'नीरज' के जाने पर आज उनका ये गीत ताजा हो गया...

फ़िल्म 'शर्मीली' के इस नगमे को लिखने वाली शख्शियत पद्मभूषण श्री गोपाल दास नीरज जी...

Last Modified:
Friday, 20 July, 2018
Samachar4media

डॉ. महेश चंद्र धाकड़

पत्रकार (आगरा) ।। 

खिलते हैं गुल यहां, खिलके बिखरने को

मिलते हैं दिल यहां, मिलके बिछड़ने को...!

कल रहे ना रहे, मौसम ये प्यार का

कल रुके न रुके, डोला बहार का

चार पल मिले जो आज, प्यार में गुज़ार दे

खिलते हैं गुल यहां...!'

फ़िल्म 'शर्मीली' के इस नगमे को लिखने वाली शख्शियत पद्मभूषण श्री गोपाल दास नीरज जी 19 जुलाई को इस दुनिया से रुखसत कर गए। 4 जनवरी 1925 को इटावा जिले के पुरावली गांव में जन्मे श्री नीरज जी ने अपनी जीवन यात्रा को दिल्ली के एम्स में विराम देकर इस दुनिया को अलविदा जरूर कहा है, मगर वे हमेशा जिंदा रहेंगे अपने गीतों और गजलों के जरिए इस जहां में और लोगों के दिलों में अपने एक-एक फ़लसफ़े को अपने गीतों में पिरोकर।

हिंदी सिनेमा को गीतकार के रूप में एक से बढ़कर एक नायाब गीतों का गुलदस्ता देकर सिनेप्रमियों के दिलों पर राज करने वाले गोपाल दास नीरज जी का जाना आगरा मंडल ही नहीं बल्कि पूरे हिन्दुस्तान के काव्य और सिने प्रेमियों के लिए एक स्वर्ण युग के अंत जैसा है, जिसको अपने नगमों से मोती सरीखे शब्दों से सजाया था पद्मभूषण श्री गोपाल दास नीरज जी ने, उन्होंने हिंदी सिनेमा में गीतों को एक नई परिभाषा दी अपने दार्शनिक अंदाज़ के गीतों के जरिए। 

ब्रिटिश काल के संयुक्त आगरा प्रान्त में जन्में श्री नीरज जी का आगरा से पारिवारिक जुड़ाव रहा। उनकी पत्नी मनोरमा शर्मा जी के खुद के व्यक्तित्व और नीरज जी के व्यक्तित्व की ऐसी जुगलबंदी थी कि आगरा के वाशिंदों के लिए वे इतने खास बन गए थे कि भले आगरा उनकी जन्मस्थली न रही हो मगर आगरा वाले उनको अपना खासमखास मानकर अलीगढ़ या इटावा का मानने को तैयार तक न थे। अपने परिवार में आगरा उनका कवि सम्मेलनों की व्यस्तताओं के बाद भी अक्सर आना-जाना हम अखबारवालों के लिए बेशक़ खास बन जाता था।

विनोबा जी के आंदोलन और गांधी आश्रम से जुड़ीं मनोरमा जी से रिपोर्टिंग के दौरान इतना स्नेह मिलता कि वे मुझे उनके आगमन की जानकारी देना नहीं भूलती थीं। एक अखबार नवीस के तौर पर कोई आधा दर्जन मुलाक़ातें नीरज जी से मेरी हुईं इनमें से तीन बार उनसे विस्तार से इंटरव्यू लेने का सौभाग्य भी मिला। बेहद सहज और सरल व्यक्तित्व के मालिक नीरज जी बीड़ी पीते पीते क्या कमाल की बातें किया करते थे। एक दफ़ा मुलाक़ात के दरमियां बोले, आजकल की फिल्मों में गीतों के लिए कोई जगह नहीं रह गई है वर्ना एक जमाना था जब फिल्मकार हमारे साथ चाय का गिलास खुद हाथ में पकड़कर बैठते थे और कहानी के अनुरूप गीत लिखवाया करते थे। फिल्मकार और गीतकार के बीच जो ट्यूनिंग हुआ करती थी वो अब कहां दिखती है तभी तो आज की फिल्मों में वाहियात किस्म के गीतों को परोस दिया जाता है। ओशो के दर्शन पर उनकी खास पकड़ थी वे बाकी दार्शनिकों को भी संदर्भित करके जब बातचीत का सिलसिला शुरू करते तो लगता जैसे किसी गीतकार से नहीं बल्कि किसी पहुंचे हुए दार्शनिक से रूबरू होने का सौभाग्य मिल रहा है। 

