‘दैनिक भास्कर को यूं ही नहीं मिली कामयाबी, इसके पीछे था रमेशजी का ये त्रिकोणीय संयोग’

मैं उन दिनों पत्रकारिता का ककहरा सीख रहा था। और कहना ना होगा...

Last Modified:
Thursday, 12 April, 2018
Samachar4media

मनोज कुमार

वरिष्ठ पत्रकार व संपादक, समागम पत्रिका ।।

मैं ककहरा सीख रहा थावो प्रिंसीपल थे

मैं उन दिनों पत्रकारिता का ककहरा सीख रहा था। और कहना ना होगा कि रमेशजी इस स्कूल के प्रिंसीपल हो चले थे। यह बात आजकल की नहीं बल्कि 30 बरस पुरानी है। बात है साल 87 की। मई के आखिरी हफ्ते के दिन थे। मैं रायपुर से भोपाल पीटीआई एवं देशबन्धु के संयुक्त तत्वावधान में हो रहे हिंदी पत्रकारिता प्रशिक्षण कार्यशाला में हिस्सेदारी करने के लिए भोपाल आया था। यह वह समय था जब भोपाल कहने भर से यहां आने की ललक जाग उठती थी। भोपाल तब मध्यप्रदेश के साथ साथ छत्तीसगढ़ की भी राजधानी थी। आज जो भौगोलिक बंटवारा दोनों राज्यों के बीच हुआ हैतब दोनों में एका था। ऐसे में रायपुर एक कस्बे की तरह था और राजधानी हमारे लिए सपने की नगरी।

खैररमेशजी आरंभ से मेहमाननवाज थे। सो इस पत्रकारिता प्रशिक्षण में हिस्सेदारी करने आए मुझ जैसे नये-नवेले के साथ वरिष्ठों को उन्होंने रात में भोजन पर आमंत्रित किया। रमेशजी से मेरी यह पहली मुलाकात थी। कुछ बातें हुई लेकिन ऐसी आत्मीयता नहीं बनी कि मैं उनका मुरीद हो जाऊं। मेरी पृष्ठभूमि ऐसी थी कि मालिक और मजदूर (भले ही हम स्वयं को पत्रकार या संपादक कहते हों) के बीच एक महीन सी रेखा खींची रहती थी। हालांकि उनके आत्मीय ना होने के बावजूद मन में कहीं उनके प्रति वैसा ही सम्मान अनजाने में उपजा था जो देशबन्धु के संपादक बड़े भैया ललित सुरजन के लिए या बाबूजी अर्थात मायाराम सुरजन के लिए था। कोई दो घंटे में भोज की औपचारिकता पूरी हुई। कुछ नए लोगों से मिलना-जुलना हुआ और हम सब वापस लौट चलें।

आज 30 वर्ष बाद पीछे पलट कर देखता हूं तो हैरान हूं कि भास्कर क्या तब भी वैसा थाजैसा कि आज हैयह सवाल बेकार का नहीं है क्योंकि जिन दिनों मैंने भास्कर को देखा था तब जलवा अखबारों में नईदुनिया इंदौर और नवभारत ग्रुप का मध्यप्रदेश में और देशबन्धु का छत्तीसगढ़ में हुआ करता था। भास्कर नया नहीं था लेकिन पाठकों में भास्कर का नशा नहीं चढ़ा था। इन तीस सालों में भास्कर सबको पीछे छोड़ते हुए देश का सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला अखबार बन गया। यह कामयाबी यूं नहीं मिली। इसके पीछे मेहनतलगन और आत्मबल का त्रिकोणीय संयोग था और यह त्रिकोणीय संयोग के धनी रमेशजी अग्रवाल थे। लगातार मेहनत और लोगों को परख लेने की उनकी क्षमता ने भास्कर को आज जिस मुकाम पर ला खड़ा किया हैवह सदियों तक एक मिसाल बना रहेगा। रमेशजी उन चुनिंदा लोगों में नहीं थे जो नौकरी करते हुए अखबार का संसार खड़ा किया बल्कि वे मालिक के रूप में ही भास्कर की कमान संभाली। अपने पिता स्वर्गीय द्वारिकाप्रसाद अग्रवाल से कड़ा अनुशासन सीखा और जीवन में उतारा।

थकान तो जैसे रमेशजी की दुश्मन थी। दोनों में कभी बनी नहीं और इसलिए थकान ने अपना दूसरा बसेरा ढूंढ़ लिया था क्योंकि रमेशजी की मेहनत के सामने उसका टिका रहना मुश्किल सा था। यह बात रमेशजी ने अपने जीवन के आखिर वक्त तक बनाये रखा जब वे भोपाल से दिल्ली और दिल्ली से अहमदाबाद बिना आराम किए प्रवास पर हमेशा की तरह रहे।

अनुशासन के पक्के रमेशजी ने यही मंत्र अपने बेटों को दिए। इनमें सुधीरजी ने भास्कर की कमान संभाली। अपने दादाजी और पिताजी से सीखा अनुशासन का पाठ और नए जमाने की तकरीर को जीवन में उतारा। वे लीक से हटकर चलने लगे। भास्कर को अखबार से अखबारी दुनिया का ब्रैंड बना दिया। पिता-पुत्र की समझ और काबिलियत को पूरी दुनिया ने देखा और भास्कर अपने नाम की तरह अपनी रोशनी पूरी दुनिया में बिखेरने में कामयाब हो गया। आज किसी भी परिवार की सुबह घर में भास्कर की किरण और कागज पर उतरे शब्दों के रूप में भास्कर के साथ होती हैइस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। समय की नब्ज को टटोलना ही नहींबल्कि अपने अनुरूप कर लेने में रमेशजी की महारथ थी। वे कोई अवसर नहीं गंवाते थे। यही कारण है कि अपने समय के पुराने सहयोगियों को वे इतना मान देते थे कि आज भी लोग उनके मुरीद हैं। सूचनाओं का संसार उनका इतना व्यापक था कि वे रहें कहीं भी लेकिन उन्हें हर बात की खबर थी कि उनके पीछे क्या हो रहा है। ऐसा नहीं है कि भास्कर की इस कामयाबी में सेंध लगाने की कोशिश नहीं हुई हो लेकिन सेंधमार हमेशा नाकामयाब रहे तो रमेशजी के चौकन्नेपन की वजह से।

