क्या आपने सुनी है रवीश कुमार की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में दी ये स्पीच...

एनडीटीवी संमूह के हिंदी न्यूज चैनल 'एनडीटीवी इंडिया' का प्रमुख चेहरा बन चुके वरिष्ठ ...

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Tuesday, 13 February, 2018
Last Modified:
Tuesday, 13 February, 2018
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समाचार4मी‍डिया ब्यूरो ।।


एनडीटीवी संमूह के हिंदी न्यूज चैनल 'एनडीटीवी इंडिया' का प्रमुख चेहरा बन चुके वरिष्ठ टीवी पत्रकार रवीश कुमार ने शनिवार को हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम में शिरकत की। ‘इंडिया कॉन्‍फ्रेंस 2018’ में हिस्‍सा लेने पहुंचे रवीश कुमार ने हिन्‍दी में दी गई स्‍पीच में देश के वर्तमान हालात से लेकर छात्रों से जुड़े विषयों पर भी अपनी बात रखी। यह स्‍पीच सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रही है। कुछ लोग इसे शानदार बता रहे हैं, वहीं कुछ लोग उन पर निशाना भी साध रहे हैं। एनडीटीवी खबर डॉट कॉम में प्रकाशित उनकी इस स्‍पीच को आप यहां हूबहू शेयर कर रहे हैं...


आप सभी का शुक्रिया। इतनी दूर से बुलाया वो भी सुनने के लिए जब कोई किसी की नहीं सुन रहा है। इंटरव्यू की विश्वसनीयता इतनी गिर चुकी है कि अब सिर्फ स्पीच और स्टैंडअप कॉमेडी का ही सहारा रह गया है। सवालों के जवाब नहीं हैं बल्कि नेता जी के आशीर्वचन रह गए हैं। भारत में दो तरह की सरकारें हैं। एक गवर्नमेंट ऑफ इंडिया। दूसरी गवर्नमेंट ऑफ मीडिया। मैं यहां गवर्नमेंट ऑफ मीडिया तक ही सीमित रहूंगा ताकि किसी को बुरा न लगे कि मैंने विदेश में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया के बारे में कुछ कह दिया। यह आप पर निर्भर करता है कि मुझे सुनते हुए आप मीडिया और इंडिया में कितना फ़र्क कर पाते हैं।


एक को जनता ने चुना है और दूसरे ने ख़ुद को सरकार के लिए चुन लिया है। एक का चुनाव वोट से हुआ है और एक का रेटिंग से होता रहता है। यहां अमरीका में मीडिया है भारत में गोदी मीडिया है। मैं एक-एक उदाहरण देकर अपना भाषण लंबा नहीं करना चाहता और न ही आपको शर्मिंदा करने का मेरा कोई इरादा है। गवर्नमेंट ऑफ मीडिया में बहुत कुछ अच्छा है। जैसे मौसम का समाचार। एक्सिडेंट की ख़बरें। सायना और सिंधु का जीतना,  दंगल का सुपरहिट होना। ऐसा नहीं है कि कुछ भी अच्छा नहीं है। चपरासी के 14 पदों के लिए लाखों नौजवान लाइन में खड़े हैं कौन कहता है उम्मीद नहीं है। कॉलेजों में छह-छह साल में बीए करने वाले लाखों नौजवान इंतज़ार कर रहे हैंकौन कहता है कि उम्मीद नहीं बची है। उम्मीद ही तो बची हुई है कि उसके पीछे ये नौजवान बचे हुए हैं।

एक डरा हुआ पत्रकार लोकतंत्र में मरा हुआ नागरिक पैदा करता है। एक डरा हुआ पत्रकार आपका हीरो बन जाएइसका मतलब आपने डर को अपना घर दे दिया है। इस वक्त भारत के लोकतंत्र को भारत के मीडिया से ख़तरा है। भारत का टीवी मीडिया लोकतंत्र के ख़िलाफ़ हो गया है। भारत का प्रिंट मीडिया चुपचाप उस क़त्ल में शामिल है जिसमें बहता हुआ ख़ून तो नहीं दिखता हैमगर इधर-उधर कोने में छापी जा रही कुछ काम की ख़बरों में क़त्ल की आह सुनाई दे जाती है।


