दैनिक भास्कर के समूह संपादक कल्पेश याग्निक अब हमारे बीच नहीं हैं..
नीरज नैयर ।।
दैनिक भास्कर के समूह संपादक कल्पेश याग्निक अब हमारे बीच नहीं हैं। कल्पेश जी से मेरा कोई खास जुड़ाव तो नहीं रहा, लेकिन तकरीबन दो घंटे के इंतजार के बाद उनसे आधे घंटे की मुलाकात में मुझे इतना जरूर समझ आ गया था कि वो मीडिया जगत के मिस्टर परफेक्शनिस्ट हैं।
बात आज से करीब 5-6 साल पहले उन दिनों की है, जब मैं मध्यप्रदेश की राजधानी से प्रकाशित होने वाले अखबार ‘राज एक्सप्रेस’ में था। कल्पेशजी उस वक्त भोपाल में ही बैठा करते थे। फर्स्ट फ्लोर पर नेशनल न्यूज रूम से जुड़ा उनका केबिन था। मैं काम खत्म हो जाने के बाद ऐसे ही अपने ऑफिस में बैठा-बैठा फेसबुक खंगाल रहा था, तभी मुझे रविन्द्र भजनी ऑनलाइन दिखाई दिए। बातों-बातों में उन्होंने बताया कि भास्कर नेशनल न्यूज रूम में जगह खाली है, अगर इच्छुक हो तो देवेंद्र भटनागरजी से बात कर लो। देवेंद्र जी नेशनल न्यूज रूम के हेड थे, फिलहाल वह प्रमोशन पर गुजरात के स्टेट हेड की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं।
भजनीजी ने मुझे रिज्यूमे भेजने के लिए एक
ईमेल आईडी दिया और मैंने बिना देर किए तुरंत रिज्यूमे भेज दिया। अगले दिन शाम को
देवेंद्र भटनागरजी का फोन आया, उन्होंने कहा कि कल्पेश
याग्निक जी आपका इंटरव्यू लेंगे। वो दिन में काफी व्यस्त रहते हैं, तो आप अपना काम खत्म करने के बाद सीधे भास्कर आ जाओ, कोई दिक्कत तो नहीं है? मुझे अजीब तो लगा कि आधी रात
में कौन इंटरव्यू लेता है, लेकिन मैंने हां कर दी। कल्पेशजी
के बारे में मैं ज्यादा कुछ जानता नहीं था, लेकिन भटनागरजी के
बारे में बहुत कुछ सुना था। इसलिए उनके साथ काम करके कुछ नया सीखने का मौका हाथ से
जाने नहीं देना चाहता था।
मैं ‘राज एक्सप्रेस’ में फ्रंट पेज
संभालने वाली टीम का हिस्सा था, फ्रंट पेज वैसे भी सबसे
आखिरी में जाता है, इसलिए हमें अक्सर ऑफिस से निकलते-निकलते
रात के दो-ढाई बज जाया करते थे। लिहाजा दूसरे दिन प्रेस पहुंचते ही मैंने अपने बॉस
से कहा कि आज मुझे 12 बजे तक जाना है, कुछ काम है। पवन सोनीजी उस वक्त फ्रंटपेज इंचार्ज थे और वो कभी भी ऐसी बातों के लिए मना नहीं करते
थे। घड़ी में 12 बजते ही मैंने अपना बैग उठाया और निकल पड़ा।
आधे घंटे यानी 12.30 के आसपास मैं भास्कर के ऑफिस पहुंच गया
था। नीचे से ही फोन पर देवेंद्रजी को अपने आने की खबर दी, उन्होंने
कहा सीधे फर्स्ट फ्लोर पर नेशनल न्यूज रूम में आ जाओ। वहां पहुंचने पर पता चला कि
कल्पेशजी किसी के साथ बिजी हैं। मैं बाहर बैठे-बैठे अखबारों के पन्ने पलटने लगा।
इंतजार ने अब बेचैनी का रूप ले लिया था और शायद भटनागरजी को इसका अहसास था। वो
मेरे पास आए और बोले ‘नीरज बस कुछ देर और, सर फ्री होने ही
