है। कुछ उमर में बड़े, कुछ बराबरी के और बहुत से उमर में छोटे। मन अवसाद और हताशा के भाव से भरा हुआ है। जाना तो एक न एक दिन सबको है। कोई अमृत छक कर नही आता, लेकिन इस तरह जाने को मन कैसे स्वीकार करे?
पिछले दिनों सोचा था कि अब किसी के जाने पर कोई शोकांजलि नही लिखूंगा। पर ऐसा कर न सका। रात को आंख बंद करता, तो वे चेहरे आकर सवाल करते थे। कहते थे, बस यहीं तक रिश्ता था। अभी तो हमें गए साल भर भी नहीं हुआ और तुमने सारी यादें डिलीट कर दीं। मैं अपराधी सा सुन लेता। नहीं रहा गया तो फिर यादों की घाटियों का विचरण आपसे साझा करने लगा।
दस बारह बरस छोटे पुष्पेंद्र पाल सिंह की तो अभी त्रयोदशी भी नहीं हुई कि दिलीप ठाकुर की खबर आ गई। साल यदि ठीक ठीक याद है तो शायद जनवरी या फरवरी 1985 रही होगी। मैं ‘नईदुनिया’में सहायक संपादक था। काम का बोझ बहुत था। संपादकीय पन्ना, संपादक के नाम पत्र, भोपाल संस्करण, मध्य साप्ताहिक और रविवारीय स्तंभों की बड़ी जिम्मेदारी थी। मैं अक्सर अभय जी से कहता कि मुझे कुछ और नए साथी चाहिए। काम अधिक है और मैं गुणवत्ता के मान से न्याय नहीं कर पा रहा हूं। अभय जी सुनते और मुस्कुरा देते। कहते कुछ नहीं। धीरे-धीरे मुझे उनकी मुस्कुराहट पर खीझ आने लगी। एक दिन अचानक उन्होंने रात को ऑफिस से घर जाते समय करीब दस बजे कहा कि कल सुबह नौ बजे आओ।
अगले दिन सुबह जब मैं पहुंचा तो उन्होंने दो कप की चाय ट्रे का ऑर्डर दिया और मुझे एक फाइल पकड़ा दी। बोले, तुम पर काम अधिक था। वाकई। लेकिन मैं जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं करता। नईदुनिया की अपनी परंपरा है। तुम जानते ही हो। मैं दो महीने से भरोसे के और योग्य नौजवानों के बारे में जानकारी एकत्रित कर रहा था। ये कुछ बायोडाटा हैं। इनमें से चार पांच छांट लो और उनके बारे में पता करके एक दिन मिलने के लिए बुला लो। मैंनें फाइल ली और अपनी डेस्क पर आ गया। फाइल से चार अच्छे नाम निकले। ये थे, दिलीप ठाकुर, यशवंत व्यास, रवींद्र शाह और भानु चौबे। एकाध नाम और था। पर, इन चार लोगों को नईदुनिया परिवार का सदस्य बनाने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ। सभी एक से बढ़कर एक थे। दिलीप ठाकुर को मैं भोपाल डेस्क पर चाहता था। मगर उस पर गोपी जी ने वीटो कर दिया। इस तरह दिलीप सिटी डेस्क पर गोपी जी के साथी बन गए। तबसे जितना भी दिलीप मेरे संपर्क में आए, मैनें उन्हें शिष्ट, मृदुभाषी और अच्छी भाषा का मालिक पाया। एक बार तो मैंनें उनसे मजाक भी किया। कहा, यार दिलीप कहां तुम पत्रकारिता में फंस गए। तुम इतने हैंडसम हो कि फिल्म संसार में जाकर किस्मत आजमाओ। दिलीप आंखों में आंखें डालकर मुस्कुरा दिए। बाद में पता चला कि राजेंद्र माथुर जी ने अभय जी को फरवरी में ही बता दिया था कि मुझे ‘नवभारत टाइम्स’के जयपुर संस्करण में ले रहे हैं। अभय जी ने मेरे नहीं रहने के बाद काम और गुणवत्ता पर उल्टा असर नहीं पड़े इस कारण ही वह फाइल मुझे सौंपी थी। तब तक तो मैं भी नही जानता था कि मुझे ‘नवभारत टाइम्स’ जयपुर शुरू करने जाना है। दिलीप के रूप में हमने एक शानदार इंसान और बेहतरीन पत्रकार को खो दिया। ऐसे पत्रकार आज दुर्लभ हैं। भाई दिलीप ठाकुर को श्रद्धांजलि।