उनमें एक और खासियत थी। वे दूसरे अखबार मालिकों की तरह लिखने में कभी रुचि नहीं दिखायी और जहां तक मुझे याद पड़ता है रमेशजी के नाम पर लिखा हुआ कभी कुछ भी नहीं छपा। वे स्वयं इस बात के हामी थे कि वे कुशल प्रबंधक हैं और लिखने के लिए कुशल लेखक हैं। वे इस बात को भी कभी मंजूर नहीं किया करते थे कि लिखे कोई और तथा छपे उनके नाम से। यह उन्हें कदापि मंजूर नहीं था। पत्रकार जगत उनकी इस साफगोई से हमेशा इत्तेफाक रखता रहा। उनकी इस परम्परा का निर्वाह उनके बेटे भी कर रहे हैं। परिवार के किसी भी सदस्य में इस बात की ललक कभी नहीं रही कि किसी का लिखा उनके नाम से छपे। यह गुण रमेश जी और भास्कर की कामयाबी का एक बड़ा सूत्र है। रमेशजी की हमेशा कोशिश होती थी कि गुणी लेखक पत्रकार भास्कर के साथ जुड़े। भौतिक सुख-सुविधाओं का भरपूर सहयोग देते थे। इस बात में वे खरे थे कि भास्कर में निकम्मे और काम से जी चुराने वालों के लिए कभी कोई जगह नहीं बनी। लेकिन कोई गुणी और कामयाब व्यक्ति भास्कर के साथ ना जुड़े तो उन्हें मलाल होता था। ऐसा यदा-कदा हुआ होगा।

रमेशजी के रहते और शायद आगे भी। भास्कर में आपके लिखे पर छपने में कोई दुराभाव नहीं हुआ। मेरा अपना अनुभव है। भास्कर तेजी से बढ़ रहा था। भास्कर में छपना प्रतिष्ठा की बात थी। मैं देशबन्धु से अलग होकर स्वतंत्र पत्रकार के रूप में काम कर रहा था। लोगों से सुन रखा था कि भास्कर में छपना मुश्किल है और इसके लिए आपको जुगाड़ लगाना होता है। आरंभ से जुगाड़ शब्द से मेरा बैर रहा है। मैंने कहा देखेंगे। ठीक लगेगा तो छप जाएगा वरना रद्दी की टोकरी तो है ही। यह तब की बात है जब भास्कर में स्थानीय लेखकों को स्थान दिया जाता था। मेरा यकीन तब और पक्का हो गया जब एक बार नहींलगातार तीन बार मेरा लिखा भास्कर में ज्यों का त्यों छपा। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि उस समय के संपादक और स्वयं रमेशजी मुझे व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते थे क्योंकि तब भी मैं पत्रकारिता का ककहरा सीख रहा थाजैसे की आज भी सीखने की प्रक्रिया में हूं। लेकिन इस पूरे दौर में रमेशजी एक अखबार मालिक से उठकर कामयाबी के सिम्बल बन चुके थे। मैं भास्कर के दरवाजे पर लटके लेटरबाक्स में अपने लेख का लिफाफा छोड़ आता था और अधिकतम तीन दिनों के अंतराल में प्रकाशन होता था।

जिस तरह रमेशजी हमेशा प्रयासरत रहते थे कि अच्छे लेखक पत्रकार भास्कर से जुड़ेंवैसी कामना मेरी भी थी कि भास्कर के साथ जुड़कर मेरा लिखा देश और दुनिया के पाठकों को पढ़ने का अवसर मिले। खैररमेश जी के साथ कभी काम करने का अवसर नहीं मिला। भास्कर में भी मेरी एंट्री नहीं हो पायी। दोस्तों की मोहब्बत कई बार भारी पड़ जाती है। मेरे साथ भी ऐसा हुआ।

एक अवसर आया जब अपरोक्ष रूप से मेरे एक अनुज के प्रयासों से सीनियर एडिटर के रूप में मेरा नाम स्वीकृत कर लिया गया। भोपाल के बाहर से भास्कर में आए एक साथी के साथ मैंने इस बात का जिक्र कर लिया था। इधर मैंने अपनी खुशी उन्हें बयां कि और उधर मैं आज तक भास्कर के फोनकॉल का इंतजार ही करता रह गया। भास्कर के साथ नहीं जुड़ पाने का अफसोस तो रहेगा और इस रंज का जिक्र करने में कोई उज्र नहीं। मैं भास्कर से जुड़ता तो मुझे भास्कर से बहुत कुछ सीखने को मिलता। रमेशजी से अनुशासन और प्रबंधन का गुण सीखता क्योंकि मेरा मानना है कि वही तैराक कामयाबी के शिखर पर पहुंचता है जिसके पास तैर कर निकल जाने के लिए मीटर नहींकिलोमीटर का फासला तय करना होता है। सच यह भी है कि रमेशजीभास्कर और भास्कर की नई पीढ़ी से एकलव्य की तरह सीख रहा हूं कि कामयाबी के लिए एक ही चीज की जरूरत होती है और वह है जिदजिद और जिद। जिद करोदुनिया बदलो।



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