वाले हैं’। लेकिन जब काफी वक्त गुजरने के बाद भी जब कल्पेशजी
की अपने केबिन में बैठे शख्स से बातचीत खत्म नहीं हुई तो भटनागरजी उनके पास पहुंचे
और मेरे बारे में बताया। इसके बाद भटनागरजी ने मुझसे अंदर जाने को कहा, मैंने अपनी फाइल उठाई और सीधे कल्पेशजी के केबिन में दाखिल हो गया।
कुछ मिनट तक कल्पेश जी दूसरे शख्स से बातचीत में व्यस्त रहे, फिर अचानक मुझसे बोले अपनी फाइल दिखाइए। फाइल पलटते-पलटते उन्होंने पहला सवाल किया, ‘जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आए थे तो एक अखबार ने सबसे पहले उनकी कार की खासियतों के बारे में मय ग्राफिक्स जानकारी दी थी, क्या आप बता सकते हैं वो कौनसा अखबार था? मेरा जवाब था- भास्कर। उन्होंने अपनी गर्दन उठाते हुए मुझे देखा और मुस्कुराकर कहा ‘तो भास्कर ध्यान से पढ़ते हैं आप’।
इसके बाद उनका
दूसरा सवाल था ‘आपकी किस विषय में दिलचस्पी है’? मैंने कहा सर किसी एक विषय में दिलचस्पी जैसा तो कुछ नहीं है, लेकिन फ्रंट पेज संभालता हूं इसलिए हर विषय की थोड़ी-बहुत समझ रखता हूं’। मुझे पता नहीं था कि इसके बाद मुझ पर सवालों की बौछार होने वाली है। लेकिन
इस बौछार से पहले उन्होंने मुझसे एक प्रश्न जरूर पूछा जो अक्सर लोग पूछते हैं ‘आप कुलदीप नैयर के रिश्तेदार हैं’?
बात शुरू हुई 2008 में आई वैश्विक मंदी से। कल्पेशजी ने कारण पूछा और मैंने जवाब दिया, वो संतुष्ट हुए और सवाल-जवाब का दौर शुरू हो गया। जहां तक मुझे याद है उन्होंने 9 या 10 सवाल किए थे और मेरे 2 या 3 जवाबों पर ही उन्हें आपत्ति थी। जिनमें से आखिरी जवाब इस सवाल से जुड़ा हुआ था कि भारत मंदी की चपेट में आने से कैसे अछूता रह गया। मुझे याद नहीं कि मैंने क्या कहा था, लेकिन जो भी कहा था वो कल्पेशजी के मानदंडों के अनुरूप नहीं था।
सवाल-जवाब की मैराथन के बाद उन्होंने मेरी फाइल
बंद करके मुझे वापस दी और कहा ‘नैयरजी आपने अच्छे जवाब दिए
लेकिन हमें भास्कर में ऐसे लोगों की जरूरत हैं जिन्हें इकॉनमी के ‘ई’ से लेकर ‘वाई’ तक हर अक्षर का मतलब पता हो, जिसके पास हर सवाल का जवाब हो। आप थोड़ी और
तैयारी करें और पूरी तैयारी के साथ वापस आएं, आपके लिए
भास्कर के दरवाजे हमेशा खुले हैं’। मैंने अपनी फाइल उठाई और
मुंह लटकाते हुए उनके केबिन से बाहर आ गया। देवेंद्र भटनागरजी मेरा वहीं इंतजार कर
रहे थे, मुझे देखते ही उन्होंने पूछा ‘क्या
हुआ नीरज’? मैंने उन्हें पूरी कहानी बताई, उन्होंने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा ‘कोई नहीं नीरज
ऐसा होता है, फिर कोशिश करेंगे’।
इसके बाद मेरा कल्पेशजी से कभी मिलना नहीं
हुआ। कुछ समय बाद वो भोपाल से इंदौर चले गए। चंद रोज पहले जब उनके निधन की खबर मिली तो सालों
पुराना वो इंटरव्यू एकदम से नजरों के सामने आ गया।