देश की राजनीति पर इनकी पैनी नजर, आंकड़ो की बाजीगरी में सटीक पकड़

मीडिया प्‍लेटफॉर्म 'जन की बात' के संस्‍थापक और चीफ एग्‍जिक्‍यूटिव ऑफिसर प्रदीप भंडारी...

Last Modified:
Tuesday, 05 June, 2018
Samachar4media

समाचार4मी‍डिया ब्यूरो ।।

मीडिया प्‍लेटफॉर्म 'जन की बात' के संस्‍थापक और चीफ एग्‍जिक्‍यूटिव ऑफिसर प्रदीप भंडारी चुनाव विश्‍लेषक के तौर पर पूरे देश में अपनी धाक जमा रहे हैं। अपने प्‍लेटफॉर्म के जरिए वे देश में होने वाले तमाम चुनावों के ओपिनियन और एग्जिट पोल द्वारा जनता तक सटीक आंकड़े पहुंचाने में जुटे हुए हैं। प्रदीप भंडारी का दावा है कि उन्होंने अब तक 11 चुनाव कवर किए हैं और इनके बारे में दिए गए सभी आंकड़े व अनुमान सटीक बैठे हैं।

आखिर वो ऐसा कैसे करते हैं, इसके लिए क्‍या स्‍ट्रेटजी अपनाते हैं और इसके लिए फंडिंग कहां से होती है, आदि सवालों को लेकर 'समाचार4मीडिया' के डिप्‍टी एडिटर अभिषेक मेहरोत्रा ने प्रदीप भंडारी से विस्‍तार से बातचीत की। प्रस्‍तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश :      

आप ये सब कैसे करते हैं। इनमें कितने अनुमान सही होते हैं और कैसे सही हो जाते हैं?

प्रदीप भंडारी : हम ओपिनियन और एग्जिट पोल दोनों करते हैं। हम लोगों की काम करने की फिलॉसफी ग्राउंड जीरो वर्क की होती है। इसका मतलब है कि जहां पर भी हम ओपिनियन अथवा एग्जिट पोल करते हैं, वहां पर एक कोर टीम होती है। वह टीम पूरे राज्‍य में सभी विधानसभा क्षेत्रों को कवर करती है और वहां पर एक लोकल सिटीजन रिपोर्टर नेटवर्क तैयार करती है।

उदाहरण के लिए- कर्नाटक की 224 विधानसभाओं में से मैंने खुद 196 विधानसभा क्षेत्रों का दौरा किया था। इसके अलावा हमारी छह टीमों ने सभी 224 विधानसभा क्षेत्रों को कवर किया था। प्रत्‍येक विधानसभा क्षेत्र में एक स्‍थानीय व्‍यक्ति को तैयार किया गया, क्‍योंकि वे ग्राउंड जीरो से लाइव रिपोर्ट करते थे। वे अच्‍छी कन्‍नड़ बोलता था और फिर वह वहां का लोकल ग्राउंड इंटेलीजेंस सोर्स बन जाता था। वह व्‍यक्ति पूरे महीने रोजाना हमें उस सीट का इनपुट देता रहता था। इस वजह से हमारे पास पूरा डाटा होता था और हम लाइव रिपोर्टिंग करने के कारण लोकप्रिय भी हो जाते थे। तो इसके लिए पूरी कवायद ऐसे करते हैं हम।

