केजरीवाल से अलग हुए आशुतोष के बारे में आप ये सब कतई नहीं जानते होंगे...

जनवरी 2014 की कोई तारीख थी। मैं ‘न्यूज 24’ के अपने दफ्तर में बैठा था। तभी...

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Wednesday, 22 August, 2018
Last Modified:
Wednesday, 22 August, 2018
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अजीत अंजुम

वरिष्ठ पत्रकार

जनवरी 2014 की कोई तारीख थी। मैं ‘न्यूज 24’ के अपने दफ्तर में बैठा था। तभी ‘आईबीएन7’ में काम करने वाले दोस्त संजीव पालीवाल का उदयपुर से फोन आया। उठाते ही एक सूचना ठक्क से कान में गिरी- ‘आशुतोष ने इस्तीफा दे दिया है।’ मेरे जुबान से बेसाख्ता निकला- क्या? इस्तीफा दे दिया? कैसे? कब? क्यों? सारे बेसब्र सवाल एक साथ मैंने झोंक दिए। हमेशा की तरह ठंडे दिमाग से बात करने वाले शांत चित्त संजीव पालीवाल ने जो बताया, उससे एक बार फिर चौंका।

संजीव से पता चला कि अब आशुतोष केजरीवाल की पार्टी जॉइन करने जा रहा है। मैंने उनसे एक-दो सवाल और पूछे फिर तुरंत उनका फोन काटा। मेरे भीतर तब तक इतनी बेचैनी पैदा हो चुकी थी, जो संजीव के जवाबों से शांत नहीं होने वाली थी। मैंने तुरंत आशुतोष को फोन मिलाया। उसका फोन लगातार बिजी आ रहा था। मेरा वश चलता तो उसके फोन में जबरन प्रवेश कर उस तक पहुंचता कि ये सब कर दिया और हमें बताया तक नहीं लेकिन ये मुमकिन न था।


बेचैन आत्मा की तरह मैंने ‘आईबीएन7’ के ही पत्रकार मित्र अनंत विजय समेत उनके कुछ सहयोगियों को फोन किया और जानने की कोशिश की कि क्या आशुतोष दफ्तर में हैं? बताया गया कि वो लोगों से मिल-जुल रहे हैं। उनकी विदाई की तैयारी हो रही है। मैंने इतनी देर में ‘आजतक’ के एडिटर सुप्रिय प्रसाद और ‘एबीपी न्यूज’ के मिलिंद खांडेकर से लेकर ‘इंडिया टीवी’ के एडिटर रहे विनोद कापड़ी तक, कई लोगों को फोन खटखटा दिया, इसी बेचैनी में कि आशुतोष के बारे में अब तक किसे क्या पता है? सबको तब तक उतना ही पता था, जितना मुझे। किसी को पहले से कोई भनक नहीं थी और आशुतोष ने बम फोड़ दिया था। कुछ ऐसे भी थे, जिनके लिए ये कोई चौंकाने वाली जानकारी नहीं थी क्योंकि बीते कुछ महीनों से आशुतोष अपने विचारों, अपनी बहसों और अपनी टिप्पणियों की वजह से आम आदमी पार्टी के करीबी और सिंपेथाइजर माने जाने लगे थे।


उन दिनों दिल्ली में कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार चला रहे केजरीवाल के ‘वृहद सलाहकार मंडल’ के सदस्य के तौर पर आशुतोष, एनके सिंह, अभय दूबे, पुण्य प्रसून बाजपेयी समेत कई पत्रकारों का जिक्र होता रहता था। दोस्त होकर भी मैंने कभी आशुतोष से इस बारे में पूछा नहीं और उन्होंने कभी कुछ बताया भी नहीं। पूछता तो भी नहीं बताता, शायद इस वजह से भी मैं अपनी जिज्ञासाओं को दूसरों से मिली आधी-अधूरी जानकारियों से शांत करता रहा। आशुतोष पेट का जितना गहरा है, मैं उतना ही हल्का। मेरे पेट में बात पचती नहीं, जब तक एक -दो मित्रों से ये कहते हुए बता न दूं कि किसी से कहिएगा मत, सिर्फ आपको बता रहा हूं। इस मामले में आशुतोष का हाजमा इतना दुरुस्त है कि उसे किसी किस्म के हाजमोला की जरुरत नहीं होती।


बीते चार-पांच महीनों के दौरान भी हम कई बार आशुतोष से मिलते रहे। घंटों बैठते रहे। दुनिया भर की बातें करते रहे। लिखी जा रही उसकी किताब पर पर बात होती रही। इतना तो समझ चुके थे कि अब वो लंबे समय तक केजरीवाल की पार्टी में नहीं रहेगा। मंगलवार को भी उनके पढ़ने-लिखने को लेकर बात हुई लेकिन ये नहीं कहा कि कल उसके इस्तीफे की खबर सरेआम होने वाली है। पिछली बार की तरह इस बार भी संजीव पालीवाल ने ही अमर उजाला वेबसाइट की खबर का लिंक भेजा तो पता चला कि हो गया, जो होना था।


‘आईबीएन7’ से इस्तीफे के दिन भी मैं आशुतोष से बात होने के पहले और बाद होने के बाद बहुत देर तक चिढ़ा रहा कि इतना बड़ा फैसला कर लिया और हमें बताया तक नहीं। घंटा दोस्त हैं हम लोग। एक हम हैं कि सारी बातें एकतरफा पाइपलाइन से सप्लाई करते रहते हैं, एक ये आदमी है कि कुछ भनक ही नहीं लगने देता।


खैर, आशुतोष ‘आईबीएन7’ से अपना सामान समेटकर बाहर निकला और दो-चार दिन यार-दोस्तों के बीच बैठकी के बाद केजरीवाल की 'अंतरंग मंडली' में समाहित हो गया। उसके इस्तीफे के साथ ही चर्चा होने लगी थी कि वो दिल्ली के किसी इलाके से लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। मैंने दो-चार ये भी पूछा तो उसने हां -ना -देखेंगे टाइप का ही जवाब दिया लेकिन उनकी बातों से लगता था कि रास्ता उसी तरफ जा रहा है। भले वो खुलकर न बोले। खैर, वो दौर केजरीवाल के उठान का दौर था। दिल्ली में अन्ना आंदोलन के गर्भ गृह से निकली आम आदमी पार्टी की कांग्रेस के बाहरी सपोर्ट से सरकार बन गई थी। मीडिया के बड़े हिस्सा देश में वैकल्पिक राजनीति के योद्धा के तौर पर केजरीवाल को प्रोजेक्ट कर रहा था। उनके नाम की मुनादी की जा रही थी। तो लोगों ने यही माना कि आशुतोष ने लोकसभा के लिए ही संपादक की नौकरी और पत्रकारिता छोड़ी है। चैनल में रहते हुए पहले अन्ना आंदोलन, फिर केजरीवाल की पार्टी का सपोर्ट करते दिखने की वजह से पहले भी उनकी आलोचना होती रही थी। हम जैसे दोस्ते भी गाहे-बगाहे तंज कसकर उसे सुलगा देते थे। अपने को सही मानने के उसके तर्क जब तू-तू-मैं-मैं का माहौल क्रिएट करना लगता तो या तो मैं चुप हो जाता, या वो।


आशुतोष का हमेशा यही तर्क होता था कि देश एक नए किस्म की क्रांति का चश्मदीद बन रहा है और इस क्रांति का हिस्सा बनने के लिए मैं एक बार अपने रास्ते बदलना चाहता हूं। वो क्रातंकारी इतिहास का किरदार बनने पर आमादा था, अदना ही सही। एक दोस्त के नाते मुझे हर वक्त लगता था कि ये आदमी राजनीति में चलेगा कैसे? वोट मांगने से लेकर चंदा मांगने तक और कार्यकर्ताओं को खुश रखने से लेकर केजरीवाल के गुड बुक में लंबे समय तक बने रहने के लिए जरुरी शर्तें कैसे पूरा करेगा? औपचारिक मुलाकातों, बातों या मीटिगों में टू द पॉइंट बात करने वाला, ‘मैं सही सोचता हूं’ जैसे आत्मरचित इगो को ढ़ोने वाला, जरूरी मौकों पर भी कदम पीछे खीचने की बजाय दो कदम आगे बढ़ जाने वाला और किसी के प्रति अपनी नापसंदगी को अक्सर सहेजकर रखने वाला आशुतोष नेतागीरी की मायावी दुनिया में टिकेगा कैसे?


जिस दिन आशुतोष ने औपचारिक तौर 'केजरीवाल की टोपी' पहनी, उस दिन उसे मैंने 'न्यूज 24' पर अपने शो 'सबसे बड़ा सवाल' में गेस्ट के तौर पर बुलाया और पत्रकार के नेता बने आशुतोष को बेमुरौवत होकर जितना छील सकता था, छीलने की कोशिश की। वो हंस-हंसकर जवाब देता रहा। ऐसा लगा जैसे वो कायांतरण करके ही स्टूडियो आया था। कुछ ये भी कह सकते हैं कि मेरा लिहाज था कि तीखे तंज झेलता रह गया। शायद किसी दूसरे को अपनी आदत के मुताबिक थोड़ा जवाब देता।

इसी बीच 2014 के लोकसभा चुनाव का ऐलान हो गया। आशुतोष चांदनी चौक से ‘आप’ के उम्मीदवार घोषित हो गए। मैं ‘न्यूज24’ का मैनेजिंग एडिटर था, लिहाजा एक दोस्त होकर भी उनके साथ कभी उनके लोकसभा क्षेत्र में नहीं गया। न जाने और साथ न खड़े होने का मलाल भी कभी हुआ, लेकिन नेता हो चुके मित्र के साथ मैं संपादक रहते मैदान में नहीं दिख सकता था। हां, कभी-कभार उसका हालचाल उससे या उनकी पत्नी मनीषा से पूछता रहा। उसके प्रचार में लगे कुछ लोगों से भी बात होती रही। चुनाव के दौरान लाखों के फंड के जरूरत होती है। आशुतोष के हाथ तंग थे। पार्टी ने भी शायद उसे चुनाव मैदान में उतारकर खुद अपना इंतजाम करने के लिए छोड़ दिया था। कुछ दोस्तों ने उसकी कुछ मदद भी की।

कांग्रेस के अरबपति उम्मीदवार कपिल सिब्बल और बीजेपी के दिग्गज हर्षवर्धन के मुकाबले आशुतोष मजबूती से लड़ा, लेकन तीन लाख वोट पाकर भी करीब एक लाख से हार गया। लोकसभा के दरवाजा उसके लिए खुलने से पहले ही बंद हो गए। लगा कि ये आदमी हताश हो जाएगा। लाखों की ग्लैमरस नौकरी छोड़कर राजनीति में धक्के कब तक खाता रहेगा, लेकिन आशुतोष ने कभी ऐसा अहसास ही नहीं होने दिया कि वो अपने फैसले पर पछता रहा हो। उसने लगातार तीन सालों तक पार्टी के लिए पूरी वफादारी से काम किया। निजी बातचीत में भी उसने कभी केजरीवाल या पार्टी के तौर-तरीकों को लेकर नाराजगी नहीं जाहिर की। कई मौकों पर हम जैसे दोस्त उसके बयानों, उसकी पार्टी के फैसलों या तौर-तरीकों को लेकर रपेटते रहे लेकिन वो हमेशा प्रवक्ता ही बना रहा। भिड़कर, लड़कर हमेशा हावी होने की कोशिश करता रहा।

एक बार दिल्ली के फॉरेन कॉरेस्पोंडेंट क्लब में हमारी बहस के दौरान आशुतोष मीडिया में काम कर रहे हम जैसों को रीढ़विहीन और टीवी संपादकों को सत्ता का चाटूकार कहने लगा तो गुस्से में मैंने कई अप्रिय सवालों से उसे घेर दिया। उसे यहां तक कह दिया कि जब सब मिलकर केजरीवाल की डुगडुगी बजा रहे थे, तब आप लोगों को पत्रकारिता सही कैसे लग रही थी? किसी भी नेता के लिए आंख मूंदकर बिछ जाना सही कैसे है, चाहे केजरीवाल हों या मोदी? आईबीएन7 से आपके कार्यकाल में छंटनी हुई तो आप तमाशबीन क्यों बने रहे? उसी समय क्यों नहीं इस्तीफा दे दिया था? आपने इस्तीफा चुनाव के चार-पांच महीने पहले या दिल्ली में केजरीवाल सरकार बनने के बाद क्यों दिया? ये वो सवाल थे, जो सोशल मीडिया पर भी लगातार आशुतोष का पीछा कर रहे थे। जवाब उसके पास भी था लेकिन बहस ने इतना आक्रामक रुख ले लिया कि हम दोनों एक दूसरे की बात सुनने-समझने के दायरे से बाहर निकल गए। वहां मौजूद वरिष्ठ पत्रकार शैलेश के साथ हमारी पत्नियों को बीच-बचाव करना पड़ा। मैं जानता हूं कि आईबीएन7 के अपने उस दौर में भी आशुतोष बहुत बेचैनियों से गुजरा था। अपने तरीके से उसने संस्थान में अपना विरोध भी दर्ज कराया था। कुछ हद तक कॉरपोरेट पत्रकारिता की मजबूरियों के कैदी आशुतोष के लिए आज इतना ही कह सकता हूं कि ‘कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूं कोई बेवफा नहीं होता’।

खैर, उस रात की बहस का नतीजा ये हुआ कि हम लंबे समय के लिए एक दूसरे से दूर हो गए। दोनों ने सोचा कि ऐसी बाता-बाती और लड़ाई होने से बेहतर है कम मिलना। तो हम कम मिलने लगे। मुझे लगता था कि यार कभी तो अपनी कमियां भी मानों। रैली में मत मानों। मीटिंग में मत मानों। सार्वजनिक जगहों पर मत मानों। मीडिया के सामने मत मानों। विरोधियों के सामने मत मानों लेकिन जब आपस में दोस्त की तरह बात कर रहे हैं, तब तो अपने को थोड़ा ढ़ीला छोड़ो। आशुतोष की दाद देनी पड़ेगी कि उसने कभी अपने को ढीला नहीं छोड़ा। आप इसे खूबी मानें या खामी। उसके जाने के बाद हम जरूर कहते कि यार ये कैसा आदमी है, कभी तो मान ले कि इसकी पार्टी या ये खुद भी गलत हो सकता है।