सीबीआई कोर्ट के जज बीएच लोया की मौत इस बात का प्रमाण है कि भारत का मीडिया किसके साथ है। ‘कैरवान’ पत्रिका की रिपोर्ट आने के बाद दिल्ली के एंकर आसमान की तरफ देखने लगे और हवाओं में नमी की मात्रा वाली ख़बरें पढ़ने लगे थे। यहां तक कि इस डर का शिकार विपक्षी पार्टियां भी हो गईं हैं। उनके नेताओं को बड़ी देर बाद हिम्मत आई कि जज लोया की मौत के सवालों की जांच की मांग की जाए। जब हिम्मत आई तब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की बेंच जज लोया के मामले की सुनवाई कर रही थी। इसके बाद भी कांग्रेस पार्टी ने जब जज लोया से संबंधित पूर्व जजों की मौत पर सवाल उठाया तो उसे दिल्ली के अख़बारों ने नहीं छापाचैनलों ने नहीं दिखाया।


ऐसा नहीं है कि गवर्नमेंट ऑफ मीडिया सवाल करना भूल गई। उसने राहुल गांधी के स्टार वार्स देखने पर कितना बड़ा सवाल किया था। आप कह सकते हैं कि गवर्नमेंट ऑफ इंडिया चाहती है कि विपक्ष का नेता सीरीयस रहे। लेकिन जब वह नेता सीरीयस होकर जज लोया को लेकर प्रेस कांफ्रेंस कर देता है तो मीडिया अपना सीरीयसनेस भूल जाता है। दोस्तों याद रखना मैं गवर्नमेंट ऑफ मीडिया की बात कर रहा हूंविदेश में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया की बात नहीं कर रहा हूं।


मीडिया में क्या कोई ख़ुद से डर गया है या किसी के डराने से डर गया हैयह एक खुला प्रश्न है। डर का डीएनए से कोई लेना-देना नहीं हैकोई भी डर सकता हैख़ासकर फर्ज़ी केस में फंसाना और कई साल तक मुकदमों को लटकाना जहां आसान होवहां डर सिस्टम का पार्ट है। डर नेचुरल है। गांधी ने जेल जाकर हमें जेल के डर से आज़ाद करा दिया। ग़ुलाम भारत के ग़रीब से ग़रीब और अनपढ़ से अनपढ़ लोग जेल के डर से आज़ाद हो गए। 2जी में दो लाख करोड़ का घोटाला हुआ थामगर जब इसके आरोपी बरी हो गए तो वो जनाब आज तक नहीं बोल पाए हैं। जिनकी किताब का नाम है NOT JUST AN ACCOUNTANT, THE DIARY OF NATIONS CONSCIENCE KEEPER जब 2जी के आरोपी बरी हुएसीबीआई सबूत पेश नहीं कर पाई तब मैंने पहली बार देखाकिसी किताब को कवर को छिपते हुए। आपने देखा है ऐसा होते हुए। लगता है कि किताब कह रही है कि ये बात सही निकली कि ये सिर्फ एकाउंटेंट नहीं हैंमगर ये बात झूठ है कि वे नेशंस के कांशिएंस कीपर हैं।


एक डरा हुआ मीडिया जब सुपर पावर इंडिया का हेडलाइन लगाता है तब मुझे उस पावर से डर लगता है। मैं चाहता हूं कि विश्व गुरु बनने से पहले कम से कम उन कॉलेजों में गुरु पहुंच जाएंजहां 8500 लड़कियां पढ़ती हैं मगर पढ़ाने के लिए 9 टीचर हैं। फिर आप कहेंगे कि क्या कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है। क्या यह अच्छा नहीं है कि बिना टीचर के भी हमारी लड़कियां बीए पास कर जा रही हैं। क्या आप ऐसा हावर्ड में करके दिखा सकते हैंकैंब्रिज में दिखा सकते हैंआक्सफोर्ड में दिखा सकते हैंक्या आप येल और कोलंबिया में ऐसा करके दिखा सकते हैं?


