जयंती रंगनाथन
वरिष्ठ पत्रकार
काउंटर पर नया चेहरा। ऐसा नहीं है कि यहां बाहर के बाशिंदे नहीं आते। टूरिस्ट जगह है। हर कोई आता है दवाई खरीदने। पर उस चेहरे की बात अलग थी। तीस के आसपास उम्र। लंबा कद, घुंघराले कुछ लंबे बाल, शायद अपने शहर में पोनी बांध कर रखता होगा बालों में। चेहरे में कोई बात थी। कुछ सकुचाया सा खड़ा रहा कुछ देर। दो-तीन ग्राहक थे, उनके जाने के बाद धीरे से मेरी तरफ बढ़ आया,‘मैडम, मुझे वो दे दीजिए... पैड्स।’
मैं एक क्षण रुकी, बिना भाव जताए पूछ लिया,‘सैनिटरी नैपकिन्स?’
उसने सिर हिलाया, मैं उसी तरह भाव हीन बनी रही, ‘कोई खास ब्रैंड?’
वो हिचकिचाया, ‘इतना सब तो मुझे नहीं मालूम। कोई भी ठीक सा दे दीजिए... आपको तो पता ही होगा...’ बोलते-बोलते वो ठिठक गया।
मैंने अपना वाला ब्रैंड उसे एक काले पॉलिथिन में लपेट कर दे दिया। उसकी आंखों में अब भी सवाल था। कितना आकर्षक चेहरा था उसका। वह जाने को मुड़ा, पर कुछ सोच कर पलट आया, ‘मैडम, वो आपके पास कुछ मेडिसिन भी हैं क्या? इसके लिए, मतलब, आराम पहुंचाने वाली कोई दवा?’ वह जल्दी-जल्दी बोल रहा था। शायद जिंदगी में पहली बार वह किसी के लिए यह काम कर रहा था। मेरा पूछने का मन हुआ कि दिक्कत क्या है, पेट दर्द? बुखार या बदहजमी?
बिना पूछे मैंने उसे गाइने द्वारा अकसर सुझाई जाने वाली दवा पकड़ा दी।
वह दुकान से बाहर निकलने ही वाला था कि बारिश होने लगी। एकदम जोर से। यहां की खासियत थी, पल में धूप, पल में बारिश। वह रुक गया। यहां रहने वालों को पता है, किसी भी मौसम में बिना छाता लिए नहीं जाते। टूरिस्ट को दिक्कत होती है। वह दरवाजे के पास टेक लगा कर खड़ा हो गया।
मैं अमूमन अपरिचितों से बात नहीं करती। पर वह अपरिचित कहां था? उसे तो शायद रोक कर मैं बात करना चाहती थी।
मुंह से निकल गया, ‘आप अंदर आ कर कुर्सी पर बैठ जाइए। बारिश रुक जाएगी दसेक मिनट में।’
उसे शायद मेरे कहने का इंतजार था। बबलू अपने समय से चाय ले कर आ गया। भीगा-भागा सा बारह साल का बबलू। गर्मी-बारिश उसे परेशान नहीं करती। हर दिन ठीक बारह बजे और शाम चार बजे चाय ले कर आता है, बड़ी वाली केतली में। बबलू ने मुझे गर्म चाय की गिलास पकड़ाया, मैंने अपना गिलास उसकी तरफ बढ़ा दिया।
फिर वही संकोच। मैंने धीरे से कहा, ‘ले लीजिए। बबलू की चाय अच्छी होती है।’ बबलू ने इधर-उधर देखा, फिर मेरे हाथ में दूसरा कप पकड़ा कर जल्दी से दुकान से बाहर निकल गया।
‘अच्छी है...’लगा, जैसे बहुत पास आ कर कहा हो किसी ने।
वह वहीं बैठा था, मुझे तीन फीट दूर। अबकि नजर उसकी नीली शर्ट पर पड़ी। चैक वाली नीली शर्ट। नोट किया कि चेहरे पर अजीब किस्म की मासूमियत भी है।
बात करने की इतनी बेसब्री पहले कभी नहीं हुई थी।
‘घूमने आए हैं?’ कितना बेतुका सवाल!