आशुतोष ऐसा ही है। उसे जो बात जहां कहनी और जहां माननी होगी, वहीं कहेगा और वहीं मानेगा। चैनल में राजदीप सरदेसाई अगर उसके बॉस थे, तो संस्थान के बारे कुछ कहना होगा तो उन्हीं से कहेगा। पार्टी में जो कहना होगा, पार्टी नेतृ्त्व से कहेगा। बाकी जगह वो लूज कैनन बनकर हल्का नहीं होगा। यही उसकी खासियत है। यही उसकी ताकत है और यही बात उसे औरों से अलग करती है।

आशुतोष ने पत्रकारिता में अपने करियर का पीक देखा है। लंबे अरसे तक ‘आजतक’ जैसे चैनल के ऊंचे ओहदे पर रहा। नामचीन एंकर रहा। उसके बाद करीब आठ साल तक आईबीएन7 का संपादक रहा। चैनल का प्रमुख चेहरा रहा। लाखों की सैलरी सालों-साल पाता रहा लेकिन उसका रहन-सहन और लापरवाह अंदाज किसी संघर्षशील पत्रकार की तरह ही रहा। दो जींस। ढीले-ढाले, एक दो पैजामे, कुछ पुराने टी-शर्ट। पत्नी मनीषा की खरीदी हुई दो-तीन शर्ट्स और साधारण सी सैंडिल। गाड़ी के नाम पर जब कंपनी ने लंबी गाड़ी दे दी तो आशुतोष ने वो गाड़ी अपनी पत्नी के हवाले करके अपने लिए छोटी गाड़ी ले ली। कई बाहर जाना हो अपने बैग पैक में दो मुड़े-तुड़े कपड़े रख लिया और चलने को तैयार। एंकर था तो सबसे घटिया और पुरानी टाई और बेमेल शर्ट पहनकर टीवी पर अवतरित हो जाता। मैं कई बार मनीषा को फोन करता कि इस बंदे को स्क्रीन के लिए कुछ कायदे के कपड़े खरीदवा दीजिए। वो कहतीं क्या करें अजीत जी, ला भी देती हूं तो पता नहीं कहां रख देता है और वही घिसी हुई टाई पहनकर बैठ जाता है। कोई दिखावा नहीं। भौतिक चीजें हासिल करने का कोई शौक नहीं, जो दुर्भाग्य से हम जैसों के भीतर कुछ हद तक पैदा हो गया है।

हां, ये ठीक है कि अच्छी सैलरी होने की वजह से नोएडा में दो फ्लैट हो गया, जिसका मोटा लोन अब भी उसके माथे पर चिपका है। कुछ बैंक बैलेंस हो गया। इसका भी हिसाब-किताब आशुतोष को पक्के तौर पर नहीं पता होता है। कॉलेज में प्रोफेसर पत्नी ही उनकी वित्त मंत्री भी हैं और तमाम ऐसे मामलों में उनकी जरुरतों का ख्याल रखने वाली दोस्त भी। नौकरी छोड़ने के बाद आशुतोष मेट्रो में चलते रहे हैं। बाद में उन्होंने मारुति की सबसे छोटी गाड़ी खरीद ली। बड़ी गाड़ी के नाम पर उनके पास सरकारी मेट्रो तो है ही। आशुतोष ने कभी ऐसे शौक पाले ही नहीं, जो उसे गुलाम बना ले।

आशुतोष ने जब लोकसभा चुनाव का पर्चा भरा तो लोन पर खरीदे गए उसके फ्लैट और उसके बैंक बैलेंस को जोड़जाड़ कर उसे करोड़पति घोषित करके ट्रोल किया जाने लगा। जबकि मैं दावे के साथ कह सकता हूं आशुतोष ने जो भी अर्जित किया, उसमें सेटिंग-गेटिंग का एक टका भी नहीं है। सैलरी से मिले और टैक्स काटकर अकाउंट में ट्रांसफर हुए पैसे के अलावा एक पैसा इधर-उधर का उसके पास आया नहीं। आ ही नहीं सकता। उसे कोई खरीद नहीं सकता। कोई कीमत देकर उससे कोई फायदा नहीं उठा सकता। दमदार और वजनदार संपादक रहते हुए आशुतोष नेताओं, मंत्रियों, नौकराशाहों से सजे सत्ता के गलियारों में कभी देखा नहीं गया। नार्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक में बैठने वाले सत्ताधीशों की निकटता पाने में कभी उसमें चाह ही नहीं रही।

यूपीए -2 के दौर में जब आनंद शर्मा के सूचना प्रसारण मंत्रालय मीडिया के हाथ बांधने की साजिशें कर रहा था, तब आशुतोष सबसे अधिक मुखर और आक्रामक था। ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स के साथ संपादकों की बैठक में कपिल सिब्बल समेत बड़े मंत्रियों की मौजूदगी में भी अगर सबसे अधिक बेफिक्र होकर कोई मनमोहन सरकार के मठाधीशों को खरी -खोटी सुना सकता था, तो वो आशुतोष था। ऐसे एकाध मौकों पर तो दूसरे संपादकों को बीच-बचाव करके आशुतोष को शांत करना पड़ा। वो चाहता तो इतने लंबे अरसे तक संपादक रहते हुए कुछ दूसरे पत्रकारों की तरह ‘मालदार’ और ‘नेटवर्कर’ बन ही सकता था, लेकिन वो नहीं बना। ठोक कर खबरें चलाता रहा। तमाम बड़े नेताओं को अपनी हॉट सीट के सामने बैठाकर तीखे और बेखौफ सवाल पूछता रहा। किसी भी कीमत पर नहीं बिकने वाले संपादकों की फेहरिश्त में टॉप पर बना रहा, क्योंकि सत्ता के अंत!पुर में अपनी जगह बनाने का ख्वाहिशमंद कभी वो रहा ही नहीं। हां, विचार के तौर पर उसे केजरीवाल में संभावना दिखी तो लाखों की नौकरी छोड़कर उनकी रथयात्रा में शामिल हो गया। विचार रखना कोई गुनाह नहीं। विचारहीन तो मुर्दे होते हैं।

आशुतोष ने करियर में जो हासिल किया, अपने दम पर किया। अपनी मेहनत से किया। किसी बड़े बॉस को मस्का नहीं लगाया। किसी को खुश करने-रखने की कोशिशें कभी नहीं की। ये उनका स्वभाव ही नहीं है। तभी मेरे भीतर हमेशा ये ख्याल कौंधता रहा कि आशुतोष ‘आप’ के नेताओं से कैसे तालमेल बिठाएगा? तमाम तरह की विरोधाभासी छवियों वाले केजरीवाल के साथ कैसे और कितनी दूर तक चल पाएगा? जैसे-तैसे ही सही, चार साल तक तो आशुतोष चले ही। चार साल के इस सियासी सफर में आशुतोष ने बहुत कुछ देखा और झेला होगा लेकिन उनसे मीडिया वाला कोई उनके भीतर की भड़ास नहीं निकलवा सकता। आगे की बात तो राम जाने।

कभी अपने बयानों की वजह से तो कभी पार्टी के स्टैंड की वजह से आशुतोष ट्विटर पर लगातार गालियां पड़ती रही। आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा। ‘देशभक्त’ ट्रोल्स की जमात तो उसके पीछे आए दिन दाना-पानी लेकर लगी रही लेकिन उसने कभी इसकी परवाह नहीं की।

कुत्ते-बिल्लियों से प्यार करने वाला आशुतोष आए दिन अपने ‘पोको-लोको’ के साथ अपनी तस्वीरें ट्विटर पर चिपका देता हैं, बदले में न जाने क्या सुनता है। दिन भर में उसके ट्विटर टाइम लाइन पर उसे नीचा दिखाने वाले बेहूदे किस्म के कमेंट थोक भाव से गिरते रहते हैं। मैंने भी कई बार कहा कि यार क्यों कुत्ते-बिल्ली की इतनी पिक्चर लगाकर लोगों को गालियों के इतने आविष्कार का मौका देते हो, लेकिन उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। देखता-पढ़ता भी नहीं कि उसका मनोबल तोड़ने में जुटे भक्तों की ब्रिगेड उसके ट्विटर टाइम लाइन पर कितने तरह की ‘गटर गैस’ छोड़कर गई है।

आशुतोष इस मामले में बहुत क्लियर है। जो सोच लिया, सोच लिया। एक बार स्टैंड ले लिया तो ले लिया। अपने दोस्तों से ज्यादा रायशुमारी करने में भी शायद उसका यकीन नहीं। इसका कई बार उसे नुकसान भी उठाना पड़ा है लेकिन वो ऐसा ही है। पिछले साल के आखिरी महीनों में ये चर्चा जोरों पर थी कि राज्यसभा के लिए खाली हो रही सीटों के लिए केजरीवाल की तरफ से आशुतोष की उम्मीदवारी पक्की है। हम सबने आशुतोष के दर्जनों बार पूछा लेकिन हर बार उसने ये कहा कि पता नहीं किसका नाम होगा, किसका नहीं। पार्टी को जो तय करना होगा, करेगी। कभी उसने राज्यसभा के लिए बेचैनी या अपनी महत्वकांक्षाओं का इजहार नहीं किया। उसके भीतर कुछ चलता भी होगा, भीतर ही दबाए रखा उसने। बावजूद इसके, हम जैसे तमाम लोग मानकर चल रहे थे कि जिस ढंग से उसने अपना करियर छोड़कर इतने लंबे समय के लिए पार्टी के लिए दिन रात काम किया है और दिल्ली से गोवा तक में अपनी ड्यूटी निभाई है, उसकी उम्मीदवारी तो पक्की ही होगी। कुमार विश्वास की केजरीवाल से तनातनी और मतभेद की खबरें इस बात की तस्दीक कर रही थी कि शायद कुमार का नंबर न आए लेकिन आशुतोष के नाम कटने या नहीं होने की कोई वजह नहीं दिखती थी।

तभी एक दिन दिल्ली से आम आदमी पार्टी के तीन उम्मीदवारों के नामों का ऐलान हुआ। इन नामों में आशुतोष का नाम नहीं था। पता नहीं आशुतोष को कितना झटका लगा था, हम जैसे कई लोगों को जरूर लगा था। कोई वजह समझ में नहीं आई कि ऐसा क्यों हुआ? मैंने इस बारे में आशुतोष से बहुत ज्यादा पूछताछ नहीं की। उसने भी हमेशा की तरह कुछ बताया नहीं लेकिन इस बीच वो खुद पार्टी से लगभग कट गया। मीटिंगों में जाना बंद कर दिया। इस बीच वो लिखने-पढ़ने में पहले से ज्यादा वक्त देने लगा। कई वेबसाइट के लिए कॉलम भी लिखने लगा। यानी वो अपनी उसी दुनिया में लौट रहा था, जहां से वो सियासत में आया था। अब जब उसके पार्टी छोड़ने की खबर आई है तो ये जानकारी भी सरेआम हुई है कि ‘केजरीवाल ने सुशील गुप्ता जैसे उद्योगपति को टिकट दिया था। साथ ही वह आशुतोष और संजय सिंह को राज्यसभा भेजना चाहते थे लेकिन आशुतोष ने स्पष्ट कहा कि उनका जमीर उन्हें सुशील गुप्ता के साथ राज्यसभा जाने की इजाजत नहीं देता है। चाहें उन्हें टिकट मिले या न मिले, सुशील गुप्ता को राज्यसभा नहीं भेजा जाना चाहिए। तब केजरीवाल ने उनकी जगह चार्टर्ड अकाउंटेंट एनडी गुप्ता का नामांकन करा दिया।’ 

आशुतोष के नाम नहीं होने और दिल्ली के सियासी सर्किल में पैसे वाले सेटर के तौर जाने-पहचाने वाले सुशील गुप्ता की उम्मीदवारी पर केजरीवाल की खूब आलोचना हुई लेकिन आशुतोष ने तब भी अपना मुंह बंद रखा। अब जब आशुतोष पार्टी का हिस्सा नहीं रहा, तब भी उसने मीडिया से यही गुजारिश की है कि बयान देने के लिए कोई रिपोर्टर उसे तंग नहीं करे।

केजरीवाल ने उसके इस्तीफे को अस्वीकार करते हुए ट्विटर पर इतना लिख दिया कि ‘हम आपका इस्तीफा कैसे स्वीकार कर सकते हैं। न, इस जन्म में तो नहीं।’ आप के कई और नेताओं ने भी ऐसी ही प्रतिक्रया दी है लेकिन आशुतोष को जानने वाले जानते हैं कि एक बार उसने फैसला कर लिया तो कर लिया। अब वो टस से मस नहीं होगा।

केजरीवाल के साथ रहते हुए आशुतोष ने थोक भाव से अपने दुश्मन बनाए। मोदी और मोदी की बीजेपी के खिलाफ अपने तीखे तेवरों और अतिरेकी बयानों की वजह से सोशल मीडिया पर खूब नश्तर झेले। टीवी चैनलों पर कई बार एंकर से इस कदर उलझा कि बहसें बदमगजी में तब्दील हो गई। मीडिया वालों को लंबे समय तक बीजेपी के खिलाफ बोलने-लिखने के लिए ललकारता रहा, इस वजह से अपने हमपेशा रहे कई रिपोर्टरों, संपादकों और एंकरों से उसके रिश्ते खराब हुए। शाम को चैनलों पर जमने वाले मजमों में केजरीवाल के प्रवक्ता के तौर पर बैठे आशुतोष ने कई बार आपा खोया। पार्टी की प्रेस कान्फ्रेंस के दौरान रिपोर्टर्स से उलझा। कई बार मुझे लगता था कि आशुतोष खुद को अपने को ‘डबल रोल’ में क्यों देख रहा है। संपादक भी। नेता भी। वो रिपोर्टर और एंकर से कहने लगता था कि मैं भी पत्रकार रहा हूं। बलां… बलां… तब मुझे भी गुस्सा आता था कि अरे भाई रहे होगे पत्रकार, अब आप नेता हैं और आपका एक एजेंडा है। आप अपने केजरीवाल के एजेंडे से चलिए। हमें सामूहिक नसीहत मत दीजिए। ज्ञान मत दीजिए। कुछ दोस्तों की मौजूदगी में एक दो मौकों पर यही सब मैंने मुंह पर बोल दिया तो हमारे बीच फिर तनाव पैदा हो गया। वहां भी किसी को बीच बचाव करना पड़ा।