मीडिया ने इंडिया के बेसिक क्वेश्चन को छोड़ दिया है। इसलिए मैंने कहा कि इतनी दूर से आकर मैं गवर्नमेंट ऑफ मीडिया की बात करूंगा ताकि आपको न लगे कि मैं गवर्नमेंट ऑफ इंडिया की बात कर रहा हूं। मैं इंडिया की नहीं मीडिया की आलोचना कर रहा हूं। आप और में कंफ्यूज़ मत कर जाना।


एक ही मालिक के दो चैनल हैं। एक ही चैनल में दो एंकर हैं। एक सांप्रदायिकता फैला रहा हैएक किसानों की बात कर रहा है। एक झूठ फैला रहा हैएक टूटी सड़कों की बात कर रहा है। सवालहम जैसे सवाल करने वाले से हैजवाब हम जैसों के पास नहीं है। आप उनसे पूछिए जो आप तक मीडिया को लेकर आते हैंजो आप तक इंडिया लेकर आते हैं। फेक न्यूज़ आज ऑफिशियल न्यूज़ है। न्यूज़ रूम में रिपोर्टर समाप्त हो चुके हैं। रिपोर्टर का इस्तेमाल हत्यारे के रूप में होता है। एक चैनल में एक सांसद के पीछ चार पांच रिपोर्टर एक साथ भेज दिए। देखने से लगा कि सारा मीडिया उसके पीछे पड़ा है। यह नया दौर है। डरा हुआ मीडिया अपने कैमरों से आपको डराने निकला है।


चैनलों पर सांप्रदायिकता भड़काने वाले एंकरों को जगह मिल रही है। इन एंकरों के पास सरकार के लिए कोई सवाल नहीं हैसिर्फ एक ही क्वेश्चन सबके पास है। इस सवाल का नाम है हिन्दू मुस्लिम क्वेश्चन, HMQ भारत के न्यूज़ एंकर राष्ट्रवाद की आड़ में सांप्रदायिक हो चुके हैं। इस हद तक कि जब उदयपुर में नौजवान भगवा झंडा लेकर अदालत की छत पर चढ़ जाते हैं तो एंकर चुप हो गए हैं। क्या हम ऐसा भारत चाहते थे चाहते हैं अदालत जिस संविधान के तहत हैउसी संविधान की एक धारा से मीडिया अपनी आज़ादी का चरणामृत ग्रहण करता है। चरणामृत तो समझते होंगे। गवर्नमेंट ऑफ मीडिया के पास एक ही एजेंडा है। हिन्दू मुस्लिम क्वेश्चन। इससे जुड़े फेक न्यूज़ की इतनी भरमार है कि आप आल्ट न्यूज़ डॉट इन पर पढ़ सकते हैं। अब तो फेक न्यूज़ दूसरी तरफ़ से बनने लगे हैं।


My dear friends, believe me, Media is trying to murder our hard earned democracy, Our Media is a murderer यह समाज में ऐसा असंतुलन पैदा कर रहा है अपनी बहसों के ज़रिए ऐसा ज़हर बो रहा है जिससे हमारे लोकतंत्र के भीतर भय का माहौल बना रहे। जिससे एक भीड़ कभी भी कहीं भी ट्रिगर हो जाती है और आपको ओवरपावर कर देती है। आप कहेंगे कि क्या इतना बुरा है कुछ भी अच्छा नहीं है। मुझे पता है कि आपको बीच-बीच में पॉज़िटिव अच्छा लगता है। एक पोज़िटिव बताता हूं। भारत का लोकतंत्र मीडिया के झुक जाने से नहीं झुक जाता है। वह मीडिया के मिट जाने से नहीं मिट जाएगा। वह न तो आपातकाल में झुका न वह गोदी मीडिया के काल में झुकेगा। भारत का लोकतंत्र हमारी आत्मा है। हमारा ज़मीर है। आत्मा अमर है। आप गीता पढ़ सकते हैं। मैं गवर्नमेंट ऑफ मीडिया की बात कर रहा हूं।