सूफ़ियाना गीतों को खासकर पसंद करने वाले नीरज जी बिल्कुल डूबकर लिखने वाले गीतकार थे बेशक़। तभी तो 'नई उमर की नई फसल' फ़िल्म से उनके फिल्मी सफरनामे का इतना शानदार आगाज़ 'कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे...!' सरीखे गीत से हुआ कि पहली ही फ़िल्म से लोगों के दिल ओ दिमाग पर वे छा गए। इसी फिल्म का गीत 'देखती ही रहो आज ये दर्पण न तुम प्यार का ये मुहूरत निकल जायेगा...!' उनको फिल्मी दुनिया के आकाश में चमका गया। फिल्मों के एक के बाद एक ऑफर मिलते चले गए। देखते ही देखते कलम का धनी ये काव्य की दुनिया का सितारा फ़िल्म मेरा नाम जोकर, प्रेम पुजारी सहित तमाम फिल्मों के गीतों में अपने शब्दों के मोती जड़ता चला गया।

'बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं

आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं

एक खिलौना बन गया दुनिया के मेले में

कोई खेले भीड़ में कोई अकेले में

मुस्कुरा कर भेंट हर स्वीकार करता हूं

आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं...

मैं बसाना चाहता हूं स्वर्ग धरती पर

आदमी जिस में रहे बस आदमी बनकर

उस नगर की हर गली तैय्यार करता हूं

आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं...!

फ़िल्म 'पहचान' का ये गीत किसी उम्दा सोच का गीतकार ही अपनी कलम से उपजा सकता है। जिसमें एक ऐसी काल्पनिक दुनिया बसाने का स्वप्न गीतकार देखता है जिसमें आदमी को सिर्फ आदमियत की नज़र से देखा जाए। उन्होंने रुमानियत भरे नगमें भी लिखे मगर कुछ अलग से अंदाज़ में। मसलन ये नगमा देखें!

'शोखियों में घोला जाये, फूलों का शबाब

उसमें फिर मिलायी जाये, थोड़ी सी शराब

होगा यूं नशा जो तैयार

हां...

होगा यूं नशा जो तैयार, वो प्यार है...!'

फ़िल्म 'प्रेम पुजारी' का ये गीत उनकी कुछ अलहदा सी शख्शियत का आईना है, जो कि उन्होंने प्यार को अपने तरह से परिभाषित करते हुए लिखा तो लोगों की जुबां पर चढ़ता चला गया।

फ़िल्म 'मेरा नाम जोकर' का एक गीत भी उनके फ़लसफ़े को एक गीत में किस तरह से फिल्मी दर्शकों के सामने रखता है ये काबिल ए गौर है।

'ऐ भाई! जरा देख के चलो, आगे ही नहीं पीछे भी

दाएं ही नहीं बाएं भी, ऊपर ही नहीं नीचे भी

ऐ भाई!

तू जहां आया है वो तेरा- घर नहीं, गांव नहीं

गली नहीं, कूचा नहीं, रस्ता नहीं, बस्ती नहीं

दुनिया है, और प्यारे, दुनिया यह एक सर्कस है

और इस सर्कस में- बड़े को भी, छोटे को भी

खरे को भी, खोटे को भी, मोटे को भी, पतले को भी

नीचे से ऊपर को, ऊपर से नीचे को

बराबर आना-जाना पड़ता है...!'

कुल जमा बात ये कि नीरज का बतौर गीतकार जो हिंदी सिनेमा में योगदान है उसको सदियों तक भुलाया नहीं जा सकेगा आज 100 वर्ष का हिंदी सिनेमा दुनिया के सिनेमा के आगे इतरा रहा है तो उसके इस आकर्षक स्वरूप में नीरज जी ने भी नायाब मोती जड़े हैं, इसमें कोई शक नहीं। उनका ही लिखा एक गीत और जेहन में आ रहा है।

'काल का पहिया घूमे भैया

लाख तरह इन्सान चले

ले के चले बारात कभी तो

कभी बिना सामान चले...!'

आखिर में गीतकार नीरज के इस गीत को कैसे कोई भुला देगा जिसमें उन्होंने टूटे हुए सपनों से बिखर चुके इंसानों में ऐसी जान फूंकी है कि बरबस ही ये गीत उनके जाने पर ताज़ा हो आया है।

'छिप छिप अश्रु बहाने बालो,

मोती व्यर्थ लुटाने वालो

कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है।

सपना क्या है, नयन सेज पर

सोया हुआ आंख का पानी

और टूटना है उसको ज्यों

जागे कच्ची नींद जवानी

गीली उमर बनाने बालो, डूबे बिना नहाने बालो

कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है।'

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