आशुतोष मानें या न मानें लेकिन शायद आज उन्हें लगता होगा कि जिन लोगों के लिए, जिस ‘क्रांतिकारी पार्टी’ के लिए उन्होंने अपना सब कुछ दांव पर लगाया, वो इसकी हकदार नहीं थी। या ये कहें कि वो सुशील गुप्ताओं की तरह पार्टी के ‘लायक’ नहीं थे। चार साल में आशुतोष को इस पार्टी ने क्या दिया? उसकी पत्नी नौकरी नहीं कर रही होती और सेविंग न की होती तो घर चलाना मुश्किल हो जाता। वो तो उसकी जररुतें ही इतनी कम हैं कि हताश हुए बगैर चार साल तक वो टिका रहा।

आशुतोष जब चैनल में था, तब उसने छुट्टी लेकर अन्ना पर अंग्रेजी में किताब लिख दी। जब राजनीति में आया तो केजरीवाल के आंदोलन को अपनी किताब का विषय बनाया। मुझे लगता है कि किताब तो उसे अब लिखनी चाहिए। अपने अनुभवों पर। अपने साथ हुए गच्चे पर। आंदोलन के गर्भगृह से निकली और उम्मीदों की कब्र पर टिकी ‘क्रांतिकारी पार्टी’ पर। सैकड़ों लेख और तीन किताबें लिख चुके आशुतोष के घर में सैकड़ों किताबों की लाइब्रेरी है। पढ़ना-लिखना उसका सबसे खास शौक है। अब उसके पास इन सब के लिए पहले से ज्यादा वक्त होगा। उसकी एक और किताब लगभग लिखी जा चुकी है। अगली किताब का विषय वो चाहें तो खुद हो सकते हैं - ‘मैं आशुतोष’।

आशुतोष जब तक केजरीवाल की पार्टी में रहे, मैं सार्वजनिक मौकों पर उनके साथ ली जाने वाली तस्वीरों से भी बचता रहा कि कहीं सोशल मीडिया पर खामखा ट्रोल होने का कोई बहाना ये तस्वीर न बन जाए। उसके हिस्से की गालियों में मैं साझेदार नहीं बनना चाहता था। नेता बनने से पहले दोस्तों की महफिल में जब तस्वीरें खींची जाती थी, तो आशुतोष मुझे चिढ़ाते हुए कहता था कि ये फेसबुक पर मत डाल दीजिएगा। नेता बनने के बाद अगर कभी किसी मौके पर तस्वीर खींची भी गई तो मैंने कहा कि मैं आपके साथ फोटो खिंचा रहा हूं, यही बहुत है। फेसबुक पर डालने का जोखिम मैं नहीं मोल लूंगा। चार साल में मैंने आशुतोष के साथ अपनी तस्वीरें सार्वजनिक होने से बचता रहा। अब मैं अपनी तरफ से लगाई गई इस पाबंदी से मुक्त हूं क्योंकि हमारा आशु मुक्त है।

2002 में ‘आजतक’ में हम सब साथ काम करते थे। मैं, सुप्रिय प्रसाद, अमिताभ श्रीवास्तव, आशुतोष और संजीव पालीवाल। हमने अपने इस पांच सदस्यीय मंडली का नाम ‘पी-5’ रखा था। ‘पी-5’ के हम पांच अक्सर दफ्तर से फ्री होने के बाद किसी न किसी के घर पर आधी रात या सुबह तक बैठकी जमाया करते थे। बाद में अलग अलग चैनलों के हिस्सा बने और ‘पी-5’  की बैठकें भी कम हो गईं। अब एक बार फिर हम बैठेंगे आशुतोष। उस आशुतोष के साथ, जो अब नेता नहीं हैं। वैसे ही कभी साथ छुट्टियां मनाने जाएंगे, जैसे नेता बनने से पहले वाले आशुतोष के साथ जाया करते थे।


आखिरी बात, ऐसा नहीं है कि आशुतोष ने जिंदगी में समझौते नहीं किए होंगे या अपने संपादन काल में अपने चैनल की रेटिंग के लिए ‘स्वर्ग की सीढ़ी’ नहीं बनाई होगी, मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा कि ‘हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी। जिस को भी देखना हो कई बार देखना’

देखें विडियो: आशुतोष का ये अलहदा अंदाज, जो आपने कभी न देखा होगा- 


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ग़ुलाम कश्मीर भारत में विलय क्यों चाहता है?: राजेश बादल

पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर से छन-छनकर आ रही खबरें यही बताती हैं कि वहां सब कुछ ठीक नहीं है। हालात धीरे धीरे अशांति के आंतरिक विस्फोट की तरफ बढ़ रहे हैं।

राजेश बादल by
Published - Thursday, 28 March, 2024
Last Modified:
Thursday, 28 March, 2024
rajeshbadal

राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का हालिया बयान बेहद महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा है कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के लोग अपने साथ हो रहे भेदभाव से आजिज़ आ चुके हैं और अब वे स्वयं भारत में विलय के लिए अपने आप को प्रस्तुत कर देंगे। कुछ राजनीतिक प्रेक्षक लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र इसे सियासी मान सकते हैं और संभव है कि इसके पीछे चुनावी लाभ लेने की मंशा हो तो भी यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होना चाहिए कि पाकिस्तान ने अपने क़ब्ज़े वाले कश्मीर में अवाम के साथ लगभग उसी तरह अत्याचारों का सिलसिला शुरू कर दिया है ,जैसा क़रीब पचपन साल पहले उसने पूर्वी पाकिस्तान ( आज का बांग्ला देश ) में किया था। आम जनता को उसके नागरिक अधिकारों से वंचित करना आज के विश्व में किसी भी बड़े राष्ट्र के लिए मुमकिन नहीं है।

पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर से छन छन कर आ रही ख़बरें यही बताती हैं कि वहाँ सब कुछ ठीक नहीं है। हालात धीरे धीरे अशांति के आंतरिक विस्फोट की तरफ बढ़ रहे हैं। रक्षा मंत्री के इस कथन के पीछे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ का एक ताज़ा तीख़ा बयान भी है। इसमें उन्होंने कहा था कि फिलिस्तीन और कश्मीर की आज़ादी के लिए अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी को अब निर्णायक रुख अपनाना होगा। यक़ीनन प्रधानमंत्री होने के नाते उनके पास ग़ुलाम कश्मीर की असल तस्वीर होगी ,जहाँ आए दिन मुल्क़ से अलग होने के लिए प्रदर्शन हो रहे हैं। पिछले महीने ही इलाक़े के बड़े राजनीतिक नेता अमज़द अयूब मिर्ज़ा ने खुले तौर पर कहा था कि अब पाकिस्तान से अलग होने के लिए इस ख़ूबसूरत घाटी के लोग छटपटा रहे हैं।

वे जल्द ही हिन्दुस्तान में विलय के लिए बड़ा आंदोलन छेड़ने जा रहे हैं। इस आंदोलन को बलूचिस्तान में अलगाववादी आंदोलन चला रहे सभी गुटों का भी समर्थन है। वादी के गिलगित बाल्टिस्तान में तो इस मसले पर अरसे से हालात तनावपूर्ण बने हुए हैं। नौबत यहाँ तक आई कि सरकार को चेतावनी जारी करनी पड़ी कि वहाँ साम्प्रदायिकता बर्दाश्त नहीं की जाएगी। चिलास क़स्बे की दिया मीर युवा उलेमा कौंसिल के अध्यक्ष मौलाना अब्दुल मलिक ने तो ऐलान किया था कि साफ़ जब तक सरकार अपना रवैया नहीं बदलती ,तब तक इस खूबसूरत प्रदेश में शांति बहाल होना मुश्किल है।

दरअसल इस इलाक़े में साम्प्रदायिक मुद्दा अजीब सा है। यह मुस्लिमों को मुस्लिमों के ख़िलाफ़ उत्तेजित करता है। गिलगित इलाक़े में शिया आबादी बहुतायत में है। ईरान में सबसे अधिक शिया रहते हैं। उसके बाद भारत में शियाओं की संख्या है। पाकिस्तान सुन्नी बाहुल्य राष्ट्र है। पर ,उसके क़ब्ज़े वाले गिलगित बाल्टिस्तान में लगभग दस लाख शिया मुसलमान रहते हैं। सुन्नी मुस्लिम शियाओं को फूटी आँखों नहीं देखते और उन्हें अपने इस्लाम का हिस्सा नहीं मानते। जब तब वहाँ शिया -सुन्नी टकराव होता रहता है। पाक सरकार इसे साम्प्रदायिक तनाव बताती है। पाकिस्तान सरकार चुपचाप वहाँ सुन्नियों को बसाने का काम करती रही है। इसका विरोध भी समय समय पर होता रहा है।

हाल यह है कि सुन्नियों की आबादी शियाओं से क़रीब दो गुनी हो चुकी है। यह प्रांत ताजिकिस्तान ,चीन और भारत के कारगिल - द्रास की ओर से जुड़ता है। चीन अपना ग्वादर तक जाने वाला गलियारा भी इसी क्षेत्र से बना रहा है। गिलगित के लोग इसके विरोध में रहते हैं। भारत में विलय की माँग के पीछे यह भी एक कारण है। इस खूबसूरत वादी में लोग बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। इंटरनेट की सुविधा आए दिन छीन ली जाती है। रैली या सभा के लिए उन्हें इजाज़त लेनी पड़ती है। सुन्नी नागरिक सशस्त्र बल के जवान उन पर चौबीस घंटे नज़र रखते हैं।

कुछ समय पहले गिलगित में विरोध प्रदर्शन हुए तो लोग भारत के समर्थन में नारे लगाते देखे गए थे। एक सुन्नी मौलवी ने शियाओं पर तीख़ी टिप्पणी कर दी। इससे हालात बिगड़ गए। स्थानीय पुलिस को सुन्नी मौलवी के ख़िलाफ़ मामला दर्ज़ करना पड़ा। तो दूसरी तरफ सुन्नियों ने स्कार्दू में एक शिया मौलवी के विरोध में मामला दर्ज़ करा दिया।स्थिति बेहद गंभीर हो गई थी। अब स्कार्दू इलाक़े के लोग कह रहे हैं कि उनके लिए भारत जाने वाली कारगिल सड़क खोल दी जाए,जिससे वे जीवन यापन की ज़रूरी चीज़ें खरीद सकें। पाकिस्तानी फ़ौज के पहरे ने उन्हें जीते जी मर जाने की नौबत ला दी है। वर्षों से यह मांग भी होती रही है कि कारगिल मार्ग भी खोल दिया जाए, जिससे पर्यटक बेरोकटोक भारत भी आ सकें। लेकिन पाकिस्तान सरकार इस मांग को सख़्ती से दबा देती है।

वास्तव में गिलगित - बाल्टिस्तान पाकिस्तान में होते हुए भी वहाँ के अन्य राज्यों की तरह नहीं है। उसे अधिक स्वायत्तता हासिल रही है । लेकिन दो तीन साल से पाकिस्तान वहाँ के लोगों को हासिल हक़ चालाकी से छीनता जा रहा है। भारत इस चीन -पाक आर्थिक परियोजना का विरोध भी इसलिए कर रहा है क्योंकि गिलगित -बाल्टिस्तान का बड़ा क्षेत्र इसमें शामिल है। भारत का कहना है कि यह कश्मीर का हिस्सा है और समूचे कश्मीर का विलय भारत में हो चुका है। इसलिए भारत का गिलगित इलाक़े को लेकर उठाया गया नया क़दम और बयान चीन को चिंता में डालने वाला है। कम लोग यह जानते होंगे कि पाकिस्तान और चीन के बीच एक रक्षा संधि भी है।

इस संधि के मुताबिक़ पाकिस्तान की किसी भी देश से जंग की स्थिति में चीन उसे अपने ऊपर आक्रमण मानेगा और पाकिस्तान को समर्थन देगा। आपको याद होगा कि शक्सगाम घाटी पाकिस्तान ने चीन को 1963 में एक समझौते के तहत उपहार में दे दी थी। ताज़ी सूचनाओं पर भरोसा करें तो पाकिस्तान चीन को गिलगित का एक बड़ा भू भाग मुफ़्त देना चाहता है। इसकी वजह  यह है कि पाकिस्तान चीन आर्थिक गलियारा परियोजना के लिए चीन ने पाकिस्तान को क़रीब 22 अरब डॉलर क़र्ज़ दिया है। इसे वापस लौटाना पाकिस्तान के लिए अगले सौ बरस तक भी मुमकिन नहीं होगा। इसीलिए वह क्षेत्र का बड़ा हिस्सा चीन को तोहफे के तौर पर देना चाहता है। इसलिए भारत के लिए वहाँ प्रत्येक जन आंदोलन अनुकूल होगा जो भारत में विलय की मांग करता हो।

(यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - लोकमत समाचार।

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क्या मोदी और विपक्ष की तैयारियों में दस साल का फर्क है?: श्रवण गर्ग

प्रधानमंत्री जब कहते हैं कि वे भारत को दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिक ताक़त बनाना चाहते हैं तो उसके पीछे की हकीकत को समझना होगा।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Wednesday, 27 March, 2024
Last Modified:
Wednesday, 27 March, 2024
shravangarg

श्रवण गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

हजारों करोड़ की धनराशि के चुनावी बांडों की खरीदी ,जिसका कि हाल ही में खुलासा हुआ है, के पीछे का असली सच क्या है? क्या सच सिर्फ यही है कि विपक्षी दलों की तुलना में भाजपा को कई गुना ज़्यादा चंदा प्राप्त हुआ ? यह सच अधूरा है ! पूरे सच के लिए इस  बात की तह में जाना होगा कि भाजपा को मदद करने वाली ताक़तें कौन सी हैं ? वे कंपनियाँ और उनके मलिक कौन हैं जिनके निहित स्वार्थ वर्तमान सत्ता और व्यवस्था को बनाए रखने में हैं ? वे लोग कौन हैं जो सत्तारूढ़ दल में शामिल हो रहे हैं और उन्हें चुनावी टिकिट मिल रहे हैं ? ‘निष्पक्ष’ चुनावों के ज़रिए सरकार अगर सत्ता से बाहर हो जाती है तो इन शक्तियों के साम्राज्यवाद का क्या होगा ?