आपकी तरह मैं भी भारत को लेकर सपने देखता हूं। मगर जागते हुए। सामने की हकीकत ही मेरे लिए सपना है। मैं एक ऐसे भारत का सपना देखता हूं जो हकीकत का सामना कर सके। सोचिए ज़रा हम आज कल अतीत के सवालों मे क्यों उलझे हैं। अगर इन सवालों का सामना ही करना है तो क्या हम ठीक से कर रहे हैंक्या इन सवालों का सामना करने की जगह टीवी का स्टुडियो हैया क्लासरूम हैकांफ्रेंस रूम हैंऔर सामना हम किस तरह से करेंगेक्या हम आज हिसाब करेंगेक्या हम आज क़त्लेआम करेंगेतो क्या आप अपने घर से एक हत्यारा देने के लिए तैयार हैंनफ़रत की यह आंधी हर घर में एक हत्यारा पैदा कर जाएगीवो आपका भाई हो सकता हैबेटा हो सकता हैदोस्त हो सकता हैपड़ोसी हो सकता हैक्या आपने मन बना लिया हैक्या हमने सीखा है कि इतिहास का सामना कैसे किया जाएहम क्लास रूम में नहींसड़क और टीवी स्टुडियो में इतिहास का हिसाब करने निकले हैं। नेहरू को मुसलमान बना देने से या अकबर को पराजित बना देने से आप इतिहास नहीं बदल देतेइतिहास जब शिक्षा मंत्री के आदेश से बदलने लगे तो समझिए कि वह मंत्री केमिस्ट्री का भी अच्छा विद्यार्थी नहीं रहा होगा। क्या आप यहां हार्वर्ड में बैठकर इस बात को स्वीकार कर सकते हैं कि इतिहास के क्लास रूम में कोई मंत्री आकर इतिहास बदल दे। प्रोफेसर के हाथ से किताब लेकरअपनी किताब पढ़ने के लिए दे दे। क्या आप बर्दाश्त करेंगेजब आप खुद के लिए यह बर्दाश्त नहीं कर सकते तो भारत के लिए कैसे कर सकते हैं?


ज़रूर इतिहास में नई बहस चलनी चाहिएनए शोध होने चाहिए। लेकिन हम वैसा कर रहे हैं। एक फिल्म पर हमने तीन महीने बहस की है। इतनी बहस हमने भारत की ग़रीबी पर नहीं कीभारत की संभावनाओं पर नहीं कीहमने तीन महीने एक फिल्म पर बहस की। तलवारें लेकर लोग स्टुडियो में आ गएअब किसी दिन बंदूकें लेकर आएंगे।

महाराणा की हार के बाद भी लोगों ने महान विजेता के रूप में स्वीकार किया था। उनकी वीरता की गाथा पर उस हार का कोई असर ही नहीं थाजिसे एक शिक्षा मंत्री ने अपनी ताकत से बदलने की कोशिश की। लोक श्रुतियों में अपराजेय महाराणा के लिए किताबों में बड़ी हार है। मुझे नहीं लगता कि महाराणा प्रताप जैसे बहादुर क़ाग़ज़ पर हार की जगह जीत लिख देने से खुश होते। जो वीर होता है वो हार को भी गले लगाता है। पर यह सही है कि पब्लिक में इतिहास को लेकर वैसी समझ नहीं है जैसी क्लास रूम में है। क्लास रूम में भी भारी असामनता है। इतिहास के लाखों छात्रों को अच्छी किताबें नहीं मिलींशिक्षक नहीं मिले इसलिए सबने किताब की जगह कूड़ा उठा लिया। कूड़े को इतिहास समझ लिया। हम आज भी इतिहास को गौरव गान और गौरव भाव के बिना नहीं समझ पाते हैं। सोने की चिड़िया था हमारा देश। विश्व गुरु था देश। ये सब विशेषण हैंइतिहास नहीं है। SUPERLATIVES CANT BE HISTORY