सिर्फ राजधानी में बैठकर दो-तीन सीट घूम लीं और विश्लेषण कर लिया, ये हमारा स्टाइल नहीं है। चुनाव में जिस तरह राजनीतिक दल करते हैं, ठीक वैसे ही हमने भी किया। इसके अलावा हमारे दो कॉपीराइट मॉडल हैं, पह‍ला प्रोबेबिलिटी मैप ऑफ आउटकम्‍स और दूसरा एम्‍पटी बॉक्‍स थ्‍योरी है। ये मेरा और मेरी फाउंडिंग पार्टनर आकृति के मॉडल हैं, जल्‍द ही ये पेटेंट भी हो जाएंगे। मैं हर सीट की प्रोबेबिलिटी रखता हूं और उसके हिसाब से आउटकम निकालते हैं। जब भी कोई फिफ्टी-फिफ्टी की सीट होती है तो उस पर हम एम्‍पटी बॉक्‍स थ्‍योरी लगाते हैं। इसमें मेरी थ्‍योरी यह रहती है कि यदि एक पोलिंग बूथ पर मान लीजिए सब कुछ बराबर है तो कौन सी वोटिंग पॉपुलेशन उस बूथ को चेंज कर रही होती है। तो इस तरह ग्राउंड जीरो वर्क और सिटीजन का पूरा नेटवर्क तैयार करके हम लोग ऐसा करते हैं। हमारी टीम में अधिकतर दूसरे प्रदेश के ज्‍यादा होते हैं और उस प्रदेश के कम लोग होते हैं, ऐसे में पूर्वाग्रह की आशंका भी कम होती है।

एग्जिट पोल तो ठीक है लेकन ओपिनियन पोल में सही ट्रेंड दिखाना सबसे बड़ी बात होती है। हमारा अकेले ओपिनियन पोल था जिसने बीजेपी की सही सीटें दिखाईं कर्नाटक में। अभी तक हम 11 चुनाव में ऐसा कर चुके हैं। हमारे सभी एग्जिट पोल सही निकले हैं। कैराना में हुए उपचुनाव में हमने भाजपा के बारे में जो ओपिनियन दिया था, वह सही निकला है। पार्टी वहां से हार गई है।  


आपने जो सिस्‍टम बताया है, ऐसे पोल्स करने वालीं देश की सभी एजेंसिया भी यही कहती है कि वे भी यही सिस्‍टम अपनाती हैं। ऐसे में आपका सिस्‍टम इनसे किस प्रकार अलग है ?

प्रदीप भंडारी: 'मुझे नहीं लगता कि वे लोग ऐसा करते होंगे। मैं जितने भी राज्‍यों में देख रहा हूं, मुझे उस स्‍तर तक लोग नहीं दिखे और न ही टॉप टू बॉटम एक्‍सरसाइज दिखी। मैं नाम नहीं लेना चाहूंगा लेकिन कई सर्वे एजेंसियां सट्टा बाजार को फॉलो करते हैं। कई संस्‍थान वो‍टर लिस्‍ट निकालकर करते हैं। एक बहुत ही प्रतिष्ठित एजेंसी है जिसने पहला बोलाथा कि गुजरात में बीजेपी हार रही है। छह दिन बाद में बोलते हैं कि बीजेपी जीत रही है। अभी बोल रहे थे कि कर्नाटक के अंदर कांटे की टक्‍कर है। ये लोग एक महीने के अंदर ही चेंज हो जाते हैं। यदि ये जमीनी स्‍तर पर काम कर रहे हों तो इतना बड़ा अंतर नहीं कर सकते हैं। लेकिन हमारा काम करने का तरीका बिल्‍कुल अलग है, हम बुक मॉडल को फॉलो नहीं करते हैं। हम अपने खुद के मॉडल को फॉलो करते हैं। तीसरी बात सबसे अहम ये है कि हमारा फोकस जमीन पर जाकर रिपोर्ट करना होता है कि क्‍या हो रहा है। हम लोग पोलिंग एजेंसी की तरह नहीं जाते हैं बल्कि ओपिनियन प्‍लेटफॉर्म तरीके से जाते हैं। यह हमारा बहुत बड़ा फर्क होता है। चौथी बात ये कि हम वोटरों की संख्‍या को ज्‍यादा महत्‍व न देकर, ये देखते हैं कि वोटर की मानसिकता क्‍या है और ट्रेंड क्‍या है।'

जैसा कि आपने बताया कि आपने अब तक 11 चुनाव कवर किए हैं और इनमें आप नंबर वन रहे हैं, नंबर दो पर कौन रहा है ?