प्रधानमंत्री जब कहते हैं कि वे भारत को दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिक ताक़त बनाना चाहते हैं तो उसके पीछे की हक़ीक़त को समझना होगा ! सरकारें कभी आर्थिक ताक़त नहीं बनतीं ! समूचा देश बनता है। जिस देश में अस्सी करोड़ से ज़्यादा नागरिक मुफ़्त के अनाज पर ज़िंदा हों वे राष्ट्र को आर्थिक ताक़त नहीं बना सकते। वे करोड़ों पढ़े-लिखे बेरोज़गार जो नौकरियों की तलाश में अपनी उम्र खर्च कर रहे हैं वे भी मुल्क के आर्थिक रूप से शक्तिशाली बनने में मदद नहीं कर सकते।

सवाल यह है कि प्रधानमंत्री किनके ज़रिए और किनके लिए भारत को ‘फाइव ट्रिलियन डॉलर’ की इकोनॉमी  बनाना चाहते हैं ? क्या उन लोगों के लिए जिनके ख़िलाफ़ राहुल गांधी ने मोर्चा खोल रखा है ? जिनके साथ सत्ता की साठ-गांठ को लेकर राहुल संसद से सड़क तक हमले जारी रखे हुए हैं ?

कहा यह भी जा सकता है कि जैसे-जैसे बड़े घरानों के ख़िलाफ़ राहुल के नेतृत्व में विपक्ष के हमले बढ़ते जाएंगे, ये निहित स्वार्थ भाजपा को सत्ता में बनाए रखने के लिए ‘प्रोटेक्शन मनी’ के तौर पर अपनी चंदे की राशि में इजाफा करते जाएँगे। (राहुल उसे ‘एक्सटॉरशन मनी’ कहते हैं।)। सत्तारूढ़ दल के उम्मीदवारों को जिताने की जिम्मेदारी भी ये घराने अपने ऊपर ले लेंगे। पार्टी का काम हल्का हो जाएगा। भूखी और बेरोज़गार जनता कभी संगठित नहीं हो सकती। निहित स्वार्थों का गिरोह पूरी तरह संगठित है। सबसे बड़ा दान मुख्य भगवान के चरणों में चढ़ाया जाता है। बाक़ी देवी-देवताओं और पुजारियों की पेटियों में फिर श्रद्धा के अनुसार चढ़ावा पड़ता है। पार्टियों को दिये जाने वाले चंदे का गणित भी यही है।

‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ की समाप्ति के बाद मुंबई के शिवाजी पार्क में हुई लाखों लोगों की सभा में राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री के बारे में कहा था वे केवल एक मुखौटा हैं। बॉलीवुड के एक्टरों की तरह अभिनय करते हैं। राहुल ने प्रधानमंत्री के पीछे खड़ी पूँजीपतियों की ताक़त को ही मोदी की असली ‘शक्ति’ बताते हुए कहा था उनकी लड़ाई प्रधानमंत्री की इसी ‘शक्ति’के साथ है। (जैसा कि बाद में होना था, प्रधानमंत्री ने तेलंगाना की एक जनसभा में राहुल द्वारा बताई गई ‘शक्तियों’ के ख़िलाफ़ लड़ाई को नारी शक्ति के प्रति किया गया अपमान बताते हुए उसे ‘सनातन’ के विवाद के साथ जोड़ दिया।)

जिस ‘शक्ति’ का राहुल ने मुंबई में ज़िक्र किया था उसकी ताक़त के बारे में हाल ही में एक अंतरराष्ट्रीय संस्था की रिपोर्ट जारी हुई है। साल 2022-23 के लिए संस्था ‘World Inequality Lab’ द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के सर्वाधिक अमीर एक प्रतिशत लोगों की आय में हिस्सेदारी बढ़कर  22.6% और संपत्ति में हिस्सेदारी बढ़कर 40.1% हो गई है। ऐसा सौ साल में पहली बार हुआ है।

विपक्षी एकता और इतनी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद लोकसभा चुनाव के परिणामों को लेकर भाजपा अगर इतनी आश्वस्त ‘दिखाई’ पड़ती है तो उसके पीछे कोई बड़ा कारण होना चाहिए !  निष्पक्ष अंग्रेज़ी दैनिक ‘द हिंदू’ की सहयोगी अंग्रेज़ी पत्रिका ‘द फ्रंटलाइन’ के हाल के अंक में प्रकाशित एक आलेख में एक अमेरिकी शोध संस्थान की रिपोर्ट के हवाले से बताया गया है कि मोदी 2029 और 2034 के चुनावों की तैयारियों में जुट गए हैं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लीकार्जुन खड़गे ने हाल में बिना रूस का नाम लिए भारत के लोकसभा चुनावों की विश्वसनीयता को लेकर भी भय व्यक्त लिया था।

रूस में हुए चुनावों में पुतिन की सत्ता में धमाकेदार वापसी के बाद दुनिया की नज़रें भय और जिज्ञासा के साथ अब जिन दो देशों के चुनाव परिणामों पर टिक गईं हैं उनमें एक भारत और दूसरा अमेरिका है। भारत के नतीजे 4 जून को और अमेरिका के नवम्बर के पहले सप्ताह में आ जाएँगे। अमेरिका में डॉनल्ड ट्रम्प एक बार फिर मैदान में हैं। ट्रम्प और मोदी के बीच मित्रता उस समय प्रकाश में आई थी जब भारतीय प्रधानमंत्री ने पिछले अमेरिकी चुनावों (2020) के वक्त टैक्सास के  ह्यूस्टन शहर में हुई एक रैली में ‘अब की बार ट्रम्प सरकार ‘ का नारा लगवायाथा। ह्यूस्टन की रैली में ट्रम्प और मोदी के स्वागत के लिए पचास हज़ार से ज़्यादा भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक उपस्थित थे।

अमेरिकी मूल के नागरिकों की एक बड़ी आबादी और यूरोप के कई देश इस समय ट्रम्प की व्हाइट हाउस में वापसी की चर्चाओं से चिंतित और भयभीत हैं। ट्रम्प ने पिछले दिनों यहाँ तक कह दिया था कि वे अगर हार जाते हैं तो अमेरिका में खून-ख़राबा हो जाएगा। ज्ञातव्य है नवम्बर 2020 के चुनावों में ट्रम्प की हार के बाद उनके सवर्ण समर्थकों के एक बड़े समूह ने अमेरिकी संसद पर हमला (6 जनवरी 2021) बोल दिया था और व्यापक हिंसा फैलाई थी।अमेरिका आज तक उस हमले की दहशत से बाहर नहीं आ पाया है।

‘द फ्रंटलाइन’ पत्रिका के आलेख का यह दावा भी है कि भारत में 67 प्रतिशत लोग ‘एकतंत्रीय’ शासन व्यवस्था के समर्थक हैं। अमेरिका में अगर राष्ट्रपति पद के चुनाव परिणामों को लेकर नागरिकों में भय का माहौल है तो क्या अपनी जीत के प्रति मोदी की निश्चिंतता को लेकर भारत में चोरी-छुपे भी कोई चिंता नहीं व्यक्त की जा रही है ? क्या विपक्ष और जनता परिवर्तनों के लिए दस साल और प्रतीक्षा करने को तैयार है ? ऐसा नज़र तो नहीं आता !

(यह लेखक के निजी विचार हैं )

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कुछ ऐसे थे जाने-माने पत्रकार व लेखक शांतनु गुहा रे...

शांतनु गुहा रे जैसे व्यक्ति के बारे में कोई कैसे लिख सकता है? वह बहुत ही बड़े दिल वाले व्यक्ति थे। वह अपने हर काम के प्रति जुनूनी थे।

Last Modified:
Tuesday, 26 March, 2024
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स्वाति भट्टाचार्य ।।

शांतनु गुहा रे जैसे व्यक्ति के बारे में कोई कैसे लिख सकता है? वह बहुत ही बड़े दिल वाले व्यक्ति थे। वह अपने हर काम के प्रति जुनूनी थे। वह हर पार्टी की जान थे और  एक ऐसे व्यक्ति थे, जो हर किसी की बहुत परवाह करते थे। वह अब हम सभी के जीवन में एक बड़ा खालीपन छोड़ गए हैं।

शांतनु से मैं पहली बार 20 साल पहले मिली थी, जब मैं दिल्ली में एक पीआर प्रोफेशनल के तौर पर अपनी पहली नौकरी कर रही थी। मैं उनसे यह पूछने के लिए मिलने गयी थी कि क्या वह मेरे एक क्लाइंट्स पर स्टोरी करेंगे, जो उस समय मुसीबत में था। मैं झिझकते हुए और दिल में घबराहट लेकर उनके पास गयी थी। हालांकि अधिकांश अन्य सीनियर मीडिया प्रोफेशनल शायद मिलने से भी इनकार कर दें, लेकिन मुझे हैरानी हुई कि शांतनु ने मुझसे स्वागतपूर्वक मुलाकात की और न केवल वो स्टोरी सुनी, बल्कि मेरे विचारों को भी जाना। उन्होंने स्टोरी के हर एंगल पर चर्चा की। यहां तक कि जब हम वहां थे, तो उन्होंने मुझे एक कप चाय भी पिलाई। उस दिन से लेकर अब तक और पिछले शनिवार को जब हमने एक साथ रात्रि भोज किया था, मैं आने वाले इस दुर्भाग्यपूर्ण दिन से अनजान थी। मैं हमेशा सलाह के लिए, उनकी राय के लिए और जब भी मेरा दिन खराब होता था और मुझे हंसी की जरूरत होती थी, उनके पास जाती थी। 

उन्होंने उत्साह के साथ काम किया और भी अधिक उत्साह के साथ पार्टियां कीं और जीवन को एक राजा की तरह जिया। उन्होंने जो कुछ भी किया वह असाधारण था। जिन रिसर्च स्टोरीज पर उन्होंने गहराई से शोध किया और लिखा, उसे अधिकांश पत्रकार नहीं छू पाए। जिन पुस्तकों को लिखने में उन्होंने महीनों बिताए, जिससे उन्हें पुरस्कार मिले, युवा पत्रकारों को सलाह देने में उन्होंने जो घंटे बिताए, जो कुछ भी उन्होंने किया, उसने एक गहरा अमिट "शांतनु" छोड़ दिया।  

अपने परिवार और दोस्तों के प्रति उनका समर्पण और अगाध प्रेम मुझे हमेशा अभिभूत कर देता था। उनका जीवन उनकी पत्नी और बेटी के इर्द-गिर्द घूमता था। उनके लिए और कुछ मायने नहीं रखता था। मुझे एक अवसर याद है जब उन्होंने मुझे अपनी पत्नी केया से यह कहते हुए सुना था कि मेरे पास 'लाल पार' साड़ी (लाल बॉर्डर वाली विशिष्ट बंगाली साड़ी) नहीं है और मैं एक खरीदने की सोच रही हूं। अगली सुबह उनके ड्राइवर ने मेरे घर एक पैकेट पहुंचाया। मैंने इसे खोला तो मुझे सबसे खूबसूरत 'लाल पार' साड़ी मिली। ऐसी थी उनकी विचारशीलता और उदारता। 

जो कोई भी शांतनु को जानता था, वह हर साल उनके घर पर होने वाली भव्य दुर्गा पूजा को जानता था। हममें से कई लोगों के लिए वह पूजा का मुख्य आकर्षण थे। हर चीज को विस्तार से करने पर उनका फोकस होता था। वह यह भी देखते थे कि जो भी दुर्गा पूजा से जाए उसे भोग दिया जाए। यदि आप दोपहर के भोजन तक नहीं रुक सकते, तो वह पैकेट पैक करके सैकड़ों घरों तक पहुंचाते थे। अब पूजा कभी भी वैसी नहीं होगी। दरअसल, जिंदगी कभी भी एक जैसी नहीं रहती है। जो चीज मुझे सबसे ज्यादा याद आएगी, वह है दिन के बीच में उनकी कॉल और उनके शब्द "बॉस एकटू कॉफी होबे ना?"

