इंदिरा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक की सरकारों के कार्यकाल का गहराई से विश्लेषण किया जाए तो यह साबित हो सकता है कि इंदिरा गाँधी और नरेंद्र मोदी ने सर्वाधिक साहसिक फैसले किए।
आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार, पद्मश्री, लेखक और स्तंभकार।
कल्पना कीजिये कौन अपने परिवार का मुखिया कमजोर , बीमार और बैसाखियों के सहारे देखना चाहेगा ? कौन घर में शारीरिक रुप से कमजोर बच्चे या दामाद अथवा बहू होने की प्रार्थना करेगा? भारत को पोलियो से मुक्त होने का गौरव हो सकता है, तो देश में एक मजबूत प्रधानमंत्री और सरकार होने पर गौरव के साथ ख़ुशी क्यों नहीं हो सकती है ? लेकिन इन दिनों राजनीति के अलावा भी कुछ लोग हैं , जो कमजोर और गठबंधन की सरकार की तमन्ना के साथ वैसी स्थिति के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं।
इसका एक कारण लोक सभा चुनाव के बाद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को दो क्षेत्रीय दलों का सहयोग लेना पड़ रहा है। सरकार के कुछ निर्णयों को संसद में तत्काल पारित कर लागू करने के बजाय संसदीय समिति आदि से विस्तृत विचार और जरुरत होने पर संशोधन के लिए रख दिया गया। लेकिन इस रुख से प्रधानमंत्री को कमजोर तथा सरकार पांच साल नहीं चल सकने के दावे करके देश विदेश में भ्रम पैदा किया जा रहा है। जबकि अब लोक सभा और राज्य सभा में भी पर्याप्त बहुमत होने से सरकार महत्वपूर्ण विधेयक पारित करवा सकेगी। संविधान में बड़ा संशोधन किए बिना सरकार सामाजिक आर्थिक और सामरिक क्षेत्र में विभिन्न स्तरों पर क्रन्तिकारी बदलाव के फैसले संसद से पारित कर लागू कर सकती है।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक की सरकारों के कार्यकाल का गहराई से विश्लेषण किया जाए तो यह साबित हो सकता है कि इंदिरा गाँधी और नरेंद्र मोदी ने सर्वाधिक साहसिक फैसले किए। पहला परमाणु परीक्षण हो या बैंकों और कोल् इंडिया का राष्ट्रीयकरण या 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध के बाद बांग्ला देश का निर्माण , क्या कमजोर नेतृत्व की सरकार से संभव था? उन निर्णयों को गलत कहने वाले लोग रहे हैं। हाँ, इमरजेंसीं बहुत बड़ी राजनीतिक गलती थी ,लेकिन यह प्रधानमंत्रीं के कमजोर होने की परिणिति थी। दूसरी तरफ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी ,जम्मू कश्मीर से धारा 370 ख़त्म करने, तलाक व्यवस्था विरोधी कानून , संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत स्थान का आरक्षण, ब्रिटिश राज के काले कानूनों के बजाय नई न्याय संहिता लागू करने जैसे क्रन्तिकारी बदलाव अपने दृढ संकल्प और पर्याप्त बहुमत के बल पर किए।
आज़ादी के बाद कोई प्रधानमंत्री इतने बड़े कदम नहीं उठा सके। इससे पहले 1967 ( इंदिरा गाँधी ) , 1977 - 1979 ( मोरारजी देसाई और चरण सिंह ) , 1989 - 1991 ( वी पी सिंह , चंद्रशेखर ) , फिर 1999 तक नरसिंहा राव , अटल बिहारी वाजपेयी , एच डी देवेगौड़ा इंद्रकुमार गुजराल तक की कमजोर सरकारों से कोई बड़े निर्णय नहीं हो सके। इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की गठबंधन की सरकारों में खींचातानी , घोटालों की मजबूरियों से न केवल राजनीतिक पतन बल्कि आर्थिक विकास में कठिनाइयां आई। गठबंधन के कारण वाजपेयी और मनमोहन सिंह को कई क्षेत्रीय नेताओं के दबाव और भ्रष्टाचार को झेलना पड़ा।
इसे राजनीतिक चमत्कार ही कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी के दस वर्षों के कार्यकाल में किसी एक मंत्री के विरुद्ध घोटाले का कोई प्रामाणिक आरोप सामने नहीं आ सका। राहुल गाँधी या अन्य विरोधी नेता सरकार पर अनेक आरोप लगाते रहे , फिर भी जनता ने तीसरी बार मोदी की सरकार बनवा दी। केंद्र से अधिक राज्यों में कमजोर मुख्यमंत्रियों तथा दल बदल की अस्थिर सरकारों से राजनीति से अधिक नुकसान सामाजिक और आर्थिक विकास में हुआ। दिलचस्प बात यह है कि 1956 में केरल से दलबदल की शुरुआत हुई और बहुमत वाली कांग्रेस को धक्का लगा।
इसके बाद तो केरल में कम्युनिस्ट पार्टियों , मुस्लिम लीग और स्थानीय पार्टियों के गठबंधन की सरकारों तथा कांग्रेस गठबंधन की दोस्ती दुश्मनी का खेल चलता रहा। वह आज भी जारी है। राज्य और केंद्र में दोनों के चेहरे या मुखौटे अलग अलग हैं। पार्टी के कार्यकर्ताओं और जनता के लिए भ्रम जाल ही कहा जा सकता है। हाल के चुनाव में भी राहुल गाँधी के विरुद्ध मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने उम्मीदवार खड़ा किया, पश्चिम बंगाल में भी यही किया। जबकि केंद्र के लिए बने कथित गठबंधन में साथ रणनीति बनाते रहे।
दुनिया में ऐसा राजनीतिक मजाक और धोखा शयद ही देखने को मिले। उनके लिए सत्ता का खेल है, लेकिन इस तरह की स्थितियों से केरल अन्य पडोसी दक्षिण के राज्यों से आर्थिक विकास में पिछड़ता गया। साक्षरता में अग्रणी और योग्य लोगों को बड़ी संख्या में खाड़ी के देशों में नौकरी तथा अन्य काम धंधों के लिए दुनिया भर में जाना पड़ा। यही स्थिति पश्चिम बंगाल में हुई, जहाँ कांग्रेस , कम्युनिस्ट , माओवादी , तृणमूल कांग्रेस के माया जाल से सत्तर के दशक तक रहे उधोग धंधे भी बर्बाद हुए और टाटा बिड़ला जैसे उद्योगपति तक अपने उद्योग अन्य राज्यों में ले गए।
पड़ोसी बिहार और झारखण्ड भी दलबदल , जोड़ तोड़ , भ्रष्टाचार , कमजोर मुख्यमंत्रियों और अस्थिर सरकारों से आर्थिक विकास में पिछड़ता गया। भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर से नीतीश कुमार तक या कांग्रेस के भागवत झा जैसे ईमानदार मुख्यमंत्रियों को अधिक समय टिकने नहीं देने का नुकसान समाज को हुआ। यह बात जरुर है कि नीतीश कुमार को लगातार जन समर्थन मिला, लेकिन उन्हें अन्य दलों और भ्रष्टतम आरोपी लालू यादव जैसे नेताओं तक का सहारा भी लेना पड़ा। आदिवासियों के लिए संघर्ष से बने झारखण्ड की दुर्गति सबको दिख रही है।
उत्तर प्रदेश में 1967 के बाद दल बदल से कई बार अस्थिर सरकारें और कमजोर मुख्यमंत्री रहे। कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने कमलापति त्रिपाठी , हेमवतीनंदन बहुगुणा , नारायणदत्त तिवारी जैसे नेताओं को कभी मुख्यमंत्री बनाया , कभी हटाया। सो अब तक राहुल गाँधी और पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे केंद्र में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को ही नहीं अपने किसी मुख्यमंत्री को मजबूत नहीं देखना चाहते। राजस्थान में अशोक गहलोत , मध्य प्रदेश में कमलनाथ या उससे पहले ईमानदार मोतीलाल वोरा , पंजाब में कैप्टन अमरेंद्र सिंह , हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा को मजबूत नहीं होने देने के लिए अपने विधयकों को शह देते रहे।
तमिलनाडु गठबंधन की राजनीति से लगातार प्रभावित रहा। पूर्वोत्तर के छोटे राज्य अब थोड़ी राहत पाकर आर्थिक प्रगति कर रहे हैं अन्यथा अस्थिरता और भ्र्ष्टाचार से बेहद क्षति हुई। आश्चर्य यह है कि इस असलियत को देखने जानने वाले लोग भी केंद्र और राज्यों में अस्थिर गठबंधन की कमजोर सरकारों और मुख्यमंत्रियों को लाने की दुहाई दे रहे हैं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