वैसे इस तीन महीने में भारत मे जितने इतिहासकार पैदा हुए हैंउतने ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज अपने कई सौ साल के इतिहास में पैदा नहीं कर पाए होंगे। भारत में आप बस जलाकरपोस्टर फाड़कर इतिहासकार बन सकते हैं। किसी फिल्म का प्रदर्शन रुकवा कर आप इतिहासकार बन सकते हैं। तीन साल में हमने जिनते इतिहासकार पैदा किए हैंउनके लिए अब हमारे पास उतनी यूनिवर्सटी भी नहीं हैं।


अंग्रेज़ों की कल्पना थी कि भारत के इतिहास को हिन्दू इतिहास मुस्लिम इतिहास में बदल दो। आज बहुत से लोग अंग्रेज़ी हुकूमत की सोच को पूरा कर रहे हैं। वो वापस इतिहास को हिन्दू बनाम मुसलमान के खांचे में ले जा रहे हैं। वर्तमान पर पर्दा डालने के लिए इतिहास से वैसे मुद्दे लाए जा रहे हैं जिनके ज़रिए नागरिक कामतदाता का धार्मिक पहचान बनाई जा सके। हम क्यों अपनी भारतीयता कभी अनेकता में एकता में खोजते खोजतेधार्मिक एकरूपता में खोजने लगते हैंहम संविधान से अपनी पहचान क्यों नहीं हासिल करतेजिसके लिए हमने सौ साल की लड़ाई लड़ी। दिन रात बहस किएलाखों लोग जेल गए।


अगर बहुतों को लगता है कि इस सवाल पर बहस होनी चाहिए तो क्या हम सही तरीके से अपने सवाल रख रहे हैंबहस कर रहे हैंक्या उसका मंच अख़बार तक न पढ़ने वाले ये एंकर होंगे। आख़िर क्यों बहुसंख्यक धर्म इतिहास के किरदारों पर धार्मिक व्याख्या थोपना चाहता हैकभी मीडिया के स्पेस में हमारी भारतीयता मिले सुर मेरा तुम्हारा से बनती थीआज हमारा सुर हमारातुम्हारा सुर तुम्हारा या तुम्हारा सुर कुछ नहींहमारा ही सुर तुम्हारा।


हम भारतीयों का भारतीय होने का बोध और इतिहास बोध दोनों संकट से गुज़र रहा है। हमें एक खंडित नागरिकता के बोध के साथ तैयार किए जा रहे हैं। जिसके भीतर फेक न्यूज़ और फेक हिस्ट्री के ज़रिए ऐसी पोलिटिकिल प्रोग्रामिंग की जा रही है कि किसी भी शहर में छोटे छोटे समूह में लोगों को ट्रिगर किया जा सकता है। क्या आप इतिहास का बदला ले सकते हैं तो फिर आप न्याय की मूल अवधारणा के खिलाफ जा रहे हैं जो कहता है कि खून का बदला खून नहीं होता है। अगर हम खून का बदला खून की अवधारणा पर जाएंगे तो हमारे चारों तरफ हिंसा ही हिंसा होगी।


इस समय भारत में दो तरह के पोलिटिकल आइडेंटिटि हैं। एक जो धार्मिक आक्रामकता से लैस है और दूसरा तो धार्मिक आत्मविश्वास खो चुका है। एक डराने वाला है और डरा हुआ है। यह असंतुलन आने वाले समय में हमारे सामने कई चुनौतियां लाने वाला हैं जिन्हें हम ख़ूब पहचानते हैं। हमने इसके नतीजे देखे हैंभुगते भी हैं। अलग-अलग समय पर अलग-अलग समुदायों ने भुगते हैं। हमारी स्मृतियों से पुराने ज़ख़्म मिटते भी नहीं कि हम नए ज़ख़्म ले आते हैं।


