इस वजह से मीडिया संस्थानों की उड़ी नींद, बड़ी ‘सर्जरी’ की तैयारी

नई सरकार के गठन के बाद से मीडिया में बेचैनी है और छोटे-बड़े कई मीडिया संस्थान बड़ी ‘सर्जरी’ की तैयारी...

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Thursday, 24 January, 2019
Last Modified:
Thursday, 24 January, 2019
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नीरज नैयर।।

मध्यप्रदेश में नई सरकार के गठन के बाद से मीडिया में बेचैनी है। छोटे-बड़े कई मीडिया संस्थान बड़ी ‘सर्जरी’ की तैयारी में हैं, जिसका खामियाजा कर्मचारियों को उठाना होगा। मीडिया की इस बेचैनी की वजह है कमलनाथ सरकार का विज्ञापन जारी करने में ‘कंजूसी’ दिखाना। कांग्रेस पहले से ही तत्कालीन शिवराज सरकार को ‘विज्ञापन वाली सरकार’ कहती आई है। विधानसभा चुनाव पूर्व पार्टी ने यह भी साफ़ किया था कि यदि वो सत्ता में आती है  तो विज्ञापनों के नाम पर होने वाली पैसों की बर्बादी पर अंकुश लगाया जायेगा और विज्ञापनों की राशि विकास कार्यों में इस्तेमाल होगी और ऐसा बाकायदा हो भी रहा है।

हालांकि, विकास का तो नहीं पता लेकिन सरकार ने विज्ञापन खर्च में कटौती ज़रूर की है। पिछले एक महीने में सरकार की तरफ से केवल एक या दो विज्ञापन ही जारी किये गए हैं और वो भी केवल चुनिंदा एडिशन के लिए। ऑल एडिशन विज्ञापन अब तक किसी भी अख़बार को नहीं मिला है। यही कारण है कि मीडिया संस्थानों को भविष्य की चिंता सता रही है और वे आय एवं खर्चों के बीच की खाई पाटने के लिए बड़े पैमाने पर ‘सर्जरी’ की तैयारी में हैं।

कमलनाथ ने पिछले साल 18 दिसंबर को मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण की और 25 दिसंबर को ही यह साफ़ हो गया कि मध्य प्रदेश के मीडिया संस्थानों के लिए आने वाला समय मुश्किल भरा होगा। दरअसल, भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी के जन्म दिवस यानी 25 दिसंबर को सुशासन दिवस के रूप मनाया जाता है। इस दिवस को पहली बार 2014 में मनाया गया था। तभी से केंद्र और राज्य सरकार ‘सुशासन दिवस’ के उपलक्ष्य में विज्ञापन जारी करती आ रहीं हैं। तत्कालीन शिवराज सरकार की तरफ से बड़े पैमाने पर विज्ञापन दिए जाते थे, लेकिन कमलनाथ के कुर्सी संभालते ही इस अघोषित परंपरा पर ब्रेक लग गया। पिछले चार सालों के इतिहास में मध्य प्रदेश के मीडिया संस्थानों को पहली बार ‘सुशासन दिवस’ का विज्ञापन नसीब नहीं हुआ।

प्रदेश में विज्ञापन की आस रखने वालों में केवल बड़े मीडिया हाउस ही नहीं हैं, बल्कि यहां बड़े पैमाने पर छोटे पाक्षिक, दैनिक अख़बार और न्यूज़ वेबसाइट भी सक्रिय हैं। वेबसाइट का आलम ये है कि ज़्यादातर बड़े पत्रकार या उनसे जुड़े लोगों की वेबसाइट चल रही हैं, जिन पर पिछली सरकार के कार्यकाल में अच्छे-खासे विज्ञापन आ जाया करते थे। 2016 में जब 234 फर्जी वेबसाइट को करोड़ों के विज्ञापन देने का खुलासा हुआ था, तब यह बात सामने आई थी कि ज्यादातर वेबसाइट पत्रकारों के रिश्तेदार संचालित कर रहे थे, जिनका पत्रकारिता से कोई नाता नहीं था। इनमें भी 26 वेबसाइट को 10 लाख से ज्यादा की रकम के विज्ञापन दिए गए थे। खास बात यह थी कि कई वेबसाइट अलग-अलग नामों से तो चल रही थीं, लेकिन उनकी सामग्री एक समान थी। इतना ही नहीं, फाइल कॉपी छपने वालों अखबारों तक को विज्ञापन की कमी नहीं होती थी, लेकिन अब स्थिति पूरी तरह बदल गई है। ऐसे छोटे अख़बारों-न्यूज़ वेबसाइट का अस्तित्व तो खतरे में है ही, बड़े संस्थान भी अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। कहा जा रहा है कि एक अंग्रेजी अख़बार को बंद करने के पीछे यह भी एक बड़ा कारण है।

विज्ञापन के अभाव में होने वाली ‘सर्जरी’ को लेकर पत्रकारों में भी भय का माहौल है। बताया जा रहा है कि लगभग सभी बड़े अख़बारों ने खर्चों में कटौती के नाम पर कर्मचारियों की छंटनी की जा सकती है। राजधानी भोपाल से संचालित एक बड़े संस्थान ने तो इसका पूरा खाका भी तैयार कर लिया है। कर्मचारियों के सामने समस्या यह है कि वो ऐसे माहौल में किसी दूसरे संस्थान का रुख भी नहीं कर सकते, अलबत्ता तो उन्हें अभी मौका मिलेगा नहीं और यदि मिल भी गया तो नई पारी कितने दिनों तक चलेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। कुल मिलकर कहा जाये तो मध्यप्रदेश में हुए सत्ता परिवर्तन ने मीडिया संस्थानों की नींद उड़ा दी है। आने वाले समय में भी यदि कमलनाथ सरकार ने विज्ञापनों को लेकर लचीला रुख नहीं अपनाया, तो कई मीडिया संस्थानों में कार्यरत पत्रकारों को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

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