राजनेता क्यो किसी पार्टी के प्रति निष्ठावान बने रहते है या उससे नाता तोड़ लेते है? कुछ एकजुट रहती है तो कुछ में विघटन हो जाता है। आप पार्टी कभी किसी राज्य में सत्ता में नहीं आएगी।
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी के पहले और भगवंत मान आप पार्टी के अंतिम मुख्यमंत्री होंगे। भविष्य में आप पार्टी कभी किसी भी राज्य में सत्ता में नहीं आएगी, यह तय है। आप पार्टी के नायक रहें केजरीवाल अब जनता की नज़र में सबसे बड़े खलनायक बन गए है। आप पार्टी में विघटन होना तय है।
आप पार्टी के कुछ नेता दूसरी पार्टियों में चले जाएँगे और कुछ नेता आप पार्टी में रहकर ही ख़त्म हो जाएँगे। राजनेता क्यो किसी पार्टी के प्रति निष्ठावान बने रहते है या उससे नाता तोड़ लेते है? कुछ पार्टियां एकजुट रहती है तो कुछ में विघटन क्यो हो जाता है? आखिरकार वो कौन सा तत्व है जो किसी पार्टी में एका बनाए रखता है और किन कारणों से पार्टी टूट जाती है? आइए पहले उन पहलुओं पर बात करे, जो इसके स्वाभाविक जवाब हो सकते है।
निश्चित तौर पर सबसे पहले तो विचारधारा पार्टियों को एकजुट रखने मे अहम भूमिका निभाती है और उसके बाद पैसे और सत्ता की ताकत वह चुंबक है जो किसी पार्टी को बचाकर रखता है। केजरीवाल के पास कोई विचारधारा नहीं है, और सिर्फ़ सत्ता के दम पर बची पार्टी थी।
वैचारिक प्रतिबद्धता और विचारधारा पर अडिग रहने वाली पार्टियाँ ही चुनाव दर चुनाव हारने के बाद भी बनी रहती है और तमाम संघर्ष के बाद सत्ता में आती है। बीजेपी इसका एकमात्र उदाहरण है। सशक्त व्यक्तित्व और नामी वंश भी एक पहलू है,जो पार्टियों को कुछ समय एकजुट रखता है और नई प्रतिभाओं को आकृष्ट करता है।
लेकिन अन्य तमाम व्यक्तिवादी, वंशवादी दलों की सूची बनाएं तो इन्हें छोड़ने वालों की संख्या अननिगत है,चाहे वो मायावती की बसपा हो, ठाकरे की शिवसेना हो, शरद पवार की एनसीपी या बादल परिवार की अकाली दल। आज यह दल अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे है।
कांग्रेस की अगर बात करे तों विचारधारा होने के बाद भी कांग्रेस अपने नेताओं को साथ जोडे रखने में विफल क्यो है? यह एक विचारधारा और एक नेता, वंश का दावा करती है, कांग्रेस के पास लोगों को आकृष्ठ करने के लिए सत्ता और संरक्षण की कुछ ताकत अभी भी है, लेकिन उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ केंद्रीय नेतृत्व इस कदम कमजोर है कि तमाम बड़े नेता हताश और निराश होकर आसानी से पाला बदलकर भाजपा में चले जाते है या दूसरी पार्टी बना लेते है। अरविंद केजरीवाल के पास कुछ नहीं है। आँधी की तरह आई आप पार्टी का आँधी की तरह भारतीय राजनीति से ग़ायब होना तय है। केजरीवाल और आप पार्टी का यही भविष्य है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
हकीकत ये है कि जो कुछ लोग अब तक वक्फ की अरबों की प्रॉपर्टी पर कब्जा करके बैठे हैं, उसके जरिए करोड़ों रुपये कमाते हैं, उनका खेल खत्म हो जाएगा।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
13 मार्च की रात को होलिका दहन होगा, पर उसी दिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और तमाम मौलानाओं ने दिल्ली के जन्तर मंतर पर वक्फ बिल के खिलाफ एक बड़े प्रोटेस्ट की कॉल दी है। 10 मार्च से संसद के बजट सत्र का दूसरा हिस्सा शुरू होने वाला है, उम्मीद ये है कि 10 मार्च को ही सरकार संसद में वक्फ प्रॉपर्टी बिल पेश करेगी। जेपीसी ने बिल में 14 संशोधनों के साथ अपनी रिपोर्ट संसद में पेश कर दी है। कैबिनेट ने भी संशोधनों को मंजूरी दे दी है। ये तय माना जा रहा है कि सरकार इसी सत्र में वक्फ बिल को पास कराएगी।
इसीलिए ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इस मुद्दे पर जंग का ऐलान कर दिया है। पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष खालिद सैफुल्लाह रहमानी का एक रिकॉर्डेड मैसेज आज व्हाट्सएप, फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के जरिए सर्कुलेट किया गया। इसमें सैफुल्लाह रहमानी ने दीन का हवाला देते हुए मुसलमानों से कहा कि जाग जाओ, घरों से निकलो, अगर वक्फ बिल पास हो गया, तो कहीं के नहीं रहोगे, तुम्हारी संपत्तियों पर सरकार कब्जा कर लेगी।
अगर ये सब रोकना है तो एकजुट हो जाओ, 13 मार्च को दिल्ली पहुंचो और सरकार को अपनी ताकत दिखाओ। चूंकि रमजान का महीना चल रहा है, इसलिए मौलवियों से अपील की गई कि वो जुमे की नमाज में कुनुते नाज़िला यानि मुश्किल हालात में पढ़ी जाने वाली विशेष दुआ पढ़वाएं, क्य़ोंकि ऐसे हालात से मुसलमानों को अल्लाह ही बचा सकता है। पर्सनल लॉ बोर्ड के कई नेताओं ने इसी तरह के वीडियो जारी किए।
बोर्ड के उपाध्यक्ष उबैदुल्ला खान आज़मी ने मुसलमानों को शाहबानो केस की याद दिलाई। याद दिलाया कि सारे मुसलमानों ने एक होकर शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ प्रदर्शन किया तो उस वक्त राजीव गांधी सरकार को झुकना पड़ा था, अब हालात उससे भी ज्यादा खतरनाक है। लखनऊ में बोर्ड के मेंबर मौलाना कल्बे जव्वाद की अगुवाई में प्रदर्शन हुआ।
सैफुल्लाह रहमानी, उबैदुल्ला आजमी, कल्बे जव्वाद, असदुद्दीन ओवैसी, इमरान मसूद जैसे तमाम नेताओं ने मुसलमानों को ये समझाने की कोशिश की है कि वक्फ बिल में अगर संशोधन हुआ तो उनकी प्रॉपर्टी छिन जाएगी, मदरसों और कब्रिस्तानों की जमीन सरकार ले लेगी। लेकिन बहुत कम मुसलमान ये जानते हैं कि वक्फ बिल का आम मुसलमानों की जायदाद से कोई लेना देना नहीं है। ओवैसी और रहमानी जो कह रहे हैं, मुसलमान उस पर यकीन इसीलिए करते हैं क्योंकि वक्फ बिल किसी ने नहीं पढ़ा।
सरकार का दावा ये है कि ये कानून सिर्फ वक्फ प्रॉपर्टी को रेगुलेट करने के लिए लाया जा रहा है. वक्फ बोर्ड जैसे पहले थे, वैसे ही रहेंगे। बस इतना फर्क आएगा कि जिस प्रॉपर्टी पर वक्फ बोर्ड ने हाथ रख दिया, वो उसकी नहीं हो पाएगी। वक्फ बोर्ड के लोग वक्फ प्रॉपर्टी का खुद-बुर्द नहीं कर पाएंगे। वक्फ बोर्ड में महिलाओं का प्रतिनिधित्व रहेगा। वक्फ बोर्ड की प्रॉपर्टी से कब्जा हटाने का रास्ता खुलेगा और अब तक इस मामले में वक्फ बोर्ड का जो एकाधिकार है, वो खत्म हो जाएगा।
सरकार का कहना है कि जो नया कानून बनेगा, उसमें वक्फ बोर्ड के फैसले को कोर्ट में चुनौती देने का अधिकार होगा। अब सवाल ये है कि इन प्रावधानों से मस्जिदें कैसे छिन जाएंगी? मदरसों और कब्रिस्तानों से मुसलमानों का कब्जा कैसे चला जाएगा ? हकीकत ये है कि जो कुछ लोग अब तक वक्फ की अरबों की प्रॉपर्टी पर कब्जा करके बैठे हैं, उसके जरिए करोड़ों रुपये कमाते हैं, उनका खेल खत्म हो जाएगा। इसीलिए वे परेशान हैं और यही लोग मुस्लिम भाइयों को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं। मामला वक्फ बोर्ड का है, लेकिन कोई मुसलमानों को बाबरी मस्जिद की याद दिला रहा है, कोई ज्ञानवापी की बात कर रहा है, कोई संभल की जामा मस्जिद का हवाला दे रहा है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