प्रदीप भंडारी : मेरे हिसाब से और आंकड़ों के हिसाब से निश्चित तौर पर हम नंबर वन रहे हैं। नंबर दो के बारे में मुझे नहीं पता कि कौन रहा है। मैं तो सिर्फ एक नंबर यानी नंबर वन के बारे में जानता हूं। ‍दो, तीन और चार मेरे लिए नंबर नहीं हैं।

यानी कि आप शाहरुख खान की तरह कहते हैं कि नंबर एक से नंबर दस तक हम ही हम हैं। आपका कोई तो प्रतिद्वंद्वी होगा। या तो आपको पता नहीं कि आपका कोई प्रति‍द्वंद्वी है या आप किसी को अपना प्रतिद्वंद्वी मानते नहीं हैं ?

प्रदीप भंडारी : मुझे शाहरुख के बारे में तो नहीं पता कि वे क्‍या कहते हैं। लेकिन मैं अपने बारे में जानता हूं। मेरी नजर में सब अपनी जगह अच्‍छे हैं। मैं किसी को अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं मानता हूं। किसी भी इलेक्‍शन में जाते समय मैं किसी को देखते हुए अथवा उसके पोल को देखते हुए अपनी चीजें तय नहीं करता हूं।

जब आप किसी प्रदेश के ओपिनियन पोल करते हैं तो उसकी फंडिंग क्‍या होती है और इसके लिए पैसा कहां से आता है?

प्रदीप भंडारी : इसमें कोई विशेष बात नहीं है। मान लीजिए कि कर्नाटक की बात करें तो हमारे पास वहां लोकल ट्रैवल पार्टनर था। इसके अलावा 1000 रुपए के कमरे में हमारी टीम रुकती है। यह हमारा खर्चा था। आप बिल भी देख सकते हैं। अभी हमने रिपब्लिक से पार्टनरशिप की, जिससे हमें आर्थिक रूप से मजबूती मिली। इसके अलावा हमने दस चौपाल की थीं, जिसमें भी हमने पार्टनरशिप की। इसके अलावा हम उम्‍मीदवारों को भी स्‍ट्रेटजी के इनुपट देते हैं, वहां से भी हमें पैसा मिलता है। इस तरह से पैसे की व्‍यवस्‍था होती है।     

आप न्यूज चैनलों के साथ पार्टनरशिप करते हैं लेकिन लोगों के बीच धारणा है कि टीवी ने पत्रकारिता के मूल्‍यों को गिरा दिया है, इस बारे में आपका क्‍या कहना है?

प्रदीप भंडारी : मेरा मानना है कि समाज में जो भी हो रहा है, मीडिया वही दिखाती है। मान लीजिए कि टीवी जगत ने या पूरे मीडिया ने ऐसा किया है तो इसमें दो चीजें हो सकती हैं। एक तो नए आने वालों के लिए इसमें कुछ अलग करने अथवा नई चीज दिखाने का मौका है। दूसरी बात ये है कि जनता उसे नहीं देखे। इसमें कुछ भी एकपक्षीय नहीं रहता है। यह तो मांग और आपूर्ति का संबंध है।  

पिछले दिनों दो घटनाएं हुईं। एक हनीप्रीत का ड्रामा और दूसरा श्रीदेवी की मौत, जिसमें बाथटब में रिपोर्टर का लेटकर रिपोर्टिंग करना, ऐसे में आपका कहना है कि सब ठीक है कि जो टीवी दिखाएगा, वो सब दिखेगा?

प्रदीप भंडारी : यदि मैं इस बारे में पत्रकारिता के स्‍तर से बात करूं तो यही कहूंगा कि यह ठीक नहीं है। लेकिन आपको मानना पड़ेगा कि आजकल पत्रकारिता में यह चीजें आम हो गई हैं। चैनल या डिजिटल वेबसाइट ने जो पैसा लगाया है, उसे वह रिकवर भी करना है। और इसके लिए किसी भी तरह रेटिंग्स चाहिए ही।  

सभी चैनल यही तर्क देते हैं कि लोग देखना चाहते हैं, इसलिए दिखाते हैं, तो क्‍या यह सही है?