वह रुक गया, ‘हां, हनीमून पर...’ उसे भी लगा कि शायद उसे यह बताने की जरूरत नहीं थी,‘दरअसल मुझे छुट्टियां ज्यादा नहीं मिली। इसलिए यहीं आ पाए। चार दिन के लिए... सुना है कि अच्छी जगह है।’
‘आप कहीं गए नहीं?’
‘कल ही पहुंचे थे, शाम को। वाइफ की तबीयत खराब हो गई, ...’
सन्नाटा। मिनट भर में पंजे फैलाने लगा। मैं असहज हो गई। हनीमून पर आया है। नई-नई शादी। मेरे मन के उछाह भरने कोई कारण नहीं। अबकि सवाल वहां से आया,‘आप कुछ सजेस्ट कीजिए। कहां जाएं आसपास? खाने के लिए कोई अच्छी जगह बताइए ना? मेरी वाइफ शायद बहुत दूर नहीं जाना चाहेगी।’
मैंने दो-चार होटलों के नाम गिनाए। वह ना मुगलई खाना चाहता था, ना चाइनीज--देसी खानपान। सोच कर बोली, ‘इस सडक़ से नीचे जाइए। पुराने पोस्ट ऑफिस के पास। शंकर का ढाबा है। वहां आपको अच्छा खाना मिलेगा। हां, बैठने-बैठने का इंतजाम बस ऐसे ही है। पर जो आपको चाहिए, शायद वो मिल जाए।’
उसने सिर हिलाया। गिलास खाली कर जमीन पर रखा और खड़ा हो गया। बारिश रुकने सी लगी थी। वह लगातार बाहर देख रहा था।
फिर वह चला गया। बस जाते-जाते मुझे देख सिर हिला गया।
उसके जाते ही फिर से घनघोर बारिश होने लगी।
दुकान का दरवाजा खुला था। सडक़ के पार टूरिस्ट बारिश से बचने के लिए घरों के अहाते पर आ खड़े हुए। शाम को इस समय सडक़ पर भीड़ सी रहती है। कुछ सालों से खोमचे वाले पूरी सडक़ घेरने लगे हैं। लोग खड़े हो कर टिक्की, भेलपुरी, मोमोज और चाउमीन खाते हैं।
चेहरा फेर मैंने रजिस्टर में हिसाब लिख दिया। आंखों के आगे बार-बार वो चेहरा आ रहा है। अचानक रजिस्टर बंद कर मैंने दुकान का शटर गिरा दिया। जल्दी-जल्दी छाता और बैग उठा कर घर के लिए निकल पड़ी। इससे पहले कि गिरिजा रात का खाना बना दे, पापा को मनाना होगा कि रात को खाने के लिए शंकर के ढाबे में चलते हैं। पापा के बीसियों सवाल होंगे, पर जब मैं कहूंगी कि मुझे तंदूर की खुशबू की याद आ रही है, तो वे फौरन हां कह देंगे। जब से उन्होंने दुकान आना छोड़ा है, मेरा कहना मानने लगे हैं। या यूं कहूं कि जब से मेरा तलाक हुआ है, घर वापस लौटी हूं, पापा ने मुझे जीने के लिए नई जमीन दी है।
पर इतनी जमीन शायद काफी नहीं है। बत्तीस साल की औरत एक शरीर भी रखती है और जाने-अनजाने अहसास भी होता है कि उसकी जरूरतें रोटी-कपड़ा-मकान भर नहीं है।
शंकर का ढाबा घर से बहुत दूर नहीं। वैसे तो इस शहर में बहुत दूर कुछ भी नहीं। पर पापा थक से रहे हैं। मुझे ना जाने क्यों जल्दी हो रही है। कहीं वो आकर ना चला जाए। इस वक्त बहुत भीड़ रहती है ढाबे में। पापा और मुझे देख कर शंकर खुद उठ कर आ गए हैं, हमारे लिए जगह बना दी है। मेरी निगाहें तेजी से उसे ढूंढने में लगी है। छोटा सा ढाबा अचानक बहुत बड़ा और बिखरा सा लगने लगा है। नहीं है, ना... दूर-दूर तक नहीं। कहीं आ कर चला तो नहीं गया?
