'हिन्दीपन' के साथ अंग्रेजी सीखे तो राम को राम कहेंगे-कृष्ण को कृष्ण, वरना तो...

भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है। बल्कि, इससे इतर भी बहुत कुछ है। भाषा की अपनी पहचान है...

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Thursday, 14 September, 2017
Last Modified:
Thursday, 14 September, 2017
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लोकेन्द्र सिंह ।।


भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है। बल्किइससे इतर भी बहुत कुछ है। भाषा की अपनी पहचान है और उस पहचान से उसे बोलने वाले की पहचान भी जुड़ी होती है। यही नहींसबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रत्येक भाषा का अपना संस्कार होता है। प्रत्येक व्यक्ति या समाज पर उसकी मातृभाषा का संस्कार देखने को मिलता है। जैसे हिन्दी भाषी किसी श्रेष्ठअपने से बड़ी आयु या फिर सम्मानित व्यक्ति से मिलता है तो उसके प्रति आदर व्यक्त करने के लिए 'नमस्तेया 'नमस्कारबोलता है या फिर चरणस्पर्श करता है। 'नमस्तेया 'नमस्कारबोलने में हाथ स्वयं ही जुड़ जाते हैं। यह हिन्दी भाषा में अभिवादन का संस्कार है। अंग्रेजी या अन्य भाषा में अभिवादन करते समय उसके संस्कार और परंपरा परिलक्षित होगी। इस छोटे से उदाहरण से हम समझ सकते हैं कि कोई भी भाषा अपने साथ अपनी परंपरा और संस्कार लेकर चलती है।

 

किसी भी देश की पहचान उसकी संस्कृति से होती है। संस्कृति क्या हैहमारे पूर्वजों ने विचार और कर्म के क्षेत्र में जो भी श्रेष्ठ किया हैउसी धरोहर का नाम संस्कृति है। यानी हमारे पूर्वजों ने हमें जो संस्कार दिए और जो परंपराएं उन्होंने आगे बढ़ाई हैंवे संस्कृति हैं। किसी भी देश की संस्कृति उसकी भाषा के जरिए ही जीवित रहती हैआगे बढ़ती है। जिस किसी देश की भाषा खत्म हो जाती है तब उस देश की संस्कृति का कोई नामलेवा तक नहीं बचता है। यानी संस्कृति भाषा पर टिकी हुई है।

 

भारत में अंग्रेजी ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया हैऐसा कहा जाता है। दरअसल, यह नुकसान अंग्रेजी भाषा से कहीं अधिक उसके संस्कार और परंपरा ने पहुंचाया है। अंग्रेजी के स्वभाव के लिए एक शब्द है 'अंग्रेजियत'। भारत का सबसे अधिक नुकसान अंग्रेजी ने नहीं बल्कि उसके स्वभाव अंग्रेजियत ने किया है। इसलिए जब हम हिन्दी को सम्मानित स्थान दिलाने की बात करते हैं तो हमारा किसी भाषा से विरोध नहीं है। बल्किहम हिन्दी से आए अपने संस्कारों के प्रति आग्रही हैं।

 

भाषा तो जितनी सीखी जा सकती हैंसीखनी ही चाहिए। लेकिन एक बात ध्यान रखने की है कि जब हम किसी भाषा को सीखते हैं तो उसके 'एटीट्यूड(प्रवृत्ति) को भी सीखते हैं। विदेशी भाषा सीखने के दौरान हमें उसके एटीट्यूड को इस तरह लेना चाहिए कि वह हमारी भाषा के एटीट्यूड पर हावी न हो पाए। अगर यह कर सके तो कोई दिक्कत नहीं। यह सब करने के लिए हमें अपनी मातृभाषा के एटीट्यूड को ज्यादा अच्छे से समझ लेना चाहिए बल्कि उससे अधिक प्रेम कर लेना चाहिए। हिन्दी का आंदोलन चलाने वाले प्रख्यात पत्रकार वेदप्रताप वैदिक अपनी पुस्तक 'अंग्रेजी हटाओक्यों और कैसेमें लिखते हैं- 'जब आप विदेशी भाषा से इश्क फरमाते हैं तो वह उसकी पूरी कीमत वसूलती है। वह अपने आदर्शअपने मूल्य आप पर थोपने लगती है। यह काम धीरे-धीरे होता है। सौंदर्य के उपमान बदलने लगते हैं। दुनिया को देखने की दृष्टि बदल जाती है। आदर्श और मूल्य बदल जाते हैं... आप रहते तो भारतीय परिवेश में लेकिन बौद्धिक रूप से समर्पित होते हैं अंग्रेजी परिवेश के प्रति। ऐसा व्यक्त्वि सृजनशील नहीं बन पाता है।'

 