प्रदीप भंडारी : मेरा इस बारे में यही कहना है कि यदि आप पब्लिक को कोई चीज दिखा रहे हैं और वह उसे खराब लगेगा तो पब्लिक नहीं देखेगी। टीआरपी और व्‍यूज का सिस्‍टम भी तो इसलिए शुरू हुआ है। आखिर यह सब हम पब्लिक के लिए ही तो कर रहे हैं। इसकी तुलना आप आर्ट सिनेमा और कॉमर्शियल सिनेमा से कर सकते हैं। कॉमर्शियल के और आर्ट सिनेमा दोनों का स्‍तर अलग होता है। चैनल को भी आखिर अपने खर्चे निकालने होते हैं। हां, ऐसे में नए चैनलों के लिए काफी मौका है कि वह कुछ अलग और नया करके दिखा सकता है। यह जो वैक्‍यूम आया है, उसे नए लोगों द्वारा भरा जा सकता है।

आप उस दौर के पत्रकार हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि पत्रकारिती की इस पीढ़ी ने सोशल मीडिया में जन्‍म लिया है। प्रिंट, टीवी और रेडियो मीडिया वाले मानते हैं कि सोशल मीडिया ने पत्रकारिता का स्‍तर गिराया है। हर आदमी को पत्रकार और संपादक बनाया है, जिसमें एक आप भी शामिल हैं। इस बारे में आपका क्‍या कहना है?

प्रदीप भंडारी : मुझे लगता है कि जो लोग ऐसे बोलते हैं, उन्‍हें हमेशा से कोई बात कहने की बहुत ज्‍यादा आजादी मिली थी। पत्रकारिता में विचारों की स्‍वतंत्रता की बात होती है। संविधान के अनुच्‍छेद 19 ए (1) के तहत प्रत्‍येक व्यक्ति को वाक एवं अभिव्‍यक्ति की आजादी दी गई है। आखिर आप अपनी बात कैसे व्‍यक्‍त करेंगे। पहले लोग नुक्‍कड़ आदि पर खड़े होकर आपस में बात करते थे। ऐसे में आपके पास अधिकारी तक पहुंचने अथवा एडिटर तक पहुंचने के लिए कुछ सीमाएं थीं। यह बैरियर सोशल मीडिया के आने के बाद से कम हो गया है अथवा हट सा गया है। अब सोशल मीडिया पर जिसे लोग ज्‍यादा फॉलो करता है, उसका मतलब है कि लोग उसके विचारों को जानना चाहते हैं। पत्रकार भी तो वही होता है जो पब्लिक ओपिनियन सामने रखे। फिर चाहे लोग उससे सहमत हों अथवा असहमत। मेरे हिसाब से सोशल मीडिया ने पत्रकार और पब्लिक के बीच जो बैरियर था, उसे खत्‍म कर दिया है। उससे एक फेयर कम्प्‍टीशन क्रिएट किया है, जिसमें कोई भी व्‍यक्ति टियर टू, टियर थ्री, टीयर4 में भी अपनी बात सबके सामने रख सकता है।

क्‍या आपको नहीं लगता कि बंदर के हाथ में उस्‍तरा आ गया हैहर आदमी आज पत्रकार हो गया है। इससे फेक न्‍यूज की समस्‍या भी बढ़ती जा रही है। आखिर आप कितनी स्‍टोरी को चेक करेंगे?

प्रदीप भंडारी : यह तो अच्‍छी बात है। आप मुझे बताइए कि पहले कोई टीवी चैनल या कोई बड़ा अखबार यदि गलत खबर चला देता था तो उसे कैसे चेक करते थे। लेकिन यदि आज आप एक गलत खबर चलाएंगे तो आपके पास हजारों ट्वीट आ जाएंगे कि ये खबर झूठ है।

सोशल मीडिया पर गलत खबर चलने की बात करें तो आपके अनुसार उसे कैसे रोका जाए?

