सत्रह साल के लंबे अंतराल के बाद इंडिया टुडे की साहित्य वार्षिकी आई और क्या खूब आई...
सत्रह साल के
लंबे अंतराल के बाद इंडिया टुडे की साहित्य वार्षिकी आई और क्या खूब आई। पिछले
डेढ़ दशक में साहित्य की दुनिया में जो बदलाव आए हैं उस बदलाव को दर्ज करने के लिए
ही इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी ने अपना कवर शीर्षक 'अभिव्यक्ति का उत्सव' रखा
है। इंटरनेट के विस्तार के साथ ही फेसबुक, ट्विटर और तमाम सोशल मीडिया साइट्स पर लेखन की स्वतंत्रता ने आखिर
अभिव्यक्ति के उत्सव को नए आयाम ही तो दिए हैं।
इसी विषय पर
पिछली पीढ़ी और नई पीढ़ी के रचनाकारों की राय लेकर एक विमर्श साहित्य वार्षिकी में
है। इस विमर्श में ग्यारह रचनाकारों को शामिल किया गया है, जिनमें अशोक वाजपेयी, मृदुला
गर्ग, पुरुषोत्तम अग्रवाल, पुण्य
प्रसून वाजपेयी, द्युति सुदीप्ता, नीलिमा
चौहान जैसे साहित्यकारों ने अपने विचार प्रकट किए हैं।
इस विमर्श समेत
साहित्य वार्षिकी में ग्यारह खंड है। दूसरा खंड धरोहर का है, जिसमें हिंदी साहित्य की अनजानी और भुला दी गई
रचनाओं को दोबारा पाठकों के सामने लाने की कोशिश की गई
हैं। इसमें मैथिलीशरण गुप्त की वह रचनाएं है जिनमें उन्होंने खय्याम की रूबाईयों
को अपने अंदाज में अनुवाद किया है। इसी खंड में पंडित विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक की
एक कहानी है, जिसमें दूसरे महायुद्ध के वक्त कपड़ो की
राशनिंग की समस्या का जिक्र किया गया है। इसी रचना के साथ वार्षिकी में उस वक्त के
विज्ञापन भी प्रकाशित किए गए हैं। एक विज्ञापन तो हरियाणा की किसी जड़ी-बूटी बेचने
वाली महिला का भी है।
एक लेख उस वक्त, हिंदी की शुद्धता को लेकर विमर्शनुमा लेख भी
है।
संग्रह में एक
दर्जन कहानियां है, और
कहानियों के चयन में नई और पुरानी दोनों पीढ़ियों को समुचित स्थान देने की कोशिश
की गई है। वार्षिकी के कहानीकारों में ममता कालिया,
मोहम्मद आरिफ, पंकज मित्र, जयश्री रॉय, आकांक्षा पारे जैसे नामों के साथ
अपेक्षया नए नाम भी हैं। जिनमें राजीव आशीष, तराना परवीन
जैसे नामों को जगह दी गई है।
वार्षिकी के
प्रमुख कवियों में विनोद कुमार शुक्ल से लेकर बिष्णु खरे, मंगलेश डबराल, चंद्रकांत
देवताले, (उनका उकेरा चित्र भी अंक में है) अरूण कमल और देवी
प्रसाद मिश्र जैसे स्थापित कवि तो हैं ही, नई पुीढ़ी में
बाबुशा कोहली, लीना मल्होत्रा, यशस्विनी
पांडे, अविनाश मिश्र और रमेश शुक्ल यतींद्र मिश्र जैसे नामों
को भी शामिल किया गया है। अंक में वसीम बरेलवी जैसे मशहूर ग़ज़लग़ो से लेकर शीन
काफ निजाम भी हैं। अन्य कवियो में राजेश रेड्डी, इरशाद कामिल,
प्रसून जोशी और कुमार विश्वास हैं।