जैसे हिन्दुस्तान एक टू इन वन देश है। जिसे हमारी सरकारी ज़ुबान में इंडिया और भारत के रूप में पहचान मिल चुकी है। उसी तरह हमारी पहचान धर्म और जाति के टू इन वन पर आधारित है। आप इन जाति संगठनों की तरफ से भारत को देखिएआप उसका चेहरा सबके सामने देख नहीं पाएंगे। आप जाति का चेहरा चुपके से घर जाकर देखते हैं। हमने जाति को ख़त्म नहीं किया। हमने आज़ाद भारत में नई नई CAST COLONIES बनाई हैं। ये CAST COLONIES CONCRETE की हैं। इसके मुखिया उस आधुनिक भारत में पैदा हुए लोग हैं। पूछिए खुद से कि आज क्यों समाज में ये जाति कोलोनी बन रही हैं।


आज का मतलब 2018 नहीं और न ही 2014 है। हम भारत का गौरव करते हैंधर्म का गौरव करते हैंजाति का गौरव करते हैं। हम अपने भीतर हर तरह की क्रूरता को बचाते रहना चाहते हैं। क्या जाति वाकई गौरव करने की चीज़ हैइस सवाल का जवाब अगर हां है तो हम संविधान के साथ धोखा कर रहे हैंअपने राष्ट्रीय आंदोलन की भावना के साथ धोखा कर रहे हैं। टीम इंडिया का राजनीतिक स्लोगन कास्ट इंडियारीलीजन इंडिया में बदल चुका है।

आंध्र प्रदेश में ब्राह्ण जाति की एक कोपरेटिव सोसायटी बनी है। इसका मिशन है ब्राह्मणों की विरासत को दोबारा से जीवित करना और उसे आगे बढ़ाना। ब्राह्मणों की विरासत क्या हैराजपूतों की विरासत क्या हैतो फिर दलितों की विरासत भीमा कोरेगांव से क्या दिक्कत हैफिर मुग़लों की विरासत से क्या दिक्कत है जहां इज़राइल के राष्ट्र प्रमुख भी अपनी पत्नी के साथ दो पल गुज़ारना चाहते हैं। आप इस सोसायटी की वेबसाइट http://wwwapbrahmincoopcom पर जाइये। मुख्यमंत्री चंद्रा बाबू नायडू इसकी पत्रिका लांच कर रहे हैं क्योंकि इस सोसायटी का मुखिया उनकी पार्टी का सदस्य है।


इस सोसायटी के लक्ष्य वहीं हैं जो एक सरकार के होने चाहिए। जो हमारी आर्थिक नीतियों के होने चाहिए। क्या हमारी नीतियां इस कदर फेल रही हैं कि अब हम अपनी अपनी जातियों का कोपरेटिव बनाने लगे हैं। इसका लक्ष्य है ग़रीब ब्राह्मण जातियों का सेल्फ हेल्फ ग्रुप बनानाउन्हें बिजनेस करनेगाड़ी खरीदने का लोन देना। इसके सदस्य सिर्फ ब्राह्मण समुदाय से हो सकते हैं। आईएएस हैं,पेशेवर लोग हैं। इसके चेयमैन आनंद सूर्या भी ब्राह्मण हैं। अपना परिचय में खुद को ट्रेड यूनियन नेता और बिजनेसमैन लिखते हैं। दुनिया में बिजनैस मैन शायद ही ट्रेड यूनियन नेता बनते हैं। वे बीजेपीभारतीय मज़दूर संघजनता दलसमाजवादी जनता पार्टीजनता दल सेकुलर में रह चुके हैं। जहां उन्होंने सीखा है कि ब्राह्ण समुदाय को नैतिक और राजनीतिक समर्थन कैसे देना है। हमें पता ही नहीं था समाजवादी पार्टी में लोग ये सब भी सीखते हैं। 2003 से वे टीडीपी में हैं।


यह अकेला ऐसा संस्थान नहीं है। विदेशों में भी और भारत में भी ऐसे अनेक जातिगत संगठन कायम हैं। इनके अध्यक्षों की राजनीतिक हैसियत किसी नेता से अधिक है। इस स्पेस के बाहर बिना इस तरह की पहचान के लिए नेता बनना असंभव है। बंगलुरू में तो 2013 में सिर्फ ब्राह्मणों के लिए वैदिक सोसायटी बननी शुरू हो गई थी। सोचिए एक टाउनशिप है सिर्फ ब्राह्मणों का। ये एक्सक्लूज़न हमें कहां ले जाएगाक्या यह एक तरह का घेटो नहीं है। 2700 घर ब्राहमणों के अलग से होंगे। ये तो फिर से गांवों वाला सिस्टम हो जाएगा। ब्राह्मणों का अलग से। क्या यह घेटो नहीं है?


