स्वतंत्रता दिवस पर ‘आउटलुक’ लाया इस थीम पर आधारित विशेषांक

स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रतिष्ठित हिंदी मैगजीन ‘आउटलुक’ एक विशेषांक प्रकाशित करेगा...

Last Modified:
Friday, 11 August, 2017
Samachar4media

समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।


स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रतिष्ठित हिंदी मैगजीन आउटलुकएक विशेषांक प्रकाशित किया है, जिसका शीर्षक है लापता आदर्शवाद। इस विशेषांक में गुम होते आदर्शवाद का जिक्र किया गया है। आजकल हर क्षेत्र में आदर्शवाद गायब हो रहा है, ऐसे में कई विशेषज्ञों ने अपनी बात कही है। इसमें समाजशास्त्री व लेखक आशीष नंदी, इतिहासकार इरफान हबीब, इंफोसिस के पूर्व चेयरमैन एन.आर. नारायणमूर्ति, इतिहासकार दिलीप सिमिओन, कथाकार संजीव, फिल्म मेकर, सामाजिक विषयों पर पैनी टिप्पणी करने वाली नताशा बधवार, फिल्म समीक्षक सीएस वेंकटेश्वरन, शिक्षाविद अभय मौर्य और प्रदीप जैसे विभिन्न क्षेत्रों के स्थापित विशेषज्ञों के लेख प्रकाशित किए गए हैं, जिनके माध्यम से ये जानने की कोशिश की गई है आजादी के 70 साल बाद एक राष्ट्र के रूप में हम कहां खड़े हैं? आदर्शवाद कहां लापता है?

 

इस विशेषांक का जिक्र करते हुए आउटलुक के एडिटर हरवीर सिंह ने बताया कि विभिन्न क्षेत्रों के स्थापित विशेषज्ञों के जरिए राष्ट्र और समाज के सामने खड़े सवालों के जवाब ढ़ूंढ़ने की कोशिश की गई है। उन्होंने बताया कि अपने आलेख में आशीष नंदी आदर्शवाद, विचारधारा और सर्वसत्तावादी राजनीति की व्याख्या कर रहे हैं, तो मशहूर इतिहासकार इरफान हबीब भविष्य में भारत की परिकल्पना पर गांधी और नेहरू के मतभेदों के बावजूद एकरूपता के बरक्स आज के दौर की हकीकतों का बयान करते हैं। वहीं देश के सबसे सम्मानजनक कॉरपोरेट लीडर्स में शुमार इंफोसिस के पूर्व चेयरमैन एन.आर. नारायणमूर्ति कॉरपोरेट जगत के लिए मूल्यों की अहमियत और देश व समाज के प्रति जवाबदेही की जरूरत बताते हैं। दिलीप सिमिओन उस वाम विचारधारा के विरोधाभासों पर टिप्पणी कर रहे हैं जो समाज में बराबरी की बात करती है। 

 

एडिटर हरवीर सिंह के मुताबिक, कथाकार संजीव ने बताया है कि अब हम सच के लिए संघर्ष का साहस ही खोते जा रहे हैं। शिक्षाविद अभय मौर्य ने शिक्षा और खासतौर से व्यक्तित्व व चारित्रिक निर्माण के लिए अहम उच्च शिक्षा के मौजूदा हालात पर टिप्पणी की है। प्रदीप मैगजीन का कहना है कि खेल भावना की बजाय अब जीतना और पैसा कमाना ही मूलमंत्र बन गया है। सामाजिक विषयों पर पैनी टिप्पणी करने वाली नताशा बधवार कहती हैं कि निराशा के इस दौर में भी आशा के दीये जल रहे हैं तो प्रतिष्ठित फिल्म समीक्षक वेंकटेश्वरन ने सत्यजीत राय और अडूर गोपालकृष्‍णन की फिल्मों के जरिए बताया है कि हम कैसे और कहां पहुंच रहे हैं।


 

 

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