प्रदीप भंडारी : यह एक चैलेंज है। मुझे लगता है कि इस पर आप कितना भी रेगुलेशन लगा लें, वह कारगर नहीं होगा। आज की तारीख में आप देखिए कि खबर कैसे होती है। सबसे पहले वॉट्सएप पर या सोशल मीडिया पर खबर वायरल हो जाती है, तो इसे रोका नहीं जा सकता है। इसमें बस यही हो सकता है कि यदि किसी ने झूठी खबर की है तो उसके बारे में तुरंत 'काउंटर नरेटिव' आए और जल्‍दी आए, क्‍योंकि आजकल इतना कंप्‍टीनशन है कि यदि एक चैनल ने गलत खबर चलाई तो दूसरे चैनल जिनको ज्‍यादा टीआरपी चाहिए, वे उसे गलत बताना चालू कर देते हैं। आप देखते भी हैं कि ऐसा होता है। इसलिए मुझे नहीं लगता कि आप किसी भी रूप में रेगुलेशन लगा लें तो यह रुक जाएगी, क्‍योंकि यह एक लहर की तरह होता है कि यदि आपने यहां से रास्‍ता रोका तो वह निकलने के लिए दूसरा रास्‍ता तलाश लेता है। आपको यह स्‍वीकार करना पड़ेगा कि टेक्‍नोलॉजी काफी तेज हो गई है। कम्‍युनिकेशन की रफ्तार भी काफी तेज हो गई है। ऐसे में गलत खबर रोकने के लिए आप जवाब में 'काउंटर नरेटिव' दें। आप इस पर बंदिशें नहीं लगा सकते हैं, सिर्फ उसके जवाब में काउंटर नरेटिव दे सकते हैं। हालांकि मैं यह मानता हूं कि फेक न्‍यूज पत्रकारिता के लिए बड़ी चुनौती है।

क्‍या आपको लगता है कि सोशल मीडिया या डिजिटल मीडिया पर सरकारी नियंत्रण होना चाहिए? आजकल फेक न्‍यूज बहुत आ रही हैं। ऐसे में सरकार का भी यही कहना है कि फेक न्‍यूज को रोकने के लिए कुछ गाइडलाइंस होनी चाहिए। टीवी या प्रिंट के ऊपर फिर भी ‘ब्रॉडकास्‍ट एडिटर्स एसोसिएशन’ (BEA) अथवा 'प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया' (PCI) है लेकिन डिजिटल में तो हर आदमी अपना राजा खुद है?

प्रदीप भंडारी : इसमें दो चीजें हैं। एक चीज तो यह है कि गाइडलाइन जरूर होनी चाहिए। लेकिन मेरा मानना है कि इसमें सरकार को पूरी तरह यह निर्णय नहीं करना चाहिए कि कौन सी चीज सही है और कौन सी गलत है। यदि सरकार इसमें मुख्‍य भूमिका निभानी शुरू कर देगी कि कौन सी चीज सही है और कौन सी गलत तो सोशल मीडिया की पूरी आजादी खत्‍म हो जाएगी। इसके बाद प्रिंट, टीवी और सोशल मीडिया में अंतर ही क्‍या रह जाएगा। सोशल मीडिया की खासियत ही यही है कि इस पर आपको अपनी बात रखने की पूरी आजादी है। इसलिए मैं तो इस बात के पक्ष में नहीं हूं कि सोशल मीडिया को सरकार को रेगुलेट करना चाहिए। यदि गाइडलाइंस भी बननी चाहिए तो क्रॉस कंसल्‍टेशन के हिसाब से बननी चाहिए और यह भी देखना चाहिए कि बाकी दुनिया में क्‍या ट्रेंड चल रहा है। हां, मैं ये जरूर कहूंगा कि फेक न्‍यूज अपराध है और यदि फेक न्‍यूज है तो उस पर कार्रवाई जरूर होनी चाहिए। इसमें भी दो पार्ट हैं। कई बार क्‍या होता है कि कोई पत्रकार अथवा रिपोर्टर का आशय गलत नहीं होता है परंतु आपके सोर्स गलत हो जाते हैं और खबर गलत चली जाती है।  

आजकल एजेंडा को ही सोशल मीडिया पर खबर बना दिया जाता है, इसके बारे में क्‍या कहेंगे?