हिन्दी को सम्मान दिलाने के लिएउसकी श्रेष्ठता साबित करने के लिए हमें उसके स्वभाव को समझ लेना चाहिए। हिन्दी का स्वभावउसकी पहचान और उसके संस्कार को'हिन्दीपनकह सकते हैं। यह बहुत सहज हैसरल है। बनावटी बिल्कुल नहीं है। भारतीय परंपरा और संस्कृति इस शब्द में परिलक्षित होती है। 'हिन्दीपनहमेशा ध्यान रखा तो दूसरी विदेशी भाषाएं सीखते समय उनका स्वभाव हम पर हावी नहीं हो सकेगा। हम'हिन्दीपनके साथ अच्छी अंग्रेजी बोल-पढ़ और लिख सकेंगे। ऐसे में हम 'अंग्रेजीदांहोने से भी बच जाएंगे। हिन्दी का साथ नहीं छूटेगा। हम अंग्रेजी बोलने के बाद भी 'हिन्दीही कहलाएंगे। हिन्दीपन को जीवित रखा तो अपनी माटी से हम जुड़े रहेंगे। 'हिन्दीपनके साथ अंग्रेजी सीखे तो राम को राम कहेंगेकृष्ण को कृष्ण। वरना तो बरसों से अंग्रेजीदां लोगों के लिए राम 'रामाहो गए और कृष्ण 'कृष्णा'

 

भारत भी उनके लिए कब का 'इंडियाहो चुका है। भारत को भारत या हिन्दुस्थान कहने का विरोध वे ही लोग करते हैंजिनमें'हिन्दीपनबचा नहीं रहा है। अगर हिन्दीपन के महत्व को हमने समझ लिया तो एक और महत्वपूर्ण कार्य यह हो जाएगा कि सभी भारतीय भाषाएं एक साथ खड़ी हो जाएंगी। क्योंकि,सबका स्वभाव तो 'हिन्दीही है। यानी इस देश की माटी की सुगन्ध सभी भाषाओं में है। सब भाषाएं हिन्दुस्थान की माटी में उसकी हवा-पानी से सिंचित हैं। सबका विकास भारतीय परिवेश में ही हुआ है- इसलिए सबका संस्कार एक जैसा होना स्वभाविक है। हिन्दीपन के साथ हम भारतीय भाषाओं के बीच खड़ी की गई दीवार को भी गिरा सकते हैं। अच्छी अंग्रेजी के जानकार और विलायत में पढ़े-लिखे महात्मा गांधी ने आजीवन 'हिन्दीपनको संभाले रखा। इसीलिए गुजराती भाषी होने के बावजूद वे हिन्दी से अथाह प्रेम करते रहे। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए अथक प्रयास भी उन्होंने किए। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी गुजराती भाषी हैं लेकिन हिन्दी के सम्मान को बढ़ाने का काम वे भी बखूबी कर रहे हैं।

 

भाषा नागरिकता की पहचान भी होती है। मशहूर कवि इकबाल ने भी कहा था कि'हिन्दी हैं हमवतन है हिन्दोस्तां हमारा'। यहां इकबाल ने भारत के नागरिकों को हिन्दी कहकर संबोधित किया है। भारत में रहने वाले प्रत्येक समाज-पंथ-धर्म के लोगों की भारत के बाहर पहचान 'भारतीयही है। यानी 'हिन्दी'। भले ही स्वार्थ की राजनीति करने वालेविभेद पैदा करके प्रसन्न रहने वाले लोग भारत की नागरिकता 'भारतीयताके नाम पर विभिन्न पंथ के अनुयायियों के बीच वैमनस्यता फैलाने का प्रयास करते होंलेकिन यह सच है कि भारत के बाहर हिन्दू-मुसलमान-ईसाई सबकी पहचान भारतीयता ही है। अरब देशों में जाने वाले मुसलमानोंखासकर हज के लिए जाने वाले मुसलमानों को वहां की शासन व्यवस्था और स्थानीय नागरिक सभी 'हिन्दी मुसलमानके नाते पहचान करते हैं। यानी 'हिन्दी'केवल हिन्दी बोलने वालेहिन्दू धर्म को मानने वाले लोग ही नहीं हैं बल्कि भारत में रहने वाले समस्त लोग 'हिन्दीमें शामिल हैं। इस नाते हिन्दी महज अभिव्यक्ति का साधन नहीं है बल्कि यह लोगों को जोडऩे का एक सेतु भी है। हिन्दी हमें पंथ-धर्म से ऊपर उठाकर एकसाथ लाती है। और हिन्दीपन इस भाषा की आत्मा हैजो हमें अधिक सरलउदार और श्रेष्ठ बनाए रखता है।


(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालयभोपाल में सहायक प्राध्यापक हैं)



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