भारतीय शेयर बाज़ार की क़िस्मत FII से जुड़ी रही है। विदेशी निवेशक पैसे लगाते हैं तो बाज़ार ऊपर जाता है और निकालते हैं तो नीचे। भारतीय शेयर बाज़ार में अब भी सबसे बड़े मालिक है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
भारतीय शेयर बाज़ार में पिछले पाँच महीनों में 15% से ज़्यादा गिरावट आयी है। इस गिरावट का कारण है विदेशी निवेशक यानी Foreign Institutional Investors जो शेयर बेच ज़्यादा रहे हैं और ख़रीद कम रहे हैं। इस साल अब तक डेढ़ लाख करोड़ रुपये के शेयर बेच चुके हैं। म्यूचुअल फंड से जैसे Domestic Institutional Investor (DII) ख़रीद कर भरपाई कर रहे हैं। फिर भी बाज़ार को उठा नहीं पा रहे हैं।
भारतीय शेयर बाज़ार की क़िस्मत FII से जुड़ी रही है। विदेशी निवेशक पैसे लगाते हैं तो बाज़ार ऊपर जाता है और निकालते हैं तो नीचे। भारतीय शेयर बाज़ार में अब भी सबसे बड़े मालिक है। उनके पास 17% शेयर है। लगभग इतने ही शेयर DII के पास है। आने वाले समय में DII आगे भी निकल सकते हैं। पिछले 6 महीनों में FII ने 3.23 लाख करोड़ रुपये के शेयर बेचे हैं जबकि DII ने 3.37 लाख करोड़ रुपये की ख़रीदारी की है।
इसका कारण है Systematic Investment Plan ( SIP) से आने वाला पैसा। यह पैसा जब तक आता रहेगा तब तक विदेशी निवेशकों का माल म्यूचुअल फंड ख़रीद सकते हैं। यह सिलसिला धीमा पड़ा तो बाज़ार में और दिक़्क़त हो सकती है। तो अब लौटते हैं बिलियन डॉलर सवाल पर, FII को वापस बुलाने के लिए माँग उठ रही है कि कैपिटल गेन्स टैक्स ख़त्म किया जाए।
विदेशी निवेशक किसी देश में यह टैक्स नहीं देते हैं इसलिए भारत भी ना लगाएँ। Helios Capital के फाउंडर समीर अरोड़ा का वीडियो वायरल है जिसमें वो बता रहे हैं कि सरकार को इससे 2023 में 82 हज़ार करोड़ रुपये मिले हैं जबकि शेयर बाज़ार में विदेशी निवेशकों की बिकवाली के कारण 1 लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा का नुक़सान हो चुका है।
सरकार इसे हटा देती है तो विदेशी निवेशकों को राहत मिलेगी। एक अनुमान के मुताबिक़ FII भारत में ₹100 लगाते हैं और ₹10 कमाते हैं तो लाँग टर्म कैपिटल गेन्स टैक्स में ₹1.25 कट जाएँगे और शॉर्ट टर्म टैक्स लगने पर ₹2 कटेंगे। सरकार यह माँग तुरंत मान लेगी ऐसा नहीं लगता है। सरकार इनकम टैक्स में कटौती कर चुकी है जिससे क़रीब ₹1 लाख करोड़ का नुक़सान होने का अनुमान है। तो फिर FII कैसे लौटेंगे? तो इसका जवाब है जिन कारणों से उन्होंने बिकवाली की है उसमें जब बदलाव होगा। तीन मुख्य कारण हैं। कमजोर अर्थव्यवस्था : अगले साल GDP ग्रोथ 6.3% रहने का अनुमान है, जिससे कंपनियों के मुनाफ़े बढ़ सकते हैं।
महंगे शेयर : मुनाफ़े में गिरावट से शेयर महंगे हो गए हैं। दो ही रास्ते हैं, या तो शेयर 10-15% और गिरें या फिर कंपनियों की कमाई बढ़े। रुपये की गिरावट : पिछले एक साल में रुपया 3% गिरा है। जब FII बिकवाली कर निकलते हैं, तो उन्हें रुपये मिलते हैं, जिन्हें डॉलर में बदलने पर घाटा होता है। इस सबके बीच अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों ने बाज़ारों को अनिश्चितता में डाल रखा है।
पता नहीं कौनसा फ़ैसला कब करेंगे या पलट देंगे। ऐसे में विदेशी निवेशकों को अमेरिका बॉन्ड में निवेश सेफ़ लगता है। 4-5% रिटर्न मिल जाता है। फिर चीन का बाज़ार है। विदेशी निवेशकों को सस्ता लग रहा है, इसलिए वहाँ पैसे लगा रहे हैं। ऐसे में जानकार कहते हैं कि FII भारत में लौटेंगे ज़रूर लेकिन वापसी में 3 से 6 महीने लग सकते हैं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
साहित्योत्सव के उद्घाटन भाषण में संस्कृति मंत्री ने भले ही अंत में कुछ मिनट इस विषय को दिया लेकिन इसकी गूंज लंबे समय तक साहित्य जगत में रहनेवाली है।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
दिल्ली के रविन्द्र भवन में साहित्य अकादेमी का साहित्योत्सव चल रहा है। अकादमी का दावा है कि ये साहित्य उत्सव एशिया का सबसे बड़ा उत्सव है। कार्यक्रम की संरचना से इसकी विशालता का अनुमान लगाया जा सकता है। पिछले चार दशकों से साहित्य अकादेमी ये आयोजन करती रही है। जबसे के श्रीनिवासराव अकादमी के सचिव बने हैं तब से ये आयोजन निरंतर समृद्ध हो रहा है, लेखकों की भागीदारी के स्तर पर भी और विषयों के चयन में भी।
साहित्योत्सव का शुभारंभ केंद्रीय संस्कृति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत ने किया। विभिन्न भारतीय भाषा के साहित्यकारों और लेखकों की उपस्थिति में करीब आधे घंटे के भाषण में शेखावत ने कई महत्वपूर्ण बातें कहीं। साहित्य का सृजन करनेवालों की प्रशंसा, उत्सवधर्मिता का हमारे समाज में महत्व, सामूहिक चिंतन की भारतीय परंपरा, भारत के भविष्य और उसकी प्रासंगिकता पर शेखावत ने अपनी बात रखी। साहित्यकारों की भूमिका को बेहद सम्मानपूर्वक याद किया।
साहित्य की जीवंतता और गतिशीलता, भारत की विविधताओं का साहित्य में स्थान, देश को एकता के सूत्र में निबद्ध करने में साहित्य की भूमिका जैसे विषयों को संस्कृति मंत्री ने अपने व्याख्यान में छुआ। साहित्य समाज का दर्पण है से आगे जाकर शेखावत ने कहा कि हमारा साहित्य केवल समाज के वर्तमान का दर्पण नहीं अपितु भारत के दर्शन, भारत के धर्म, भारत की नीति, भारत का प्रेम, भारत का युद्ध, भारत की स्थापत्य कला और भारत के समाज जीवन से जुड़ी बातों की व्याख्या भी है। यहीं पर उन्होंने बौद्धिक प्रदूषकों की भूमिका पर टिप्पणी तो की लेकिन लगा जैसे उनको बहुत महत्व नहीं देना चाहते हैं।
अच्छी-अच्छी बातों के बाद संस्कृति मंत्री शेखावत ने उपस्थित साहित्यकारों के सामने विनम्रता से एक चुनौती रखी। साहित्यकारों और लेखकों का आह्वान किया कि वो परिवर्तन के वर्तमान दौर को अपने लेखन का विषय बनाएं। परिवर्तन के कारक के रूप में खुद को इस तरह से अनुकूलित करें कि आनेवाली पीढ़ी उनका स्मरण करे। शेखावत ने कहा कि आज भारत नई करवट ले रहा है।
पूरे विश्व में भारत की नई पहचान बन रही है। पिछले 10 वर्षों में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत से जिस तरह और जिस गति के साथ प्रगति की है, केवल आर्थिक दृष्टिकोण से ही नहीं इससे इतर भी, उससे पूरे विश्व में भारत का सम्मान नए सिरे से गढ़ा और लिखा जा रहा है। सम्मान बढ़ने के साथ भारत के ज्ञान की, भारत के विज्ञान की, भारत के योग की, भारत की संस्कृति की, आयुर्वेद की, जीवन पद्धति की, भारत की कृषि परंपराओं पर नए सिरे पूरे विश्व में पहचान सृजित हो रही है। ऐसे महत्वपूर्ण समय में हमारे साहित्य सर्जकों की, कलम के धनी लोगों की प्रासंगिकता महत्वपूर्ण हो जाती है।