आयाम वाले खंड
में अलग तरह के अनुवादक हैं, मिसाल के
तौर पर रामचरित मानस का अंग्रजी में अनुवाद करने वाले फिलिप लुटगिन डोर्फ ने
अनुवाद की प्रक्रिया में अपना अनुभव साझा किया है। एक अन्य ग्रेफ गोल्डिंग ने
मुक्तिबोध की और अनवर जलालपुरी ने गीता के अनुवाद के समय की रचना-वेदना के तजुरबे
बांटे हैं।
विचार वाले खंड
में मशहूर फिल्मकार-साहित्यकार डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने गालियों और अश्लीलता
पर एक शोधपरक लेख लिखा है। वे विस्तार से लिखते हैं कि किसतरह पौराणिक
ग्रंथो में गालियों के संदर्भ हैं पर शालीन, बेबाक हैं और हमारी समृद्ध विरासत का हिस्सा
हैं।
अंक में
वेबसाइट रेख्ता पर भी लेख है कि किस जुनून के साथ स्थापित किया गया है और किस तरह
उसे चलाया जा रहा है।
संस्मरणों वाले
हिस्से में दो इस विधा के स्थापित नाम रामदरश मिश्र और विश्वनाथ त्रिपाठी की
रचनाएं हैं। तीसरा नाम अनिल कुमार यादव का है जो युवाओं में काफी चर्चित हैं और
अपने बोहेमियन मिजाज और तेवर के लिए काफी पसंद किए जाते हैं।
लेकिन साहित्य
वार्षिकी के इस अंक में खास पहलू
है एक चित्रकार का संस्मरण, जो बड़ौत
(मेरठ) के हैं, और अपनी
समलैंगिकता की वजह से उनको बहुत संघर्ष करना पड़ा। काफी प्रताड़ना भी झेलनी पड़ी।
बाद में एक अमेरिकी नागरिक के साथ उन्होंने शादी कर ली। उनकी व्यथा कथा पहली बार
किसी भी मंच पर है।
साहित्य
वार्षिकी में कविताओं पर भी एक बहस है कि आखिर फेसबुक-ट्विटर के दौर में कविताओं के सामने क्या चुनौती है। इस बहस में भी
प्रमुख कवियों ने हिस्सा लिया है। सवाल है कि सोशल मीडिया के विस्तार को चुनौती
समझा जाए या अवसर। इस मुद्दे पर अलग-अलग और बाजिव राय उभरकर सामने आई है।
साहित्य
वार्षिकी का संग्रहणीय हिस्सा है इसका संवाद खंड। जिसमें अपने क्षेत्रों के
प्रतिनिधि व्यक्तित्वों के साथ बातचीत है। जैसे कि बनारस घराने के मशहूर संगीतकार
पं. छन्नू लाल मिश्र के साथ व्योमेश शुक्ल की
बातचीत है। अपने दौर के अग्रणी साहित्यकार केदारनाथ
सिंह के साथ अजित राय की बेबाक बातचीत है। ग़ज़लगो वसीम
बरेलवी के साथ ज्ञानप्रकाश विवेक ने बात की है। चित्रकार मनु पारेख चित्रकार के साथ विनोद भारद्वाज ने बातचीत की है। विनोद
भारद्वाज बड़े कला समीक्षक हैं।
सिनेमा के खंड
में सत्तर के दशक के प्रमुख गीतकार योगेश के साथ नवीन कुमार ने बात की है और योगेश
ने लखनऊ से बंबई पहुंचने के अपने संघर्ष को याद किया है। उन्होंने गायक मुकेश के
अनुछुए-अनजाने के गीतों पर कुछ नई जानकारियां दी हैं।
बता दें कि यह अंक
अभी ‘आजतक’ के लिटरेचर
फेस्टिवल ‘साहित्य आजतक’ में
उपलब्ध है, लेकिन इसके बाद यह अंक हर बुक स्टोर पर मिलेगा।