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उमेश उपाध्याय, वरिष्ठ पत्रकार ।।
1985 की बात है। मुझे पीटीआई भाषा में प्रशिक्षु पत्रकार की नौकरी मिले हुए कुछ ही दिन हुए थे। सुबह की पारी आठ बजे शुरू होती थी। सरोजिनी नगर से 50 नंबर की बस पकड़कर आपाधापी में संसद मार्ग स्थित पीटीआई की पहली मंजिल के समाचार डेस्क पर पहुंचा ही था कि सामने से संपादक पास आकर खड़े हो गए। संयोग था कि उस समय डेस्क पर मैं अकेला ही पहुंच पाया था। अब एक प्रशिक्षु की हालत अपने सबसे शीर्षतम अधिकारी को अपने सामने पाकर क्या होगी अंदाजा लगा सकते हैं। उनके पास हाथ से लिखे कुछ पन्ने थे। मुझे पकड़ाते हुए बोले, 'जरा देखो इसमें कोई गलती तो नहीं।' वे तो ऐसा कहकर अपने कक्ष में चले गए। लेकिन मैं हतप्रभ था। भला मैं संपादक के लेख में कोई गलती कैसे निकालता?
थोड़ी देर बाद उन्होंने बुलवाकर पूछा, 'तुमने पढ़ा, कोई गलती तो नहीं हैं लेख में?' मैं अभी भी सकपकाया हुआ था। धीमे से बोला 'सर मैं क्या देखता इसमें?' मेरा कहने का अर्थ था कि मेरी क्या औकात कि आप जैसे बड़े पत्रकार के लेख को देखूं। मेरी स्वाभाविक झिझक को भांपकर थोड़े स्नेहवत आधिकारिक स्वर बोले, 'यहां मैं संपादक नहीं और तुम प्रशिक्षु नहीं। हम दो पत्रकार हैं। और पत्रकारिता का मूल नियम है कि कोई कॉपी बिना दो नज़रों से गुजरे छपने के लिए नहीं दी जाती। इसलिए जाओ और इसे ठीक से पढ़कर वापस लाओ।'
ऐसे मेरे पहले संपादक थे डॉ. वेद प्रताप वैदिक। पत्रकारिता का मेरा यह पहला सबक था जो जीवन भर याद रहा। वैदिक जी इतने ख्याति प्राप्त और बड़े संपादक होते हुए भी सुबह की शिफ्ट में अक्सर आठ बजे से पहले दफ्तर पहुंच जाया करते थे। मेरी दफ्तर समय से पहुंचने की आदत उन्हीं से पड़ी। उसके थोड़े दिनों बाद की ही बात है।
मेरी एक कॉपी कई सारे लाल निशानों के साथ मुझे वापस मिली। मुझे लगा कि मेरी अनुवाद की हुई कॉपी तो ठीक ही थी। वैदिक जी ने मुझे बुलवाकर कहा, 'तुमने अपनी कॉपी पढ़ी? जरा पहला वाक्य देखो। 15 शब्दों का है। इतना बड़ा वाक्य कौन पढ़ पायेगा?' फिर बड़े प्रेम से कहा कि एक वाक्य में 5/7 से अधिक शब्द न हों। छोटे वाक्य लिखने की ये सीख डॉ. वैदिक से ही मिली।
उसके बाद से डॉ. वैदिक से एक अंतरंगता का नाता जुड़ गया जो जीवन भर चलता रहा। संबंध बनाने और उन्हें जीवनभर निभाने की विलक्षण सामाजिकता वैदिक जी की खासियत थी। काश सब लोग ऐसा कर पाते! उनके ये सम्बन्ध बिना किसी आडम्बर, लोभ, दिखाबे या स्वार्थ के थे। उनके संबंध विचारधारात्मकया राजनैतिक संबद्धता से भी परे होते थे। सभी दलों और उनके नेताओं से उनका आत्मीयता का नाता रहा। वे पुरानी बातें भी खूब याद रखते थे। तीन साल पहले जब वे बिटिया दीक्षा के विवा हमें आशीर्वाद देने पहुंचे तो सीमा से बोले थे। 'बहू, तुम्हारे विवाह में भी में सरोजिनी नगर आया था, तुम्हें याद हैं न?' वे मेरे विवाह का जिक्र कर रहे थे। सीमा को वे बहू कहकर ही बुलातेथे।