जब कोई समाज या राष्ट्र समपरिवर्तन से गुजरता है, जब संभवनाएं द्वार पर दस्तक देती हैं, तो हर घटक की जिम्मेदारी बनती है कि वो बदलाव के पहिए को गति प्रदान करने का माध्यम बने। शेखावत बोले कि हम सौभाग्यशाली हैं कि हम सबको ऐसे समय में जीने और काम करने का अवसर मिला है जब भारत इस तरह के समपरिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। पूरा विश्व स्वीकार कर रहा है कि भारत विकसित होने की दिशा में काम कर रहा है। भारत विश्व का बंधु बनकर नेतृत्वकर्ता बनने वाला है। ऐसे महत्वपूर्ण समय में समाज के सबसे महत्वपूर्ण तबके को भी अपनी जिम्मदारी का एहसास करके अपनी भूमिका का निर्वहन करना चाहिए।
अंत में गजेन्द्र सिंह शेखावत ने कहा कि वो ऐसा नहीं कह रहे, कहने की धृष्टता भी नहीं कर सकते कि आज के साहित्यकार बदलाव को लक्षित कर लिख नहीं रहे। उन्होंने अवसर का लाभ उठाते हुए लेखकों से अनुरोध कर डाला कि समय की महत्ता को पहचान कर देश को एक साथ, एक विचार, एक मन, एक संकल्प लेकर एक पथ पर आगे ले चलें, ताकि उसपर गर्व किया जा सके। शेखावत ने स्वाधीनता संग्राम में साहित्यकारों और लेखकों की भूमिका को याद किया। कहा कि आज से सौ डेढ़ सौ साल पहले जिन लोगों ने अंग्रेजों की सत्ता के खिलाफ संघर्ष किया था उनके पास भी वो अवसर था।
जिन्होंने मुगलों की सत्ता से लोहा लिया उनके पास भी अवसर था। अवसर के अनुरूप आचरण के कारण उनका नाम हम गर्व से लेते हैं। आज भी अपने रक्त में उनके नाम को सुनकर स्पदंन महसूस करते हैं। मैं आज ये बात जिम्मेदारी के साथ कह रहा हूं भारत परिवर्तित होगा। 50 साल बाद जब इस परिवर्तन का इतिहास लिखा जाएगा तो मैं चाहूंगा कि आपका नाम भी उतने ही सम्मान के साथ आनेवाली पीढ़ी स्मरण करते हुए गर्व करे जिस गर्व की अनुभूति सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के स्मरण से होती है।
साहित्योत्सव के उद्घाटन भाषण में संस्कृति मंत्री ने भले ही अंत में कुछ मिनट इस विषय को दिया लेकिन इसकी गूंज लंबे समय तक साहित्य जगत में रहनेवाली है। आज साहित्यकारों और लेखकों के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती है वो है अपने समय को ना पकड़ पाने की है। पटना में आयोजित जागरण बिहार संवादी के दौरान उपन्यासकार रत्नेश्वर ने एक सत्र में इस बात को रेखांकित किया था कि आज के लेखक अपने समय में घटित हो रहे बदलाव को या तो पकड़ नहीं पा रहे हैं या जानबूझकर उसकी अनदेखी कर रहे हैं। उन्होने जोर देकर कहा था कि ये अकारण नहीं है कि आज बड़े पाए के न तो कहानीकार सामने आ रहे हैं और ना ही उपन्यासकार।
घिसी पिटी लीक पर चलने से पाठक विमुख होते जा रहे हैं। समय का हाथ छूट जाने का दुष्परिणाम है कि आज उपन्यासों की महज पांच सौ प्रतियां छप रही हैं। कविता संग्रह के प्रकाशन के लिए कम ही प्रकाशक उत्साह दिखाते हैं। हाल ही में प्रयागराज में संपन्न महाकुंभ को केंद्र में रखकर अनिल विभाकर ने जलकुंभियां नाम से एक कविता लिखी।
इस कविता में अनिल विभाकर ने लिखा, जलकुंभियों का महाकुंभ पसंद नहीं/ कोई नहीं करता जलकुंभियों की चिंता/कोई कर भी नहीं रहा/चिंता करे भी तो कोई क्यों/हमेशा गंदे जल में पनपती हैं वे/निर्मल जल भी सड़ जाता है इनके संसर्ग में/पानी फल और मखाना की दुश्मन होती है जलकुंभियां/इन्हें साफ करना ही पड़ेगा/जहां-जहां भी है जल/लोग लगाएंगे मखाना, उगाएंगे पानी फल। इस कविता में अनिल विभाकर ने महाकुंभ की अकारण आलोचना करनेवालों पर प्रहार किया है। वो कहते हैं कि इन्हें साफ करना ही पड़ेगा। निहितार्थ स्पष्ट है।
इस कविता के सामने आने के बाद अनिल विभाकर की आलोचना आरंभ हो गई। देखा जाए तो विभाकर समाज मानस में हो रहे परिवर्तन को पकड़ने और उसको लिखने का प्रयास कर रहे हैं। आज भारतीय समाज में जिस तरह के परिवर्तन हो रहे हैं क्या वो साहित्य का विषय बन पा रहे हैं? इस पर चर्चा होनी चाहिए। संस्कृति मंत्री ने साहित्य अकादेमी के मंच से लेखकों से इस परिवर्तन को पकड़ने और परिवर्तन का सारथी बनने का आह्वान किया। अगर ऐसा हो पाता है तो ना केवल भारतीय साहित्य का भला होगा बल्कि लेखकों को समाज जीवन से जुड़ने और समाज के मन को सामने लाने का अवसर भी मिल सकेगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
जहां पहले देश के करीब सौ जिलों में नक्सली आतंक था, वहाँ अब करीब दो दर्जन जिलों तक सीमित रह गया है। लेकिन अब अर्बन नक्सल के खतरे अधीक बढ़ गए हैं।
आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार, पद्मश्री, लेखक।
लंदन में विदेश मंत्री एस जयशंकर पर खालिस्तान समर्थक समूह द्वारा हमले की कोशिश पर भारत सरकार ने गंभीर चिंता व्यक्त की है। कथित खलिस्तान के नाम पर ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका जैसे देशों में कुछ आतांकवादी समूह न केवल सक्रिय हैं बल्कि कथित मानव अधिकार के नाम पर कुछ अंतरराष्ट्रीय संगठन और राजनीतिक दल के नेता भी उनका समर्थन करते हैं।
ब्रिटेन में लेबर पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रतिपक्ष में रहकर वोट बैंक के लिए या भारत को कमजोर देखने के लिए उनका समर्थन करते रहे हैं। अब लेबर पार्टी सत्ता में हैं और वह भारत के साथ अच्छे संबंधों के लिए प्रयासरत है। ऐसी स्थिति में भारत का कड़ा विरोध आवश्यक है। लेकिन भारत में भी पाकिस्तान तथा अन्य देशों के माध्यम से फन्डिंग पा रहे कथित खालिस्तानी आतंकी अथवा नक्सली अब भी कुछ इलाकों में समय समय पर हमले की कोशिश करते हैं। उत्तर प्रदेश और पंजाब पुलिस के समूह ने इसी सप्ताह खालिस्तानी आतंकी संगठन बब्बर खालसा इंटरनेशनल तथा पाकिस्तानी आई एस आई के सदस्य लजर मसीह को महाकुंभ में आतंकी वारदात की साजिश के सबूतों के साथ गिरफ्तार किया है।
यहाँ भी चिंता कि बात यही है कि मानव अधिकार के नाम पर कुछ राजनीतिक दल भी आतंक के आरोपियों और नक्सली गतिविधियों में सक्रिय अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग दे रहे लोगों का समर्थन करते हैं। इसी संदर्भ में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बात पर देश का ध्यान दिलाया है कि कुछ प्रदेशों के जंगलों में सक्रिय नक्सलियों पर नियंत्रण और उनके आत्मसमर्पण में सरकार और सुरक्षाबलों को बहुत हद तक सफलता मिली है। जहां पहले देश के करीब सौ जिलों में नक्सली आतंक था, वहाँ अब करीब दो दर्जन जिलों तक सीमित रह गया है।
लेकिन अब अर्बन नक्सल के खतरे अधीक बढ़ गए हैं। आतंकी और नक्सल गतिविधियों में शामिल तत्वों को उन राजनीतिक दलों का समर्थन मिल रहा है जो स्वयं उनकी गतिविधियों के शिकार रहे हैं। वे कभी महात्मा गांधी की विचारधारा को आदर्श मानते रहे लेकिन अब वे हिंसक गतिविधियों वाले तत्वों का समर्थन करने लगे हैं। यहाँ तक कि ऐसे राजनीतिक दलों के नेता अथवा प्रगतिशील कहने वाले बुद्धिजीवियों के समूह उनसे सहानुभूति रख रहे हैं। जबकि हिंसा और अलगाववाद में सक्रिय लोग विकास और विरासत के घोर विरोधी हैं।
