HOMESLIDESHOW साक्षात्कार पत्रकार स्टोरीटेलर होता है, पर आज कई पत्रकार खुद 'कहानी' बन गए हैं: भूपेंद्र चौबे
Published At: Tuesday, 04 September, 2018 Last Modified: Tuesday, 11 September, 2018
समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
अंग्रेजी न्यूज चैनल 'CNN-News18' के एग्जिक्यूटिव एडिटर भूपेंद्र चौबे अपने आपको टीवी मीडिया की दूसरी पीढ़ी का पत्रकार मानते हैं। बीस वर्षों से ज्यादा समय से पत्रकारिता में सक्रिय भूपेंद्र चौबे की न सिर्फ अंग्रेजी बल्कि हिंदी भाषा पर भी काफी अच्छी पकड़ है। तमाम बड़ी शख्सियतों का इंटरव्यू कर चुके भूपेंद्र चौबे इन दिनों नेटवर्क 18 के अंग्रेजी न्यूज चैनल सीएनएन-न्यूज18 पर प्राइम टाइम शो ‘Viewpoint’ पेश कर रहे हैं।
'समाचार4मीडिया' के डिप्टी एडिटर अभिषेक मेहरोत्रा ने विभिन्न मुद्दों को लेकर उनसे बातचीत की। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
आज हम जिस भूपेंद्र चौबे को स्क्रीन पर देखते हैं, वो किस तरह इस मुकाम तक पहुंचे हैं। पत्रकारिता की शुरुआत कैसे हुई ?
मैंने कभी सोचा नहीं था कि मैं पत्रकार बनूंगा। न तो मैं इस तरह की किसी उम्मीद में था और न ही मेरी ऐसी कोई मंशा थी। दरअसल, मैं तो फिल्म बनाना चाहता था। मैं दिल्ली के सेंट जेवियर्स स्कूल में पढ़ता था। मेरा पालन-पोषण दिल्ली में हुआ है। वैसे मैं बनारस का रहने वाला हूं। लेकिन मैंने ये कभी नहीं सोचा था कि मैं पत्रकार बनूंगा अथवा टीवी एंकर बनूंगा। सच कहूं तो मुझे इन सब चीजों के बारे में अंदाजा ही नहीं था कि पत्रकारिता क्या होती है और टीवी एंकर क्या होता है? मैं भी आम लोगों की तरह ही अखबार पढ़ता था।
हां, एक बात हमें पता थी कि यदि जीवन में आगे बढ़ना है तो उसके लिए हमें ही खुद कुछ करना है। क्योंकि हमारा कोई गॉडफादर नहीं था। यदि जर्नलिज्म की बात करें तो हमारा किसी पत्रकार से दूर-दूर तक कोई परिचय नहीं था। मैं किसी जर्नलिस्ट को नहीं जानता था।
ये जरूर था कि स्कूल में जो वाद-विवाद प्रतियोगिताएं होती थीं, उनमें मेरी अच्छी भागीदारी होती थी। बहुत बार उनमें मैं अच्छी परफॉरमेंस देता था। 12वीं के बाद जब मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से मैथ्स में बीएससी ऑनर्स किया। उसके बाद मैं मैथ्स की आगे की पढ़ाई करने के लिए सेंट जेवियर्स कॉलेज मुंबई जा रहा था। जब मैं वहां गया तो मेरे मित्रों ने सुझाया कि तुम इतना अच्छा बोलते हो, इतना अच्छा लिखते हो, यहां पर जेवियर इंस्टीट्यूट ऑफ कम्युनिकेशन (XIC) के नाम से एक इंस्टी्ट्यूट है, वहां पर फिल्म एवं टेलिविजन प्रॉडक्शन का शाम का कोर्स चलता है, तुम वहां एडमिशन क्यों नहीं लेते हो। चूंकि मैं मायावी मुंबई में नया था और पहले कभी रहा नहीं था। ऐसे में मैं बड़े पर्दे के बारे में बहुत कुछ जानना चाहता था। जैसे कैमरा कैसे काम करता है? ऑडियो और साउंड कैसे काम करते हैं? ऐसे में कह सकते हैं कि स्क्रीन की दुनिया में वही मेरा पहला कदम था। इस समय तक भी मैंने पत्रकार बनने के बारे में सोचा नहीं था। लेकिन उसके बाद समय के साथ एक के बाद एक घटनाएं घटती गईं।