(लेखक एक सीनियर मार्केटिंग कम्युनिकेशन प्रोफेशनल हैं)

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क्या केजरीवाल जेल से मुख्यमंत्री का काम कर पाएंगे?: रजत शर्मा

अरविंद केजरीवाल ने ही शराब व्यापारियों को फायदा पहुंचाने वाली लिकर पॉलिसी बनाई। इस पॉलिसी से करीब 600 करोड़ का मुनाफा कमाया गया।

Last Modified:
Tuesday, 26 March, 2024
rajatsharmaji

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

शराब घोटाले के केस में कोर्ट ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को 6 दिन के लिए एन्फोर्समेंट डाय़रेक्ट्रेट (ED) की रिमांड में भेज दिया। केजरीवाल अब 28 मार्च तक ED की कस्टडी में रहेंगे। केजरीवाल की तरफ से कई वकीलों ने दलीलें रखीं, केजरीवाल की गिरफ्तारी का आधार पूछा, केजरीवाल की गिरफ्तारी को चुनावी सियासत का नतीजा बताया, लेकिन शुक्रवार को पहली बार ED ने कोर्ट को बताया कि शराब घोटाले के मास्टर माइंड अरविंद केजरीवाल हैं। अरविंद केजरीवाल ने ही शराब व्यापारियों को फायदा पहुंचाने वाली liquor पॉलिसी बनाई। इस पॉलिसी से करीब 600 करोड़ का मुनाफा कमाया गया। इसमें से 100 करोड़ रुपये किकबैक के तौर पर आम आदमी पार्टी को मिले।  इसमें से पैंतालीस करोड़ रुपये गोवा के चुनाव में खर्च हुए। इसके सबूत ED के पास हैं।

ED ने शराब घोटाले की सारी कड़ियां जोड़कर अदालत के सामने रख दीं। चन्द्रशेखर राव की बेटी के. कविता के बयान का हवाला दिया। इस केस में के. कविता को पहले ही गिरफ्तार किया जा चुका है और  शुक्रवार को ही सुप्रीम कोर्ट ने कविता की जमानत की अर्जी ये कह कर खारिज दी कि उन्हें ट्रायल कोर्ट में अपील करनी चाहिए। कोर्ट में ED ने कहा कि शराब घोटाले की साजिश बहुत सावधानी और चालाकी से रची गई, जिन मोबाइल फोन्स का बातचीत या मैसेजिंग के लिए इस्तेमाल किया गया, उन फोन्स को नष्ट कर दिया गया लेकिन कुछ आरोपियों के फोन से मैसेज मिले हैं जिनसे पता चलता है कि शराब घोटाले के 45 करोड़ रूपए गोवा चुनाव में हवाला के जरिए भेजा गया। जिन उम्मीदवारों को पैसा पहुंचाया गया, वो भी बयान देने को तैयार हैं। ED ने कोर्ट को बताया कि इस मामले में केजरीवाल के अलावा के.कविता, विनय नायर, समीर महेन्द्रू,  दिनेश अरोड़ा का क्या क्या रोल था।

अभिषेक मनु सिंघवी ने इस केस को चुनावी राजनीति से जोड़कर केजरीवाल की रिमांड का विरोध किया  लेकिन कोर्ट ने दस्तावेज देखने के बाद केजरीवाल को 6 दिन के लिए ED की कस्टडी में भेज दिया। अभिषेक मनु सिंघवी ने केजरीवाल के वकील के तौर पर शुक्रवार को कोर्ट में जो दलीलें रखीं, वो कारगर साबित नहीं हुई। ED ने दस्तावेज और जो सबूत अदालत को दिखाए, वो सिंघवी की दलीलों पर भारी पड़ी। ED ने कोर्ट में जो खुलासे किए वो हैरान करने वाले हैं। केजरीवाल मुख्यमंत्री हैं, लेकिन उन्होंने अपने पास कोई मंत्रालय नहीं रखा, किसी फाइल पर उनके साइन नहीं हैं। इसलिए ED के लिए इस मामले में सबूत इकट्ठे करना, कडिय़ों को जोड़ना बहुत मुश्किल था। अब ED को केजरीवाल की कस्टडी मिल गई है लेकिन अब ED के सामने अदालत में अपने आरोपों को साबित करना बड़ी चुनौती होगी । और जब तक ये साबित नहीं हो जाता तब तक केजरीवाल की पार्टी के नेता शराब घोटाले को बीजेपी की सियासी साजिश बताएंगे।

आम आदमी पार्टी केजरीवाल ने बनाई। अब तक केजरीवाल ने ही चलाई और तीन-तीन बार केजरीवाल ने ही दिल्ली के चुनाव में पार्टी को जीत दिलाई। इसीलिए आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता और नेता ये सोच भी नहीं सकते कि केजरीवाल की अनुपस्थिति में पार्टी कैसे चलेगी, दिल्ली की सरकार कैसे चलेगी। हालांकि सार्वजनिक तौर पर अब तक आम आदमी पार्टी का स्टैंड यही रहा है कि केजरीवाल को अगर जेल जाना पड़ा तो भी वो मुख्यमंत्री पद नहीं छोड़ेंगे, ना ही पार्टी के संयोजक पद से इस्तीफा देंगे। वो जेल से ही पार्टी और सरकार दोनों चलाएंगे लेकिन ये व्यावहारिक रूप से सम्भव नहीं है।   

हाईकोर्ट में एक PIL फाइल की गई है जिसमें गिरफ्तारी के बाद केजरीवाल को तुरंत पद से हटाने की अपील की गई । पहले भी केजरीवाल ने मनीष सिसोदिया और सत्येन्द्र जैन से उनके जेल जाने के बाद बहुत दिनों तक इस्तीफा नहीं लिया था लेकिन जब मंत्रालयों के काम रुकने लगे तो इस्तीफा लेना पड़ा, सौरभ भारद्वाज और आतिशी को मंत्री बनाना पड़ा। वैसे भी दिल्ली की सरकार चलाना टेढ़ी खीर है। यहां पर लेफ्टिनेंट गवर्नर मौजूद हैं। केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर LG के पास बहुत सारी powers हैं। तो जो सरकार जेल से बाहर रहकर चलाना मुश्किल है उसे केजरीवाल जेल से कैसे चला पाएंगे,ये बड़ा सवाल है। मेरी जानकारी ये है कि अगर जेल जाने के बाद भी केजरीवाल ने दो दिन तक इस्तीफा नहीं दिया तो LG उनसे इस्तीफा देने के लिए कहेंगे और हो सकता है ये एक बड़ी कानूनी लड़ाई छिड़ जाए।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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शराब नीति घोटाले में दो कांग्रेसी मुख्यमंत्री भी फंसे थे कानूनी शिकंजे में: आलोक मेहता

इस काण्ड में कांग्रेस के नेताओं के समर्थन पर मुझे यह ध्यान आया कि शराब नीति के घोटालों पर दो कांग्रेसी मुख्यमंत्री गंभीर आरोपों के कारण कानूनी मामलों में फंस चुके हैं।

आलोक मेहता by
Published - Tuesday, 26 March, 2024
Last Modified:
Tuesday, 26 March, 2024
aalokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।  

जब फलते-फूलते और अकूत धन संपत्ति पैदा करने वाले शराब उद्योग के बारे में निर्णय की बात आती है तो चतुर से चतुर राजनेता भी चूक जाते हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल तो राजनीति में आने से पहले इनकम टैक्स विभाग के बड़े अधिकारी, सूचना के अधिकार - सत्ता व्यवस्था में पारदर्शिता तथा भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन के सेनापति रहे थे, लेकिन दिल्ली की शराब नीति बनाने बदलने, शराब के व्यापार को प्रोत्साहित करने के साथ राजनीतिक और  चुनावी सफलताओं के मोह में भ्रष्टाचार के गंभीर मामले में जेल चले गए हैं।

अब केजरीवाल के साथी और कांग्रेस गठबंधन के नेता इसे केंद्रीय जांच एजेंसियों, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार और सतारूढ़ भारतीय जनता पार्टी द्वारा फैलाया जाल कहते रहें। अदालत तो सबूतों के आधार पर ही शराब घोटाले के आरोपियों को जमानत नहीं देकर जेल में रखने के आदेश दे रही है। हाँ,  सजा मिलने में हमेशा की तरह देरी अवश्य हो सकती है। इस काण्ड में कांग्रेस के नेताओं के समर्थन पर मुझे यह ध्यान आया कि शराब नीति के घोटालों पर दो कांग्रेसी मुख्यमंत्री गंभीर आरोपों के कारण क़ानूनी मामलों में फंस चुके हैं। केजरीवाल को शायद उनके साथी अधिकारी या मित्र कांग्रेसी ने नहीं बताया अथवा क्या सलाह दे दी कि घोटाले देर सबेर दब जाते हैं?

दिलचस्प तथ्य यह है कि शराब नीति और ठेकों आदि में भ्रष्टाचार के दो बड़े मामले मध्य प्रदेश के दो प्रमुख कांग्रेसी मुख्यमंत्री के विरुद्ध आए थे। पहला मामला  कांग्रेस के शीर्ष नेता मुख्यमंत्री, राज्यपाल और पार्टी के उपाध्यक्ष रहे अर्जुन सिंह के सत्ता काल का है , जिसमें सरकार की शराब नीति को बदलकर किसी कंपनी को लाभ पहुँचाने और भ्र्ष्टाचार के आरोप पर जबलपुर उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने उन्हें दोषी ठहराया था। कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा और न्यायमूर्ति बीएम लाल ने अप्रेल 1986 में न केवल राज्य सरकार की संशोधित शराब नीति को खारिज कर दिया, जो 1984 में तब तय की गई थी जब सिंह मुख्यमंत्री थे।

असल में 30 दिसंबर, 1984 को सरकार ने निर्णय लिया कि 1 अप्रैल, 1986 से शराब नीति में बदलाव किया जाएगा। सरकारी जमीन पर शराब बनाने वाली कंपनियों को काम करने के बजाय नए प्लांट लगाने के लिए कहा जाएगा। तदनुसार, फरवरी 1985 में, सरकार ने मौजूदा लाइसेंसधारियों में से सात को नई डिस्टिलरीज़ के निर्माण के लिए आशय पत्र दिए। उनके निवेश के बदले में सरकार ने उन्हें वचन दिया कि उन्हें 1 अप्रैल 1986 से शराब बनाने का पांच साल का लाइसेंस भी दिया जाएगा।

मुख्य याचिकाकर्ता, जबलपुर के शराब आपूर्तिकर्ता सागर अग्रवाल ने इस आधार पर उस आदेश को चुनौती दी कि चूंकि उन्हें नई भट्टियां स्थापित करने के लिए बोली लगाने का अवसर नहीं दिया गया था, इसलिए सरकार के साथ अनुबंध करने के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया गया था। अपने 32 पन्नों के फैसले में, न्यायमूर्ति वर्मा ने चुने हुए सात डिस्टिलरों को नई डिस्टिलरी स्थापित करने की अनुमति देने के सरकार के फैसले को बरकरार रखा, लेकिन चुने हुए सात को ही देशी शराब बनाने और आपूर्ति करने का लाइसेंस देने की नीति को उल्लंघनकारी बताते हुए रद्द कर दिया। जस्टिस बीएम लाल के 19 पेज के फैसले की शुरुआत यह कहकर हुई कि वह अपने वरिष्ठ न्यायाधीश के "अंतिम निष्कर्ष" से सहमत हैं, लेकिन, महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने याचिकाकर्ताओं के अन्य तर्क को स्वीकार कर लिया कि राज्य को पहले पांच वर्षों में 56 करोड़ रुपये का नुकसान होगा।

इसे स्वीकार करते हुए क्योंकि "राज्य के पास इसका कोई उचित और ठोस जवाब नहीं है", इसके बाद उन्होंने इस नीति को "निजी संधि/समझौते" के रूप में खारिज कर दिया, जो "वित्त सचिव द्वारा हित में उठाए गए जोरदार विरोध" के बावजूद सामने आया।" मामले की सुनवाई के दौरान लाल को नई नीति को 30 साल से पांच साल करने में सरकार की ईमानदारी पर भी संदेह हुआ। न्यायमूर्ति लाल ने अपनी अलग-अलग टिप्पणियों में सरकार के खिलाफ गंभीर सख्त टिपण्णी  भी की थी। जस्टिस  लाल ने अपने फैसले में यह तक कहा कि ''तर्कों के मुताबिक भ्रष्टाचार का सच रिकार्ड से बाहर झांक रहा है।'' नई नीति को "शरारतपूर्ण  तरीका बताते हुए उन्होंने कहा कि अपने उच्च पद के आधार पर शराब नीति में गड़बड़ी और  भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार लोगों से सख्ती से निपटा जाना चाहिए क्योंकि वे समाज के "शैतान" हैं।  

इस निर्णय के बाद तब मध्य प्रदेश के भाजपा नेताओं ने अर्जुन सिंह के इस्तीफे की मांग की थी। अर्जुन सिंह पंजाब के राज्यपाल बन गए थे। फिर यह मामला सुप्रीम कोर्ट में चलता रहा और कुछ क़ानूनी रास्तों से जेल की नौबत नहीं आई। शराब घोटाले से जुड़ा गंभीर भ्रष्टाचार का दूसरा मामला मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और आज भी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सांसद दिग्विजय सिंह के कार्यकाल का है। इनकम टैक्स विभाग के छापों के दौरान एक बड़ी शराब कम्पनी के मालिकों की डायरियों में मुख्यमंत्री और उनके सहयोगी मंत्री को भी 12 करोड़ दिए जाने का विवरण मिला। इनकम टैक्स के वरिष्ठ अधिकारी ने छापे में मिले दस्तावेज और डायरी आदि लोकायुक्त जस्टिस फैजाउद्दीन को सौंप दी थी। मामला 1996 का था।

लेकिन विधानसभा में 2001 में जोर शोर से उठा। तब दिग्विजय सिंह ने सदन में आरोपों को गलत बताते हुए यह भी कहा कि वह प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को पत्र लिखकर इस अधिकारी की शिकायत करेंगे कि उसने लोकायुक्त को दस्तावेज भेजकर बदनाम किया है। मामला डायरी के रिकॉर्ड का था और नरसिंघ राव राज में हुए हवाला कांड का आधार सुप्रीम कोर्ट में अमान्य हो जाने के फैसले से दिग्विजय भी किसी तरह इस मामले में बच गए। यही नहीं उनके कुछ सहयोगियों का तो दावा था कि उन्होंने उस शराब कम्पनी के लोगों को अपने विरोधियों का मुंह बंद करने के इंतजाम की सलाह दी और विरोधी रास्ते से हटवा दिए।