प्रधानमंत्री की यह चिंता स्वाभाविक हैं क्योंकि अमेरिका तथा अन्य देश आतंक और हिंसा के खिलाफ विश्व अभियान में भारत को आदर्श भूमि की तरह देखना चाहते हैं। अंतर राष्ट्रीय शांति प्रयासों में भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जाता है। शहरी नक्सल पर चिंता का मुद्दा पहली बार नहीं उठा है। कॉंग्रेस राज में गृह मंत्री रहे पी चिदंबरम ने पश्चिम बंगाल में नक्सलवादियों द्वारा सुरक्षा बलों के शिविर पर कातिले हमले के बाद स्वयं कहा था कि “मानवधिकारवादी ऐसी नक्सली हिंसा की निंदा तो करें। किसी भी नागरिक अधिकार संगठन या वामपंथी बुद्धिजीवियों की जमात ने इस गंभीर हत्या की घटना पर भी एक शब्द आलोचना का नहीं कहा।“
इस दृष्टि से अब काँग्रेस पार्टी प्रतिपक्ष में रहकर ऐसे तत्वों का समर्थन कर रही है। गृह मंत्री अमित शाह ने पिछले दिनों स्पष्ट रूप से यह घोषणा भी कर दी है कि भारत सरकार 2026 तक नक्सलियों के आतंक को पूरी तरह समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध है। दूसरी तरफ राहुल गांधी न केवल भारत में बल्कि अमेरिका और यूरोप तक की यात्राओं के दौरान भारतीय संविधान और मानव अधिकार हनन कि स्थिति के आरोप लगा रहे हैं। वे तो उन मंचों पर भारत में सिक्खों के पगड़ी या कड़ा पहनने पर संकट तक के बेबुनियाद आरोप लगाते हैं।
इस तरह के बयानों का लाभ कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में सक्रिय भारत विरोधी आतंकी संगठनों को मिलता है। वहीं भारत में कुछ लेखक, वकील और पत्रकार प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से हिंसक गतिविधियों में शामिल लोगों तक की गिरफ़्तारी पर आपत्ति व्यक्त करते हैं। उनके लिए धन और कानूनी सहायता जुटाई जाती है। निश्चित रूप से इन आरोपों पर निर्णय अदालत तय करती है लेकिन कानूनी कार्रवाई महीनों और वर्षों तक चलती हैं।
आतंकी संगठन इस सहनुभूति का लाभ उठाकर शहरों मे अपने अड्डे बनाने लगे हैं। माववादी पहले छपी हुई सामग्री का इस्तेमाल करते रहे और अब टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर भारत विरोधी गतिविधियों को सही ठहराने लगे हैं। वर्षों पहले देश के एक वरिष्ठ पत्रकार अमूल्य गांगुली ने कहा था कि “ऐसे बुद्धिजीवियों को लेनिन कि परिभाषा के अनुसार “यूजफुल ईडियट” कहा था, जो यह जानते हुए भी कम्युनिष्टों के प्रति व्याकुल रहते है कि उनका लक्ष्य कथित सड़ चुकी बुरजुवा व्ययस्था को उखाड़ फेंकना है।“ दुर्भाग्य की बात यह है कि दिल्ली, मुंबई से लेकर पंजाब, हिमाचल जैसे क्षेत्रों में फैले ऐसे अर्बन नक्सल हथियारबंद हिंसा को भी आतंककवादी गतिविधि नहीं मानते हैं।
वे इस हिंसा को सुरक्षाबलों को “खाकी आतंकवाद” की संज्ञा देते हैं। अर्बन नक्सल के समर्थन और शरण मिलने से नक्सली सरकारी गवाह बने पूर्व साथियों, पुलिस और सुरक्षा बालों को वर्ग शत्रु कहकर निशाना बनाते हैं। अर्बन नक्सल समूह वास्तव में भारतीय संस्कृति और विरासत का ही विरोध नहीं करते, वरन विकास का भी विरोध करते हैं।
इसीलिए छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखंड, हिमाचल जैसे प्रदेशों में औद्योगिक विकास के विरुद्ध आंदोलनों को प्रोत्साहित किया जाता है। महाराष्ट्र और तमिलनाडु में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के विरुद्ध धरने और आंदोलन चलाए जाते हैं। आदिवासी महिलाओं के हितों की बात करने वाले संभवतः इस बात पर भी ध्यान नहीं देते कि माववादी नक्सली अथवा खालिस्तानी आतंकवादी कुछ मासूम महिलाओं को बर्गलाकार अपने गिरोह में शामिल करते हैं और उनके साथ बाद में बलात्कार तक होता है। छतीसगढ़ में आत्मसमर्पण करने वाले ऐसे आदिवासी युवक युवतियों ने स्वयं कुछ वर्ष पहले एक इंटरव्यू के दौरान मुझे इन ज्यादतियों की वीभत्स दास्तान सुनाई थी।
सरकार जहां अब भी नक्सलियों से आत्मसमर्पण की अपील भी कर रही है वहाँ एन जी ओ के नाम पर फन्डिंग पर नियंत्रण के प्रयासों को अदालतों में चुनौती दी जा रही है। पिछले दो-तीन वर्षों में अर्बन नक्सल भारतीय चुनाव व्यवस्था पर भी प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं और पराजित होने वाले राजनेता भी उनकी भाषा बोलने लगे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने भी देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए नक्सलियों को सबसे बड़ा खतरा बताया था।
विडंबना यह है कि झारखंड मुक्ति मोर्चा कभी नक्सली हिंसा से परेशान था और सख्ती से निपटने की बात करता था लेकिन सत्ता में आने के बाद शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन परिवार तथा पार्टी कहने लगी कि शिव शक्ति से मुकाबला नहीं किया जा सकता। नक्सलियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी। पश्चिम बंगाल और झारखंड में तो नक्सली खुद ही सत्ता में शामिल हो गए। चुनावी बहिष्कार के नक्सली प्रयासों और अर्बन नक्सल के दुष्प्रचार के बावजूद छत्तीसगढ़ और जम्मू कश्मीर जैसे राज्यों में चुनाव के दौरान भारी मतदान हुआ। बहरहाल यह लड़ाई लंबी है और इस पर नियंत्रण के लिए सरकार और समाज को हरसंभव अभियान चलाने होंगे।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
किसी ने शमी से सवाल किया कि धर्म बड़ा या देश। किसी ने कहा कि शमी को हिन्दू इसीलिए पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें मज़हब से दूर रहने वाले मुसलमान पसंद है।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
चैंपियंस ट्रॉफी के फाइनल से पहले क्रिकेटर मोहम्मद शमी को कुछ कट्टरपंथी मौलानाओं ने टारगेट किया। शमी पर इस्लाम के नियम कायदों की तौहीन का इल्जाम लगाकर उनके खिलाफ फतवा जारी किया गया। सोशल मीडिया पर शमी की एक फोटो वायरल की गई।
ये तस्वीर भारत-ऑस्ट्रेलिया सेमीफाइनल की है जिसमें शमी मैदान में एनर्जी ड्रिंक पीते हुए दिख रहे हैं। इसी तस्वीर के आधार पर सोशल मीडिया पर शमी को ट्रोल किया गया। कई मौलानाओं और कट्टरपंथियों ने कहना शुरू कर दिया कि रमजान के महीने में मोहम्मद शमी ने रोज़ा न रखकर बड़ा गुनाह किया है। किसी ने लिखा कि रमजान के वक्त खुलेआम एनर्जी ड्रिंक पीना रोज़े की तौहीन है।
किसी ने शमी से सवाल किया कि धर्म बड़ा या देश। किसी ने कहा कि शमी को हिन्दू इसीलिए पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें मज़हब से दूर रहने वाले मुसलमान पसंद है। ऑल इंडिया मुस्लिम जमात के अध्यक्ष शहाबुद्दीन रज़वी बरेलवी ने तो शमी को इस्लाम का गुनहगार ठहरा दिया। मौलाना बरेलवी ने कहा कि रोज़ा रखना हर मुसलमान के लिए जरूरी है, शमी ने दो गुनाह किए हैं, उन्होंने रोज़ा नहीं रखा और ग्राउंड पर पानी पीकर मुसलमानों को गलत पैगाम दिया, ये रोज़े की तौहीन है, उन्हें इसकी सज़ा भुगतनी पड़ेगी।
ऐसा लगता है कि आजकल क्रिकेट स्टार्स को निशाना बनाने का मौसम है। रोहित शर्मा के बाद अब मोहम्मद शमी का नंबर आ गया। शमी से ये पूछने वाले कि उन्होंने रमजान के दिनों में पानी क्यों पीया, रोजा क्यों नहीं रखा, ये भूल गए कि शमी टीम इंडिया के मेन स्ट्राइक बॉलर हैं, पाकिस्तान और ऑस्ट्रेलिया को हराने में उनकी बड़ी भूमिका रही है। क्रिकेट मैदान में अगर वो एनर्जी ड्रिंक नहीं पिएंगे तो कैसे परफॉर्म करेंगे?
