लम्बे वक्त से लालकृष्ण आडवाणी ब्लॉग भी नहीं लिख रहे हैं...
समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
लम्बे वक्त से लालकृष्ण आडवाणी ब्लॉग भी नहीं लिख रहे हैं, लेकिन उन्हें फिर से एक
लेख लिखने को मजबूर होना पड़ा। मौका था उनके पुराने अखबार ‘ऑर्गनाइजर’ के 70 साल पूरे होने का। इस लेख में जहां उन्होंने अपने ऑर्गनाइजर और
पत्रकारिता के दिनों की यादें ताजा की हैं, वहीं एक नई बात
का भी खुलासा है। ये खुलासा भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्रीजी से
सम्बंधित है। आडवाणी ने अपने लेख में लिखा है कि शास्त्रीजी अक्सर उस दौर के
सरसंघचालक गुरु गोलवलकर को बुलाकर मंत्रणा किया करते थे, ये
एक ऐसी बात है जिसके बारे में लोगों को पता नहीं है।
आडवाणीजी का ये लेख संघ के मुख पत्र अंग्रेजी अखबार ‘ऑर्गनाइजर’ के स्पेशल एडिशन में छपा है, आडवाणी इस अखबार के संपादक
रह चुके हैं। इस साल ऑर्गनाइजर अपनी स्थापना के 70 साल पूरे कर रहा है। इस मौके पर
ऑर्गनाइजर और हिंदी अखबार पांचजन्य ने विशेषांक भी निकाले, जिनका
विमोचन केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी और संघ प्रचार प्रमुख मनमोहन
वैद्य ने किया था। आडवाणी ने इसी स्पेशल एडिशन के लिए ये लेख लिखा है, जिसमे अपनी पत्रकारिता के दिनों की यादें ताजा की हैं।
आडवाणी जी के मुताबिक, ‘नेहरूजी की तरह शास्त्रीजी भी पक्के कांग्रेसी
थे, लेकिन कभी भी संघ या जनसंघ को लेकर नकारात्मकता का भाव
उनके अंदर नहीं था। जब वो प्रधानमंत्री थे, तो अक्सर
राष्ट्रीय मुद्दों पर उस वक्त के सर संघचालक गुरु गोलवलकर को सलाह के लिए बुलाया
करते थे।’ आडवाणीजी के मुताबिक कि बतौर ऑर्गनाइजर
संवाददाता उन्होंने कई बार शास्त्रीजी से मुलाकात की, वो
लिखते हैं, ‘हर बार वो छोटे कद लेकिन बड़े दिल का मालिक
एक पॉजिटिव एटिट्यूड से मिलता था।’
उन्होंने ये भी बताया कि वो संघ से जुड़ने के बाद धोती और कुर्ता
पहनने लगे थे, लेकिन
ऑफिस के साथियों ने कहा कि ये तो नेताओं की ड्रेस है, पत्रकारों
की नहीं। तो उनके मुताबिक उन्होंने फिर से ट्राउजर्स पहनना शुरू कर दिया था।
आडवाणी के फिल्म प्रेम के बारे में तो सब जानते ही हैं, उन्होंने
लिखा है कि राजनीतिक खबरों से फुरसत मिलते ही वो मैगजीन में फिल्मों के बारे में
भी लिखने लगे थे, फिल्म रिव्यू भी करते थे।
मोरारजी देसाई सरकार में जहां अटलजी को विदेश मंत्रालय दिया गया तो आडवाणी
को सूचना प्रसारण मंत्रालय दिया गया। आडवाणी ने अपनी ऑटोबायोग्राफी ‘माई कंट्री माई लाइफ’ में अपने पत्रकारिता के दिनों के बारे में लिखा है, वो संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइजर से ही प्रमुख तौर पर जुड़े रहे, तो चैप्टर का नाम भी ‘द ऑर्गेनाइजर ईयर्स’ ही रखा है।
इसमें उन्होंने लिखा है कि ‘मां की मौत तो बहुत जल्द ही हो गई थी, कराची से माइग्रेशन के बाद पापा कांदला के निकट आदीपुर में सिंधु
रिसैटलमेंट कॉरपोरेशन में तैनात थे और मैं पहले बतौर प्रचारक राजस्थान, फिर दिल्ली में संघ का काम करता रहा। पिताजी रिटायर होने वाले थे, उनके साथ साथ एक कजिन की जिम्मेदारी थी मेरे ऊपर, तो मैंने अपनी चिंता दीनदयाल जी के साथ शेयर की। दीनदयाल जी ने कहा कि
तुम्हें तो लिखने का काफी शौक है, क्यों नहीं ऑर्गेनाइजर में
जॉब कर लेते? वो भी तो संगठन का काम है। उस जनरल को भी
तुम्हारे जैसे व्यक्ति की जरूरत है। तब मैं 1960 में ऑर्गनाइजर में बतौर असिस्टेंट
एडिटर जुड़ गया।’
वो आगे लिखते हैं, ‘उस वक्त तक ऑर्गनाइजर को 13 साल हो चुके थे, और
कम सर्कुलेशन के बावजूद वो पढ़े लिखे तबके में अपनी अच्छी पहचान बना चुका था। उसके
एडिटर के.आर. मलकानी, जो खुद एक अच्छे राइटर थे, मुझे सिंध में प्रचारक के दिनों से जानते थे, आजादी
से पहले ही। हमने 1946 में अपनी ओटीसी (संघ का ट्रेनिंग कैम्प) नागपुर में साथ साथ
किया था। वो मुझे ना केवल एक संघ कार्यकर्ता बल्कि राजस्थान के ऑर्गनाइजेर
कॉरस्पोंडेंट के तौर पर भी जानते थे। उस वक्त में राजस्थान में राजनीतिक हलचलों और
विधान सभा की गतिविधियों पर रिपोर्ट भेजा करता था। अब मैं उनका स्टाफ था, उन्होंने मुझे काफी क्रिएटिव फ्रीडम दी। बहुत जल्द अखबार में मेरे तीन
कॉलम अलग अलग नामों से शुरू हो गए।’
अपनी सैलरी के बारे में उन्होंने लिखा कि, ‘उस वक्त मेरी सैलरी
केवल साढ़े तीन सौ रुपए ही थी। उस वक्त भी ये रकम ज्यादा नहीं थी। ऑर्गनाइजर वैसे
भी कोई कॉमर्शियल पेपर नहीं था, उन दिनों मीडिया में
बहुत अच्छी सैलरी मिलती भी नहीं थी। जो इस फील्ड में आते भी थे, तो या तो वो लोग आते है,जिनका इस फील्ड की तऱफ बहुत
ज्यादा रुझान होता था, या फिर जो बहुत आदर्शवादी होते
थे और अपनी बात रखने के लिए जिन्हें प्लेटफॉर्म चाहिए होता था।’
आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में ये भी लिखा है कि, ‘उस वक्त मेरी
जरुरतें बहुत साधारण थीं, मेरी कमाई मेरे लिए काफी थी।
लेकिन एक रीयल फायदा जो मुझे मिला वो था एक्रीडेशन। मुझे आर.के. पुरम में एक घर
अलॉट हो गया, सरकार सालाना चार पत्रकारों को कोटे से घर
देती थी। हालांकि वेटिंग लिस्ट में मैं बहुत नीचे था और उस साल एलिजिबल भी नहीं था, लेकिन आर.के. पुरम में कॉलोनी नई बसी थी, और उस
वक्त बहुत दूर समझी जाती थी। तो जो लोग एलिजिबल थे, उन्होंने
वहां जाने से मना कर दिया और मकान मुझे मिल गया।’
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