हर महीने दो महीने में उनसे बात होती ही थी। अक्सर उन्हीं का फोन आता था। कोई महीने भर पहले वैदिक जी का फोन आया था। तब उन्होंने दक्षिण एशिया, पश्चिम एशिया, मध्य एशिया और अफ्रीका के विकासशील देशों का एक साझा गैर सरकारी मंच बनाने की बात कही थी। वे चाहते थे कि भारत के नेतृत्व में बनने वाले इस प्रयास में मैं भी रहूं। भारत के दूरगामी हितों की चिंता और उन्हें आगे ले जाने के प्रयास- ये वैदिक जी के वजूद का अभिन्न अंग था। उनके लेखों और व्याख्यानों में भी यही मूल विषय रहता था। इस नए संगठन के बारे में उनसे मिलकर बातकर ने का वादा हुआ था। आप तो चले गए। अब इस वादे को कौन निभाएगा वैदिक जी!!!
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आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार ।।
भारत की पत्रकारिता, समाज को एक अपूरणीय क्षति; डॉ. वेद प्रताप वैदिक ने एक बड़ा आंदोलन हिंदी के लिए खड़ा किया
डॉ. वेद प्रताप वैदिक हिंदी के मूर्धन्य पत्रकार, सम्पादक, लेखक ही नहीं थे, एक व्यक्ति के रूप में भी वे बड़े ईमानदार, चरित्रवान, संस्कारवान थे। विचारों पर मत-भिन्नता से उन्हें आपत्ति नहीं होती थी। आर्यसमाजी परिवार से वो आए थे। दिल्ली में छात्र-जीवन के दौरान जेएनयू में उन्होंने इस बात के लिए संघर्ष किया कि मैं हिंदी में ही अपना शोध-पत्र लिखूंगा।
एक बड़ा आंदोलन उन्होंने हिंदी के लिए खड़ा किया और अपनी बात को मनवाकर माने। लेकिन अंग्रेजी और शेष भारतीय भाषाओं से उनका कोई विरोध नहीं था। उनकी जीवनशैली सादगी से भरी थी। प्रगतिशील, समाजवादी विचारधारा के लोगों से भी उनके सम्बंध सदैव आत्मीय रहे। उनमें किसी के प्रति व्यक्तिगत दुर्भावना या विद्वेष नहीं रहता था।
तत्कालीन प्रधानमंत्री देवगौड़ा को उन्होंने हिंदी सिखाई थी। नरसिंहराव से लेकर अटलजी तक से उनकी मैत्री रही। पीटीआई का तो संस्थापक-सम्पादक उन्हें माना जाता है और उस समाचार-एजेंसी को हिंदी को नए सिरे से जीवित करने का काम उन्होंने किया।
नवभारत टाइम्स में जब राजेंद्र माथुर प्रधान सम्पादक थे, तब वैदिकजी को उसमें सम्पादक (विचार) का पद दिया गया था। इस पद के ही कारण उन्हें पीटीआई (भाषा) में काम करने का अवसर मिला था। भारत में समाचार-एजेंसियां तो पहले भी थीं, हिंदुस्तान समाचार थी, अंग्रेजी में पीटीआई-यूएनआई आदि थीं, लेकिन पीटीआई (भाषा) में उन्होंने हिंदी को समृद्ध करने का बड़ा काम किया।
समाजवादी झुकाव वाले नेताओं राज नारायण, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडिस से उनकी निकटता रही थी। दूसरी तरफ चरण सिंह, राजीव गांधी और बाद में सोनिया गांधी तक से उनका संवाद रहा। सुषमा स्वराज उन्हें अग्रज कहती थीं। सबसे मधुर सम्बंध रखना और साथ ही अपनी बातों को निडर होकर कहना उनकी विशिष्टता रही।
78 वर्ष की उम्र तक वे सक्रिय रहे और जीवन के अंतिम दिन तक कॉलम लिखते रहे। वे भारत के हितों की रक्षा को लेकर चिंतित रहते थे। अंतरराष्ट्रीय मामलों में उनके जितनी पकड़ रखने वाला पत्रकार हिंदी में राजेंद्र माथुर के बाद कोई और नहीं हुआ है। भारत का विदेश मंत्रालय भी समय-समय पर उनसे राय लेता था। भारतीय कूटनीति में परोक्ष रूप से उनके विचारों का प्रभाव रहता था।