जो लोग मज़हब की आड़ में शमी को कोस रहे हैं, वो इस्लाम को नहीं जानते। जो मौलाना, शमी के खिलाफ फतवा जारी कर रहे हैं, शमी को सच्चा मुसलमान मानने से इनकार कर रहे हैं, असल में वो खुद सच्चे मुसलमान नहीं है।
बारह साल पहले साउथ अफ्रीका के प्लेयर हाशिम अमला से यही सवाल पूछा गया था कि उन्होंने मैच के दौरान रोज़ा क्यों नहीं रखा। तो अमला ने कहा था कि इस्लाम में जब हम ट्रैवल कर रहे होते हैं, तो फास्ट रखने की जरूरत नहीं होती, जब मैं घर जाऊंगा तो सारी कमी पूरी कर दूंगा।
मोहम्मद शमी को भी ऐसे मौलानाओं की बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए। मुझे पूरा यकीन है कि रविवार को जब मैच होगा, जब मोहम्मद शमी मैदान में उतरेंगे तो न्यूजीलैंड को हराने में भारत को चैंपियन बनाने में उनकी बहुत बड़ी भूमिका होगी। पूरे देश को उनपर गर्व है और रहेगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
महाकुंभ मूल रूप से गरीबों और मध्यम वर्ग के श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र बन गया। देश के कोने-कोने से आए करोड़ों लोगों की श्रद्धा की अभिव्यक्ति का मंच बन गया।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
महाकुंभ का समापन हो गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि यह एकता का महाकुंभ युगपरिवर्तन की आहट है, हजारों साल की गुलामी की मानसिकता को तोड़कर सनातन की भव्य विरासत का विश्वदर्शन है। योगी आदित्यनाथ ने महाकुंभ में तैनात सफाईकर्मियों को सम्मानित किया।
32 हजार सफाईकर्मियों की तैनाती हुई। नदी के किनारे घाटों की सफाई के लिए 1800 गंगादूत तैनात किए गए, डेढ़ लाख टॉयलेट बनाए गए, 50,000 से ज्यादा चेंजिंग रूम्स बनाए गए, घाटों के किनारे कूड़ा डालने के लिए बीस हजार से ज्यादा ट्रैश बिन रखे गए, नदी में कचरा न रहे इसके लिए बड़ी-बड़ी फ्लोटिंग मशीन लगाई गई जो रोज पन्द्रह टन कचरा नदी से निकलती थी। योगी ने 32 हजार सफाईकर्मियों का वेतन 10,000 रुपये से बढ़ाकर 16,000 रुपये करने का ऐलान किया और उन्हें 10,000 रुपये बोनस देने की घोषणा की।
रेलवे ने भी कहा है कि वह अच्छा काम करने वालों को पुरस्कृत करेगा। महाकुंभ का एक और सुनहरा पक्ष है, यहां अमीर गरीब का भेद मिट गया। गरीब आदमी ने खूब पैसे कमाए, अमीरों ने जी खोलकर दान दक्षिणा पर लुटाए। छोटे दुकानदारों, रेहड़ी पटरी लगाने वालों को कितना लाभ हुआ, इसके बहुत सारे उदाहरण हैं।
किसी ने चाय बेचकर 5 हजार रुपये रोज़ कमाए, किसी ने 10 रुपये में चंदन का टीका लगाकर 65 हजार रुपये बनाए, किसी ने दातून बेचकर 40 हजार रुपये कमाने का दावा किया। एक यूट्यूबर वहां जाकर लेमन टी बेचने लगा और 3 लाख रुपये कमाए। कुछ लोगों ने गंगा से सिक्के बटोरे और कइयों को तीस हजार रुपये तक मिल गए।
दूसरी तरफ बड़ी कंपनियों ने लोगों की खूब मदद की। कोका कोला ने प्लास्टिक बोटल्स को रिसाइकिल करके 21 हजार जैकेट्स बनाई और सफाई कर्मचारियों और नाविकों को बांटीं। मैनकाइंड फार्मा ने फ्री मेडिकल कैंप्स लगाए। एवररेडी ने पुलिस को 5 हजार सायरन वाली टॉर्चेज और बैटरीज मुफ्त में दी। गौतम अडानी ने भंडारा लगाया जहां एक लाख लोगों को हर रोज मुफ्त खाना दिया गया।
बड़ी कंपनियों ने तो अपने शटर डाउन कर दिए, लेकिन आज जब खोमचा लगाने वालों, छोटा-मोटा सामान बेचने वालों ने अपनी दुकानें समेटनी शुरू की तो उनकी आंखों में आंसू थे। उन्हें आने वाले दिनों में रोजगार की चिंता थी।
एक्सपर्ट्स का कहना है कि योगी ने उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था में आने वाले जिन 3 लाख करोड़ रुपयों का जिक्र किया है, उसका लाभ इन सब लोगों को मिलेगा, जिनके लिए महाकुंभ रोजगार का एक बड़ा स्रोत था। इस महाकुंभ से पूरे उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था को बूस्ट मिलेगा और प्रयागराज के विकास को पंख लग जाएंगे। महाकुंभ से पहले सनातन की भक्ति की इतनी चर्चा तब हुई थी जब राम मंदिर का प्राण प्रतिष्ठा समारोह हुआ था।
लेकिन वहां लोगों को आमंत्रित किया गया था। महाकुंभ में लोग स्वेच्छा से पहुंचे थे। प्राण प्रतिष्ठा समारोह भव्य था। वहां सेलिब्रिटिज थे। महाकुंभ देश के आम आदमी का मेला था। यहां सेलिब्रिटिज और VIPs दिखाई तो दिए पर भीड़ में खो गए।
महाकुंभ मूल रूप से गरीबों और मध्यम वर्ग के श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र बन गया। देश के कोने-कोने से आए करोड़ों लोगों की श्रद्धा की अभिव्यक्ति का मंच बन गया। इतनी बड़ी संख्या में लोग आए कि उसकी गूंज पूरी दुनिया में सुनाई दी। अब इसके राजनीतिक नफे नुकसान की बात होगी। 66 करोड़ श्रद्धालु आए।
उनके सियासी असर की बात होगी। मोदी और योगी को सफल आयोजन का श्रेय मिलेगा तो विरोधियों को बहुत तकलीफ होगी। अखिलेश यादव ने कुंभ में आने वाले लोगों की भावनाओं को समझने में काफी देर की। पहले सवाल उठाते रहे, लेकिन जब भक्तों की भीड़ देखी तो वह भी डुबकी लगा आए ताकि कल कोई ये न पूछ पाए कि वह महाकुंभ में स्नान करने क्यों नहीं गए।
कांग्रेस में 2 तरह के लोग दिखाई दिए। एक तरफ तो डीके शिवकुमार और अभिषेक मनु सिंघवी जैसे नेताओं ने महाकुंभ में स्नान किया लेकिन राहुल गांधी और प्रियंका गांधी नहीं आए। मैं हैरान हूं। अगर राहुल गांधी संगम में डुबकी लगा लेते तो क्या बिगड़ जाता? अगर उनका तर्क ये है कि ये उनका पर्सनल मामला है, तो फिर अपनी अनुपस्थिति से होने वाले राजनीतिक नुकसान के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
केजरीवाल ने तो कैमरे पर कहा था कि वो दिल्ली का चुनाव होने के बाद कुंभ जाएंगे पर उनकी लुटिया यहीं डूब गई। अब जब-जब चुनाव होंगे, योगी लोगों को याद दिलाएंगे कि ये सब चुनावी हिंदू हैं। राहुल, केजरीवाल और तेजस्वी यादव जैसे नेताओं के लिए जवाब देना मुश्किल हो जाएगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
एक और जरूरी कदम यह होगा कि ऐसे कंटेंट क्रिएटर्स, जो बार-बार अश्लील या अनुचित सामग्री पोस्ट करते हैं, उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए, ताकि वे बार-बार नए अकाउंट न बना सकें।
अनूप चंद्रशेखरन- COO (रीजनल कंटेंट), IN10 मीडिया नेटवर्क ।।
शाम का समय हो चला था। चेन्नई से ट्रेन में सफर करते हुए, मेरी सीट एक ऐसे व्यक्ति के बगल में थी जो फोन पर उत्साहपूर्वक अपनी पत्नी के यूट्यूब कुकरी चैनल के बारे में बात कर रहा था। वह अपने दोस्तों से इसे देखने और 'लाइक' बटन दबाने का आग्रह कर रहा था। उसकी पूरी बातचीत बस इसी विषय पर थी। तभी मुझे एहसास हुआ कि हमारी सोच कितनी बदल चुकी है। आज हर घर में एक स्टार है। अब हम दूसरों के काम के प्रशंसक बनने के बजाय खुद का फैनबेस बनाने में ज्यादा रुचि रखते हैं।