इसमें कोई शक नहीं कि भ्र्ष्टाचार या किसी भी अपराध के मामले में कानून और निचली से सर्वोच्च न्यायालय में गवाह और प्रमाणों के आधार पर ही सजा मिल सकती है या आरोप मुक्त हुआ जा सकता है। अर्जुन दिग्विजय के सत्ता काल में डिजिटल क्रांति नहीं थी और उद्योग व्यापार भी एक सीमा में थे। अब एक सौ करोड़ या हजार करोड़ के धंधे और भ्रष्टाचार के मामले सामने आने लगे हैं। केजरीवाल राज के शराब नीति घोटाले के तार दिल्ली से तेलंगाना और गोवा तक जुड़े होने के आरोप प्रमाण सामने आ रहे हैं। यदि पर्याप्त सबूत नहीं होते तो केजरीवाल के सबसे करीबी और उप मुख्यमंत्री रहे मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन, सांसद संजय सिंह और तेलंगाना के मुख्यमंत्री की बेटी तथा पूर्व सांसद और विधान परिषद् की सदस्य के कविथा जेल में नहीं होती।

सिसोदिया को तो सुप्रीम कोर्ट से भी राहत नहीं मिल सकी। केजरीवाल के साथ प्रतिपक्ष के नेता सरकार के विरुद्ध सड़कों पर आंदोलन या सभाओं से सहानुभूति लेने का प्रयास करेंगे। लेकिन क्या वे जयप्रकाश नारायण अथवा इंदिरा गाँधी की तरह जनता की सहानुभूति प्राप्त कर सकते हैं ? दूसरी तरफ लालू यादव अथवा अन्य नेताओं पर भ्र्ष्टाचार या अन्य अपराधों के गंभीर आरोपों मामलों के बावजूद किसी इलाके में वोट मिलने की बातें भी सामने हैं। इसलिए असली फैसला अदालत या जनता द्वारा ही हो सकेगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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हमें अपनी गौरवशाली परंपराओं का भी ध्यान रखना होगा: अनंत विजय

जब हम विकसित भारत के लक्ष्य की बात कर रहे हैं तो हमें अपनी गौरवशाली परंपराओं का भी ध्यान रखना होगा। हमें अपने पर्व त्योहारों की ऐतिहासिकता के बारे में नई पीढ़ी को बताना होगा।

Last Modified:
Tuesday, 26 March, 2024
anantvijayji

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

बीते शुक्रवार को चंद्रशेखर आजाद व्याख्यानमाला के सिलसिले में मध्यप्रदेश के झाबुआ जाना हुआ। झाबुआ पहुंचने के पहले रास्ते में एक जगह है कालीदेवी। वहां से गुजरते हुए सड़क के दोनों तरफ काफी भीड़ दिखी। रंग-बिरंगी पोशाकों में सजे युवक-युवतियां, किशोर-बालक और महिलाएं-पुरुष स्थानीय बाजार में अपनी उपस्थिति से उत्सवी वातावरण बना रहे थे। पहले तो लगा कि चुनाव का माहौल है और किसी राजनीतिक दल की कोई रैली या सभा होगी जिसके लिए लोगों को इकट्ठा किया गया है। लेकिन पता चला कि ये लोग होलिका दहन के पहले चलने वाले उत्सव भगोरिया में हिस्सा लेने के लिए एक जगह जमा हुए हैं। कालीदेवी हाट में थोड़ी देर पैदल घूमने के बाद एक जगह पर एक बड़ा सा ढोल दिखा।

ये ढोल आम ढोल से कई गुणा बड़ा था। कुछ लोग उसको बजा रहे थे तो कुछ अन्य उसको बजाने का प्रयत्न कर रहे थे। जब ढोल बजता तो उसके आपसाप खड़ी महिलाएं और युवतियां नृत्य करने लगतीं। वहां से आगे बढ़ने पर हाट में खान-पान की अनेक अस्थायी दुकानें दिखीं। पान की भी कई दुकानें थीं। गोदना वाले भी बैठे थे ।लड़कियां गोदना गोदवा रही थीं। कुल मिलाकर ऐसा दृश्य उत्पन्न हो रहा था जो भारतीय लोक की एक बेहद जीवंत तस्वीर पेश कर रहा था।

उल्लास और आनंद के उस वातावरण में सभी अपनी मस्ती में रमे हुए थे। लोकरंग में डूबी जिंदगी। थोड़ी देर तक भगोरिया हाट मेला को देखने के बाद हम झाबुआ के लिए प्रस्थान कर गए। झाबुआ शहर में भी एक जगह हाट लगाने की तैयारी हो रही थी। बताया गया कि उस स्थान पर भगोरिया हाट लगेनेवाला है। इस उत्सव या आयोजन को लेकर जिज्ञासा बढ़ गई थी।

झाबुआ पहुंचने के बाद व्याख्यानमाला के आयोजन से जुड़े अश्विनी जी से मेले के बारे में पूछा। उन्होंने विस्तार से इसकी जानकारी दी। बताया कि मालवा और निमाड़ क्षेत्र में निवास करनेवाले वनवासियों का ये होली उत्सव है। होलिका दहन से सात दिनों पहले से ही मुख्य रूप से इस क्षेत्र में निवास करनेवाले भील जनजाति के लोग इस उत्सव को मनाते हैं। इसकी परंपरा काफी पुरानी है। जनश्रुति है कि राजा भोज के समय ये उत्सव आरंभ हुआ था। उस समय स्थानीय स्तर पर लगनेवाले हाट को भगोरिया कहा जाता था। उसी समय भील राजाओं ने भी अपने अपने क्षेत्रों में होली के आसपास हाट और मेला का आयोजन आरंभ किया था।

इन मेलों को भील राजाओं का संरक्षण प्राप्त था और बनवासी समुदाय के लोग होली का उत्सव इन्हीं मेलों के दौरान मनाया करते थे। कुछ लोगों का कहना है कि भगोरिया भील समुदाय का प्रणय उत्सव भी है। इस तरह की परंपरा की बात भी होती है कि युवक और युवतियां इस मेले के दौरान एक दूसरे को पसंद करते हैं और अपना जीवन साथी बनाते हैं। पसंद करने का जो तरीका बताया गया वो भी बहुत दिलचस्प था। जिस लड़के को कोई लड़की पसंद आती है तो वो उसको पान भेंट करता है। लड़की अगर पान खा लेती तो माना जाता है कि उसने प्रणय निवेदन स्वीकार कर लिया है।

इसी तरह प्रणय निवेदन का एक अन्य तरीका भी बताया गया। अगर कोई युवक किसी युवती के गाल पर गुलाल लगा दे और युवती भी पलटकर उसके गाल पर गुलाल लगा दे तो माना जाता है कि दोनों ने एक दूसरे को स्वीकर कर लिया है। कई बार ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं कि प्रणय निवेदन के स्वीकार करने के बाद युवक-युवती मेले से भाग जाते हैं और विवाह कर लेते हैं। इस कारण इसको भगोरिया कहा जाता है। पर अधिक प्रामाणिकता भोज काल से जुड़ी जनश्रुति में ही प्रतीत होती है। ऐसा कहने का करण ये है कि भील समुदाय में विवाह को लेकर बहुत विरोध आदि होता नहीं है।

बताया तो यहां तक गया कि लड़के वालों को ही लड़की वालों को धनराशि या चांदी देनी पड़ती है। यह भी पता चला कि भील समुदाय की लड़कियां या महिलाएं सोने से अधिक चांदी के आभूषणों को पसंद करती हैं। कालीदेवी में मेला भ्रमण के दौरान इस ओर ध्यान नहीं गया था लेकिन जब झाबुआ में इस बारे में पता चला तो स्मरण आया कि हां उस मेले में तो युवतियां और महिलाएं तो चांदी के आभूषण ही पहनी थीं।

मध्यप्रदेश के धार, झाबुआ, अलीराजपुर और उसके पास के क्षेत्रों में व्याप्त होली की इस परंपरा को देखकर लगा कि वनवासी अपनी सनातनी परंपरा को अब भी अपनाए हुए हैं। होली के बारे में अपनी पुस्तक धर्मशास्त्र का इतिहास में भारत रत्न पी वी काणे ने विस्तार से लिखा है। वो कहते हैं कि होली या होलिका आनंद और उल्लास का ऐसा उत्सव है जो संपूर्ण देश में मनाया जाता है। उत्सव मनाने के ढंग में कहीं कहीं अंतर पाया जाता है। अब अगर हम इस कथन पर विचार करें तो स्पष्ट है कि मध्यप्रदेश के भगोरिया मेला में भील समुदाय का होली मनाने का ढंग अलग है। उसमें आनंद, उल्लास, उमंग और मस्ती तो है लेकिन उसको विवाह संस्कार से जोड़कर आनंद का एक अलग ही आयाम दे दिया गया है।

सनातन धर्म की विभिन्न पुस्तकों में होली के बारे में उल्लेख मिलता है। काणे कहते हैं कि होली का आरंभिक शब्द स्वरूप ‘होलाका’ था और भारत के पूर्वी भागों में ये शब्द प्रचलित था। काठकगृह्य में एक सूत्र है ‘राका होलाके’, जिसकी व्याख्या टीकाकारों ने इस प्रकार की है, होला एक कर्म विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए संपादित होता है। इसको भी भागोरिया से जोड़कर देखा जा सकता है। होलाका का उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र में भी मिलता है जब वो इसको बीस क्रीड़ाओं में शामिल करते हैं। इस त्योहार का उल्लेख जैमिनी और काठकगृह्य में मिलने से ये सिद्ध होता है कि ये ईसा से कई शताब्दियों पूर्व से अस्तित्व में है।

काणे ने तो होली के बारे में कहा भी है कि इसमें वसंत की आनंदाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंग, अबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान प्रदान से प्रकट होती है। कहीं कहीं रंगों का खेल होली के कई दिन पहले से आरंभ हो जाते हैं और बहुत दिनों तक चलते रहते हैं। भगोरिया मेला भी सात दिनों तक चलता है। राय बहादुर बी ए गुप्ते ने एक पुस्तक लिखी थी ‘हिंदू हालीडेज एंड सेरेमनीज’, इस पुस्तक में वो लिखते हैं कि होली का त्योहार मिस्त्र या यूनान से भारत आया। पी वी काणे उनकी इस अवधारणा का निषेध करते हुए उनके दृष्टिकोण को भ्रामक बताते हैं और कहते हैं कि उनकी धारणा को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए।

भगोरिया को देखने के बाद और प्राचीन भारतीय ग्रंथों के उद्धरणों को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि हम अपनी विरासत से कितने दूर होते जा रहे हैं। आज भील समुदाय अपनी परंपरा को कायम रखे हुए है जबकि शहरों में रहनेवाले और खुद को आधुनिक समझनेवाले लोग अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। यह अकारण नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी जब ला किला की प्राचीर से पांच-प्रण की बात करते हैं वो अपनी विरासत पर गर्व करने पर जोर देते हैं। अमृत काल में जब हम विकसित भारत के लक्ष्य की बात कर रहे हैं तो हमें अपनी गौरवशाली परंपराओं का भी ध्यान रखना होगा।

हमें अपने पर्व त्योहारों की ऐतिहासिकता के बारे में नई पीढ़ी को बताना होगा। आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल लोग आज विशेषज्ञो के पास जाकर हैप्पीनेस खोजते हैं, उनको पता ही नहीं कि ये हैप्पीनेस तो हमारे पर्व और त्योहारों में शामिल है। जरूरत इस बात की है कि हैप्पीनेस की अपनी परंपरा के साथ जीवन जिएं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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स्टेट बैंक पर भी अब उठ रहे सवाल? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने जानकारी देने के दो दिन पहले सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगा दी कि बॉन्ड खरीदने वाले और बेचने वालों का डेटा अलग अलग जगहों पर रखा गया है।

Last Modified:
Tuesday, 26 March, 2024
milindji

मिलिंद खांडेकर, मैनेजिंग एडिटर, तक चैनल्स, टीवी टुडे नेटवर्क।

स्टेट बैंक सोशल मीडिया पर मजाक का विषय बना हुआ है। चुनावी बॉन्ड का डेटा रिलीज करवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ को दो-दो बार सुनवाई करना पड़ी। लोगों ने लिखा कि स्टेट बैंक ने सुप्रीम कोर्ट को भी चक्कर लगवा दिया जैसे बाकी ग्राहकों को लगाना पड़ता है। यह मजाक का विषय नहीं है। सवाल स्टेट बैंक पर भी उठ रहा है कि आखिर किस कारण से वो डेटा देने में देर कर रहा था।

जिस डेटा को मिलाने के लिए स्टेट बैंक तीन महीने का टाइम मांग रहा था, उसे पत्रकारों ने 30 मिनट में मिला दिया। सुप्रीम कोर्ट ने 15 फरवरी को आदेश दिया कि चुनावी बॉन्ड बंद किए जाएं। ये बॉन्ड बेचने का अधिकार सिर्फ स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को मिला था। कोर्ट ने बैंक से यह भी कहा कि अप्रैल 2019 से बॉन्ड खरीदने और भुनाने वालों की जानकारी 6 मार्च तक को चुनाव आयोग को सौंप दें। चुनाव आयोग हफ़्ते भर में इसे सार्वजनिक कर दे। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने जानकारी देने के दो दिन पहले सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी लगा दी कि बॉन्ड ख़रीदने वाले और बेचने वालों का डेटा अलग अलग जगहों पर रखा गया है।

एक तरफ 22 हजार एंट्री हैं और दूसरी तरफ भी 22 हजार। इनको मैच करने के लिए 30 जून तक समय चाहिए। स्टेट बैंक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की याचिका लग गई। सुप्रीम कोर्ट ने 11 मार्च को बैंक की अर्ज़ी खारिज कर दी। कोर्ट ने कहा कि जानकारी अगले दिन तक सार्वजनिक कर दें। स्टेट बैंक ने जानकारी सार्वजनिक कर दी लेकिन बॉन्ड का Alpha Numeric Number नहीं दिया जैसे हर करेंसी नोट पर यूनिक नंबर होता है, वैसे ही हर बॉन्ड का अपना नंबर था। इसके मैचिंग से पता चलता कि किस कंपनी ने किसको कितना चंदा दिया।

