कुछ व्यक्तित्व इस तरह की दुनिया में आते हैं जिनकी तरह का फिर कभी कोई हमें नहीं दिखाई देता है...
संतोष भारतीय,
प्रधान संपादक, चौथी दुनिया ।।
कुछ व्यक्तित्व इस तरह की दुनिया में आते हैं जिनकी तरह का फिर कभी कोई हमें नहीं दिखाई देता है। सुरेन्द्र प्रताप सिंह दुनिया में आए और पैतालिस साल पूरे किए बिना यहां से चले गए। इस पैतालिस साल की जिंदगी में उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को वो दिया जिसने हिंदी पत्रकारिता की दिशा और दशा बदल दी।
सुरेन्द्र प्रताप यदि नहीं होते तो पत्रकारिता में नौजवानों को वो स्थान नहीं मिलता जिसकी वजह से आज की पत्रकारिता नौजवानों के नाम दिखाई देती है। अगर सुरेन्द्र प्रताप नहीं होते तो हिंदी पत्रकारिता को ग्लैमर नहीं मिलता, वो शक्ति नहीं मिलती जो आज दिखाई देती है। सुरेन्द्र प्रताप नहीं होते तो हम हिंदी पत्रकारिता में खोजी पत्रकारिता के नाम से शायद अपरिचित ही रह जाते। ये सब होता जरूर पर उस तरह से नहीं होता जैसा हुआ। एसपी ने सिद्धान्त दिए, पत्रकारिता की ऐसा बीज गणित और रेखा गणित बनाया, जोकि हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा है और बीतते समय के साथ उसकी आभा और बिखरेगी।
एसपी ने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों विधाओं में ऐसे व्यक्तित्व पैदा किए जो आज के हिंदी पत्रकारिता जगत के सिरमौर बनें हैं। ये अलग बात है कि इनमें से कई एसपी द्वारा नियमों, सिद्धान्तों के विपरीत चलते हैं शायद बाजार के प्रभाव के कारण। लेकिन उन्हें एसपी का आजीवन ऋणि होना पड़ेगा। उन्होंने ये स्थान एसपी की वजह से ही पाया है।
मैं जब एसपी को याद करता हूं तो मुझे एसपी में भगवान शंकर के सारे गुण दिखाई देते हैं। एसपी ऑन्गड़ थे, एसपी बिंदास, एसपी बेबाक थे, एसपी साहस के पुतले थे और एसपी हिंदी पत्रकारिता की शान थे। एसपी के बाद किसी एक व्यक्ति में इतने सारे गुण अब तक तो नहीं दिखाई दिए।
एसपी बड़ी बेतकलुफी से अपने आस-पास ऐसे लोगों को जगह दे देते थे जो बाद में उन्हें ही डंक मारते थे। दरअसल एसपी उस साधू कर तरह ही थे, जिसकी कहानी हमनें पढ़ी है कि साधू नदी में नहा रहा था और उसे वहां एक बिच्छू डूबता हुआ दिखा उसने उस बिच्छू को बचाया और उसने उसे ही डंक मार दिया।
एसपी जीवन में ऐसे कई लोगों को अवसर देते रहे हैं जिन्होंने उन्हें ही बाद में डंक मारा। ऐसा बड़प्पन सिर्फ मुझे एसपी में ही दिखाई देता है।
एसपी सूत्र बनाने में माहिर थे। एक पत्रकार के जीवन की सबसे बड़ी ताकत उसके सूत्र होते हैं। एसपी इस कला में निपुण थे। खबरें उनके पास तैर कर आती थीं, उन खबरों की सच्चाई परखने का एसपी का तरीका आज तक किसी संपादक में नहीं दिखा।
एसपी अपने पत्रकार साथियों के साथ जीने मरने की हद तक खड़े रहते थे। इसलिए जिस संपादक में ये गुण लंच मात्र भी आ जाता है तो वो बड़ा संपादक मान लिया जाता है। पर एसपी बड़प्पन की जीती जागती मिशाल हैं।
आज जब पत्रकारिता की दुनिया को चारों तरफ देखता हूं तो वह शून्य कपकपी पैदा कर देता है। आज के संपादकों और पत्रकारों को एसपी की पत्रकारिता की शैली जिसमें रविवार में उनकी पत्रकारिता और जिसमें ‘आजतक’ के शुरुआती दिनों की पत्रकारिता शामिल हैं, उन्हें अनिवार्य पाठ्य पुस्तक की पढ़ना, समझना और जानना चाहिए। हम जब एसपी के दिनों को आज तक याद करते हैं और आज की टीवी पत्रकारिता को देखते हैं तो आज की पत्रकारिता में खोखलापन से मौजूद नजर आता है।
एसपी विजुअल्स की कमी को अपने शब्दों की ताकत से भर देते थे। एसपी जब टीवी पर बोलते थे तो दर्शक के सामने एक तरफ आजतक की स्क्रीन दिखाई देती थी और दूसरी तरफ उसके दिमाग में एसपी के शब्द चलते थे। एसपी ने टीवी में जो ताकत पैदा की दुर्भाग्य है कि वह ताकत आज नहीं दिखाई देती। इसीलिए एसपी एसपी थे और बाकी सब उनसे पीछे कतार में बहुत दूर हैं।
एसपी एक चुनौती छोड़ गए हैं कोई तो प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ऐसा आए जो उनके द्वारा खींची गईं सीमा-रेखा को पार कर सके। जिस दिन ऐसा होगा उस दिन एसपी की आत्मा उस सीमा रेखा पार करने वाले को हृदय से आभार कहेंगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
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