जब मैंने कोर्स खत्म किया, उस समय प्रणॉय राय 'एनडीटीवी' के लिए ऐसे लोगों को तलाश रहे थे जो हिंदी और अंग्रेजी दोनों में काम कर सकें। चूंकि हम बनारस के थे और दिल्ली में पले-बढ़े थे। ऐसे में दोनों भाषाओं पर हमारी पकड़ ठीकठाक थी। एक दिन इस बात का जिक्र होने पर हमारे किसी जानने वाले ने प्रणॉय रॉय से कह दिया कि यह अच्छा लड़का है, आप एक बार इससे मिलकर देखो। उन्होंने हमारी तारीफ भी कर दी कि यह लड़का स्कूल और कॉलेज में भी अच्छा करता था। फिर एक दिन 'एनडीटीवी' से हमारे पास फोन आया कि प्रणॉय रॉय आपको मिलने के लिए बुला रहे हैं। यह सुनकर मन में एक तरह से काफी खुशी हुई कि इतना बड़ा आदमी हमें मिलने के लिए बुला रहा है। जब मैं प्रणॉय रॉय से मिलने गया, तब तक मैं मुंबई में फिल्म डायरेक्टर केतन मेहता से बात कर चुका था और उन्हें बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर जॉइन करने वाला था। वहां से सीखकर मुझे अपनी फिल्म भी बनानी थी लेकिन जैसा कि कहते हैं सब कुछ पहले से नियती से तय होता है तो 'एनडीटीवी' से हमारी शुरुआत हुई।
फिर कुछ ऐसे हालात बने कि मैं वहां से निकल ही नहीं पाया। शुरुआत के एक-दो साल तक मैं जरूर सोचता था कि यह अस्थायी दौर है और जाना तो मुझे मुंबई ही है। मैं हर दो महीने में मुंबई चला जाता था, तीन-चार दिन रहने के लिए। वहां मेरा काफी लोगों से मिलना-जुलना होता था। मेरी आत्मा मुंबई में ही थी जबकि काम मैं दिल्ली में करता था। ऐसे में हालात कुछ ऐेसे बनते गए कि मैं यहीं पर काम में जुड़ता चला गया। इस प्रकार पत्रकारिता का मेरा सफर शुरू हुआ। बाकी तो आप देख ही रहे हैं।
अपने करियर की शुरुआत की पत्रकारिता के बारे में बताइए, उस वक्त आपको किस तरह का काम सौंपा गया था?
आप जिस दौर में पत्रकारिता में आए, यह वो दौर था जब न आज जितना ग्लैमर था और न ही इतना पैसा। ये ठीक है कि प्रणॉय राय ने आपको बुलाया लेकिन जब आपने अपने परिवार वालों को बताया कि आप पत्रकारिता में जा रहे हैं तो उनकी कैसी प्रतिक्रिया थी ?
जब
मैंने एनडीटीवी को जॉइन किया तो मेरी पहली पगार के बारे में बताया गया कि वैसे तो
रिपोर्टर को आठ हजार रुपये दिए जाते हैं। लेकिन आप चूंकि हिंदी और अंग्रेजी दोनों
में बढि़या हैं, इसलिए हम आपको दस हजार रुपये
देंगे। यह वर्ष 1999 के आसपास की बात है और तब इतनी
पगार मुझे बहुत लगी। जब मैंने अपने माता-पिता को यह बात बताई तो उन्होंने कहा कि
कल को तुम्हारी शादी होगी, बच्चे होंगे तो उस समय इतने
पैसे में तुम क्या करोगे, क्या खाओगे और कहां रहोगे। उन्हें
समझाने में मुझे कुछ समय लगा। मेरे माता-पिता इसे समझ ही नहीं पाते थे। चूंकि मेरी
नाइट शिफ्ट होती थी तो माताजी पूछती थीं कि बेटा तुम काम क्या करते हो। ये कौन सा
काम है जो तुम रात को 11 बजे जाते हो और सुबह नौ बजे
आते हो। हालांकि समय के साथ धीरे-धीरे उन्हें यह बात समझ में आ गई।
आप हमेशा खुद को सेकेंड जनरेशन का पत्रकार मानते हैं। आपके समय के लोगों ने प्रिंट व टीवी दोनों में काम किया है जबकि आप शुरू से ही हार्डकोर टीवी जर्नलिस्ट रहे हैं?
आपका
कहना सही है कि मैं शुरू से ही हार्डकोर टीवी जर्नलिस्ट रहा हूं। उसका एक कारण है
कि मैं अपने आपको यथार्थवादी व्यक्ति मानता हूं। मैं अपने आपको एक ऐसे व्यक्ति
के रूप में देखता हूं जिसका काम कहानी बताना है और मैं टीवी के जरिए अपने दर्शकों के सामने ये काम अच्छी तरह से कर पाता हूं। मैं खुद कहानी नहीं हूं और मैं ये मानता भी हूं कि एक पत्रकार को खुद कहानी नहीं बनना चाहिए। ये अलग बात है कि मेरे कई साथी संपादक आज खुद कहीं न कहीं कहानी बन गए हैं।
मैं अभी भी अपने आपको जमीन का रिपोर्टर समझता हूं, जिसका काम दर्शकों तक कंटेंट पहुंचाना का है।
आपके
कहने का मतलब है कि पत्रकार कहानी नहीं है बल्कि वह सिर्फ स्टोरी टैलर यानी कहानी
बताने वाला है ?