18 मार्च को सुप्रीम कोर्ट में फिर सुनवाई हुई। कोर्ट ने फटकार लगाई तब जाकर 21 मार्च स्टेट बैंक ने नंबर के साथ डेटा जारी किया। फिर भी डेटा मैच नहीं था। अलग अलग अख़बार, चैनल और वेबसाइट ने कुछ ही मिनटों में दोनों लिस्ट मैच कर दीं, जिसके लिए स्टेट बैंक 30 जून तक समय मांग रहा था। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के 57% भारत सरकार के पास हैं। कांग्रेस ने सरकार पर आरोप लगाया है कि चुनाव से पहले सरकार द्वारा डेटा रोकने की भरसक कोशिश की गई। सरकार का जवाब नहीं आया है लेकिन सवाल बना हुआ है कि स्टेट बैंक डेटा रोकना क्यों चाहता था? चुनाव से पहले वोटरों को जानने का अधिकार है कि वो जिसे वोट दे रहा है वो किस कंपनी या व्यक्ति से पैसे ले रहा है।

(वरिष्ठ पत्रकार मिलिंद खांडेकर 'टीवी टुडे नेटवर्क' के 'तक चैनल्स' के मैनेजिंग एडिटर हैं और हर रविवार सोशल मीडिया पर उनका साप्ताहिक न्यूजलेटर 'हिसाब किताब' प्रकाशित होता है।)

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संसार के सबसे झगड़ालू पड़ोसी से कैसे निपटें: राजेश बादल

आज भारत और चीन के पास सीमा पर बैठकों का अंतहीन सिलसिला है। एक बड़ी और एक छोटी जंग है। अनेक ख़ूनी झड़पें हैं और कई अवसरों पर कड़वाहट भरी अंताक्षरी है।

राजेश बादल by
Published - Thursday, 21 March, 2024
Last Modified:
Thursday, 21 March, 2024
rajeshbadalji

राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

अरुणाचल प्रदेश पर चीन ने फिर विवाद को तूल दिया है। वह कहता है कि समूचा अरुणाचल उसका है। बीते पांच साल में उसने इस खूबसूरत भारतीय प्रदेश के बत्तीस स्थानों के नाम ही बदल दिए हैं। सदियों से चले आ रहे भारतीय नामों को नकारते हुए चीनी भाषा मंदारिन और तिब्बती भाषा के ये शब्द वहाँ सरकारी तौर पर मान लिए गए हैं। अब चीन कहता है कि अरुणाचल का नाम तो जंगनान है और वह चीन का अभिन्न हिस्सा है। इस तरह से उसने एक स्थाई और संभवतः कभी न हल होने वाली समस्या का जन्म दे दिया है। जब जब भारतीय राजनेता अरुणाचल जाते हैं ,चीन विरोध दर्ज़ कराता है। भारत ने भी दावे को खारिज़ करते हुए चीन के रवैए की आलोचना की है। उसने कहा है कि नाम बदलने से वह क्षेत्र चीन का कैसे हो जाएगा। अरुणाचल में अरसे से लोकतान्त्रिक सरकारें चुनी जाती रही हैं और वे भारत के अभिन्न अंग हैं।

दोनों विराट मुल्क़ों के बीच सत्तर साल से यह सीमा झगड़े की जड़ बनी हुई है। क्या संयोग है कि 1954 में जब भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया और दोनों देशों के बीच दो बरस तक एक रूमानी दोस्ती सारा संसार देख रहा था ,तो उन्ही दिनों यही पड़ोसी तिब्बत के बाद अरुणाचल को हथियाने के मंसूबे भी पालने लगा था। इसी कारण 1956 आते आते मित्रता कपूर की तरह उड़ गई और चीन एक धूर्त - चालबाज़ पड़ोसी की तरह व्यवहार करने लगा। तबसे आज तक यह विवाद रुकने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। आज भारत और चीन के पास  सीमा पर बैठकों का अंतहीन सिलसिला है ,एक बड़ी और एक छोटी जंग है ,अनेक ख़ूनी झड़पें हैं और कई अवसरों पर कड़वाहट भरी अंताक्षरी है।

असल प्रश्न है कि आबादी में भारत से थोड़ा अधिक और क्षेत्रफल में लगभग तीन गुने बड़े चीन को ज़मीन की इतनी भूख़ क्यों है और वह शांत क्यों नहीं होती ?उसकी सीमा से चौदह राष्ट्रों की सीमाएँ लगती हैं। ग़ौर करने की बात यह है कि इनमें से प्रत्येक देश के साथ उसका सीमा को लेकर झगड़ा चलता ही रहता है। यह तथ्य संयुक्त राष्ट्र की अधिकृत जानकारी का हिस्सा है। ज़रा देशों के नाम भी जान लीजिए। यह हैं-

भारत, रूस, भूटान, नेपाल, म्यांमार, उत्तरकोरिया, मंगोलिया, विएतनाम, पाकिस्तान, लाओस, किर्गिस्तान, कज़ाकिस्तान, ताजिकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान। इन सभी के साथ चीन की सीमा को लेकर कलह की स्थिति बनी हुई है। बात यहीं समाप्त नहीं होती। नौ अन्य राष्ट्रों की ज़मीन या समंदर पर भी चीन अपना मालिकाना हक़ जताता है। इन नौ देशों में जापान, ताइवान, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया, ब्रूनेई, फिलीपींस, उत्तर कोरिया, विएतनाम और कम्बोडिया जैसे राष्ट्र हैं। इस तरह कुल तेईस देशों से उसके झगड़ालू रिश्ते हैं। इस नज़रिए से चीन संसार का सबसे ख़राब पड़ोसी है। इस सूची में रूस,पाकिस्तान, नेपाल,उत्तर कोरिया और म्यांमार के नाम देखकर आप हैरत में पड़ गए होंगे।

लेकिन यह सच है। रूस से तो पचपन साल पहले वह जंग भी लड़ चुका है। जापान से भी उसकी दो जंगें हुई हैं। इनमें लाखों चीनी मारे गए थे। ताईवान से युद्ध की स्थिति बनी ही रहती है। विएतनाम से स्प्रैटली और पेरासील द्वीपों के स्वामित्व को लेकर वह युद्ध लड़ चुका है। फिलीपींस ने पिछले साल दक्षिण चीन सागर में अपनी संप्रभुता बनाए रखने के लिए चीन के सारे बैरियर तोड़ दिए थे। नेपाल और भूटान अपनी सीमा में अतिक्रमण के आरोप लगा ही चुके हैं। उत्तर कोरिया के साथ येलू नदी के द्वीपों पर चीन का संघर्ष छिपा नहीं है। सिंगापुर में अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी से चीन के संबंध सामान्य नहीं हैं। मलेशिया के प्रधानमंत्री भी दक्षिण चीन महासागर के बारे में अनेक बार चीन से टकराव ले चुके हैं।

अब आते हैं भारत और चीन के सीमा विवाद पर। भारत ने तो चीन को दिसंबर 1949 में ही मान्यता दे दी थी। इसके बाद 1950 में कोरियाई युद्ध में शुरुआत में तो हमने अमेरिका का साथ दिया ,लेकिन बाद में हम अमेरिका और चीन के बीच मध्यस्थ बने और चीन का सन्देश अमेरिका को दिया कि यदि अमेरिकी सेना यालू नदी तक आई तो चीन कोरिया मेंअपनी सेना भेजेगा। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र में चीन को हमलावर क़रार देने का प्रस्ताव आया तो भारत ने जमकर विरोध दिया और चीन का समर्थन किया। लेकिन चीन ने भारत की सदाशयता को नहीं समझा।

इसके बाद भी 1954 तक भारत और चीन मिलकर नारा लगा रहे थे -हिंदी ,चीनी भाई भाई। भारत ने तिब्बत के बारे में चीन से समझौता किया,लेकिन चीन की नज़र भारतीय सीमा पर जमी रही। मगर,दो साल बाद स्थितियाँ बदल चुकी थीं। दिसंबर 1956 में प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने तीन तीन बार प्रधानमंत्री नेहरू जी से वादा किया कि वे मैकमोहन रेखा को मान लेंगे। पर तिब्बत में 1959 की बग़ावत के बाद दलाईलामा की अगुआई में तेरह हज़ार तिब्बतियों ने भारत में शरण ली।  यहाँ उनका शानदार स्वागत हुआ।

इसके बाद ही चीन के सुर बदल गए। भारत से मौखिक तौर पर मैकमोहन रेखा को सीमा मान लेने की बात चीन  करता रहा ,पर उसके बारे में कोई संधि या समझौता नहीं किया। उसने भारत सरकार को ज़हर बुझीं चिट्ठियाँ लिखीं। नेहरू जी को कहना पड़ा कि चीन को अपने बारे में बड़ी ताक़त होने का घमंड आ गया है। इसके बाद 1962 तक की कहानी लद्दाख़ में धीरे धीरे घुसकर ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने की है। उसके बाद 1962 में तो वह युद्ध पर ही उतर आया। उसके बाद की कहानी आपस में अविश्वास ,चीन की चुपके चुपके दबे पाँव भारतीय ज़मीन पर कब्ज़ा करने और भारत के साथ अंतहीन वार्ताओं में उलझाए रखने की है।

हालाँकि 1967 में फिर चीन के साथ हिंसक मुठभेड़ें हुईं। तब तक इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री बन गई थीं। इस मिनी युद्ध में चीन की करारी हार हुई। घायल शेर की तरह चीन इस हार को पचा नहीं सका और तबसे आज तक वह सीमा विवाद पर गुर्राता रहा है। डोकलाम हिंसा में गहरी चोट खाने के बाद भी वह बदलने के लिए तैयार नहीं है।भारत भी संप्रभु देश है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी छबि चीन से बेहतर ही है। वह चीन की इन चालों को क्यों पसंद करे ?

(यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - लोकमत समाचार।

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राहुल गांधी अपने शब्दों के चयन में सावधानी बरतें: रजत शर्मा

मोदी का रुख देखकर कांग्रेस को समझ में आ गया कि राहुल का बयान चुनाव में भारी पड़ सकता है, इसलिए तमाम नेता सफाई देने में जुट गए।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Wednesday, 20 March, 2024
Last Modified:
Wednesday, 20 March, 2024
rajatsharma

रजत शर्मा, चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ (इंडिया टीवी)

कांग्रेस ने राहुल गांधी की यात्रा का समापन मुंबई में करवाया, रविवार 17 मार्च को शिवाजी पार्क में बड़ी रैली की, मोदी-विरोधी मोर्चे के सभी नेताओं को एक मंच पर बुलाया लेकिन राहुल के चक्कर में गड़बड़ हो गई। राहुल ने कह दिया कि 'हिन्दू धर्म में एक शब्द होता है –शक्ति, हम उसी शक्ति के खिलाफ लड़ रहे हैं।' सोमवार को राहुल की य़ही गलती कांग्रेस को भारी पड़ गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि अब इंडी एलायन्स का लक्ष्य साफ हो गया है, इनका लक्ष्य सनातन की शक्ति को खत्म करना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तेलंगाना और कर्नाटक की रैलियों में कहा कि अब तो इंडी एलायंस ने साफ कर दिया कि वो शक्ति के विरोधी हैं, उनकी लड़ाई मोदी से नहीं, शक्ति से है, वो हिंदू धर्म और सनातन के खिलाफ हैं, और ये बात अब पूरा देश जान गया है।

मोदी ने कहा कि इंडी एलायंस ने शक्ति के खात्मे का ऐलान किया है, उन्हें यह चुनौती स्वीकार है, क्योंकि वो हर मां में, हर बेटी में, हर बहन में शक्ति का स्वरूप देखते हैं और उनकी रक्षा के लिए जान की बाज़ी लगा देंगे। कर्नाटक के शिवमोगा में मोदी ने एक बार फिर राहुल गांधी के बयान का जिक्र किया। मोदी ने कहा कि शिवाजी पार्क में जो कुछ कहा गया, उससे बाला साहेब ठाकरे की आत्मा को बहुत दुख पहुंचा होगा। मोदी ने कहा कि उनकी सरकार ने हमेशा नारी शक्ति को ध्यान में रखकर नीतियां बनाईं, इसीलिए लोग महिलाओं को बीजेपी का साइलेंट वोटर मानते हैं, लेकिन सच तो ये है कि महिलाएं उनके लिए वोटर नहीं, शक्ति स्वरूपा हैं, सुरक्षा कवच हैं।

मोदी का रुख देखकर कांग्रेस को समझ में आ गया कि राहुल का बयान चुनाव में भारी पड़ सकता है, इसलिए तमाम नेता सफाई देने में जुट गए। लेकिन जब इससे बात नहीं बनी तो राहुल को भी सफाई देनी पड़ी। राहुल कैमरे के सामने तो नहीं आए, लेकिन उन्होंने सोशल मीडिया पर एक लंबी चौड़ी पोस्ट लिखकर अपने बयान को सही ठहराने की कोशिश की। राहुल ने लिखा, 'मोदी जी को मेरी बातें अच्छी नहीं लगतीं, किसी न किसी तरह उन्हें घुमाकर वह उनका अर्थ हमेशा बदलने की कोशिश करते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि मैंने एक गहरी सच्चाई बोली है। जिस शक्ति का मैंने उल्लेख किया, जिस शक्ति से हम लड़ रहे हैं, उस शक्ति का मुखौटा मोदी जी हैं। वह एक ऐसी शक्ति है जिसने आज, भारत की आवाज़ को, भारत की संस्थाओं को, CBI, IT, ED को, चुनाव आयोग को, मीडिया को, भारत के उद्योग जगत को, और भारत के समूचे संवैधानिक ढाँचे को ही अपने चंगुल में दबोच लिया है।