अमेरिका, ब्रिटेन, मॉरिशस आदि में उनको भाषण देने के लिए बुलाया जाता रहा था। हिंदी के तमाम सम्मेलनों में वे जाते थे। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल आदि के शीर्ष नेताओं से भी उनकी व्यक्तिगत मैत्री रही थी। हाफिज सईद से हुई उनकी भेंट तो विवाद का विषय भी बनी थी, पर उन्होंने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि हम तो पत्रकार हैं, किसी से भी मिल सकते हैं।
वे खुलकर आलोचना करने का माद्दा रखते थे, पर किसी के प्रति कटुता नहीं रखते थे। अथक यात्राएं करते और किसी भी व्याख्यान के निमंत्रण को स्वीकारने को हमेशा तत्पर रहते। धार्मिक कार्यक्रमों को भी सम्बोधित करते थे। एडिटर्स गिल्ड की बैठकों में वे जोरदार तरीके से अपनी बातें रखते थे।
धर्मयुग जैसी पत्रिका को चलाने का बीड़ा उन्होंने उठाया था। उनका जीवन बड़ा जुझारू रहा और कोई भी चुनौती लेने से वे कभी पीछे नहीं हटे। यह बहुत प्रेरणा देने वाला है। हिंदी के सौ-डेढ़ सौ अखबारों के लिए कॉलम लिखना उन्हीं के बूते का था। नियमित लिखने से उन्होंने कभी कोताही नहीं की। अपने लिए पांच सितारा सुविधाओं की मांग भी उन्होंने कभी नहीं की।
मेरा उनसे कोई पचास साल पुराना परिचय रहा। व्यक्तिगत रूप से वे बड़े निश्छल थे और सबसे इतने स्नेह से बात करते थे, मानो वह उनके परिवार का सदस्य हो। इस कारण अगर कभी उनके विचारों से असहमति भी रहती हो, तब भी कटुता की स्थिति निर्मित नहीं होती थी। किसी की भी व्यक्तिगत मदद के लिए वो हमेशा तैयार रहते थे। वैदिकजी के निधन से भारतीय पत्रकारिता, साहित्य और समाज को एक अपूरणीय क्षति हुई है।
(साभार: दैनिक भास्कर)
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वैदिक जी का जाना अभी तक समझ मैं ही नहीं आ रहा। अभी 2 दिन पहले उनसे बातचीत हुई थी, इसमें उन्होंने दक्षेस के गठन की पूरी रूपरेखा बताई थी। वे दक्षेस को लेकर बहुत उत्साहित थे।
वैदिक जी ने हिंदी को लेकर जितना काम किया, जितना उसके प्रसार के लिए कोशिश की, उसका संपूर्ण देश में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। वे दरअसल भारत में पैदा हुए विश्व मानव थे। दुनिया के अधिकांश देशों के राष्ट्राध्यक्ष उनके व्यक्तिगत मित्र थे।
वे जहां भी जाते थे उनके अंदर का पत्रकार उन्हें कुछ नया करने के लिए प्रेरित करता था। वे जब पाकिस्तान थे, तो उन्हें हाफिज सईद से मिलने का मौका मिला। वैदिक जी ने एक देशभक्त पत्रकार की तरह हाफिज सईद से बात की और भारत आकर सारी बातचीत सरकार को भी बतायी और देश को भी बतायी। बहुत सारे न्यूज चैनल ने उनसे खोद खोद कर सब पूछा, लेकिन एक चैनल ने जब कहा कि आपने यह देशद्रोह जैसा काम किया है, तो उन्होंने उसी समय कहा, तुम कभी संपादक नहीं बन सकते तुम हमेशा रिपोर्टर ही रहोगे।
वैदिक जी बहुत बड़े संपादक थे और सारे राजनेताओं के मित्र थे, पर उन्होंने कभी अंतरंग बातों को या ऑफ द रिकॉर्ड बातों को ना सार्वजनिक किया, ना कभी उसकी चर्चा की। देश के सारे प्रधानमंत्री उनके मित्र थे और वे भी सबके प्रिय थे। मैंने अपने स्टार जर्नलिस्ट सीरीज में उनसे बातचीत की थी, जिस बातचीत को सभी ने पसंद किया और अभी टीवी टिप्पणी कार बसंत पांडे ने सलाह दी कि मैं उस इंटरव्यू को दोबारा लोगों के सामने लाऊं।