आज़ाद भारत में यह क्यों हुआअस्सी के दशक में जब हाउसिंग सोसायटी का विस्तार हुआ तो उसे जाति और खास पेशे के आधार पर बसाया गया। दिल्ली में पटपड़गंज हैवहां पर जातिपेशा,इलाका और राज्य के हिसाब से कई हाउसिंग सोसायटी आपको मिलेगी। तो फिर हम संविधान के आधार पर भारतीय कैसे बन रहे थे। क्या बिना जाति के समर्थन के हम भारतीय नहीं हो सकते।


जयपुर के विद्यानगर में जातियों के अलग अलग हॉस्टल बने हैं। श्री राजपूत सभा ने अपनी जाति के लड़कों के लिए हॉस्टल बनाए हैं। लड़कियों के भी हैं। यादवों के भी अलग हॉस्टल हैं। मीणा जाति के भी अलग छात्रावास हैं। ब्राह्मण जाति के भी अलग हॉस्टल हैं। अब आप बतायेंइन हॉस्टल से निकल जो भी आगे जाएगा वो अपने भीतर किसकी पहचान को आगे रखेगा। क्या उसकी पहचान का संविधान आधारित भारतीयता से टकराव नहीं होगाखटिक छात्रावस भी है जो सरकार ने बनाए हैं। क्यों राज्य सरकारों को दलितों के लिए अलग से हॉस्टल बनाने की ज़रूरत पड़ीक्या हमारी जातियों के ऊंचे तबके ने संविधान के आधार पर भारत को अभी तक स्वीकार नहीं किया हैक्या वह संविधान आधारित नागरिकता को पसंद नहीं करता हैक्या जातियों को कोई ऐसा समूह है जो धर्म के सहारे अपना वर्चस्व फिर से हासिल करना चाहता हैक्या कोई ऐसा भी समूह है जो अब पहले से कई गुना ज़्यादा ताकत से इस वर्चस्व को चुनौती दे रहा है?


भारत की राजनीति की तरह मीडिया भी इन्हीं कास्ट कॉलोनी से आता है। उसके संपादक भी इसी कास्ट कालोनी से आते हैं। उन्हें पब्लिक में जाति की पहचान ठीक नहीं लगती मगर उन्हें धर्म की पहचान ठीक लगती है। इसलिए वे धर्म की पहचान के ज़रिए जाति की पहचान ठेल रहे हैं। यह काम वही कर सकता है जो लोकतंत्र में यकीन नहीं रखता हो क्योंकि जाति लोकतंत्र के ख़िलाफ़ है। गवर्नमेंट ऑफ मीडिया में सब कुछ ठीक नहीं है। पोज़िटिव यही है कि लोकतंत्र के ख़िलाफ़ यह पूरी आज़ादी से बोल रहा है। भाईचारे के ख़िलाफ़ पूरी आज़ादी से बोल रहा है। हमारी गवर्नमेंट ऑफ मीडिया आज़ाद है। पहले से कहीं आज़ाद है। इसी पोज़िटिव नोट पर मैं अपना भाषण समाप्त कर रहा हूं।

कुल मिलाकर हम यथास्थिति को प्रमोट कर रहे हैं। धर्म के गौरव को हम राष्ट्र बता रहे हैं। आप चाहें तो डार्विन को रिजेक्ट कर सकते हैं। आप चाहें तो गणेश पूजा को ही मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई घोषित कर सकते हैं।

अगर आप ये स्पीच रवीश कुमार से सुनना चाहते हैं, तो नीचे विडियो लिंक पर क्लिक कीजिए.



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