अमिताभ अग्निहोत्री बोले- नेशनल मीडिया वोट नहीं दिला पाता है इसलिए आखिरी के 6 महीने नेता...

देश में टेलिविजन न्यूमज इंडस्ट्री को नई दिशा देने और इंडस्ट्री को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाने में अहम...

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 18 February, 2019
Last Modified:
Monday, 18 February, 2019
Amithbh Agnihotri

समाचार4मीडिया ब्यूरो।।

देश में टेलिविजन न्‍यूज इंडस्‍ट्री को नई दिशा देने और इंडस्‍ट्री को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाने में अहम योगदान देने वालों को सम्मानित करने के लिए 16 फरवरी को नोएडा के होटल रेडिसन ब्लू में ‘एक्‍सचेंज4मीडिया न्‍यूज ब्रॉडकास्टिंग अवॉर्ड्स’ (enba) दिए गए। इनबा का यह 11वां एडिशन था और इस अवसर पर आयोजित समारोह में कई पैनल डिस्कशन भी हुए। ऐसे ही एक पैनल का विषय ‘रीजनल मीडिया: खतरा, खबरें और कमाई’ रखा गया था, जिसमें मीडिया के दिग्गजों ने अपने विचार व्यक्त किए।

समाचार4मीडिया डॉट कॉम के एग्जिक्यूटिव एडिटर अभिषेक मेहरोत्रा ने बतौर सेशन चेयर इसे मॉडरेट किया। इस पैनल डिस्कशन में ‘नेटवर्क18’ (हिंदी नेटवर्क) के एग्जिक्यूटिव एडिटर अमिताभ अग्निहोत्री, सहारा इंडिया टीवी नेटवर्क’ के ग्रुप एडिटर मनोज मनु, ‘जनतंत्र टीवी’ के एडिटर-इन-चीफ वाशिंद मिश्र, इंडिया न्यूज’ के चीफ एडिटर (मल्टीमीडिया) अजय शुक्ल, ‘पीटीसी नेटवर्क’ के मैनेजिंग डायरेक्टर-प्रेजिडेंट रबिंद्र नारायण और ‘बीबीसी गुजराती’ के एडिटर अंकुर जैन शामिल रहे।

पैनल डिस्कशन के दौरान अभिषेक मेहरोत्रा द्वारा यह पूछे जाने पर कि मीडिया पर खतरों के बीच कितना ताकतवर है मीडिया? अमिताभ अग्निहोत्री का कहना था, ‘जहां तक पत्रकारिता में खतरे की बात है तो वह तब पैदा हो रहा है, जब आप खबर में किसी भी कारण से कोई रंग मिलाने की कोशिश करते हैं। खबर को खबर की तरह जाने दीजिए, कोई खतरा नहीं रहेगा। मैंने तमाम जगह काम किया है, लेकिन आज तक मेरे साथ कभी ऐसा नहीं हुआ कि रात में कहीं मुझे जाते समय कभी किसी ने रोककर खबर को लेकर धमकाया हो कि आपने खबर क्यों लिखी। इसलिए खतरा वहां से नहीं होता, बल्कि उसे मीडिया के गले बांध दिया जाता है। कहा जाता है कि मीडिया पर खतरा है, लेकिन जब जांच होती है तो पता चलता है कि खतरा मीडिया पर नहीं, बल्कि उस व्यक्ति पर होता है, जो मीडिया की आड़ में कुछ और करना चाहता है। इसे समझने की जरूरत है कि क्या वास्तव में मीडिया पर कोई खतरा है अथवा नहीं।’

यह पूछे जाने पर कि रीजनल मीडिया कितना ताकतवर है? अमिताभ अग्निहोत्री का कहना था, ‘अमेरिका-यूरोप समेत विदेश की बात करें तो वहां पर तो कोई एक नेशनल मीडिया हो सकता है, लेकिन हमारे देश में कोई भी चीज नेशनल नहीं हो सकती है। जितनी भाषाएं, जितनी बोली, जितना भौगोलिक अंतर और वर्णभेद हमारे देश में है, वह आपको कहीं देखने के लिए नहीं मिलेगा। दुनिया में कहीं भी चले जाइए, जितनी बोली और मजहब हमरे देश में हैं, वह और कहीं नहीं हैं। इसलिए 80 के दशक तक चला नेशनल और रीजनल अखबार/चैनल का कॉन्सेप्ट ही खत्म हो गया है। भारत जैसे देश में कोई भी नेशनल अखबार/चैनल नहीं हो सकता है। जैसे-राजनीति की बात करें तो पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक तो ठीक रहा, लेकिन उनके बाद कोई भी पार्टी पूरे देश को एक सूत्र में नहीं पिरो पाई। कांग्रेस द्वारा क्षेत्रीय अस्मिताओं को न संभाल पाने का ही ये परिणाम हुआ कि महाराष्ट्र में बाला साहेब ठाकरे और पंजाब में प्रकाश सिंह बादल आदि नेता उभरकर आए।’

उन्होंने कहा, ‘जहां तक रीजनल मीडिया की बात है तो मेरा मानना है कि रीजनल की ताकत का असली अंदाजा तब होता है, जब चुनाव आता है। साढ़े चार साल तक नेशनल की बात करने वालों को तब रीजनल मीडिया की याद सताने लगती है, क्योंकि उन्हें पता होता है कि सिर्फ तथाकथित ‘नेशनल मीडिया’ से वोट नहीं मिलने वाला है, इसलिए रीजनल मीडिया पर कवरेज की चाहत बढ़ जाती है। जैसे- चुनाव से पहले साढ़े चार साल तक नेताओं द्वारा खूब अंग्रेजी बखारी जाती है। मेरे अब तक के पत्रकारीय जीवन में सात लोकसभा चुनाव हुए, जिसमें मुझे लगभग पूरे हिंदुस्तान में जाकर जानने-समझने का मौका मिला, लेकिन मैंने किसी भी नेता को अंग्रेजी में वोट मांगते हुए नहीं देखा। जहां भी ये नेता लोग जाते हैं, वहीं की भाषा में ढलकर बात करने की कोशिश करते हैं। यही रीजनल मीडिया की ताकत है।’