प्रदीप भंडारी : इसको आप नहीं रोक सकते हैं। आजकल तो हर चीज ही एजेंडा है। कौन सी चीज का एजेंडा नहीं है। प्रिंट में क्‍या चीज चलेगी और क्‍या नहीं चलेगी, यह भी एजेंडा है। ऐसी संस्‍था बननी चाहिए जो डिजिटल मीडिया की गाइडलाइंस तय करे लेकिन यह ऐसा नहीं होना चाहिए जो डिजिटल मीडिया की आजादी को ही खत्‍म कर दे। नहीं तो इतने सारे लोग जो अपना धंधा चला रहे हैं और वेबसाइट चला रहे हैं, जो अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता मिली हुई है, वह सब खत्‍म हो जाएगी। फिर तो यही होगा कि जिसके पास ज्‍यादा पैसा होगा, वही यह कर सकेगा। आप देखिए कि आज की तारीख में टीवी चैनल वही खोल सकता है जिसके पास सौ करोड़ रुपए की पूंजी है। लेकिन यदि कोई सामान्‍य आदमी अपनी बात रखना चाहता है और इसके लिए भी उसे इतने नियम-कानूनों की जरूरत पड़ेगी, फिर तो बात ही खत्‍म हो गई।

आप मीडिया एंटरप्रिन्‍योर बने हुए हैं। ऐसे में हम सभी लोग जानना चाहते हैं कि आपका मीडिया बैकग्राउंड क्‍या है?

प्रदीप भंडारी : औपचारिक रूप से मीडिया में मेरा बैकग्राउंड नहीं है। मेरा बैकग्राउंड इंजीनियरिंग का रहा है। इसके साथ ही मैंने इकनॉमिक्‍स, पब्लिक पॉलिसी और थिएटर किया है। बचपन से ही मेरी डिबेट आदि में रुचि रही है। मैं कई पोर्टल्‍स के लिए पहले से लिखता हूं। मेरा ये मानना है आज भले ही इतने सारे मीडिया कॉलेज खुले हुए हैं, यह अच्‍छी बात है, लेकिन मीडिया में सफलता के लिए यह बहुत जरूरी है कि आपको विभिन्‍न मुद्दों जैसे- कानून, दर्शनशास्‍त्र, आसपास चल रहीं घटनाओं आदि की सामान्‍य समझ है अथवा नहीं। मीडिया की पारंपरिक तरीके से कैमरे की पढ़ाई की उन लोगों को जरूरत है जो कैमरे के सामने संकोच करते हैं या जिन्‍हें लिखना नहीं आता। लेकिन यदि आप किसी भी विषय में पढ़ाई करें तो भी आप मीडिया में आसानी से काम कर सकते हैं। जिस तरह से सिविल सर्विस रहती है जिसमें आपको कोई तय पैटर्न की जरूरत नहीं होती है, आपको परीक्षा पास करनी होती है। उसी तरह से कैमरा और आर्टिकल आदि आपके लिए परीक्षा की तरह होते हैं।

आप इंजीनियरिंग के छात्र रहे हैं लेकिन आप मीडिया में क्‍यों आए हैं?

प्रदीप भंडारी : इसे समझने की जरूरत है। इंजीनियरिंग में मैने ग्रेजुएशन किया है और इससे मुझे बुनियादी रूप से चीजों को समझने में मदद मिली। लेकिन ट्रेडिशनली मैं पब्लिक लाइफ में काफी सक्रिय हूं। इस वजह से मेरा मानना है कि मीडिया ऐसा प्‍लेटफॉर्म है जिसके जरिए आप समाज में बदलाव लाने मे अपना योगदान दे सकते हैं। जिस तरीके से आप सिविल सर्विस के जरिए देते हैं, नेता बन पॉलिटिक्‍स में देते हैं अथवा न्‍यायपालिका में योगदान देते हैं, इसी तरह मीडिया भी फोर्थ पिलर है, जिसके जरिए आप समाज में बड़े स्‍तर पर बदलाव कर सकते हैं और अच्‍छे काम के जरिए अपनी पहचान बना सकते हैं। मेरा भी यही उद्देश्‍य है।