उसी शक्ति के ग़ुलाम नरेंद्र मोदी जी देश के गरीब पर GST थोपते हैं, महंगाई पर लगाम न लगाते हुए, उस शक्ति को बढ़ाने के लिए देश की संपत्ति को नीलाम करते हैं। उस शक्ति को मैं पहचानता हूँ, उस शक्ति को नरेंद्र मोदी जी भी पहचानते हैं, वह किसी प्रकार की कोई धार्मिक शक्ति नहीं है, वह अधर्म, भ्रष्टाचार और असत्य की शक्ति है। इसलिए जब-जब मैं उसके ख़िलाफ़ आवाज उठाता हूँ, मोदी जी और उनकी झूठों की मशीन बौखलाती है, भड़क जाती है।'

राहुल गांधी अब सफाई दे रहे हैं, लेकिन रविवार को उन्होंने मुंबई की रैली में यही कहा था- हिन्दू धर्म में एक शब्द होता है, शक्ति, हम उसी शक्ति के खिलाफ लड़ रहे हैं। इस बयान के बाद ही कांग्रेस के नेताओं को समझ आ गया कि राहुल ने फिर 'सेल्फ गोल' कर दिया है, इसलिए सुबह से ही इस मामले पर स्पष्टीकरण देने की कोशिशें हुई। कांग्रेस के कई नेताओं के बयान आए जिन्होंने ये समझाने की कोशिश की कि राहुल गांधी ने आसुरी शक्तियों पर हमला बोला था और बीजेपी ने उसका गलत मतलब निकाला।

दिग्विजय सिंह ने कहा कि शक्तियां दो तरह की होती हैं - आसुरी शक्तियां और दैवी शक्तियां। राहुल गांधी दैवी शक्तियों के साथ हैं और आसुरी शक्तियों के खिलाफ लड़ रहे हैं, इसमें गलत क्या है? पिछले दिनों कांग्रेस छोड़ने वाले आचार्य प्रमोद कृष्णम ने कहा कि राहुल गांधी को खुद नहीं पता होता कि वो क्या बोल रहे हैं, क्यों बोल रहे हैं ? उन्हें एक स्क्रिप्ट पकड़ा दी जाती है, जिसे वो पढ़ते हैं और फिर कुछ भी बोल देते हैं लेकिन अब उन्हें स्पष्ट करना होगा कि उनकी लड़ाई बीजेपी से है या फिर हिंदू धर्म से।

राहुल गांधी हर थोड़े दिन में कुछ ऐसा कह देते हैं कि उनकी पार्टी के लोग भी परेशान हो जाते हैं। सारी ताकत सफाई देने और लीपापोती करने में लग जाती है। कांग्रेस के एक नेता कह रहे थे कि, क्या करें? राहुल जी फुल टॉस फेकेंगे, तो मोदी जी सिक्सर तो लगाएंगे ही। कभी चौकीदार चोर है, तो कभी मोदी का परिवार नहीं है, तो कभी हम हिंदू शक्ति से ल़ड़ रहे हैं, ये ऐसी बातें हैं, जो मोदी को अवसर देती है और मोदी एक जबरदस्त कैंपेनर हैं। वो कोई मौका नहीं छोड़ते और सबसे बड़ी बात ये है कि जिस दक्षिण भारत में कांग्रेस अपना दबदबा मानती है, जहां बीजेपी को ज्यादा सीटें नहीं मिलती है, वहां केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना और कर्नाटक की सड़कों पर मोदी को देखने और सुनने के लिए भारी भीड़ आ रही है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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विवादों के भंवर में लेखक और प्रकाशक का संबंध: अनंत विजय

विश्व पुस्तक मेला के दौरान राजकमल प्रकाशन के मंच से संजीव ने ये घोषणा की थी कि उनकी सभी किताबें अब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होंगी। अवसर था उनके कहानी संग्रह प्रार्थना के लोकार्पण का।

Last Modified:
Monday, 18 March, 2024
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

नई दिल्ली के रवीन्द्र भवन परिसर को साहित्य अकादमी ने अपने वार्षिक आयोजन साहित्योत्सव के कारण खूब सजाया था। शनिवार को संपन्न हुए साहित्योत्सव को विश्व का सबसे बड़ा साहित्य उत्सव बताया गया, जिसमें भारतीय और अन्य भाषाओं के 1100 से अधिक लेखकों के भाग लेने की बात कही गई। रवीन्द्र भवन परिसर में बनाए गए अलग अलग सभागारों में दिनभर विमर्श का दौर चला था।

इसमें कन्नड के वरिष्ठ लेखक भैरप्पा से लेकर बिल्कु नवोदित लेखकों तक की भागीदारी रही। साहित्योत्सव के दौरान रवीन्द्र भवन परिसर में घूमते हुए सुरुचिपूर्ण तरीके से लगाए गए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित लेखकों के संक्षिप्त परिचय श्रोताओं का ध्यान आकृष्ट कर रहे थे। पुरस्कार विजेताओं की तस्वीर के साथ पुरस्कृत कृति की तस्वीर भी लगाई गई थी। इन पुरस्कार विजेताओं की तस्वीरों को देखने के क्रम में मेरी नजर वर्ष 2023 में हिंदी के लिए सम्मानित लेखक संजीव के परिचय पर चली गई। उनकी तस्वीर के साथ सेतु प्रकाशन के प्रकाशित उनकी कृति ‘मुझे पहचानो’ का कवर भी लगाया गया था।

बताया गया था कि संजीव, जिनका मूल नाम राम सजीवन प्रसाद है, हिंदी के प्रख्यात लेखक और अनुवादक हैं। आपका जन्म 6 जुलाई 1947 को बांगर कलां, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। आपकी 17 कृतियां प्रकाशित हैं। ‘मुझे पहचानो’ हिंदी उपन्यास है, जो सती जैसे सामाजिक कुप्रथा के सामंती अवशेषों के विनाशकारी प्रभावों को उजागर करता है। यह उपन्यास आमजन की दुनिया के पाखंड, धर्म और धन के फंदों, बिगड़ते मानवीय मूल्यों की काली परछाइयों को भी प्रदर्शित करता है और मानवीय मूल्यों के पुनरुत्थान का आह्वान करता है। इस परिचय में तो जो बातें लिखी गई हैं उसपर मतैक्य संभव है और नहीं भी। संजीव उपाख्य राम सजीवन प्रसाद के इस पोस्टर को देखते हुए अचानक से कुछ दिनों पहले दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेला के एक कार्यक्रम की बात दिमाग में कौंधी।

विश्व पुस्तक मेला के दौरान राजकमल प्रकाशन के मंच से संजीव ने ये घोषणा की थी कि उनकी सभी किताबें अब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होंगी। अवसर था उनके कहानी संग्रह प्रार्थना के लोकार्पण का। संजीव ने कहा था कि राजकमल प्रकाशन समूह पहले से हमारा प्रकाशक है और मेरे कई उपन्यास पूर्व में यहां से प्रकाशित है। प्रतिनिधि कहानियां प्रकाशित की है। इनसे पुराना संबंध और वर्षों का विश्वास है। इसी विश्वास के कारण उन्होंने राजकमल प्रकाशन को अपनी सभी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए अधिकृत किया है। अब इस अधिकृत करने से जो एक स्थिति बनेगी उसकी कल्पना करिए।

सेतु प्रकाशन ने संजीव का उपन्यास प्रकाशित किया। वहां से प्रकाशित उपन्यास पर उनको साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। सेतु प्रकाशन ने इस उपन्यास को पाठकों और आलोचकों तक पहुंचाने का उपक्रम किया होगा। उपन्यास प्रकाशन पर धन खर्च हुआ होगा जिसको सेतु प्रकाशन ने वहन किया। जब उस उपन्यास को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल गया तो उसको दूसरे प्रकाशन गृह को देने की घोषणा कर दी गई। सेतु प्रकाशन के अमिताभ का कहना है अभी तक संजीव ने इस संबंध में उनसे कोई बात नहीं की है। अपने प्रकाशक से बगैर बात किए और बिना आपसी सहमति के दूसरे प्रकाशन को पुस्तक देने की घोषणा अनैतिक प्रतीत होती है।

अगर राजकमल प्रकाशन समूह से उनका पुराना संबंध और वर्षों का विश्वास था तो उपन्यास वहीं से प्रकाशित करवाना चाहिए था। इससे सेतु प्रकाशन के लिए ये असहज स्थिति नहीं बनती। इसी तरह से संजीव की कई पुस्तकें वाणी प्रकाशन से भी प्रकाशित हैं। उनका क्या होगा, इस बारे में भी कयास लगाए जा रहे हैं। क्या ऐसी स्थिति बनेगी कि लेखक और प्रकाशकों के मसले अदालत से हल होगें? दरअसल संजीव हिंदी के ओवररेटेड लेखक हैं। उन्होंने सूत्रधार नाम से एक उपन्यास लिखा था। उनकी विचारधारा के लेखकों ने उसको चर्चित करने का प्रयास किया लेकिन तात्कालिक चर्चा के बाद वो उपन्यासों की भीड़ में गुम हो गया। गाहे बगाहे वो विवादित बयान देते रहते हैं लेकिन उसका नोटिस भी हिंदी जगत नहीं लेता।

इसके पहले हिंदी प्रकाशन जगत से एक और समाचार आया। स्वर्गीय निर्मल वर्मा की सभी पुस्तकें एक बार फिर से राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होंगी। निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल ने प्रकाशन के अधिकार राजकमल प्रकाशन को सौंप दिए। राजकमल प्रकाशन से उनकी कुछ पुस्तकें नई साज सज्जा के साथ प्रकाशित भी हो गईं। निर्मल जी की पुस्तकों की यात्रा दिलचस्प है। कुछ वर्षों पहले गगन गिल और राजकमल प्रकाशन में रायल्टी को लेकर विवाद हुआ था। तब इस तरह की खबरें आई थीं कि एक वर्ष में निर्मल वर्मा की सभी पुस्तकों की रायल्टी एक लाख रुपए भी नहीं होती है।

उस समय हिंदी जगत में रायल्टी को लेकर खूब चर्चा हुई थी। तब निर्मल जी की सभी पुस्तकों के प्रकाशन का अधिकार राजकमल प्रकाशन से लेकर भारतीय ज्ञानपीठ को दे दिया गया था। वहां से कुछ वर्षों बाद निर्मल वर्मा की समस्त पुस्तकें वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुईं। संभव है कि एग्रीमेंट ही इस तरह का हो कि एक अंतराल के बाद पुस्तक प्रकाशन का अधिकार लेखक या उनके उत्तराधिकारी के पास वापस आ जाते हों।

लेकिन जब विवाद और आरोप- प्रत्यारोप के बाद पुस्तकों के प्रकाशन का अधिकार एक जगह से दूसरे जगह जाता है तब प्रश्न उठते हैं। कुछ दिनों पूर्व विनोद कुमार शुक्ल ने भी रायल्टी का मुद्दा उठाकर अपनी कुछ पुस्तकों के प्रकाशन अधिकार दूसरे प्रकाशन को देने की घोषणा की थी। होना ये चाहिए कि लेखक और प्रकाशक दोनों को प्रकाशन एग्रीमेंट सार्वजनिक करना चाहिए ताकि भ्रम और विवाद की अप्रिय स्थिति न बने।

संजीव उपाख्य राम सजीवन प्रसाद ने जब अपनी सभी पुस्तकों के राजकमल प्रकाशन से छपने की बात की थी तब कहा था कि इससे पाठकों को सुविधा होगी और उनको सभी पुस्तकें एक जगह उपलब्ध होंगी। पाठकों को कितनी सुविधा होगी या भ्रमित होंगे ये तो समय तय करेगा लेकिन लेखकों के आर्थिक लाभ का संकेत तो मिल ही रहा है। हर किसी को अपना लाभ देखना चाहिए लेकिन उसको दूसरा रंग देना उचित नहीं कहा जा सकता है। पूरे हिंदी जगत को इसपर विचार करना चाहिए कि ऐसी स्थिति बन क्यों रही है। विचार किया जाए तो हिंदी प्रकाशन का जो स्वरूप वर्षों से बना है उसमें प्रकाशक और लेखक के बीच व्यावसायिक संबंध नहीं बन पाते हैं और वो बहुधा व्यक्तिगत होते हैं।

वरिष्ठ लेखक अपनी पसंद के प्रकाशकों को अपनी पुस्तकें प्रकाशित होने के लिए दे देते हैं और प्रकाशक लेखक की साहित्यिक हैसियत या अपनी श्रद्धा के अनुसार उनको अग्रिम धनराशि देते हैं जो रायल्टी में एडजस्ट होते रहती है। लेखकों को अपने पुस्तकों के प्रकाशन की इतनी जल्दी होती है कि वो चाहते हैं कि प्रकाशक उनकी पुस्तक उनकी मर्जी की तिथि के अनुसार प्रकाशित कर दे। लेखकों का एक दूसरा वर्ग है जो प्रकाशकों के यहां चक्कर लगाता रहता है कि उसकी कृति किसी भी तरह से प्रकाशित हो जाए।

कई प्रकाशक इस स्थिति का फायदा उठाते हैं और बिना किसी एग्रीमेंट के पुस्तक का प्रकाशन कर देते हैं। जब पुस्तकों की समीक्षा आदि छपने लगती है या कोई पुरस्कार मिल जाता है तो लेखक को लगता है कि प्रकाशक उनकी कृति से बहुत पैसे कमा रहा है। विवाद यहीं से उत्पन्न होने लगता है। ऐसी स्थिति में प्रकाशक कुछ धन लेखक को देकर विवाद को फौरी तौर पर शांत करने का प्रयास करते हैं। हो भी जाता है लेकिन ये स्थायी हल नहीं है। इस बारे में प्रकाशकों और लेखकों को एक साथ बैठकर बात करनी होगी या फिर हिंदी में अंग्रेजी की तरह लिटरेरी एजेंट हों जो लेखकों और प्रकाशकों दोनों का हित देख सकें। लेखकों और प्रकाशकों को भी दोनों के हितों का ध्यान रखना चाहिए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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