अजीब सी बेचैनी है, सांसें तेज हो रही हैं। पापा पूछ रहे हैं--क्या खाओगी बेटा? मैं पता नहीं क्या बुदबुदा रही हूं। वो नहीं आया। नहीं आना था, तो पूछा क्यों था?
खाना आ गया है। तंदूरी रोटी, सफेद उड़द की दाल, अरबी की सूखी सब्जी, रायता और पापड़। नहीं खाया जा रहा। बस, गुस्सा सा आ रहा है। ना जाने किस पर।
खाना खा कर निकले हैं। हमेशा की तरह मैंने पापा से कह कर पान नहीं बंधवाया। चुपचाप चल रही हूं। पापा का हाथ भी नहीं पकड़ा। अंधेरे रास्तों में अकसर वे लड़खड़ा जाते हैं। दिमाग सुन्न। मैंने गलत राह पकड़ ली है। पापा पीछे से पुकार रहे हैं, ‘बबली, ये कहां को चली?’
ये रास्ता घर की तरफ नहीं जाता। घर कौन कमबख्त जाना चाहता है। रात को टूरिस्ट माल रोड पर आइसक्रीम खाने आते हैं। पापा पीछे रह गए हैं, मैं हाथ पकड़ की एक तरह से खींचने लगती हूं, ‘पापा, आइसक्रीम खाएंगे, चलिए।’
पापा हांफने लगे हैं। माल रोड पर पहुंचते ही मेरा उत्साह ठंडा हो गया। ये क्या पागलपन है? वह आदमी यहां हनीमून मनाने आया है। नई-नई शादी है, पत्नी है, मैं क्या कर रही हूं यहां?
पापा को एक सीमेंट की बेंच पर बिठा कर आइसक्रीम ले आई। पापा के लिए वैनिला। पापा अनमने से बोले, ‘मुझे खांसी हो रखी है, आइसक्रीम खाऊं?’जवाब ना दे कर उनके पास बैठ गई। हम दोनों चुपचाप कोन आइसक्रीम खाने लगे। ज्यादातर टूरिस्ट थे। रंग-बिरंगे कपड़ों में। युवा जोड़े। मस्ती से हाथ में हाथ डाले घूम रहे थे। लड़कियों के चेहरों पर रौनक, लडक़ों की आंखों में शरारत। बच्चे शोर करते हुए इधर-उधर जा रहे थे।
आइसक्रीम खाते ही पापा ने कहा, ‘चलें?’मैं उठ खड़ी हुई। अबकि मेरी चाल धीमी थी। पापा का हाथ पकड़ रखा था। पापा ने धीरे से पूछा, ‘पान खाएगी?’
मैंने सिर हिला दिया। परेशान है? कोई बात हो गई? दुकान में?’ पापा ने पूछा।
मैंने कहा,नहीं पापा।’
पापा के हाथ की पकड़ मजबूत हो गई। माल रोड से नीचे उतरने-उतरने तक मुड़-मुड़ कर देखती रही। शायद वो नजर आ जाए।
आगे अंधेरा था। पापा ने मोबाइल की लाइट ऑन कर दी। घर के सामने चाइनीज रेस्तरां था। वहां से तेज अंग्रेजी गाने की आवाज गूंज रही थी। जस्टिन बीबर की चीखती सी आवाज। और दिनों में सही लगता है यह शोर-शराबा। आज नहीं।
पापा अचानक लड़खड़ाए, उन्हें संभालते-संभालते रेस्तरां से बाहर आते हुए उस पर नजर पड़ी, हाथों में हाथ लिए... लंबा सा घेरदार स्कर्ट पहने अपनी पत्नी के साथ। नजरें मिली, पर वहां परिचय का कोई भाव नहीं था।
मैं ही देखे जा रही थी। वो दोनों किसी बात पर हंस रहे थे, बिलकुल बगल से निकल गए।
पापा ने आवाज दी, ‘बबली, मेरा हाथ पकड़ ले।’
मैं कुछ ज्यादा ही कस कर उनका हाथ पकड़ लिया!
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