सोशल मीडिया के इस दौर में क्रेडिबिलिटी पर उठ रहे सवालों के बारे में अभिषेक मेहरोत्रा ने अमिताभ अग्निहोत्री से जानना चाहा कि रीजनल मीडिया पर पेड न्यूज के आरोप लगते रहते हैं। इस तरह की बातें भी सामने आती हैं कि एक दौर था जब अखबार छपकर बिकते थे, लेकिन अब अखबार बिककर छपते हैं, ऐसे में वे क्षेत्रीय मीडिया की क्रेडिबिलिटी को कितनी गंभीरता से लेते हैं? इस पर अमिताभ अग्निहोत्री का कहना था, ‘मैं पेड न्यूज के अस्तित्व को नकार नहीं रहा हूं। पेड न्यूज है लेकिन यह वर्गीकरण मुझे कतई मंजूर नहीं है कि यह क्षेत्रीय में है और नेशनल में नहीं है। कहने का मतलब है कि रेट अलग हैं लेकिन ‘धंधा’ सब जगह वही हो रहा है। इस बारे में देश के एक बहुत राजनेता ने एक पब्लिक मंच पर देश के एक बड़े अखबार पर पेड न्यूज का आरोप लगाया था। इस तरह की समस्याएं हर दौर में रहेंगी, लेकिन ये व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह कितना ईमानदार है।’  

उन्होंने कहा, ‘मीडिया के कुछ लोगों को ये गलतफहमी हो सकती है कि पेड न्यूज भी चल जाएगी। लेकिन जनता इन चीजों को सब समझती है। वह अनपढ़ तो हो सकती है, अल्प शिक्षित हो सकती है, लेकिन विवेक शून्य नहीं हो सकती है। जनता ये समझ जाती है कि टीवी अथवा अखबार में जो आ रहा है, उन सबके पीछे कौन है। मेरा मानना है कि यदि पेड न्यूज से ही जनता प्रभावित होती तो 1952 के बाद से तमाम चुनाव हुए है, उनमें कोई सरकार जाती ही नहीं। तबसे सरकार बदल रही हैं। तब से यदि सरकारें बदल रही हैं, तो इसका मतलब है कि जनता सब समझ रही है, सिर्फ प्रचार से ही कुछ नहीं होता। चुनाव में जनता खुद विश्लेषण करती है और उसी हिसाब से अपनी राय बनाती है। हालांकि, अब सोशल मीडिया के आ जाने से राय बनाने में थोड़ी समस्या जरूर आ गई है, लेकिन यह समस्या इतनी बड़ी नहीं है कि देश की जनता अपना विवेक खो दे।’

पैनल डिस्कशन में अभिषेक मेहरोत्रा द्वारा यह पूछे जाने पर कि आजकल टीवी एंकर्स पर तमाम आरोप लगते है कि वे अपना शो खुद करते हैं और उसे हाईजैक भी कर लेते हैं, के बारे में अमिताभ अग्निहोत्री का कहना था, ‘यह सही है कि एंकर उस एक घंटे का राजा होता है, लेकिन इनकी रेटिंग जनता ही तय करती है। चाहे अभिनेता-अभिनेत्री हों, एंकर्स हों अथवा खिलाड़ी हो, वह आत्मुग्धता का शिकार तो हो सकते हैं, लेकिन उनकी रेटिंग जनता ही तय करेगी कि कौन कहां खड़ा है।’

मीडिया में स्ट्रिंगर्स की क्रेडिबिलिटी पर उठने वाले सवालों के बारे में अमिताभ अग्निहोत्री ने एक उदाहरण देते हुए बताया, ‘एक बड़े अखबार का दिल्ली से एडिशन लॉन्च हुआ तो मुझे वहां पर एक अहम जिम्मेदारी दी गई। वहां पर एक सज्जन हमारे एक मित्र की सिफारिशी चिट्ठी लेकर आए, जो आर्थिक रूप से काफी संपन्न दिखाई दे रहे थे। रियल एस्टेट का काम कर रहे उन सज्जन का कहना था कि आप मुझे अखबार के नाम पर समाजसेवा का मौका दे दो, बाकी ऑफिस का खर्चा, स्टाफ का खर्च आदि की कोई चिंता वाली बात नहीं है। वो मैं संभाल लूंगा, बस मेरा प्रेस कार्ड बन जाए। कहने का मतलब है कि कई स्ट्रिंगर्स की आर्थिक स्थिति में 20 साल में मामूली रूप से सुधार हुआ है, जबकि मैंने ऐसे भी स्ट्रिंगर्स देखे हैं, जिनके घर में 20 एसी लगे हैं। ऐसे स्ट्रिंगर्स तो छह-छह महीने अपनी सैलरी नहीं उठाते हैं और शहर में भी उनका काफी जलवा होता है। इसका मतलब वो पत्रकारिता नहीं कर रहे हैं, लेकिन ऐसे लोगों के लिए हम पूरी पत्रकारिता को कठघरे में नहीं खड़ा कर सकते हैं। मेरे कहने का आशय है कि जो वास्तव में पत्रकारिता कर रहा है, उसका सम्मान आज भी है।’

आप ये पूरी चर्चा नीचे विडियो पर क्लिक कर भी देख सकते हैं...

 

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