देश में मीडिया के दो वर्ग- हिंदी और अंग्रेजी हैं। आप मूलत: अंग्रेजी पत्रकार हैं। अंग्रेजी बैकग्राउंड से आए हैं। आप हिंदी काफी अच्‍छी बोलते हैं। आपको क्‍या लगता है कि अपने देश में हिंदी मीडिया और अंग्रेजी मीडिया में से कौन मजबूत है?

प्रदीप भंडारी : मैं तो यही कहूंगा कि देश में हिंग्लिश मीडिया काफी स्‍ट्रॉन्‍ग है। न तो पूरी तरह से हिंदी और न पूरी तरह से अंग्रेजी बल्कि दोनों के मिले-जुले रूप का आम लोग बातचीत में इस्‍तेमाल करते हैं। मेरा मानना है कि आने वाला समय भी हिंग्लिश का होगा।

मीडिया के कई नए प्‍लेटफॉर्म्‍स जैसे 'इनशॉर्ट्स', 'लल्‍लन टॉप' 'गजब पोस्‍ट' आए हैं। ऐसे प्‍लेटफॉर्म्‍स दावा करते हैं कि उनका कंटेंट अलग तरह का है। एक युवा मीडिया एंटरप्रिन्‍योर होने के नाते आप इसे किस तरह देखते हैं और ऐसे प्‍लेटफॉर्म्‍स का आपकी नजर में क्‍या भविष्‍य है?

प्रदीप भंडारी : ये अच्‍छी बात है कि मीडिया के अंदर नए-नए प्‍लेटफॉर्म्‍स आ रहे हैं। ये प्‍लेटफॉर्म्‍स लोगों तक अपनी पहुंच बना रहे हैं और इनकी व्‍युअरशिप भी है। मार्केट के लिए यह काफी अच्‍छी बात है कि इससे कम्प्‍टीशन बढ़ेगा और अच्‍छे प्‍लेयर्स आगे आएंगे। जिस तरह ये दावा कर रहे हैं कि ये लोग अलग-अलग टेस्‍ट को अपील कर रहे हैं तो इससे लोगों को हर तरह का कंटेंट मिलेगा। इसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि जैसे डिनर टेबल पर पनीर भी है, दाल भी है और रोटी भी है तो जिसे जो खाना है, वह खाएगा। लेकिन मैं एक चीज जरूर कहना चाहूंगा कि डिजिटल पर सिर्फ कंटेंट से दूसरों के मुकाबले कमाई करना अथवा आर्थिक लाभ उठाना बहुत मुश्किल है। जो एंटरप्रिन्‍योर डिजिटल अथवा डिजिटल कंटेंट में शुरुआत करते हैं, उनके सामने ये काफी बड़ी चुनौती रहती है। टीवी और प्रिंट के अंदर तमाम मापदंड है लेकिन डिजिटल के अंदर 'बार्क; जैसी कोई एजेंसी नहीं है जो यह बता सके कि कौन सा नंबर वन है और कौन सा नंबर दो पर है। आप थर्ड पार्टी जैसे गूगल एनॉलिटिक्‍स, कॉमस्कोर अथवा फेसबुक पर भरोसा करते हैं, जो इंडस्‍ट्री में स्‍वीकार मानक नहीं हैं। इंडस्‍ट्री को कोई ऐसा निकाय अथवा संस्‍था बनानी चाहिए जो इस तरह की रेटिंग कर सके, जिससे डिजिटल पर ऐडवर्टाइजर्स आएं। भले ही हमारे कई मिलियन यूजर्स हों लेकिन एडवर्टाइजर्स उतना पैसा नहीं लगाते हैं। इसका कारण है कि डिजिटल इंडस्‍ट्री में अभी इसके लिए मानक तय नहीं हैं, लेकिन उनका होना बहुत जरूरी है।



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