बिल्कुल
यही बात है। टीवी पर रात को नौ बजे अपने प्रोग्राम 'व्यूपाइंट'
में मैं इस बात का विशेष ध्यान रखता हूं कि उसमें चीखना-चिल्लाना न हो। मेरा मानना है कि यदि मुंबई में कोई ब्रिज गिर गया है तो उसके कुछ फलां-फलां कारण होंगे। उन कारणों से पहले कुछ घटनाएं घटी होंगी। उन घटनाओं के ऊपर क्या
क्या क्रिया-प्रतिक्रियाए हुई, ये लोगों को बताना मेरा काम
है। किसी घटना को लेकर चार-पांच लोगों को स्क्रीन पर बिठाकर चीखना-चिल्लाना,
मेरी नजर में सही पत्रकारिता नहीं है।
1999
से लेकर 2018 तक दो दशक के सफर में आपने किस तरह टीवी पत्रकारिता को बदलते देखा और
जब आप इसका मजाक उड़ते देखते हैं तो कैसा महसूस करते हैं ?
यह सवाल पूछ आपने दुखती हुई रग छेड़ दी है। टीवी पत्रकारिता आजकल मजाक बन गई है, आपके इस सवाल पर काश मैं ये कह पाता कि आप झूठ बोल रहे हैं। लेकिन सच्चाई यही है कि आप झूठ नहीं बोल रहे हैं।
पर मैं सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति हूं इसलिए यही कहूंगा कि आज की तारीख में माहौल चाहे जैसा हो लेकिन ऐसा नहीं है कि सब कुछ
बर्बाद हो चुका है। इतना सब होने के बाद भी मुझे लगता है कि इस क्षेत्र में अभी
इतने अवसर हैं कि यदि हम सही से उनकी पहचान करें तो काफी कुछ अच्छा हो सकता है।
मेरे साथ कई ऐसे रिपोर्टर काम करते हैं जो काफी मेहनत करते हैं और बड़ी मेहनत से
स्टोरी लेकर आते हैं। यदि मैं उन स्टोरी पर सही से
प्रोजेक्ट नहीं कर पाऊं तो ये उनकी नहीं मेरी गलती है। यदि मैं अपने सीनियर्स को
यदि यह नहीं बता पाऊं कि यही पत्रकारिता है तो ये उनकी और मेरे बीच की दुविधा है।
इसमें रिपोर्टर्स का कोई काम नहीं है। मैं ये तो मान सकता हूं कि टीवी मजाक बन गया
है लेकिन यह नहीं मान सकता कि टीवी खत्म हो गया है। मेरा मानना है कि अभी भी काफी
मौके हैं। ऐसा नहीं है कि स्थिति बिल्कुल खत्म हो गई। मेरा मानना है कि स्थिति
सुधरेगी।
इस सरकार में एमआआईबी (MIB) में अस्थिरता दिखती है। यहां थोड़े समय में ही कई मंत्री बदल दिए जाते हैं। हमारी इंडस्ट्री की पॉलिसी तो एमआईबी से ही तय होती है। आखिर इसके बारे में आपका क्या कहना है?
आप कांग्रेस के समय से ही देखें तो MIB में हमेशा अस्थिरता रहती है। यहां स्थिरता इसलिए नहीं आ पाती है क्योंकि एमआईबी में जो लोग बैठते हैं, उनमें से कुछ लोग तो अपना दायरा बहुत जल्दी समझ जाते हैं। मेरा अपना मानना है कि एमआईबी की कोई जरूरत ही नहीं है। आखिर एमबाईबी किसलिए है, यदि आपको चैनलों का लाइसेंस चाहिए तो उसके लिए एक सिस्टम है। आजकल तो हम लोग डिजिटल क्रांति की तरफ हैं। ऐसे में यदि कोई व्यक्ति पात्रता की सभी शर्तें पूरी करता है तो सरकारी तंत्र से उसकी स्क्रूटनी कराकर उसे लाइसेंस जारी कर दिया जाए। हाल ही में प्रसार भारती ने एक विज्ञापन निकाला था जिसमें उसे कंटेंट मॉनीटरिंग असिस्टेंट पद के लिए उम्मीदवार चाहिए थे। यह देखकर मुझे काफी आश्चर्य हुआ कि आखिर ये कौन सा पद है। आजकल तो ट्विटर और फेसबुक का जमाना है। ऐसे में मान लीजिए कि यदि मैं कोई खबर न करूं तो इसका ये मतलब कतई नहीं है कि उसे कोई और नहीं करेगा। अगर खबर है तो वो कहीं न कहीं बाहर ही आएगी, क्योंकि आजकल ढेरों विकल्प हैं और आप खबर को दबा नहीं सकते हैं। आज मीडिया की स्थिति यह हो गई है कि आप इसे नियंत्रित नहीं कर सकते हैं। आप इसमें थोड़ी हेरफेर कर सकते हैं अथवा उसे प्रभावित कर सकते हैं लेकिन कंट्रोल बिल्कुल नहीं कर सकते हैं।
नोट: भूपेंद्र चौबे संग विस्तार से की गई इस बातचीत का दूसरा भाग भी आप जल्द समाचार4मीडिया डॉट कॉम पर पढ़ेंगे।
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