हर नए पत्रकार की मदद के लिए वे तैयार रहते थे। किसी को उन्होंने कभी ना अपमानित और ना किसी का अनादर किया। वे अजातशत्रु थे।
क्या बाथरूम में गिरने से किसी की जान जा सकती हैं, विश्वास ही नहीं होता। पर हमारे यहां गांव में कहा जाता है की मौत आती है कोई बहाना लेकर आती है। इस पर बहुत सारी कथाएं है। वैदिक जी की मृत्यु भी एक कथा बन गई है। अब सिर्फ यादें हैं और उनका मुस्कुराता चेहरा है। वैदिक जी आप हमेशा याद आएंगे।
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विनोद अग्निहोत्री, वरिष्ठ पत्रकार ।।
सर्वाधिक युवा बुजुर्ग पत्रकार थे डॉ. वेद प्रताप वैदिक
वेद प्रताप वैदिक जी से मेरी मुलाकात पहली बार तब हुई जब मैने नवभारत टाइम्स में बतौर उप संपादक काम करना शुरू किया। ये 1985 की बात होगी। हालांकि उनका नाम और उनके भाषा आंदोलन समाजवादी विचारों के कारण मैं उनके व्यक्तित्व से परिचित था। जल्दी ही मेरा परिचय निकटता में बदल गया। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म करने और हिंदी सहित संविधान की आठवीं सूची में शामिल सभी भारतीय भाषाओं में कराने का आंदोलन। धरना और अनशन शुरू हुआ तो मेरी वैदिक जी से निकटता और बढ़ गई।हालांकि तब वो नवभारत टाइम्स छोड़कर हिन्दी समाचार एजेंसी 'भाषा' के संपादक बन चुके थे। इसके बाद भाषा स्वदेशी जैसे मुद्दों और धार्मिक पाखंड सांप्रदायिकता जातिवाद के खिलाफ संघर्ष में हम लगातार साथ रहे। स्वामी अग्निवेश और कैलाश सत्यार्थी द्वारा चलाये गये तमाम अभियानों आंदोलनों में वैदिक जी की सक्रिय भागीदारी होती थी और बतौर पत्रकार मैं भी उनसे जुड़ता था।
वैदिक जी के साथ मेरा मिलना जुलना और संवाद लगातार बना रहा। उनकी अंतरराष्ट्रीय समझ और संपर्कों के सभी कायल थे। देश विदेश के हर बड़े राजनेता के साथ उनका सीधा रिश्ता था। अपने लेखन और संबोधन में वो बेहद बेबाक थे। उन्होंने सत्ता या सरकार से कभी कोई सौदा या समझौता नहीं किया। जिन मुद्दों और मूल्यों के लिए उन्होंने संघर्ष किया उन्होंने आजीवन उनका पालन किया। उम्र पद और अनुभव की वरिष्ठता उन पर कभी भी हावी नहीं रही।
छोटा हो या बड़ा सबसे वो सहज भाव से मिलते थे। युवा पत्रकारों के लिए वो प्रेरणा स्रोत थे तो समकालीनों के लिए हमेशा सखा भाव उनके भीतर था। 'न काहू से दोस्ती न काहू से बैर' उनके जीवन का मूल मंत्र था। आतंकवादी संगठन लश्कर ए तैयबा प्रमुख हफीज सईद से उनकी मुलाकात बेहद चर्चित हुई। उन्हें तारीफ और आलोचना दोनों मिली पर वो अविचलित रहे और अपनी बात पर डटे रहे। कई मामलों में वेद प्रताप वैदिक बेजोड़ थे और जीवन के चौथे पहर में भी उनकी सक्रियता किसी युवा से भी ज्यादा थी। इस लिहाज से उन्हें वर्तमान में भारतीय पत्रकारिता का सर्वाधिक युवा बुजुर्ग पत्रकार माना जा सकता है। पत्रकारिता के शिखर पुरुष वेद प्रताप वैदिक के अचानक चले जाने से देश ने एक बुजुर्ग लेकिन बेहद सक्रिय पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता खो दिया है। विनम्र श्रद्धांजलि!