हाल ही में, मैं एक फिल्म के प्रीमियर में गया था, जहां कई सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर भी आमंत्रित थे। यह देखकर हैरानी हुई कि वे फिल्म का आनंद लेने के बजाय अपने फोन पर वीडियो देखते हुए स्क्रीन स्क्रॉल कर रहे थे। यही लोग बाद में इस फिल्म को प्रमोट करने वाले थे। पहले फिल्मों और टीवी शो को देखने के लिए धैर्य और संलग्नता की जरूरत होती थी, लेकिन आज के समय में यह मुश्किल हो गया है क्योंकि सब कुछ छोटे-छोटे हिस्सों में उपभोग करने के लिए डिजाइन किया जा रहा है। सोशल मीडिया, जो कभी दोस्तों से जुड़े रहने और हल्की-फुल्की ब्राउजिंग के लिए होता था, अब एक डिजिटल दलदल बन चुका है, जो हमारे समय, ध्यान और मनोरंजन को अनुभव करने के तरीके को भी लील रहा है।
यह लत असली है और मैंने इसे खुद महसूस किया है। कई बार मैं खुद को घंटों तक इंस्टाग्राम पर बेतहाशा स्क्रॉल करते हुए पाता हूं, फिर गुस्से में ऐप डिलीट कर देता हूं, यह सोचकर कि अब मैंने इस चक्र को तोड़ दिया है। लेकिन कुछ ही समय बाद, मैं इसे फिर से इंस्टॉल कर लेता हूं और उसी आदत में लौट आता हूं। यह अंतहीन चक्र न केवल मेरी उत्पादकता को प्रभावित कर रहा है, बल्कि लंबे समय तक किसी एक चीज पर ध्यान केंद्रित करने की मेरी क्षमता को भी कमजोर कर रहा है। अब एक पूरी फिल्म देखना मनोरंजन से ज्यादा अनुशासन का कार्य लगने लगा है।
इंस्टाग्राम और यूट्यूब ने मनोरंजन को इस हद तक अपने कब्जे में ले लिया है कि अब वे धीरे-धीरे इस बात को बदल रहे हैं कि हम कहानी कहने की कला से कैसे जुड़ते हैं। एक अच्छी तरह से बनाई गई फिल्म या खूबसूरती से लिखी गई किताब की सराहना करने का आनंद अब व्यक्तिगत मान्यता पाने की लालसा से बदलता जा रहा है। हर कोई क्रिएटर, इन्फ्लुएंसर, या ट्रेंडसेटर बनना चाहता है, और इसी वजह से हम एक ऐसी समाज में बदल गए हैं जो वास्तविक कलात्मक प्रतिभा की सराहना करने के बजाय आत्म-प्रचार में डूबा हुआ है। अगर कोई वीडियो कुछ सेकंड में ध्यान आकर्षित नहीं कर पाता, तो उसे तुरंत स्क्रॉल करके भुला दिया जाता है।
इंस्टाग्राम या यूट्यूब पर अंतहीन स्क्रॉलिंग हमें उत्पादकता का भ्रम देती है, जबकि वास्तव में यह केवल मानसिक थकान को बढ़ाती है। सूचनाओं की यह अंतहीन धारा, तुलना और विचलन, चिंता, तनाव और यहां तक कि अवसाद को भी बढ़ावा देती है। शारीरिक रूप से भी इसके गंभीर प्रभाव होते हैं। लंबे समय तक स्क्रीन के सामने बैठे रहने से मोटापा, आंखों पर दबाव, नींद की गड़बड़ी और एक निष्क्रिय जीवनशैली को बढ़ावा मिलता है, जो धीरे-धीरे एक सामान्य आदत बनती जा रही है।
व्यक्तिगत भलाई से परे, सोशल मीडिया मनोरंजन उद्योग की मूलभूत संरचना को भी बदल रहा है। अब असली कहानी कहने की जगह केवल व्यूज और एंगेजमेंट के लिए बनाए गए कंटेंट को प्राथमिकता दी जा रही है। प्रामाणिकता (authenticity) की जगह सनसनीखेज चीजों (sensationalism) ने ले ली है, जहां क्रिएटर अब कंटेंट की गहराई पर ध्यान देने के बजाय शॉक वैल्यू और विवाद पैदा करने के पीछे भाग रहे हैं। बिना किसी वास्तविक कलात्मक पृष्ठभूमि के डिजिटल इन्फ्लुएंसर केवल ट्रेंड्स पर कूदकर भारी संख्या में फॉलोअर्स बना लेते हैं, जबकि गंभीर फिल्म निर्माताओं, संगीतकारों और लेखकों को पहचान के लिए संघर्ष करना पड़ता है। जो फिल्में और टेलीविजन शो कभी सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण हुआ करते थे, वे अब वायरल क्लिप्स और मीम-योग्य (meme-worthy) पलों के पीछे दब गए हैं। पारंपरिक मनोरंजन उद्योग को अब सोशल मीडिया की त्वरित गति से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है, और कई मामलों में वह इस दौड़ में पिछड़ रहा है।
यह एक बुनियादी सवाल खड़ा करता है: यह सब आखिर हमें कहां ले जा रहा है? अब निजता जैसी कोई चीज बची ही नहीं है। रोजमर्रा की गतिविधियां—जैसे सुबह उठना, ब्रश करना और नाश्ता बनाना—इन्फ्लुएंसर्स के व्लॉग्स का हिस्सा बन चुके हैं। पारिवारिक झगड़े और घरेलू नाटक भी स्क्रिप्टेड टीवी सीरियल्स की तरह फिल्माए और एडिट किए जाते हैं ताकि वे ऑनलाइन लोकप्रियता हासिल कर सकें। यह सब बेहद थकाने वाला और उबाऊ हो गया है।
सोशल मीडिया के प्रभाव को सीमित करने के लिए कुछ न कुछ किया जाना चाहिए, इससे पहले कि यह पूरी तरह से हमारे जीवन पर हावी हो जाए। डिजिटल डिटॉक्स (Digital Detox) उपायों को सक्रिय रूप से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, और लोगों को यह जागरूक करना जरूरी है कि अत्यधिक सोशल मीडिया उपयोग उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव डालता है। सरकारों और टेक कंपनियों को यह जिम्मेदारी लेनी चाहिए कि वे अपने प्लेटफॉर्म को इस तरह से डिजाइन करें कि वे लोगों में लत जैसी आदतों को बढ़ावा न दें। पारंपरिक मनोरंजन के तरीकों को पुनर्जीवित और समर्थन दिया जाना चाहिए, ताकि लोग एक बार फिर फिल्मों, किताबों या संगीत के माध्यम से लंबे फॉर्मेट की कहानी कहने का आनंद ले सकें।
बड़ा सवाल सिर्फ यह नहीं है कि सोशल मीडिया मनोरंजन के लिए क्या कर रहा है, बल्कि यह भी है कि यह हमें व्यक्तिगत के रूप में कैसे प्रभावित कर रहा है। इस संकट का एक संभावित समाधान सोशल मीडिया के उद्देश्य को ही फिर से परिभाषित करना हो सकता है। वायरल मनोरंजन और सतही जुड़ाव पर पनपने वाले प्लेटफॉर्म बनने के बजाय यूट्यूब और इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म को ऐसे कंटेंट को प्राथमिकता देना चाहिए जो समाज को शिक्षित करे, प्रेरित करे और उसे आगे बढ़ाए। ऐसे वीडियो, जो ज्ञान, आत्म-सुधार, आध्यात्मिकता और सार्थक चर्चाओं को बढ़ावा देते हैं, उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जबकि वह मनोरंजन-केंद्रित सामग्री, जो ध्यान भटकाती है, लत को बढ़ावा देती है और एकाग्रता को कम करती है, उसे प्रतिबंधित या कड़े नियमन के अधीन किया जाना चाहिए। इस तरह, ये प्लेटफॉर्म एक उच्च उद्देश्य की पूर्ति कर सकते हैं, बजाय इसके कि वे रचनात्मकता, फोकस और सांस्कृतिक प्रशंसा में गिरावट लाने में योगदान दें।
एक और जरूरी कदम यह होगा कि ऐसे कंटेंट क्रिएटर्स, जो बार-बार अश्लील या अनुचित सामग्री पोस्ट करते हैं, उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए, ताकि वे बार-बार नए अकाउंट न बना सकें। सेंसरशिप दिशानिर्देशों को इस तरह बदला जाना चाहिए कि स्पष्ट रूप से हानिकारक और अनुचित सामग्री पूरी तरह समाप्त हो सके। पिछले साल, भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (Advertising Standards Council of India) ने इन्फ्लुएंसर्स के लिए एक स्व-नियामक दिशानिर्देश जारी किया था, जिसमें डिस्क्लेमर और जानकारी प्रकट करना अनिवार्य किया गया था। इसी तरह, भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (Securities and Exchange Board of India) ने वित्तीय उत्पादों को बढ़ावा देने वाले इन्फ्लुएंसर्स के लिए नियम बनाए हैं। अमेरिका के फेडरल ट्रेड कमीशन (Federal Trade Commission), यूनाइटेड किंगडम के विज्ञापन मानक प्राधिकरण (Advertising Standards Authority) और प्रतियोगिता और बाजार प्राधिकरण (Competition and Markets Authority) जैसे संस्थानों ने ब्रांड इन्फ्लुएंसर्स के लिए ईमानदारी और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए नियम लागू किए हैं। इन नियमों का उल्लंघन करने पर जुर्माना, दंड और कानूनी परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।