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उमाकांत लखेड़ा, वरिष्ठ पत्रकार ।।
डॉ. वेद प्रताप वैदिक हिंदी पत्रकारिता और लेखन में करीब छह दशक तक अपनी गहरी पकड़ बनाकर छाये रहे। इंदौर की पत्रकारिता से दिल्ली में संपादक होने के साथ ही देश की राजनीति में दक्षिण पंथियों से लेकर लेफ्ट के प्रमुख नेताओं से उनके सहज रिश्ते थे। सरल प्रकृति के कारण आसानी से लोगों से घुल मिल जाना उनके स्वभाव में था।
देश विदेश खास तौर पर दक्षिण एशिया, पाक, अफगानिस्तान, नेपाल और उप महाद्वीप के कई नेताओं से उनकी मित्रता थी। भाजपा और संघ के दिग्गजों के एजेंडे पर चलने के बावजूद नई-पुरानी भाजपा में उनकी उपेक्षा कइयों को चौंकाती रही है। उनका लंबा चौड़ा सामाजिक दायरा था। भारतीय भाषा आन्दोलन के अग्रणी थे। देश की सभी भाषाओं को आगे बढ़ाने की मुहीम से लंबे समय तक सक्रियता से जुड़े रहे।
मेरी वेद प्रताप जी से पहली मुलाकात 1988 में दिल्ली में कई कार्यक्रमों से शुरू हुई। बाद में भेंट-मुलाकातों का सिलसिला पीटीआई-भाषा में उनके दफ्तर व बाद में साउथ एक्स में चलता रहा। जब वे जहां भी मिले बहुत स्नेह से मिलते थे। छोटे और बड़े का भेद महसूस नहीं होने देते थे।
पिछले साल काबुल में तालीबानी सत्ता के काबिज होने पर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में राजदूतों से संवाद कार्यक्रम में उनको वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया गया तो वे सहजता से तैयार हो गए।
उम्र के इस मुकाम पर भी आए दिन कुछ ना कुछ नया लिखना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। उनके लेखन का एक खास गुण था कि कठिन से कठिन विषय पर सरल भाषा में आम पाठकों को जानकारी देना, ताकि विकट मसलों को हर कोई आसानी से समझ सके।
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पंकज शर्मा, संपादक, समाचार4मीडिया ।।
यह मेरा दुर्भाग्य ही है कि डॉ. वेद प्रताप वैदिक जैसी पत्रकारिता जगत की शख्सियत से मुझे कभी निजी तौर पर ज्यादा देर तक मिलने और लंबी बातचीत करने का मौका नहीं मिला। हां, फोन पर उनसे समय-समय पर जरूर मार्गदर्शन मिलता रहता था।
हालांकि, समाचार4मीडिया पत्रकारिता 40अंडर40 के फर्स्ट एडिशन में जब वह आए थे, तब उनसे संक्षिप्त वार्तालाप अवश्य हुआ था। उस दौरान उन्होंने कहा भी था कि जल्द ही वह मुझसे विस्तार से बातचीत करेंगे और मुझे बुलाएंगे। इस बीच एक-दो बार जब मैंने इस बारे में फोन कर उनसे मुलाकात का समय मांगा तो उन्होंने व्यस्तता का हवाला देते हुए जल्द ही मिलने की बात कही थी।
उस समय मैंने नहीं सोचा था कि वह हम सभी को इतनी जल्दी छोड़कर चले जाएंगे। मुझे इतना यकीन अवश्य था कि इस बार समाचार4मीडिया पत्रकारिता 40अंडर40 के दूसरे एडिशन के दौरान उनसे अवश्य मुलाकात होगी और तब मैं उनसे इस बारे में बात करूंगा और मिलने का समय तय कर लूंगा। लेकिन इसी बीच काल के क्रूर हाथों ने उन्हें हमसे छीन लिया।
डॉ. वैदिक ने मुझे भी अपने वॉट्सऐप ग्रुप में जोड़ा हुआ था, जिस पर वह अपने आर्टिकल शेयर करते रहते थे और हम समय-समय पर उनके आर्टिकल को साभार प्रकाशित भी करते रहते थे। आज सुबह ‘समाचार4मीडिया’ के फाउंडर और एडिटर-इन-चीफ डॉ. अनुराग बत्रा जी ने जब वैदिक जी के निधन का समाचार दिया तो दिल को एक बड़ा झटका सा लगा। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। बस, अफसोस यही रहेगा कि उनसे विस्तार से मुलाकात की इच्छा अधूरी ही रह गई, जो अब कभी पूरी नहीं हो सकेगी।
वैदिक जी के निधन का समाचार सुनते ही मैंने उनके सहयोगी मोहन जी को फोन लगाया और पूछा कि आखिर अचानक यह सब कैसे हो गया, तब उन्होंने बताया कि आज सुबह वह बाथरूम में गिरे मिले। आनन-फानन में डॉ. वैदिक को अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।
बेशक अब डॉ. वैदिक इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन इस नश्वर संसार में वह हम सभी के दिल में हमेशा रहेंगे। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह डॉ. वैदिक को अपने श्रीचरणों में स्थान दें। एक बार फिर पत्रकारिता जगत के जाने-माने हस्ताक्षर डॉ. वैदिक जी को विनम्र श्रद्धांजलि।
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भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है। वह 78 वर्ष के थे। उन्होंने कहा कि हिंदी भाषा के लिए किए गए डॉ. वैदिक के प्रयास हम सभी के लिए प्रेरणादायक हैं। उनका लेखन युवाओं का सदैव मागदर्शन करता रहेगा।
प्रो. द्विवेदी ने कहा कि वैदिक जी के निधन से हिंदी पत्रकारिता में एक बड़ा स्थान खाली हो गया है। वे देश-विदेश के घटनाक्रम पर पैनी निगाह रखने वाले समीक्षक थे। पड़ोसी देशों को लेकर उनकी जानकारी बेजोड़ थी। उनका निधन भारतीय पत्रकारिता के लिए अपूरणीय क्षति है। उन्होंने कहा कि हिंदी भाषा को लेकर जो आंदोलन उन्होंने शुरू किया, उसे कोई नहीं भूल सकता। ऐसे संवेदनशील पत्रकार का हमारे बीच न होना बहुत दुखी करने वाला क्षण है।
बुधवार को सुबह 9 बजे से 1 बजे तक डॉ. वैदिक का पार्थिव शरीर अंतिम दर्शन के लिए उनके निवास स्थान गुरुग्राम (242, सेक्टर 55, गुरुग्राम) में रखा जाएगा। उनका अंतिम संस्कार लोधी क्रेमेटोरियम, नई दिल्ली में बुधवार शाम 4 बजे होगा।
30 दिसंबर, 1944 को इंदौर में जन्मे डॉ. वेदप्रताप वैदिक को हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाने और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए किये गए उनके संघर्ष के लिए याद किया जाता है। डॉ. वैदिक ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के ‘स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज’ से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की थी। वे भारत के ऐसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध ग्रंथ हिंदी में लिखा था।
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