अब समय आ गया है कि हम डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के साथ अपने संबंधों पर फिर से विचार करें। हम पहले ही मशीनों से ज्यादा जुड़े हुए हैं बजाय वास्तविक लोगों के। हमेशा ऑनलाइन, हमेशा कुछ न कुछ उपभोग करते हुए, जैसे कि हम प्रोग्राम किए गए रोबोट हों। पूरी तरह से डिजिटल दुनिया से खुद को अलग कर पाना व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है, लेकिन अगर हम अपने डिजिटल उपभोग को नियंत्रित करें और यह सुनिश्चित करें कि सामग्री का कोई सार्थक उद्देश्य हो, तो हम एक बेहतर और अधिक संतुलित भविष्य की ओर बढ़ सकते हैं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
विराट कोहली अभी भी भारत के सबसे रोमांचकारी और विस्फोटक बल्लेबाज़ बने रहेंगे। गुस्सैल और तुनुकमिज़ाज विराट से धैर्यवान और संयमित विराट उनके लड़के से आदमी बनने पर हुआ हैं।
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
मैंने कभी क्रिकेट नहीं खेला। इस खेल ने मुझें कभी आकर्षित भी नहीं किया लेकिन इस खेल को जितना भी मैंने देखा और समझा है उसके पीछे विराट कोहली का खेल रहा हैं। कल रविवार को भारत-पाकिस्तान के मैच में विराट के शानदार शतक के बदौलत भारत जीत गया। विराट कोहली की तारीफ़ में लिखना उनसे यह निजी तौर पर जुड़े होने जैसा है जो विराट के बल्ले की उदारता से प्रभावित हुए हैं। उनका करियर उन्हीं की कहानी नहीं, यह हर उस भारतीय का निजी इतिहास है जो क्रिकेट के प्रति जुनून रखता है।
क्रिकेट के बिना विराट की कल्पना करना बहुत मुश्किल है, उसी तरह विराट के बिना क्रिकेट की कल्पना करना भी कोई आसान बात नहीं है। पिछले 17 साल से विराट एक ऐसी मिसाल बन गए है, जिसने पूरी एक पीढ़ी को परिभाषित किया हैं। विराट की कहानी स्कोर बोर्ड और उनके रिकॉर्ड से बताई जा सकती है। 36 साल की उम्र में भी विराट नाम की रन मशीन थमने का नाम नहीं ले रही है।
कोहली के नाम वनडे में 51 शतक हैं, एक ही विश्वकप में सबसे ज़्यादा रन, सबसे तेज 13 हज़ार रन और क्रिकेट के सभी प्रारूपों में क़रीब 27 हज़ार से ज़्यादा रन बनाने के साथ वे अपने समक़ालीन क्रिकेटरों में सबसे ज़्यादा रन बनाने वाले खिलाड़ी है। विराट सोशल मीडिया पर सबसे लोकप्रिय खिलाड़ी है। अकेले इंस्टा पर 28 करोड़ से ज़्यादा और एक्स पर 66 मिलियन से ज़्यादा फ़ॉलोवर्स। विराट कोहली सबसे ज़्यादा टैक्स देने वाले खिलाड़ी भी है। साल2023-24 में विराट ने 66 करोड़ टैक्स में दिए।
सबसे सफल क्रिकेटर होने के बाद भी असफलता का स्वाद विराट ने भी चखा है, आलोचना जमकर हुईं है। रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु को अभी तक अपने प्रदर्शन से आईपीएल ना जीतने के लिए विराट की आलोचना हों सकती हैं, लेकिन क्रिकेट से विराट कोहली नाम के कथाकारी बल्लेबाज़ी को नहीं मिटा सकती। आख़िरी में विराट का क्रिकेट ही हैं, जो उन्हें बेमिसाल बनाता है। बाक़ी बाते कोई मायने नहीं रखती हैं।
विराट कोहली अभी भी भारत के सबसे रोमांचकारी और विस्फोटक बल्लेबाज़ बने रहेंगे। गुस्सैल और तुनुकमिज़ाज विराट से धैर्यवान और संयमित विराट उनके लड़के से आदमी बनने पर हुआ हैं और उन्हें लड़के से पुरुष बनाया हैं। उनकी पत्नी अनुष्का ने.अपनी शाम पार्टियों में गुलज़ार करने वाले विराट विवाह के बाद परिपक्व और बेटी के पिता बनने के बाद पारिवारिक बने हैं। विराट असाधारण प्रतिभा के धनी हैं।
विराट की क्रिकेट गाथा अभी समाप्त नहीं हुई है, अभी विराट में काफ़ी क्रिकेट बाक़ी है। विराट अपना किटबैग खूंटी पर कब टांगते है यह उन्हें तय करना है। फ़िलहाल क्रिकेट ही उनका जज्बा, जीविका, उद्यम और पेशा है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
तो इस सवाल जवाब तो साफ़ है कि बंद नहीं करें। SIP से पैसे लगाने का फ़ायदा है कि आप जब म्यूचुअल फंड के यूनिट ख़रीद रहे हैं तो क़ीमत Average Out हो जाती है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
शेयर बाज़ार में उथल-पुथल के बीच SIP पर चर्चा गर्म है। इसका कारण बना ICICI Prudential AMC के चीफ़ इन्वेस्टमेंट ऑफ़िसर एस नरेन का भाषण। उन्होंने कहा कि 2025 बाज़ार के हिसाब से ख़तरनाक साल है। अगर आपने पिछले साल भर में स्मॉल या मिड कैप फंड में SIP शुरू की है तो रिटर्न निगेटिव हो सकता है। उनकी सलाह लार्ज कैप फंड में इन्वेस्टमेंट करने की थी। सवाल इसी संदर्भ में पूछे गए हैं।
SIP करते रहें या नहीं?
तो इस सवाल जवाब तो साफ़ है कि बंद नहीं करें। SIP से पैसे लगाने का फ़ायदा है कि आप जब म्यूचुअल फंड के यूनिट ख़रीद रहे हैं तो क़ीमत Average Out हो जाती है। आपने अगर ₹1.20 लाख एक साथ म्यूचुअल फंड में लगा दिए होते और कुछ महीनों में बाज़ार गिर गया तो आप नुक़सान में आ सकते हैं वहीं यही रक़म हर महीने ₹10 हज़ार SIP से लगाईं तो बाज़ार के उतार-चढ़ाव का असर नहीं पड़ेगा। किसी महीने में आप महँगा ख़रीद रहे हैं तो किसी महीने में सस्ता। वैसे भी जानकार कहते रहे हैं कि बाज़ार को टाइम करना मुश्किल है यानी आप ठीक उसी समय पैसे लगाए जब बाज़ार नीचे हो। इस कारण SIP बेहतर विकल्प माना जाता है।
SIP करें तो कहाँ करें?
आप में से कुछ लोगों ने लिखा है कि नरेन की चेतावनी के बाद भी वो मिडकैप और स्मॉलकैप फंड में पैसे लगाना जारी रखेंगे। जानकारों के मुताबिक़ इसमें कोई दिक़्क़त नहीं है बशर्ते आप अगले 7 से 10 साल तक निवेश जारी रखना चाहते हैं। मोतीलाल ओसवाल की रिपोर्ट के मुताबिक़ सात साल SIP करने पर मिडकैप में नुक़सान की आशंका ज़ीरो हैं। स्मॉलकैप में नुक़सान की आशंका 5.6% है जबकि लार्ज कैप में 0.6%. SIP की 155 सीरीज़ के अध्ययन से पता चला है कि सिर्फ़ नौ नुक़सान में रही है। यह रिपोर्ट पिछले 20 साल के ट्रेंड पर बनी है जिसमें 2008 की मंदी और 2020 का कोरोनावायरस शामिल है।
संयम का कितना महत्व है? यह बात इस रिपोर्ट से स्पष्ट हो जाती है। मार्च 2020 में सभी कैटेगरी लार्ज, स्मॉलकैप और मिडकैप का रिटर्न सबसे ख़राब था। चाहे आप 5 साल से SIP कर रहे हो, 7 साल से या 10 साल से। जिन्होंने उस समय हड़बड़ी में यूनिट्स बेच दिए वो नुक़सान में रहें। वो SIP बंद भी कर देते लेकिन यूनिट नहीं बेचते तो साल भर बाद ज़बरदस्त रिटर्न मिलता।
जानकार कहते हैं कि सारे अंडे एक टोकरी में ना रखिए। तो सारा निवेश एक कैटेगरी में करना ठीक नहीं है। मोटे तौर पर आधा पैसा आप लार्ज कैप में लगा सकते हैं और आधा स्मॉल कैप- मिड कैप में। आपकी उम्र 50 साल से कम है तो स्मॉलकैप मिड कैप में ज़्यादा निवेश भी कर सकते हैं क्योंकि आपके पास समय है। बढ़ती उम्र के साथ लार्ज कैप में ज़्यादा पैसे लगाएँ क्योंकि वो ज़्यादा ऊपर नीचे नहीं होते हैं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )